शनिवार, 10 जुलाई 2010

माओवादी आतंकवाद सबसे बड़ा खतराःसंजय


भारतीय लोकतंत्र में नक्सली हिंसा पर व्याख्यान
पटना। माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय, भोपाल के जनसंचार विभाग के अध्यक्ष संजय द्विवेदी का कहना है कि माओवादी आतंकवाद से अब निर्णायक जंग लड़ने की जरूरत है क्योंकि यह देश के लोकतंत्र के सामने सबसे बड़ा संकट है। देश के सबसे गरीब 165 जिलों में काबिज माओवादी प्रतिवर्ष दो हजार करोड़ की लेवी वसूलकर हमारे गणतंत्र को नष्ट करने की साजिशों में लगे है। वे पटना (बिहार) स्थित बिहार उद्योग परिसंघ के सभागार में विश्व संवाद केंद्र द्वारा आयोजित व्याख्यानमाला में “भारतीय लोकतंत्र में नक्सली हिंसा” विषय पर मुख्यवक्ता के रूप में अपने विचार व्यक्त कर रहे थे।
श्री द्विवेदी ने कहा कि आज हम विदेशी विचारों और विदेशी मदद से देश को तोड़ने के लिए चलाए जा रहे एक घोषित युद्ध के सामने हैं। जो लोग 2050 तक भारत की राजसत्ता पर कब्जे का स्वप्न देख रहे हैं हम किस तरह उनके प्रति सहानुभूति रख सकते हैं। उन्होंने कहा कि क्या हिंसा,आतंक और खूनखराबे का भी कोई वाद हो सकता है। हिंदुस्तान के अनाम, निरीह लोग जो अपनी जिंदगी की जद्दोजहद में लगे हैं उनके परिवारों को उजाड़ कर आप कौन सी क्रांति कर रहे हैं। जिस जंग से आम आदमी की जिंदगी तबाह हो रही हो उसे जनयुद्ध आप किस मुंह से कह रहे हैं। श्री द्विवेदी ने सवाल किया कि आखिर हमारी सरकारें और राजनीति नक्सलवाद के खिलाफ इतनी विनीत क्यों है। क्या वे वास्तव में नक्सलवाद का खात्मा चाहती हैं। देश के बहुत से लोगों को शक है कि नक्सलवाद को समाप्त करने की ईमानदार कोशिशें की जा रही हैं। देश के राजनेता, नौकरशाह, उद्योगपति, बुद्धिजीवियों और ठेकेदारों का एक ऐसा समन्वय दिखता है कि नक्सलवाद के खिलाफ हमारी हर लड़ाई भोथरी हो जाती है। अगर भारतीय राज्य चाह ले तो नक्सलियों से जंग जीतनी मुश्किल नहीं है।
उन्होंने भारतीय बुद्धिजीवियों की भूमिका पर सवाल खड़े करते हुए कहा कि शब्द चातुर्य से आगे बढ़कर अब नक्सलवाद या माओवाद को पूरी तरह खारिज करने का समय है। किंतु हमारे चतुर सुजान विचारक नक्सलवाद के प्रति रहम रखते हैं और नक्सली हिंसा को खारिज करते हैं। यह कैसी चालाकी है। माओवाद का विचार ही संविधान और लोकतंत्र विरोधी है, उसके साथ खड़े लोग कैसे इस लोकतंत्र के शुभचिंतक हो सकते हैं। यह हमें समझना होगा।
कार्यक्रम की अध्यक्षता बिहार विधान परिषद् के सभापति ताराकांत झा ने की। इस अवसर पर श्री झा ने कहा कि भारतीय लोकतंत्र में नक्सली हिंसा वर्तमान परिप्रेक्ष्य में सुरसा की तरह मुंह फैलाए हुए है। देश का विकास इनके कारण अवरूद्ध हो गया है। श्री झा ने कहा कि साम्यवादी और माओवादी दोनों का गोत्र एक है। बिहार की सीमा नेपाल से सटे होने के कारण यहां हमेशा नक्सली घटना की आशंका बनी रहती है।
इस अवसर बिहार के वरिष्ठ पत्रकार एवं ‘आज ’ के पूर्व संपादक पारसनाथ सिंह को देशरत्न राजेंद्र प्रसाद पत्रकारिता शिखर सम्मान से सम्मानित किया गया। इसके अलावा सुश्री शालिनी सिंह (ईटीवी,पटना), अरूण अभि (दैनिक हिंदुस्तान) को भी सम्मानित किया गया। आयोजन में ‘बिहार में पत्रकारिता’ पर केंद्रित पुस्तिका का विमोचन भी हुआ। आयोजन में केंद्र के अध्यक्ष प्रकाश नारायण सिंह, डा. अर्जुन तिवारी, डा.शत्रुध्न प्रसाद, रामदेव प्रसाद, संजीव सिंह, विमल कुमार सहित अनेक गणमान्य नागरिक मौजूद थे। कार्यक्रम का संचालन प्रख्यात लोकगायिका श्रीमती शांति जैन ने किया।

शुक्रवार, 9 जुलाई 2010

कालजयी साहित्यकार मुक्तिबोध की पत्नी का निधन


रायपुर।
प्रसिद्ध साहित्यकार स्वर्गीय गजानन माधव मुक्तिबोध की पत्नी श्रीमती शांता मुक्तिबोध का निधन गुरुवार रात हो गया। उनकी उम्र 88 वर्ष थी। वे लंबे समय से अस्वस्थ चल रही थीं। शुक्रवार सुबह 11 बजे उनका अंतिम संस्कार रायपुर के देवेंद्र नगर श्मशानघाट में किया गया। वे रमेश, दिवाकर, गिरीश व दिलीप मुक्तिबोध की माता थीं। उन्हें मुखाग्नि उनके कनिष्ठ पुत्र गिरीश मुक्तिबोध ने दी।कालजयी साहित्यकार गजानन माधव मुक्तिबोध की जीवन संगिनी के तौर पर संघर्ष के दिनों उनका साए की तरह हर घड़ी उन्होंने साथ निभाया। इस बात का जिक्र व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई, नेमीचंद्र जैन, अशोक वाजपेयी जैसे दिग्गज साहित्यकारों ने अपने संस्मरणों में प्रमुखता से किया है। पति के निधन के बाद बच्चों को पढ़ाने-लिखाने के साथ उनको मुकाम दिलाने में अहम भूमिका निभाई। वे मुक्तिबोध की स्मृति में होने वाले केवल चुने हुए कार्यक्रमों में ही हिस्सा ले पाती थीं।

शांता मुक्तिबोध का निधन

रायपुर. 9 जुलाई 2010

सुप्रसिद्ध साहित्यकार गजानन माधव मुक्तिबोध की पत्नी श्रीमती शांता मुक्तिबोध का गुरुवार की रात रायपुर में निधन हो गया. 88 वर्ष की शांता मुक्तिबोध लंबे समय से अस्वस्थ चल रही थीं.
1939 में गजानन माधव मुक्तिबोध के साथ प्रेम विवाह करने वाली शांता जी ने मुक्तिबोध जी के हर सुख-दुख में साथ निभाया. गजानन माधव मुक्तिबोध के निधन के बाद उन्होंने अपने बच्चों का लालन-पालन और बेहतर शिक्षा देने में कोई कसर नहीं छोड़ी. शांता जी के बेटे दिवाकर मुक्तिबोध देश के वरिष्ठ पत्रकार हैं, वहीं गिरीश मुक्तिबोध भी पत्रकारिता से संबद्ध हैं. रमेश मुक्तिबोध और दिलीप मुक्तिबोध ने गजानन माधव मुक्तिबोध की अप्रकाशित कृतियों का संपादन किया है।

मंगलवार, 6 जुलाई 2010

इस कठिन समय में उनके बिना


राष्ट्रवादी पत्रकारिता के प्रमुख हस्ताक्षर थे रामशंकर अग्निहोत्री
-संजय द्विवेदी

वे राममंदिर के आंदोलन के व्यापक असर के दिन थे। 1990 के वे दिन आज भी सिरहन से भर देते हैं। तभी मैंने पहली बार वरिष्ठ पत्रकार रामशंकर अग्निहोत्री को विश्व संवाद केंद्र, लखनऊ के पार्क रोड स्थित दफ्तर में देखा था। आयु पर उनका उत्साह भारी था। उनके जीवन के लक्ष्य तय थे। विचारधारा उनकी प्रेरणा थी और कर्म के प्रति समर्पण उनका संबल। वे जानते थे वे किस लिए बने हैं और वे यह भी जानते थे कि वे क्या कर सकते हैं। तब से लेकर रायपुर, भोपाल और दिल्ली की हर मुलाकात में उन्होंने यह साबित किया कि वे न तो थके हैं न ही हारे हैं।
बुधवार सुबह जब रायपुर से डा. शाहिद अली का फोन आया कि अग्निहोत्री जी नहीं रहे तो सहसा इस सूचना पर भरोसा नहीं हुआ। क्योंकि उनकी गति और त्वरा कहीं से कम नहीं हुयी थी, इस विपरीत समय में भी और अपनी बढ़ती आयु के चलते भी। काम करने के अंदाज और तेजी से कहीं भी जा पहुंचने में वे हम नौजवानो से होड़ लेते थे। हम सोचते थे यह आदमी ऐसा क्यूं है। लेकिन पिछले साल जब मध्यप्रदेश की सरकार ने उन्हें अपने प्रतिष्ठित माणिकचंद्र वाजपेयी सम्मान से अलंकृत किया और उस मौके पर मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान,संस्कृति मंत्री लक्ष्मीकांत शर्मा की मौजूदगी में पूर्व सरसंघचालक के.सी.सुदर्शन ने जो कुछ उनके बारे में कहा उसने कई लोगों के भ्रम दूर कर दिए। श्री सुदर्शन ने स्वीकार किया कि वे श्री अग्निहोत्री के ही बनाए स्वयंसेवक हैं और उनके एक वाक्य – “संघ तुमसे सब करवा लेगा” ने मुझे प्रचारक निकलने की प्रेरणा दी। यह एक ऐसा स्वीकार था जो रामशंकर अग्निहोत्री की विचारधारा के प्रति प्रतिबद्धता को जताने के लिए पर्याप्त था। यह बात यह भी साबित करती है कि अगर वे चाहते तो कोई भी उंचाई पा सकते थे किंतु उन्होंने जो दायित्व उन्हें मिला उसे लिया और प्रामणिकता से उसे पूरा किया। आज की राजनीति में पदों की दौड़ में लगे लोग उनसे प्रेरणा ले सकते हैं।
4 अप्रैल, 1926 को मप्र के सिवनी मालवा में जन्में श्री अग्निहोत्री की जिंदगी एक ऐसे पत्रकार का सफर है जिसने कभी मूल्यों से समझौता नहीं किया। वे अपनी युवा अवस्था में जिस विचार से जुड़े उसके लिए पूरी जिंदगी होम कर दी। विचारधारा और लक्ष्यनिष्ठ जीवन के वे ऐसे उदाहरण थे जिस पर पीढ़ियां गर्व कर सकती हैं। पांचजन्य, राष्ट्रधर्म, तरूण भारत, हिंदुस्तान समाचार, आकाशवाणी, युगवार्ता वे जहां भी रहे राष्ट्रवाद की अलख जगाते रहे। उनका खुद का कुछ नहीं था। देश और उसकी बेहतरी के विचार उनकी प्रेरणा थे। राजनीति के शिखर पुरूषों की निकटता के बावजूद वे कभी विचलित होते नहीं दिखे। युवाओं से संवाद की उनकी शैली अद्बुत थी। वे जानते थे कि यही लोग देश का भविष्य रचेंगें। रायपुर में हाल के दिनों में उनसे अनेक स्थानों पर, तो कभी डा. राजेंद्र दुबे के आवास पर जब भी मुलाकात हुयी उनमें वही उत्साह और अपने लिए प्यार पाया। वे सदैव मेरे लिखे हुए पर अपनी सार्थक टिप्पणी करते। अपने विचार परिवार के प्रति उनका मोह बहुत प्रकट था। संपर्कों के मामले में उनका कोई सानी न था। पहली मुलाकात में ही आपका परिचय और फोन नंबर सब कुछ उनके पास होता था और वे वक्त पर आपको तलाश भी लेते। मैंने पाया कि उनमें बढ़ी आयु के बावजूद चीजों को जानने की ललक कम नहीं हुयी थी वे मुझे कभी विश्राम में दिखे ही नहीं। यह ऐसा व्यक्तित्व था जिसकी सक्रियता ही उसकी पहचान थी। हर आयोजन में वे आते और खामोशी से शामिल हो जाते। उन्हें इस बात की कभी परवाह नहीं थी उन्हें नोटिस भी किया जा रहा है या नहीं। मान-अपमान की परवाह उन्होंने कभी नहीं की, इस तरह के मिथ्या दंभ से दूर वे अपने बहुत कम आयु के हम जैसे नौजवानों के बीच भी खुद को सहज पाते तो सत्ता और शासन के शिखरों पर बैठे लोगों के बीच भी। जो व्यक्ति पांचजन्य का प्रबंध संपादक, राष्ट्रधर्म का संपादक, लगभग एक दशक नेपाल में एक हिंदी समाचार एजेंसी का संवाददाता रहा हो, हिंदुस्तान समाचार का प्रधानसंपादक और अध्यक्ष जैसे पदों पर रहा हो, जिसे भारतीय जनता पार्टी ही नहीं देश की राजनीति के प्रथम पंक्ति के सभी राजनेता प्रायः नाम से पुकारते हों, जिसने दर्जन भर देशों की यात्राएं की हों, साहित्य और पत्रकारिता की दुनिया में जिसकी एक बड़ी जगह हो। माधवराव सप्रे संग्रहालय,भोपाल से लेकर इंद्रप्रस्थ साहित्य भारती जैसे संस्थाएं जिसे सम्मानित कर चुकी हों ऐसे व्यक्ति का इस कठिन समय में चला जाना वास्तव में एक बड़ा शून्य रच रहा है। वास्तव में वे एक ऐसे समय में हमसे विदा हुए हैं जब पत्रकारिता पर पेड न्यूज और राजनीति पर जनविरोधी आचरणों के आरोप हैं। देश अनेक मोर्चों पर कठिन लड़ाइयां लड़ रहा है चाहे वह महंगाई, आतंकवाद और नक्सलवाद की शक्ल में ही क्यों न हों। आज हम यह भी कह सकते हैं कि रामशंकर अग्निहोत्री अपने हिस्से का काम कर चुके हैं, पर क्या हमारी पीढ़ी में उनका उत्तराधिकार, उनकी शर्तों पर लेने का साहस है ? शायद नहीं, क्योंकि ये जगह सिर्फ उनकी है और इस विपरीत समय में सारे युद्ध हमें ही लड़ने हैं उनके बिना ही।

