सोमवार, 14 मार्च 2016

अनथक यात्री की कहानी बयां करती किताब

       -लोकेन्द्र सिंह
 

  भारतीय राजनीति के 'अनथक यात्री' लखीराम अग्रवाल पर किसी पुस्तक का आना सुखद घटना है। सुखद इसलिए है, क्योंकि लखीरामजी जैसे राजपुरुषों की प्रेरक कथाएं ही आज हमें राजनीति के निर्लज्ज विमर्श से उबार सकती हैं। दलबंदी के गहराते दलदल में फंसकर इधर-उधर हाथ-पैर मार रहे राजनीतिक कार्यकर्ताओं और नेताओं को सीख देने के लिए लखीरामजी जैसे नेताओं के चरित्र को सामने लाना बेहद जरूरी है। विचार के लिए किस स्तर का समर्पण चाहिए और विपरीत परिस्थितियों में भी राजनीतिक शुचिता कैसे बनाए रखी जाती है, यह सब सिखाने के लिए लखीरामजी सरीखे व्यक्तित्वों को अतीत से खींचकर वर्तमान में लाना ही चाहिए।
    लखीराम अग्रवाल सच्चे अर्थों में राजपुरुष थे। उन्होंने राजनीति का यथेष्ठ उपयोग समाजसेवा के लिए किया। शुचिता की राजनीति की नई लकीर खींच दी। शिखर पर पहुंचकर भी साधारण बने रहे। खुद को महत्वपूर्ण मानकर असामान्य व्यवहार कभी नहीं किया। वे अंत तक खुद को सच्चे अर्थों में जनप्रतिनिधि साबित करते रहे। ऐसे व्यक्तित्व की कहानियां बयां करती है-'लक्ष्यनिष्ठ लखीराम'। श्री लखीराम अग्रवाल स्मृति ग्रंथ 'लक्ष्यनिष्ठ लखीराम' का संपादन राजनीतिक विचारक संजय द्विवेदी ने किया है। श्री द्विवेदी ने अपना महत्वपूर्ण समय छत्तीसगढ़ की पत्रकारिता को दिया है। उन्होंने स्वदेश, दैनिक भास्कर, हरिभूमि और जी-24 घंटे संपादक रहते हुए छत्तीसगढ़ में राजनीतिक हलचलों को बेहद करीब से देखा है। लखीरामजी के प्रयासों से जब छत्तीसगढ़ में भारतीय जनता पार्टी की जड़ें मजबूत हो रही थीं, तब इस पुस्तक के संपादक श्री द्विवेदी वहीं थे। इस संदर्भ में पुस्तक में शामिल उनके लेख 'भाजपा की जड़ें जमाने वाला नायक' और 'विचारधारा की राजनीति का सिपाही' को देख लेना उचित होगा। उन्होंने लखीरामजी के मिशन-विजन को नजदीक से देखा-समझा है। इसलिए यह पुस्तक अधिक महत्वपूर्ण हो जाती है। क्योंकि, इसमें उन सब बातों, घटनाओं और विचारों का समावेश निश्चिततौर पर है, जिनसे लखीरामजी की वास्तविक तस्वीर उभरकर सबके सामने आएगी।
      मौटे तौर पर पुस्तक में लखीरामजी से संबंधित सामग्री को तीन स्तरों में रखा गया है। परिचय और छवियों में लखीरामजी सहित इस स्मृतिग्रंथ के पांच भाग हो जाते हैं। पहला है मूल्यांकन, जिसमें पत्रकारों, संपादकों, शिक्षाविदों और लेखकों के अनुभव शामिल हैं। पुस्तक के सलाहकार संपादक बेनी प्रसाद गुप्ता लिखते हैं कि लखीरामजी की सूझ-बूझ के कारण बिना किसी हिंसक आंदोलन, धरना-प्रदर्शन या शोर-शराबे के छत्तीसगढ़ राज्य का गठन हो गया। वरना हम देखते हैं कि राज्यों के निर्माण में कितना संघर्ष होता है। लखीरामजी जैसी राजनीतिक दूरदर्शिता कम ही देखने को मिलती है। सबको भरोसे में लेकर काम करना उनका विशेष गुण था। इसी खण्ड में वरिष्ठ पत्रकार रमेश नैयर लखीरामजी के समाचार-पत्र प्रकाशन और प्रबंध के कौशल का जिक्र करते हैं। श्री नैयर अग्रवाल परिवार के दैनिक समाचार पत्र 'लोकस्वर' के संस्थापक संपादक रहे हैं। वे एक घटना के माध्यम से बताते हैं कि कभी भी लखीरामजी ने पत्रकारिता को अपने स्वार्थ के लिए उपयोग नहीं किया। न कभी संपादक पर दबाव डाला। कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति डॉ. सच्चिदानंद जोशी ने भी सहृदय संगठक के पत्रकारीय विशेषता को रेखांकित किया है। यह बहुत कम लोगों को पता होगा कि लखीरामजी ने नागपुर टाइम्स और युगधर्म जैसे समाचार-पत्रों में संवाददाता के रूप में काम किया था। लखीरामजी सिर्फ एक राजनेता नहीं थे बल्कि वे 'राजनीति के ओल्ड स्कूल के नेता' थे। इंडिया टुडे के संपादक रहे श्री जगदीश उपासने