-प्रो.संजय
द्विवेदी
अच्युतानंद मिश्र हिंदी के यशस्वी संपादक और
पत्रकार हैं। आजादी के बाद की हिंदी पत्रकारिता के इतिहास को सहेजने, संरक्षित
करने और उसके नायकों के योगदान को रेखांकित करने का उनका पुरूषार्थ विरल है।
माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल के कुलपति
रहते हुए उन्होंने स्वतंत्र भारत की हिंदी पत्रकारिता पर शोधकार्य का बीड़ा उठाया,
जिसके चलते अनेक चीजें प्रकाश में आ सकीं। स्वतंत्र भारत की पत्रकारिता पर शोध
परियोजना के माध्यम से उन्होंने देश भर के पत्रकारों,संपादकों और शोधकर्ताओं को विश्वविद्यालय
से जोड़ा। उनकी शोध परक दृष्टि और कुशल संपादन क्षमता से शोध परियोजना को बहुत लाभ
हुआ। इस दौरान अनेक विशिष्ठ आयोजनों के माध्यम से देश की श्रेष्ठतम बौद्धिक
विभूतियों का विश्वविद्यालय में आगमन हुआ। शोध परियोजना के तहत देश भर में बौद्धिक
आयोजन भी हुए। इन गतिविधियों से विश्वविद्यालय अपनी राष्ट्रीय पहचान बनाने में सफल
रहा। यह हमारे तत्कालीन कुलपति अच्युतानंद जी के निजी संपर्कों और औदार्य के चलते
हो पाया। यह साधारण नहीं है कि इस परियोजना में 80 से अधिक पुस्तकों और मोनोग्राफ
का प्रकाशन हुआ। अपने इस कार्य को मिश्र जी “इतिहास संरक्षण का विनम्र प्रयास” कहते
हैं।
शोध परियोजना के तहत ही चार खंडों में
प्रकाशित पुस्तक ‘हिंदी के प्रमुख
समाचारपत्र और पत्रिकाएं’ भी अच्युतानंद जी के संपादन
में प्रकाशित हुई। चार खंडों में छपी इस किताब में अच्युतानंद जी की विलक्षण
संपादकीय दृष्टि का परिचय मिलता है। इस किताब के बहाने हम हिंदी पत्रकारिता के
उजले इतिहास से परिचित होते हैं। अच्युतानंद मिश्र विलक्षण संपादक हैं। चीजों को
देखने और मूल्यांकन करने की उनकी दृष्टि विरल है। अपनी संपादन कला में माहिर
संपादक जब आजाद भारत की हिंदी पत्रकारिता के योगदान को रेखांकित करने के लिए आगे
आता है तो उसके द्वारा चयनित प्रतिनिधि पत्रों, पत्रिकाओं का
चयन बहुत खास हो जाता है। इसके साथ ही वे ऐसे लेखकों का चुनाव करते हैं जो विषय के
साथ न्याय कर सकें।
प्रथम
खंड-
पहले खंड में वे साप्ताहिक हिंदुस्तान,
धर्मयुग, दिनमान
और रविवार का चयन करते हैं। जाहिर तौर पर ये चार प्रतिनिधि पत्रिकाएं हमारे
तत्कालीन समय का न सिर्फ इतिहास लिखती हैं, बल्कि
हिंदी समाज के बौद्धिक विकास में, चेतना के स्तर पर उन्हें
समृद्ध करने में इनका बहुत बड़ा योगदान है। हिंदी समाज की निर्मिति में इन
पत्रिकाओं का योगदान रेखांकित किया जाना शेष है। आजादी के बाद की पत्रकारिता की ये
चार पत्रिकाएं न सिर्फ मानक बनीं, वरन अपनी संपादकीय दृष्टि, प्रस्तुति, कलेवर और
भाषा के लिए भी याद की जाती हैं। व्यापक प्रसार और हिंदी समाज के मन और चेतना की
समझ से निकली ये पत्रिकाएं पत्रकारिता का उजला इतिहास हैं। ये बताती हैं कि कैसे हिंदी पत्रकारिता ने अपने