सोमवार, 5 जुलाई 2010

खामोश परिसरों में हलचलों का इंतजार



सार्थक प्रतिरोध की शक्ति को जगाएं छात्र संगठन
-संजय द्विवेदी

छात्र आंदोलन के यह सबसे बुरे दिन हैं। छात्र आंदोलनों का यह विचलन क्यों है अगर इसका विचार करें तो हमें इसकी जड़ें हमारी सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक व्यवस्था में दिखाई देंगी। आज के तमाम हिंसक अभियानों व आंदोलनों के पीछे और आगे युवा ही दिखते हैं। यह हो रहा है और हम इसे देखते रहने को मजबूर हैं। क्योंकि स्पष्ट सोच, वैचारिक उर्जा और समाज जीवन में मूल्यों की घटती अहमियत ने ही ऐसे हालात पैदा किए हैं। ऐसे में विघटनकारी तत्वों ने समाज को बदलने की उर्जा रखने वाले नौजवानों के हाथ में कश्मीर, पूर्वोत्तर के सात राज्यों समेत तमाम नक्सलप्रभावित राज्यों में हथियार पकड़ा दिए हैं। भारतीय युवा एवं छात्र आंदोलन कभी इतना दिशाहारा और थकाहारा न था। आजादी के पहले नौजवानों के सामने एक लक्ष्य था। अपने बेहतर कैरियर की परवाह न करके उस दौर में उन्होंने त्याग और बलिदान का इतिहास रचा। भाषा और प्रांत की दीवारें तोड़ते हुए देश के हर हिस्से के नौजवान ने राष्ट्रीय आंदोलन में अपना योगदान किया।
आजादी के बाद बिगड़े हालातः
आजादी के बाद यह पूरा का पूरा चित्र बदल गया। नौजवानों के सामने न तो सही लक्ष्य रखे गए, न ही देश की आर्थिक संरचना में युवाओं का विचार कर ऐसे कार्यक्रम बनाए गए जिससे देश के विकास में उनकी भागीदारी तय हो पाती। इस सबके बावजूद देश के महान नेताओं के प्रभामंडल से चमत्कृत छात्र-युवा शक्ति, उनके खिलाफ अपनी जायज मांगों को लेकर भी न खड़ी हो पायी। क्योंकि उस दौर के लगभग सभी नेता राष्ट्रीय आंदोलन से जुड़े थे और उनकी देशनिष्ठा-कर्त्व्यनिष्ठा पर उंगली उठाना संभव न था। किंतु यह दौर 1962 में चीन-भारत युद्ध में भारत की हार के साथ खत्म हो गया। यह हताशा इस पराजय के बाद व्यापक छात्र-आक्रोश के रूप में प्रकट हुयी। देश के महानायकों के प्रति देश के छात्र-युवाओं के मोहभंग की यह शुरूआत थी।
1962 का यह साल, आजादी मिलने के बाद छात्र-आंदोलन में आई चुप्पी के टूटने का साल था। भारतीय सेनाओं की पराजय से आहत युवा मन को यदि उस समय कोई सार्थक नेतृत्व मिला होता तो निश्चय ही देश की तस्वीर कुछ और होती। इसके तत्काल बाद सरकार ने महामना मालवीय द्वारा स्थापित काशी हिंदू विश्वविद्यालय का नाम बदलकर काशी विश्वविद्यालय रखने का विधेयक लोकसभा में प्रस्तुत किया। इस प्रसंग में पूरे देश के नौजवानों की तीखी प्रतिक्रिया के चलते सरकार को विधेयक वापस लेना पड़ा। अपनी सफलता के बावजूद इस प्रसंग ने छात्र राजनीति को धार्मिक आधार पर बांट दिया। इन्हीं दिनों भाषा विवाद भी गहराया और इसने भी छात्रों को उत्तर-दक्षिण दो खेमों में बांट दिया। दक्षिण में छात्रों के अंग्रेजी समर्थक आंदोलन ने उग्र रूप धारण कर लिया।1967 का यह दौर भाषा आंदोलन तीव्रता का समय था। सरकार द्वारा अंग्रेजी को स्थायी रूप से जारी रखने के फैसले के खिलाफ उत्तर भारत में चले इस आंदोलन को समाज भी व्यापक समर्थन प्राप्त हुआ। कई बड़े साहित्यकारों ने अपनी उपाधियां और पुरस्कार सरकार को लौटाकर अपना जताया। छात्र आंदोलन की व्यापकता और सामाजिक समर्थन के बावजूद सरकारी हठधर्मिता के चलते अंग्रेजी को स्थायित्व देने वाला विधेयक लोकसभा में पारित हो गया। इस आंदोलन ने छात्रों के मन में तत्कालीन शासन के प्रति गुस्से का निर्माण किया। इस दौर में सत्ता से क्षुब्ध नौजवान हिंसक प्रयोगों की ओर भी बढ़े, जिसके फलस्वरूप नक्सली आंदोलन का जन्म और विकास हुआ। जिसके नेता चारू मजूमदार, जंगल संथाल और कानू सान्याल थे। इसके पीछे अहिंसक विचारधारा से उपजा नैराश्य था जिसने नौजवानों के हाथ में बंदूके पकड़ा दीं।
व्यवस्था परिवर्तन के वाहकः
इन अवरोधों के बावजूद नौजवानों का जज्बा मरा नहीं। वह निरंतर सत्ता से सार्थक प्रतिरोध करते हुए व्यवस्था परिवर्तन की धार को तेज करने की कोशिशों में लगा रहा। इन दिनों अखिलभारतीय विद्यार्थी परिषद, समाजवादी युवजन सभाष स्टूडेंट फेडरेशन आफ इंडिया जैसी तीन राजनीतिक शक्तियां परिसरों में सक्रिय थीं। तीनों की अपनी निश्चित प्रतिबद्धताएं थीं। इन संगठनों ने छात्रसंघ चुनावों में अपने हस्तक्षेप से छात्रों के जोश और उत्साह को रचनात्मक दिशा प्रदान की। छात्रों के भीतर जो उत्तेजनाएं थीं उन्हें जिंदा रखकर उसका सही ढंग से इस्तेमाल किया गया। इस दौर में डा. राममनोहर लोहिया के व्यक्तित्व का नौजवानों पर खासा असर रहा।
इस सदी के आखिरी बड़े छात्र आंदोलन की शुरूआत 1974 में गुजरात के एक विश्वविद्यालय के मेस की जली रोटियों के प्रतिरोध के रूप में हुयी और उसने राष्ट्रीय स्तर पर एक ऐतिहासिक छात्र आंदोलन की भावभूमि तैयार की। विद्यार्थी परिषद, युवजन सभा के नेताओं की सक्रियता और जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व संभालने के बाद यह आंदोलन युवाओं की भावनाओं का प्रतीक बन गया। किंतु सत्ता परिवर्तन के बाद कुर्सी की रस्साकशी में संपूर्ण क्रांति का नारा तिरोहित हो गया। रही सही कसर जेपी के असामयिक निधन ने पूरी कर दी। यह भारतीय छात्र आंदोलन के बिखराव, ठहराव और तार-तार होकर बिखरने के दिन थे। नौजवान असहाय और ठगे-ठगे से जनता प्रयोग की विफलता का तमाशा देखते रहने को मजबूर थे।
आदर्शविहीनता ने ली मूल्यों की जगहः
सपनों के इस बिखराव के चलते छात्र राजनीति में मूल्यों का स्थान आर्दशविहीनता ने ले लिया। राजनीति से हुयी अपनी अनास्था और प्रतिक्रिया जताने की गरज से युवा रास्ते तलाशने लगे। आदर्शविहीनता के सबसे बड़े प्रतीक के रूप में तब तक संजय गांधी का उदय हो चुका था। उनके साथ विश्वविद्यालयों में पढ़ने वाली उदंड नौजवानों की एक पूरी फौज थी जो सारा कुछ डंडे के बल पर नियंत्रित करना चाहती थी। जिसके पास आदर्श और नैतिकता नाम की कोई चीज नहीं थी। जेपी आंदोलन में पैदा हुयी युवा नेताओं की इफरात जमात,जनता पार्टी की संपूर्ण क्रांति की विफलता की प्रतिक्रिया में युवक कांग्रेस से जुड़ गयी। यहा ‘संजय गांधी परिघटना’ की जीत हुयी और छात्र आंदोलनों से नैतिकता, आस्था और विचार दर्शन की राजनीति के भाव तिरोहित हो गए। इसके बाद शिक्षा मंदिरों में हिंसक राजनीति, छेड़छाड़, अध्यापकों से दुव्यर्हार, गुंडागर्दी, नकल, अराजकता और अनुशासनहीनता का सिलसिला प्रारंभ हुआ। छात्रसंघ चुनावों में बमों के धमाके सुनाई देने लगे। संसदीय राजनीति की सभी बुराईयां छात्रसंघ चुनावों की अनिर्वाय जरूरत बन गयीं। परिसरों में पठन-पाठन का वातावरण बिगड़ा। छात्र अपने मूल मुद्दों से भटक गए। दलीय राजनीति, जातीय राजनीति, माफियाओं और धनपतियों की धुसपैठ ने छात्रसंघों की प्रासंगिकता पर सवाल खड़े कर दिए। इससे छात्र राजनीति की धीमी मौत का सिलसिला शुरू हो गया। इसी दौर में लखनऊ विश्वविद्यालय छात्रसंघ के अध्यक्ष रवींद्र सिंह की हत्या हुयी और कुछ परिसरों से छात्राओं के साथ दुराचार की खबरें भी आयीं। इन सूचनाओं ने वातावरण को बहुत विषाक्त कर दिया। इससे परिसर संस्कृति विकृत हुयी।
विफल हुआ असम आंदोलनः
1981 में असम छात्र आंदोलन की अनुंगूंज सुनाई देने लगी। लंबे संघर्ष के बाद प्रफुल्ल कुमार महंत असम के मुख्यमंत्री बने। किंतु सत्ता में आने के बाद महंत की सरकार ने बहुत निराश किया। यह सही मायने में पहली बार पूरी तरह छात्र आंदोलन से बनी सरकार थी। जिसकी निराशाजनक परिणति ने छात्र आंदोलनों की नैतिकता और समझदारी पर सवालिया निशान लगा दिए। इस घटाटोप के बीच राजीव गांधी जैसे युवा प्रधानमंत्री के उभार ने युवाओं को एक अलग तरीके से प्रेरित किया किंतु जल्दी ही बोफोर्स के धुंए में सब तार-तार हो गया। फिर विश्वनाथ प्रताप सिंह राष्ट्रीय परिदृश्य पर अपनी भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम के साथ प्रकट हुए। नौजवान उनके साथ पूरी ऊर्जा से लगा और वे देश के प्रधानमंत्री बने। यहां फिर जनता प्रयोग जैसे हाल और सत्ता संधर्ष से नौजवानों को निराशा ही हाथ लगी। मंडल आयोग की रिपोर्ट को हड़बड़ी में लागू करने के चलते नौजवानों के एक तबके में अलग किस्म का आक्रोश नजर आया। इस आंदोलन में हुयी आत्महत्याएं निराशा का चरमबिंदु थीं। ये बताती थीं कि युवा व्यवस्था में अपनी जगह को सिकुड़ता हुआ पाकर कितना निराश है। ऐसा लगा कि नौजवानों के पास अब भविष्य की आशा, आदर्श और भविष्य की इच्छाएं चुक सी गयी हैं। इस दौर ने संधर्ष के मार्ग को लूट के मार्ग में बदल दिया। बड़े आदर्शों की जगह विखंडित आदर्शों ने अपनी जगह बना ली।
छात्रसंघों की प्रासंगिकता पर उठे सवालः
ये परिस्थितियां बताती थीं कि कमोबेश समस्त छात्र संगठन और छात्र नेता राजनीतिक दलों की चेरी बन गए हैं। छात्र संगठनों के एजेंडे भी अब राजनीतिक पार्टियां तय कर रही हैं। ये समूह किसी परिवर्तन का वाहक न बनकर अपनी ही पार्टी का साइनबोर्ड बनकर रह गए हैं। इनके सपने, आदर्श सब कुछ कहीं और तय होते हैं। छात्रसंघों की बदलती भूमिका और घटती प्रासंगिकता ने छात्रों के मन से उनके प्रति सहानुभूति खत्म कर दी है। छात्रसंघ चुनावों को उन मुख्यमंत्रियों ने भी प्रतिबंधित कर रखा है जो छात्र आंदोलन से ही जन्में हैं। जहां चुनाव हो रहे हैं वहां भी मतदान का प्रतिशत गिर रहा है। ऐसा लगता है कि छात्रसंघ अब आम छात्रों की शैक्षणिक और सांस्कृतिक प्रतिभा के उन्नयन का माध्यम नहीं रहे। वे अराजक तत्वों और माफियाओं के अखाड़े बन गए हैं। छात्रसंघों ने सदैव भ्रष्ट राजसत्ता को चुनौती देने का काम किया है किंतु आज वे सत्तासीनों की आंख में गड़ने लगे हैं। छात्रसंघ चुनाव की विकृतियां भी हमारे संसदीय लोकतंत्र ही देन हैं। यहां तर्क यह भी है कि यदि तमाम बुराईयों के बावजूद लोकसभा से लेकर पंचायत के चुनाव हम करा रहे हैं तो छात्रसंघ की प्रतिबंधित क्यों। हमें इन चुनावों में सुधार की बात करनी चाहिए न कि इनका गला घोंटना चाहिए।
कुल मिलाकर देश को अपनी रचनात्मकता और संघर्ष से दिशा देने वाले परिसर आज नैतिकता और संस्कारहीन व्यवहार का पर्याय बन गए हैं। जो परिसर ज्वलंत राष्ट्रीय मुद्दों पर संवाद का केंद्र हुआ करते थे, वे आज मूल्यहीन आपराधिक राजनीति का केंद्र बन गए हैं। जिन छात्रसंघों से निकले छात्रनेताओं ने देश का योग्य मार्गदर्शन किया और राजनीति को दिशा दी वहीं से आज पथभ्रष्ट और टुटपुजियां कार्यकर्ता निकल रहे हैं। ऐसे हालात में छात्रराजनीति के सामने गहरा संकट है। अपने शैक्षिक अधिकारों, निर्धनता, बेरोजगारी और विषमता के खिलाफ इन परिसरों से आवाज नहीं आती। अन्याय के खिलाफ एकजुट होकर लड़ने की प्रवृति भी कम हुयी है। आज की आदर्शविहीनता, बाजारवादी हवाओं में हमारे परिसरों में संस्कृति कर्म के नाम पर फेयरवेल या फ्रेशर्स पार्टियां होती हैं जहां हमारे युवा मस्त-मस्त होकर झूम रहे हैं।परिसर अंततः छात्रों की प्रतिभा के सर्वांगीण विकास का मंच हैं। उन्हें विकसित और संस्कारित होने के साथ लोकतांत्रिक प्रशिक्षण देना भी परिसरों की जिम्मेदारी है ताकि वे जिम्मेदार नागरिक व भारतीय भी बन सकें।
संवाद नहीं, परिसरों में पसरा मौनः
परिसरों का सबसे बड़ा संकट यही है वहां अब संवाद नदारद हैं, बहसें नहीं हो रहीं हैं, सवाल नहीं पूछे जा रहे हैं। हर व्यवस्था को ऐसे खामोश परिसर रास आते हैं- जहां फ्रेशर्स पार्टियां हों, फेयरवेल पार्टियां हों, फैशन शो हों, मेले-ठेले लगें, उत्सव और रंगारंग कार्यक्रम हों, फूहड़ गानों पर नौजवान थिरकें, पर उन्हें सवाल पूछते, बहस करते नौजवान नहीं चाहिए। सही मायने में हमारे परिसर एक खामोश मौत मर रहे हैं। राजनीति और व्यवस्था उन्हें ऐसा ही रखना चाहती है। क्या आप उम्मीद कर सकते हैं आज के नौजवान दुबारा किसी जयप्रकाश नारायण के आह्वान पर दिल्ली की कुर्सी पर बैठी मदांध सत्ता को सबक सिखा सकते हैं। आज के दौर में कल्पना करना मुश्किल है कि कैसे गुजरात के एक मेस में जली हुयी रोटी वहां की तत्कालीन सत्ता के खिलाफ नारे में बदल जाती है और वह आंदोलन पटना के गांधी मैदान से होता हुआ संपूर्ण क्रांति के नारे में बदल जाता है। याद करें परिसरों के वे दिन जब इलाहाबाद, बनारस, लखनऊ, दिल्ली, जयपुर, पटना के नौजवान हिंदी आंदोलन के लिए एक होकर साथ निकले थे। वे दृश्य आज क्या संभव हैं। इसका कारण यह है कि राजनीतिक दलों ने इन सालों सिर्फ बांटने का काम किया है। राजनीतिक दलों ने नौजवानों और छात्रों को भी एक सामूहिक शक्ति के बजाए टुकड़ों-टुकड़ों में बांट दिया है। सो वे अपनी पार्टी के बाहर देखने, बहस करने और सच्चाई के साथ खड़े होने का साहस नहीं जुटा पाते। जनसंगठनों में जरूर तमाम नौजवान दिखते हैं, उनकी आग भी दिखती है किंतु हमारे परिसर नौकरी करने और ज्यादा पैसा कमाने के लिए प्रेरित करने के अलावा क्या कर पा रहे हैं। एक लोकतंत्र में यह खामोशी खतरनाक है। छात्र आंदोलन के दिन तभी बहुरेंगें जब परिसरों में दलीय राजनीति के बजाए छात्रों का स्वविवेक, उनके अपने मुद्दे- शिक्षा, बेरोजगारी, महंगाई, भाषा के सवाल, देश की सुरक्षा के सवाल एक बार फिर उनके बीच होंगें। छात्र राजनीति के वे सुनहरे दिन लौटें तभी लौटगें जब परिसरों से निकलने वाली आवाज ललकार बने। तभी देश का भविष्य बनेगा। देश के पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम इसी भरोसे के साथ परिसरों में जा रहे हैं कि देश का भविष्य बदलने और बनाने की ताकत इन्हीं परिसरों में है। क्या हमारी राजनीति, सत्ता और व्यवस्था के पास नौजवानों के सपनों की समझ है कि वह उनसे संवाद बना पाए।
देश का औसत नौजवान आज भी ईमानदार, नैतिक, मेहनती और बड़े सपनों को सच करने के संधर्ष में लगा है क्या हम उसके लिए यह वातावरण उपलब्ध कराने की स्थिति में हैं। हमें सोचना होगा कि ये भारत के लोग जो नागरिक बनना चाहते हैं उन्हें व्यवस्था सिर्फ वोटर और उपभोक्ता क्यों बनाना चाहती है। ऐसे कठिन समय में जब बाजार हमारी सभी स्वाभाविक प्रवृत्तियों पर अपनी रूचियों का आरोपण कर रहा है, ऐसे में हर तरह के आंदोलन,संवाद और बहसें खतरे में हैं। इसे बचाने के लिए के हम सभी को अपने-अपने तरीके से काम करने की जरूरत है क्योंकि तभी लोकतंत्र बचेगा और मजबूत भी होगा। खामोश परिसर हमारे लिए खतरे की घंटी हैं क्योंकि वे कारपोरेट के पुरजे तो बना सकते हैं पर मनुष्य बनाने के लिए संवाद, विमर्श और लड़ाइयां जरूरी हैं। इसलिए हमें नए जमाने के नए हथियारों और नए तरीकों से फिर से उस आंदोलन की धार को पाना होगा जिसे गवां बैठने का दुख हर संवेदनशील आदमी को बेतरह मथ रहा है।

शनिवार, 3 जुलाई 2010

बहादुर सेना, कमजोर सरकार और बेबस लोग !

