कोरोना के बहाने आइए अपने असल
संकटों पर विचार करें
-प्रो. संजय द्विवेदी
कोरोना
संकट के बहाने भारत के दुख-दर्द,उसकी जिजीविषा, उसकी शक्ति, संबल, लाचारी, बेबसी,
आर्तनाद और संकट सब कुछ खुलकर सामने आ गए हैं। इन सात दशकों में जैसा देश बना या
बनाया गया है, उसके कारण उपजे संकट भी सामने हैं। दिनों दिन बढ़ती आबादी हमारे देश
का कितना बड़ा संकट है यह भी खुलकर सामने है, किंतु इस प्रश्न पर संवाद का साहस न
राजनीति में है न विचारकों में । संकटों में भी राजनीति तलाशने का अभ्यास भी सामने
आ रहा है। मीडिया से लेकर विचारकों के समूह कैसे विचारधारा या दलीय आस्था के आधार
पर चीजों को विश्लेषित और व्याख्यायित कर रहे हैं कि सच कहीं सहम कर छिप गया है।
देश के दुख, देश के लोगों के दुख और संघर्ष भी राजनीतिक चश्मों से देखे और समझाए
जा रहे हैं।
ऐसे
कठिन समय में सच को व्यक्त करना कठिन है, बहुत कठिन। क्योंकि सभी विचारवंतों के ‘अपने अपने सच’ हैं। जो राजनीतिक आस्थाओं के आधार
देखे और परखे जा रहे हैं। भारतीय बौद्धिकता और मीडिया के शिखर पुरुषों ने इतना
निराश कभी नहीं किया था। साहित्य को राजनीति के आगे चलने वाली मशाल बताने वाले देश
ने राजनीतिक आस्थाओं को ही सच का पर्याय मान लिया है। संकटों के समाधान खोजने,
उनके हल तलाशने और देश को राहत देने के बजाए जख्म को कुरेद-कुरेद कर हरा करने में
मजा आ रहा है। यह सडांध तब और गहरी होती दिखती है, जब कुछ लोग पलायन की पीड़ा भोग
रहे हिंदुस्तान के दुख में भी आनंद की अनुभूति सिर्फ इसलिए कर रहे हैं कि देश के
नेता के सिर उसका ठीकरा फोड़ा जा सके। केंद्र की मजबूत सरकार और उसके मजबूत नेता को
विफल होते देखने की हसरत इतनी प्रबल है कि वह लोगों की पीड़ा और आर्तनाद में भी
आनंद का भाव खोज ले रही है। हमारी केंद्र और राज्य की सरकारों की विफलता दरअसल एक
नेता की विफलता नहीं है। यह समूचे लोकतंत्र और इतने सालों में विकसित तंत्र की भी
विफलता है। सामान्य संकटों में भी हमारा पूरा तंत्र जिस तरह धराशाही हो जाता है वह
अद्भुत है। बाढ़, सूखा, भूकंप और अन्य दैवी आपदाओं के समय हमारे आपदा प्रबंधन के
सारे इंतजाम धरे रह जाते हैं। सामान्यजन इसकी पीड़ा भोगता है। यह घुटनाटेक रवैया
निरंतर है और इस पर लगाम कब लगेगी कहा नहीं जा सकता। व्यंग्य कवि स्व. प्रदीप चौबे
ने लिखा –बाढ़ आए या सूखा मैं खाऊं तू खा। यानि जहां बाढ़ आ रही है,
वहां सालों से हर साल आ रही। फिर उसी इलाके में सूखा भी हर साल आ रहा है। यानि इस