बौद्धिक तेज और तेवरों से अंग्रेजी पत्रकारिता के समतुल्य आदर प्राप्त किया। इन
पत्रिकाओं के यशस्वी संपादकों ने जो योगदान किया, उससे हिंदी पत्रकारिता आज भी
प्रेरणा ले रही है।
हिंदी के वरिष्ठ पत्रकार,
कभी कादम्बिनी के संपादक मंडल में रहे संत समीर ने अपने विस्तृत लेख
में साप्ताहिक हिंदुस्तान के महत्वपूर्ण अवदान को रेखांकित किया है। गांधी जयंती,
2 अक्टूबर, 1950 को गांधी अंक के साथ
साप्ताहिक हिंदुस्तान की यात्रा का शुभारंभ होता है। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के
पुत्र देवदास गांधी इस पत्रिका के प्रकाशन के मूल में थे। उस समय वे हिंदुस्तान
समूह के प्रबंध निदेशक थे। वे चाहते थे कि हिंदी में एक ऐसी पत्रिका प्रकाशित हो
जो स्पष्ट गांधीवादी नीति, उच्च पारिवारिक आदर्श, मानवीय मूल्यों की स्थापना के साथ शुद्ध,सरल
सारगर्भित भाषा में छपे। आजादी के आंदोलन से निकले तपस्वी राजनेताओं की छाया में
पत्रकारिता का भी विकास हो रहा था। पत्रकारिता उस समय तक प्रायः राष्ट्र के
नवनिर्माण में अपनी भूमिका भी देख रही थी। साप्ताहिक हिंदुस्तान के राष्ट्रीय
नवनिर्माण विशेषांकों को इसी दृष्टि से देखा जा सकता है। संत समीर ने बड़ी कुशलता
उस मनोविज्ञान का वर्णन किया है। जो आजादी के बाद की पत्रकारिता का भावभूमि बना। समीर लिखते हैं यह दौर संपादकों की हस्ती का
था। प्रकाशन संपादकों के नाम से पहचाने जाते थे। पत्रकारिता बाजार के दबावों से
मुक्त थी और विचार पर केंद्रित थी। साहित्य और पत्रकारिता प्रायः एक मंच पर थे, जाहिर है लेखक संपादकों का
यह समय हिंदी पत्रकारिता का साहित्य से भी सेतु बनाए रखता था। जो सिर्फ पत्रकारिता
में थे वे साहित्यिक संस्कारों से संयुक्त थे। निश्चय ही भाषा उसमें बहुत खास थी।
उसका सही प्रयोग और विकास सबके ध्यान में था। पत्रिका के प्रथम संपादक मुकुट
बिहारी वर्मा रहे, जो संस्थान के हिंदी अखबार दैनिक हिंदुस्तान के भी संपादक थे।
बाद में बांकें बिहारी भटनागर को संपादन का दायित्व मिला। वे 1953 से 1666 तक
संपादक रहे। फिर कुछ समय गोविंद केजरीवाल ने अस्थाई तौर पर काम देखा और फिर
रामांनद दोषी लगभग एक साल संपादक रहे। साप्ताहिक हिंदुस्तान के संपादक के रूप में
सबसे लंबा कार्यकाल मनोहर श्याम जोशी का था। उन्होंने इसे विविध प्रयोगों से एक
शानदार पत्रिका में बदल दिया। फिर शीला झुनझुनवाला, राजेंद्र अवस्थी और मृणाल
पाण्डेय को भी संपादक बनने का अवसर मिला। पत्रिका के बंद होने पर मृणाल जी इसकी
संपादक थीं। साप्ताहिक हिंदुस्तान की समूची यात्रा गांधीवादी विचारों के संवाहक की
रही। मनोहर श्याम जोशी का कार्यकाल इसका उत्कर्ष काल रहा जिसमें उसे बहुत
लोकप्रियता मिली। अपने अनेक विशेषांकों से भी पत्रिका खासा चर्चा में रहीं जिनमें
टालस्टाय अंक, अंतराष्ट्रीय कहानी विशेषांक, फिल्म विशेषांक, विश्व सिनेमा अंक की
