गुरुवार, 7 नवंबर 2019

समाचार पत्रों के सामने है पठनीयता का गंभीर संकट


डिजिटल माध्यमों से मिल रही हैं प्रिंट मीडिया को गंभीर चुनौतियां
-प्रो. संजय द्विवेदी

 

    दुनिया के तमाम प्रगतिशील देशों से सूचनाएं मिल रही हैं कि प्रिंट मीडिया पर संकट के बादल हैं। यहां तक कहा जा रहा है कि बहुत जल्द अखबार लुप्त हो जाएंगे। वर्ष 2008 में आई जे. गोमेज की किताब प्रिंट इज डेड इसी अवधारणा पर बल देती है। इस किताब के बारे में लाइब्रेरी रिव्यू में एंटोनी चिथम ने लिखा,यह किताब उन सब लोगों के लिए वेकअप काल की तरह है, जो प्रिंट मीडिया में हैं किंतु उन्हें यह पता ही नहीं कि इंटरनेट के द्वारा डिजिटल दुनिया किस तरह की बन रही है। बावजूद इसके क्या खतरा इतना बड़ा है। क्या भारतीय बाजार में वही घटनाएं दोहराई जाएंगी, जो अमरीका और पश्चिमी देशों में घटित हो चुकी हैं। इन्हीं दिनों में भारत में कई अखबारों के बंद होने की सूचनाएं मिली हैं तो दूसरी ओर कई अखबारों का प्रकाशन भी प्रारंभ हुआ है। ऐसी मिली-जुली तस्वीरों के बीच में आवश्यक है कि इस विषय पर समग्रता से विचार करें।
क्या वास्तविक और स्थाई है प्रिंट का विकासः
       भारत के बाजार आज भी प्रिंट मीडिया की प्रगति की सूचनाओं से आह्लादित हैं। हर साल अखबारों के प्रसार में वृद्धि देखी जा रही है। रोज अखबारों के नए-नए संस्करण निकाले जा रहे हैं। कई बंद हो चुके अखबार फिर उन्हीं शहरों में दस्तक दे रहे हैं, जहां से उन्होंने अपनी यात्रा बंद कर दी थी। भारतीय भाषाओं के अखबारों की तूती बोली रही है, रीडरशिप सर्वेक्षण हों या प्रसार के आंकड़े सब बता रहे हैं कि भारत के बाजार में अभी अखबारों की बढ़त जारी है।
    भारत में अखबारों के विकास की कहानी 1780 से प्रारंभ होती है, जब जेम्स आगस्टस हिक्की ने पहला अखबार बंगाल गजट निकाला। कोलकाता से निकला यह अखबार हिक्की की जिद, जूनुन और सच के साथ खड़े रहने की बुनियाद पर रखा गया। इसके बाद हिंदी में पहला पत्र या अखबार 1826 में निकला, जिसका नाम था उदंत मार्तण्ड,जिसे कानपुर निवासी युगुलकिशोर शुक्ल ने कोलकाता से ही निकाला। इस तरह कोलकाता भारतीय पत्रकारिता का केंद्र बना। अंग्रेजी, बंगला और हिंदी के कई नामी प्रकाशन यहां से निकले और देश भर में पढ़े गए। तबसे लेकर आज तक भारतीय पत्रकारिता ने सिर्फ विकास का दौर ही देखा है। आजादी के बाद वह और विकसित हुई। तकनीक, छाप-छपाई, अखबारी कागज, कंटेट हर तरह की गुणवत्ता का विकास हुआ।
भूमंडलीकरण के बाद रंगीन हुए अखबारः
   हिंदी और अंग्रेजी ही नहीं अन्य भारतीय भाषाओं के अखबारों ने कमाल की प्रगति की। देश का आकार और आबादी इसमें सहायक बनी। जैसे-जैसे साक्षरता बढ़ी और समाज की आर्थिक प्रगति हुई अखबारों के प्रसार में भी बढ़त होती गयी। केरल जैसे राज्य में मलयाला मनोरमा और मातृभूमि जैसे अखबारों की विस्मयकारी प्रसार उपलब्धियों को इसी संदर्भ में देखा जाना चाहिए। इसे ठीक से जानने के लिए राबिन जैफ्री के अध्ययन को देखा जाना चाहिए। इसी दौर में सभी भारतीय भाषाओं के  अखबारों ने अभूतपूर्व विस्तार और विकास किया। उनके जिलों स्तरों से संस्करण प्रारंभ हुए और 1980 के बाद लगभग हर बड़े अखबार ने बहुसंस्करणीय होने पर जोर दिया। 1991 के बाद भूमंडलीकरण, मुक्त बाजार की नीतियों को स्वीकारने के बाद यह विकास दर और तेज हुई। पूंजी, तकनीक, तीव्रता, पहुंच ने सारा कुछ बदल दिया। तीन दशक सही मायने में मीडिया क्रांति का समय रहे। इसमें माध्यम प्रतिस्पर्धी होकर एक-दूसरे को को शक्ति दे रहे थे। टीवी चैनलों की बाढ़ आ गई। वेब-माध्यमों का तेजी से विकास हुआ। अखबारों के मुद्रण के लिए विदेशी मशीनें भारतीय जमीन पर उतर रही थीं। विदेशी कागजों पर अखबार छापे जाने लगे थे।
    यह वही दौर था जब काले-सफेद अखबार अचानक से रंगीन हो उठे। नवें दशक में ही भारतीय अखबारों के उद्योगपति विदेश कंपनियों से करार कर रहे थे। विदेशी पूंजी के आगमन से अखबार अचानक खुश-खुश से दिखने लगे। उदारीकरण, साक्षरता, आर्थिक प्रगति ने मिलकर भारतीय अखबारों को शक्ति दी। भारत में छपे हुए शब्दों का मान बहुत है। अखबार हमारे यहां स्टेट्स सिंबल की तरह हैं। टूटती सामाजिकता, मांगकर पढ़ने में आती हिचक और एकल परिवारों से अखबारों का प्रसार भी बढ़ा। इस दौर में तमाम उपभोक्ता वस्तुएं भारतीय बाजार में उतर चुकी थीं जिन्हें मीडिया के कंधे पर लदकर ही हर घर में पहुंचना था, देश के अखबार इसके लिए सबसे उपयुक्त मीडिया थे। क्योंकि उनपर लोगों का भरोसा था और है।
डिजिटल मीडिया की चुनौतीः
   डिजिटल मीडिया के आगमन और सोशल मीडिया के प्रभाव ने प्रिंट माध्यमों को चुनौती दी है, वह महसूस की जाने लगी है। उसके उदाहरण अब देश में भी दिखने लगे हैं। अखबारों के बंद होने के दौर में जी समूह के अंग्रेजी अखबार अंग्रेजी अखबार डेली न्‍यूज एंड एनॉलिसि‍स’ (डीएनए) ने अपना मुद्रित संस्करण बंद कर दिया है। आगरा से छपने वाले अखबार डीएलए अखबार ने अपना प्रकाशन बंद कर दिया तो वहीं मुंबई से छपने वाला शाम का टेबलाइड अखबार द आफ्टरनून डिस्पैच भी बंद  हो गया, 29 दिसंबर,2018 को अखबार का आखिरी अंक निकला। जी समूह का अखबार डीएन का अब सिर्फ आनलाइन संस्करण ही रह जाएगा। नोटिस के अनुसार,अगले आदेश तक मुंबई और अहमदाबाद में इस अखबार का प्रिंट एडिशन 10 अक्टूबर,2019 से बंद कर दिया गया। वर्ष 2005 में शुरु हुए डीएनए अखबार ने इस साल के आरंभ में अपना दिल्ली संस्करण बंद कर दिया था, जबकि पुणे और बेंगलुरु संस्करण वर्ष 2014 में बंद कर दिए गए थे।
      आगरा के अखबार डीएलए का प्रकाशन एक अक्टूबर, 2019 से स्थगित कर दिया गया है। उल्लेखनीय है कि एक वक्त आगरा समेत उत्तर प्रदेश के कई शहरों से प्रकाशित होने वाले इस दैनिक अखबार का यूं बंद होना वाकई प्रिंट मीडिया इंडस्ट्री के लिए चौंकाने वाली घटना है। मूल तौर पर अमर उजाला अखबार के मालिकानों में शामिल रहे अजय अग्रवाल ने डीएलए की स्थापना अमर उजाला के संस्थापक स्व.डोरी लाल अग्रवाल के नाम पर की थी। अखबार ने शुरुआती दौर में अच्छा प्रदर्शन भी किया। पर उत्तर प्रदेश के कई शहरों में अखबार के विस्तार के बाद ये गति थम गई। धीरे-धीरे अखबार एक बार फिर आगरा में ही सिमट कर रह गया। अखबार ने मिड डे टैब्लॉइड से शुरु किया अपना प्रकाशन एक समय बाद ब्रॉडशीट में बदल दिया था। साथ ही मीडिया समूह ने अंग्रेजी अखबार भी लॉन्च किया था। सब कवायदें अंतत: निष्फल ही साबित हो रही थी। ऐसे में लगातार आर्थिक तौर पर हो रहे नुकसान के बीच प्रबंधन ने फिलहाल इसे बंद करने का निर्णय किया है।
     इसी तरह तमिल मीडिया ग्रुप विहडन अपनी चार पत्रिकाओं की प्रिंटिंग बंद कर दिया है। अब इन्हें सिर्फ ऑनलाइन पढ़ा जा सकेगा। जिन पत्रिकाओं की प्रिंटिंग बंद होने जा रही है उनमें छुट्टी विहडन, डाक्टर विहडन’, ‘विहडन थडमऔर अवल मणमगल शामिल हैं। गौरतलब है कि 1926 में स्थापित यह मीडिया ग्रुप तमिलनाडु का जाना-माना पत्रिका समूह है। इस ग्रुप के तहत 15 पत्रिकाएं निकाली जाती हैं। इस ग्रुप ने 1997 में अपने प्रिंट संस्करणों को ऑनलाइन रुप से पाठकों को उपलब्ध कराना शुरु कर दिया था। वर्ष 2005 में इसने ऑनलाइन सबस्क्रिप्शन मॉडल को फॉलो करना शुरु कर दिया।
कारणों पर बात करना जरूरीः
     किन कारणों से ये अखबार बंद रहे हैं। इसके लिए हमें जी समूह के अखबार डीएन के बंद करते समय जारी नोटिस में प्रयुक्त शब्दों और तर्कों पर ध्यान देना चाहिए। इसमें कहा गया है कि-हम नए और चैलेजिंग फेस में प्रवेश कर रहे हैं। डीएनए अब डिजिटल हो रहा है। पिछले कुछ महीनों के दौरान डिजिटल स्पेस में डीएनए काफी आगे बढ़ गया है। वर्तमान ट्रेंड को देखें तो पता चलता है कि हमारे रीडर्स खासकर युवा वर्ग हमें प्रिंट की बजाय डिजिटल पर पढ़ना ज्यादा पसंद करता है। न्यूज पोर्टल के अलावा जल्द ही डीएनए मोबाइल ऐप भी लॉन्च किया जाएगा, जिसमें वीडियो बेस्ट ऑरिजिनल कंटेंट पर ज्यादा फोकस रहेगा।कृपया ध्यान दें, सिर्फ मीडियम बदल रहा है, हम नहीं, अब अखबार के रूप में आपके घर नहीं आएंगे, बल्कि मोबाइल के रूप में हर जगह आपके साथ रहेंगे। यह अकेला वक्तव्य पूरे परिदृश्य को समझने में मदद करता है। दूसरी ओर डीएलए –आगरा के मालिक जिन्हें अमर उजाला जैसे अखबार को एक बड़े अखबार में बदलने में मदद की आज अपने अखबार को बंद करते हुए जो कह रहे हैं, उसे भी सुना जाना चाहिए। अपने अखबार के आखिरी दिन उन्होंने लिखा, परिर्वतन प्रकृति का नियम है और विकासक्रम की यात्रा का भी।...सूचना विस्फोट के आज के डिजिटल युग में कागज पर मुद्रित(प्रिंटेड)शब्द ही काफी नही। अब समय की जरूरत  है सूचना-समाचार पलक झपकते ही लोगों तक पहुंचे।... इसी उद्देश्य से डीएलए प्रिंट एडीशन का प्रकाशन एक अक्टूबर, 2019 से स्थगित किया जा रहा है।
  इस संदर्भ में वरिष्ठ पत्रकार और कई अखबारों के संपादक रहे श्री आलोक मेहता का आशावाद भी देखा जाना चाहिए। हिंदी अखबार प्रभात खबर की 35वीं वर्षगांठ के उपलक्ष्य में रांची के रेडिशन ब्लू होटल में आयोजित मीडिया कॉन्क्लेव आयोजन  में उन्होंने कहा, बेहतर अखबार के लिए कंटेंट का मजबूत होना जरूरी है। ऐसा नहीं है कि टेक्नोलॉजी बदलने अथवा टीवी और सोशल मीडिया के आने से अखबारों का भविष्य खतरे में है। ऐसा होता, तो जापान में अखबार नहीं छपते, क्योंकि वहां की तकनीक भी हमसे बहुत आगे है और मोबाइल भी वहां बहुत ज्यादा हैं। अखबारों को उस कंटेंट पर काम करना चाहिए, जो वेबसाइट या टीवी चैनल पर उपलब्ध नहीं हैं। प्रिंट मीडिया का भविष्य हमेशा रहा है और आगे भी रहेगा।
     उपरोक्त विश्वेषण से लगता है कि आने वाला समय प्रिंट माध्यमों के लिए और कठिन होता जाएगा। ई-मीडिया, सोशल मीडिया और स्मार्ट मोबाइल पर आ रहे कटेंट की बहुलता के बीच लोगों के पास पढ़ने का अवकाश कम होता जाएगा। खबरें और ज्ञान की भूख समाज समाज में है और बनी रहेगी, किंतु माध्यम का बदलना कोई बड़ी बात नहीं है। संभव है कि मीडिया के इस्तेमाल की बदलती तकनीक के बीच प्रिंट माध्यमों के सामने यह खतरा और बढ़े। यहां यह भी संभव है कि जिस तरह मीडिया कंनवरर्जेंस का इस्तेमाल हो रहा है उससे हमारे समाचार माध्यम प्रिंट में भले ही उतार पर रहें पर अपनी ब्रांड वैल्यू, प्रामाणिकता और विश्वसनीयता के कारण ई-माध्यमों, मोबाइल न्यूज एप, वेब मीडिया और सोशल मीडिया पर सरताज बने रहें। तेजी से बदलते इस समय में कोई सीधी टिप्पणी करना बहुत जल्दबाजी होगी, किंतु खतरे के संकेत मिलने शुरु हो गए हैं, इसमें दो राय नहीं है।