देशतोड़क राजनीति से सावधान होने की जरूरत
- संजय द्विवेदी

दिल्ली में क्या इससे कमजोर सरकार कभी आएगी ? कमजोर इसलिए क्योंकि इस सरकार के लिए देश के सम्मान, देश की जनता के जान-माल और हमारे सेना-सुरक्षा बलों की जान की कोई कीमत नहीं है। हो सकता है कि हालात इससे भी बुरे हों। किंतु अब यह कहने में कोई संकोच नहीं कि दिल्ली में इतनी बेचारी, लाचार और कमजोर सरकार आज तक नहीं आयी। थोपे गए नेतृत्व और स्वाभाविक नेतृत्व का अंतर भी इसी परिघटना में उजागर होता है। दिल्ली में एक ऐसे आदमी को देश की कमान दी गयी है जो आर्थिक मामलों पर जब बोलता है तो दुनिया सुनती है (बकौल बराक ओबामा)। किंतु उसके अपने देश में पिछले छः सालों से उसके राज में महंगाई ने आम आदमी का जीना मुहाल कर रखा है किंतु वह आदमी अपने देश की महंगाई पर कुछ नहीं बोलता। परमाणु करार विधेयक पास कराने के लिए अपनी सरकार तक गिराने की हद तक जाने वाले हठी प्रधानमंत्री को इससे फर्क नहीं पड़ता कि उनकी सरकार के कार्यकाल में लोगों का जिंदगी बसर करना कितना मुश्किल है और कितने किसान उनके राज में आत्महत्या कर चुके हैं। यह एक ऐसी सरकार है जिसे इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता नहीं पिछले पांच सालों में अकेले नक्सली आतंकवाद में ग्यारह हजार लोग मारे जा चुके हैं। वह इस बात पर विमर्श में लगी है कि सेना का इस्तेमाल हो या न हो। क्या ऐसा इसलिए कि नक्सली आतंक एक ऐसे इलाके में है जहां आम आदिवासी रहते हैं जिन्हें मिटाने और समाप्त करने का साझा अभियान नक्सली नेताओं और सरकार ने मिलकर चला रखा है। झारखंड से लेकर बस्तर तक की जमीन जहां उसके असली मालिक वनपुत्र और आदिवासी रहते हैं, एक युद्ध भूमि में तब्दील हो गयी है। जहां विदेशी विचार(माओवाद) और विदेशी हथियारों से लैस लोग 2050 तक भारतीय गणतंत्र पर कब्जे का स्वप्न देख रहे हैं। फिर भी हमारी सरकार को इस इलाके में सेना नहीं चाहिए। भले नक्सली तीन माह में सौ से ज्यादा सीआरपीएफ जवानों को अकेले बस्तर में ही न मार डालें। वे हजारों करोड़ की लेवी वसूलते हुए इन जंगलों में लैंड माइंस बिछाते रहें और हमारा राज्य रोम के जलने पर नीरो की तरह बांसुरी बजाता रहे।
अब थोड़ा देश के मस्तक पर नजर डाल लें। यह जम्मू कश्मीर का इलाका है जो कभी धरती का स्वर्ग कहा जाता था। आज इस क्षेत्र को हमारी सरकारों की घुटनाटेक और कायर नीतियों ने घरती के नरक में बदल दिया है। हमारी सेना के अलावा इस पूरे इलाके में भारत मां की जय बोलने वाला कोई नहीं बचा है। कश्मीर के पंडितों के विस्थापन के बाद इस पूरे इलाके में पाकपरस्त आतंकी संगठनों का हस्तक्षेप है। उनके रास्ते में सबसे बड़ी बाधक भारतीय सेना है। हमारी महान सरकार अब सेना के हाथ से भी कवच-कुंडल छीनने पर आमादा है ताकि कश्मीर में भारतीय राज्य की एक और पराजय सुनिश्चित की जा सके। इस काम में दिल्ली की सरकार बराबर की भागीदार है। कश्मीर के मुख्यमंत्री और उनके पिता का सर्वाधिक दबाव इस बात पर है कि आर्म्ड फोर्सेस स्पेशल पावर्स एक्ट में बदलाव किया जाए। यह बदलाव क्यों किया जाए इसका उत्तर किसी के पास नहीं है। किंतु बदलाव होने जा रहा है और प्रधानमंत्री ने उसे मंजूरी भी दे दी है। सेनाध्यक्षों के विरोध के बावजूद पाकिस्तान के झंडे और “गो इंडियंस” का बैनर लेकर प्रर्दशन करने वालों को खुश करने के लिए हमारी सरकार आर्म्ड फोर्सेस स्पेशल पावर्स एक्ट में बदलाव करने जा रही है। यह एक ऐसी सूचना है जो हर भारतीय को हतप्रभ करने के लिए काफी है। देश के साठ सालों बाद भी हमारी सरकार अपनी ही सेना के खिलाफ खड़ी है। क्या भारतीय की राजनीति इतनी दिशाहारा और थकाहारा हो चुकी है? क्या हमारी सरकारें अपना विवेक खो चुकी हैं? वे सेना को मानवता और संवेदनशीलता सिखा रही है। नए बदलाव में सेना शत्रु को पकड़ने और गोली चलाने का अधिकार खो देगी। फिर सेना की जरूरत ही क्या है। ऐसे हालात में कहीं यह कश्मीर को पाक को सौंप देनी की एक लाचार कवायद तो नहीं है। आतंकवाद के खिलाफ जब हमें कड़े संदेश देने की जरूरत है तब हम अपनी सेना को ही कमजोर बनाना चाहते हैं। सच्चाई तो यह है कि हमारी सेना ने अनेक अवसरों पर अपने अप्रतिम साहस के प्रदर्शन से भारत के मान को बचाया है।जबकि राजनैतिक नेतृत्व सदा जमीनें छोड़ता, युद्धबंदियों को छोड़ता और समझौते करता आया है। इन्हीं समझौतों और वोट की कथित लालच ने हमारे नेताओं को इतना बेचारा बना दिया है कि हमारे नेता ही कहते हैं कि अगर अफजल गुरू को फांसी दी गयी तो कश्मीर सुलग जाएगा। तो आप बताएं इस समय कश्मीर क्यों सुलग रहा है। किसे फांसी दी गयी है। कश्मीर के नेता भारत के साथ रहने की कीमत वसूल रहे हैं। उन्हें इस देश से कोई लेना-देना नहीं है। नहीं तो वे विस्थापित हिंदुओं की वापसी की बात क्यों नहीं करते, पर उन्हें तो सेना की वापसी चाहिए ताकि वे आराम से पाकिस्तानी हुक्मरानों की गोद में जा बैठें। जो अब्दुला परिवार सालों से कश्मीरी राजनीति का सिरमौर बना है, भारत ने उनका इतना सम्मान किया पर वे आज अफजल गुरू की फांसी रोकने की अपीलें कर रहे हैं। दूसरा मुफ्ती परिवार भारतीय संविधान की शपथ लेकर देश का गृहमंत्री बनता है तो अपनी ही बेटी का अपहरण करवाकर आतंकियों की रिहाई का नाटक रचता है। दुर्भाग्य से ऐसे ही लोग भारत भाग्य विधाता बनकर बैठे हैं। इसी तरह पूर्वांचल के सात राज्यों का बुरा हाल है। असम से लेकर मणिपुर तक बुरी खबरें हैं। बांग्लादेशी घुसपैठियों ने असम से लेकर पश्चिम बंगाल तक हालात बदतर कर रखें हैं। हमारी सरकारें उनकी मिजाजपुर्सी में लगी हैं। राजनैतिक दलों के कार्यकर्ताओं को सिर्फ पांच साल और वोट बैंक दिखता है। सो वे घुसपैठियों के राशन कार्ड बनवाने, मतदाता परिचय पत्र बनवाने और अवैध बस्तियां बसाने में सहयोगी बनते हैं। जाहिर तौर पर इस देश की राष्ट्रीय सुरक्षा का प्रश्न बहुत विकराल स्वरूप ले चुका है।
हम अपनी सेना और सुरक्षा बलों को लाचार बना कर पहले से तैयार बैठे शत्रुओं को अवसर सुलभ करा रहे हैं। अभी पाक प्रेरित आतंकवाद के लिए भी हमारी अपनी ताकत क्या है। हमारी सरकार को हर शिकायत लेकर अमरीका के दरबार में जाना पड़ता है। कल अगर सेना का भी मनोबल टूट गया तो उस दृश्य की कल्पना करना भी मुश्किल है कि हमारा क्या होगा। देश इस देश के लोगों का है, जो इसे बेबस निगाहों से देख रहे हैं। यह देश अगर दलित, मुस्लिम और ईसाई जैसी राजनीतिक बोलियों से चलाया जाएगा तो इसे कोई बचा नहीं सकता। शायद इसीलिए हम देश का तेजी से विघटन होता देख रहे है। यह विघटन चरित्र का है, नैतिकता का है, देशभक्ति का भी है। देश का राजनीतिक नेतृत्व किसी भी प्रकार का आर्दश प्रस्तुत कर पाने में विफल है। सारे संकटों में मौन ही हमारे राजनैतिक नेतृत्व का आर्दश बन गया है। आप देखें तो हाल के तीन बड़े संकटों भोपाल गैस त्रासदी, कश्मीर संकट और महंगाई पर देश की सबसे ताकतवर नेता सोनिया गांधी और उनके पुत्र राहुल गांधी का कोई बयान नहीं आया है। ऐसा नेतृत्व क्या आपको संकटों से निजात दिला सकता है या आपकी जिंदगी के अँधेरों से मुक्ति दिला सकता है। प्रधानमंत्री से कोई उम्मीद करना तो व्यर्थ ही है क्योंकि उनकी नजर में हम भारत के लोगों का कोई मतलब नहीं है। ऐसे घने अंधेरे में आशा की कोई किरण नजर आती है तो वह शक्ति जनता के पास ही है कि वह अपने राजनीतिक नेतृत्व पर कोई ऐसा दबाव बनाए जिससे वह कम से कम देश के हितों, सुरक्षा के साथ सौदेबाजी न कर सके। देश में एक ऐसा अराजनैतिक अभियान शुरू हो जहां देश सर्वोपरि है, इस भावना का विस्तार हो सके। वरना हमारी राजनीति हमें यूं ही बांटती,तोड़ती और कमजोर करती रहेगी।

शुक्रवार, 2 जुलाई 2010

घुटनाटेक नीतियों से बदहाल देश

राजनीतिक नेतृत्व की अक्षमता का शिकार हो रहे हैं सुरक्षाबल

-संजय द्विवेदी

पिछले दिनों ‘नक्सलवाद और लोकतंत्र ’ विषय पर एक व्याख्यान देने के लिए मैं बिहार की राजधानी पटना में था। इस आयोजन में ही बिहार विधानपरिषद के सभापति और विद्वान राजनेता ताराकांत झा ने मुझसे एक सवाल किया कि “आप बताएं कि कौन सा ऐसा एक मुद्दा या विषय है जिस पर पूरा देश एकमत है ?” जाहिर तौर पर श्री झा के सवाल का मेरे पास कोई जवाब नहीं था। मैं इतना ही कह पाया कि माननीय सांसदों के वेतन-भत्तों के सवाल पर तो पूरी संसद एकमत है, पर श्री झा का सवाल इस तरह हवा में उड़ाने का नहीं है। यह देश का एक ऐसा प्रश्न है जिसके ठोस और वाजिब उत्तर की तलाश हमने आज न की तो कल बहुत देर हो जाएगी। सही मायने में यह एक ऐसा सवाल है जिसका उत्तर न हमारी राजनीति के पास है न हम भारत के लोगों के पास।
पिछले पांच सालों में जिस नक्सली आतंकवाद ने 11 हजार लोगों की जान ले ली है, उस पर भी हम विमर्श कर रहे हैं- कि यह गलत है या सही। बाढ़, आपदाओं और शहरी दंगों में सेना को बुला लेने वाली हमारी सरकारें देश के लोकतंत्र के खिलाफ धोषित युद्ध (नक्सलवाद) के समन के लिए सेना को बुलाने के खिलाफ हैं। जिस कश्मीर को घरती का स्वर्ग कहा जाता था उसे नरक में बदलने वालों के हाथ में हमारी सरकारें और उनकी नीतियां बंधक हैं। पाकिस्तान के झंडे और “गो इंडियंस” का बैनर लेकर प्रर्दशन करने वालों को खुश करने के लिए हमारी सरकार सेनाध्यक्षों के विरोध के बावजूद आर्म्ड फोर्सेस स्पेशल पावर्स एक्ट में बदलाव करने जा रही है। क्या हम एक ऐसे देश में रह रहे हैं जिसकी घटिया राजनीति ने हम भारत के लोगों को इतना लाचार और बेचारा बना दिया है कि हम वोट की राजनीति से आगे की न सोच पाएं। क्या हमारी सरकारों और वोट के लालची राजनीतिक दलों ने यह तय कर लिया है कि देश और उसकी जनता का कितना भी अपमान होता रहे, हमारे सुरक्षा बल रोज आतंकवादियों-नक्सलवादियों का गोलियां का शिकार होकर तिरंगें में लपेटे जाते रहें और हम उनकी लाशों को सलामी देते रहें-पर इससे उन्हें फर्क नहीं पड़ेगा। देश की महान राजनीति में सालों से जिस एक परिवार ने कुछ खास कारणों से जम्मू-कश्मीर में राज किया और आज भी कर रहे हैं, उनकी सुनिए वे कहते हैं अफजल गुरू को फांसी दी तो कश्मीर सुलग जाएगा। आज भी तो कश्मीर सुलग रहा है तो किसको फांसी दी गयी है। घाटी से जब कश्मीरी पंडितों को भागने के लिए मजबूर किया गया तब यह परिवार कहां था। आज उनकी सरकार है तो वे कश्मीरी पंडितों को वापस लाने की बात नहीं करते, अफजल गुरू की पैरवी में लगे हैं। हमारे सुरक्षा बल और सेना इस घटिया राजनीति की सबसे बड़ी शिकार है, वे जान हथेली पर लेकर कठिन परिस्थितियों में इस लोकतंत्र की जड़ों की खोखला करने वालों के खिलाफ लड़ रहे हैं और हमारी राजनीति उन्हीं देशद्रोहियों को अपनी गलत नीतियों से ताकत दे रही है। यह कितना गजब है कि सारे पड़ोसी देशों से हमारे रिश्ते खराब हैं पर उनके नागरिक बेरोक-टोक भारत में आ- जा सकते हैं। घुसपैठ पर हमारे महान देश के पास कोई नीति नहीं है और हमारे राजनीतिक दलों के कार्यकर्ता इस घुसपैठ को वैध करार देने के लिए इन घुसपैठियों की बस्तियां बसाने, मतदाता परिचय पत्र बनवाने, राशन कार्ड बनवाने में लगे हैं। क्योंकि इन सावन के अंधों को हर घुसपैठिया राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए संकट कम, वोट बैंक ज्यादा दिखता है। असम और पश्चिम बंगाल के तमाम जिलों के हालात और देश के तमाम महानगरों के हालात इन्हीं ने बिगाड़ रखे हैं। किंतु भारत तो एक धर्मशाला है।

सेनाध्यक्षों के विरोध के बावजूद आर्म्ड फोर्सेस स्पेशल पावर्स एक्ट में बदलाव की गंदी राजनीति से हमारे सुरक्षाबलों के हाथ बंध जाएंगें। हमारी सरकार इस माध्यम से जो करने जा रही है वह देश की एकता-अखंडता को छिन्न-भिन्न करने की एक गहरी साजिश है। जिस देश की राजनीति के अफजल गुरू की फांसी की फाइलों को छूते हाथ कांपते हों वह न जाने किस दबाव में देश की सुरक्षा से समझौता करने जा रही है। यह बदलाव होगा हमारे जवानों की लाशों पर। इस बदलाव के तहत सीमा पर अथवा अन्य अशांत क्षेत्रों में डटी फौजें किसी को गिरफ्तार नहीं कर सकेंगीं। दंगों के हालात में उन पर गोली नहीं चला सकेंगीं। जी हां, फौजियों को जनता मारेगी, जैसा कि सोपोर में हम सबने देखा। घाटी में पाकिस्तानी मुद्रा चलाने की कोशिशें भी इसी देशतोड़क राजनीति का हिस्सा है। यह गंदा खेल,अपमान और आतंकवाद को इतना खुला संरक्षण देख कर कोई अगर चुप रह सकता है तो वह भारत की महान सरकार ही हो सकती है। आप कश्मीरी हिंदुओं को लौटाने की बात न करें, हां सेना को वापस बुला लें। आप बताएं अगर आज सेना भी घाटी से वापस लौटती है तो उस पूरे इलाके में भारत मां की जय बोलने वाला कौन है? क्या इस इलाके को लश्कर के अतिवादियों को सौंप दिया जाए या उस अब्दुल्ला खानदान को जो भारत के साथ खड़े रहने की सालों से कीमत वसूल रहा है। या उस मुफ्ती परिवार को जो आतंकवदियों की रिहाई के लिए भारत सरकार के गृहमंत्री रहते हुए अपनी बेटी के अपहरण का भी नाटक रच सकते हैं। आखिर हम भारत के लोग इस तरह की कायर जमातों पर भरोसा कैसे कर सकते हैं ? जो सेना शत्रु को न पकड़ सकती है, न उस पर गोली चला सकती है। उसे किस चिदंबरम और मनमोहन सिंह के भरोसे आतंकवादियों के बीच शहादत के लिए छोड़ दिया जाए,यह आज का यक्ष प्रश्न है। आर्म्ड फोर्सेस स्पेशल पावर्स एक्ट, संकटग्रस्त इलाकों में सेना को खास शक्तियों के इस्तेमाल के लिए बनाया गया था। अब सरकार कह रही है पिटो, सीने पर गोलियां खाओ पर चुप रहो क्योंकि तुम्हारी चुप्पी आतंकी संगठन, पाकिस्तान, मानवाधिकार संगठनों, अब्दुल्ला और मुफ्ती परिवार, कुछ राजनीतिक दलों के वोटबैंक के काम आती है। कश्मीर की आज की राज्य सरकार का दबाव सबसे ज्यादा है कि इस एक्ट को हटाया जाए। प्रधानमंत्री भी स्वीकृति दे चुके हैं। थल सेनाअध्यक्ष वीके सिंह ने इस प्रस्ताव का स्पष्ट रूप से विरोध किया है कि यह छिछली राजनीति से प्रभावित है।
आज जब भारत को आतंकवाद के खिलाफ कड़े संदेश देने का समय है तो वह अपनी महान सेना से ही कवच-कुंडल की मांग कर उसे निशस्त्र बना देना चाहता है। ऐसे में क्या कोई परिवार अपने बच्चों को सेना में भेजना चाहेगा। सेना में जाने वाला जवान अपनी जान हथेली पर लेकर देश के लिए लड़ने जाता है, मरने के लिए नहीं। हमारी सरकार के ताजा प्रावधान अगर लागू हो पाए तो वह सेना को सामान्य पुलिस की बराबरी पर ला खड़ा करेंगें। क्या हमें इसके खतरों का अंदाजा है। राजनीति की अपनी सीमित जगह है जबकि देश का सम्मान सबसे बड़ा है। अफसोस राजनीति पांच साल से आगे सोच नहीं पाती जबकि देश को सालों- साल जीना और आगे बढ़ना है। हमारी सेना के खिलाफ यह राजनीतिक षडयंत्र, भगवान करे सफल न हो। किंतु आतंकवादी शक्तियों और उनके शुभचिंतकों की राय पर अगर भारत सरकार फैसले लेगी तो यह देश टूट जाएगा। आज के नेतृत्व विहीन, कमजोर भारत में इतना आत्मविश्वास तो भरना ही होगा कि वह देश के हितों के खिलाफ फैसला लेने की हिम्मत न जुटा सके। यह देश रहेगा तो माननीयों की कुर्सियां रहेंगीं, उनका मान रहेगा पर जब देश ही न होगा तो वे क्या करेंगें। इस कठिन समय में याद आती है स्व. प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी की, अगर वे होतीं क्या आतंकवादियों को ऐसी शह मिल पाती, अगर वे होती तो क्या दिल्ली की सरकार नक्सलवाद पर किंतु-परंतु की राजनीति कर पाती। यह दुर्भाग्य है कि देश की इतनी शक्तिमान नेता के दल के नेतृत्व में ऐसे निर्णय लिए जा रहे हैं जिससे पूरा देश अशांत है। देश की आर्थिक प्रगति को लेकर चमत्कृत दिल्ली की सरकार को यह भी सोचना चाहिए कि अगर देश की पहचान एक अशांत देश के रूप में स्थापित हो गयी तो दुनिया में हम क्या मुंह दिखाएंगें। हमारी सेना की भूमिका बहुत सीमित है उसे देश की सीमाओं की रक्षा करनी है। हमें संकटों से बचाना है। किंतु समस्याओं के समाधान के लिए राजनीतिक नेतृत्व का आत्मविश्वास और इच्छाशक्ति ही मायने रखती है। हमारी केंद्र सरकार की घुटनाटेक नीतियों से सिर्फ यही हो रहा है कि आतंकवादियों का मनोबल बढ़ रहा है और हमारे सुरक्षाबलों को आतंकी गोलियां अपना निशाना बना रही है। कश्मीर से लेकर पूर्वांचल के सात राज्यों समेत नक्सल प्रभावित सभी राज्यों की कहानी एक है जहां जवानों का, आम हिंदुस्तानी का खून बह रहा है। अब सवाल यह उठता है कि इतने हौलनाक और रक्तरंजित दृश्यों के बावजूद हमारी राजनीति, हमारे राजनेताओं और हमारी सरकारों का खून क्यों नहीं खौलता।

मंगलवार, 29 जून 2010

बाजार के हवाले ‘हम भारत के लोग’