खासी चर्चा रहे। माना जाता है कि 60 से 70का दशक इस पत्रिका का सर्वश्रेष्ठ समय
रहा है और बाद में बाजारवाद और अन्य कारणों से पत्रिका का प्रकाशन बंद हो गया।
बताया जाता है कि जोशी जी के संपादन काल में पत्रिका के अंक डेढ़ पौने दो लाख तक
छपे और विशेषांक तीन लाख तक। किंतु ऐसी लोकप्रिय पत्रिका का बंद होना हिंदी जगत की
बहुत बड़ी बौद्धिक हानि थी इसमें दो राय नहीं।
धर्मयुग का नाम लेते ही परंपरा और आधुनिकता
से जुड़े एक ऐसे प्रकाशन की स्मृति कौंध जाती है, जिसने समय की शिला पर जो लिखा वह अमिट है। अपने यशस्वी संपादक धर्मवीर
भारती और उनकी टीम ने जो रचा और जो प्रस्तुत किया, वह अप्रतिम है। आलोच्य पुस्तक
में श्री सुधांशु मिश्र ने बहुत गंभीरता के साथ धर्मयुग की यात्रा और भावभूमि का
अध्ययन प्रस्तुत किया है। इस यात्रा से गुजरते हुए अद्भुत अनुभूति होती है कि किस
तरह एक पत्रिका समाज की आवाज और जरूरत बन जाती है। इस खंड में पत्रिका के इतिहास
विकास से लेकर उसके प्रदेय पर बहुत सार्थक चर्चा की गयी है। देश की आजादी के साथ
ही हुए इस पत्रिका के प्रकाशन ने हिंदी समाज में क्रांति ला दी। हिंदी के विकास और
उसे नए विषयों के साथ संवाद की क्षमता दी। पत्रिका के दिग्गज संपादकों ने हिंदी को
सरोकारी पत्रकारिता का अहसास कराया। समाज जीवन के हर पक्ष पर सामग्री का प्रकाशन
करते हुए यह एक संपूर्ण पत्रिका की तरह सामने आई। साहित्य और संस्कृति पत्रिका का
मूल स्वर रहा।1960 से 1987तक इसके संपादक रहे धर्मवीर भारती की साहित्यिक प्रतिभा
से सभी परिचित हैं। किंतु एक पत्रकार और संपादक के नाते उन्होंने जो किया वह
स्वर्णिम इतिहास है। वे और धर्मयुग पर्याय ही हो गए। बाद में गणेश मंत्री पत्रिका
के संपादक बने। हालांकि संपादक के रूप में प्रारंभ में प्रतीश नंदी का नाम जाता
था। मंत्री जी का नाम कार्यवाहक संपादक के नाते जाता रहा। 1987 के अंत में वे इसके
संपादक बने। किंतु बदली हुई परिस्थियों,बाजारवाद और नए समय में बहुत बेहतर करने के
बाद भी धर्मयुग साप्ताहिक से पाक्षिक हुआ और उसका आकार भी घटा। धर्मयुग ने पाठकों
के साथ-साथ लेखकों का भी एक नया संसार खड़ा किया। अनेक लेखकों को मंच और ख्याति
यहां से मिली। चार दशकों तक हिंदी समाज पर इस पत्रिका की उपस्थिति बनी रही।
संपादक श्री अच्युतानंद मिश्र ने दिनमान के
खंड के अध्ययन का काम दिल्ली के चर्चित पत्रकार श्री उमेश चतुर्वेदी और मप्र के
पत्रकार श्री सुधांशु मिश्र को सौंपा। जाहिर है हिंदी में वैचारिक पत्रकारिता का
ध्वज ऊंचा करने का काम दिनमान ने किया। यशस्वी साहित्यकार सच्चिदानंद हीरानंद
वात्स्यायन अज्ञेय की परिकल्पना से बनी यह पत्रिका अपनी खास प्रवृत्तियों के लिए
भी पहचानी गयी। अज्ञेय जी ने जो टीम दिनमान के लिए चुनी वह हिंदी पत्रकारिता की
आदर्श टीम कही जा सकती है। विविध धाराओं और विशेषताओं के पत्रकार, साहित्यकार, कवि
