-प्रो.संजय
द्विवेदी
हमारे समय के बेहद महत्वपूर्ण संपादक, पत्रकार, लेखक, पत्रकार
संगठनों के अगुआ, शिक्षाविद्, आयोजनकर्ता,
और सामाजिक कार्यकर्ता जैसी अच्युतानंद मिश्र की अनेक छवियां हैं।
उनकी हर छवि न सिर्फ पूर्णता लिए हुए है, वरन् लोगों को जोड़ने वाली साबित हुयी
है। उन्हें देखकर ऐसा लगता है कि मानव की सहज कमजोरियां भी उनके आसपास से होकर
नहीं गुजरी हैं। राग-द्वेष और अपने- पराए के भेद से परे जैसी दुनिया उन्होंने रची
है उसमें सबके लिए आदर है, प्यार है, सम्मान
है और कुछ देने का भाव है। देश के आला अखबारों जनसत्ता, नवभारत
टाइम्स, अमर उजाला, लोकमत समाचार के
संपादक के नाते उन्हें हिंदी की दुनिया ने देखा और पढ़ा है। अपनी संपादन क्षमता और
नेतृत्व क्षमता से उन्होंने जो किया वह हिंदी पत्रकारिता का बहुत उजला अध्याय है।
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दिसंबर,1937 को गाजीपुर के एक गांव में जन्मे श्री मिश्र पत्रकारों के संघर्षों की
अगुवाई करते हुए संगठन को शक्ति देते रहे हैं तो एक शिक्षाविद् के रूप में माखनलाल
चतुर्वेदी पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय के कुलपति के नाते उन्होंने
पत्रकारिता शिक्षा और शोध के क्षेत्र में नए आयाम गढ़े। स्वतंत्र भारत की
पत्रकारिता पर शोध परियोजना के माध्यम से उन्होंने जो काम किया है वह आने वाली
पीढियों के लिए एक मानक काम है, जिसके आगे चलकर और भी नए
रास्ते निकलेंगें। लोगों को जोड़ना और उन्हें अपने प्रेम से सींचना, उनसे सीखने की चीज है। उनके जानने वाले लोगों से आप मिलें तो पता चलेगा कि
आखिर अच्युतानंद मिश्र क्या हैं। वे कितनी धाराओं, कितने
विचारों, कितने वादों और कितनी प्रतिबद्धताओं के बीच सम्मान
पाते हैं कि व्यक्ति आश्चर्य से भर उठता है। उनका कवरेज एरिया बहुत व्यापक है,
उनकी मित्रता में देश की राजनीति, मीडिया और
साहित्य के शिखर पुरूष भी हैं तो बेहद सामान्य लोग और साधारण परिवेश से आए पत्रकार
और छात्र भी।
वे हर
आयु के लोगों के बीच लोकप्रिय हैं। उनके परिधानों की तरह उनका मन, जीवन और परिवेश भी बहुत स्वच्छ है। यह व्यापक रेंज उन्होंने सिर्फ अपने
खरे पन से बनाई है, ईमानदारी भरे रिश्तों से बनाई है। लोगों
की सीमा से बाहर जाकर मदद करने का स्वभाव जहां उनकी संवेदनशीलता का परिचायक है,
वहीं रिश्तों में ईमानदारी उनके खांटी मनुष्य होने की गवाही देती
है। वे जैसे हैं, वैसे ही प्रस्तुत हुए हैं। इस बेहद चालाक
और बनावटी समय में वे एक असली आदमी हैं। अपनी भद्रता से वे लोगों के मन, जीवन और परिवारों में जगह बनाते गए। खाने-खिलाने, पहनने-पहनाने
के शौक ऐसे कि उनसे हमेशा रश्क हो जाए। जिंदगी कैसे जीनी चाहिए उनको देख कर सीखा
जा सकता है। डायबिटीज है पर वे ही ऐसे हैं जो खुद न खाने के बावजूद आपके लिए एक-एक
से मिठाईंयां पेश कर सकते हैं। उनका आतिथ्यभाव,स्वागतभाव,
प्रेमभाव मिलकर एक अहोभाव रचते हैं।
वे मेरे विश्वविद्यालय कुलपति रहे हैं। किंतु
इससे ज्यादा वे मेरे अभिभावक हैं। जीवन में एक आत्मीय उपस्थिति। माखनलाल चतुर्वेदी
राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय में आने के पहले उन्हें रायपुर के
एक- दो आयोजनों में सुना था। जनसत्ता के माध्यम से उन्हें जानते भी थे। उनकी लेखनी
से परिचय था। जनसत्ता उन दिनों स्टार अखबार था। उनका नाम उसमें प्रिंट लाइन में
जाता था। जाहिर है हमारे लिए वे हीरो ही थे। एक दिन उन्हें अपने ‘बास’ के नाते पाया। उनकी बहुत गहरी आत्मीयता और
वात्सल्य के निकट से दर्शन हुए। हर व्यक्ति की चिंता और उसकी समस्याओं का समाधान
कैसे हो सकता है, इसके रास्ते निकालना उनका स्वभाव रहा है। एक प्रशासक के रूप में
भी वे बहुत सरल और लोकतांत्रिक चेतना के वाहक हैं। कुर्सी कभी उन पर नहीं बैठी, वे
कुर्सी पर बैठै। उनके कार्यकाल में विश्वविद्यालय को अकादमिक ऊंचाई मिली। स्वतंत्र