बढ़ती कीमतों ने जाहिर किया आम आदमी की चिंता किसी को नहीं
- संजय द्विवेदी

एक लोककल्याणकारी राज्य जब खुद को बाजार के हवाले कर दे तो कहने के लिए क्या बचता है। इसके मायने यही हैं कि राज्य ने बाजार की ताकतों के आगे आत्मसमर्पण कर दिया है और जनता को महंगाई की ऐसी आग में झोंक दिया है जहां उसके पास झुलसने के अलावा कोई चारा नहीं है। पेट्रोलियम की कीमतें अगर हमारा प्रशासन नहीं, बाजार ही तय करेगा तो एक लोककल्याणकारी राज्य के मायने क्या रह जाते हैं। जनता के पास हर पांच साल पर जो लोग उसे राहत दिलाने की कसमें खाते हुए वोट मांगने के लिए आते हैं क्या वे दिल्ली जाकर अपने सपने और संकल्प भूल जाते हैं। केंद्र में सत्ताधारी दल ने चुनाव में वादा किया था – ‘कांग्रेस का हाथ,गरीब के साथ।’ जबकि उसकी सरकार का आचरण यह कहता है- ‘कांग्रेस का हाथ, बाजार के साथ।’ पिछले एक साल में तीन बार पेट्रोलियम पदार्थों की कीमतें बढ़ा चुकी सरकार आखिर आम जनता के साथ कैसा खेल, खेल रही है। महंगाई की मार से जूझ रही जनता पर ये कीमतें कैसे प्रकारांतर से मार करती हैं किसी से छिपा नहीं है। महान अर्थशास्त्री मनमोहन सिंह के शासन में यह हो रहा है तो जनता किससे उम्मीद करे। वो कौन सा अर्थशास्त्र है जो अपने नागरिकों की तबाही के ही उपाय सोचता है। प्रधानमंत्री, वित्तमंत्री, कृषिमंत्री सब महंगाई कम होने का वादा करते रहते हैं, किंतु घर की रसोई पर भी उनकी बुरी नजर है।
जिस देश में खाने-पीने की चीजों में आग लगी हो, वहां ऐसे कदम निराश करते हैं। भुखमरी, गरीबी का सामना कर रहे लोगों को राहत देना तो दूर सरकार उनकी दुश्वारियां बढ़ाने का ही काम कर रही है। भारत जैसे देश में अगर कीमतें बाजार तय करेगा तो हम खासी मुश्किलों में पड़ेगें। हमें अपनी व्यवस्था के छिद्रों को ढूंढकर उनका समाधान करने और भ्रष्टाचार के खिलाफ प्रभावी कार्यक्रम बनाने के बजाए आम जनता को इसका शिकार बनाना ज्यादा आसान लगता है। नेताओं और नीति-निर्माता अधिकारियों की पैसे के प्रति प्रकट पिपासा ने देश का यह हाल किया है। हमें जनता की नहीं, उपभोक्ताओं की तलाश है। सो सारा का सारा तंत्र उपभोग को बढ़ाने वाली नीतियों के क्रियान्वन में लगा है। अर्जुनसेन गुप्ता कमेटी की रिपोर्ट जब यह कहती है कि देश के सत्तर प्रतिशत लोग 20 रूपए से कम की रोजी पर अपना दैनिक जीवन चलाते हैं, तो सरकार इन लोगों की राहत के लिए नहीं सोचती। किंतु जब किरीट पारिख पेट्रोलियम पदार्थों की कीमतों को बाजार के हवाले करने की बात कहते हैं तो उसे यह सरकार आसानी से मान लेती है। आर्थिक सुधारों के लिए कड़े कदम उठाने के मायने यह नहीं है जनता के जीवन जीने के अधिकार को ही मुश्किल में डाल दिया जाए। सरकार सही मायने में अपने कार्य-व्यवहार से एक जनविरोधी चरित्र का ही परिचय दे रही है। ऐसे में राहुल गांधी की उन कोशिशों को क्या बेमानी नहीं माना जाना चाहिए जिसके तहत वे गांव के आखिरी आदमी को राजनीति के केंद्र में लाना चाहते हैं। उनकी पार्टी की सरकार का आचरण इससे ठीक उलट है। पूरा देश यह सवाल पूछ रहा है कि क्या इस सरकार की आर्थिक नीतियां उस कलावती या दलितों के पक्ष में हैं जिनके घर जाकर, रूककर राहुल गांधी, भारत को खोज रहे हैं। दरअसल यह द्वंद ही आज की राजनीति का मूल स्वभाव हो गया है।
आम आदमी का नाम लेते हुए खास आदमी के लिए यह सारा तंत्र समर्पित है। भ्रष्टाचारियों के सामने नतमस्तक यह पूरा का पूरा तंत्र आम आदमी की जिंदगी में कड़वाहटें घोल रहा है। तेल की अंर्तराष्ट्रीय बाजार में जो कीमत है उससे अधिक उसपर ड्यूटी लगती है। इसलिए अगर सरकार को तेल पर सब्सिडी देनी पड़े तो देने में हर्ज क्या है। सरकार अगर हर जगह से अपने हाथ खींच लेगी और सारा कुछ बाजार की ताकतों को सौंप देगी तो ऐसी सरकार का हम क्या करेंगें। सरकार भले अपने इस कदम को तर्कों से सही साबित करे किंतु एक जनकल्याणकारी राज्य, हमेशा अपनी जनता के प्रति जवाबदेह होता है, बाजार की शक्तियों का नहीं। किंतु ऐसा लगता है कि आज की सरकारें कारपोरेट, अमरीका और बाजार की ताकतों की चाकरी में ही अपनी मुक्ति समझती हैं। भ्रष्टाचार और जमाखोरी के खिलाफ कोई कारगर नीति बनाने के बजाए सरकारी तंत्र जनता से ही दूसरों की गलतियों की कीमत वसूलता है। आज सरकार यह बताने की स्थिति में नहीं है कि जरूरी चीजों की कीमतें आसमान क्यों छू रही हैं। ऐसे वक्त में सरकार कभी अंतर्राष्ट्रीय हालात का बहाना बनाती है, तो कभी पैदावार की कमी का रोना रोती है। सरकार के एक मंत्री जमाखोरी को इसका कारण बताते हैं। तो कोई कहता है राज्यों से अपेक्षित सहयोग न मिलने से हालात बिगड़े हैं। सही मायने में यह उलटबासियां बताती हैं कि किसी भी राजनीतिक दल के केंद्र में जनता का एजेंडा नहीं है। लोकतंत्र के नाम पर कारपोरेट के पुरजों और दलालों की सत्ता के गलियारों में आमद-रफ्त बढ़ी है, जो नीतियों के क्रियान्वयन में बेहद हस्तक्षेपकारी भूमिका में हैं। देश ने नई आर्थिक नीतियों के बाद जैसे भी शुभ परिणाम पाएं हों उसका आकलन होना शेष है किंतु आम जनता इसके बाद हाशिए पर चली गयी है। राजनीति के केंद्र से आम आदमी और उसकी पीड़ा का गायब होना हमारे समय की सबसे बड़ी चिंता है। देश में आंदोलनों का सिकुड़ना और तेजी से उच्चमध्यवर्ग के उदय ने चिंताएं बहुत बढ़ा दी हैं। देश में तेजी के साथ एक ऐसे वर्ग का उदय हुआ है जो गरीबों और रोजमर्रा के संधर्ष में लगे लोगों को बहुत हिकारत के साथ देखता है और उन्हें एक बोझ की तरह रेखांकित है। हमारे इस कठिन समय की सबसे बड़ी त्रासदी यह है कि देश के सबसे बड़े नेता महात्मा गांधी ने हमें एक जंतर दिया था कि कोई भी कदम उठाने के पहले यह सोचना कि इसका असर आखिरी पायदान पर खड़े आदमी पर क्या पड़ेगा। किंतु गांधी की उसी पार्टी के आज के नायक मनमोहन सिंह, प्रणव मुखर्जी और मुरली देवड़ा हैं जिनका यह मंत्र है कि कीमतें बाजार तय करेगा भले ही आम आदमी को उसकी कोई भी कीमत क्यों न चुकानी पड़े। बाजारवाद के इस हो-हल्ले में अगर महात्मा गांधी की बात अनसुनी की जा रही है तो हम भारत के लोग, अपने नायकों को कोसने के सिवा क्या कर सकते हैं।

शुक्रवार, 18 जून 2010

नहीं संभले तो यह कालिख हमें ले डूबेगी


पेड न्यूज के सवाल पर चुनाव आयोग के रूख का स्वागत कीजिए

सच मानिए यह कालिख हमें ले डूबेगी। पेड न्यूज की खबरों ने जितना और जैसा नुकसान मीडिया को पहुंचाया है, उतना नुकसान तो आपातकाल में घुटने टेकने पर भी नहीं हुआ था। चुनावी कवरेज के नाम पर यह एक ऐसी लूट थी जिसमें हम सब शामिल थे। इस लूट ने हमारे सिर शर्म से झुका दिए थे। नौकरी की मजबूरियों में खामोश पत्रकार भी अंदर ही अंदर बिलबिला रहे थे। पर हमारे मालिकों की बेशर्मी ऐसी कि एक ने कहा कि “सबको दर्द इसलिए हो रहा है कि पैसा हिंदी वालों को मिला। ” इस गंदे पैसे से हिंदी की सेवा करने के लिए आतुर इन महान मालिकों से किसने कहा कि वे राष्ट्रभाषा में अखबार निकालें। कोई और काम या व्यापार करते हुए, जाकर उन्हीं नेताओं से पैसे मांगकर देखें, जो मजबूरी में मालिक संपादकों को सिर पर बिठाते हैं। एक बार अखबार का विजिटिंग कार्ड न होगा तो सारे काले-पीले काम बंद हो जाएंगे, यह तो उन्हें जानना ही चाहिए। अपनी विश्वसनीयता और प्रामणिकता को दांव को लगाकर सालों से अर्जित भाषाई पत्रकारिता के पुण्य पर पेड न्यूज का ग्रहण जितनी जल्दी हटे बेहतर होगा। शायद इसीलिए चुनाव आयोग ने पेड न्यूज पर मचे बवाल पर चिंता जताते हुए यह तय किया है कि अब आयोग ऐसे विज्ञापनों की निगरानी करेगा।
पिछले लोकसभा और विधानसभा चुनावों में पेड न्यूज का मुद्दा खासा विवादों में आया था जब तमाम समाचार पत्र समूहों और टीवी चैनलों ने मोटी रकम उम्मीदवारों से लेकर उनके पक्ष में समाचार छापे और दिखाए थे। हालात यह थे कि पैसे के आधार पर छपी खबरों में यह पहचानना मुश्किल था कि कौन सा समाचार है और कौन सा विज्ञापन। यह बहुत राहत देने की बात है कि इसके खिलाफ मीडिया से जुड़े लोगों ने ही आवाज उठायी और इसे एक बड़े संकट के रूप में निरूपित किया। हमारे समय के बड़े पत्रकार स्वा. प्रभाष जोशी इस विषय पर पूरे देश में अलख जागते हुए ही विदा हुए। जाहिर तौर पर यह एक ऐसी प्रवृत्ति थी जिसका विरोध होना ही चाहिए। क्योंकि आखिर जब छपे हुए शब्दों की विश्वसनीयता ही नहीं रहेगी तो उसका मतलब क्या है। ऐसे में तमाम राजनेता, पत्रकार, समाजसेवी, बुद्धिजीवी इस चलन के खिलाफ खड़े हुए। सत्ता और मीडिया के बीच बहुत सरस संबंधों से वैसे भी सच कहीं दुबक कर रह जाता है। भारतीय लोकतंत्र के सबसे बड़े पर्व चुनाव पर भी अगर हमारे अखबार झूठ की बारिश करेंगें तो पत्रकारिता की शुचिता, पवित्रता और प्रामणिकता कहां बचेगी। ऐसे कठिन समय में चुनाव आयोग का इस तरफ ध्यान देना बहुत स्वाभाविक था। आयोग ने सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों के मुख्यचुनाव अधिकारियों को दिए अपने निर्देश में जिला निर्वाचन अधिकारियों से इस मामले में मीडिया पर कड़ी नजर रखने को कहा है।आयोग ने कहा कि जिले में प्रसारित और प्रकाशित होने वाले सभी समाचार पत्रों की कड़ी जांच पड़ताल के लिए चुनाव की धोषणा होते ही जिला स्तरीय समितियों का गठन जिला निर्वाचन अधिकारी कर सकते हैं। ताकि न्यूज कवरेज की आड़ में प्रकाशित होने वाले विज्ञापनों का पता लगाया जा सके। चुनाव आयोग ने यह भी व्यवस्था दी है कि जिला निर्वाचन अधिकारियों को करीब से प्रिंट मीडिया में जारी होने वाले विज्ञापनों पर नजर रखनी चाहिए जिनमें समाचार के रूप में छद्म विज्ञापन हों और जहां जरूरत हो उन मामलों में उम्मीदवारों और राजनीतिक दलों को नोटिस दिए जाएं ताकि इस मद में आने वाला खर्च संबंधित उम्मीदवार या पार्टी के चुनाव खर्च में डाला जा सके। महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण को हाल में ही उनके खिलाफ पेड न्यूज के एक मामले में नोटिस दिया गया था। चुनाव आयोग की यह सक्रियता बताती है उसका इन खतरों की तरफ ध्यान है और वह चुनावों को साफ-सुथरे ढंग से कराने के लिए प्रतिबद्ध है। ऐसे में हमारे राजनेता, राजनीतिक दलों और मीडिया समूहों तीनों की जिम्मेदारी बहुत बढ़ जाती है। स्वच्छ चुनावों के लिए हमारे राजनेताओं की प्रतिबद्धता के बिना प्रयास सफल न होंगें। देश के मीडिया ने तमाम राष्ट्रीय प्रश्नों पर अपनी सकारात्मक भूमिका का निर्वहन किया है। उसके सचेतन प्रयासों से लोकतंत्र के प्रति जनविश्वास बढ़ा है।
ऐसे में पेड न्यूज की विकृति स्वयं मीडिया के प्रति जनविश्वास का क्षरण करेगी। ऐसे में मीडिया समूहों को स्वयं आगे आकर अपनी प्रामणिकता और विश्वसनीयता की रक्षा करनी चाहिए। ताकि चुनाव आयोग जैसी संवैधानिक संस्थाओं को इस तरह के नियमन की जरूरत ही न पड़े। उम्मीद है मीडिया के हमारे नियामक इन बदनामियों से नाम कमाने के बजाए पूंजी अर्जन के कुछ नए रास्ते निकालेंगे। हमारे लोकतंत्र को नेताओं ने लोकतंत्र को लूटतंत्र में बदल दिया है, किंतु इसका मतलब यह बिल्कुल नहीं कि नेताओं की लूट में मीडिया का भी हिस्सा है। मीडिया ने यह समझा कि नेताजी काफी कमाया है सो उस लूट के माल में हमारा भी हिस्सा है। जाहिर तौर पर इस लूट में शामिल होने के बाद आप नैतिकता और समाज के पहरूए की भूमिका खो देते हैं। मीडिया को किसी कीमत पर यह छूट नहीं दी जानी कि वह किसी तरह की सरकारी या गैर सरकारी लूट का हिस्सा बने। अगर मीडिया के मालिक ऐसा करते हैं तो वे सालों-साल से अर्जित पुण्यफल का क्षरण ही कर रहे हैं और ऐसे आचरण से उनके अखबार पोस्टर में बदल जाएंगें। उन्हें जो जनविश्वास अर्जित है उसका क्या होगा। उम्मीद की जानी चाहिए कि हमारा मीडिया नई लीक पर चल अपने आत्मविश्वास को न खोते हुए अपनी आत्मनिर्भरता के लिए नए रास्ते तलाशेगा ताकि चुनाव आयोग जैसी संस्थाओं को इस तरह के नियमन की जरूरत न पड़े। ताकि मीडिया को लोकतंत्र को मजबूत करने वाली संस्था के रूप में देखा जाए न की लोकतंत्र की जड़ों को खोखला करने वाले माध्यम के रूप में उसे आरोपित किया जाए। बेहतर होगा कि मीडिया सत्ता और सत्ता और राजनीति के साथ आलोचनात्मक विमर्श का रिश्ता बनाए, क्योंकि यही बात उसके पक्ष में है और उसकी प्रामणिकता को बचाए व बनाए रखने में सहायक भी।