इस टीम का हिस्सा बने। जिनमें रघुवीर सहाय, मनोहर श्याम जोशी, सर्वेश्वर दयाल
सक्सेना, श्रीकांत वर्मा,त्रिलोक दीप, जवाहरलाल कौल जैसे हिंदी पत्रकारिता के नायक
शामिल थे। दिनमान का ध्येय वाक्य था ‘राष्ट्र
की भाषा में राष्ट्र का आह्वान’। टाइम्स समूह की मालकिन रमा जैन की कल्पना टाइम
जैसी विचार प्रधान पत्रिका निकालने का था। उसी संकल्पना से दिनमान की शुरूआत हुई।
हालांकि पत्रिका के 28 फरवरी,1965 के अंक में छपी संपादक की टिप्पणी कहती है- “...दिनमान के लिए टाइम नमूना नहीं है। हां, समाचार संग्रह के लिए जितना
बड़ा संगठन दिनमान कर सकेगा, करेगा।”दिनमान जिंदगी के हर रूप
को छूनेवाला बने अज्ञेय जी ने इसकी कोशिश की। बाद में रघुवीर सहाय इसके संपादक
बने। वे 13 साल इसके संपादक रहे। बाद में कन्हैयालाल नंदन,सतीश झा, घनश्याम
पंकज भी इसके संपादक रहे। बाद में यह पत्र
दिनमान टाइम्स के नाम से निकला और बाद में बंद हो गया। दिनमान की आरंभिक टीम में
साहित्यकार ज्यादा थे। इसका असर उसके कथ्य और भाषा पर भी दिखता है। वैचारिकता के
साथ उदारवादी और मानवीय चेहरा इसकी पहचान बना। पत्रकारों की एक पूरी पीढ़ी के
निर्माण का श्रेय इस पत्रिका को जाता है। यह भी कहा जाता है कि दिनमान एक ऐसी
पत्रिका बन पाई जो अंग्रेजी पत्रकारिता के बरक्स शान से खड़ी हो पाई।
संपादक
श्री अच्युतानंद मिश्र ने अपने समय की महत्वपूर्ण पत्रिका रविवार के अध्ययन का काम
सुधांशु मिश्र को सौंपा। पुस्तक के अंतिम अध्याय में रविवार के इतिहास विकास और
योगदान की गंभीर चर्चा की गयी है। पत्रिका के उद्भव और विकास के खंड में बताया गया
है कि इसके प्रथम संपादक एमजे अकबर बने और पत्रिका का प्रकाशन 28 अगस्त, 1977 को
प्रारंभ हुआ। आनंद बाजार समूह की इस पत्रिका ने बहुत कम समय में हिंदी जगत में
अपनी खास जगह बना ली। प्रकाशन के आठ माह बाद सुरेंद्र प्रताप सिंह इसके संपादक
बने। वे सात साल संपादक रहे। फिर उदयन शर्मा और विजित कुमार बसु इसके क्रमशः
संपादक और कार्यवाहक संपादक बने और अंततः 22 अक्टूबर,1989 को इसका प्रकाशन बंद कर
दिया गया। पत्रिका देश में हो रहे राजनीतिक परिर्वतनों की साक्षी बनी और इसका मूल
स्वर राजनैतिक ही रहा। तेवरों भरी राजनीतिक रिपोर्ताज इसकी पहचान बने। इसके साथ ही
प्रादेशिक राजनीति, नक्सल संकट,दस्यु समस्या और सांप्रदायिक मुद्दों पर भी इसकी
रिपोर्ट सराही गयी। अंतराष्ट्रीय विषयों के साथ-साथ, राजनीति में योगियों और
तांत्रिकों की छाया के बारे में भी काफी कुछ छपा। आपातकाल के बाद की राजनीति और
समाज को इस पत्रिका ने बहुत गंभीरता से रेखांकित किया।
पुस्तक
का द्वितीय खंड –
पुस्तक के
द्वितीय खंड में आज, हिंदुस्तान, दैनिक नवज्योति और नवभारत जैसे चार दैनिक अखबारों
की चर्चा की गयी है। यह चार अखबार हिंदी पट्टी के न सिर्फ नामवर अखबार हैं बल्कि
इनमें आजादी के पहले और बाद का भी इतिहास दर्ज है। इस खंड में आज के बारे में डा.
धीरेंद्रनाथ सिंह(अब स्वर्गीय), हिंदुस्तान के बारे में संत समीर, दैनिक नवज्योति के
बारे में सत्यनारायण जोशी और नवभारत के बारे में मनोज कुमार ने बहुत बेहतर तरीके
से शोधपरक सामग्री प्रस्तुत की है। आज के उद्भव और विकास के अध्याय में बताया गया
है कि राष्ट्ररत्न श्री शिवप्रसाद गुप्त ने अपनी ब्रिटेन यात्रा के दौरान लंदन
टाइम्स का कार्यालय देखा और वैसा ही अखबार भारत से निकालने का संकल्प लिया। यह
भारत का एक ऐसा अखबार था जिसके विदेशों में भी प्रतिनिधि थे। आज राष्ट्रीय आंदोलन
से जुड़ा हुआ था। इसके यशस्वी संपादक बाबूराव विष्णुराव पराड़कर हिंदी के
उन्नायकों में हैं। उनके संपादकीय नेतृत्व से भाषा का बहुत विकास हुआ, हिंदी
आत्मनिर्भर बनी। पराड़कर जी के बाद इसके यशस्वी संपादकों में संपूर्णानंद जी,
कमलापति शास्त्री, विद्याभास्कर, कालिका प्रसाद,श्रीकांत ठाकुर विद्यालंकार,
रामकृष्ण रघुनाथ खाडिलकर जैसे लोग रहे। जिन पर सारा हिंदी समाज गर्व करता है। यह
एक संपूर्ण अखबार था जिसने स्थानीयता विकास और राष्ट्रीयता का विमर्श साथ में
चलाया।
दूसरे चयनित पत्र हिंदुस्तान के बारे में संत
समीर ने विस्तार से वर्णन किया है। 12 अप्रैल,1936 को इस अखबार का प्रकाशन हुआ और
जल्दी ही जनभावनाओं का आईना बन गया। यह पत्र भी राष्ट्रीय विचारों का संवाहक बना
और आजादी की लड़ाई में सहयोगी रहा। कांग्रेस की विचारधारा से जुड़ा रहा यह पत्र
विचारों की अलख जगाता रहा। इसे अनेक बार प्रतिबंधों का सामना करना पड़ा। इसके आद्य
संपादक सत्यदेव विद्यालंकार रहे। आज यह पत्र काफी विस्तार कर उत्तर भारत के बहुत
प्रसारित दैनिकों में शामिल हो चुका है। इसके यशस्वी संपादकों में मुकुट विहारी
वर्मा, हरिकृष्ण त्रिवेदी, रतनलाल जोशी, चंद्रूलाल चंद्राकर, विनोद कुमार मिश्र,
हरिनारायण निगम, मृणाल पाण्डेय, आलोक मेहता, अजय उपाध्याय के नाम उल्लेखनीय हैं।
इन दिनों श्री शशि शेखर इसके संपादक हैं।
राजस्थान के प्रमुख हिंदी दैनिक ‘दैनिक नवज्योति’ पर सत्यनारायण जोशी ने अध्ययन
प्रस्तुत किया है। 2 अक्टूबर,1936
को अजमेर से प्रकाशित यह अखबार आज भी राजस्थान में एक प्रमुख उपस्थिति
बनाए हुए है। अखबार ने अपने प्रकाशन के साथ ही सामंती शासन और अंग्रेजी सरकार
दोनों को चुनौती दी। इस दौरान सरकार ने अपना दमन चक्र भी चलाया। इस तरह जनचेतना
फैलाने और सामाजिक सरोकारों के प्रति सजगता के लिए यह पत्र ख्यात रहा है। कांग्रेस
समर्थक पत्र होने के कारण इसका स्वतंत्रता आंदोलन से सीधी रिश्ता रहा। आदर्श, नीति
और सिद्धांतों पर चलने वाले पत्रों में इसका हमेशा उल्लेख होगा।
इसी क्रम में नवभारत समाचार पत्र का विशेष
अध्ययन मनोज कुमार ने प्रस्तुत किया है। रामगोपाल माहेश्वरी इसके संस्थापक संपादक
थे। 1938 में नागपुर से प्रारंभ हुआ यह पत्र आज भी महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़ और
मध्यप्रदेश का प्रमुख अखबार है। अपने समय में इसकी ख्याति एक गांधीवादी विचारों के