संदर्भः
1.    Gomez J.: Print Is Dead- Books in our Digital Age (2008), Palgrave Macmillan US
2.    Jeffrey Robin; India's Newspaper Revolution: Capitalism, Politics and the Indian-Language Press, 1977-1999 
6.    द्विवेदी संजय, खबर खबरवालों की, आंचलिक पत्रकार(अक्टूबर,2019), भोपाल,पृष्ठ -36
7.    समागम, भोपाल, अक्टूबर,2019, पृष्ठ-97

(लेखक माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल के जनसंचार विभाग में प्रोफेसर हैं।)

संपर्कः प्रो. संजय द्विवेदी,
जनसंचार विभाग, माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय,
बी-38, विकास भवन, प्रेस कांप्लेक्स, महाराणा प्रताप नगर, भोपाल-462011 (मप्र)
मोबाइलः 9893598888, ई-मेलः 123dwivedi@gmail.com


शुक्रवार, 18 अक्तूबर 2019

सांस्कृतिक संवेदनहीनता के समय में लोकजीवन और मीडिया


-प्रो. संजय द्विवेदी

      मोबाइल समय के दौर में जब हर व्यक्ति कम्युनिकेटर, कैमरामैन और फिल्ममेकर होने की संभावना से युक्त हो, तब असल खबरें गायब क्यों हैं? सोशल मीडिया के आगमन के बाद से मीडिया और संचार की दुनिया के बेहद लोकतांत्रिक हो जाने के ढोल पीटे गए और पीटे जा रहे हैं। लेकिन वे हाशिए आवाजें कहां हैं? जन-जन तक पसर चुके मीडिया में हमारा लोक और उसका जीवन कहां है?
    सांस्कृतिक निरक्षरता और संवेदनहीनता का ऐसा कठिन समय शायद ही इतिहास में रहा हो। इन दिनों सबके अपने-अपने लोक हैं,सबकी अपनी-अपनी नजर है। इस लोक का कोई इतिहास नहीं है, विचार नहीं है। लोक को लोकप्रिय बनाने और कुल मिलाकर कौतुक बना देने के जतन किए जा रहे हैं। ऐसे में मीडिया माध्यमों पर लोकसंस्कृति का कोई व्यवस्थित विमर्श असंभव ही है। हमारी कलाएं भी तटस्थ और यथास्थितिवादी हो गई लगती हैं। लोक समूह की शक्ति का प्रकटीकरण है जबकि बाजार और तकनीक हमें अकेला करती है। लोकसंस्कृति का संरक्षण व रूपांतरण जरूरी है। संत विनोबा भावे ने हमें एक शब्द दिया था- लोकनीतिसाहित्यालोचना में एक शब्द प्रयुक्त होता है- लोकमंगल। हमारी सारी व्यवस्था इस दोनों शब्दों के विरुद्ध ही चल रही है।  लोक को जाने बिना जो तंत्र हमने आजादी के इन सालों में विकसित किया है वह लोकमंगल और लोकनीति दोनों शब्दों के मायने नहीं समझता। इससे जड़ नौकरशाही विकसित होती है, जिसके लक्ष्यपथ अलग हैं। इसके चलते मूक सामूहिक चेतना या मानवता के मूल्यों पर आधारित समाज रचना का लक्ष्य पीछे छूट जाता है।
    राष्ट्रपिता महात्मा गांधी कहते थे हमारा जनसमूह निरक्षर है, मूर्ख नहीं। लोकमानस के पास भाषा भले न हो किंतु उसके पास प्रबल भाव होते हैं। मीडिया समय में जो जोर से कही जाए वही आवाज सही मानी और सुनी जाती है। जो भाषा देते हैं वे नायक बन जाते हैं। जो योजना देते हैं वे नायक बनते हैं। हमारे मीडिया के पास लोक के स्पंदन और उसके भावों को सुनने-समझने और गुनने का अवकाश कहां हैं। उसे तो तेज आवाजों के पास होना है।
  लोक की मूलवृत्ति ही है आनंद।  आनंद पनपता है शांति में, शांति होती है स्थिरता में। शांत आनंदमय जीवन सदियों से भारतीय लोक की परम आकांक्षा रही है। इसलिए हमने लोकमंगल शब्द को अपनाया और उसके अनुरूप जीवन शैली विकसित की। आज इस लोक को खतरा है। उसकी अपनी भाषाएं और बोलियां, हजारों-हजार शब्दों पर संकट है। इस नए विश्वग्राम में लोकसंस्कृति कहां है?मीडिया में उसका बिंब ही अनुपस्थित है तो प्रतिबिंब कहां से बनेगा? हम अपने पुराने को समय का विहंगालोकन करते हैं तो पाते हैं कि हमारा हर बड़ा कवि लोक से आता है। तुलसी, नानक, मीरा, रैदास, कबीर, रहीम, सूर,रसखान सभी, कितने नाम गिनाएं। हमारा वैद्य भी कविराय कहा जाता है। लोक इसी साहचर्य, संवाद, आत्मीय संपर्क, समान संवेदना,समानुभूति से शक्ति पाता है। इसीलिए कई लेखक मानते हैं कि लोक का संगीत आत्मा का संगीत है।
       मीडिया और लोक के यह रिश्ते 1991 के बाद और दूर हो गए। उदारीकरण, भूंडलीकरण और मुक्त अर्थव्यवस्था के मूल्य अलग हैं। यह परिर्वतनों का समय भी था और मीडिया क्रांति का भी। इस दौर में मीडिया में पूंजी बढ़ी, चैनलों की बाढ़ आ गयी, अखबारों को सारे पन्ने रंगीन हो गए, निजी एफएम पर गाने गूंजने लगे, वेबसाइटों से एक नया सूचना प्रवाह सामने था इसके बाद आए सोशल मीडिया ने सारे तटबंध तोड़ दिए। अब सूचनाएं नए तरीके परोसी और पोसी जा रहीं थीं। जहां रंगीन मीडिया का ध्यान रंगीनियों पर था। वहीं वे क्लास के लिए मीडिया को तैयार कर रहे थे। मीडिया से उजड़ते गांवों और लोगों की कहानियां गायब थीं। गांव,गरीब, किसान की छोड़िए- शहर में आकर संघर्ष कर रहे लोग भी इस मीडिया से दूर थे। यह आभिजात्य नागर जीवन की कहानियां सुना रहा था, लोकजीवन उसके लिए एक कालातीत चीज है। खाली गांव, ठूंठ होते पेड़. उदास चिड़िया, पालीथीन के ग्रास खाती गाय, फार्म हाउस में बदलते खेत, आत्महत्या करते किसान एक नई कहानी कह रहे थे। बाजारों में चमकती चीजें भर गयी थीं और नित नए माल बन रहे थे। पूरी दुनिया को एक रंग में रंगने के लिए बाजार के जादूगर निकले हुए थे और यह सारी जंग ही लोक के विरुद्ध थी। यह समय शब्द की हिंसा का भी समय था। जब चीख-चिल्लाहटें बहुत थीं। लोकजीवन की कहानियां थीं, वहीं वे संवेदना के साथ नहीं कौतुक की तरह परोसी जा रही थीं। यह एक नया विश्वग्राम था, जिसके पास वसुधैव कुटुम्बकम् की संवेदना नहीं थी। भारतीय मीडिया के सामने यह नया समय था। जिसमें उसके पारंपरिक उत्तरदायित्व का बोध नहीं था। चाहिए यह था कि भारत से भारत का परिचय हो, मीडिया में हमारे लोकजीवन की छवि दिखे। इसके लिए हमारे मीडिया और कुशल प्रबंधकों को गांवों की ओर देखना होगा। खेतों की मेड़ों पर बैठना होगा। नदियों के किनारे जाना होगा। भारत मां यहीं दिखेगी। एक जीता-जागता राष्ट्रपुरुष यहीं दिखेगा। वैचारिक साम्राज्यवाद के षड़यंत्रों को समझते हुए हमें अपनी विविधता-बहुलता को बचाना होगा।अपनी मीडिया दुनिया को सार्थक बनाना है। जनसरोकारों से जुड़ा मीडिया ही सार्थक होगा। मीडिया अन्य व्यवसायों की तरह नहीं है अतः उसे सिर्फ मुनाफे के लिए नहीं छोड़ा जा सकता।  आज भी मीडिया का एक बड़ा हिस्सा सच्ची कहानियों को सामने लेकर आ रहा है। पूरी संवेदना के साथ भारत की माटी के सवालों को उठा रहा है। इस प्रवाह को और आगे ले जाने की जरूरत है। सरोकार ही हमारे मीडिया को सशक्त बनाएंगे, इसमें नागर जीवन की छवि भी होगी तो लोक जीवन की संवेदना भी।