मिक्स मसाला खबरों के दौर में न्यूज चैनल


भरोसा नहीं होता कि खबरें इतनी बदल जाएंगीं। समाचार चैनलों पर खबरों को देखना अब मिक्स मसाले जैसे मामला है। खबरिया चैनलों की होड़ और गलाकाट स्पर्धा ने खबरों के मायने बदल दिए हैं। खबरें अब सिर्फ सूचनाएं नहीं देती, वे एक्सक्लूसिव में बदल रही हैं। हर खबर का ब्रेकिंग न्यूज में बदल जाना सिर्फ खबर की कलरिंग भर का मामला नहीं है। दरअसल, यह उसके चरित्र और प्रस्तुति का भी बदलाव है । खबरें अब निर्दोष नहीं रहीं। वे अब सायास हैं, कुछ सतरंगी भी। आज यह कहना मुश्किल है कि आप समाचार चैनल देख रहे हैं या कोई मनोरंजन चैनल। कथ्य और प्रस्तुति के मोर्चे पर दोनों में बहुत अंतर नहीं दिखता।
मनोरंजन चैनल्स पर चल रहे कार्यक्रमों के आधार पर समाचार चैनल अपने कई घंटे समर्पित कर रहे हैं। उन पर चल रहे रियालिटी शो, नृत्य संगीत और हास्य-व्यंग्य के तमाम कार्यक्रमों की पुनःप्रस्तुति को देखना बहुत रोचक है।समाचारों की प्रस्तुति ज्यादा नाटकीय और मनोरंजक बनाने पर जोर है। ऐसे में उस सूचना का क्या हो जिसके इंतजार में दर्शक न्यूज चैनल पर आता है।
खबरों का खबर होना सूचना का उत्कर्ष है, लेकिन जब होड़ इस कदर हो तो खबरें सहम जाती हैं, सकुचा जाती हैं और खड़ी हो जाती हैं किनारे। खबर का प्रस्तोता स्क्रीन पर आता है और वह बताता है कि यह खबर आप किस नज़र से देखेंगे। पहले खबरें दर्शक को मौका देती थीं कि वह समाचार के बारे में अपना नज़रिया बनाए। अब नज़रिया बनाने के लिए खबर खुद बाध्य करती है। आपको किस ख़बर को किस नज़रिए से देखना है, यह बताने के लिए छोटे पर्दें पर तमाम सुंदर चेहरे हैं जो आपको अपनी खबर के साथ बहा ले जाते हैं। ख़बर क्राइम की है तो कुछ खतरनाक शक्ल के लोग, खबर सिनेमा की है तो कुछ सुदर्शन चेहरे, ख़बर गंभीर है तो कुछ गंभीरता का लबादा ओढ़े चेहरे ! कुल मिलाकर मामला अब सिर्फ ख़बर तक नहीं है। ख़बर तो कहीं दूर बहुत दूर, खडी है...ठिठकी हुई सी। उसका प्रस्तोता बताता है कि आप ख़बर को इस नज़र देखिए। वह यह भी बताता है कि इस ख़बर का असर क्या है और इस खबर को देख कर आप किस तरह और क्यों धन्य हो रहे हैं ! वह यह भी जोड़ता है कि यह ख़बर आप पहली बार किसी चैनल पर देख रहे हैं। दर्शक को कमतर और ख़बर को बेहतर बताने की यह होड़ अब एक ऐसी स्पर्धा में तब्दील हो गई है जहाँ ख़बर अपना असली व्यक्तित्व को खो देती है और वह बदल जाती है नारे में, चीख में, हल्लाबोल में या एक ऐसे मायावी संसार में जहाँ से कोई मतलब निकाल पाना ज्ञानियों के ही बस की बात है।
हर ख़बर कैसे ब्रेकिंग या एक्सक्लूसिव हो सकती है, यह सोचना ही रोचक है। टीवी ने खबर के शिल्प को ही नहीं बदला है। वह बहुत कुछ फिल्मों के करीब जा रही है, जिसमें नायक हैं, नायिकाएं हैं और खलनायक भी। साथ मे है कोई जादुई निदेशक । ख़बर का यह शिल्प दरअसल खबरिया चैनलों की विवशता भी है। चौबीस घंटे के हाहाकार को किसी मौलिक और गंभीर प्रस्तुति में बदलने के अपने खतरे हैं, जो कुछ चैनल उठा भी रहे हैं। पर अपराध, सेक्स, मनोरंजन से जुड़ी खबरें मीडिया की आजमायी हुई सफलता का फंडा है। हमारी नैसर्गिक विकृतियों का प्रतिनिधित्व करने वाली खबरें खबरिया चैनलों पर अगर ज्यादा जगह पाती हैं तो यह पूरा का पूरा मामला कहीं न कहीं टीआरपी से ही जाकर जुड़ता है। इतने प्रभावकारी माध्यम और उसके नीति नियामकों की यह मजबूरी और आत्मविश्वासहीनता समझी जा सकती है। बाजार में टिके रहने के अपने मूल्य हैं। ये समझौतों के रूप में मीडिया के समर्पण का शिलालेख बनाते हैं। शायद इसीलिए जनता का एजेंडा उस तरह चैनलों पर नहीं दिखता, जिस परिमाण में इसे दिखना चाहिए । समस्याओं से जूझता समाज, जनांदोलनों से जुड़ी गतिविधियाँ, आम आदमी के जीवन संघर्ष, उसकी विद्रूपताएं हमारे मीडिया पर उस तरह प्रस्तुत नहीं की जाती कि उनसे बदलाव की किसी सोच को बल मिले। पर्दें पर दिखती हैं रंगीनियाँ, अपराध का अतिरंजित रूप, राजनीति का विमर्श और सिनेमा का हाहाकारी प्रभाव । क्या खबरें इतनी ही हैं ? बाडी और प्लेजर की पत्रकारिता हमारे सिर चढ़कर नाच रही है। शायद इसीलिए मीडिया से जीवन का विमर्श, उसकी चिंताएं और बेहतर समाज बनाने की तड़प की जगह सिकुड़ती जा रही है। कुछ अच्छी खबरें जब चैनलों पर साया होती हैं तो उन्हें देखते रहना एक अलग तरह का आनंद देता है। एनडीटीवी ने ‘मेघा रे मेघा’ नाम से बारिश को लेकर अनेक क्षेत्रों से अपने नामवर रिपोर्टरों से जो खबरें करवाईं थीं वे अद्भूत थीं। उनमें भाषा, स्थान, माटी की महक, फोटोग्राफर, रिपोर्टर और संपादक का अपना सौंदर्यबोध भी झलकता है। प्रकृति के इन दृश्यों को इस तरह से कैद करना और उन्हें बारिश के साथ जोड़ना तथा इन खबरों का टीवी पर चलना एक ऐसा अनुभव है जो हमें हमारी धरती के सरोकारों से जोड़ता है। इस खबर के साथ न ब्रेकिंग का दावा था न एक्सक्लूसिव का लेकिन ख़बर देखी गई और महसूस भी की गई। कोकीन लेती युवापीढ़ी, राखी और मीका का चुंबन प्रसंग, करीना या सैफ अली खान की प्रेम कहानियों से आगे जिंदगी के ऐसे बहुत से क्षेत्र हैं जो इंतजार कर रहे हैं कि उनसे पास भी कोई रिपोर्टर आएगा और जहान को उनकी भी कहानी सुनाएगा । सलमाल और कैटरीना की शादी को लेकर काफी चिंतित रहा मीडिया शायद उन इलाकों और लोगों पर भी नज़र डालेगा जो सालों-साल से मतपेटियों मे वोट डालते आ रहे हैं, इस इंतजार में कि इन पतपेटियों से कोई देवदूत निकलेगा जो उनके सारे कष्ट हर लेगा ! लेकिन उनके भ्रम अब टूट चुके हैं। पथराई आँखों से वे किसी ख़बरनवीस की आँखें तकती है कि कोई आए और उनके दर्द को लिखे या आवाज़ दे। कहानियों में कहानियों की तलाश करते बहुत से पत्रकार और रिपोर्टर उन तक पहुँचने की कोशिश भी करते रहे हैं। यह धारा लुप्त तो नहीं हुई है लेकिन मंद जरूर पड़ रही है। बाजार की मार, माँग और प्रहार इतने गहरे हैं कि हमारे सामने दिखती हुई ख़बरों ने हमसे मुँह मोड़ लिया है। हम तलाश में हैं ऐसी स्टोरी की जो हमें रातों-रात नायक बना दे, मीडिया में हमारी टीआरपी सबसे ऊपर हो, हर जगह हमारे अखबार/चैनल की ही चर्चा हो। इस बदले हुए बुनियादी उसूल ने खबरों को देखने का हमारा नज़रिया बदल-सा दिया है। हम खबरें क्रिएट करने की होड़ में हैं क्योंकि क्रिएट की गई ख़बर एक्सक्लूसिव तो होंगी ही। एक्सक्लूसिव की यह तलाश कहाँ जाकर रूकेगी, कहा नहीं जा सकता। खबरें भी हमारा मनोरंजन करें, यह एक नया सच हमारे सामने है। खबरें मनोरंजन का माध्यम बनीं, तभी तो बबली और बंटी एनडीटीवी पर खबर पढ़ते नजर आए। टीआरपी के भूत ने दरअसल हमारे आत्मविश्वास को हिलाकर रख दिया है। इसलिए हमारे चैनलों के नायक हैं- राखी सावंत, बाबा रामदेव और राजू श्रीवास्तव। समाचार चैनल ऐसे ही नायक तलाश रहे हैं और गढ़ रहे हैं। कैटवाक करते कपड़े गिरे हों, या कैमरों में दर्ज चुंबन क्रियाएं, ये कलंक पब्लिसिटी के काम आते हैं । लांछन अब इस दौर में उपलब्धियों में बदल रहे हैं । ‘भोगो और मुक्त हो,’ यही इस युग का सत्य है। कैसे सुंदर दिखें और कैसे ‘मर्द’ की आंख का आकर्षण बनें यही टीवी न्यूज चैनलों का मूल विमर्श है । जीवन शैली अब ‘लाइफ स्टाइल’ में बदल गयी है । बाजारवाद के मुख्य हथियार ‘विज्ञापन’ अब नए-नए रूप धरकर हमें लुभा रहे हैं । नग्नता ही स्त्री स्वातंत्र्य का पर्याय बन गयी है। मेगा माल्स, ऊँची ऊँची इमारतें, डियाइनर कपड़ों के विशाल शोरूम, रातभर चलने वाली मादक पार्टियां और बल्लियों उछलता नशीला उत्साह । इस पूरे परिदृश्य को अपने नए सौंदर्यबोध से परोसता, उगलते न्यूज चैनल एक ऐसी दुनिया रच रहे है जहाँ बज रहा है सिर्फ देहराग, देहराग और देहराग।अब तो यह कहा जाने लगा है खबर देखनी है तो डीडी न्यूज पर जाओ, कुछ डिबेट देखनी है तो लोकसभा चैनल लगा लो। हिंदी के समाचार चैनलों ने यह मान लिया है हिंदी में मनोरंजन बिकता है। अंधविश्वास बिकता है। बकवास बिकती है। राखी, राजू, सुनील पाल बिकते हैं। हालांकि इसके लिए किसी समाचार समूह ने कोई सर्वेक्षण नहीं करवाया है। किंतु यह आत्मविश्वासहीनता न्यूज चैनलों और मनोरंजन चैनलों के अंतर को कम करने का काम जरूर कर रही है। विचार के क्षेत्र में नए प्रयोगों के बजाए चैनल चमत्कारों,हाहाकारों, ठहाकों, विलापों की तलाश में हैं। जिनसे वे आम दर्शक की भावनाओं से खेल सकें। यह क्रम जारी है, जारी भी रहेगा। जब तक आप रिमोट का सही इस्तेमाल नहीं सीख जाते, तब तक चौंकिए मत क्योंकि आप न्यूज चैनल ही देख रहे हैं।

शनिवार, 12 जून 2010

आप वहां क्या कर रही हैं अरूंधती ?


-संजय द्विवेदी

मुझे पता था वे अपनी बात से मुकर जाएंगी। बीते 2 जून, 2010 को मुंबई में महान लेखिका अरूंधती राय ने जो कुछ कहा उससे वे मुकर गयी हैं। एक प्रमुख अखबार के 12 जून, 2010 के अंक में छपे अपने लेख में अरूधंती ने अपने कहे की नई व्याख्या दी है और ठीकरा मीडिया पर फोड़ दिया है। मीडिया के इस काम को उन्होंने खबरों का ग्रीनहंट नाम दिया है। जाहिर तौर पर अरूंधती को जो करना था वे कर चुकी हैं। वे एक हिंसक अभियान से जुड़े लोगों को संदेश दे चुकी हैं। 2 जून के वक्तव्य की 12 जून को सफाई देना यानि चीजें अपना काम कर चुकी हैं। अरूधंती भी अपने लक्ष्य पा चुकी हैं। पहला लक्ष्य था वह प्रचार जो गुनहगारों के पक्ष में वातावरण बनाता है, दूसरा लक्ष्य खुद को चर्चा में लाना और तीसरा लक्ष्य एक भ्रम का निर्माण।
यह सही मायने में मीडिया का ऐसा इस्तेमाल है जिसे राजनेता और प्रोपेगेंडा की राजनीति करने वाले अक्सर इस्तेमाल करते हैं। आप जो कहें उसे उसी रूप में छापना और दिखाना मीडिया की जिम्मेदारी है किंतु कुछ दिन बाद जब आप अपने कहे की अनोखी व्याख्याएं करते हैं तो मीडिया क्या कर सकता है। अरूंधती राय एक महान लेखिका हैं उनके पास शब्दजाल हैं। हर कहे गए वाक्य की नितांत उलझी हुयी व्याख्याएं हैं। जैसे 76 सीआरपीएफ जवानों की मौत पर वे “दंतेवाड़ा के लोगों को सलाम” भेजती हैं। आखिर यह सलाम किसके लिए है मारने वालों के लिए या मरनेवालों के लिए। अब अरूधंती ने अपने ताजा लेख में लिखा हैः “मैंने साफ कर दिया था कि सीआरपीएफ के जवानों की मौत को मैं एक त्रासदी के रूप में देखती हूं और मैं मानती हूं कि वे गरीबों के खिलाफ अमीरों की लड़ाई में सिर्फ मोहरा हैं। मैंने मुंबई की बैठक में कहा था कि जैसे-जैसे यह संघर्ष आगे बढ़ रहा है, दोनों ओर से की जाने वाली हिंसा से कोई भी नैतिक संदेश निकालना असंभव सा हो गया है। मैंने साफ कर दिया था कि मैं वहां न तो सरकार और न ही माओवादियों द्वारा निर्दोष लोगों की हत्या का बचाव करने के लिए आई हूं।”

नक्सली हिंसा, हिंसा न भवतिः
ऐसी बौद्धिक चालाकियां किसी हिंसक अभियान के लिए कैसी मददगार होती हैं। इसे वे बेहतर समझते हैं जो शब्दों से खेलते हैं। आज पूरे देश में इन्हीं तथाकथित बुद्धिजीवियों ने ऐसा भ्रम पैदा किया है कि जैसे नक्सली कोई महान काम कर रहे हों। ये तो वैसे ही है जैसे नक्सली हिंसा हिंसा न भवति। कभी हमारे देश में कहा जाता था वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति। सरकार ने एसपीओ बनाए, उन्हें हथियार दिए इसके खिलाफ गले फाड़े गए, लेख लिखे गए। कहा गया सरकार सीधे-साधे आदिवासियों का सैन्यीकरण कर रही। यही काम नक्सली कर रहे हैं, वे बच्चों के हाथ में हथियार दे रहे तो यही तर्क कहां चला जाता है। अरूंधती राय के आउटलुक में छपे लेख को पढ़िए और बताइए कि वे किसके साथ हैं। वे किसे गुमराह कर रही हैं।

अभिव्यक्ति के खतरे तो उठाइएः
अब वे अपने बयान से उठ सकने वाले संकटों से आशंकित हैं। उन्हें अज्ञात भय ने सता रखा वे लिखती है-“क्या यह ऑपरेशन ग्रीनहंट का शहरी अवतार है, जिसमें भारत की प्रमुख समाचार एजेंसी उन लोगों के खिलाफ मामले बनाने में सरकार की मदद करती है जिनके खिलाफ कोई सबूत नहीं होते? क्या वह हमारे जैसे कुछ लोगों को वहशी भीड़ के सुपुर्द कर देना चाहती है, ताकि हमें मारने या गिरफ्तार करने का कलंक सरकार के सिर पर न आए। या फिर यह समाज में ध्रुवीकरण पैदा करने की साजिश है कि यदि आप ‘हमारे’ साथ नहीं हैं, तो माओवादी हैं। ” आखिर अरूंधती यह करूणा भरे बयान क्यों जारी कर रही हैं। उन्हें किससे खतरा है। मुक्तिबोध ने भी लिखा है अभिव्यक्ति के खतरे तो उठाने ही होंगें। महान लेखिका अगर सच लिख और कह रही हैं तो उन्हें भयभीत होने की जरूरत नहीं हैं। नक्सलवाद के खिलाफ लिख रहे लोगों को भी यह खतरा हो सकता है। सो खतरे तो दोनों ओर से हैं। नक्सलवाद के खिलाफ लड़ रहे लोग अपनी जान गवां रहे हैं, खतरा उन्हें ज्यादा है। भारतीय सरकार जिनके हाथ अफजल गुरू और कसाब को भी फांसी देते हुए कांप रहे हैं वो अरूंधती राय या उनके समविचारी लोगों का क्या दमन करेंगी। हाल यह है कि नक्सलवाद के दमन के नाम पर आम आदिवासी तो जेल भेज दिया जाता है पर असली नक्सली को दबोचने की हिम्मत हममें कहां है। इसलिए अगर आप दिल से माओवादी हैं तो निश्चिंत रहिए आप पर कोई हाथ डालने की हिम्मत कहां करेगा। हमारी अब तक की अर्जित व्यवस्था में निर्दोष ही शिकार होते रहे हैं।
अरूंधती इसी लेख में लिख रही हैं- “26 जून को आपातकाल की 35वीं सालगिरह है। भारत के लोगों को शायद अब यह घोषणा कर ही देनी चाहिए कि देश आपातकाल की स्थिति में है (क्योंकि सरकार तो ऐसा करने से रही)। इस बार सेंसरशिप ही इकलौती दिक्कत नहीं है। खबरों का लिखा जाना उससे कहीं ज्यादा गंभीर समस्या है।” क्या भारत मे वास्तव में आपातकाल है, यदि आपातकाल के हालात हैं तो क्या अरूंधती राय आउटलुक जैसी महत्वपूर्ण पत्रिका में अपने इतने महान विचार लिखने के बाद मुंबई में हिंसा का समर्थन और गांधीवाद को खारिज कर पातीं। मीडिया को निशाना बनाना एक आसान शौक है क्योंकि मीडिया भी इस खेल में शामिल है। यह जाने बिना कि किस विचार को प्रकाशित करना, किसे नहीं, मीडिया उसे स्थान दे रहा है। यह लोकतंत्र का ही सौंदर्य है कि आप लोकतंत्र विरोधी अभियान भी इस व्यवस्था में चला सकते हैं। नक्सलियों के प्रति सहानुभूति रखते हुए नक्सली आंदोलन के महान जनयुद्ध पर पन्ने काले कर सकते हैं। मीडिया का विवेकहीनता और प्रचारप्रियता का इस्तेमाल करके ही अरूंधती राय जैसे लोग नायक बने हैं अब वही मीडिया उन्हें बुरा लग रहा है। अपने कहे पर संयम न हो तो मीडिया का इस्तेमाल करना सीखना चाहिए।
कारपोरेट की लेवी पर पलता नक्सलवादः
अरूंधती कह रही हैं कि “ मैंने कहा था कि जमीन की कॉरपोरेट लूट के खिलाफ लोगों का संघर्ष कई विचारधाराओं से संचालित आंदोलनों से बना है, जिनमें माओवादी सबसे ज्यादा मिलिटेंट हैं। मैंने कहा था कि सरकार हर किस्म के प्रतिरोध आंदोलन को, हर आंदोलनकारी को ‘माओवादी’ करार दे रही है ताकि उनसे दमनकारी तरीकों से निपटने को वैधता मिल सके।” अरूंधती के मुताबिक माओवादी कारपोरेट लूट के खिलाफ काम कर रहे हैं। अरूंधती जी पता कीजिए नक्सली कारपोरेट लाबी की लेवी पर ही गुजर-बसर कर रहे हैं। नक्सल इलाकों में आप अक्सर जाती हैं पर माओवादियों से ही मिलती हैं कभी वहां काम करने वाले तेंदुपत्ता ठेकेदारों, व्यापारियों, सड़क निर्माण से जुड़े ठेकेदारों, नेताओं और अधिकारियों से मिलिए- वे सब नक्सलियों को लेवी देते हुए चाहे जितना भी खाओ स्वाद से पचाओ के मंत्र पर काम कर रहे हैं। आदिवासियों के नाम पर लड़ी जा रही इस जंग में वे केवल मोहरा हैं। आप जैसे महान लेखकों की संवेदनाएं जाने कहां गुम हो जाती हैं जब ज्ञानेश्वरी एक्सप्रेस पर लाल आतंक के चलते सैकड़ों परिवार तबाह हो जाते हैं। राज्य की हिंसा का मंत्रजाप छोड़कर अपने मिलिंटेंट साथियो को समझाइए कि वे कुछ ऐसे काम भी करें जिससे जनता को राहत मिले। स्कूल में टीचर को पढ़ाने के लिए विवश करें न कि उसे दो हजार की लेवी लेकर मौज के लिए छोड़ दें। राशन दुकान की मानिटरिंग करें कि छत्तीसगढ में पहले पचीस पैसे किलो में अब फ्री में मिलने वाला नमक आदिवासियों को मिल रहा है या नहीं। वे इस बात की मानिटरिंग करें कि एक रूपए में मिलने वाला उनका चावल उन्हें मिल रहा है या उसे व्यापारी ब्लैक में बेच खा रहे हैं। किंतु वे ऐसा क्यों करेंगें। आदिवासियों के वास्तविक शोषक, लेवी देकर आज नक्सलियों की गोद में बैठ गए हैं। इसलिए तेंदुपत्ता का व्यापारी, नेता, अफसर, ठेकेदार सब नक्सलियों के वर्गशत्रु कहां रहे। जंगल में मंगल हो गया है। ये इलाके लूट के इलाके हैं। आप इस बात का भी अध्ययन करें नक्सलियों के आने के बाद आदिवासी कितना खुशहाल या बदहाल हुआ है। आप नक्सलियों के शिविरों पर मुग्ध हैं, कभी सलवा जुडूम के शिविरों में भी जाइए। आपकी बात सुनी,बताई और छापी जाएगी। क्योंकि आप एक सेलिब्रिटी हैं। मीडिया आपके पीछे भागता है। पर इन इलाकों में जाते समय किसी खास रंग का चश्मा पहन कर न जाएं। खुले दिल से, मुक्त मन से, उसी आदिवासी की तरह निर्दोष बनकर जाइएगा जो इस जंग में हर तरफ से पिट रहा है। सरकारें परम पवित्र नहीं होतीं। किंतु लोकतंत्र के खिलाफ अगर कोई जंग चल रही है तो आप उसके साथ कैसे हो सकते हैं। जो हमारे संविधान, लोकतंत्र को खारिज तक 2050 तक माओ का राज लाना चाहते हैं आप उनके साथ क्यों और कैसे खड़ी हैं अरूंधती। एक संवेदनशील लेखिका होने के नाते इतना तो आपको पता होगा साम्यवादी या माओवादी शासन में पहला शिकार कलम ही होती है। फिर आप वहां क्या रही हैं अरूंधती?

