नहीं
रहे पद्मश्री से अलंकृत पं. श्यामलाल चतुर्वेदी
-प्रो. संजय द्विवेदी
भरोसा नहीं
होता कि पद्मश्री से अलंकृत वरिष्ठ पत्रकार- साहित्यकार पं.श्यामलाल चतुर्वेदी
नहीं रहे। शुक्रवार सुबह ( 7 दिसंबर,2018) उनके निधन की सूचना ने बहुत सारे चित्र
और स्मृतियां सामने ला दीं। छत्तीसगढ़ी राजभाषा आयोग के अध्यक्ष रहे श्री
चतुर्वेदी सही मायनों में छत्तीसगढ़ की अस्मिता, उसके स्वाभिमान, भाषा और लोकजीवन के सच्चे प्रतिनिधि
थे। उन्हें सुनकर जिस अपनेपन, भोलेपन और सच्चाई का भान होता
है, वह आज के समय में बहुत दुर्लभ है। श्यामलाल जी से मेरी
पहली मुलाकात सन् 2001 में उस समय हुयी जब मैं दैनिक भास्कर, बिलासपुर में कार्यरत था।
मैं मुंबई से बिलासपुर नया-नया आया था और शहर के
मिजाज को समझने की कोशिश कर रहा था। हालांकि इसके पहले मैं एक साल रायपुर में
स्वदेश का संपादक रह चुका था और बिलासपुर में मेरी उपस्थिति नई ही थी। बिलासपुर के
समाज जीवन, यहां के लोगों, राजनेताओं,
व्यापारियों, समाज के प्रबुद्ध वर्गों के बीच
आना-जाना प्रारंभ कर चुका था। दैनिक भास्कर को री-लांच करने की तैयारी मे बहुत से
लोगों से मिलना हो रहा था। इसी बीच एक दिन हमारे कार्यालय में पं. श्यामलाल जी
पधारे। उनसे यह मुलाकात जल्दी ही ऐसे रिश्ते में बदल गयी, जिसके
बिना मैं स्वयं को पूर्ण नहीं कह सकता। अब शायद ही कोई ऐसा बिलासपुर प्रवास हो,
जिसमें उनसे सप्रयास मिलने की कोशिश न की हो। उनसे मिलना हमेशा एक
शक्ति देता था । उनसे मिला प्रेम, हमारी पूंजी है। उनके
स्नेह-आशीष की पूंजी लिए मैं भोपाल आ गया किंतु रिश्तों में वही तरलता मौजूद रही।
मेरे समूचे परिवार पर उनकी कृपा और आशीष हमेशा बरसते रहे हैं। मेरे पूज्य दादा जी
की स्मृति में होने वाले पं. बृजलाल द्विवेदी स्मृति साहित्यिक पत्रकारिता समारोह
में भी वे आए और अपना आर्शीवाद हमें दिया।
अप्रतिम
वक्ताः
पं. श्यामलाल जी की सबसे बड़ी पहचान उनकी
भाषण-कला थी। वे बिना तैयारी के डायरेक्ट दिल से बोलते थे। हिंदी और छत्तीसगढ़ी
भाषाओं का सौंदर्य, उनकी वाणी से
मुखरित होता था। उन्हें सुनना एक विलक्षण अनुभव है। हमारे पूज्य गुरूदेव
महामंडलेश्वर स्वामी शारदानंद जी उन्हें बहुत सम्मान देते रहे और अपने आयोजनों में
आग्रह पूर्वक श्यामलाल जी को सुनते रहे। श्यामलाल जी अपनी इस विलक्षण प्रतिभा के
चलते पूरे छत्तीसगढ़ में लोकप्रिय थे। वे किसी बड़े अखबार के संपादक नहीं रहे,
बड़े शासकीय पदों पर नहीं रहे किंतु उन्हें पूरा छत्तीसगढ़ पहचानता
है। सम्मान देता रहा। चाहता रहा। उनके प्रेम में बंधे लोग उनकी वाणी को सुनने के
लिए आतुर रहते थे। उनका बोलना शायद इसलिए प्रभावकारी था क्योंकि वे वही बोलते थे
जिसे वे जीते रहे। उनकी वाणी और कृति मिलकर संवाद को प्रभावी बना देते हैं।