लिखते हैं कि लखीरामजी उन नेताओं में थे जो पार्टी-संगठन को प्रमुखता और उसके लिए समयानुकूल कार्यकर्ता तथा धन की व्यवस्था करने की परम्परागत राजनीतिक शैली में ढले थे। संगठन के पद पर कार्यकर्ता का चयन पार्टी को बढ़ाने की उसकी योग्यता के आधार पर तो होता ही था, वे यह भी देखते कि उस कार्यकर्ता की नियुक्ति से सांगठनिक संतुलन भी न बिगड़े। ऐसे में कई बार तो वे विरोध पर भी उतर आते थे। लेकिन, लखीरामजी का कौशल ऐसा था कि नाराज कार्यकर्ता उनके साथ एक बार लम्बी बातचीत के बाद फिर से पुराने उत्साह से काम पर लग जाता था। हरेक कार्यकर्ता उनके लिए अपने परिवार के सदस्य की तरह था।
      पुस्तक के दूसरे हिस्से 'राजनेताओं की स्मृतियां' में अनेक रोचक प्रसंग हैं। इस खण्ड में उन नेताओं के लेख शामिल हैं, जिन्होंने उनके राजनीतिक सहयात्री रहे। उन नेताओं ने भी अपनी यादें साझा की हैं, जिन्होंने लखीरामजी के सान्निध्य में रहकर पत्रकारिता का ककहरा सीखा है। एक सर्वप्रिय नेता के संबंध में छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह, अविभाज्य मध्यप्रदेश प्रभावशाली नेता कैलाश जोशी, मोतीलाल वोरा, स्व. विद्याचरण शुक्ल, कैलाश नारायण सारंग सहित अन्य नेताओं के विचारों का एक ही जगह संग्रह महत्वपूर्ण है। इस खण्ड में कैलाश जोशी और लखीराम अग्रवाल का एक-दूसरे के खिलाफ संगठन का चुनाव लडऩे का अविस्मरणीय और शिक्षाप्रद प्रसंग भी शामिल है। महज 21 वर्ष की युवावस्था में नगरपालिका में पार्षद चुना जाना। खरसिया नगरपालिका का अध्यक्ष चुने जाने का प्रसंग। भाजपा में विभिन्न दायित्व मिलने के किस्से और खरसिया के सबसे चर्चित उपचुनाव को समझने का मौका यह पुस्तक उपलब्ध कराती है। खरसिया उपचुनाव में लखीरामजी ने मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह के खिलाफ दिलीप सिंह जूदेव को मैदान में उतारा था। चुनाव की ऐसी रणनीति उन्होंने बनाई थी कि कद्दावर नेता अर्जुन सिंह को पसीना आ गया था। हालांकि श्री जूदेव चुनाव हार गए। लेकिन, लखीरामजी के चुनावी प्रबंधन के कारण यह चुनाव ऐतिहासिक बन गया।
   बहरहाल, पुस्तक के तीसरे अध्याय में 'परिजनों की स्मृतियाँ' शामिल हैं। यह एक तरह से लखीरामजी के प्रति उनके अपनों के श्रद्धासुमन हैं। इस अध्याय में लखीरामजी के अनुज रामचन्द्र अग्रवाल, श्याम अग्रवाल, उनके बड़े बेटे बृजमोहन अग्रवाल, लखीराम अग्रवाल, सजन अग्रवाल और पुत्रवधु शशि अग्रवाल ने अपनी स्मृतियों को सबके सामने प्रस्तुत किया है। लखीरामजी का पारिवारिक जीवन भी कम प्रेरणास्पद नहीं है। उन्होंने उदाहरण प्रस्तुत किया है कि किस तरह पूरी ईमानदारी के साथ राजनीति और परिवार दोनों का संचालन किया जाता है। उनके लम्बे सार्वजनिक जीवन में कोई राजनीतिक कलंक नहीं है। राजनीति में अपनी पार्टी को और व्यक्तिगत जीवन में अपने परिवार को मजबूत करने के लिए लखीरामजी ने अथक परिश्रम किया है। जैसा कि शुरुआत में ही लिखा है कि ऐसे धवल राजनेताओं का चरित्र सबके सामने आना ही चाहिए। ताकि अपने मार्ग से भटक रही राजनीति इन्हें देख-सुन और स्मरण कर शायद संभल सके। 275 पृष्ठों की पुस्तक के अंतिम पन्नों पर ध्येयनिष्ठ राजनेता और समाजसेवी लखीराम अग्रवाल से संबंधित महत्वपूर्ण चित्रों का संग्रह है। इन चित्रों से होकर गुजरना भी महत्वपूर्ण होगा।
पुस्तक                        :          लक्ष्यनिष्ठ लखीराम
संपादक                       :         संजय द्विवेदी
प्रकाशक          :          मीडिया विमर्श
                     47, शिवा रॉयल पार्क, साज री ढाणी (विलेज रिसोर्ट) के पास,
                     सलैया, आकृति इकोसिटी से आगे, भोपाल - 462042
                      फोन : 9893598888

