-प्रो.
संजय द्विवेदी
‘मोबाइल
समय’ के दौर में जब हर व्यक्ति कम्युनिकेटर, कैमरामैन और
फिल्ममेकर होने की संभावना से युक्त हो, तब असल खबरें गायब क्यों हैं? सोशल मीडिया
के आगमन के बाद से मीडिया और संचार की दुनिया के बेहद लोकतांत्रिक हो जाने के ढोल
पीटे गए और पीटे जा रहे हैं। लेकिन वे हाशिए आवाजें कहां हैं? जन-जन तक पसर चुके
मीडिया में हमारा ‘लोक’ और उसका जीवन
कहां है?
सांस्कृतिक
निरक्षरता और संवेदनहीनता का ऐसा कठिन समय शायद ही इतिहास में रहा हो। इन दिनों
सबके अपने-अपने लोक हैं,सबकी अपनी-अपनी नजर है। इस लोक का कोई इतिहास नहीं है,
विचार नहीं है। लोक को लोकप्रिय बनाने और कुल मिलाकर कौतुक बना देने के जतन किए जा
रहे हैं। ऐसे में मीडिया माध्यमों पर लोकसंस्कृति का कोई व्यवस्थित विमर्श असंभव
ही है। हमारी कलाएं भी तटस्थ और यथास्थितिवादी हो गई लगती हैं। लोक समूह की शक्ति
का प्रकटीकरण है जबकि बाजार और तकनीक हमें अकेला करती है। लोकसंस्कृति का संरक्षण
व रूपांतरण जरूरी है। संत विनोबा भावे ने हमें एक शब्द दिया था- ‘लोकनीति’ साहित्यालोचना में एक शब्द प्रयुक्त होता
है- ‘ लोकमंगल’। हमारी सारी व्यवस्था
इस दोनों शब्दों के विरुद्ध ही चल रही है।
लोक को जाने बिना जो तंत्र हमने आजादी के इन सालों में विकसित किया है वह
लोकमंगल और लोकनीति दोनों शब्दों के मायने नहीं समझता। इससे जड़ नौकरशाही विकसित
होती है, जिसके लक्ष्यपथ अलग हैं। इसके चलते मूक सामूहिक चेतना या मानवता के
मूल्यों पर आधारित समाज रचना का लक्ष्य पीछे छूट जाता है।
राष्ट्रपिता महात्मा गांधी कहते थे “हमारा जनसमूह निरक्षर है, मूर्ख नहीं।”
लोकमानस के पास भाषा भले न हो किंतु उसके पास प्रबल भाव होते हैं। मीडिया समय में
जो जोर से कही जाए वही आवाज सही मानी और सुनी जाती है। जो भाषा देते हैं वे नायक
बन जाते हैं। जो योजना देते हैं वे नायक बनते हैं। हमारे मीडिया के पास लोक के
स्पंदन और उसके भावों को सुनने-समझने और गुनने का अवकाश कहां हैं। उसे तो तेज
आवाजों के पास होना है।
लोक की मूलवृत्ति ही है आनंद। आनंद पनपता है शांति में, शांति होती है
स्थिरता में। शांत आनंदमय जीवन सदियों से भारतीय लोक की परम आकांक्षा रही है।
इसलिए हमने लोकमंगल शब्द को अपनाया और उसके अनुरूप जीवन शैली विकसित की। आज इस लोक
को खतरा है। उसकी अपनी भाषाएं और बोलियां, हजारों-हजार शब्दों पर संकट है। इस नए
विश्वग्राम में लोकसंस्कृति कहां है?मीडिया में उसका बिंब ही अनुपस्थित है तो प्रतिबिंब
कहां से बनेगा? हम अपने पुराने को समय का विहंगालोकन करते हैं तो पाते हैं कि
हमारा हर बड़ा कवि लोक से आता है। तुलसी, नानक, मीरा, रैदास, कबीर, रहीम,
सूर,रसखान सभी, कितने नाम गिनाएं। हमारा वैद्य भी कविराय कहा जाता है। लोक इसी