महा परिवार के
मुखियाः
श्यामलाल जी को एक परिवार तो
विरासत में मिला था। एक महापरिवार उन्होंने अपनी सामाजिक सक्रियता से बनाया । देश
भर में उन्हें चाहने और मानने वाले लोग हैं। देश की हर क्षेत्र की विभूतियों से
उनके निजी संपर्क थे। पत्रकारिता और साहित्य की दुनिया में छत्तीसगढ़ की वे एक
बड़ी पहचान हैं। अपने निरंतर लेखन, व्याख्यानों, प्रवासों से उन्होंने हमें रोज समृद्ध किया । इस अर्थ में वे एक यायावर भी
रहे, जिन्हें कहीं जाने से परहेज नहीं रहा। वे एक
राष्ट्रवादी चिंतक थे किंतु विचारधारा का आग्रह उनके लिए बाड़ नहीं थी। वे हर
विचार और राजनीतिक दल के कार्यकर्ता के बीच समान रूप से सम्मानित रहे। मध्यप्रदेश
के अनेक मुख्यमंत्रियों से उनके निकट संपर्क रहे हैं। मंत्रियों की मित्रता सूची
में उनकी अनिर्वाय उपस्थिति थी। किंतु खरी-खरी कहने की शैली ने सत्ता के निकट रहते
हुए भी उनकी चादर मैली नहीं होने दी। सही मायनों में वे रिश्तों को जीने वाले
व्यक्ति थे, जो किसी भी हालात में अपनों के साथ होते हैं।
छत्तीसगढ़ी
संस्कृति के चितेरेः
छत्तीसगढ़ उनकी सांसों में बसता
था। उनकी वाणी से मुखरित होता था। उनके सपनों में आता था। उनके शब्दों में व्यक्त
होता था। वे सच में छत्तीसगढ़ के लोकजीवन के चितेरे और सजग व्याख्याकार थे। उनकी
पुस्तकें, उनकी कविताएं, उनका जीवन,
उनके शब्द सब छत्तीसगढ़ में रचे-बसे हैं। आप यूं कह लें उनकी दुनिया
ही छत्तीसगढ़ था। जशपुर से राजनांदगांव, जगदलपुर से
अंबिकापुर की हर छवि उनके लोक को रचती है और उन्हें महामानव बनाती थी। अपनी माटी
और अपने लोगों से इतना प्रेम उन्हें इस राज्य की अस्मिता और उसकी भावभूमि से
जोड़ता रहा है। श्यामलाल जी उन लोगों में थे जिन्होंने अपनी किशोरावस्था में एक
समृद्ध छत्तीसगढ़ का स्वप्न देखा और अपनी आंखों के सामने उसे राज्य बनते हुए और
प्रगति के कई सोपान तय करते हुए देखा। आज भी इस माटी की पीड़ा, माटीपुत्रों के दर्द पर वे विहवल हो उठते थे। जब वे अपनी माटी के दर्द का
बखान करते थे तो उनकी आंखें पनीली हो जाती थीं, गला रूंध
जाता था और इस भावलोक में सभी श्रोता शामिल हो जाते थे। अपनी कविताओं के माध्यम से
इसी लोकजीवन की छवियां बार-बार पाठकों को प्रक्षेपित करते रहे हैं। उनका समूचा
लेखन इसी लोक मन और लोकजीवन को व्यक्त करता रहा है। उनकी पत्रकारिता भी इसी लोक
जीवन से शक्ति पाती रही है। युगधर्म और नई दुनिया के संवाददाता के रूप में उनकी
लंबी सेवाएं आज भी छत्तीसगढ़ की एक बहुत उजली विरासत है।
सच कहने का
साहस और सलीकाः
पं. श्यामलाल
जी में सच कहने का साहस और सलीका दोनों मौजूद थे। वे कहते तो बात समझ में आती थी।
कड़ी से कड़ी बात वे व्यंग्य में कह जाते थे। सत्ता का खौफ उनमें कभी नहीं रहा। इस