मूल्य             :         200 रुपये

शुक्रवार, 11 मार्च 2016

शक्ति को सृजन में लगाएं मोदी

हाथ में आए ऐतिहासिक अवसर का करें राष्ट्रोत्थान के लिए इस्तेमाल

-संजय द्विवेदी


पिछले कुछ दिनों से सार्वजनिक जीवन में जैसी कड़वाहटें, चीख-चिल्लाहटें, शोर-शराबा और आरोप-प्रत्यारोप अपनी जगह बना रहे हैं, उससे हम देश की ऊर्जा को नष्ट होता हुआ ही देख रहे हैं। भाषा की अभद्रता ने जिस तरह मुख्य धारा की राजनीति में अपनी जगह बनाई है, वह चौंकाने वाली है। सवाल यह उठता है कि नरेंद्र मोदी के सत्तासीन होने से दुखीजन अगर आर्तनाद और विलाप कर रहे हैं तो उनकी रूदाली टीम में मोदी समर्थक और भाजपा के संगठन क्यों शामिल हो रहे हैं? वैसे भी जिनको बहुमत मिला है, उन्हें शक्ति पाकर और शालीन व उदार हो जाना चाहिए, पर वे भी अपने विपक्षियों की तरह ही हल्लाबोल की मुद्रा में हैं। ताकत का रचनात्मक इस्तेमाल इस देश के वंचितों को ताकत देने, देश को शक्ति देने और एकजुट करने के लिए होना चाहिए किंतु लगता है कि भाजपा और उसके समर्थक मार्ग से भटक गए हैं और अपने विरोधियों द्वारा नित्य रचे जा रहे नाहक मुद्दों पर प्रतिक्रिया देने में वक्त खराब कर रहे हैं।
उनसे सिर टकराकर क्या हासिलः  ऐतिहासिक और राजनीतिक रूप से हाशिए पर जा चुके वामपंथियों से सिर टकराने और उन्हें महत्वपूर्ण बनाने के बजाए भाजपा को लंबे समय और संघर्ष के बाद मिले इस अवसर का सही इस्तेमाल करना चाहिए। गर्जन-तर्जन और टीवी पर बाहें चढ़ाने के बजाए देश को जोड़ने, सामाजिक समरसता पैदा करने, मुसलमानों, ईसाईयों और वंचित वर्गों को इस अहसास से जोड़ना चाहिए कि वे उन्हें अपना शत्रु न समझें। रची जा रही कृत्रिम लड़ाईयों में उलझकर भाजपा अपने कुछ समर्थकों को तो खुश रखने में कामयाब होगी, किंतु इतिहास को बदलने और कुछ नया रचने की अपनी भूमिका से चूक जाएगी। इन नकली लड़ाईयों की उपेक्षा ही सबसे बड़ा दंड है। वरन रोज कोई कन्हैया हीरो बनेगा और देश की राजसत्ता को चुनौती देता दिखाई देगा। नान इश्यू पर बहस करना सबसे बड़ा अपराध है, किंतु अफसोस कि बीजेपी उसी ट्रैक में फंस रही है, जिसमें वामपंथियों का रिकार्ड है। वे सिर्फ बहस कर सकते हैं, नए नारे गढ़ सकते हैं, भ्रम पैदा कर सकते हैं। उन्हें दलितों, आदिवासियों, अल्पसंख्यकों के जीवन स्तर को उठाने, भारत के विकास और उद्धार से कोई लेना-देना नहीं है। इसलिए देश की समग्र तस्वीर बदलने के ऐतिहासिक संकल्प से आई सरकार को इन सवालों में नहीं उलझना चाहिए।
तोड़िए पूंजीवादी होने का मिथकः केन्द्र की भाजपा सरकार को इस मिथक को तोड़ने के लिए तेजी के साथ काम करना होगा कि वह नारे और मुखौटे तो आम- आदमी व देश के विकास के लगा रही है, पर उसका छिपा हुआ एजेंडा नंगा पूंजीवाद है। इस मिथक को तोड़कर ही भाजपा अपना जनसमर्थन बचाए और बनाए रख सकती है। यह काम भाषणों से नहीं हो सकता, इसके लिए जमीन पर काम करना होगा। प्रतिपक्ष की राजनीतिक शक्तियों से टकराकर सत्ता उन्हें शक्ति ही देती है, इसलिए उनकी उपेक्षा और बहस में उनसे न उलझकर विकास की गति को तेज करना, कम प्रतिक्रिया देना ही विकल्प है। सबसे पहले देश की भावना का विस्तार करते हुए हमें एक ऐसा जन समाज बनाना होगा जो राष्ट्र प्रथम की ऊर्जा से लबरेज हो।
बौद्धिक और राष्ट्रप्रेमी समाज बनाने की चुनौतीः हमारे देश का सबसे बड़ा संकट यह है कि हमने आजादी के इन सालों में बौद्धिक चेतना संपन्न राष्ट्रप्रेमी, भारतीयता के भावों से भरा समाज बनाने के बजाए, बौद्धिक रूप से विपन्न समाज को सृजित किया है। जन समाज में बौद्धिक विपन्नता बढ़े इस पर हमारी राजनीति, शिक्षा और मीडिया का सामूहिक योगदान रहा है। यह खतरा 1991 में उदारीकरण के बाद और बढ़ गया। ऐसे में समाज के बजाए हम भीड़ बना रहे हैं। एक अरब के देश में हर सही-गलत मुद्दे पर हजार-दस हजार जोड़ लेना और अपनी बात कहने लगना बहुत आसान हो गया है। उदारीकरण और भूमंडलीकरण की इस आंधी में टूटते परिवार, बिखरते गांव, कमजोर होते संस्कार, शिक्षा में बढ़ती असमानता के चलते कई स्तरों वाला समाज निर्मित हो रहा है। जिसकी सपने और आकांक्षाएं इस राष्ट्र की आकांक्षाओं से कई बार अलग-अलग दिखती हैं। जन समाज की बौद्धिक विपन्नता, घर में घुस आए बाजार, मीडिया के हर क्षेत्र में एफडीआई के माध्यम से आयातित विचारों की घुसपैठ और नागरिकों को ग्राहक बनाने में जुटा पूरा तंत्र हमें आतंकित करता हुआ दिखता है। यहां स्लोगन की शक्ल में कुछ चीजें हैं, पर संकल्प नदारद हैं। नरेंद्र मोदी की सरकार और उनके विचार परिवार की यह जिम्मेदारी है कि वह देश में ऐसी बौद्धिक चेतना के निर्माण का वातावरण बनाए, जो सत्ता को भी आईना दिखा सके। आलोचना के प्रति औदार्य और राष्ट्रप्रेम की स्वीकार्यता से यह संभव है। मोदी समर्थकों को यह स्वीकरना चाहिए कि मोदी पर हमला, देश पर हमला नहीं है। सरकार की आलोचना, भारतद्रोह नहीं है। जेएनयू जैसे प्रसंगों को ज्यादा हवा देकर हम विदेशियों को यह बता रहे हैं कि हम कितने बँटे हुए हैं। जबकि सच यह है कि यह कुछ मुट्टी भर बीमार-मनोरोगी-बुद्धिजीवियों का षडयंत्र है, जिसमें पूरा देश उलझ गया है।  