शुक्रवार, 11 जून 2010

वह लड़की और नरभक्षी नक्सली


-संजय द्विवेदी

ये ठंड के दिन थे, हम पूर्वी उत्तर प्रदेश की सर्दी से मुकाबिल थे। ससुराल में छुट्टियां बिताना और सालियों का साथ किसे नहीं भाएगा। वहीं मैंने पहली बार एक खूबसूरत सी लड़की प्रीति को देखा था। वह मेरी छोटी साली साहिबा की सहेली है। उससे देर तक बातें करना मुझे बहुत अच्छा लगा। फिर हमारी बातों का सिलसिला चलता रहा, उसने बताया कि उसकी शादी होने वाली है और उसकी शादी में मुझे रहना चाहिए। खैर मैं उसकी शादी में तो नहीं गया पर उसकी खबरें मिलती रहीं। अच्छा पति और परिवार पाकर वह खुश थी। उसके पति का दुर्गापुर में कारोबार था। उसकी एक बेटी भी हुयी। किंतु 28 मई,2010 की रात उसकी दुनिया उजड़ गयी।पश्चिम बंगाल के पास झारग्राम में ज्ञानेश्वरी एक्सप्रेस पर बरपे लाल आतंक में प्रीति के पति की मौत हो गयी। इस खबर ने हमें हिला सा दिया है। हमारे परिवार में प्रीति की बहुत सी यादें है। उसकी बोली, खनक और महक सब हमारे साथ है। किंतु उसके इस तरह अकेले हो जाने की सूचना हम बर्दाश्त नहीं कर पा रहे। नक्सली हिंसा का यह घिनौना रूप दुख को बढ़ाता है और उससे ज्यादा गुस्से से भर देता है। हम भारत के लोग हमारी सरकारों के कारनामों का फल भुगतने के लिए विवश हैं।
नक्सली हमले में हुयी यह पहली मौत नहीं है। ये एक सिलसिला है जो रूकने को नहीं है। बस खून...मांस के लोथड़े...कराहें.. आंसू....चीखें...और आर्तनाद। यही नक्सलवाद का असली चेहरा है। किंतु नक्सलवाद के नाम पर मारे जा रहे अनाम लोगों के प्रति उनके आंसू सूख गए हैं। क्या हिंसा,आतंक और खूनखराबे का भी कोई वाद हो सकता है। हिंदुस्तान के अनाम, निरीह लोग जो अपनी जिंदगी की जद्दोजहद में लगे हैं उनके परिवारों को उजाड़ कर आप कौन सी क्रांति कर रहे हैं। जिस जंग से आम आदमी की जिंदगी तबाह हो रही हो उसे जनयुद्ध आप किस मुंह से कह रहे हैं। यह एक ऐसी कायराना लड़ाई है जिसमें नक्सलवादी नरभक्षियों में बदल गए हैं। ट्रेन में यात्रा कर रहे आम लोग अगर आपके निशाने पर हैं तो आप कैसी जंग लड़ रहे हैं। आम आदमी का खून बहाकर वे कौन सा राज लाना चाहते हैं यह किसी से छिपा नहीं है।
क्या कह रही हो अरूंधतीः
न जाने किस दिल से देश की महान लेखिका और समाज सेविका अरूंधती राय और महाश्वेता देवी को नक्सलवादियों के प्रति सहानुभूति के शब्द मिल जाते हैं। नक्सलवाद को लेकर प्रख्यात लेखिका और बुकर पुरस्कार विजेता अरूंधती राय का बयान दरअसल आंखें खोलने वाला है। अब तो इस सच से पर्दा हट जाना चाहिए कि नक्सलवाद किस तरह से एक देशतोड़क आंदोलन है और इसे किस तरह से समर्थन मिल रहा है। नक्सलियों द्वारा की जा रही हत्याओं का समर्थन कर अरूंधती राय ने अपने समविचारी मानवाधिकारवादियों, कथित लेखकों और आखिरी आदमी के लिए लड़ने का दम भरने वाले संगठनों की पोल खोल दी है। उन्होंने अपना पक्ष जाहिर कर देश का बहुत भला किया है। उनके इस साहस की सराहना होनी चाहिए कि खूनी टोली का साथ तमाम किंतु-परंतु के साथ नहीं दे रही हैं और नाहक नाजायज तर्कों का सहारा लेकर नक्सलवाद को जायज नहीं ठहरा रही हैं। उनका बयान ऐसे समय में आया है जब भारत के महान लोकतंत्र व संविधान के प्रति आस्था रखनेवालों और उसमें आस्था न रखनेवालों के बीच साफ-साफ युद्ध छिड़ चुका है। ऐसे में अरूंधती के द्वारा अपना पक्ष तय कर लेना साहसिक ही है। वे दरअसल उन ढोंगी बुद्धिजीवियों से बेहतर है जो महात्मा गांधी का नाम लेते हुए भी नक्सल हिंसा को जायज ठहराते हैं। नक्सलियों की सीधी पैरवी के बजाए वे उन इलाकों के पिछड़ेपन और अविकास का बहाना लेकर हिंसा का समर्थन करते हैं। अरूंधती इस मायने में उन ढोंगियों से बेहतर हैं जो माओवाद, लेनिनवाद, समाजवाद, गांधीवाद की खाल ओढ़कर नक्सलियों को महिमामंडित कर रहे हैं।
तय करें आप किसके साथः
खुद को संवेदनशील और मानवता के लिए लड़ने वाले ये कथित बुद्धिजीवी कैसे किसी परिवार को उजड़ता हुआ देख पा रहे हैं। वे नक्सलियों के कथित जनयुद्ध में साथ रहें किंतु उन्हें मानवीय मूल्यों की शिक्षा तो दें। हत्यारों के गिरोह में परिणित हो चुका नक्सलवाद अब जो रूप अख्तियार कर चुका है उससे किसी सदाशयता की आस पालना बेमानी ही है। सरकारों के सामने विकल्प बहुत सीमित हैं। हिंसा के आधार पर 2050 में भारत की राजसत्ता पर कब्जा करने का सपना देखने वाले लोगों को उनकी भाषा में ही जवाब दिया जाना जरूरी है। सो इस मामले पर किसी किंतु पंरतु के बगैर भारत की आम जनता को भयमुक्त वातावरण में जीने की स्थितियां प्रदान करनी होंगी। हर नक्सली हमले के बाद हमारे नेता नक्सलियों की हरकत को कायराना बताते हैं जबकि भारतीय राज्य की बहादुरी के प्रमाण अभी तक नहीं देखे गए। जिस तरह के हालात है उसमें हमारे और राज्य के सामने विकल्प कहां हैं। इन हालात में या तो आप नक्सलवाद के साथ खड़े हों या उसके खिलाफ। यह बात बहुत तेजी से उठाने की जरूरत है कि आखिर हमारी सरकारें और राजनीति नक्सलवाद के खिलाफ इतनी विनीत क्यों है। क्या वे वास्तव में नक्सलवाद का खात्मा चाहती हैं। देश के बहुत से लोगों को शक है कि नक्सलवाद को समाप्त करने की ईमानदार कोशिशें नदारद हैं। देश के राजनेता, नौकरशाह, उद्योगपति, बुद्धिजीवियों और ठेकेदारों का एक ऐसा समन्वय दिखता है कि नक्सलवाद के खिलाफ हमारी हर लड़ाई भोथरी हो जाती है। अगर भारतीय राज्य चाह ले तो नक्सलियों से जंग जीतनी मुश्किल नहीं है।
हमारा भ्रष्ट तंत्र कैसे जीतेगा जंगः
सवाल यह है कि क्या कोई भ्रष्ट तंत्र नक्सलवादियों की संगठित और वैचारिक शक्ति का मुकाबला कर सकता है। विदेशों से हथियार और पैसे अगर जंगल के भीतर तक पहुंच रहे हैं, नक्सली हमारे ही लोगों से करोड़ों की लेवी वसूलकर अपने अभियान को आगे बढ़ा रहे हैं तो हम इतने विवश क्यों हैं। क्या कारण है कि हमारे अपने लोग ही नक्सलवाद और माओवाद की विदेशी विचारधारा और विदेशी पैसों के बल पर अपना अभियान चला रहे हैं और हम उन्हें खामोशी से देख रहे हैं। महानगरों में बैठे तमाम विचारक एवं जनसंगठन किस मुंह से नक्सली हिंसा को खारिज कर रहे हैं जबकि वे स्वयं इस आग को फैलाने के जिम्मेदार हैं। शब्द चातुर्य से आगे बढ़कर अब नक्सलवाद या माओवाद को पूरी तरह खारिज करने का समय है। किंतु हमारे चतुर सुजान विचारक नक्सलवाद के प्रति रहम रखते हैं और नक्सली हिंसा को खारिज करते हैं। यह कैसी चालाकी है। माओवाद का विचार ही संविधान और लोकतंत्र विरोधी है, उसके साथ खड़े लोग कैसे इस लोकतंत्र के शुभचिंतक हो सकते हैं। यह हमें समझना होगा। ऐसे शब्दजालों और भ्रमजालों में फंसी हमारी सरकारें कैसे कोई निर्णायक कदम उठा पाएंगीं। जो लोग नक्सलवाद को सामाजिक-आर्थिक समस्या बताकर मौतों पर गम कम करना चाहते हैं वो सावन के अंधे हैं। सवाल यह भी उठता है कि क्या हमारी सरकारें नक्सलवाद का समाधान चाहती हैं? अगर चाहती हैं तो उन्हें किसने रोक रखा है? कितनी प्रीतियों का घर उजाड़ने के बाद हमारी सरकारें जागेंगी यह सवाल आज पूरा देश पूछ रहा है। क्या इस सवाल का कोई जवाब भारतीय राज्य के पास है,,क्योंकि यह सवाल उन तमाम निर्दोष भारतीयों के परिवारों की ओर से भी है जो लाल आतंक की भेंट चढ़ गए हैं।

शुक्रवार, 4 जून 2010

वामपंथियों के दुर्ग पर ममता का झंडा

-संजय द्विवेदी
वामपंथियों का अभेद्य गढ़ कहा जाना वाला पश्चिम बंगाल एक अलग ही करवट ले रहा है। लोकसभा फिर पंचायत और अब नगर निकायों के चुनावों का संदेश साफ है कि वहां की जनता बदलाव का मन बना चुकी है। ममता बनर्जी और उनकी पार्टी उस बदलाव का नेतृत्व कर रही है। यह देखना रोचक है कि कैसे ममता बनर्जी ने एकला चलो रे की तर्ज पर वामपंथियों की बेहद संगठित, हिंसक, वैचारिक और सांगठनिक शक्ति का मुकाबला किया। ममता ने दरअसल जनता की नब्ज को पकड़ लिया है और आज वे इसीलिए जनता की नजर में किसी भी बड़े राष्ट्रीय दल से ज्यादा विश्वसनीय और प्रामाणिक हैं। कांग्रेस और भाजपा जैसे दलों को जो करना था उसे ममता ने कर दिखाया। वे यह बताने और जताने में सफल रहीं कि वे ही वाममोर्चा का प्रामाणिक विकल्प हैं।
तीन दशक से ज्यादा समय से एक राज्य की सत्ता पर कायम वाममोर्चा के लिए वास्तव में यह आजतक की सबसे बड़ी चुनौती है। जो हालात बन रहे हैं उसमें वाममोर्चा के पास अब डैमेज कंट्रोल का समय भी नहीं है। ममता बनर्जी इस मामले में वामपंथियों को उनकी ही भाषा में जवाब देकर एक ऐसी नेत्री के रूप में उभरी हैं जिसे वामदलों की हिंसक और अधिनायकवादी राजनीति का जवाब उनकी ही शैली में देना आता है। अपनी ईमानदारी, सादगी, संर्धषशीलता से उन्होंने अपने आंदोलन को विश्वसनीय आधार भी दिया है। आम आदमी के लिए लड़ने और जीने की जो यूएसपी, वामदलों को जनता के बीच आधार दिलाती थी, ममता ने उसे छीन लिया। वामदलों के नेताओं के भ्रष्टाचार के किस्सों के बीच ममता अपनी सादगी के साथ मौजूद थीं। वामदलों के अतिवादी और हिंसक रवैये का जवाब देने के लिए तृणमूल कांग्रेस भी उन्हीं हथियारों के साथ मौजूद थी। यानि साम-दाम-दंड-भेद हर तरीके से तृणमूल ने अपना सांगठनिक आधार मजबूत किया और वामदलों की बोलती बंद कर दी। जाहिर तौर पर ममता यह काम कांग्रेस में रहते हुए नहीं कर सकती थीं। गुटों में बंटी कांग्रेस और आलाकमान के आसपास सक्रिय दबाव समूहों के साथ समन्वय बिठाकर काम करना बहुत मुश्किल था। ममता का निजी स्वभाव और तेवर भी इसकी अनुमति नहीं देते थे। किंतु ममता ने राजनीतिक तौर पर बेहद परिपक्वता का परिचय देते हुए केंद्रीय सरकार में अपनी जगह बनाए रखी ताकि चाहकर भी वामपंथी सरकार उनके आंदोलन को दबा न सके। एक समय जब केंद्र में भाजपा थी तो वे अटलबिहारी वाजपेयी के साथ खड़ी दिखीं और समय आते ही उनका साथ छोड़ कांग्रेस के साथ आ गयीं। इस तरह केंद्रीय मंत्री होने के नाते उनके और उनके दल पर सीधी कार्रवाई करने की स्थिति में वामपंथी सरकार नहीं थी। किंतु ममता को अपना लक्ष्य पता था वे हर काम अपने अंदाज में कर रही थीं।उनके इरादे उन्हें पता थे। वे दिल्ली में भले रहीं किंतु रायटर्स बिल्डिंग में बैठने का उनका सपना सबसे बड़ा रहा। वे रेल मंत्रालय को प्रायः कोलकाता से ही संचालित करती हैं। यह उनका अपना अंदाज है कि उन्हें सिर्फ चिड़िया की आंख दिखती है। राष्ट्रीय दलों भाजपा और कांग्रेस का इस्तेमाल करते हुए उन्होंने अपने रास्ते के कांटे हटाए और जब चाहा उन्हें उनकी हैसियत बता दी। जैसा कि हाल में हुए नगर निगम चुनावों में उन्होंने कांग्रेस से भी तालमेल नहीं किया और अपने दम पर मैदान में उतरीं। इससे आने वाले विधानसभा चुनावों में कांग्रेस के पास ममता से बहुत कम सीटों पर तालमेल के अलावा चारा क्या है। भाजपा का एक तो पश्चिम बंगाल में बहुत आधार नहीं है किंतु ममता ने हालात ऐसे पैदा कर दिए हैं कि भाजपा समर्थक वोट भी वाममोर्चा सरकार को गिराने के लिए ममता को ही मिलेंगें। अभी इस बात का विश्लेषण होना शेष है कि आखिर वाममोर्चा जैसी संगठित-सांगठनिक शक्ति को ममता किस तरह जनता की नजरें से गिराकर खुद स्टार बन बैठीं। देखें तो नंदीग्राम और सिंगूर की घटनाओं ने वाममोर्चा को खासा नुकसान पहुंचाया और उसके वैचारिक आधार को इससे खासी चोट पहुंची। इससे तमाम बुध्दिजीवी, कलाकार और रचनाकार ही नहीं आम लोग भी तृणमूल में अपने राज्य का भविष्य देखने लगे। बची खुची कसर लालगढ़ में मचे संग्राम ने पूरी कर दी।
अपने तीन दशकों के कार्यकाल में मची अराजकता, विकासहीनता, गुंडागर्दी और पार्टी की दादागिरी से त्रस्त लोगों के सामने माकपा हतप्रभ थी। उसके पास इन सालों में हुए अविकास और राज्य के पिछड़ेपन को लेकर कोई जवाब नहीं था। यह बात सही है कि वामदलों की सक्रियता के चलते पश्चिम बंगाल के समाज में राजनैतिक चेतना का विस्तार हुआ है, बहसें होती हैं और लोग मुद्दों पर बात करते हैं। यह जागरूकता और प्रश्न पूछने की आकुलता अब वामदलों के उपर ही भारी पड़ रही है। सिंगुर, नंदीग्राम और लालगढ़ से उठे सवालों का जवाब आज भी वामदलों के पास नहीं है। वाममोर्चा की सरकार जिस राजनीतिक प्रबंधन पर इतराया करती थी, वही प्रबंधन, वही हिंसा, वही बौद्धिक तबका अब तृणमूल के समर्थन में दिखता है। पश्चिम बंगाल में भले वामपंथी अरसे से राज कर रहे थे किंतु उनके खिलाफ गुस्सा जमा होता रहा है। यह अलग बात है कि हमारे राष्ट्रीय दल कांग्रेस और भाजपा कोई विश्वसनीय विकल्प प्रस्तुत न कर सके इसलिए वामदल इतनी लंबी पारी खेल पाए। यह सच है कि ममता बनर्जी ने भी अलग रास्ता लेकर, सधी रणनीति से एक क्षेत्रीय दल बनाकर, दिल्ली में सबका सहयोग लेते हुए वामदलों के सामने एक प्रामाणिक विकल्प के रूप में खुद को प्रस्तुत न किया होता तो पश्चिम बंगाल आज भी वामदलों का अभेद्य दुर्ग ही नजर आता। किंतु यह जंग ममता ने सबको साथ लेकर अपने दम पर जीती है। वे सही मायने में वन मैन आर्मी की तरह जूझती नजर आयीं। सड़क पर लड़ने से लेकर हिंसा का सहारा लेने तक कहीं आज उनकी तृणमूल कांग्रेस पीछे नहीं है। सच कहें तो वामदलों के सारे हथियार आज ममता के पास हैं। वामपंथियों के उन्हीं अस्त्रों से ममता उन्हें पीट रही हैं। नगर निगमों के चुनाव सही मायने में वामपंथी दलों के लिए एक बड़ी चुनौती हैं। इसे विधानसभा चुनावों का सेमीफायनल माना जा रहा था। ममता के इस जादू को काटने का कोई उपाय फिलहाल तो वाममोर्चा के पास नजर नहीं आता। निष्पक्ष चुनावों की परिपाटी ने वैसे भी वामपंथी चुनाव प्रबंधकों की असलियत सामने ला दी है। जनता के मन को बदलने और चुनाव जीतने का कोई मंत्र अगर वाममोर्चा के पास हो तो उसे जरूर आजमाना चाहिए। फिलहाल तो पश्चिम बंगाल से वाममोर्चा सरकार की विदाई की पटकथा लिखी जा चुकी है, आगे के दिनों की कौन जाने।