समाचार पत्र की रही है। कांग्रेस से भी इसका जुड़ाव स्पष्ट ही है। स्वतंत्रता
संग्राम में भी इस समाचार पत्र की सकारात्मक भूमिका रही है। पुस्तक में बताया गया
है कि पत्र की रीति न काहू से दोस्ती न काहू से बैर वाली रही है। आजादी के बाद
इसका काफी विस्तार हुआ यह पत्र मध्यभारत की आवाज बन गया। नवभारत से अनेक प्रमुख
संपादक और पत्रकार जुड़े रहे जिनके योगदान से यह अखबार शिखर पर पहुंचा। जिनमें कुंजबिहारी
पाठक, मायाराम सुरजन, कालिका प्रसाद दीक्षित कुसुमाकर, गंगा पाठक, मधुप पाण्डेय,
विष्णु, दाऊलाल साखी, ध्यानसिंह राजा तोमर, विजयदत्त श्रीधर, राजेंद्र नूतन, जगत
पाठक, गिरीश मिश्र, श्याम वेताल, गोविंदलाल वोरा,बबनप्रसाद मिश्र, कमल
दीक्षित,राकेश पाठक आदि प्रमुख हैं।
पुस्तक का तृतीय खंड-
पुस्तक के तीसरे खंड में संपादक श्री अच्युतानंद
मिश्र ने नवभारत टाइम्स, नईदुनिया, स्वतंत्र भारत, दैनिक जागरण और अमर उजाला चयन
किया है। निश्चित तौर पर ये समाचार पत्र हिंदी पट्टी के ऐसे पत्र हैं जिनके बिना
हिंदी पत्रकारिता का इतिहास अधूरा रहेगा। इन पांचों समाचार पत्रों के व्यापक
प्रसार, विषय सामग्री और श्रेष्ठ संपादकों के नेतृत्व ने इन्हें खास बनाया है।
बेनेट कोलमैन कंपनी के अखबार
नवभारत टाइम्स की विकास यात्रा और उसके प्रदेय पर अमरेंद्रकुमार राय ने अध्ययन
किया है। पहले यह अखबार नवभारत नाम से निकला और बाद में यह नवभारत टाइम्स बना।
इसके प्रथम संपादक सत्यदेव विद्यालंकार थे। बाद के दिनों में सुरेंद्र बालूपुरी,
राणा जंगबहादुर सिंह,अक्षय कुमार जैन,सच्चिदानंद हीरानंद वात्सायन अज्ञेय,आनंद
जैन, राजेंद्र माथुर,एसपी सिंह,विद्यानिवास मिश्र, सूर्यकांत बाली,रमेश चंद्र जैन,
मधुसूदन आनंद जैसे दिग्गज संपादकों ने इसी दिशा दी और लोकप्रियता के शिखर तक
पहुंचा दिया। विश्लेषण में कहा गया है कि अपने आरंभिक दिनों की तरह यह पत्र अब
साहित्य संस्कृति का वाहक नहीं रहा। बल्कि बाजार की हवाओं ने इसके रूख में बहुत
परिवर्तन किया है। अब यह तमाम उत्पादों की तरह एक उत्पाद है।
इंदौर से छपकर राष्ट्रीय
ख्याति पाने वाले नईदुनिया के बारे में श्री शिवअनुराग पटैरया ने अपना अध्ययन
प्रस्तुत किया है। इस पत्र ने जो प्रतिष्ठा पाई वह आज भी इतिहास है। अपने दिग्गज
संपादकों, श्रेष्ठ छाप-छपाई और प्रस्तुति, विषय वस्तु ने इसे राष्ट्रीय अखबारों के
समतुल्य खड़ा कर दिया। 5 जून,1947 को सांध्य अखबार के तौर पर निकले इस अखबार के
प्रधान संपादक थे कृष्णकांत व्यास और प्रकाशक थे कृष्णचंद्र मुद्गल। मुद्गल के
हटने के बाद बाबू लाभचंद छजलानी के हाथ में इसकी कमान आई, साथ में नरेंद्र तिवारी
और बसंतीलाल सेठिया भी जुड़ गए। इसके बाद से अखबार ने पीछे मुड़कर नहीं देखा।
राहुल बारपुते, विष्णु चिंचालकर और रणवीर सक्सेना की त्रिमूर्ति ने अखबार का चेहरा
बदलकर रख दिया। आधुनिक तकनीक, पाठकों से जीवंत रिश्ता, संपादकीय सामग्री की