हमें समाज जीवन में ऐसी बौद्धिक चेतना का विकास करना है, जिसमें हम शासन-सत्ता से लेकर राज-काज की शैलियों पर सवाल उठा सकें। अपने समय में रचनात्मक हस्तक्षेप कर सकें। नरेंद्र मोदी और उनकी पार्टी को यह ऐतिहासिक विजय सत्ता परिवर्तन के परिप्रेक्ष्य में ही नहीं बल्कि सत्ता संस्कृति में भी परिर्वतन के लिए भी मिली है। एक ऐसी विचारधारा के अवलंबन के लिए मिली है जिसके लिए देश प्रथम है। लोगों को यह अहसास होना चाहिए कि यह कुछ अलग लोग हैं, कुछ अलग सरकार है। दिल्ली में जाकर दिल्लीवाला न होना ही नरेंद्र मोदी की शक्ति है। अगर वे दिल्ली वाले हो गए, तो उनमें क्या बचेगा? उनके विरोधियों की बिलबिलाहट यही है कि नरेंद्र मोदी लुटियंस के मिजाज में फिट नहीं बैठते। विरोधियों की नजर में वे वहां एक अवैध उपस्थिति हैं। लेकिन यह उपस्थिति अपार जनसमर्थन से संयुक्त है। ऐसे में सरकार के बढ़िया-अच्छे कामों को प्रचारित करने में शक्ति लगाने की जरूरत है, न कि वामपंथियों के रोज रचे षडयंत्रों में फंसकर उस पर प्रतिक्रिया देने की। यह बहुत अच्छा है कि प्रधानमंत्री इस बात को समझते हैं, और वे हर बात पर प्रतिक्रिया देने के लिए उपलब्ध नहीं होते, किंतु उनके उत्साही समर्थक जिन्हें भक्त कहकर संबोधित किया जा रहा है, वे मोदी विरोधियों के षडयंत्र में फंसते रहे हैं।
आलोचना से क्या डरनाः लोकतंत्र में आलोचना तो शक्ति देती है। ऐसे में आलोचना से क्या डरना। आलोचना स्वस्थ हो या अस्वस्थ इससे क्या फर्क पड़ता है। आलोचनाओं से घबराकर, खुद हमलावर हो जाना, बिखरे और पस्त पड़े विपक्ष को जीवनदान देना ही है। मोदी और उनकी पार्टी यहीं चूक रही है और उसने अपने एनडीए के कुनबे को विस्तार को रोककर, अपनों की तो नाराजगी ली है, पर विपक्ष को एक कर दिया है। दिल्ली से बिहार तक इसके परिणाम बिखरे पड़े हैं। ऐसे समय में जब भाजपा और उसके परिवार को मुसलमानों और ईसाईयों के साथ संवाद को निरंतर और तीव्र करते हुए, उनमें भारत प्रेमी नेतृत्व का विकास करते हुए अपनी भौगोलिक और सामाजिक सीमाओं का अतिक्रमण करना चाहिए। वह खुद को छुद्र मुद्दों पर घेरने की विपक्षियों की रणनीति में स्वयं शामिल होने को आतुर दिखती है। हाशिए के समाज के अपनी संलग्नता को स्थाई करने के प्रयासों के बजाए, वह जेएनयू जैसे विवादों पर अपनी शक्ति जाया कर रही है।
ज्यादा डिजीटिलाईजेशन से बचिएः  मोदी सरकार को यह साबित करना होगा कि वह अंतिम आदमी के साथ है। हाशिए के लोगों के साथ उसकी संलग्नता और संवाद ही मोदी और उनकी पार्टी की शक्ति बन सकती है। अधिक डिजीटलाईजेशन के बजाए, हाशिए के समाज के शक्तिवान बनाने और फैसले लेने की शक्ति देने के प्रयास होने चाहिए। इससे डिजीटल डिवाइट का खतरा बढ़ेगा और एक नया दलाल वर्ग यहां भी विकसित हो जाएगा, जो इस डिजीटलाईजेशन के फायदे खुद खा जाएगा। इससे असमर्थ को क्या हासिल होगा, इस पर सोचना चाहिए। गुणवत्तापूर्ण श्रेष्ठ शिक्षा गांवों तक पहुंचाए बिना हम समर्थ भारत की कल्पना भी नहीं कर सकते। निजी क्षेत्र को ताकतवर बनाने की नीतियों से आगे हमें अपने सरकारी शिक्षण संस्थाओं की गुणवत्ता पर बहुत काम करने की जरूरत है। यह बहुत जरूरी है कि हम ऐसे दिन देख पाएं कि कृष्ण और सुदामा दोनों एक स्कूल में साथ पढ़ सकें। इससे समाज में असंतोष और गैरबराबरी कम होगी। गरीबों को चोर या भ्रष्टाचारी बनाने वाला तंत्र अपना इलाज पहले खुद करे। इस तंत्र को यह भी सोचना होगा कि देश के आम गरीब लोग कामचोर, काहिल या बेईमान नहीं हैं- उन्हें अवसर देकर, सुविधाएं और अच्छी शिक्षा देकर ही कोई भी लोकतंत्र सार्थक हो सकता है। भारतीयों की तरफ अंग्रेजों की सोच और नजरिए से ही हमारा तंत्र और प्रशासन देखता आया है, उस सोच में बदलाव की जरूरत है, जो हमें नागरिक के बजाए प्रजा समझती है। इसलिए विकल्प यही है कि सरकारें वो राज्य की हों या केंद्र की, वे जवाबदेह बनें और डिलेवरी पर मुख्य फोकस करें। वोट की परवाह क्या और क्यों करना?
    याद कीजिए 1967 में डा. राममनोहर लोहिया के संविद सरकारों के प्रयोग को जिसने पहली बार देश को यह भरोसा दिलाया कि कांग्रेस भी सत्ता से बाहर हो सकती है। राज्यों में ऐसी सरकारें बनीं जिसमें कम्युनिस्ट और जनसंघ के लोग साथ बैठे। ऐसे में एनडीए का कुनबा बिखरा और भाजपा की अहंकारजन्य प्रस्तुति रही तो सत्ता तो हाथ से फिसलनी ही है। नरेन्द्र मोदी और उनके भक्तों को यह नहीं भूलना चाहिए कि यह अवसर उन्हें किसलिए मिला है? उन्हें यह भी याद होगा कि वे क्या करने सत्ता में आए हैं, और यह तो जरूर पता होगा कि वे क्या कर रहे हैं? इतिहास की घड़ी में पांच साल का वक्त कुछ नहीं होता, दो साल गुजर गए हैं। कुछ करिए भाई।