जमीन पर आने वाले हर नायक ने उनकी बात को ध्यान से सुना और उन्हें सम्मान भी दिया।
सत्ता के साथ रहकर भी नीर-क्षीर-विवेक से स्थितियों की व्याख्या उनका गुण था। वे
किसी भी हालात में संवाद बंद नहीं करते। व्यंग्य की उनकी शक्ति अप्रतिम थी। वे
किसी को भी सुना सकते थे और चुप कर सकते थे। उनके इस अप्रतिम साहस के मैंने कई बार
दर्शन किए हैं। उनके साथ होना सच के साथ होना था, साहस के साथ होना था। रिश्तों को बचाकर भी सच कह जाने की कला उन्होंने न
जाने कहां से पाई थी। इस आयु में भी उनकी वाणी में जो खनक और ताजगी थी वह हमें
विस्मित करती थी।मृत्यु के अंतिम दिन तक उनकी याददाश्त बिलकुल तरोताजा रही। स्मृति
के संसार में वे हमें बहुत मोहक अंदाज में ले जाते थे। उनकी वर्णनकला गजब थी। वे बोलते
थे तो दृश्य सामने होता था। सत्य को सुंदरता से व्यक्त करना उनसे सीखा जा सकता था।
वे अप्रिय सत्य न बोलने की कला जानते थे।
लोक से जुड़ी
पत्रकारिताः
पं.श्यामलाल चतुर्वेदी और उनकी पत्रकारिता सही मायने में लोक से जुड़ी हुई
थी। वे लोकमन, लोकजीवन और ग्राम्य जीवन के वास्तविक प्रवक्ता
रहे हैं। वे मूलतः एक आंचलिक पत्रकार थे, जिनका मन लोक
में ही रमता था। वे गांव,गरीब, किसान
और लोक अंचल की प्रदर्शन कलाओं को मुग्ध होकर निहारते थे, उन
पर निहाल थे और उनके आसपास ही उनकी समूची पत्रकारिता ठहर सी गई थी। उनकी
पत्रकारिता में लोकतत्व अनिवार्य रहा है। विकास की चाह, लोकमन
की आकांक्षाएं, उनके सपने, उनके
आर्तनाद और पीड़ा ही दरअसल श्यामलाल जी पत्रकारिता को लोकमंगल की पत्रकारिता से
जोड़ते थे। उनकी समूची पत्रकारिता न्याय के लिए प्रतीक्षारत समाज की इच्छाओं का
प्रकटीकरण है।
लोक में रचा-बसा उनका समग्र जीवन हमें बताता है कि पत्रकारिता ऐसे भी की
जा सकती है। वे अध्यापक रहे, और पत्रकारिता से भी जुड़े रहे
। नई दुनिया और युगधर्म जैसे अखबारों से जुड़े रहकर उन्होंने अपने परिवेश, समुदाय और क्षेत्र के हितों को निरंतर अभिव्यक्ति दी थी। मूलतः संवाददाता
होने के नाते उनके विपुल लेखन का आंकलन संभव नहीं था, क्योंकि संवाददाता खबरें या
समाचार लिखता है जो तुरंत ही पुरानी पड़ जाती हैं। जबकि विचार लिखने वाले, लेखमालाएं लिखने वाले पत्रकारों को थोड़ा समय जरूर मिलता है। श्यामलाल जी
ने अपने पत्रकारीय जीवन के दौरान कितनी खबरें लिखीं और उनसे क्या मुद्दे उठे क्या
समाधान निकले इसके लिए एक विस्तृत शोध की जरूरत है। उनके इस अवदान को रेखांकित
किया जाना चाहिए। उनकी यायावरी और निरंतर लेखन ने एक पूरे समय को चिन्हित और
रेखांकित किया है, इसमें दो राय नहीं है। अपने कुछ सामयिक
लेखों से भी वे हमारे समय में हस्तक्षेप करते रहे हैं।
गुणों के पारखी-विकास के चितेरेः
श्यामलाल जी
