-संजय द्विवेदी
ना-ना करते आखिरकार उमा भारती की घर वापसी हो ही गयी। उमा भारती यानि भारतीय जनता पार्टी का वह चेहरा जिसने राममंदिर आंदोलन में एक आंच पैदा की और बाद के दिनों मध्यप्रदेश में दिग्विजय सिंह की 10 साल से चल रही सरकार को अपने तेवरों से न सिर्फ घेरा, वरन उनको सत्ता से बाहर कर भाजपा को ऐतिहासिक जीत दिलाई। बावजूद इसके उमा भारती अगर भाजपा की देहरी पर एक लंबे समय से प्रतीक्षारत थीं, तो इसके मायने बहुत गंभीर हैं।
यह सिर्फ इतना ही नहीं था कि उन्होंने भाजपा के लौहपुरूष लालकृष्ण आडवानी को जिस मुद्रा में चुनौती दी थी, वह बात माफी के काबिल नहीं थी। आडवानी तो उन्हें कब का माफ कर चुके थे, किंतु भाजपा की दूसरी पीढ़ी के प्रायः सभी नेता उमा भारती के साथ खुद को असहज पाते हैं। उनके अपने गृहराज्य मध्यप्रदेश में भी राजनीतिक समीकरण पूरी तरह बदल चुके हैं। पहले शिवराज सिंह चौहान और नरेंद्र सिंह तोमर की जोड़ी और अब प्रभात झा के रूप में मध्यप्रदेश भाजपा को पूरी तरह से नया चेहरा मिल गया है। ऐसे में उमा भारती की पार्टी में वापसी के लिए सामाजिक न्याय की शक्तियों की लीलाभूमि बने उत्तर प्रदेश से रास्ता बनाया गया है। राजनीति और दबाव की लीला देखिए, यह नेत्री अपनी पार्टी से इस्तीफा देकर लंबे समय से भाजपा के द्वार पर खड़ी हैं। लालकृष्ण आडवानी से लेकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत का आशीर्वाद पाने के बाद भी उनकी घर वापसी सहज नहीं रही। यह उमा भारती का कौशल ही है कि वे बिना दल और पार्टी के अपनी प्रासंगिकता बनाए रखती हैं। वे गंगा अभियान से देश का ध्यान अपनी ओर खींचती हैं और बाबा रामदेव के आश्रम में भी हो आती हैं। यानि उनकी त्वरा और गति में, विपरीत हालात के बावजूद भी कोई कमी नहीं है। वे सही मायने में एक ऐसी नेत्री साबित हुयी हैं जो लौट-लौटकर अपने उसी प्रस्थान बिंदु की ओर आता है, जहां उसकी आत्मा है। वे भाजपा और संघ परिवार का प्रिय चेहरा हैं। कार्यकर्ताओं के बीच उनकी अपील है। शायद इसीलिए संघ के नेता चाहते थे कि भाजपा में उनकी वापसी हो। उत्तराखंड में अपने अनशन से जिस तरह उन्होंने देश का ध्यान खींचा। सोनिया गांधी ने भी उन्हें समर्थन देते हुए खत लिखा। यह उमा ही कर सकती हैं क्योंकि वे अकेले चलकर भी न घबराती हैं, न ऊबती हैं।
सामाजिक न्याय की शक्तियों की लीलाभूमि बने उत्तरप्रदेश में पार्टी ने उनको मुख्य प्रचारक के रूप में उतारना तय किया है। उप्र का राजनीतिक मैदान इस समय बसपा, सपा और कांग्रेस के बीच बंटा हुआ है। भाजपा यहां चौथे नंबर की खिलाडी है। उमा भारती राममंदिर आंदोलन का प्रिय चेहरा रही हैं और जाति से लोध हैं, जो पिछड़ा वर्ग की एक जाति है। उप्र के पूर्व मुख्यमंत्री रहे कल्याण सिंह लोध जाति से आते हैं। वे भाजपा का उप्र में सबसे बड़ा चेहरा थे। अन्यान्य कारणों से वे दो बार भाजपा छोड़ चुके हैं। तीसरी बार उनके पार्टी में आने की उम्मीद अगर हो भी, तो वे अपनी आभा खो चुके हैं। पिछले चुनाव में वे मुलायम सिंह की पार्टी के साथ नजर आए और इससे मुलायम सिंह की भी फजीहत भी अपने दल में हुयी और कल्याण सिंह ने भी अपनी विश्वसनीयता खो दी। उप्र में पिछड़े वोट बैंक को आकर्षित करने के लिए भाजपा तमाम कोशिशें कर चुकी है। राममंदिर आंदोलन से जुडे रहे विनय कटियार, जो जाति से कुर्मी हैं को भी राज्य भाजपा की कमान दी गयी, किंतु पार्टी को खास फायदा नहीं हुआ। विनय कटियार पहले अयोध्या से फिर लखीमपुर से भी हारे। कुल मिलाकर भाजपा के सामने विकल्प न्यूनतम हैं। उसके अनेक दिग्गज नेता राजनाथ सिंह, डा.