गुरुवार, 3 मार्च 2016

एक संत-राजनीतिज्ञ की याद

छत्तीसगढ़ की अस्मिता और स्वाभिमान के प्रतीक थे पवन दीवान
-संजय द्विवेदी



        संत श्री पवन दीवान ने जब गुडगांव के मेदांता अस्पताल में 2 मार्च,2016 को आखिरी सांसें लीं तो सही मायने में एक युग का अवसान हो गया। छत्तीसगढ़ महतारी की सेवा में अपनी पूरी जिंदगी लगा देने वाले और समाज जीवन के हर मोर्चे पर सक्रिय श्री दीवान की कई स्मृतियां एक साथ दिमाग में कौंध जाती हैं। मंत्री और सांसद रहे पवन जी की निजी जिंदगी में जैसी सादगी थी, वह आज की धर्मनीति और राजनीति दोनों में दुर्लभ है। मुझे उनके आश्रम में उनका टीवी इंटरव्यू करने का मौका मिला, एक कमरे में एक लकड़ी का एक बेहद सामान्य तख्त, कुछ खाना बनाने के बरतन, बस इतने से संसाधन। कोई वैभव नहीं- जो आज के संतों के लिए अनिवार्य हैं। आश्रम तो आश्रम सरीखा ही था। स्वयं बनाकर खाना और अपनी भुवनमोहिनी मुस्कान के साथ अपने लोगों के लिए सदा उपलब्ध।  8 अगस्त,1945 को जन्में और छत्तीसगढ़ के महासमुंद क्षेत्र से दो बार सांसद रहे संत पवन दीवान मप्र सरकार में जेल मंत्री भी रहे। बाद के दिनों में छत्तीसगढ़ गो सेवा आयोग के अध्यक्ष भी रहे। उनकी राजनीति, धर्मनीति, कविता और कथावाचन सब कुछ लोगों के लिए थी।
   कवि, साहित्यकार के रूप में भी उनकी पीड़ा ज्यादातर छत्तीसगढ़ को लेकर ही मुखर होती थी। एक विलक्षण कथावाचक, वे कथा कह रहे हों और आपकी आंखों से आंसू न निकल आएं यह संभव नहीं था । उन्होंने अपनी कविताएं छत्तीसगढ़ी और हिंदी दोनों भाषाओं में लिखीं। कथा भी वे छत्तीसगढ़ी में कहना पसंद करते थे। लोकभाषा और लोकसंस्कृति को लेकर उनके मन में गहरा अनुराग था। वे सही मायने में लोक को जीने और उसी में बसनेवाले व्यक्ति थे। अपनी एक कविता में वे अपने इस राष्ट्रवादी लोकमन को व्यक्त करते हैं-
सागर में दही भरा जैसे, नदियों में दूध छलकता है
यादें बच्चों की किलकारी,दर्पण में रूप झलकता है
दक्षिण में बाजे बजते हैं,उत्तर में झांझ झमकता है
पश्चिम मन ही मन गाता है,पूरब का भाल दमकता है
   एक कवि के नाते वे मंचों पर बहुत लोकप्रिय रहे। छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश के गांव-गांव तक उनकी ख्याति थी। वे जहां पहुंचते वहां उन्हें देखने और मिलने वालों का तांता लग जाता। उनकी लोकप्रियता के मद्देनजर राजनीति के मंच पर उनकी उपस्थिति भले ही बहुत ऊंचाई लेती हुयी न दिखती हो, किंतु उन्होंने छत्तीसगढ की अस्मिता के सवालों,यहां को भूमिपुत्रों के प्रश्न और उनकी चिंताओं को अपने विचार के केंद्र में रखा। ये बड़ी बात है कि उन्होंने जिस छत्तीसगढ. राज्य का सपना अपनी युवा अवस्था में देखा और वह उनकी आंखों के सामने पूरा हुआ। 2014 के चुनाव के बाद मेरी किताब 'मोदी लाइव'  उन्हें मिली तो उसकी प्राप्त की सूचना, उन्होंने मेरे मित्र नीरज गजेंद्र से वाट्सअप पर फोटो के रूप में भेजी। वे बेहद भावुक और राजनीति के लिए एक अनुपयोगी व्यक्ति थे। उनके भोलेपन का हर राजनीतिक दल ने इस्तेमाल किया। बार-बार दलबदल शायद उनके इसी भोलेपन का परिणाम था। वे संत थे, जल्दी रूठना और जल्दी खुश हो जाना उनका स्वभाव था। वे सही मायने में राजनीति के लिए नहीं बने थे, लोक की चिंता और सामान्य जनों की पीड़ा उन्हें राजनीति में खींच लाई। उनका राजनीति में आगमन साधारण नहीं था। वे खुद में एक आंदोलन बन गए और इस छत्तीसगढ की जमीन पर लंबे समय तक यह नारा चर्चित रहा-
पवन नहीं ये आंधी है,
छत्तीसगढ़ का गांधी है।
    राजनीति की दुनिया में उनका होना कई बार आश्चर्यचकित करता था। वे कई बार गलत निर्णय लेते और बहुत भावुक होते दिखे, किंतु वे मन की करते थे और लाभ- हानि की परवाह कहां करते थे। उन्होंने सोचकर और संकल्प के साथ शायद सन्यास तो लिया था, पर राजनीति में भावना के कारण ही आए। तमाम लोगों की तरह उन्हें भी लगता था कि राजनीति से बहुत कुछ बदल सकता है। पर उनकी मूल भावना क्या थी-यही न कि छत्तीसगढ़ की सालों से उपेक्षित घरती को न्याय मिले, यहां के लोगों को न्याय मिले। वे इसी भावना के तहत राजनीति में थे। बाद में आयु के साथ उनकी यह धार भी कम होती गयी। एक संत होने के नाते उनकी सीमाएं थीं और वे राजनीति में होकर भी इन सीमाओँ का अतिक्रमण नहीं कर सके।
    राजनीति और धर्म दोनों मंच पर समान उपस्थिति के बाद भी कोई वैभव का संसार न बसाना, उनकी सादगी- सौजन्यता को ही स्थापित करता है। वे चाहते तो क्या कर सकते थे, पर क्या नहीं कर सके- ऐसे तमाम सवाल उनके जीवित रहते भी थे, आज भी हैं। किंतु पवन दीवान की सार्थकता यही है कि उन्होनें मनचाही जिंदगी जी और कभी किसी की परवाह नहीं की। यह जिंदादिली राजनीति के पथरीले रास्ते पर कहां रास आती है। किंतु पवन दीवान होने का दरअसल यही मतलब है। छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह की सुनें तो वे कहते हैं कि "श्री दीवान ने छत्तीसगढ़ राज्य निर्माण आंदोलन के लिए जनचेतना जागृत करने में अपना ऐतिहासिक योगदान दिया। उन्होंने अपनी हिंदी और छत्तीसगढ़ी कविताओं के माध्यम से जहां मानवीय संवेदनाओं को लगातार अपनी हृदय स्पर्शी अभिव्यक्ति दी, वहीं राज्य निर्माण के लिए जन-जागरण में भी उनकी कविताओं ने उत्प्रेरक का कार्य किया। उन्होंने रामायण और भागवत प्रवचन के माध्यम से छत्तीसगढ़ के गांव-गांव में भारतीय संस्कृति और आध्यात्मिक चेतना के प्रचार-प्रसार में ऐतिहासिक योगदान दिया। ” यह बात बताती है कि छत्तीसगढ़ के लोकजीवन को पवन दीवान जी ने किस तरह स्पंदित किया होगा। वे सही अर्थों में लोकमन के चितेरे और व्याख्याकार थे। वे छत्तीसगढ़ के आम आदमी के प्रतिनिधि थे, उसी की तरह भोले और निष्पाप। पवन दीवान से छल करना आसान था, आप उन्हें इस्तेमाल कर धोखा दे दीजिए पर दीवान जी एक ठहाके में उस सारे दर्द को उड़ा देते थे। उन्हें लोक का सम्मान मिला, राजनीति में धोखे मिले। वे संत थे, इसलिए वे इसका न प्रतिकार करते थे, ना ही जख्मों को डायरी में दर्ज करते थे। वे जब भी बोले अपनी माटी के शोषण के विरूद्ध बोले। एक कविता में वे इसी दर्द को, गुस्से को व्यक्त करते हैं-
घोर अंधेरा भाग रहा है, छत्तीसगढ़ अब जाग रहा है।
खौल रहा नदियों का पानी, खेतों में उग रही जवानी।
गूंगे जंगल बोल रहे हैं, पत्थर भी मुंह खोल रहे हैं।
धान कटोरा रखने वाले, अब बंदूकें तोल रहे हैं।

    मुझे और मेरे परिवार को उनकी सदा कृपा और आशीष मिला। हम जब भी राजिम गए उन्हें याद किया और खोजकर मिले। उनकी सहजता और खिलखिलाकर हंसना हमें याद है। वे सच में संत थे और कई मायनों में बहुत निश्चल। उन जैसी मुक्त हंसी मैंने कम सुनी है। अब वह मुक्त हंसी, छत्तीसगढ़ या मेरी जानकारी के संसार में कितने लोग हंस सकते हैं, कह नहीं सकता। एक रूहानी शख्सियत, और जिंदादिल तबीयत के मालिक ऐसे महापुरूष से जुड़ा होना एक भाग्य ही था, जो हमें मिला। मेरी श्रद्धांजलि कि प्रभु उन्हें अपने समीप शरण दे।