शुक्रवार, 14 मई 2010

इस औरत का रास्ता मत रोकिए


ऐसे फतवे से क्या हासिल होगा समाज को
-संजय द्विवेदी


इस बार फिर एक फतवा विवादों में हैं। मुस्लिम समाज की प्रमुख संस्था दारूल उलूम, देवबंद का ने हाल में ही एक फतवा जारी करते हुए मुस्लिम महिलाओं को सलाह दी है कि वे मर्दों के साथ आफिस में काम न करें और अगर उन्हें काम करना भी तो बुर्का भी पहनें और दूरियां बनाकर रखें। जाहिर तौर पर मुस्लिम समाज से ही इस फतवे के विरोध में आवाजें उठनी शुरू हो गयी हैं। देवबंद से जारी इस फतवे का पूरे देश में विरोध हो रहा है। महिला संगठनों ने भी देवबंद के इस फतवे को गलत बताया है।
ऐसे में सवाल यह उठता है कि समुदाय की बेहतरी के सवालों पर गौर करने के बजाए इस तरह के फतवों से क्या हासिल होना है। वैसे भी मुस्लिम समाज में महिलाओं की स्थिति बेहतर नहीं है। अन्य समाजों के मुकाबले मुस्लिम महिलाएं प्रत्येक क्षेत्र में पिछड़ रही हैं। औरत को कड़े पर्दे में रखने की हिमायत के अलावा तीन तलाक जैसे प्रावधान आखिर क्या संदेश देते हैं ? इस्लाम के जानकार कई विद्वान मानते हैं कि इस्लाम को सही रूप में न जानने और गलत व्यख्याओं के चलते महिलाएं उपेक्षा का शिकार हुई हैं, जबकि इस्लाम में स्त्री को अनेक अधिकार दिए गए हैं। एक इस्लामी विद्वान के मुताबिक ‘वास्तविकता तो यह है कि इस्लाम ने पहली बार यह महसूस किया था कि पुरुष व महिलाएं दोनों ही समाज के महत्वपूर्ण अंग हैं। इस्लाम संभवतः पहला मजहब था, जिसने अरब जगत में महिलाओं को अधिकार प्रदान करने का श्रीगणेश किया।’ यह वास्तविकता है कि मध्य युग में महिलाओं की स्थिति बहुत खराब थी। उन्हें पिता की संपत्ति में कोई अधिकार न था। विवाह के मामले में उनकी इच्छा या स्वीकृति का प्रश्न ही नहीं था। विधवा होने पर पुनर्विवाह की अनुमति नहीं थी। शादी के बाद छुटकारे का अधिकार न था। अपनी सम्पन्नता के आधार पर पुरुष सैकड़ों औरतों को हरम में रखते थे। उलेमा आज जैसी भी व्याख्याएं करें पर औरत के सामने खड़े इन प्रश्नों पर इस्लाम ने सोचा और उसे अधिकार सम्पन्न बनाया। इस्लाम ने समानता की बात कही । कुरान के मुताबिक ‘पुरुषों के लिए भी उस सम्पन्न बनाया। इस्लाम ने समानता की बात कही । कुरान के मुताबिक ‘पुरुषों के लिए भी उस सम्पत्ति में हिस्सा है, जिसे मां-बाप या निकट संबंधी छोड़ जाएं ।’ (अन-निसा 7) । यह निर्देश स्त्री-पुरुष में भेद नहीं करते। आगे कहा गया है ‘मर्दों ने जो कुछ कमाया है, उसके अनुसार उनका हिस्सा है।’(इन-निसा। 32) । पिता की संपत्ति में बेटी के हक की इस्लाम ने व्यवस्था की है। विवाह के मामले में भी इस्लाम ने औरतों को आजादी दी । विधवा का विवाह उसकी सलाह से और कुंवारी का विवाह उसकी रजामंदी के बाद करने का निर्देश दिया। यही नहीं यह भी कहा गया है कि विवाह उसकी रजामंदी के बाद करने का निर्देश दिया । यही नहीं यह भी कहा गया है कि विवाह के बाद यदि लड़की कहे तो शादी उसकी रजामंदी के बगैर हुई है तो निकाह टूट जाता है। लेकिन उलेमा उन्हीं आयतों को सामने लाते हैं, जहां औरत की पिटाई का हक पति को दिया गया है। मगर वे यह नहीं बताते कि पत्नी पर व्याभिचार का आरोप लगाकर पति तभी कार्यवाही कर सकता है, जब कम-से-कम 4 गवाह इस बात की गवाही दें कि पत्नी व्याभिचारिणी है। इसके अलावा तलाक के मामले की मनमानी व्याख्याओं के हालात और बुरे किए हैं। पति द्वारा पीड़ित किए जाने पर पत्नी को तलाक का हक देकर इस्लाम ने औरत को शक्ति दी थी । किंतु आज तलाक पुरुषों के हाथ का हथियार बन गया है । बहुविवाह और इस्लाम को लेकर भी खासे भ्रम और मनमानी व्याख्याएं जारी है।एक मुसलमान को चार शादियां करने का हक है, यह बात जोर से कही जाती है। इस अधिकार को लेकर मुस्लिम खासे संवेदनशील भी हैं, क्योंकि इससे प्रायः मुसलमान चार शादियां तो नहीं करते, लेकिन स्त्री पर मनोवैज्ञानिक दबाव व तनाव बनाए रखते हैं। पत्रकार डॉ. मेंहरुद्दीन खान ने अपने एक लेख में कहा है कि ‘विशेष परिस्थितियों में समाज में संतुलन बनाए रखने के लिए यह व्यवस्था की गई थी। इसमें दो बातें थीं एक तो नवाबों के हरम में असंख्य औरतें थीं, जो नारकीय जीवन बिताती थीं। दो-चार पत्नियां रखने की अनुमति का उद्देश्य हरमों से औरतों की संख्या कम हो गई थी। इस हालात में समाज में संतुलन बनाने के लिए यह उपाय लाजिमी था।’ आज देखा गया है कि विशेष परिस्थितियों में मिली छूट का लाभ उठाकर बूढ़े सम्पन्न लोग भी जवान व कुंवारी लड़कियों से विवाह कर खुद को गौरवान्वित महसूस करते हैं। ऐसे प्रसंग मुस्लिम समाज के समाने एक चुनौती की तरह खड़े हैं। इसी तरह पर्दा प्रथा भी है। इस्लाम ने उच्छृंखल होने, नंगेपन पर रोग लगाई तो उसे उलेमाओं ने औरत के खिलाफ एक और हथियार बना लिया।भारत में दहेज प्रथा अभिशाप बन गई है।
मुस्लिम समाज में इस प्रकार की किसी परंपरा का जिक्र नहीं मिलता, किंतु भारतीय प्रभावों से आज उनमें भी यह बीमारी घर कर गई है। अनेक मुस्लिम औरतों को जलाकर मार डालने की घटनाएं दहेज को लेकर हुई हैं। इसमें मुस्लिम समाज का दोहरापन भी सामने आता है। ‘मेहर’की रकम तय करते समय ये शरीयत की आड़ लेकर महर तय कराना चाहता है। किंतु दहेज लेते समय सब भूल जाते हैं। अरब देशों में कमाने गए लोगों ने भी दहेज को बढ़ावा दिया है। अनाप-शनाप आय से वे पैसा खर्च कर अपना रुतबा जमाना चाहते हैं। वहां ये भूल जाते हैं कि दहेज का प्रचलन न सिर्फ गैर इस्लामी है, बल्कि किसी भी समाज के लिए चाहे वे हिंदू हो या ईसाई, शुभ लक्षण नहीं है।जाहिर है मुस्लिम महिलाओं को अपनी शक्ति और धर्म द्वारा दिए गए अधिकारों के प्रति जागरूकता पैदा कर अपनी लड़ाई को आगे बढ़ाना होगा । सामाजिक चेतना जगाकर ही इस प्रश्न पर सोचने के लिए लॉ बोर्ड संस्थाओं को जगाया जा सकता है । धार्मिक नेताओं को भी चाहिए कि वे इस तरह के फतवे जारी करके अपने आपको हास्यापद न बनाएं। क्योंकि मुस्लिम महिलाएं ही नहीं पूरे भारतीय समाज की महिलाएं हर क्षेत्र में अपना योगदान कर रही हैं और अपनी योग्यता से एक नया अध्याय लिख रही हैं। इस तेजी से आगे बढ़ती औरत को प्रोत्साहन देने की जरूरत है न कि उसका रास्ता रोकने की। ऐसे में बेटियों के हक और हकूक के लिए हमें अपना दिल बड़ा करना पड़ेगा क्योंकि वे हमारा परिवार बना सकती हैं तो हमारे समाज और देश को बनाने की जिम्मेदारी भी उन्हें दी जा सकती है। इंदिरा गांधी से लेकर बेनजीर भुट्टो तक हमारे पास हर समाज में ऐसे सैकड़ों उदाहरण हैं जिन्होंने अपने काम से औरत के वजूद को साबित किया है।औरत के हक और हुकूक का सवाल पूरी कौम की बेहतरी से जुड़ा है। यह बात मुस्लिम जगत के रहनुमा जितनी जल्दी समझ जाएंगे, मुस्लिम महिलाएं उतनी ही समर्थ होकर घर-परिवार एवं समाज के लिए अपना सार्थक योगदान दे सकेंगी।

शुक्रवार, 7 मई 2010

झगड़ा क्या है उर्दू और हिंदी का

दोनों इसी जमीन की खुशबू से बनी भाषाएं हैं
- संजय द्विवेदी

ज्ञान की नगरी बनारस से एक अच्छी खबर आयी है। भाषाओं की जंग में फंसे देश में ऐसी खबरें राहत भी देती हैं और समाधान भी सुझाती हैं। काशी हिंदू विश्वविद्यालय के एमए हिंदी के छात्र-छात्राएं अब गालिब की शायरी, मीर तकी मीर जैसे उर्दू के लेखकों को भी पढ़ेंगे। जाहिर तौर इससे हिंदी की ताकत तो बढ़ेगी ही, विद्यार्थी नए अनुभवों से युक्त होंगे और उर्दू के विशाल काव्य संसार से रूबरू होने का उन्हें मौका भी मिलेगा। यह एक अवसर और संदेश दोनों है कि भारतीय भाषाएं अपनी ताकत को पहचानें और साथ मिलकर अंग्रेजी के आतंक के सामने अपनी सार्थकता साबित करें।
सच तो यह है कि देश के बंटवारे ने सिर्फ हिंदुस्तान का भूगोल भर नहीं बदला, उसने इस विशाल भू-भाग पर पलने और धड़कने वाली गंगा-जमुनी संस्कृति को भी चोट पहुंचाई। हमारी संवेदनाओं, भावनाओं, बोलियों और भाषाओं को भी तंगनज़री का शिकार बना दिया । उर्दू 1947 में घटे इस अप्राकृतिक विभाजन का दंश आज तक झेल रही है। जब वह एक सभ्यता को स्वर देने वाली भाषा नहीं रही । बल्कि एक ‘कौम’ की भाषा बनकर रह गई। तब से आज तक वह सियासतदानों के लिए ‘फुटबाल’ बनकर रह गई है।भारतीय उपमहाद्वीप में जन्मी-पली और बढ़ी यह भाषा जो यहां की तहजीब और सभ्यता को स्वर देती रही, विवादों का केंद्र बन गई। गैर भाषाई और गैर सांस्कृतिक सवालों की बिना पर उर्दू को अनेक स्तरों पर विवाद झेलने पड़े और इसमें जहां एक ओर उग्र उर्दू भाषियों की हठधर्मिता रही तो दूसरी ओर उर्दू विरोधियों के संकुचित दृष्टिकोण ने भी उर्दू की उपेक्षा के वातावरण की सृजन किया। हमारे समाज के बदलते रंग-रूप उसकी सभ्यता की विकासयात्रा में उर्दू साहित्य ने कई आयाम जोड़े हैं। अमीर खुसरो, मीर तकी मीर, गालिब की परंपरा से होती हुई जो उर्दू फैज अहमद ‘फैज’, अली सरदार जाफरी, कैफी आजमी या बशीर बद्र तक पहुची है, वह एक दिन की यात्रा नहीं है। एक लंबे कालखंड में एक देश और उसके समाज से सतत संवाद के सिलसिले ने उर्दू को इस मकाम पर पहुंचाया है। इस योगदान के ऊपर अकेले 1947 के विभाजन ने पानी फेर दिया। सामाजिक जनजीवन में भी यही घटना घट रही थी। मुस्लिम मुहल्ले-हिंदू मुहल्ले अलग-अलग सांस ले रहे थे, पूरे अविश्वास के साथ । दोनों वर्गों को जोड़ने वाले चीजें नदारद थीं। भाषा (उर्दू) तो पहले ही ‘शहीद’ हो चुकी थी। ऐसे में जब संवेदनाओं का श्रोत सूख रहा हो। हमने अपने-अपने ‘कठघरे’ बना रखे हों-जहां हम व्यक्तिगत सुख-दुख तक की बातें एक-दूसरे से नहीं बांट पा रहे हों-तो भाषा व लिपि को लेकर समझदारी कहां से आती ?उर्दू को लेकर काम कर रहे लोग भी बंटे दिखे। तंगनजरी का आलम यह कि हिंदू उर्दू, मुस्लिम उर्दू तक के विभाजन साफ नजर आने लगे। दिल्ली व पंजाब के जिन उर्दू अखबारों के मालिक हिंदू थे, जैसे हिंद समाचार, प्रताप, मिलाप आदि उन्हें देख कर ही पता चल जाता था कि यह हिंदू अखबार है। जबकि मुस्लिम मालिक-संपादक के अखबार बता देते हैं कि वह मुस्लिम अखबार है। यह कट्टरपन अब साहित्यिक क्षेत्रों (शायरी व कहानी) में भी देखने लगा है।
जाहिर है ये बातें ‘उर्दू समाज’ बनाने में बाधक हैं। उर्दू के सुनहरे अतीत पर गौर करें तो रघुपति सहाय फिराक, कृश्नचंदर, सआदत हसन मंटो, राजेंद्र सिंह बेदी, प्रेमचंद, कुरतुल एन हैदर, ख्वाजा अहमद अब्बास, अहमद नदीम का सभी ने जो साहित्य रचा है-वह भारतीय समाज के गांवों एवं शहरों की धड़कनों का गवाह है। वहीं उर्दूं शायरी ने अपने महान शायरों की जुबान से जिंदगी के हर शै का बयान किया है। यह परंपरा एक ठहराव का शिकार हो गई है। नए जमाने के साथ तालमेंल मिलाने में उर्दू के साहित्यकार एवं लेखक शायद खुद को असफल पा रहे हैं। उर्दू एक मंझी हुई संस्कृति का नाम है। हालत बताते हैं कि उसे आज सहारा न दिया गया तो वह अतीत की चीज बनकर रह जाएगी। आज अहम सवाल यह है कि किसी मुसलमान या हिंदू को उर्दू सीखकर क्या मिलेगा ? हर चीज रोजगार एवं लाभ के नजरिए से देखी जाने लगी है। ऐसे में उर्दू आंदोलन को सही रास्तों की तलाश करनी होगी। सिर्फ मदरसों एवं कौमी साहित्य की पढ़ाई के बजाए उर्दू को नए जमाने की तकनीक एवं साईंस की भी भाषा बनना होगा। साहित्य में वह अपनी सिद्धता जाहिर कर चुकी है-उसे आगे अभी हिंदुस्तान की कौम का इतिहास लिखना है। ये बातें अब दफन कर दी जानी चाहिए की उर्दू का किसी खास मजहब से कोई रिश्ता है। यदि ऐसा होता तो बंगलादेश- ‘बंगला’ भाषा की बात पर अलग न होता और पाकिस्तान के ही कई इलाकों में उर्दू का विरोध न होता । इसके नाते उर्दू को किसी धर्म के साथ नत्थी करना बेमानी है। उर्दू सही अर्थों में ‘हिन्दुस्तानी कौम’ की जबान है और हिंदुस्तान की सरजमी पर पैदा हुई भाषा है। आज तमाम तरफ से उर्दू को देवरागरी में लिखने की बातें हो रही हैं-और इस पर लंबी बहसें भी चली हैं। लोग मानते हैं कि इससे उर्दू का व्यापक प्रसार होगा और सीखने में लिपि के नाते आने वाली बाधाएं समाप्त होंगी । लेकिन कुछ विद्वान मानते कि रस्मुलखत (लिपि) को बदलना मुमकिन नहीं है । क्योंकि लिपि ही भाषा की रूह होती है। वे मानते हैं कि देवनागरी में उर्दू को लिखना खासा मुश्किल होगा, क्योंकि आप जे, जल, जाय, ज्वाद के लिए भी हिंदी में ‘ज’लिखेंगे । जबकि सीन, से, स्वाद के लिए ‘स’ लिखेंगे। ऐसे में उनका सही उच्चारण (तफज्जुल) मुमकिन न होगा और उर्दू की आत्मा नष्ट हो जाएगी । ऐसे विवादों-बहसों के बीच भी उर्दू की हिंदुस्तानी सरजमीं पर एक खास जगह है । भारत की ढेर-सी भाषाओं एवं उसके विशाल भाषा परिवार की वह बेहद लाडली भाषा है । गीत-संगीत, सिनेमा-साहित्य हर जगह उर्दू का बढ़ता इस्तेमाल बताता है कि उर्दू की जगह और इज्जत अभी और बढ़ेगी है। बनारस ने उर्दू को सलाम भेजा है और वहां के हिंदी विभाग ने उसे जगह दी है। इस तरह के फैसले निश्चय ही हिंदी परिवार की ताकत को बढ़ाने वाले साबित होंगें। आज जब हिंदी की बोलियां भी उसके खिलाफ खड़ी की जा रही हैं तो हिंदी का उर्दू के लिए प्यार और स्वीकार एक नई नजीर बन सकता है।