साहचर्य, संवाद, आत्मीय संपर्क, समान संवेदना,समानुभूति से शक्ति पाता है। इसीलिए
कई लेखक मानते हैं कि लोक का संगीत आत्मा का संगीत है।
मीडिया और लोक के यह रिश्ते 1991 के बाद और दूर
हो गए। उदारीकरण, भूंडलीकरण और मुक्त अर्थव्यवस्था के मूल्य अलग हैं। यह
परिर्वतनों का समय भी था और मीडिया क्रांति का भी। इस दौर में मीडिया में पूंजी
बढ़ी, चैनलों की बाढ़ आ गयी, अखबारों को सारे पन्ने रंगीन हो गए, निजी एफएम पर
गाने गूंजने लगे, वेबसाइटों से एक नया सूचना प्रवाह सामने था इसके बाद आए सोशल
मीडिया ने सारे तटबंध तोड़ दिए। अब सूचनाएं नए तरीके परोसी और पोसी जा रहीं थीं।
जहां रंगीन मीडिया का ध्यान रंगीनियों पर था। वहीं वे ‘क्लास’ के लिए मीडिया को तैयार कर रहे थे। मीडिया से
उजड़ते गांवों और लोगों की कहानियां गायब थीं। गांव,गरीब, किसान की छोड़िए- शहर
में आकर संघर्ष कर रहे लोग भी इस मीडिया से दूर थे। यह आभिजात्य नागर जीवन की
कहानियां सुना रहा था, लोकजीवन उसके लिए एक कालातीत चीज है। खाली गांव, ठूंठ होते
पेड़. उदास चिड़िया, पालीथीन के ग्रास खाती गाय, फार्म हाउस में बदलते खेत,
आत्महत्या करते किसान एक नई कहानी कह रहे थे। बाजारों में चमकती चीजें भर गयी थीं
और नित नए माल बन रहे थे। पूरी दुनिया को एक रंग में रंगने के लिए बाजार के जादूगर
निकले हुए थे और यह सारी जंग ही लोक के विरुद्ध थी। यह समय शब्द की हिंसा का भी
समय था। जब चीख-चिल्लाहटें बहुत थीं। लोकजीवन की कहानियां थीं, वहीं वे ‘संवेदना’ के साथ नहीं ‘कौतुक’ की तरह परोसी जा रही थीं। यह एक नया ‘विश्वग्राम’ था, जिसके पास ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की संवेदना नहीं थी। भारतीय मीडिया के सामने यह नया समय था। जिसमें उसके
पारंपरिक उत्तरदायित्व का बोध नहीं था। चाहिए यह था कि भारत से भारत का परिचय हो,
मीडिया में हमारे लोकजीवन की छवि दिखे। इसके लिए हमारे मीडिया और कुशल प्रबंधकों
को गांवों की ओर देखना होगा। खेतों की मेड़ों पर बैठना होगा। नदियों के किनारे
जाना होगा। भारत मां यहीं दिखेगी। एक जीता-जागता राष्ट्रपुरुष यहीं दिखेगा। वैचारिक
साम्राज्यवाद के षड़यंत्रों को समझते हुए हमें अपनी विविधता-बहुलता को बचाना होगा।अपनी
मीडिया दुनिया को सार्थक बनाना है। जनसरोकारों से जुड़ा मीडिया ही सार्थक होगा।
मीडिया अन्य व्यवसायों की तरह नहीं है अतः उसे सिर्फ मुनाफे के लिए नहीं छोड़ा जा
सकता। आज भी मीडिया का एक बड़ा हिस्सा
सच्ची कहानियों को सामने लेकर आ रहा है। पूरी संवेदना के साथ भारत की माटी के
सवालों को उठा रहा है। इस प्रवाह को और आगे ले जाने की जरूरत है। सरोकार ही हमारे
मीडिया को सशक्त बनाएंगे, इसमें नागर जीवन की छवि भी होगी तो लोक जीवन की संवेदना
भी।
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