सोमवार, 29 फ़रवरी 2016

शिक्षा परिसर राजनीति मुक्त नहीं, संस्कार युक्त हों

-संजय द्विवेदी


  हमारे कुछ शिक्षा परिसर इन दिनों विवादों में हैं। ये विवाद कुछ प्रायोजित भी हैं, तो कुछ वास्तविक भी। विचारधाराएं परिसरों को आक्रांत कर रही हैं और राजनीति भयभीत। जैसी राजनीति हो रही है, उससे लगता है कि ये परिसर देश का प्रतिपक्ष हैं। जबकि यह पूरा सच नहीं है। कुछ मुट्ठी भर लोग भारतीय युवा और उसकी समझ को चुनौती नहीं दे सकते। देश का औसतन युवा देशभक्त और अपने विवेक पर भरोसा करने वाला है। उसे अपने देश की शक्ति और कमजोरियों का पता है। वह भावुक है, पर भावनात्मक आधार पर फैसले नहीं लेता। दुनिया की चमकीली प्रगति से चमत्कृत भी है, पर इसके पीछे छिपे अंधेरों को भी पहचानता है।
  कई स्थानों से यह विमर्श सुनने में आता है कि शिक्षा परिसरों को राजनीति मुक्त कर देना चाहिए और विद्यार्थी सिर्फ पढ़ाई-लिखाई पर ध्यान दें। उन्हें राजनीति से क्या मतलब? जबकि यह सोच एकांगी है। देश के एक महत्वपूर्ण छात्र संगठन का मानना है कि छात्र कल का नहीं, आज का नागरिक है। अतएव छात्र शक्ति को सही मार्गदर्शन देते हुए राष्ट्रहित में उसका योगदान सुनिश्चित करना जरूरी है। हम एक लोकतांत्रिक समाज में रहते हैं, हमारे परिसर भी इसी व्यवस्था का हिस्सा हैं। राजनीति, छात्रों का इस्तेमाल कर अपने वोट बैंक को मजबूत तो करना चाहती है, किंतु छात्रसंघों के चुनाव अनेक राज्यों में प्रतिबंधित हैं। छात्रसंघों से राजनीति और सत्ता को घबराहट होती है। यहां तक कि जो राजनेता छात्रसंघों के माध्यम से राजनीति में आए, वे भी छात्रसंघों के प्रति उदार नहीं हैं। होना यह चाहिए कि छात्रसंघ विद्यार्थियों के सांस्कृतिक, वैचारिक और राजनीतिक रूझानों के विकास में सहायक बनें। ताकि छात्र नेतृत्व और उसकी गंभीरता को समझकर अपने व्यक्तित्व का विकास कर सकें। छात्रसंघ और छात्र राजनीति कहीं न कहीं इस भूमिका से विरत हुयी है, इसलिए देश के राजनेताओं व अन्य प्रशासकों को इनका गला दबाने का अवसर मिला। कहा जाता है कि इसके चलते परिसर में तनाव और हिंसाचार भी बढ़ता है। हम देखते हैं कि जब अनेक बुराइयों के बावजूद भी हम संसदीय राजनीति के खिलाफ नहीं हो जाते, बल्कि उसमें सुधार का ही प्रयास करते हैं। इसी तरह छात्रसंघों के रचनात्मक इस्तेमाल की भूमिका बनाने के बजाए, उनका गला दबा देने का विचार लोकतांत्रिक नहीं है। हमें देखना होगा कि छात्र संगठन क्यों राजनीतिक दलों के हस्तक बन रहे हैं। सभी प्रकार के आंदोलनों की तरह छात्र आंदोलन भी मर रहे हैं। विचारधारा के आधार पर विभाजित राजनीति कब पंथ और जाति की गलियों में भटक जाती है, कहा नहीं जा सकता।
  ऐसे समय में शिक्षकों, शिक्षाविदों और परिसरों को जीवंत देखने की आकांक्षा रखने वाले लोगों की जिम्मेदारी बहुत बढ़ जाती है। सत्ता- राजनीति तो चाहती ही है कि परिसरों में फेयरवेल पार्टियां हों, फ्रेशर्स पार्टियां हों, मनोरंजन प्रधान आयोजन हों। किंतु ऐसे आयोजन जिससे बहस का प्रारंभ हो, नए विचार सृजित हों-उन्हें किए जाने से परिसरों के अधिपति घबराते हैं। एक लोकतंत्र में होते हुए हमें असहमतियों के लिए स्थान बनाना होगा। विमर्शों को जगह देनी होगी और असुविधाजनक सवालों के लिए भी तैयार रहना होगा। एक लोकतंत्र का यही सौंदर्य है और यही उसकी ताकत भी है। विद्यार्थियों को इस तरह से तैयार करना कि वे भावी चुनौतियों से टकराने का साहस अर्जित कर सकें, जरूरी है। यहां यह कहना आवश्यक है कि यह सारा कुछ अपने तिरंगे और देश को मजबूत करने के लिए होगा। देश को तोड़ने और खंडित करने वाले विचारों के लिए, यहां जगह नहीं होनी चाहिए- अगर ऐसा होगा तो परिसर आतंक की जगह बनेंगे। राज्य की ताकत को हम जानते हैं, इसलिए परिसर विमर्शों का केन्द्र तो बनें, किंतु देशतोड़कों की पनाहगाह नहीं। अपने शोध-अनुसंधान और शिक्षण-प्रशिक्षण से हमें इस देश को बनाना है, बर्बाद नहीं करना है, यह सोच हमेशा केन्द्र में रहनी चाहिए। कोई भी विश्वविद्यालय अपने अध्यापकों और विद्यार्थियों के अवदान से ही बड़ा बनता है। हमें हमारे परिसरों को जीवंत बनाने के लिए इन्हीं दो पर ध्यान देना होगा। ऊर्जावान, नए विचारों से भरे हुए अध्यापक ही अपने विद्यार्थियों को नई रोशनी दे सकते हैं। वे ही नवाचारों के लिए प्रेरणा बन सकते हैं।
  एक विद्यार्थी जब किसी भी परिसर में आता है तो एक उम्मीद के साथ आता है। उसे अपने दल का कैडर बनाने के बजाए, एक विचारवान नागरिक बनाना, शिक्षकों का पहला कर्तव्य है। वे उसे आंखें दें पर उधार की आंखें न दें। शिक्षकों का यह कर्तव्य है कि वे चाणक्य बनें और उनके विद्यार्थी चंद्रगुप्त। अध्यापकों के सामने सर्वश्री डा. राधाकृष्णन, हजारीप्रसाद द्विवेदी, आचार्य रामचंद्र शुक्ल, डा.एपीजे अबुल कलाम, आचार्य नंददुलारे वाजपेयी, श्यामाचरण दुबे, विद्यानिवास मिश्र जैसे अनेक उदाहरण हैं, जिनके सानिध्य में जाकर कोई भी साधारण बालक भी एक असाधारण प्रतिभा में बदल जाता है। विद्यार्थी के इस रूपांतरण के लिए ऐसे शिक्षकों का राष्ट्र भी आदर करता है। गुरू-शिष्य परंपरा ऐसी हो, जिससे राष्ट्र के लिए हर क्षेत्र में नायक गढ़े जाएं।