मुरलीमनोहर जोशी, मुख्तार अब्बास नकवी, विनय कटियार, कलराज मिश्र, लालजी टंडन, ओमप्रकाश सिंह, केशरीनाथ त्रिपाठी, मेनका गांधी इसी इलाके से आते हैं पर मास अपील के लिए कोई लोकप्रिय चेहरा पार्टी के पास नहीं है। ले देकर युवाओं में सांसद वरूण गांधी और योगी आदित्यनाथ थोड़ी भीड़ जरूर खींचते हैं परंतु भाजपा के संगठन तंत्र के हिसाब से उन्हें चला पाना कठिन है। योगी संत हैं, तो उनकी अपनी राजनीति है। वहीं ‘गांधी’होने के नाते वरूण गांधी को नियंत्रित कर, चला पाना भी भाजपा के बस का नहीं दिखता। ऐसे में उमा भारती भाजपा का एक ऐसा चेहरा हैं जिनके पास राजनीतिक अभियान चलाने का अनुभव और मप्र में एक सरकार को उखाड़ फेंकने का स्वर्णिम इतिहास भी है। वे भगवाधारी होने के नाते उप्र के ओबीसी ही नहीं एक बड़े हिंदू जनमानस के बीच परिचित चेहरा हैं। ऐसे में उन्हें आगे कर भाजपा उस लोध और पिछड़ा वर्ग के वोट बैंक को अपने साथ लाना चाहती है, जो उसका साथ छोड़ गए हैं। नए पार्टी अध्यक्ष नितिन गडकरी बार-बार कह रहे हैं, दिल्ली का रास्ता उप्र से होकर जाता है। किंतु पार्टी यहां एक विश्वसनीय विपक्ष भी नहीं बची है। सपा और बसपा से बचा- खुचा वोट बैंक कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी को लाभ पहुंचाता है। ऐसे में भाजपा की कोशिश है कि उप्र में सरकार भले न बने किंतु एक सशक्त विपक्ष के रूप में पार्टी विधानसभा में जरूर उभरे। किंतु संकट यह है कि क्या उमा भारती को भाजपा के नेता इस बार भी नियंत्रित कर पाएंगें? उप्र का संकट यह है कि यहां नेता ज्यादा हैं और कार्यकर्ता हताश। उमा भारती कार्यकर्ताओं में उत्साह तो जगा सकती हैं किंतु भाजपा के राज्य से जुड़े नेताओं का वे क्या करेंगीं, जिसमें हर नेता अपने हिसाब से ही पार्टी को चलाना चाहता है। अब भले उमा भारती चुनाव अभियान के कैंपेनर और गंगा अभियान के संयोजक के नाते भाजपा को उप्र में उबारने के प्रयासों में जुटें किंतु उन्हें स्थानीय नेतृत्व का साथ तो आवश्यक है ही। उमा के पास मप्र जैसे बहुत व्यवस्थित प्रदेश संगठन के साथ काम करने का अनुभव है। ऐसे में उमा भारती का जो परंपरागत टेंपरामेंट है, वह उप्र जैसी संगठनात्मक अव्यवस्थाओं को कितना झेल पाएगा, यह भी एक बड़ा सवाल है।
यह बात कही और बताई जा रही है कि वे मध्यप्रदेश भाजपा की राजनीति में ज्यादा रूचि नहीं लेंगीं लेकिन यह भी एक बहुत हवाई बात है। वे मप्र की मुख्यमंत्री रहीं हैं, उनकी सारी राजनीति का केंद्र मध्य प्रदेश रहा है, ऐसे में वे अपने गृहराज्य से निरपेक्ष होकर काम कर पाएंगी, यह संभव नहीं दिखता। किंतु मप्र में भाजपा के समीकरण पूरी तरह बदल चुके हैं और उप्र का मैदान बहुत कठिन है। उमा इस समय मप्र और उप्र दोनों राज्यों में एक असहज उपस्थिति हैं। उन्हें अपनी स्वीकार्यता बनाने और स्थापित करने के लिए फिर से एक लंबी यात्रा तय करनी होगी। उप्र का मैदान उनके लिए एक कठिन कुरूक्षेत्र हैं, जहां से सार्थक परिणाम लाना एक दूर की कौड़ी है। किंतु अपनी मेहनत, वक्रता और आक्रामक अभियान के अपने पिछले रिकार्ड के चलते वे पस्तहाल उत्तर प्रदेश भाजपा के लिए एक बड़ी सौगात है। किंतु इसके लिए उमा भारती को अपेक्षित श्रम, रचनाशीलता का परिचय देते हुए धैर्य भी रखना होगा। अपने विवादित बयानों, पल-पल बदलते व्यवहार से उन्होंने खूब सुर्खियां बटोरी हैं, किंतु इस दौर में उन्होंने खुद का विश्लेषण जरूर किया होगा। वे अगर संभलकर अपनी दूसरी पारी की शुरूआत करती हैं तो कोई कारण नहीं कि उमा भारती फिर से भाजपा व संघ परिवार का सबसे प्रिय चेहरा बन सकती हैं।