पत्रकारिता में सकारात्मकता के तत्व विद्यमान हैं। वे पत्रकारिता से प्रतिपक्ष की
भूमिका निभाने की अपेक्षा तो रखते थे किंतु गुणों के पारखी भी थे। उन्होंने अपनी
पूरी जीवन यात्रा में सिर्फ खबर बनाने के लिए नकारात्मकता को प्रश्रय नहीं दिया।
वे मानते थे कि पत्रकारिता का काम साहित्य की तरह ही उजाला फैलाना है, दिशा दिखाना है और वह दिशा है विकास की, समृद्धि की, न्याय की। अपने लोगों और अपने छत्तीसगढ़
अंचल को न्याय दिलाने की गूंज उनकी समूची पत्रकारिता में दिखती है। वे बोलते,
लिखते और जीते हुए एक आम-आदमी की आवाज को उठाते, पहुंचाते और बताते रहे हैं। सही मायने में एक संपूर्ण संचारकर्ता थे। वे
एक बेहतर कम्युनिकेटर थे, जो लिखकर और बोलकर दोनों ही
भूमिकाओं से न्याय करता था। अपने गांव कोटमी सोनार से आकर बिलासपुर में भी वे अपने
गांव, उसकी माटी की सोंधी महक को नहीं भूलते। वे भोपाल,
दिल्ली और रायपुर में सत्ताधीशों के बीच भी अपनी वाणी, माटी के दर्द और उसकी पीड़ा के ही वाहक होते थे। वे भूलते कुछ भी नहीं
बल्कि लोगों को भी याद दिलाते थे कि हमारी जड़ें कहां हैं और हमारे लोग किस हाल
में हैं।
श्रेष्ठ संचारक-योग्य पत्रकारः
श्यामलाल जी एक योग्य पत्रकार थे किंतु उससे बड़े संचारक या संप्रेषक थे।
उनकी संवाद कला अप्रतिम थी। वे लिख रहे हों या बोल रहे हों। दोनों तरह से आप उनके
मुरीद हो जाते हैं। कम्युनिकेशन या संचार की यह कला उन्हें विरासत में मिली है और
लोकतत्व ने उसे और पैना बनाया है। वे जीवन की भाषा बोलते थे और उसे ही लिखते थे।
ऐसे में उनका संचार प्रभावी हो जाता था। वे सरलता से बड़ी से बड़ी बात कह जाते थे
और उसका प्रभाव देखते ही बनता था। आज जब कम्युनिकेशन को पढ़ाने और सिखाने के तमाम
प्रशिक्षण और कोर्स उपलब्ध हैं, श्यामलाल जी हमें सिखाते थे
कि कैसे ‘लोक’ किसी व्यक्ति
को बनाता है। श्यामलाल जी इस मायने में विलक्षण थे। हम
सबके बीच श्यामलाल जी की उपस्थिति सही मायने में एक ऐसे यात्री की उपस्थिति थी,
जिसकी बैचेनियां अभी खत्म नहीं हुई थीं। मृत्यु के अंतिम दिन तक
उनकी आंखों में वही चमक, वाणी में वही ओज और जोश मौजूद था
जिसका सपना उन्होंने अपनी युवा अवस्था में देखा रहा होगा। आज भी अखबारों या
पत्रिकाओं में कुछ अच्छा पढ़कर अपनी नई पीढ़ी की पीठ ठोंकना उन्हें आता था। वे
निराश नहीं थे, हताश तो बिल्कुल नहीं। वे उम्मीदों से भरे
हुए थे, उनका इंतजार जारी था। एक उजले समय के लिए... एक उजली
पत्रकारिता के लिए.. एक सुखी-समृद्ध छत्तीसगढ़ के लिए...आत्मनिर्भर गांवों के
लिए.. एक समृध्द लोकजीवन के लिए। क्या हम श्यामलाल जी
के सपनों के साथ अपने सपनों को जोड़ने के लिए तैयार हैं?
लेखक माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार
विश्वविद्यालय, भोपाल में जनसंचार विभाग के अध्यक्ष हैं।