भारत की पत्रकारिता पर शोध परियोजना के माध्यम से उन्होंने देश भर के पत्रकारों,संपादकों
और शोधकर्ताओं को विश्वविद्यालय से जोड़ा। इस महती योजना का दायित्व उन्होंने
आदरणीय विजयदत्त श्रीधर जैसे मनीषी को सौंपा जो भोपाल के माधवराव सप्रे समाचार
पत्र संग्रहालय के संस्थापक हैं। उनकी शोध परक दृष्टि और कुशल संपादन क्षमता से
शोध परियोजना को बहुत लाभ हुआ। इस दौरान अनेक विशिष्ठ आयोजनों के माध्यम से देश की
श्रेष्ठतम बौद्धिक विभूतियों का विश्वविद्यालय में आगमन हुआ।
शोध परियोजना के तहत देश
भर में बौद्धिक आयोजन भी हुए। इन गतिविधियों से विश्वविद्यालय अपनी राष्ट्रीय
पहचान बनाने में सफल रहा। यह हमारे तत्कालीन कुलपति अच्युतानंद जी के निजी
संपर्कों और औदार्य के चलते हो पाया। हमने महसूस किया कि नेतृत्व कैसे किसी संस्था
को न सिर्फ सही दिशा दे सकता है बल्कि उसे अखिलभारतीय पहचान भी दिला सकता है।
निश्चित ही ऐसे लोग किसी भी संस्था को बहुत ऊंचाई प्रदान करते हैं। जिस दौर में
बौनों और अनुचरों की बन आई है, वहां ऐसे लोग हमें प्रेरित करते हैं। शायद इसीलिए
मिश्रजी ने अपने उदार लोकतांत्रिक व्यवहार से अजातशत्रु की संज्ञा प्राप्त कर ली। अक्षरा
के प्रधान संपादक,साहित्यकार श्री कैलाशचंद्र पंत लिखते हैं-“अच्युतानंद मिश्र ने हिंदी भाषा और हिंदी पत्रकारिता की गरिमा के लिए लंबे
समय तक वैचारिक संघर्ष को जीवित रखा।” सही मायनों में वे
पत्रकारिता और साहित्य का सेतुबंध बनाने वाले लोगों में एक हैं। हाल में आई उनकी
किताब ‘तीन श्रेष्ठ कवियों का हिंदी पत्रकारिता में अवदान’ इस बात की पुष्टि करती है। किस तरह उन्होंने साहित्य के साधकों की
पत्रकारीय साधना को रेखांकित किया है। इस पुस्तक में वे हमारे समय के तीन
महत्वपूर्ण संपादकों अज्ञेय, रघुवीर सहाय और धर्मवीर भारती के बहाने एक पूरी
परंपरा को याद करते हैं। हिंदी साहित्य और पत्रकारिता किस तरह साथ-साथ चलते हुए
समाज की वैचारिक और सूचनात्मक आवश्यकताओं की पूर्ति करते रहे हैं, इससे पता चलता
है। उनकी यह किताब बहुत गहन अध्ययन के बाद लिखी गयी है। क्योंकि वे इस दौर के
साक्षी और सहयात्री भी रहे हैं। हमारी पत्रकारिता और साहित्य के नायकों को इस तरह
याद किया जाना बहुत महत्वपूर्ण है। इसी तरह उनकी किताब ‘कुछ सपने कुछ
संस्मरण’ हमारे समय अनेक ज्वलंत मुद्दों पर बात करती है। इस किताब में संकलित
निबंध श्री मिश्र कै वैचारिक अवदान को सामने लाते हैं। इसके साथ ही अनेक
महापुरुषों के संस्मरण भी हैं। इस किताब में मिश्र जी के निबंध पत्रकारिता की नई
समझ के द्वार खोलते हैं। इसमें भाषा की चिंता है तो महानायकों की याद भी जो इस समय
में हमारा संबल बन सकते हैं। मिश्र जी के लेखन में आशा जगाने वाले तत्व हैं। वे
उत्साह जगाते हैं। परंपरा से जोड़ते हैं और दायित्वबोध कराते हैं। इस मायने में
उनकी लेखनी कहीं निराशा के बीज नहीं बोती। ऐसी गहरी सकारात्मकता, संस्कार और
परंपरा के माध्यम से वे लोकशिक्षण करते हैं।
अच्युतानंद मिश्र जैसे नायकों का हमारे बीच
में होना इस बात की गवाही है कि सब कुछ खत्म नहीं हुआ है। वे जहां भी रहे
संस्कारों के बीच रोपते रहे, रिश्तों को सींचते रहे। किसी भी शहर में जाकर उस शहर
के बुद्धिजीवियों, कलावंतों से मिलने वाले मिश्र जी एक परंपरा बनाते हैं। संपादकों
को सिखाते हैं कि कैसे संचार की दुनिया के लोगों को समावेशी, कलाओं का पारखी और
उदार होना चाहिए। इसलिए उनका होना सिर्फ उत्सव नहीं है, संस्कार भी है, बहुत गहरी
जिम्मेदारी भी। वे कुछ कहकर नहीं, करके सिखाते हैं। शब्द की साधना, भाषा की सेवा,
संवेदनशीलता की जो थाती वे हमें सौंप रहे हैं, उसे हमें आगे बढ़ाना है और इसमें कुछ
जोड़ना भी है। इस बहुत कठिन उत्तराधिकार के लिए हमारी पीढ़ी को आगे आना ही होगा।
उनकी दिखाई राह ही मूल्यनिष्ठ और राष्ट्रभाव की पत्रकारिता की धारा को जीवंत बनाए
रख पाएगी।