गुरुवार, 17 अक्तूबर 2019

भारतीय मीडिया को बाजारीकरण की गंभीर चुनौती


-प्रो. संजय द्विवेदी




    मीडिया की दुनिया में आदर्शों और मूल्यों का विमर्श इन दिनों चरम पर है। विमर्शकारों की दुनिया दो हिस्सों में बंट गयी है। एक वर्ग मीडिया को कोसने में सारी हदें पार कर दे रहा है तो दूसरा वर्ग मानता है जो हो रहा वह बहुत स्वाभाविक है तथा काल-परिस्थिति के अनुसार ही है। उदारीकरण और भूमंडलीकृत दुनिया में भारतीय मीडिया और समाज के पारंपरिक मूल्यों का बहुत महत्त्व नहीं है।
     एक समय में मीडिया के मूल्य थे सेवा, संयम और राष्ट्र कल्याण। आज व्यावसायिक सफलता और चर्चा में बने रहना ही सबसे बड़े मूल्य हैं। कभी हमारे आदर्श महात्मा गांधी, लोकमान्य तिलक, विष्णुराव पराड़कर, माखनलाल चतुर्वेदी और गणेशशंकर विद्यार्थी थे, ताजा स्थितियों में वे रुपर्ट मर्डोक और जुकरबर्ग हों? सिद्धांत भी बदल गए हैं। ऐसे में मीडिया को पारंपरिक चश्मे से देखने वाले लोग हैरत में हैं। इस अंधेरे में भी कुछ लोग मशाल थामे खड़े हैं, जिनके नामों का जिक्र अकसर होता है, किंतु यह नितांत व्यक्तिगत मामला माना जा रहा है। यह मान लिया गया है कि ऐसे लोग अपनी बैचेनियों या वैचारिक आधार के नाते इस तरह से हैं और उनकी मुख्यधारा के मीडिया में जगह सीमित है। तो क्या मीडिया ने अपने नैसर्गिक मूल्यों से भी शीर्षासन कर लिया है, यह बड़ा सवाल है।
     सच तो यह है भूमंडलीकरण और उदारीकरण इन दो शब्दों ने भारतीय समाज और मीडिया दोनों को प्रभावित किया है। 1991 के बाद सिर्फ मीडिया ही नहीं पूरा समाज बदला है, उसके मूल्य, सिद्धांत, जीवनशैली में क्रांतिकारी परिर्वतन परिलक्षित हुए हैं। एक ऐसी दुनिया बन गयी है या बना दी गई है जिसके बारे में काफी कुछ कहा जा चुका है। आज भूमंडलीकरण को लागू हुए तीन दशक होने जा रहे हैं। उस समय के प्रधानमंत्री श्री पीवी नरसिंह राव और तत्कालीन वित्तमंत्री श्री मनमोहन सिंह ने इसकी शुरुआत की तबसे हर सरकार ने कमोबेश इन्हीं मूल्यों को पोषित किया। एक समय तो ऐसा भी आया जब श्री अटलबिहारी वाजपेयी के प्रधानमंत्रित्व काल में जब उदारीकरण का दूसरा दौर शुरू हुआ तो स्वयं नरसिंह राव जी ने टिप्पणी की हमने तो खिड़कियां खोली थीं, आपने तो दरवाजे भी उखाड़ दिए। यानी उदारीकरण-भूमंडलीकरण या मुक्त बाजार व्यवस्था को लेकर हमारे समाज में हिचकिचाहटें हर तरफ थी। एक तरफ वामपंथी, समाजवादी, पारंपरिक गांधीवादी इसके विरुद्ध लिख और बोल रहे थे, तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भी अपने भारतीय मजूदर संघ एवं स्वदेशी जागरण मंच जैसे संगठनों के माध्यम से इस पूरी प्रक्रिया को प्रश्नांकित कर रहा था। यह साधारण नहीं था कि संघ विचारक दत्तोपंत ठेंगड़ी ने वाजपेयी सरकार के वित्त मंत्री यशवंत सिन्हा को अनर्थ मंत्री कहकर संबोधित किया। खैर ये बातें अब मायने नहीं रखतीं। 1991 से 2019 तक गंगा में बहुत पानी बह चुका है और सरकारें, समाज व मीडिया तीनों मुक्त बाजार के साथ रहना सीख गए हैं। यानी पीछे लौटने का रास्ता बंद है। बावजूद इसके यह बहस अपनी जगह कायम है कि हमारे मीडिया को ज्यादा सरोकारी, ज्यादा जनधर्मी, ज्यादा मानवीय और ज्यादा संवेदनशील कैसे बनाया जाए। व्यवसाय की नैतिकता को किस तरह से सिद्धांतों और आदर्शों के साथ जोड़ा जा सके। यह साधारण नहीं है कि अनेक संगठन आज भी मूल्य आधारित मीडिया की बहस से जुड़े हुए हैं। जिनमें ब्रह्मकुमारीज और प्रो. कमल दीक्षित द्वारा चलाए जा रहे मूल्यानुगत मीडिया अभिक्रम समिति के अभियानों को देखा जाना चाहिए। प्रो. दीक्षित इसके साथ ही मूल्यानुगत मीडिया नाम की एक पत्रिका का प्रकाशन भी कर रहे हैं। जिनमें इन्हीं विमर्शों को जगह दी जा रही है।
   इस सारे समय में पठनीयता का संकट, सोशल मीडिया का बढ़ता असर, मीडिया के कंटेट में तेजी से आ रहे बदलाव, निजी नैतिकता और व्यावसायिक नैतिकता के सवाल, मोबाइल संस्कृति से उपजी चुनौतियों के बीच मूल्यों की बहस को देखा जाना चाहिए। इस समूचे परिवेश में आदर्श, मूल्य और सिद्धांतों की बातचीत भी बेमानी लगने लगी है।  बावजूद इसके एक सुंदर दुनिया का सपना, एक बेहतर दुनिया का सपना देखने वाले लोग हमेशा एक स्वस्थ और सरोकारी मीडिया की बहस के साथ खड़े रहेंगे। संवेदना, मानवीयता और प्रकृति का साथ ही किसी भी संवाद माध्यम को सार्थक बनाता है। संवेदना और सरोकार समाज जीवन के हर क्षेत्र में आवश्यक है, तो मीडिया उससे अछूता कैसे रह सकता है।
     सही मायने में यह समय गहरी सांस्कृतिक निरक्षता और संवेदनहीनता का समय है। इसमें सबके बीच मीडिया भी गहरे असमंजस में है। लोक के साथ साहचर्य और समाज में कम होते संवाद ने उसे भ्रमित किया है। चमकती स्क्रीनों, रंगीन अखबारों और स्मार्ट हो चुके मोबाइल उसके मानस और कृतित्व को बदलने में अहम भूमिका निभा रहे हैं। ऐसे में मूल्यों की बात कई बार नक्कारखाने में तूती की तरह लगती है। किंतु जब मीडिया के विमर्शकार,संचालक यह सोचने बैठेंगे कि मीडिया किसके लिए और क्यों- तब उन्हें इसी समाज के पास आना होगा। रूचि परिष्कार, मत निर्माण की अपनी भूमिका को पुनर्परिभाषित करना होगा। क्योंकि तभी मीडिया की सार्थकता है और तभी उसका मूल्य है । लाख मीडिया क्रांति के बाद भी भरोसा वह शब्द है जो आसानी से अर्जित नहीं होता। लाखों का प्रसार आपके प्राणवान और सच के साथ होने की गारंटी नहीं है। विचारों के अनुकूलून के समय में भी लोग सच को पकड़ लेते हैं। मीडिया का काम सूचनाओं का सत्यान्वेषण ही है, वरना वे सिर्फ सूचनाएं होंगी-खबर या समाचार नहीं बन पाएंगी।
      कोई भी मीडिया सत्यान्वेषण की अपनी भूख से ही सार्थक बनता है, लोक में आदर का पात्र बनता है। हमें अपने मीडिया को मूल्यों, सिद्धांतों और आदर्शों के साथ खड़ा करना होगा, यह शब्द आज की दुनिया में बोझ भले लगते हों पर किसी भी संवाद माध्यम को सार्थकता देने वाले शब्द यही हैं। सच की खोज कठिन है पर रुकी नहीं है। सच से साथ खड़े रहना कभी आसान नहीं था। हर समय अपने नायक खोज ही लेता है। इस कठिन समय में भी कुछ चमकते चेहरे हमें इसलिए दिखते हैं क्योंकि वे मूल्यों के साथ, आदर्शों की दिखाई राह पर अपने सिद्धांतों के साथ डटे हैं। समय ऐसे ही नायकों को इतिहास में दर्ज करता है और उन्हें ही मान देता है। आइए भारतीय मीडिया के पारंपरिक अधिष्ठान पर खड़े होकर हम अपने वर्तमान को सार्थक बनाएं।