  सही बात तो यह है कि कुछ शिक्षकों को यह खबर ही नहीं कि उनके विद्यार्थी क्या कर रहे हैं, वे एक वेतन भोगी कर्मचारी की तरह अपनी कक्षा को बहुत निरपेक्ष तरीके से करते हुए, बस जिए जा रहे हैं तो कुछ ऐसे हैं, जिन्हें अपनी कक्षा से ही अपनी विचारधारा के लिए वैचारिक योद्धा और अपने राजनीतिक दल के लिए कैडर गढ़ने हैं। ऐसी दोनों प्रकार की अतियां गलत हैं। हमारी शिक्षा और उकसावे से हमारे किसी विद्यार्थी का जीवन बदल जाए तो ठीक है पर बिगड़ जाए तो...। हमारे क्रांतिकारी विचार उसे जेल की यात्राएं करवा दें, तो विचार करना होगा कि हमने शिक्षा में क्या गड़बड़ की है। हमारे विद्यार्थी हमारी अपनी संतानों की तरह हैं। हम उनसे वही अपेक्षा करें, वही मार्ग दिखाएं जिस पर हमारी अपनी संतानों के चलने पर हमें आपत्ति न हो। यही एक ही सूत्र है जो हमारी खुद की परीक्षा के लिए काफी है। हमारे विद्यार्थी बहुत सी उम्मीदों, आशाओं, आकांक्षाओं और सपनों के साथ परिसर में आते हैं। उनके सपनों में रंग भरने की उन्हें ताकत देना, हम शिक्षकों की जिम्मेदारी है। दिल पर हाथ रखकर सोचिए कि क्या हम उनके साथ ऐसा कर पा रहे  हैं। परिसरों को राजनीति मुक्त नहीं, संस्कार युक्त बनाकर ही हम देश की प्रतिभाओं को उचित मंच दे पाएंगे। हम शिक्षकों ने आज ही यह शुरूआत नहीं की, तो कल बहुत देर हो जाएगी।

शुक्रवार, 19 फ़रवरी 2016

क्या शिक्षक हार रहे हैं?

जेएनयू या जादवपुर विवि से आई बेसुरी आवाजें रोकना ही होगा
-संजय द्विवेदी
  कई बार लगता है कि विचारधारा राष्ट्र से बड़ी हो गयी है। पार्टी, विचारधारा से बड़ी हो गयी है, और व्यक्ति पार्टी से बड़ा हो गया है। भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में रहते हुए, जैसी बेसुरी आवाजें शिक्षा परिसरों से आ रही हैं, वह बताती हैं कि राजनीति और राजनेता तो जीत गए हैं, किंतु शिक्षक और विद्यार्थी हार रहे हैं। समाज को बांटना, खंड-खंड करना ही तो राजनीति का काम है, वह उसमें निरंतर सफल हो रही है। हमारे परिसर, विचारधाराओं की राजनीति के इस कदर बंधक बन चुके हैं, कि विद्यार्थी क्या, शिक्षक भी अपने विवेक को त्यागकर इसी कुचक्र में फंसते दिख रहे हैं।
सबसे पहले राष्ट्रः
 पहले राष्ट्र, फिर समाज, फिर परिवार और फिर स्वयं को रखने का भाव अपने विद्यार्थियों में भरना, बताना और उसे भविष्य के लिए तैयार करना दरअसल शिक्षकों का ही काम है। हमारे विद्यार्थी गुमराह होकर अगर देशद्रोह की हद तक जा पहुंचे हैं तो शिक्षकों को सोचना होगा कि वे उन्हें कैसी शिक्षा दे रहे हैं? अपने राजनीतिक इरादों के लिए विद्यार्थियों का इस्तेमाल कोई नई बात नहीं है, राजनीतिक दल ऐसा करते भी आए हैं। युवाओं की ऊर्जा का इस्तेमाल करने में यह होड़ प्रारंभ से ही है, क्योंकि युवा ही किसी भी समाज में बदलाव का जरिया बनते हैं। किंतु बदलाव सकारात्मक हों, राष्ट्र की एकता-अखंडता, भाईचारे को मजबूती देने वाले हों, तो उसे सार्थक कहा जा सकता है। लेकिन विडंबना है कि आज विदेशी विचारों, विदेशी पैसों और प्रेरणाओं के चलते भारत विरोधी विचारधारा रखने वाली शक्तियां भी हमारे परिसरों में सक्रिय हैं। यही कारण है कि नौजवान अपने राष्ट्र और उसकी अस्मिता को चोटिल करने वाली कार्रवाईयों में संलग्न हो जाता है। जब तक उसकी आंखें खुलती हैं, देर हो चुकी होती है। कश्मीर जैसे खूबसूरत राज्य को अशांत करने, घाटी को खून से रंगने और कश्मीरी पंडितों के साथ अमानवीय व्यवहार करते हुए उन्हें घाटी छोड़ देने के लिए विवश करने वाली वहां की युवा शक्ति ही थी, जो पाक प्रेरित अभियानों से गुमराह होकर अपने ही माटी पुत्रों के खिलाफ खड़ी हो गयी। दक्षिण- पूर्व के सात राज्यों में आज अनेक आतंकी संगठन सक्रिय हैं, जिसमें अगली पंक्ति में युवा ही हैं। नक्सल आंदोलन की पृष्ठभूमि निर्मित करने और उसके नेतृत्व में युवाओं की भूमिका रही। दुनिया के एक हिस्से में खून की नदियां बहा रहे आईएस के खूनी अभियान में हिस्सा लेने के लिए भारत के कुछ युवा भी देश छोड़कर निकल पड़े हैं। उक्त उदाहरणों का सबक है कि अब अपने नौजवानों को गुमराह होने से बचाने और सही राह दिखाने का वक्त आ गया है।
हमारी कमजोरियों के नाते फैलता रोगः
   युवा अवस्था में क्रांति की बातें, और सब कुछ बदल देने का विचार, बहुत अच्छा लगता है। खून का लाल रंग, बंदूकों की आवाज और बमों के धमाके से सब कुछ बदलने का ख्वाब बहुत पास दिखता है, पर हकीकत इसके विपरीत होती है। विदेशी विचारों से प्रेरित अनेक अभियान आज हमारे समाज की कमजोरियों के कारण सफल हो रहे हैं। भारतीय समाज में व्याप्त बहुस्तरीय शिक्षा, छूआछूत, गैरबराबरी, प्रशासनिक तंत्र की संवेदनहीनता, पुलिस-तंत्र द्वारा किए जाने वाले अन्याय, अवसरों की असमानता ने भारत को कई स्तरों पर बांट दिया है। ऐसे में प्रगति की दौड़ में पीछे छूट गए वर्गों में असंतोष की भावना व्याप्त है। इसी असंतोष और गुस्से को वैचारिक जामा पहनाकर देश विरोधी ताकतें हमारे युवाओं का इस्तेमाल कर ले जाती हैं। असंतोष को भुनाने के लिए वह कोई भी आंदोलन हो सकता है, और उसका नाम कुछ भी हो सकता है। कश्मीर से लेकर नक्सल इलाकों में हमारे युवाओं के हाथों में इन्हीं ताकतों ने बंदूकें पकड़ा दी हैं। आज हमारा राष्ट्रबोध इतना सीमित हो गया है कि कोई भी जाति, भाषा, आरक्षण, उपेक्षा, पंथ के नाम पर हमें बरगला सकता है। हमारे विरोधी जितने सजग, सक्रिय और एकजुट हैं- हम उतने ही बिखरे, लड़ते-भिड़ते और एक- दूसरे को मिटाकर सत्ता प्राप्ति की लालसा में लिप्त हैं।
मोदी विरोध या भारत विरोधः
 इसलिए राष्ट्र विरोधी नारेबाजी के सवाल भी हमें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को घेरने का अवसर लगते हैं। नरेंद्र मोदी भारत के प्रधानमंत्री हैं, वे भारत नहीं हैं। मोदी का विरोध, कब भारत विरोध में बदल जाता है, हमें पता भी नहीं लगता। ऐसे में राजनेताओं से यह उम्मीद करना व्यर्थ है कि वे अपने राजनीतिक स्वार्थों से उपर उठ कर बात करेगें। उनका हर स्टैंड, उनके वोट बैंक और एजेंडे से परिचालित है। नहीं तो क्या कारण हैं कि दादरी में अखलाक की मौत पर स्यापा करने वाले राजनेता केरल में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के एक कार्यकर्ता की हत्या पर खामोश हैं। यहां तक कि भाजपा के लिए भी यह कोई बहुत बड़ा मुद्दा नहीं है, क्योंकि जेएनयू मामले से जिस ध्रुवीकरण की उम्मीद भाजपा को है, वह राजनीतिक लाभ एक बेचारे स्वयंसेवक की मौत से नहीं मिल सकता। राजनीतिक दलों के इसी चयनित दृष्टिकोण तथा चीजों को बांटकर देखने की प्रवृत्ति से देश को एकात्म करना कठिन होता जा रहा है। यह देश ऐसे राजनेताओं और ऐसी राजनीति से एक कैसे रह सकता है, जहां विभाजन और बंटवारा भी एक मूल्य की तरह सहेजे और पाले पोसे जा रहे हैं।

वैचारिक गुलामी के शिकार अध्यापकः
   ऐसे कठिन समय में शिक्षकों की जिम्मेदारी बहुत अहम हो सकती थी, किंतु वे भी विचारधारा के मारे, अपने राजनीतिक आकाओं की गुलामी में व्यस्त हैं। शिक्षक अगर निरपेक्ष होकर इस देश की आन-बान-शान के लिए नौजवानों को प्रेरित नहीं कर पाते तो आप क्या यह उम्मीद राहुल गांधी, सीताराम येचुरी और अमित शाह से कर सकते हैं? विद्यार्थियों के निर्माण का जिम्मा राजनीतिक दलों के पास नहीं शिक्षकों और शिक्षा मंदिरों के पास ही है। सही मायने में जेएनयू प्रसंग ने हमारे राजनीतिक दलों, प्रशासनिक तंत्र और सामाजिक संगठनों की पोल खोलकर रख दी है। इनमें तमाम बेशर्मी से टीवी चैनलों पर देशद्रोहियों की पैरवी में जुटे हैं। इस हालात से आहत एक रिटायर्ड फौजी एक टीवी चैनल पर ही द्रवित होकर रो पड़े। स्थितियां यह हैं कि हजारों बेगुनाहों भारतीय जेलों में बंद है और देशविरोधी नारे लगाने वालों के लिए दिग्गज वकीलों का पूरा पैनल खड़ा हो जाता है। ऐसे देश की दशा समझी जा सकती है। लगता है हमारे नेताओं का हमारी सेना पर भरोसा जरूरत से ज्यादा है, कि वे कुछ भी करेगें, कितने भी पाप करेंगें, भारतीय सेना और सुरक्षा बलों के जवान इस देश और उनको बचा ही लेगें। इसी का परिणाम है कि भारतीय सेना पर पत्थर फेंक रही नौजवानी, अफजल गुरू और मकबूल भट्ट की शहादत मनाने में व्यस्त है।
स्वायत्तता और सम्मान दोनों खतरे में-
  एक बार फिर हमें शिक्षकों की ओर देखना होगा। शिक्षकों को यह सोचना होगा कि आखिर उन्होंने ऐसा क्या किया कि उनके परिसरों में पुलिस डेरा डाल रही है। उनकी स्वायत्तता और सम्मान आज हाशिए पर है। राजनीतिक दलों से जुड़ी अपनी आस्थाओं के चलते अगर शिक्षक अपनी भूमिका से समझौता करेगें, तो उनका सम्मान बच नहीं सकता। विचारधारा और देशद्रोही विचारों के आधार पर चलने वाली शक्तियां परिसर को तो कलंकित करेंगी ही, शिक्षकों के सम्मान को भी आहत करेंगी। जेएनयू में कई वर्षों से चल रही देश विरोधी गतिविधियों को अगर रोकने, संभालने और अपने युवाओं को सही राह दिखाने की कोशिशें होतीं तो यह जहर आज नासूर बनकर न फूटता। आखिर जेएनयू में ऐसा क्या है कि हर देशद्रोही को वहां स्पेस मिल जाता है? कोई भी विचार तभी तक स्वीकार्य है, जब तक हमारी अकादमिक योग्यताओं को निखारने और संवर्धित करने में सहायक हो। जो विचार देश को तोड़ने और उसके टुकड़े करने के स्वप्न देखे उसका मिट जाना ही ठीक है।

   भारत जैसे लोकतंत्र में रहते हुए आप आजादी की रट लगा रहे हैं, यह आजादी क्या आपको माओ, आईएस, तालिबानी या साम्यवादी राज में मिलेगी? आप इस देश को तोड़ने की नारेबाजी में लगे हैं, लेकिन यह महान देश और उसका लोकतंत्र, हमारी अदालतें आपकी हर बात सुनने को तैयार हैं और आपकी शिकायतों पर भी संज्ञान ले रही हैं। कई देश विरोधी नेता इसी जमीन पर भारतीय राज्य की दी गयी सुरक्षा के नाते जिंदा हैं, किंतु वे भी नौजवानों का गुमराह करने का कोई जतन नहीं छोड़ते। शिक्षक समुदाय की यह जिम्मेदारी है कि वह अपने विद्यार्थियों में राष्ट्रीय भावना का ऐसा ज्वार पैदा करे, कि कोई भी ताकत उन्हें उनके मार्ग से हटा न सके। शिक्षकों को तय करना होगा कि वे खुद में चाणक्य का चरित्र विकसित करें। राष्ट्र के निर्माण में अपने योगदान को सुनिश्चित करके ही वे वर्तमान की चुनौतियों और अपने सम्मान के सुरक्षित रख सकेगें। अगर अब भी आपको राजनीति से बहुत कुछ बदल जाने की उम्मीद है, तो कृपया छोड़ दीजिए और खुद पर भरोसा करते हुए एक नए भारत के निर्माण में जुट जाइए। जेएनयू प्रसंग को एक बुरे सपने की तरह भूलना और ऐसी घटनाओं की पुनरावृत्ति रोकना शिक्षक समुदाय की ही जिम्मेदारी है, सवाल यह है कि क्या हम इस जिम्मदारी को उठाने के लिए तैयार हैं?