उत्कृष्ठता तीन कारणों ने अखबार को शिखर पहुंचा दिया। इस अखबार के संपादकों में
राहुल बारपुते,अभय छजलानी, राजेंद्र माथुर ने इसे विविध प्रयोगों से राष्ट्रीय
ख्याति दिलाई।
कभी उत्तर प्रदेश के लोकप्रिय दैनिक रहे स्वतंत्र भारत के बारे
में रजनीकांत वशिष्ठ ने अध्ययन प्रस्तुत किया है। इसमें अखबार के उत्कर्ष से
अवसान तक की गाथा को उन्होंने बहुत अच्छे
से पिरोया है। अशोक जी जैसे दिग्गज संपादकों ने इस अखबार को संवारा और इसने लंबी
यात्रा तय की। जयपुरिया से थापर और बाद में अनेक मालिकों के हाथों से गुजरते हुए
यह अखबार अब बहुत दुर्बल अवस्था में है। राजनाथ सिंह, घनश्याम पंकज, ज्ञानेंद्र
शर्मा जैसे दिग्गज इसके संपादक रहे।
उत्तर प्रदेश के कानपुर शहर से
21 सितंबर,1947 को प्रकाशित हुए दैनिक जागरण की प्रगति यात्रा विस्मयकारी और
निरंतर है। पुस्तक में इसका अध्ययन बच्चन सिंह ने प्रस्तुत किया है। यह समूह अपनी
निर्भीकता, जनपक्षधरता और स्थानीय खबरों को महत्व देकर आगे बढ़ा। विस्तारवादी सोच
ने इसे हिंदी का सबसे प्रसारित अखबार भी बना दिया है। यह सही मायने में एक संपूर्ण
अखबार है जिसने अपने पाठकों को हमेशा केंद्र में रखा है। रंगीन साप्ताहिक
परिशिष्ठों और तकनीकी के नए प्रयोगों से एक सुदर्शन अखबार की प्रस्तुति कैसी होनी
चाहिए, प्रबंधन का ध्यान सदैव इस ओर रहा है। राष्ट्रीय विचारों और भारतीयता के
प्रति समर्पित यह समाचार उत्तरभारत के पाठकों में बहुत लोकप्रिय है। अपने वैचारिक
पृष्ठों और आग्रहों के लिए भी यह चर्चित रहा है।
अमर उजाला, अपनी खास तरह की
पत्रकारिता और संपादकीय परंपरा को उन्नत करने वाले समाचार पत्रों में एक है। इसका
अध्ययन अभय प्रताप ने किया है। अमर उजाला ने अपने प्रकाशन के साथ ही अपनी आचार
संहिता प्रस्तुत की और अपने मानक तय किए। यह किसी भी प्रकाशन के लिए बहुत
महत्वपूर्ण है। अमर उजाला ने अपना व्यापक विस्तार किया है और हिंदी के अग्रणी प्रकाशनों में शामिल है।
एक व्यावसायिक पत्र होते भी अमर उजाला कुछ मूल्यों के साथ जुड़ा हुआ है। क्षेत्रीय
पत्रकारिता का अग्रणी होने के साथ अमर उजाला को क्षेत्रीय पत्रकारिता के मूल्य
विकसित करने चाहिए ऐसा सुझाव भी अध्ययनकर्ता ने दिया है।
पुस्तक का चौथा
खंड-
पुस्तक के चौथे खंड में राजस्थान पत्रिका पर
अचला मिश्र, युगधर्म पर अंजनी कुमार झा, दैनिक भास्कर पर सोमदत्त शास्त्री,
देशबंधु पर डा. देवेशदत्त मिश्र, स्वदेश पर रामभुवन सिंह कुशवाह, और प्रभात खबर पर
जेब अख्तर की टिप्पणी है। इस खंड में शामिल अखबारों का प्रभाव प्रमुख क्षेत्र
मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़,राजस्थान और झारखंड रहा है। इन अखबारों ने पत्रकारिता की जो
उजली परंपराएं स्थापित की उसने इन्हें राष्ट्रीय ख्याति दिलाई है। स्वदेश और
युगधर्म तो राष्ट्रीय भावधारा के पोषक पत्र रहे। बहुत प्रसार न होने के बाद भी
इनकी बात गंभीरता से सुनी जाती थी। इन समाचार पत्रों को असहमति के पक्ष की तरह भी
देखा जाना चाहिए। तो वहीं दैनिक भास्कर, राजस्थान पत्रिका और प्रभात खबर ने अपने
व्यापक प्रसार क्षेत्र से हिंदी पत्रकारिता का गौरव बढ़ाया। इस खंड में चयनित
अखबार संपादक के व्यापक दृष्टिकोण के परिचायक हैं किस तरह हिंदी क्षेत्र के
सामान्य अखबारों ने भी निरंतर चलते हुए अपना न सिर्फ सामाजिक आधार बढ़ाया बल्कि
देश के एक बड़े भौगोलिक क्षेत्र को भी संबोधित कर रहे हैं। पुस्तक के चारों खंड
आजादी के बाद हिंदी पट्टी में चली पत्रकारिता का विहंगावलोकन प्रस्तुत करते हैं।
इन्हें पढ़ते हुए हमें न सिर्फ एक पूरी यात्रा समझ में आती है बल्कि हिंदी
पत्रकारिता का आत्मसंघर्ष, संपादकों और प्रकाशकों की जिजीविषा भी दिखती है। इनमें
ज्यादातर प्रकाशन बहुत सामान्य स्थितियों से प्रारंभ होकर बहुत बड़े प्रकाशन बने। टाइम्स
और हिंदुस्तान टाइम्स समूहों के अखबारों और पत्रिकाओं की बात छोड़ दें तो ज्यादातर
प्रकाशन सामान्य मध्यवर्गीय पत्रकारों या परिवारों द्वारा प्रारंभ किये गए, जिनके
पास बहुत पूंजी लगाने को नहीं थी। वावजूद इसके उनका विस्तार हमें प्रेरित करता है।
राजस्थान पत्रिका के संपादक- प्रकाशक कुलिश जी तो एक पत्रकार हैं और आज यह समूह
देश का गौरव है और अहिंदीभाषी इलाकों से
भी अपने संस्करण प्रकाशित कर हिंदी सेवा में लगा है।
‘हिंदी
के प्रमुख समाचारपत्र और पत्रिकाएं’ का संपादन कर श्री
अच्युतानंद मिश्र ने इतिहास के संरक्षण का काम तो किया ही है, वे इस बहाने हिंदी
भाषी समाज में गौरवबोध भी भरते नजर आते हैं। अखबारों और पत्रिकाओं का चयन भी
उन्होंने इस तरह से किया है जिससे समूची हिंदी पट्टी का पत्रकारीय स्वर और
व्यक्तित्व सामने आता है। चारों खंडों का पाठ हमें हमारी जातीय स्मृति का बोध तो कराता
ही है, भाषा के विकास में पत्रकारिता के योगदान को भी रेखांकित करता है। एक ओर
जहां ऐसे पत्र हैं जिन्होंने विचार को आगे रखकर अपनी यात्रा की तो वहीं ऐसे पत्र
भी हैं जिन्होंने आक्रामण विपणन और मार्केटिंग रणनीतियों से हिंदी का बाजार व्यापक
किया। हिंदी की संभावनाओं को बहुज्ञात कराया।
हिंदी सिर्फ विचार, साहित्य, सूचना के बजाए बाजार में भी इसके चलते स्थापित
होती नजर आई। पाठकीय रूचियों और पाठकों के मन का अखबार बनाने के तौर तरीके भी इस
अध्ययन से सामने आते हैं। इनमें दैनिक जागरण, अमर उजाला, दैनिक भास्कर, हिंदुस्तान,पत्रिका
ऐसे पत्र हैं जो आज देश के प्रथम दस
अखबारों की सूची में जगह बनाते हैं। जाहिर तौर पर यह अध्ययन हिंदी के आत्मविश्वास,
हिंदी के आत्मसंघर्ष और उससे उपजी सफलताओं का दस्तावेज है। इसके लिए संपादक की
विलक्षण दृष्टि, संतुलित चयन और अध्ययनकर्ता लेखकों का श्रम स्तुत्य है।
पुस्तक- हिंदी के प्रमुख समाचारपत्र और
पत्रिकाएं(चार खंड)
संपादक- अच्युतानंद मिश्र
प्रकाशक-सामयिक प्रकाशन,दिल्ली-110002
मूल्यः 2000 रूपए(चार खंड)
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