संकट ने उस इलाके में एक इको सिस्टम बना लिया है और उसके साथ लोग जीना सीख गए हैं।
हमारा महान प्रशासनिक तंत्र इन संकटों से निजात पाने के उपाय नहीं खोजता, उसके लिए
हर संकट में एक अवसर है।
हम
अपने संकटों को चिन्हिंत करें तो वे ज्यादा नहीं हैं, वे आमतौर पर विपुल जनसंख्या
और उससे उपजे हुए संकट ही हैं। उत्तर भारत के राज्यों के सामने यह कुछ ज्यादा
विकराल हैं क्योंकि यहां की राजनीति ने राजनेता और राजनीतिक योद्धा तो खूब दिए किंतु
जमीन पर उतरकर संकटों के समाधान तलाशने की राजनीति यहां आज भी विफल है। ये इलाके
आज भी जातीय दंभ, अहंकार, माफियाराज, लूटपाट, गुंडागर्दी के अनेक उदाहरण प्रस्तुत
करते हैं। इसलिए उत्तर भारत के राज्य इस संकट में सबसे ज्यादा परेशानहाल दिखते
हैं। उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश, बिहार, उत्तराखंड, झारखंड मध्यप्रदेश,छत्तीसगढ़,
बंगाल जिस तरह पलायन की पीड़ा से बेहाल हैं, उसे देखकर आंखें भर आती हैं। एक बार
दक्षिण और पश्चिम के राज्यों महाराष्ट्र,गुजरात, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, कर्नाटक,
तमिलनाडु, केरल की ओर हमें देखना चाहिए। आखिर क्या कारण हैं हमारे हिंदी प्रदेश हर
तरह के संकट का कारण बने हुए हैं।पलायन, जातिवाद, सांप्रदायिकता,
माफिया,भ्रष्टाचार, ध्वस्त स्वास्थ्य और शिक्षा व्यवस्था सब इनके हिस्से हैं। यह
संभव है कि समुद्र के किनारे बसे राज्यों की व्यवस्थाएं, अवसर और संभावनाएँ बलवती
हैं। किंतु उत्तर भारत के हरियाणा, पंजाब जैसे राज्य भी उदाहरण हैं, जिन्होंने
अपनी संभावनाओं को जमीन पर उतारा है। प्रधानमंत्रियों का राज्य रहा उत्तर प्रदेश
आज भी देश और दुनिया के सामने सबसे बड़ा सवाल बनकर खड़ा है। अपनी विशाल आबादी और
विशाल संकटों के साथ। जमाने से कभी गिरिमिटिया मजदूरों के रूप में विदेशों में ले
जाए जाने की पीड़ा तो आजादी के बाद मुंबई, दिल्ली, कोलकाता, रंगून जैसे महानगरों
में संघर्ष करते, पसीना बहाते लोग एक सवाल की तरह सामने हैं। यही हाल बिहार का है।
एक जमाने में गांवों में गाए जाने वाले लोकगीत भी इसी पलायन के दर्द का बयान करते
हैं-
रेलिया बैरन पिया को लिए जाए हो,
रेलिया बैरन।
(रेल मेरी दुश्मन है जो मेरे पति को
लेकर जा रही है)
मेरे पिया गए रंगून किया है वहां से
टेलीफून,
तुम्हारी याद सताती है जिया में आग
लगाती है।
आजादी
के बाद भी ये दर्द कम कहां हुए हैं?