बुधवार, 16 अक्तूबर 2019

बेहतर कम्युनिकेशन से जीतिए दुनिया


-प्रो. संजय द्विवेदी


    वह बोलता है तो लगता है कि सुनते ही जाएं। ऐसा लगता है कि दिल से बोलता है। उसकी आवाज में आवाज में असर है। कहते हैं, गालिब का है अंदाजें बयां और। ऐसी तमाम बातें हमने अच्छी बातचीत करने वालों, बेहतर भाषण देने वालों के बारे में सुनी हैं। ऐसा क्या है कि आपका अंदाजे बयां खास हो जाता है और यही शैली आपको लोकप्रिय बना देती है। यही कम्युनिकेशन आपको आम से खास बना देता है। शायद इसीलिए हमारे लोकजीवन में यह कहावत बहुत प्रचलित है, - बातहिं हाथी पाइए बातहिं हाथी पाँवजिसका मतलब है कि आप राजदरबार में हैं और अपनी बातचीत से राजा को खुश कर देते हैं तो हाथी भी पा सकते हैं, इसके विपरीत आपके संवाद से नाराज राजा आपको हाथी के पैरों से कुचलवा भी सकता है।
        संवाद और संचार की शक्ति को अगर हम समझ जाते हैं, तो हमारी सफलताओं के महामार्ग खुद खुलते चले जाते हैं। दुनिया में हर क्षेत्र में ज्यादातर वही लोग सफल होते हैं जो अपनी बातों को लोगों को समझा पाते हैं। बातचीत में, वक्तव्यों में असर लाकर ही हम उन ऊंचाइयों पर जा सकते हैं जिनका हमने सपना देखा है। सफलता व्यक्ति के जीवन में एक उत्सव की तरह है और हर व्यक्ति इसकी प्रतीक्षा करता है। कई लोग जल्दी सफल हो जाते हैं तो कुछ को प्रतीक्षा करनी पड़ती है। इस इंतजार की घड़ी को कम किया जा सकता है अगर हमें खुद को व्यक्त करना आता है।
कीजिए खुद पर भरोसाः हम चार तरह से कम्युनिकेट करते हैं। लिखकर, बोलकर, इशारों-संकेतों और देहभाषा (बाडी लैंग्वेज) से। यह चारों चीजें हमारी संचार (कम्युनिकेशन) की दुनिया को खास बनाती हैं। इसके लिए सबसे जरूरी है खुद पर भरोसा होना। अगर हम खुद पर विश्वास करते हैं तो इससे बड़ी कोई चीज नहीं है। कहा जाता है हमारे विचार ही हमें बनाते हैं। हमारा खुद पर भरोसा ही हमें विजेता बनाता है। इसके लिए सबसे जरूरी है कि हम जो सोचते हैं, उसे पूरे आत्मविश्वास से कहें। कम्युनिकेशन स्किल एक विधा है जो साधी जा सकती है, सीखी जा सकती है। ऐसा छात्र जिसके पहली बार वाद-विवाद प्रतियोगिता में पैर कांप रहे थे, जो अपना भाषण भूल गया था। वही आगे चलकर श्रेष्ठ वक्ता बन जाता है। यानी वह वक्ता नहीं था, उसने उस विधा को साध लिया। अभ्यास से, आत्मविश्वास से उसे वह हासिल हुआ, जो उसके पास नहीं था। हमें भी किसी विधा को सीखने के लिए सबसे पहले खुद पर भरोसा पैदा करना होगा।
अभ्यास से मिलेगी सफलताः किसी भी प्रकार की प्रदर्शन कला संगीत, नृत्य, लेखन, भाषण, कलाएं सिर्फ सतत अभ्यास और रियाज से हासिल हो सकती हैं। अभ्यास से हर कला आपकी जिंदगी का हिस्सा बन जाती है। सिर्फ आत्मविश्वास हो किंतु रियाज या अभ्यास न हो तो हम अपनी कला को बेहतर नहीं बना सकते। कम्युनिकेशन की कला भी एक परफार्मिंग आर्ट की तरह है, जिसके लिए सतत अभ्यास जरूरी है। कई बार लोग कहते हैं कि कम्युनिकेशन स्किल जन्म से ही आती है। ऐसा नहीं होता। हम जब पैदा हुए तो हमें सिर्फ रोना आता था। किंतु हमने भाषाएं सीखीं, शब्द सीखे, वाक्य सीखे और उनके प्रयोग सीखे, यानी इसके लिए अभ्यास किया। कम्युनिकेशन स्किल की प्रैक्टिस या अभ्यास बहुत जरूरी है। हमें इसे सरल प्रयासों से सीखना होगा। बातचीत करते हुए हम प्रयास करें कि आंखों से कांटेक्ट कर बात करें। कई बार हम बात करते हुए सामने वाले से आँखें नहीं मिलाते, इधर-उधर या मोबाइल पर आंखे गड़ाए हुए बातें करते हैं, स्वाभाविक है, आपकी बात का असर कम होगा क्योंकि सामने वाले को लगेगा कि आपकी उसमें रुचि नहीं हैं या आप बहुत कैजुअल हैं। चेहरे पर भावनाओं का लाना जरूरी है। समय-स्थान और परिस्थिति के अनुसार सिर्फ संवाद और शैली ही नहीं चेहरे के भाव भी होने चाहिए। किसी शोक समाचार के अवसर पर आपका मुस्कराता और खिला हुआ चेहरा आपके समूचे संवाद को विफल कर देगा। फेस पर भावनाएं और जेस्चर्स के इस्तेमाल से कम्युनिकेशन सफल और प्रभावी हो जाता है।
सुनना भी सीखिए जनाबः हमें अपनी जिंदगी में लोगों का साथ चाहिए। जीवन में सफलता के लिए, टीम वर्क के लिए, लोकप्रियता के लिए, नेटवर्किंग के लिए। इसके लिए हमें लोगों को आदर देना होगा। भावनाओं का ख्याल रखना होगा। सटीक बोलना होगा और भावनाओं को काबू में रखना होगा। अच्छा बोलने के साथ अच्छा श्रोता होना भी जरूरी है। कई बार किसी को सुन लेने से उसका जी हल्का हो जाता है। उसे लगता है कि आप उसके प्रति अच्छे भाव रखते हैं। इफेक्टिव लिसिनिंग (सुनने) की आदतें विकसित करनी पड़ती हैं। एक अधिकारी, धर्मगुरु और राजनेता कैसे हजारों लोगों से संवाद करते हैं। मिलने आने वाले हर व्यक्ति के लिए उनके पास समाधान होते हैं। कहा जाता है कि एक अच्छा बोलने वाला एक अच्छा श्रोता भी होता है। आप जब सुन रहे होते हैं तो आपको बहुत सारे तथ्य मिलते हैं और समाज की धड़कनों का अहसास भी होता है। ठीक समय पर सटीक बात बोलना महत्त्पूर्ण होता है। इसके साथ ही अपनी बातचीत की सेंटिंग के हिसाब से वाल्यूम इस्तेमाल करें। आत्मविश्वास के साथ बोलें, यह मत सोचिए कि लोग क्या सोचेंगे। अच्छी भाषा का एक मतलब ठीक व्याकरण का इस्तेमाल भी है। भाषा का सौंदर्य आपकी वाणी में दिखना चाहिए। आजकल फिल्म संगीत में रिमिक्स के चलन की तरह भाषा में भी मिलावट का दौर चल रहा है। किंतु आप जिस भाषा में बोलें उसे उसके पूरे सौंदर्य और उसकी शक्ति के साथ बोलें। आमतौर हम अपनी प्रशंसा सुनने और करने के अभ्यासी होते हैं। किंतु अगर आप श्रोताओं के मध्य हैं तो स्वयं अपनी बहुत ज्यादा प्रशंसा न करें। इससे आपकी छवि एक आत्ममुग्ध व्यक्ति की बनती है जो अपनी ही अदा पर फिदा है। विनम्रता एक आवश्यक गुण है, इसे कभी न छोंड़ें।
जीत सकते हैं आपः कई बार लगता है कि आखिर मैं ऐसा कैसे कर पाऊंगा। मूल बात है कि हम सोच लें तो हम कर सकते हैं। आप तय करें कि मुझे अपनी कम्युनिकेशन स्किल पर काम करना है। आप कर पाएंगे भरोसा कीजिए। पहला काम आप खुद पर भरोसा रखें। आत्मविश्वास हर ताले की चाबी है। ज्यादा लोंगो से मुलाकात कीजिए, बातचीत कीजिए। इससे आपकी हिचक टूटेगी। आपको अनुभव आएगा कि विभिन्न प्रकार के लोगों से बात कैसे कर सकते हैं। अभ्यास से कम्युनिकेशन बेहतर होगा। बाडी लैंग्वेज सुधारने के लिए, आप जो कहने जा रहे हैं उसका एक आईने के सामने अभ्यास कीजिए। अनेक बड़े लोगों ने ऐसा किया है। कुछ ने आईने के सामने तो कुछ ने पेड़ के सामने खड़े होकर अभ्यास किया है। एकलव्य ने तो अपने गुरु की मूर्ति बनाकर उसके सामने अभ्यास कर धनुष विद्या सीख ली। कम्युनिकेशन की कला तो आपके भीतर है उसे निकालना भर है। भरोसा कीजिए और जीतने का मन बनाइए। ये दुनिया बांहें फैलाए आपके स्वागत में खड़ी है। आप बोल रहे होगें और वह तालियां बजा रही होंगी। तालियों की आवाज अभी से आपके कानों में गूंज रही है न ? सफलता आपकी प्रतीक्षा में है। आप मंजिल की ओर बढ़ चले हैं।
 (लेखक माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में मास कम्युनिकेशन के प्रोफेसर हैं।)




गुरुवार, 10 अक्तूबर 2019

पं.श्यामलाल चतुर्वेदीः उन्हें भुलाना है मुश्किल



साधारण शब्दों से असाधारण संवाद की कला थी उनके पास
-प्रो. संजय द्विवेदी

चित्र परिचयः पद्मश्री से अलंकृत किए जाने के अवसर पर प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी से भेंट


   पद्मश्री से अलंकृत पं. श्यामलाल चतुर्वेदी की पावन स्मृति को भूल पाना कठिन है। वे हमारे समय के ऐसे नायक हैं जिसने पत्रकारिता, साहित्य और समाज तीनों क्षेत्रों में अपनी विरल पहचान बनाई। वे छत्तीसगढ़ के असली इंसान थे। जिन अर्थों में सबले बढ़िया छत्तीसगढ़िया का नारा दिया गया होगा, उसके मायने शायद यही रहे होंगे कि अच्छा मनुष्य होना। छत्तीसगढ़ उनकी वाणी,कर्म, देहभाषा से मुखरित होता था। बालसुलभ स्वभाव, सच कहने का साहस और सलीका, अपनी शर्तों पर जिंदगी जीना- यह सारा कुछ एक साथ श्यामलाल जी ने अकेले संभव बनाया।
    श्यामलाल जी अपनी जमीन को, माटी को, महतारी को प्यार करने वाले व्यक्ति थे। सत्ता के साथ उनके निरंतर और व्यापक संपर्क थे। वे राजपुरुषों के साथ-साथ आम आदमी से भी समान रूप से संवाद कर सकते थे। वे अक्सर अपने वक्तव्यों में कहते थे- आपको मेरी बात बुरी लग जाए तो आप मेरा क्या कर लेगें? वैसै ही मैं भी बुरा मान जाऊं तो आपका क्या कर लूंगा?” उन्होंने कभी भी इसलिए कोई बात नहीं कि वह राजपुरुषों को अच्छी या बुरी लगे। उन्हें जो कहना था वे कहते थे। दिल से कहते थे। शायद इसीलिए उनकी तमाम बातें लोंगो को प्रभावित करती थीं।
अप्रतिम वक्ताः श्यामलाल जी अप्रतिम वक्ता थे। मां सरस्वती उनकी वाणी पर विराजती थीं। हिंदी और छत्तीसगढ़ी दोनों भाषाओं में वे सहज थे। दिल की बात दिलों तक पहुंचाने का हुनर उनके पास था। वे बोलते तो हम मंत्रमुग्ध होकर उन्हें सुनते। रायपुर, बिलासपुर के अनेक आयोजनों में उनको सुनना हमेशा सुख देता था। अपनी साफगोई, सादगी और सरलता से वे बड़ी से बड़ी बात कह जाते थे। उनकी बहुत कड़ी बात भी कभी किसी को बुरी नहीं लगती थी, क्योंकि उसमें उनका प्रेम और व्यंग्य की धार छुपी रहती थी। उनसे शायद ही कोई नाराज हो सकता था। मैंने उन्हें सुनते हुए पाया कि वे दिल से दिल की बात कहते थे। ऐसा संवाद हमेशा प्रभावित करता है। उनके वक्तव्यों में आलंकारिक शब्दावली के बजाए लोक के शब्द होते। साधारण शब्दों से असाधारण संवाद करने की कला उनसे सीखी जा सकती थी। उनकी देहभाषा (बाडी लैंग्वेज) उनके वक्तव्य को प्रभावी बनाती थी। हम यह मानकर चलते थे कि वे कह रहे हैं , तो बात ठीक ही होगी। वे किसी पर नाराज हों, मैंने सुना नहीं। मलाल या गुस्सा करना उन्हें आता नहीं था। हमेशा हंसते हुए अपनी बात कहना और अपना वात्सल्य नई पीढ़ी पर लुटाना उनसे सीखना चाहिए। आज जबकि हमारे बुर्जुग बेहद अकेले और तन्हा जिंदगी जी रहे हैं। भरे-पूरे घरों और समाज में वे अकेले हैं। उन्हें श्यामलाल जी की जिंदगी से सीखना चाहिए। समाज में समरस होकर कैसे एक व्यक्ति अपनी अंतिम सांस तक प्रासंगिक बना रह सकता है, यह उन्होंने हमें सिखाया।
सक्रिय जीवनःवे सक्रिय पत्रकारिता, लेखन कब का छोड़ चुके थे। लेकिन आप रायपुर से बिलासपुर तक उनकी सक्रियता और उपस्थिति को रेखांकित कर सकते थे। निजी आयोजनों से लेकर सार्वजनिक समारोहों तक में वे बिना किसी खास प्रोटोकाल की अपेक्षा के आते थे। अपना प्यार लुटाते, आशीष देते और लौट जाते। उनके परिवार को भी इस बात के लिए धन्यवाद देना चाहिए कि कैसे उनके बड़े सुपुत्र श्री शशिकांत जी ने उनकी हर इच्छा का मान रखा। वे खराब स्वास्थ्य के बाद भी जहां जाना चाहते थे, शशिकांत जी उन्हें लेकर जाते थे। श्यामलाल जी के तीन ही मंत्र थे- संपर्क,संवाद और संबंध। वे संपर्क करते थे, संवाद करते और बाद में उनकी जिंदगी में इन दो मंत्रों से करीब आए लोगों से उनके संबंध बन जाते थे। वे बिना किसी अपेक्षा के रिश्तों को जीते थे। उनका इस तरह एक महापरिवार बन गया था। जिसमें उनकी बेरोक-टोक आवाजाही थी। अपने अंतिम दिनों में वे छत्तीसगढ़ी राजभाषा आयोग के अध्यक्ष बने। किंतु पूरी जिंदगी उनके पास कोई लाभ का पद नहीं था। ऐसे समय में भी वे लोगों के लिए उतने ही सुलभ और आकर्षण का केंद्र थे। मुझे आश्चर्य होता था कि दिल्ली के शिखर संपादक श्री प्रभाष जोशी, मप्र के तत्कालीन मुख्यमंत्री मोतीलाल वोरा,दिग्विजय सिंह हों या बनारस के संगीतज्ञ छन्नूलाल मिश्र अथवा छत्तीसगढ़ के दोनों पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी या डा. रमन सिंह। श्यामलाल जी के जीवन में सब थे। तमाम संपादक, पत्रकार, सांसद, मंत्री, विधायक उन्हें आदर देते थे। समाज से मिलने वाल इतना आदर भी उनमें लेशमात्र भी अहंकार की वृद्धि नहीं कर पाता था।
छत्तीसगढ़ी अस्मिता के प्रतीकः छत्तीसगढ़ देश का अकेला प्रदेश है, जिसकी समृद्ध भाव संपदा और लोकसंपदा है। उसके लिए छत्तीसगढ़ महतारी शब्द का उपयोग भी होता है। अपनी जमीन, भूमि के लिए मां शब्द उदात्त भावनाओं से ही उपजता है। भारत मां के बाद किसी राज्य के लिए संभवतः ऐसा शब्द प्रयोग छत्तीसगढ़ में ही होता है। वैसे भी यह मां महामाया रतनपुर,मां बमलेश्वरी,मां दंतेश्वरी की धरती है, जहां लोकजीवन में ही मातृशक्ति के प्रति अपार आदर है। छत्तीसगढ़ महतारी भी लोकजीवन की ऐसी ही मान्यताओं से संयुक्त है। अपनी माटी से मां की तरह प्यार करना और उसका सम्मान करना यही भाव इससे शब्द से जुड़े हैं। श्यामलाल जी का परिवेश भी लोकजीवन से शक्ति पाता है। इसलिए शहर आकर भी वे अपने गांव को नहीं भूलते, अपने लोकजीवन को नहीं भूलते। उसकी भाषा और भाव को नहीं भूलते। वे शहर में बसे लोकचिंतक थे,  लोकसाधक थे। यह अकारण नहीं था वे प्रो. पी.डी खेड़ा जैसे नायकों के अभिन्न मित्र थे, क्योंकि दोनों के सपने एक थे- एक सुखी, समृद्ध छत्तीसगढ़। आज जबकि प्रो. खेड़ा और श्यामलाल जी दोनों हमारे बीच नहीं हैं, पर वे हम पर कठिन उत्तराधिकार छोड़कर गए हैं। श्यामलाल जी अपने लोगों को न्याय दिलाना चाहते थे,वे चाहते थे कि छत्तीसगढ़ का सर्वांगीण विकास हो, यहां के लोकजीवन को उजाड़े बगैर इसकी प्रगति हो। इसलिए वे सत्ता का ध्यानाकर्षण अपने लेखन और वक्तव्यों के माध्यम से करते रहे। सही मायने में वे छत्तीसगढ़ी अस्मिता के प्रतीक और लोकजीवन में रचे-बसे नायक थे। उनका शब्द-शब्द इसी माटी से उपजा और इसी को समर्पित रहा।                                                      
      जिस समाज की स्मृतियां जितनी सघन होतीं हैं, वह उतना ही चैतन्य समाज होता है। हम हमारे नायकों को समय के साथ भूलते जाते हैं। छत्तीसगढ़ की जमीन पर भी अनेक ऐसे नायक हैं जिन्हें याद किया जाना चाहिए।  मुझे लगता है कि श्यामलाल जी जैसे नायकों की याद ही हमारे समाज को जीवंत, प्राणवान, संवेदनशील और मानवीय बनाने की प्रक्रिया को और तेज करेगी। 

गुरुवार, 3 अक्तूबर 2019

‘हिंद स्वराज’ के बहाने गांधी की याद


150 वां जयंती वर्ष प्रसंग



-प्रो. संजय द्विवेदी



    महात्मा गांधी की मूलतः गुजराती में लिखी पुस्तक ‘हिन्द स्वराज्य  हमारे समय के तमाम सवालों से जूझती है। महात्मा गांधी की यह बहुत छोटी सी पुस्तिका कई सवाल उठाती है और अपने समय के सवालों के वाजिब उत्तरों की तलाश भी करती है। सबसे महत्व की बात है कि पुस्तक की शैली। यह किताब प्रश्नोत्तर की शैली में लिखी गयी है। पाठक और संपादक के सवाल-जवाब के माध्यम से पूरी पुस्तक एक ऐसी लेखन शैली का प्रमाण जिसे कोई भी पाठक बेहद रूचि से पढ़ना चाहेगा। यह पूरा संवाद महात्मा गांधी ने लंदन से दक्षिण अफ्रीका लौटते हुए लिखा था। 1909 में लिखी गयी यह किताब मूलतः यांत्रिक प्रगति और सभ्यता के पश्चिमी पैमानों पर एक तरह हल्लाबोल है। गांधी इस कल्पित संवाद के माध्यम से एक ऐसी सभ्यता और विकास के ऐसे प्रतीकों की तलाश करते हैं जिनसे आज की विकास की कल्पनाएं बेमानी साबित हो जाती हैं।
    गांधी इस मामले में बहुत साफ थे कि सिर्फ अंग्रेजों के देश के चले से भारत को सही स्वराज्य नहीं मिल सकतावे साफ कहते हैं कि हमें पश्चिमी सभ्यता के मोह से बचना होगा। पश्चिम के शिक्षण और विज्ञान से गांधी अपनी संगति नहीं बिठा पाते। वे भारत की धर्मपारायण संस्कृति में भरोसा जताते हैं और भारतीयों से आत्मशक्ति के उपयोग का आह्वान करते हैं। भारतीय परंपरा के प्रति अपने गहरे अनुराग के चलते वे अंग्रेजों की रेल व्यवस्थाचिकित्सा व्यवस्थान्याय व्यवस्था सब पर सवाल खड़े करते हैं। जो एक व्यापक बहस का विषय हो सकता है। हालांकि उनकी इस पुस्तक की तमाम क्रांतिकारी स्थापनाओं से देश और विदेश के तमाम विद्वान सहमत नहीं हो पाते। स्वयं श्री गोपाल कृष्ण गोखले जैसे महान नेता को भी इस किताब में कच्चापन नजर आया। गांधी जी के यंत्रवाद के विरोध को दुनिया के तमाम विचारक सही नहीं मानते। मिडलटन मरी कहते हैं- “गांधी जी अपने विचारों के जोश में यह भूल जाते हैं कि जो चरखा उन्हें बहुत प्यारा हैवह भी एक यंत्र ही है और कुदरत की नहीं इंसान की बनाई हुयी चीज है।” हालांकि जब दिल्ली की एक सभा में उनसे यह पूछा गया कि क्या आप तमाम यंत्रों के खिलाफ हैं तो महात्मा गांधी ने अपने इसी विचार को कुछ अलग तरह से व्यक्त किया। महात्मा गांधी ने कहा कि- “वैसा मैं कैसे हो सकता हूंजब मैं यह जानता हूं कि यह शरीर भी एक बहुत नाजुक यंत्र ही है। खुद चरखा भी एक यंत्र ही हैछोटी सी दांत कुरेदनी भी यंत्र है। मेरा विरोध यंत्रों के लिए नहीं बल्कि यंत्रों के पीछे जो पागलपन चल रहा है उसके लिए है।
    वे यह भी कहते हैं मेरा उद्देश्य तमाम यंत्रों का नाश करना नहीं बल्कि उनकी हद बांधने का है। अपनी बात को साफ करते हुए गांधी जी ने कहा कि ऐसे यंत्र नहीं होने चाहिए जो काम न रहने के कारण आदमी के अंगों को जड़ और बेकार बना दें। कुल मिलाकर गांधीमनुष्य को पराजित होते नहीं देखना चाहते हैं। वे मनुष्य की मुक्ति के पक्षधर हैं। उन्हें मनुष्य की शर्त पर न मशीनें चाहिए न कारखाने।
       महात्मा गांधी की सबसे बड़ी देन यह है कि वे भारतीयता का साथ नहीं छोड़तेउनकी सोच धर्म पर आधारित समाज रचना को देखने की है। वे भारत की इस असली शक्ति को पहचानने वाले नेता हैं। वे साफ कहते हैं- “मुझे धर्म प्यारा हैइसलिए मुझे पहला दुख तो यह है कि हिंदुस्तान धर्मभ्रष्ट होता जा रहा है। धर्म का अर्थ मैं हिंदूमुस्लिम या जरथोस्ती धर्म नहीं करता। लेकिन इन सब धर्मों के अंदर जो धर्म है वह हिंदुस्तान से जा रहा हैहम ईश्वर से विमुख होते जा रहे हैं।
वे धर्म के प्रतीकों और तीर्थ स्थलों को राष्ट्रीय एकता के एक बड़े कारक के रूप में देखते थे। वे कहते हैं- “जिन दूरदर्शी पुरूषों ने सेतुबंध रामेश्वरम्जगन्नाथपुरी और हरिद्वार की यात्रा निश्चित की उनका आपकी राय में क्या ख्याल रहा होगा। वे मूर्ख नहीं थे। यह तो आप भी कबूल करेंगें। वे जानते थे कि ईश्वर भजन घर बैठे भी होता है।
    गांधी भारत को एक पुरातन राष्ट्र मानते थे। ये उन लोगों को एक करारा जबाब भी है जो यह मानते हैं कि भारत तो कभी एक राष्ट्र था ही नहीं और अंग्रेजों ने उसे एकजुट किया। एक व्यवस्था दी। इतिहास को विकृत करने की इस कोशिश पर गांधी जी का गुस्सा साफ नजर आता है। वे हिंद स्वराज्य में लिखते हैं- “आपको अंग्रेजों ने सिखाया कि आप एक राष्ट्र नहीं थे और एक ऱाष्ट्र बनने में आपको सैंकड़ों बरस लगे। जब अंग्रेज हिंदुस्तान में नहीं थे तब हम एक राष्ट्र थेहमारे विचार एक थे। हमारा रहन-सहन भी एक था। तभी तो अंग्रेजों ने यहां एक राज्य कायम किया।
गांधी इस अंग्रेजों की इस कूटनीति पर नाराजगी जताते हुए कहते हैं- “दो अंग्रेज जितने एक नहीं है उतने हम हिंदुस्तानी एक थे और एक हैं। ” एक राष्ट्र-एक जन की भावना को महात्मा गांधी बहुत गंभीरता से पारिभाषित करते हैं। वे हिंदुस्तान की आत्मा को समझकर उसे जगाने के पक्षधर थे। उनकी राय में हिंदुस्तान का आम आदमी देश की सब समस्याओं का समाधान है। उसकी जिजीविषा से ही यह महादेश हर तरह के संकटों से निकलता आया है। गांधी देश की एकता और यहां के निवासियों के आपसी रिश्तों की बेहतरी की कामना भर नहीं करते वे इस पर भरोसा भी करते हैं। गांधी कहते हैं- “हिंदुस्तान में चाहे जिस धर्म के आदमी रह सकते हैं। उससे वह राष्ट्र मिटनेवाला नहीं है। जो नए लोग उसमें दाखिल होते हैंवे उसकी प्रजा को तोड़ नहीं सकतेवे उसकी प्रजा में घुल-मिल जाते हैं। ऐसा हो तभी कोई मुल्क एक राष्ट्र माना जाएगा। ऐसे मुल्क में दूसरों के गुणों का समावेश करने का गुण होना चाहिए। हिंदुस्तान ऐसा था और आज भी है।
    महात्मा गांधी की राय में धर्म की ताकत का इस्तेमाल करके ही हिंदुस्तान की शक्ति को जगाया जा सकता है। वे हिंदू और मुसलमानों के बीच फूट डालने की अंग्रेजों की चाल को वे बेहतर तरीके से समझते थे। वे इसीलिए याद दिलाते हैं कि हमारे पुरखे एक हैंपरंपराएं एक हैं। वे लिखते हैं- “बहुतेरे हिंदुओं और मुसलमानों के बाप-दादे एक ही थेहमारे अंदर एक ही खून है। क्या धर्म बदला इसलिए हम आपस में दुश्मन बन गए। धर्म तो एक ही जगह पहुंचने के अलग-अलग रास्ते हैं।
        गांधी बुनियादी तौर पर देश को एक होते देखना चाहते थे वे चाहते थे कि ऐसे सवाल जो देश का तोड़ने का कारण बन सकते हैं उनपर बुनियादी समझ एक होनी चाहिए। शायद इसीलिए सामाजिक गैरबराबरी के खिलाफ वे लगातार बोलते और लिखते रहे वहीं सांप्रदायिक एकता को मजबूत करने के लिए वे ताजिंदगी प्रयास करते रहे। हिंदु-मुस्लिम की एकता उनमें औदार्य भरने के हर जतन उन्होंने किए। हमारी राजनीति की मुख्यधारा के नेता अगर गांधी की इस भावना को समझ पाते तो देश का बंटवारा शायद न होता। इस बंटवारे के विष बीज आज भी इस महादेश को तबाह किए हुए हैं। यहां गांधी की जरूरत समझ में आती है कि वे आखिर हिंदु-मुस्लिम एकता पर इतना जोर क्यों देते रहे। वे संवेदनशील सवालों पर एक समझ बनाना चाहते थे जैसे की गाय की रक्षा का प्रश्न। वे लिखते हैं कि  “मैं खुद गाय को पूजता हूं यानि मान देता हूं। गाय हिंदुस्तान की रक्षा करने वाली हैक्योंकि उसकी संतान पर हिंदुस्तान काजो खेती-प्रधान देश हैआधार है। गाय कई तरह से उपयोगी जानवर है। वह उपयोगी है यह तो मुसलमान भाई भी कबूल करेंगें।

    महात्मा गांधी की 150 जयंती वर्ष के बहाने हमें एक अवसर है कि हम उन मुद्दों पर विमर्श करें, जिन्होंने इस देश को कई तरह के संकटों से घेर रखा है। राजनीति कितनी भी उदासीन हो जाए उसे अंततः इन सवालों से टकराना ही है। भारतीय राजनीति ने गांधी का रास्ता खारिज कर दिया बावजूद इसके उनकी बताई राह अप्रासंगिक नहीं हो सकती। आज जबकि दुनिया वैश्विक मंदी का शिकार है। हमें देखना होगा कि हम अपने आर्थिक एवं सामाजिक ढांचे में आम आदमी की जगह कैसे बचा और बना सकते हैं। जिस तरह से सार्वजनिक पूंजी को निजी पूंजी में बदलने का खेल इस देश में चल रहा है उसे गांधी आज हैरत भरी निगाहों से देखते। सार्वजनिक उद्यमों की सरकार द्वारा खरीद बिक्री से अलग आदमी को मजदूर बनाकर उसके नागरिक सम्मान को कुचलने के जो षडयंत्र चल रहे हैं उसे देखकर वे द्रवित होते। गांधी का हिन्द स्वराज्य मनुष्य की मुक्ति की किताब है। यह सरकारों से अलग एक आदमी के जीवन में भी क्रांति ला सकती है। ये राह दिखाती है। सोचने की ऐसी राह जिस पर आगे बढ़कर हम नए रास्ते तलाश सकते हैं। मुक्ति की ये किताब भारत की आत्मा में उतरे हुए शब्दों से बनी है। जिसमें द्वंद हैंसभ्यता का संघर्ष है किंतु चेतना की एक ऐसी आग है जो हमें और तमाम जिंदगियों को रौशन करती हुयी चलती है। गाँधी की इस किताब की रौशनी में हमें अंधेरों को चीर कर आगे आने की कोशिश तो करनी ही चाहिए।

(लेखक माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में जनसंचार के प्रोफेसर हैं।)

-प्रो. संजय द्विवेदी,
प्राध्यापकः जनसंचार विभाग,
 माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय,
प्रेस काम्पलेक्स, एमपी नगर, भोपाल-462011 (मप्र)
मोबाइलः 09893598888

सोमवार, 19 अगस्त 2019

सचमुच एक असंभव संभावना हैं गांधी!


महात्मा गांधी की 150 वीं जयंती वर्ष प्रसंग

-    प्रो. संजय द्विवेदी


     इतिहासकार सुधीर चंद्र की किताब गांधी एक असंभव संभावना को पढ़ते हुए इस किताब के शीर्षक ने सर्वाधिक प्रभावित किया। यह शीर्षक कई अर्थ लिए हुए है, जिसे इस किताब को पढ़कर ही समझा जा सकता है। 184 पृष्ठों की यह किताब गांधी के बेहद लाचार, बेचारे, विवश हो जाने और उस विवशता में भी अपने सत्य के लिए जूझते रहने की कहानी है।
     जाहिर तौर पर यह किताब गांधी की जिंदगी के आखिरी दिनों की कहानी बयां करती है। इसमें असंभव संभावना शब्द कई तरह के अर्थ खोलता है। गांधी तो उनमें प्रथम हैं ही, तो भारत-पाकिस्तान के रिश्ते भी उसके साथ संयुक्त हैं। ऐसे में यह मान लेने का मन करता है कि भारत-पाक रिश्ते भी एक असंभव संभावना हैं? सामान्य मनुष्य इसे मान भी ले किंतु अगर गांधी भी मान लेते तो वे गांधी क्यों होते? प्रत्येक विपरीत स्थिति और झंझावातों में भी अपने सच के साथ रहने और खड़े होने का नाम ही तो गांधीहै।
     आजादी के मिलने के कुछ समय पहले गांधी के निरंतर कमजोर और अकेले होते जाने की कहानी को जिस खूबसूरती से यह किताब बयां करती है, उसकी दूसरी नजीर नहीं है। अपने प्रार्थना प्रवचनों में गांधी ने खुद को खोलकर रख दिया है। वे सत्य को फिर से पारिभाषित नहीं करते, उसे यथारूप ही रखते हैं। इस पूरी किताब में गांधी के मन और देश में चल रही हलचलों का बयान दिखता है। हिंदू-मुसलमान, भारत-पाकिस्तान, कांग्रेस-मुस्लिम लीग की सत्ता राजनीति के बीच अकेले और तन्हा गांधी। गांधी पूरी जिंदगी सामूहिकता को साधते रहे और उनका भरोसा अपने समाज पर बना रहा। किंतु आजादी को निकट आता देख यह समाज जिस तरह बंटा उसे देखकर वे हैरत में थे। सही मायने में यह समाज अब भीड़ या अपने-अपने पंथों की जकड़बंदियों में कैद हो चुका था। गांधी इसलिए कई बार बहुत कातर दिखते हैं, कमजोर दिखते हैं। किंतु सत्य और इंसानियत में उनकी आस्था अविचल है। अपने उपवास और रोजों से वे सोते तथा भटके हुए समाज को फिर से उसी राह पर लाना चाहते हैं, जहां इंसानियत और भाईचारा सबसे अहम है। कई लोग मानते हैं कि गांधी ने बंटवारा स्वीकार कर लिया था, सच्चाई यह है कि बंटवारे को उन्होंने कभी मन से नहीं स्वीकारा। स्वीकारा इसलिए कि कम से कम रिश्ते तो बचे रहें। अफसोस समय के साथ अब जब हम देखते हैं तो भारत-पाक रिश्ते भी अब एक अंसभव संभावना ही दिखने लगे हैं। बल्कि घृणा की राजनीति ही लंबे समय से दोनों देशों की राजनीति का मूल स्वर रही है। पाकिस्तान और हिंदुस्तान में चुनाव भी इन्हीं नफरतों की हवाओं पर सवार होकर जीते जाते रहे हैं। कई युद्ध लड़कर और निरंतर अपरोक्ष युद्ध लड़कर पाकिस्तान ने इस जहर को और पुख्ता किया है। 7मई,1947 को जब कांग्रेस लगभग बंटवारे का फैसला कर चुकी थी तब गांधी ने शाम को कहा- जिन्ना साहब पाकिस्तान चाहते हैं। कांग्रेस ने भी तय कर लिया है कि पाकिस्तान की मांग पूरी की जाए... लेकिन मैं तो पाकिस्तान किसी भी तरह मंजूर नहीं कर सकता। देश के टुकड़े होने की बात बर्दाश्त ही नहीं होती।  ऐसी बहुत सी बातें होती रहती हैं जिन्हें मैं बर्दाश्त नहीं कर सकता, फिर भी वे रूकती नहीं, होती ही हैं। पर यहां बर्दाश्त नहीं हो सकने का मतलब यह है कि मैं उसमें शरीक नहीं होना चाहता, यानी मैं इस बात में उनके बस में आने वाला नहीं हूं।... मैं किसी एक पक्ष का प्रतिनिधि बनकर बात नहीं कर सकता। मैं सबका प्रतिनिधि हूं।.. मैं पाकिस्तान बनने में हाथ नहीं बंटा सकता। गांधी का मनोगत बहुत स्पष्ट है किंतु हालात ने उन्हें विवश कर दिया था। वे न तो बंटवारा रोक पाते हैं न ही आजादी के जश्न के पहले जगह-जगह हो रही सांप्रदायिक हिंसा। नोवाखली के दंगों के बाद कोलकाता, बिहार और फिर पंजाब। सांप्रदायिक हिंसा के विरूद्ध सबसे प्रखर आवाज के पास अब उपवास के सिवा क्या था?
    दूसरा संकट यह था कि गांधी नोवाखली में हिंदुओं के नरसंहार से दुखी होकर जब वहां पहुंचते तो मुसलमानों को बुरा लगता कि वे कोलकाता में मुसलमानों के लिए क्यों नहीं पहुंचते? जब वे कोलकाता में मुसलमानों की मदद में उतरते तो हिंदू उन्हें कोसते। ऐसे में गांधी चौतरफा आलोचना के शिकार थे। उनके साथी रहे कांग्रेस जन और राजनेता भी उनके इन देश व्यापी प्रवासों और उपवासों में कोई शांति-संभावनादेखने के बजाए संकट ही देखते थे। ऐसे कठिन समय में गांधी को समझना और कठिन हो गया था। गांधी की बेचारगी यही है कि उन्हें आज तक सही अर्थों में समझा नहीं गया। वे अपने प्रति बनी गहरी नामसझी को लेकर ही विदा हुए। उन्हें लोग देवता का दर्जा तो दे बैठे थे किंतु उनके देवत्व से एक सचेतन दूरी बनाए रखना चाहते थे। शायद इसलिए कि तत्कालीन राजनीति की भाषा से गांधी कदमताल करने के तैयार नहीं थे।वे इसीलिए सत्ता का आरोहण नहीं करते, राजपथ नहीं चुनते क्योंकि उनका समाज पर भरोसा था। वे समाज की शक्ति को जगाना चाहते थे, जिसने उन्हें महात्मा बनाया था। किंतु इस दौर में वह समाज भी कहां बचा था, एक गहरा बंटवारा जो सिर्फ भूगोल का नहीं था, मन का भी था। गांधी की रूहानी शक्ति इस दुनियावी रोग के सामने बेबस थी। यह वही समय था जब गांधी को मंत्रमुग्ध सुनने वाला देश और समाज उनसे सवाल करने लगा था। लोग उनके मुंह पर कहने लगे थे कि आप मर क्यों नहीं जाते? उनसे पूछा जाने लगा किः आपने चार-पांच दिन इतनी लंबी-लंबी बातें बनाई कि हम एक इंच भी पाकिस्तान मजबूरी से देना नहीं चाहते, बुद्धि से ह्दय को जाग्रत करके भले ही जो चाहें सो लें, लेकिन वह तो बन गया। अब आप इसके खिलाफ अनशन क्यों नहीं करते?”  उनसे यह भी पूछा गया- आप कांग्रेस के बागी क्यों नहीं बनते और उसके गुलाम क्यों बने हैं? आप उसके खादिम कैसे रह सकते हैं ?अब आप अनशन करके मर क्यों नहीं जाते?” महात्मा जी ने ये सारी बातें खुद 5 जून,1947 को अपने प्रार्थना प्रवचन में बतायीं। खुद पर बरसते सवालों से वे अविचल थे। अपनी आलोचना और निंदा को वे खुद अपने प्रवचनों में वे बताते और अपने उत्तर भी देते। किंतु उस समय गांधी को सुनने, समझने का धीरज तत्कालीन राजनीति और समाज दोनों खो चुके थे। अपने समय को पहचानने की जो अद्भुत क्षमता गांधी में थी उसी के चलते वे कह पाएः बंटवारे से तो हम आज बच नहीं सकते चाहे वह हमें कितना ही नापंसद हो।सच कहें तो गांधी का सबसे बड़ा दर्द यही है कि उन्हें समझा नहीं गया और आज भी उनकी रेंज को समझने वाला मन हमारे पास कहां है? एक राष्ट्रपिता की इससे बड़ी त्रासदी क्या हो सकती है जो समाज और राजनीति उनके पीछे चली, उनके इशारों पर चली वही आज उन्हें अप्रासंगिक तथा अनुपयोगी मान रही थी। गांधी अपने आखिरी दिनों में इतने कातर इसलिए भी थे, उनके अपने भी उनका साथ छोड़ चुके थे, या उन्हें अनसुना कर रहे थे। वे इस बात को समझ गए थे। इसीलिए अनेक मौकों पर आजमाए जा चुके अपने अमोध अस्त्र आमरण अनशन का इस्तेमाल भी वे नहीं करते। उनका मानना था इससे बंटवारा रूक भी गया तो मनों में पाकिस्तान बन जाएगा जो ज्यादा खतरनाक होगा। इसलिए भूगोल बंटने के बाद भी रिश्ते बने रहें, मन मिले रहें उसकी कोशिश वे आखिरी सांस तक करते रहे।  वे बहुत साफ कहते हैःजब मैंने कहा था कि हिंदुस्तान के दो भाग नहीं करने चाहिए तो उस वक्त मुझे विश्वास था कि आम जनता की राय मेरे पक्ष में है; लेकिन जब आम राय मेरे साथ न हो तो क्या मुझे अपनी राय जबरदस्ती लोगों के  गले मढ़नी चाहिए?”
      देश के बंटवारे के बाद गांधी चाहते तो एक निष्क्रिय बुजुर्ग की आदर्श भूमिका निभाते हुए चैन से रह सकते थे। उनके जीवन का सबसे बड़ा लक्ष्य आजादी हासिल हो चुका था। किंतु वे स्वराज के लिए सक्रिय थे। शायद वे देश और उसकी सरकार के कार्य संचालन में कुछ बेहद जमीनी सुधार के सुझाव दे पाते किंतु आजादी मिलते ही उनके सामने हिंदु-मुस्लिम सद्भाव का प्रश्न बहुत विकराल बनकर खड़ा हो गया। दंगे, मारपीट, आगजनी, स्त्रियों से दुर्व्यवहार की खबरों से उनका मन रोज रो पड़ता। वे अकेले और विवश होने के बाद भी इस कठिन समय में अपने हस्तक्षेप से शांति और सद्भाव का संचार करते हैं। सांप्रदायिक तत्वों को विवश करते हैं कि वे राष्ट्र की मुख्यधारा में साथ आएं और अपनी जहरीली राजनीति से बाज आएं। तत्कालीन सरकार को पाकिस्तान के बचे 55 करोड़ रूपए देने के लिए मजबूर कर देते हैं। उनका नैतिक बल अक्सर भारी पड़ता है। किंतु अब उनकी जिद और हठ से उनके अपने लोग भी उनसे बचने लगे थे। गांधी की जिद क्या थी- सद्भावना, एकता, सौहार्द्र, भाईचारा, अहिंसा। शायद वे इसीलिए कहते हैः मैं जानता हूं न तो पाकिस्तान नरक है न ही हिंदुस्तान नरक है। हम चाहें तो उन्हें स्वर्ग बना सकते हैं और अपने कामों से नरक भी बना सकते हैं और जब दोनों नरक जैसे बन गए तो उसमें फिर आजाद इनसान तो रह ही नहीं सकता। पीछे हमारे नसीब में गुलामी ही लिखी है। यह चीज मुझको खा जाती है। मेरा ह्दय कांप उठता है कि इस हालत में किस हिंदू को समझाऊंगा,किस सिख को समझाऊंगा, किस मुसलमान को समझाऊंगा।
   गांधी इस पीड़ा को लिए ही विदा हुए। आप देखें तो इस बात के सात दशक पूरे हो चुके हैं। बंटवारा और गहरा हुआ है। सिर्फ गांधी ही नहीं, भारत-पाक रिश्ते भी अब एक असंभव संभावना दिखने लगे हैं। गांधी की त्रासदी यह है कि वे 32 वर्षों तक जिस हिंदुस्तान के लिए अंग्रेजों से लड़ते रहे, उस आजाद देश में वे मात्र पांच महीने(169 दिन) जिंदा रह सके। गांधी को भूलने का, गांधी को न समझने का, भारत को न समझने का यही फल है। एक न समझे जाने वाले नायक गांधी- जिनकी हमने असंख्य मूर्तियां बनाईं, उनके नाम पर संस्थाएं बनाईं, गांधी रोड बनाए, नगर बनाए, नोटों पर उन्हें छापा,विश्वविद्यालय बनाए किंतु यह सब कुछ हमारी गहरी नासमझी के चलते बेमतलब है। अपनी हत्या से कुछ दिन पहले गांधी ने कहाः मैं तो आज कल का ही मेहमान हूं। कुछ दिनों में यहां से चला जाऊंगा। पीछे आप याद किया करोगे कि बूढ़ा जो कहता था वह सही बात है।


पुस्तक संदर्भः गांधी एक अंसभव संभावनाः सुधीर चंद्र,
मूल्यः199, पृष्ठः184
राजकमल पेपरबैक्स,1-बी, नेताजी सुभाष मार्ग,
दरियागंज, नई दिल्ली-110002

(लेखक माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में जनसंचार विभाग में प्रोफेसर हैं।)
संपर्कः प्रो. संजय द्विवेदी,
जनसंचार विभाग, माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय,
बी-38, विकास भवन, प्रेस कांप्लेक्स, महाराणा प्रताप नगर, भोपाल-462011 (मप्र)
मोबाइलः 9893598888, ई-मेलः 123dwivedi@gmail.com