गुरुवार, 22 अप्रैल 2010

मीडिया विमर्श का अगला अंक नक्सलवाद पर


भोपाल। देश की प्रतिष्ठित पत्रिका मीडिया विमर्श का अगला अंक नक्सलवाद और मीडिया विषय पर केंद्रित है। इस अंक का प्रकाशन अप्रैल के आखिरी सप्ताह में हो जाएगा। इस महत्वपूर्ण अंक में देश के तमाम दिग्गज पत्रकारों के लेख प्रकाशित किए गए हैं। जिसमें नक्सलवाद की चुनौती से जूझने के प्रयासों पर सार्थक बातचीत की गयी है। इस अंक के महत्वपूर्ण लेखकों में सर्वश्री रमेश नैयर, बसंत कुमार तिवारी, डा. महावीर सिंह, डा. श्रीकांत सिहं, धनंजय चोपड़ा, कनक तिवारी, डा. सुभद्रा राठौर, अनिल विभाकर, उमाशंकर मिश्र, संदीप भट्ट, अबू तोराब, प्रकाश दुबे, डा. शाहिद अली, डा. पवित्र श्रीवास्तव, मीता उज्जैन, लीना और संजय द्विवेदी शामिल हैं। इस अंक का मूल्य 25 रूपए है। इसकी प्रति प्राप्त करने के लिए मीडिया विमर्श के भोपाल कार्यालय- 428, रोहित नगर, फेज-1, ई-8 एक्सटेंशन, भोपाल -39 पर संपर्क किया जा सकता है। यह पत्रिका आप पचीस रूपए की डाक टिकट या मनीआर्डर भेज कर भी प्राप्त कर सकते हैं।

शनिवार, 17 अप्रैल 2010

अब दलित मुक्ति के सवाल पर सोचिए

सही मायने में बाजारवादी व्यवस्था ही है दलितों की असली
पिछले दिनों 14 अप्रैल को बाबा साहेब आंबेडकर की जयंती पर राहुल गांधी से लेकर मायावती और नितिन गडकरी तक सभी दलों के नेता बाबा साहेब के सपनों के प्रति अपनी आस्था जताते दिखे। किंतु इन सपनों के साथ सही संकल्प कहां हैं। आज देखें तो सिर्फ दलित राजनीति ही नहीं, समूचा देश नेतृत्व के संकट में जूझ रहा है। बौनों के बीच आदमकद तलाशे भी नहीं मिलते, जाहिर है, छुटभैयों की बन आई है। बाबा साहब आंबेडकर के बाद दलितों को सच्चा और स्वस्थ नेतृत्व मिला ही नहीं। चुनावी सफलताओं, कार्यकर्ता आधार के सवाल पर जरूर मायावती जैसे नेता यह दावा कर सकते हैं कि वे बाबासाहब के आंदोलन को आगे ले जा रहे हैं, परंतु सच यह है कि आंबेडकर जैसी वैचारिक तेजस्विता आज दलित राजनीति के समूचे परिवेश में दुर्लभ है। राष्ट्रीय आंदोलन की आंधी में दलित प्रश्न को, छुआछुत, जातिप्रथा के सवालों को जिस तरह से उन्होंने मुद्दा बनाया, वह खासा महत्व का प्रसंग है। पेरियार, ज्योतिबा फुले, शाहूजी महाराज से लेकर बाबासाहब की वैचारिक धारा से आगे कोई बड़ी लकीर खींच पाने में दलित राजनीति असफल रही । सत्ता के साथ पेंगे भरने का अभ्यास और सत्ता से ही दलितों का भला हो सकता है, इस चिंतन ने समूचे दलित आंदोलन की धार को कुंद कर दिया तथा एक सुविधाभोगी नेतृत्व समाज का सिरमौर बन बैठा। बाबासाहब यदि चाहते तो आजीवन पं. नेहरू के मंत्रिमंडल में मंत्री रह सकते थे, लेकिन वे आंदोलनकारी थे । उन्हें जगजीवनराम बनना कबूल नहीं था । सत्ता के साथ आलोचनात्मक विमर्श के रिश्ते बनाकर उन्होंने व्यक्तिगत राजनीतिक सफलताओं एव सुख की बजाए दलित प्रश्न को सर्वोच्चता दी। उनकी निगाह से राजसत्ता नहीं, औसत दलित के खिलाफ होने वाला जुल्म और अन्याय रोकना ज्यादा महत्वपूर्ण था। यह सारा कुछ करते हुए भी बाबासाहब ने तर्क एवं विचारशक्ति के आधार पर ही आंदोलन को नेतृत्व दिया । सस्ते नारे-भड़ाकाऊ बातें उनकी राजनीति का औजार कभी नहीं बनीं। आजादी के इन 6 दशकों में दलित एक संगठित ताकत के रूप में न सही, किंतु एक शक्ति के रूप में दिखते हैं तो इस एकजुटता को वैचारिक एवं सांगठनिक धरातल देने का काम पेरियार, बाबासाहब जैसे महापुरुषों ने किया । उनके सतत संघर्ष से दक्षिण में आज दलित राजनीति सिरमौर है, महाराष्ट्र में बिखरी होने के बावजूद एक बड़ी ताकत है। उ.प्र. में बहुजन समाज पार्टी के रूप में उसकी महत्वपूर्ण उपस्थिति है। मुख्यधारा के राजनीतिक दलों में आज दलित की उपेक्षा करने का साहस नहीं है। आरक्षण के प्रश्न पर लगभग राष्ट्रीय सहमति है, वंचितों को सत्ता-संगठन में पद एवं अधिकार देने में मुख्यधारा की राजनीति में ‘स्पेस’ बढ़ा है।
सही अर्थों में दलित राजनीति के लिए यह समय ठहरकर सोचने और विचार करने का है कि इतनी स्वाकार्यता के बावजूद क्या वे समाज, सरकार एवं प्रशासन का मानस दलित प्रश्नों के प्रति संवेदन शील बना पा रहे है। दलित, आदिवासी, गिरिजनों के प्रश्न क्या देश की राजनीति की भूल चिंताओं में शामिल हैं ? सत्ता में हिस्सेदारी के बावजूद क्या हम औसत दलित की जिंदगी का छोड़ा भी अंधेरा, छोड़ी भी तकलीफ कम कर पा रहे हैं ? दक्षिण में करुणानिधि से लेकर उ.प्र. में मायावती जैसों के शासन का धर्म किस प्रकार दलितों के प्रति अन्य शासकों से अलग था या है । क्योंकि यह बात दलित राजनिति को भली प्रकार समझनी होगी कि दलित नौकरशाहों की गिनती, महत्वपूर्ण पदों पर दलितों की नियुक्ति से सामाजिक अन्याय या दमन का सिलसिला रुकने वाला नहीं है। दलित राजनीति के सामने सत्ता में हिस्सेदारी के साथ-साथ दलित मुक्ति का प्रश्न भी खड़ा है। दलित मुक्ति जरा बडा प्रश्न है। यह सही अर्थों में तभी संभव है जब सवर्ण चेतना भी अपनी काराओं तथा कठघरों से बाहर निकले। निश्चय ही यह लक्ष्य सवर्णों को गाली-गलौज कर, उनके महापुरुषों के अपमान से नहीं पाया जा सकता। जातियों का मामला वर्ग संघर्ष से सर्वथा अलग है। वर्ग संघर्ष में आप पूंजीपति के नाश की कामना कर सकते हैं, क्योकिं तभी वर्ग विहीन समाज बन सकता है, जबकि जातिविहीन समाज बनाने के लिए जाति युद्ध का कोई उपयोग नहीं है। दलित आंदोलन के निशाने पर सवर्ण नहीं, सवर्णवाद होना चाहिए। समतायुक्त समाज, जातिविहीन समाज का सपना बाबासाहब आंबेडकर ने देखा था तो उसे साकार करने के अवसर आर बदलते परिवेश ने हमें दिए हैं। दलित राजनीति के प्रमुख राजनेताओं को चाहिए कि वे दलितों, मजलूमों के असली शत्रु की पहचान करें। यह खेदजनक है कि वे ऐसा कर पाने में विफल रहे हैं। दलितों, मजलूमों एवं गरीबों की सबसे बड़ी शत्रु है ताजा दौर की बाजारवादी व्यवस्था । दलित राजनीति के एजेंडे पर बाजारवादी ताकतों के खिलाफ संघर्ष को प्राथमिकता मिलनी चाहिए। इस उदारीकरण की आंधी ने पिछले दो दशक में दलितों, कामगारों आम लोगं के सामने रोजी-रोटी, रोजगार, महंगाई का जैसा संकट खड़ा किया है, वह सबके सामने है। सच कहें तो दलित राजनीति वैचारिक तौर पर गहरे अंतर्विरोधों का शिकार है। उसके सामने निश्चित लक्ष्य एवं मंजिलें नहीं हैं। किसी प्रकार सत्ता की ऊंची दुकानों में अपने लिए जगह बनाना दलित राजनीति का केंद्रीय विचार बन गया है। एक बेहतर मानवीय जीवन के लिए संघर्ष, अशिक्षा, बेकारी और अपसंस्कृति के विरुद्ध जेहाद, बाजारवादी शक्तियों से दो-दो हाथ करना एजेंडे में नहीं । इन चुनौतियों के बावजूद दलितों के आत्मसम्मान को बढ़ाने, उनमें ओज भरने, अपनी बात कहने का साहस जरूर इन दलों ने भरा है। यह अकेली बात दलित राजनीति की उपलब्धि मानी जा सकती है। महाराष्ट्र के संदर्भ में दलित साहित्य की भूमिका को भी नहीं नकारा जा सकता है। कई बार तो यह लगता है कि महाराष्ट्र में दलित साहित्य आगे निकल गया, दलित राजनीति पीछे छूट गई है। ऐसा ही आभास दलित आंदोलन के कार्यकर्ता कराते हैं कि कार्यकत्ता आगे निकल गए, नेता पीछे छूट गए । समूचे देश में बिखरी दलित राजनीति की शाक्ति के यदि सामूहिक रूप से जातिवाद, बाजारवाद, बेकारी, अपसंस्कृति, अशिक्षा के खिलाफ संघर्ष में उतारा जाए तो देश का इतिहास एक नई करवट लेगा। आजादी की एक नई जंग की शुरुआत होगी। वह लड़ाई सिर्फ ‘सत्ता संघर्ष’ की नहीं ‘दलित मुक्ति’ की होगी। हर लड़ाई में मजबूत विरोधी, कमजोर प्रतिद्वंद्वी को पछाड़ता आया है। दलितों की सामूहिक चेतना ने आम लोगों के सवालों को अपने हाथ में लेकर यह लड़ाई लड़ी तो इस जंग में जीत कमजोर की होगी। अब यह बात दलितों के रहनुमाओं पर निर्भर है कि क्या वे इस चुनौती को स्वीकारेंगे। पिछले दिनों 14 अप्रैल को बाबा साहेब आंबेडकर की जयंती पर राहुल गांधी से लेकर मायावती और नितिन गडकरी तक सभी दलों के नेता बाबा साहेब के सपनों के प्रति अपनी आस्था जताते दिखे। किंतु इन सपनों के साथ सही संकल्प कहां हैं। आज देखें तो सिर्फ दलित राजनीति ही नहीं, समूचा देश नेतृत्व के संकट में जूझ रहा है। बौनों के बीच आदमकद तलाशे भी नहीं मिलते, जाहिर है, छुटभैयों की बन आई है। बाबा साहब आंबेडकर के बाद दलितों को सच्चा और स्वस्थ नेतृत्व मिला ही नहीं। चुनावी सफलताओं, कार्यकर्ता आधार के सवाल पर जरूर मायावती जैसे नेता यह दावा कर सकते हैं कि वे बाबासाहब के आंदोलन को आगे ले जा रहे हैं, परंतु सच यह है कि आंबेडकर जैसी वैचारिक तेजस्विता आज दलित राजनीति के समूचे परिवेश में दुर्लभ है। राष्ट्रीय आंदोलन की आंधी में दलित प्रश्न को, छुआछुत, जातिप्रथा के सवालों को जिस तरह से उन्होंने मुद्दा बनाया, वह खासा महत्व का प्रसंग है। पेरियार, ज्योतिबा फुले, शाहूजी महाराज से लेकर बाबासाहब की वैचारिक धारा से आगे कोई बड़ी लकीर खींच पाने में दलित राजनीति असफल रही । सत्ता के साथ पेंगे भरने का अभ्यास और सत्ता से ही दलितों का भला हो सकता है, इस चिंतन ने समूचे दलित आंदोलन की धार को कुंद कर दिया तथा एक सुविधाभोगी नेतृत्व समाज का सिरमौर बन बैठा। बाबासाहब यदि चाहते तो आजीवन पं. नेहरू के मंत्रिमंडल में मंत्री रह सकते थे, लेकिन वे आंदोलनकारी थे । उन्हें जगजीवनराम बनना कबूल नहीं था । सत्ता के साथ आलोचनात्मक विमर्श के रिश्ते बनाकर उन्होंने व्यक्तिगत राजनीतिक सफलताओं एव सुख की बजाए दलित प्रश्न को सर्वोच्चता दी। उनकी निगाह से राजसत्ता नहीं, औसत दलित के खिलाफ होने वाला जुल्म और अन्याय रोकना ज्यादा महत्वपूर्ण था। यह सारा कुछ करते हुए भी बाबासाहब ने तर्क एवं विचारशक्ति के आधार पर ही आंदोलन को नेतृत्व दिया । सस्ते नारे-भड़ाकाऊ बातें उनकी राजनीति का औजार कभी नहीं बनीं। आजादी के इन 6 दशकों में दलित एक संगठित ताकत के रूप में न सही, किंतु एक शक्ति के रूप में दिखते हैं तो इस एकजुटता को वैचारिक एवं सांगठनिक धरातल देने का काम पेरियार, बाबासाहब जैसे महापुरुषों ने किया । उनके सतत संघर्ष से दक्षिण में आज दलित राजनीति सिरमौर है, महाराष्ट्र में बिखरी होने के बावजूद एक बड़ी ताकत है। उ.प्र. में बहुजन समाज पार्टी के रूप में उसकी महत्वपूर्ण उपस्थिति है। मुख्यधारा के राजनीतिक दलों में आज दलित की उपेक्षा करने का साहस नहीं है। आरक्षण के प्रश्न पर लगभग राष्ट्रीय सहमति है, वंचितों को सत्ता-संगठन में पद एवं अधिकार देने में मुख्यधारा की राजनीति में ‘स्पेस’ बढ़ा है।
सही अर्थों में दलित राजनीति के लिए यह समय ठहरकर सोचने और विचार करने का है कि इतनी स्वाकार्यता के बावजूद क्या वे समाज, सरकार एवं प्रशासन का मानस दलित प्रश्नों के प्रति संवेदन शील बना पा रहे है। दलित, आदिवासी, गिरिजनों के प्रश्न क्या देश की राजनीति की भूल चिंताओं में शामिल हैं ? सत्ता में हिस्सेदारी के बावजूद क्या हम औसत दलित की जिंदगी का छोड़ा भी अंधेरा, छोड़ी भी तकलीफ कम कर पा रहे हैं ? दक्षिण में करुणानिधि से लेकर उ.प्र. में मायावती जैसों के शासन का धर्म किस प्रकार दलितों के प्रति अन्य शासकों से अलग था या है । क्योंकि यह बात दलित राजनिति को भली प्रकार समझनी होगी कि दलित नौकरशाहों की गिनती, महत्वपूर्ण पदों पर दलितों की नियुक्ति से सामाजिक अन्याय या दमन का सिलसिला रुकने वाला नहीं है। दलित राजनीति के सामने सत्ता में हिस्सेदारी के साथ-साथ दलित मुक्ति का प्रश्न भी खड़ा है। दलित मुक्ति जरा बडा प्रश्न है। यह सही अर्थों में तभी संभव है जब सवर्ण चेतना भी अपनी काराओं तथा कठघरों से बाहर निकले। निश्चय ही यह लक्ष्य सवर्णों को गाली-गलौज कर, उनके महापुरुषों के अपमान से नहीं पाया जा सकता। जातियों का मामला वर्ग संघर्ष से सर्वथा अलग है। वर्ग संघर्ष में आप पूंजीपति के नाश की कामना कर सकते हैं, क्योकिं तभी वर्ग विहीन समाज बन सकता है, जबकि जातिविहीन समाज बनाने के लिए जाति युद्ध का कोई उपयोग नहीं है। दलित आंदोलन के निशाने पर सवर्ण नहीं, सवर्णवाद होना चाहिए। समतायुक्त समाज, जातिविहीन समाज का सपना बाबासाहब आंबेडकर ने देखा था तो उसे साकार करने के अवसर आर बदलते परिवेश ने हमें दिए हैं। दलित राजनीति के प्रमुख राजनेताओं को चाहिए कि वे दलितों, मजलूमों के असली शत्रु की पहचान करें। यह खेदजनक है कि वे ऐसा कर पाने में विफल रहे हैं। दलितों, मजलूमों एवं गरीबों की सबसे बड़ी शत्रु है ताजा दौर की बाजारवादी व्यवस्था । दलित राजनीति के एजेंडे पर बाजारवादी ताकतों के खिलाफ संघर्ष को प्राथमिकता मिलनी चाहिए। इस उदारीकरण की आंधी ने पिछले दो दशक में दलितों, कामगारों आम लोगं के सामने रोजी-रोटी, रोजगार, महंगाई का जैसा संकट खड़ा किया है, वह सबके सामने है। सच कहें तो दलित राजनीति वैचारिक तौर पर गहरे अंतर्विरोधों का शिकार है। उसके सामने निश्चित लक्ष्य एवं मंजिलें नहीं हैं। किसी प्रकार सत्ता की ऊंची दुकानों में अपने लिए जगह बनाना दलित राजनीति का केंद्रीय विचार बन गया है। एक बेहतर मानवीय जीवन के लिए संघर्ष, अशिक्षा, बेकारी और अपसंस्कृति के विरुद्ध जेहाद, बाजारवादी शक्तियों से दो-दो हाथ करना एजेंडे में नहीं । इन चुनौतियों के बावजूद दलितों के आत्मसम्मान को बढ़ाने, उनमें ओज भरने, अपनी बात कहने का साहस जरूर इन दलों ने भरा है। यह अकेली बात दलित राजनीति की उपलब्धि मानी जा सकती है। महाराष्ट्र के संदर्भ में दलित साहित्य की भूमिका को भी नहीं नकारा जा सकता है। कई बार तो यह लगता है कि महाराष्ट्र में दलित साहित्य आगे निकल गया, दलित राजनीति पीछे छूट गई है। ऐसा ही आभास दलित आंदोलन के कार्यकर्ता कराते हैं कि कार्यकत्ता आगे निकल गए, नेता पीछे छूट गए । समूचे देश में बिखरी दलित राजनीति की शाक्ति के यदि सामूहिक रूप से जातिवाद, बाजारवाद, बेकारी, अपसंस्कृति, अशिक्षा के खिलाफ संघर्ष में उतारा जाए तो देश का इतिहास एक नई करवट लेगा। आजादी की एक नई जंग की शुरुआत होगी। वह लड़ाई सिर्फ ‘सत्ता संघर्ष’ की नहीं ‘दलित मुक्ति’ की होगी। हर लड़ाई में मजबूत विरोधी, कमजोर प्रतिद्वंद्वी को पछाड़ता आया है। दलितों की सामूहिक चेतना ने आम लोगों के सवालों को अपने हाथ में लेकर यह लड़ाई लड़ी तो इस जंग में जीत कमजोर की होगी। अब यह बात दलितों के रहनुमाओं पर निर्भर है कि क्या वे इस चुनौती को स्वीकारेंगे।