स्वदेशी, स्वावलंबन का ‘गांधी पथ’
छोड़कर सत्ताधीश नए मार्ग पर दौड़ पड़े जो गांवों को खाली करा रहे थे और शहरों को
बेरोजगार युवाओं की भीड़ से भर रहे थे। एक समय में आत्मनिर्भर रहे हमारे गांव
अचानक ‘मनीआर्डर एकोनामी’ पर पलने लगे।
गांवों में स्वरोजगार के काम ठप पड़ गए। कुटीर उद्योग ध्वस्त हो गए। भारतीय समाज को लांछित करने के लिए उस पर
सबसे बड़ा आरोप वर्ण व्यवस्था का है। जबकि वर्ण व्यवस्था एक वृत्ति थी, टेंपरामेंट थी। आपके
स्वभाव, मन और इच्छा के अनुसार आप उसमें स्थापित होते थे।
व्यावसायिक वृत्ति का व्यक्ति वहां क्षत्रिय बना रहने के मजबूर नहीं था, न ही किसी को अंतिम वर्ण में रहने की मजबूरी थी। अब ये चीजें काल बाह्य
हैं। वर्ण व्यवस्था समाप्त है। जाति भी आज रूढ़ि बन गयी किंतु एक समय तक यह हमारे
व्यवसाय से संबंधित थी। हमारे परिवार से हमें जातिगत संस्कार मिलते थे-जिनसे हम
विशेषज्ञता प्राप्त कर ‘जाब
गारंटी’ भी पाते थे। इसमें
सामाजिक सुरक्षा थी और इसका सपोर्ट सिस्टम भी था। बढ़ई,
लुहार, सोनार, निषाद,
माली, धोबी, कहार ये जातियां भर नहीं है। इनमें एक व्यावसायिक हुनर
और दक्षता जुड़ी थी। गांवों की अर्थव्यवस्था इनके आधार पर चली और मजबूत रही। आज यह
सारा कुछ उजड़ चुका है। हुनरमंद जातियां आज रोजगार कार्यालय में रोजगार के लिए
पंजीयन करा रही हैं या महानगरों में नौकरी के लिए धक्के खा रही हैं। जाति व्यवस्था
और वर्ण व्यवस्था दोनों ही अब अपने मूल स्वरूप में काल बाह्य हो चुके हैं।
अप्रासंगिक हो चुके हैं। ऐसे में जाति के गुण के बजाए, जाति
की पहचान खास हो गयी है। इसमें भी कुछ गलत नहीं है। हर जाति का अपना इतिहास है,
गौरव है और महापुरुष हैं। ऐसे में जाति भी ठीक है, जाति की पहचान भी ठीक है, पर जातिभेद ठीक नहीं
है। जाति के आधार भेदभाव यह हमारी संस्कृति नहीं। यह मानवीय भी नहीं और सभ्य समाज
के लिए जातिभेद कलंक ही है।
हमें हमारे गांवों की ओर देखना होगा। मनीषी
धर्मपाल की ओर देखना होगा, उन्हें पढ़ना होगा, जो बताते हैं कि किस तरह हमारे गांव
स्वावलंबी थे। जबकि आज नई अर्थव्यवस्था में किसान
आत्महत्या करने लगे और कर्ज को बोझ से दबते चले गए। 1991 के लागू हुयी नई आर्थिक
व्यवस्था ने पूरी तरह से हमारे चिंतन को बदलकर रख दिया। संयम के साथ जीने वाले
समाज को उपभोक्ता समाज में बदलने की सचेतन कोशिशें प्रारंभ हुयीं। 1991 के खड़ा
हुआ यह अर्थतंत्र इतना निर्मम है कि वह दो महीने भी आपको संकटों में संभाल नहीं
सकता। आप देखें तो छोटे उद्यमियों की छोड़ें,बड़ी कंपनियों ने भी अपने कर्मियों के
वेतन में तत्काल कटौती करने में कोई कमी नहीं की। यहां से जो गाड़ी पटरी से उतरी
है,संभलने को नहीं है। ईएमआई के चक्र ने जो जाल बुना है, समूचा मध्यवर्ग उससे जूझ
रहा है। निम्न वर्ग उससे स्पर्धा कर रहा है। इससे समाज में बढ़ती गैरबराबरी और
स्पर्धा की भावना एक बड़े समाज को निराशा और अवसाद से भर रही है। जाहिर है संकट
हमारे हैं, इसके हल हम ही निकालेगें। शिक्षा, स्वास्थ्य, बेरोजगारी, कृषकों के
संकट, बढ़ती जनसंख्या के सवाल हमारे सामने हैं। इनके ठोस और वाजिब हल निकालना
हमारी जिम्मेदारी है। कोरोना संकट ने हमें साफ बताया है कि हम आज भी नहीं संभले तो
कल बहुत देर हो जाएगी। अंधे पूंजीवाद और निर्मम कारपोरेट की नीतियों से अलग एक
मानवीय,संवेदनशील समाज बनाने की जरूरत है जो भले महानगरों में बसता हो उसकी जड़ों
में संवेदना और आत्मीयता हो। सिर्फ हासिल करने और हड़पने की चालाकी न हो। देने का
भाव भी हो। भरोसा कीजिए हम इस दुखों की नदी को पार कर जाएंगें।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें