शुक्रवार, 31 मई 2024

एक आहत सभ्यता की सजल आँखें!

‘सबके राम, सबमें राम’ की भावना को स्थापित करने से बनेगा ‘एक भारत-श्रेष्ठ भारत’

- प्रो. संजय द्विवेदी

    


अयोध्या में 22 जनवरी,2024 को रामलला विराजे और तमाम आँखें सजल हो उठीं। ये आँसू यूं ही नहीं आए थे। ये भारत की लगातार आहत होती सभ्यता को एक सुनहरे पल में प्रवेश करते देखकर भर आई आँखें थीं। अयोध्या को इस तरह देखना विरल है। यह शहर सालों से सन्नाटे में था, गहरी उदासी और गहरे अवसाद में डूबा, शांत और उत्साहहीन। जैसे इतिहास और समय एक जगह ठहर गया हो और उसने आगे न बढ़ने की ठान रखी हो। दूरस्थ स्थानों से अयोध्या आते लोग भी हनुमान गढ़ी और कनक भवन जैसे स्थानों को देखकर लौट जाते। चौदहकोसी परिक्रमा करते और चले जाते। राम के लिए आए लाखों लोगों में बहुत कम लोग त्रिपाल या टाट में बैठे रामलला के दर्शन करते। लेकिन 22 जनवरी का नजारा अलग था। हर राह राममंदिर की ओर जा रही थी। आँखों में आँसू, चेहरे पर मुस्कान और पैरों में तूफान था। आखिर हमारे राम को उनके अपने घर और शहर में सम्मान मिलते देखना अद्भुत अनुभव था। सदियां गुजर गईं लेकिन सत्य स्थिर था। इसी सत्य को देखने सारी दुनिया टीवी, मोबाइल स्क्रीन पर आँखें गड़ाए बैठी थी। विवाद का अंत हुआ और सत्यमेव जयते का उद्धोष सार्थक हुआ। यह समाधान सर्वजनहिताय तो था ही।

अयोध्या के दर्द को समझिए

   कभी त्रेता में वनवास गए राम कलयुग में भी एक दूसरी दुविधा के सामने थे। आजाद हिंदुस्तान में भी भारत के इस सबसे लायक बेटे के लिए मंदिर की प्रतीक्षा थी। बाबर के सेनापति द्वारा गिराए मंदिर के सामने पूजा-अर्चना करके आहत समाज यह सोचते हुए लौटता था कि कभी राम का भव्य मंदिर बनेगा। 2024 की यह 22 जनवरी करोड़ों आँखों के सपने सच करने के लिए आई थी। राम भारत के राष्ट्रनायक हैं, जिन्होंने अयोध्या से रामेश्वरम् को जोड़ा। वे दीन-दुखियों के, जीवन जीने के लिए संघर्ष करती आम जनता के पहले और अंतिम सहायक हैं। रामचरित मानस और हनुमान चालीसा की पंक्तियों को दोहराते हुए यह संघर्षरत समाज राम के सहारे ही अपनी जीवनयात्रा को सरल बनाता रहा है। बावजूद इसके आजादी के बाद भी सबको मुक्त करने वाले नायक को मुक्ति नहीं मिली। लंबे समय तक तो वो ताले में बंद रहे। अखंड कीर्तन चलता रहा। किंतु राहें आसान नहीं थीं। अयोध्या आंदोलन की यादें आपको सिहरा देंगीं। 1990 और 1992 की यादें एक गहरी कड़वाहट घोल जाती हैं। राजनीति किस तरह आसान मुद्दों को भी जटिल बनाती है। इसकी कहानी अयोध्या आज भी बताती है। अयोध्या अब अपने सदियों के दर्द से मुक्त मुस्करा रही है।

धैर्य, सहनशीलता और धर्म की जंग थी यह

दुनिया के किसी पंथ,संप्रदाय के महानायक के साथ यह होता तो क्या होता? सोचकर भी सिहरन होती है। किंतु भारत में यह हुआ और हिंदू समाज के अपार धैर्य, सहनशीलता की कथा फिर से दोहराई गयी। एक साधारण मंदिर नहीं अपने राष्ट्रपुरूष, राष्ट्रनायक की जन्मभूमि के लिए भी लंबा अहिंसक संघर्ष सड़क से लेकर अदालतों तक चलता रहा। सही मायने में 22 जनवरी का दिन हमारे राष्ट्रजीवन में 15 अगस्त,1947 से कम महत्त्पूर्ण नहीं है। क्योंकि 15 अगस्त के दिन हमें अंग्रेजों की गुलामी से आजादी मिली थी तो 22 जनवरी को हम सांस्कृतिक, वैचारिक दासता और दीनता से मुक्त हो रहे हैं। यह भारत की चिति को प्रसन्न करने का क्षण है। यह आत्मदैन्य से मुक्ति का क्षण है। यह क्षण अप्रतिम है। वर्णनातीत है। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी से लेकर स्व. राजीव गांधी (अपनी अयोध्या यात्रा में) तक रामराज्य लाने की बात करते हैं। किंतु उस यात्रा की ओर पहला कदम आजादी के अमृतकाल में माननीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बढ़ाया है। इसलिए सारा देश उनके साथ खड़ा है। कांग्रेस नेता श्री प्रमोद कृष्णन ने सत्य ही कहा है कि यदि श्री मोदी प्रधानमंत्री नहीं होते तो मंदिर निर्माण संभव नहीं होता। 

नए भारत के स्वप्नदृष्टा हैं मोदी

रामलला का 496 वर्षों बाद अपनी जन्मभूमि पर पुनःस्थापित होना सबको भावविह्वल कर गया। दुनिया भर में बसे 100 करोड़ से ज्यादा हिंदुओं और भारतवंशियों के लिए यह गौरव का क्षण था। इस मौके पर माननीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और आरएसएस प्रमुख डा. मोहन भागवत जी ने किसी तरह का राजनीतिक संवाद न करते हुए जो बातें कहीं वो भविष्य के भारत की आधारशिला बनेंगीं। संघ प्रमुख ने रामराज्य की अवधारणा को व्याख्यायित करते हुए भविष्य के कर्तव्य पथ की चर्चा की। उनका कहना था-“आज अयोध्या में रामलला के साथ भारत का स्व लौट आया है। संपूर्ण विश्व को त्रासदी से राहत देने वाला एक नया भारत खड़ा होकर रहेगा। उसका प्रतीक यह कार्यक्रम बन गया है।”  प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी ने इस अवसर पर साफ कहा कि-  “राम आग नहीं ऊर्जा हैं।राम विवाद नहीं समाधान हैं। राम विजय  नहीं विनय हैं। राम सिर्फ हमारे नहीं, सबके हैं।” यह बात बताती है कि माननीय प्रधानमंत्री एक नए भारत के स्वप्नदृष्टा हैं। नया भारत बनाने और उसमें एक जीवंत ऊर्जा का संचार करने के लिए प्रधानमंत्री ने न सिर्फ रामलला की मूर्ति स्थापना के लिए 11 दिनों का व्रत विधानपूर्वक बिना ठोस भोजन लिए पूर्ण किया, बल्कि उनकी विराट सोच ने इस आयोजन को और भी अधिक भव्य और सरोकारी बना दिया। देश के विविध क्षेत्रों की माननीय प्रतिभाओं को एक स्थान पर एकत्र कर राम जन्मभूमि तीर्थ ट्रस्ट ने इस आयोजन को विशेष गरिमा प्रदान की। राजनीति से परे हटकर इस घटना का विश्लेषण करना ही इसे सही अर्थ में समझना होगा। तभी हम भारत और उसकी महान जनता के मन में रमे राम को समझ पाएंगें। ‘सबके राम-सबमें राम’की भावना स्थापित कर हम राममंदिर को राष्ट्रमंदिर में बदल सकते हैं। जिससे मिलने वाली ऊर्जा दिलों को जोड़ने, मनों को जोड़ने का काम करेगी। यह अवसर भारत का भारत से परिचय कराने का भी है। जनमानस में आई आध्यात्मिक और नैतिक चेतना को देखकर लगता है कि भारत की एक नई यात्रा प्रारंभ हुई है, जो चलती रहेगी बिना रूके, बिना थके।

डॉ. शिवओम अंबर ने लिखा है-

राम हमारा कर्म, हमारा धर्म, हमारी गति है।

राम हमारी शक्ति, हमारी भक्ति, हमारी मति है।

बिना राम के आदर्शों का चरमोत्कर्ष कहां है?

बिना राम के इस भारत में भारतवर्ष कहां है?

इसलिए जरूरी है संकठा जी जैसे स्कूल शिक्षक की याद !

संकठा सिंह : आदर्श शिक्षक,संवेदना से भरे मनुष्य 

-प्रो.संजय द्विवेदी

  

भरोसा नहीं होता कि मेरे पूज्य गुरुदेव श्री संकठा प्रसाद सिंह अब इस दुनिया में नहीं रहे। बस्ती (उप्र) के सरस्वती शिशु मंदिर, रामबाग के प्रधानाचार्य रहे संकठा जी में ऐसा क्या था, जो उन्हें खास बनाता है? क्या कारण है कि वे अपने विद्यार्थियों के लिए हमेशा प्रेरणा देने वाली शख्सियत बने रहे। बहुत बालपन में उनके संपर्क में आनेवाला शिशु अपनी प्रौढ़ावस्था तक उनकी यादों और शिक्षाओं को भूल नहीं पाता।   

      शिशु मंदिर व्यवस्था के इस पक्ष का अध्ययन किया जाना चाहिए कि  पारिवारिक और आत्मीय संवाद बनाकर यहां के आचार्य गण जो आत्मविश्वास नयी पीढ़ी को देते हैं,वह अन्यत्र दुर्लभ क्यों है? निम्न और मध्यम वर्गीय परिवारों से आए विद्यार्थियों में जो भरोसा और आत्मविश्वास संकठा जी जैसे अध्यापकों ने भरा, वह मोटी तनख्वाहें पाने वाले पांच सितारा स्कूलों के अध्यापक क्यों नहीं भर पा रहे हैं? हमने अपने सामान्य से दिखने वाले आचार्यों से जो पाया, उससे हम दुनिया में कहीं भी जाकर अपनी भूमिका शान से निभाते हैं, वहीं दूसरी ओर विद्यार्थी डिप्रेशन, अवसाद से घिरकर आत्महत्याएं भी कर रहे हैं। हमारी उंगलियां पकड़कर जमाने के सामने ला खड़े करने वाले संकठा जी जैसे अध्यापकों की समाज को बहुत जरुरत है। 

  गुरुवार 28 मार्च ,2024 को   अपने गृहग्राम वनभिषमपुर, पोस्ट-मुसाखाडं, चकिया,जिला -चंदौली (उप्र) में अपनी अंतिम सांसें लीं, तो उनकी बहुत सी स्मृतियां ताजा हो आईं। उनके मानवीय गुण, कर्मठता, अध्यापन और प्रबंधन शैली सब कुछ। कच्ची मिट्टी से शिशुओं में प्रखर राष्ट्रीय भाव, नेतृत्व क्षमता, सामाजिक संवेदनशीलता भरते हुए उन्हें योग्य नागरिक बनाना उनका मिशन था। वे ताजिंदगी इस काम में लगे रहे। बाद में शिशु मंदिर योजना के संभाग निरीक्षक गोरखपुर,काशी,प्रयाग संभाग का दायित्व भी उन्होंने देखा। सतत् प्रवास करते हुए मैंने उनके मन में कभी कड़वाहट और नकारात्मक भाव नहीं देखे। रक्षामंत्री श्री राजनाथ सिंह छात्र जीवन में उनके सहपाठी रहे। वे दिल्ली जब भी आते माननीय रक्षा मंत्री जी से लेकर हम जैसे तमाम विद्यार्थियों से खोजकर मिलते। कोई चाह नहीं , बस हालचाल जानना और अपनी शुभकामनाएं देना। ऐसे अध्यापक का आपकी जिंदगी में होना भाग्य है। भोपाल में अपने पूज्य दादाजी की स्मृति में होने वाले पं.बृजलाल द्विवेदी स्मृति साहित्यिक पत्रकारिता सम्मान समारोह में मैंने उन्हें अध्यक्षता के लिए आमंत्रित किया। मेरे तत्कालीन कुलपति प्रोफेसर बृजकिशोर कुठियाला इस बात से बहुत खुश हुए कि मेरा अपने स्कूल जीवन के अध्यापक से अभी तक रिश्ता बना हुआ है। मैंने सर को बताया कि इसमें संकठा जी का नियमित संपर्क और स्नेहिल व्यवहार बहुत बड़ा कारण है। 


       माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय के मेरे विद्यार्थियों को भी यह बात बहुत अच्छी लगी। अध्यापक और छात्र के इस जीवंत रिश्ते की ऐसी तमाम कथाएं संकठा जी के लिए सामान्य थीं। छात्र जीवन में हम कुछ दोस्त 'चाचा नेहरू अखिल भारतीय बाल मित्र सभा' नाम से एक संगठन चलाते थे। तब हम शिशु मंदिर से पढ़कर निकल चुके थे। चाचा नेहरू का नाम जुड़ा होने के कारण हमें लगता था, आचार्य जी इससे नहीं जुड़ेंगे, किंतु जब हम पूर्व विद्यार्थियों ने उन्हें इस संगठन का अध्यक्ष बनाया तो सहर्ष तैयार हो गए। उस समय बस्ती से इसी संगठन से एक बाल पत्रिका 'बालसुमन' नाम से हमने निकाली। इसके कुछ अंक हमने बस्ती से छापे। बाद थोड़ी अच्छी छपाई हो इसलिए संकठा जी ने इसके कुछ अंक वाराणसी से छपवाए। शिशु मंदिर से निकलकर मेरा प्रवेश मुस्लिम समुदाय द्वारा संचालित कालेज 'खैर कालेज, बस्ती ' में हो गया। वहां के मेरे सहपाठियों शाहीन परवेज, एहतेशाम अहमद खान आदि से भी संकठा जी काफी दोस्ती हो गयी। कारण था चाचा नेहरु अखिल भारतीय बाल मित्र सभा। इसकी गतिविधियां भी बढ़ीं। संकठा जी बस्ती से स्थानांतरित होकर गाजीपुर गये, तो हम वहां शाहीन परवेज के गांव में भोजन के लिए गए। रिश्ते को अटूट बना लेना और लोकसंग्रह उनकी वृत्ति थीं। यहीं गाजीपुर में उन्होंने मेरी मुलाकात श्री अजीत कुमार से करवाई, जो बाद वाराणसी में छात्र आंदोलन में में मेरे वरिष्ठ साथी रहे। आज वे नेशनल बुक ट्रस्ट के बोर्ड के सदस्य और सक्रिय राजनीतिक कार्यकर्ता हैं। मैं याद करता हूं तो ढेर सी यादें घेरती हैं। मेरी शादी में वे सपरिवार आए। मां की मृत्यु पर, भाई की मृत्यु पर । हर सुख -दुख की घड़ी में उनका हाथ मेरे कंधे पर रहा। 

     दिल्ली में आखिरी मुलाकात  हुई ,तब मैं भारतीय जन संचार संस्थान में कार्यरत था। वे आए दो दिन साथ रहे। शरीर कमजोर था, पर आंखों की चमक और अपनी सींची पौध पर उनका भरोसा कायम था। ऐसे शिक्षक दुर्लभ ही हैं, जो आपको आपके सपनों, दोस्तों, परिवार के साथ स्वीकार करता हो। आप अपनी जिंदगी में व्यस्त और मस्त हैं और उन्हें फोन भी करने का वक्त नहीं निकाल पाते। किंतु संकठा जी फोन आता रहेगा, आपको आपकी जड़ों से जोड़ता रहेगा। उनका हर फोन यह अपराधबोध देकर जाता था कि क्या हमें अभी और मनुष्य बनना शेष है? इतनी उदारता, संवेदनशीलता और बड़प्पन लेकर वे आए थे। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की पाठशाला ने संकठा जी जैसे तमाम अनाम योद्धाओं के माध्यम से यह दुनिया रची है। मैं शब्दों में नहीं कह सकता कि मैंने क्या खोया, पर अपने विद्यार्थियों के लिए उनका पचास प्रतिशत भी कर पाऊं तो स्वयं को उनका शिष्य कह पाऊंगा।‌ संकठा जी की कहानी विद्या भारती के महान अभियान की सिर्फ एक कहानी है। हमारे आसपास ऐसे अनेक हीरो हैं। जो अनाम रहकर पीढ़ियां गढ़ रहे हैं। उन सबका मंत्र है "एक समर्थ, आत्मविश्वास से भरा भारत!" संकठा जी एक व्यक्ति नहीं हैं, प्रवृत्ति हैं। जो समय के साथ दुर्लभ होती जा रही। जिनके लिए 'शुद्ध सात्विक प्रेम अपने कार्य का आधार है।' भावभीनी श्रद्धांजलि!!



वेब पत्रकारों की सबसे बड़ी संस्था वेब जर्नलिस्ट्स एसोसिएशन ऑफ इंडिया की स्वनियामक इकाई WJSA का पुनर्गठन...

-प्रोफेसर संजय द्विवेदी को बनाया गया चेयरमैन

लेखक रिटायर्ड आईपीएस ध्रुव नारायण गुप्त, रिटायर्ड आईएएस ओम प्रकाश यादव बने पूर्व उच्चाधिकारी मानद सदस्य

उदय चंद्र सिंह वरिष्ठ पत्रकार सदस्य तो पटना हाई कोर्ट के विधिवेत्ता किंकर कुमार बने मानद विधिक सदस्य



भोपाल (मई 2024) । देश की सबसे बड़े वेब पत्रकारों के संगठन वेब जर्नलिस्ट्स एसोसिएशन ऑफ इण्डिया की  भारत सरकार के सूचना प्रसारण मंत्रालय से निबंधित स्व नियामक इकाई वेब जर्नलिस्ट्स स्टैंडर्ड अथॉरिटी (डबल्यूजेएसए) का पुनर्गठन करते हुए प्रो. संजय द्विवेदी पूर्व महानिदेशक भारतीय जनसंचार संस्थान, नई दिल्ली और पूर्व प्रभारी कुलपति माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय, भोपाल को चेयरमैन मनोनीत किया है। बिहार के सेवानिवृत्त आईपीएस कथाकार, कवि एवं लेखक ध्रुव नारायण गुप्त को सेवानिवृत्त पुलिस उच्चाधिकारी मानद सदस्य और सेवानिवृत्त आईएएस ओम प्रकाश यादव को सेवानिवृत्त प्रशासनिक उच्चाधिकारी मानद सदस्य मनोनीत किया गया है। 

केंद्र सरकार के सूचना प्रसारण मंत्रालय द्वारा अपने न्यूज़ पोर्टल सदस्यों के साथ आईटी इंटरमेडिएरी गाईड लाईन्स व डिजिटल मीडिया एथिक्स कोड 2021 की धारा 12 के तहत निबंधित सात सदस्यीय इस एसआरबी में देश के वरिष्ठ पत्रकार उदय चन्द्र सिंह को वरिष्ठ पत्रकार मानद सदस्य और पटना उच्च न्यायालय के अधिवक्ता किंकर कुमार को मानद विधिक सदस्य की जिम्मेदारी दी गयी है। पूर्व की भांति संगठन के राष्ट्रीय अध्यक्ष वरिष्ठ पत्रकार आनन्द कौशल और राष्ट्रीय महासचिव पत्रकार अधिवक्ता रंगकर्मी डॉ अमित रंजन को कार्यालयी सदस्य मनोनीत किया गया है। यह पुनर्गठन संगठन की राष्ट्रीय कार्यकारिणी द्वारा किया गया है। 

पटना में स्व नियामक इकाई डबल्यूजेएसए की घोषणा करते हुए राष्ट्रीय अध्यक्ष आनन्द कौशल ने सभी महानुभावों के प्रति आभार व्यक्त करते हुए स्वागत किया है। उन्होंने कहा कि देश की सबसे बड़ी नियामक इकाई डबल्यूजेएसए इन महानुभावों के साथ वेब पत्रकारिता में पत्रकारिता के उच्च आदर्शों को स्थापित करेगी बल्कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भारत की वेब पत्रकारिता को नये आयाम प्रदान करेगी। 

राष्ट्रीय महासचिव डॉ अमित रंजन ने कहा कि राष्ट्रीय स्तर पर स्वत: सिद्ध पत्रकारिता के अध्यापक ही जब स्व नियामक इकाई के चेयरमैन हैं तब सामाजिक, प्रशासनिक, पुलिसिंग, पत्रकारिता और विधि से जुड़े महानुभावों से सज्जित यह इकाई देश विदेश में वेब पत्रकारिता को वैश्विक पहचान दिलाएगी। 

संगठन के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष डॉ माधो सिंह, डॉ लीना, संजीव आहूजा, राष्ट्रीय महासचिव अमिताभ ओझा, राष्ट्रीय सचिव मधूप मणि पिक्कू, चंदन कुमार, विवेक कुमार, सूरज कुमार, संयुक्त सचिव मिथिलेश मिश्रा, शैलेंद्र झा, नलिनी भारद्वाज, चंदन राज, कोषाध्यक्ष मंजेश कुमार, सह कोषाध्यक्ष मनोकामना सिंह, कार्यालय सचिव अकबर इमाम, सह कार्यालय सचिव राम बालक राय, सह सचिव संगठन अभिषेक कुमार सिंह, राष्ट्रीय प्रवक्ता मुरली मनोहर श्रीवास्तव, राष्ट्रीय कार्य समिति सदस्य, बिहार प्रदेश अध्यक्ष बाल कृष्ण, उपाध्यक्ष केशव सिंह, आलोक कुमार डब्ल्यू, महासचिव अनूप नारायण सिंह, दिल्ली प्रदेश अध्यक्ष पंकज प्रसून सहित बिहार और दिल्ली चैप्टर के सभी पदधारक और संगठन के सभी सदस्यों ने नयी स्व नियामक इकाई को बधाई प्रेषित करते हुए स्वागत किया है।


पद्श्री मालती जोशी -भारतीय परिवारों की आत्मीय कथाकार

 जयंती (4 जून पर विशेष) 

- प्रो.संजय द्विवेदी

 

 

  ख्यातिनाम कथाकार ,उपन्यासकार श्रीमती मालती जोशी के निधन की सूचना ने साहित्य जगत में जो शून्य रचा है, उसकी भरपाई संभव नहीं है।गत 15 मई, 2024 को उन्होंने अपनी नश्वर देह त्याग दी। अपनी रचनाओं के माध्यम से भारतीय परिवारों के रिश्तों, संवेदनाओं, परंपराओं, मूल्यों की कथा कहने वाली मालती जोशी अपने तरह की विलक्षण कथाकार हैं। उनकी परंपरा में हिंदी साहित्य में कथाकार शिवानी के अलावा दूसरा नाम भी नहीं मिलता। पद्मश्री से अलंकृत मालती जोशी को पढ़ना विरल सुख देता रहा है। सरलता,सहजता से कथा बुनती ताई अपने कथारस में बहा ले जाती थीं और रोप जाती थीं संस्कारों और मूल्यों की वह थाती जो कहीं बिसराई जा रही है। नारेबाजियों से अलग ताकतवर स्त्रियों पात्रों के माध्यम से पारिवारिक मूल्यों की स्थापना उनके जीवन का ध्येय रहा है। 

    लीक तोड़कर लिखने और अपार लोकप्रियता अर्जित करने के बाद भी मालती जोशी हिंदी साहित्य आलोचना में हाशिए पर हैं। इसका कारण बहुत स्पष्ट है। उनकी रचनाएं भारतीय विचार और भारतीय परिवार के मूल्यों को केंद्र में रखती हैं। वे साहित्य सर्जना में चल रही खेमेबाजी, गुटबाजी से अलग अपनी राह चलती रही हैं। साहित्य क्षेत्र में चल रहे वाम विचारी संगठनों और उनकी अतिवादी राजनीति से उन्होंने अपनी दूरी बनाए रखी। इसके चलते उनके विपुल लेखन और अवदान पर साहित्य के मठाधीशों की नजर नहीं जाती। अपने रचे मानकों और तंग दायरों की आलोचना द्वारा मालती जी की उपेक्षा साधारण नहीं है। यह भारतीय मन और विचार के प्रति मालती जी प्रतिबद्धता के कारण ही है। अपनी लेखन शैली से उन्होंने भारतीय जनमन को प्रभावित किया है,यही उनकी उपलब्धि है। क्या हुआ जो आलोचना के मठाधीशों द्वारा वे अलक्षित की गयीं। सही मायनों में रचना और उसका ठहराव ही किसी लेखक का सबसे बड़ा सम्मान है। परंपरा, भारतीय परिवार, संवेदना और मानवीय मूल्यों की कथाएं कहती हुई मालती जोशी अपने समय के कथाकारों बहुत आगे नजर आती हैं। उनकी अपार लोकप्रियता यह प्रमाण है कि सादगी से बड़ी बात कही जा सकती है। इसके लिए मायावी दुनिया रचने और बहुत वाचाल होने की जरूरत नहीं है। अपनी जमीन की सोंधी मिट्टी से उन्होंने कथा का जो परिवेश रचा वह लंबे समय तक याद किया जाएगा।

अप्रतिम लोकप्रियता-

हिंदी वर्तमान परिदृश्य पर बहुत कम कथाकार हैं, जिन्हें पाठकों की ऐसी स्वीकार्यता मिली हो। औरंगाबाद(महाराष्ट्र) के मराठी परिवार 4 जून 1934 को जन्मीं मालती जोशी के न्यायाधीश पिता मध्यप्रदेश में कार्यरत थे, इससे उन्हें इस प्रांत के कई जिलों में रहने और लोकजीवन के करीब से देखने का अवसर मिला। 1956 में उन्होंने इंदौर के होलकर कालेज से हिंदी साहित्य में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त की। किशारावस्था में ही लेखन का शुरूआत कर मालती जी जीवन के अंतिम समय तक लेखन को समर्पित रहीं। उनका प्रारंभिक लेखन तो गीत के माध्यम से हुआ, बाद में वे बाल साहित्य भी लिखती रहीं फिर कहानी विधा को समर्पित हो गईं। उनके कथा लेखन को राष्ट्रीय पहचान ‘धर्मयुग’ पत्रिका से मिली और भारतीय परिवारों की चर्चित लेखिका बन गयीं। ‘धर्मयुग’ में आपकी पहली कहानी ‘टूटने से जुड़ने तक’ 1971 में छपी और तब से उन्होंने मुड़कर नहीं देखा। देश की चर्चित पत्रिकाओं कादम्बिनी,साप्ताहिक हिंदुस्तान, नवनीत, सारिका, मनोरमा के माध्यम से वे पाठकों की  बड़ी दुनिया में अपनी जगह बना चुकी थीं। 60 से अधिक कृतियों की रचना कर मालती जी ने भारतीय साहित्य को समृध्द किया है। उनकी सतत रचनाशीलता ने उन्हें भारतीय साहित्य का अनिवार्य नाम बना दिया है। 

परिवार और संवेदना के ताने बाने-

मालती जोशी मूलतः रिश्तों की कथाकार हैं। निजी जीवन में भी उनकी सरलता, सहजता और विनम्रता की यादें सबकी स्मृति में हैं। पारिवारिक, सामाजिक, घरेलू दायित्वों को निभाती हुई एक सरल स्त्री किंतु ताकतवर स्त्री उनकी निजी पहचान है। जिसने साहित्य सृजन के लिए कोई अतिरिक्त मांग नहीं की। किंतु जो किया वह विलक्षण है। परिवार और बच्चों के दायित्वों को देखते हुए अपने लेखन के लिए समय निकालना, उनकी जिजीविषा थी। आखिरी सांस तक वे परिवार की डोर को थामें लिखती रहीं। लिखना उनका पहला प्यारथ था । इंदौर, भोपाल, दिल्ली, मुंबई उनके ठिकाने जरूर रहे किंतु वे रिश्तों,संवेदनाओं और भारतीय परिवारों की संस्कारशाला की कथाएं कहती रहीं। 90 साल की उनकी जिंदगी में बहुत गहरे सामाजिक सरोकार हैं। उनके पति श्री सोमनाथ जोशी , अभियंता और समाजसेवी के रूप में भोपाल के समाज जीवन में ख्यात रहे। सन् 1981 से वे ज्यादातर समय भोपाल में रहकर निरंतर पारिवारिक दायित्वों और लेखन,सृजन में समर्पित रहीं। 2001 में पति के निधन के बाद उन्होंने खुद को और परिवार को संभाला। उनके सुपुत्र डा.सच्चिदानंद जोशी संप्रति अपनी मां की विरासत का विस्तार कर रहे हैं। वे न सिर्फ एक अच्छे कथाकार और कवि हैं, बल्कि उन्होंने संस्कृति और रंगमंच के कलाक्षेत्रों में अपनी उपस्थिति दर्ज कराई है। उनकी पुत्रवधू श्रीमती मालविका जोशी भी कथाकार और रंगमंच की सिद्ध कलाकार हैं।

     मध्यवर्गीय भारतीय परिवार उनकी कथाओं में प्रायः दिखते हैं। संस्कारों से रसपगी भारतीय स्त्री के सौंदर्य,साहस और संवेदना की कथाएं कहती हुए मालती जोशी बड़ी लकीर खींचती हैं। वर्गसंघर्ष की एक जैसी और एकरस कथाएं कहते कथाकारों के बीच मालती जोशी भारतीय परिवारों और उनके सुंदर मन की आत्मीय कथाएं लेकर आती हैं। अपनी सहज,सरल भाषा से वे पाठकों के मनों और दिलों में जगह बनाती हैं। उनको पढ़ने का सुख अलग है। उनकी कहानियां बेहद साधारण परिवेश से निकली असाधारण नायकों की कहानियां हैं। जो जूझते हैं, जिंदगी जीते हैं किंतु कड़वाहटें नहीं धोलते। बहुत सरल, आत्मीय और हम-आपके जैसे पात्र हमारे आसपास से ही लिए गए हैं। कथा में जीवन की सरलता-सहजता की वे वाहक हैं। मालती जी के पात्र बगावत नहीं करते, झंडे नहीं उठाते, नारे नहीं लगाते। वे जिंदगी से जूझते हैं, संवेदना के घागों से जुड़कर आत्मीय,सरल परिवेश रचते हैं। मालती जी की कथाओं यही ताकतवर स्त्रियां हैं, जो परिवार और समाज के लिए आदर्श हो सकती हैं। जो सिर्फ जी नहीं रहीं हैं, बल्कि भारतीय परिवारों की धुरी हैं।

स्त्री के मन में झांकती कहानियां-

मालती जोशी ने अपनी कहानियों में स्त्री के मन की थाह ली है। वे मध्यवर्गीय परिवारों की कथा कहते हुए स्त्री के मन, उसके आत्मसंर्घष, उसकी जिजीविषा और उसकी शक्ति सबसे परिचित कराती हैं। संवेदना के ताने-बाने में रची उनकी रचनाएं पाठकों के दिलों में उतरती चली जाती हैं। पाठक पात्रों से जुड़ जाता है। उनके रचे कथारस में बह जाता है। अनेक भारतीय भाषाओं में उनकी कृतियों के अनुवाद इसलिए हुए क्योंकि वे दरअसल भारतीय परिवारों की कथाएं कह रही थीं। उनके परिवार और उनकी महिलाएं भारत के मन और संस्कारों की भी बानगी पेश करती हैं। भारतीय परिवार व्यवस्था वैसे भी दुनिया के लिए चिंतन और अनुकरण का विषय है। जिसमें स्त्री की भूमिका को वे बार-बार पारिभाषित करती हैं। उसके आत्मीय चित्रण ने मालती जोशी को लोकप्रियता प्रदान की है। उनकी कहानियां आम आदमी, आम परिवारों की असाधारण कहानियां हैं। औरत का एक सामाजिक और मनोवैज्ञानिक विषय दोनों है। इस अर्थ में मालती जी विलक्षण मनोवैज्ञानिक कथाकार भी हैं। उनके पात्र समाज के सामने समाधानों के साथ आते हैं। सिर्फ संकट नहीं फैलाते। उनकी भाषा में जहां प्रसाद और माधुर्य के गुण हैं वहीं वे आवेग और आवेश की धारा से जुड़ जाती हैं। संकेतों में वे जो भाव व्यक्त कर देती हैं वह सामान्य लेखकों के लिए विस्तार की मांग करता है।

मालवा की मीरा और कथाकथन की शैली-

मालती जोशी के प्रमुख कहानी संग्रहों में पाषाण युग, मध्यांतर, समर्पण का सुख, मन न हुए दस बीस, मालती जोशी की कहानियां, एक घर हो सपनों का, विश्वास गाथा, आखिरी शर्त, मोरी रंग दी चुनरिया, अंतिम संक्षेप, एक सार्थक दिन, शापित शैशव, महकते रिश्ते, पिया पीर न जानी, बाबुल का घर, औरत एक रात है, मिलियन डालर नोट आदि शामिल हैं। मालती जोशी ने केवल कविताएं या कहानियां ही नहीं बल्कि उपन्यास और आत्म संस्मरण भी लिखे हैं। उपन्यासों में पटाक्षेप, सहचारिणी, शोभा यात्रा, राग विराग आदि प्रमुख हैं। वहीं उन्होंने एक गीत संग्रह भी लिखा, जिसका नाम है, ‘मेरा छोटा सा अपनापन’। उन्होंने  ‘इस प्यार को क्या नाम दूं? नाम से एक संस्मरणात्मक आत्मकथ्य भी लिखा। उनकी एक और खूबी रही कि उन्होंने कभी भी अपनी कहानियों का पाठ कागज देखकर नहीं किया, क्योंकि उन्हें अपनी कहानियां, कविताएं जबानी याद रहतीं थीं। मराठी में ‘कथाकथन’ की परंपरा को वे हिंदी में लेकर आईं। उनके कथापाठ में उपस्थित रहकर लोग कथा को सुनने का आनंद लेते थे। इन पंक्तियों के लेखक को भी उनके कथाकथन की शैली के जीवंत दर्शन हुए थे। बिना एक कागज हाथ में लिए वे जिस तरह से कथाएं सुनातीं थी वह विलक्षण था। दूरदर्शन उनकी सात पर कहानियों पर श्रीमती जया बच्चन ने ‘सात फेरे’ बनाया। इसके अलावा गुलजार निर्मित ‘किरदार’ में भी उनकी दो कहानियां थीं। आकाशवाणी पर उनकी अनेक कहानियों के प्रसारण हुए। जिसने कथाकथन की उनकी शैली को व्यापक लोकप्रियता दिलाई।

    इसके साथ ही मालती जोशी ने कई बालकथा संग्रह भी लिखे हैं, इनमें, दादी की घड़ी, जीने की राह, परीक्षा और पुरस्कार, स्नेह के स्वर, सच्चा सिंगार आदि शामिल हैं। उनके निधन पर मध्यप्रदेश के अखबारों ने उन्हें ‘मालवा की मीरा’ कहकर प्रकाशित संबोधित किया। इसका कारण यह है कि लेखन के शुरुआती दौर में मालती जोशी कविताएं लिखा करती थीं। उनकी कविताओं से प्रभावित होकर उन्हें मालवा की मीरा नाम से भी संबोधित किया जाता था। उन्हें इंदौर से खास लगाव था। वे अक्सर कहा करती थीं कि इंदौर जाकर मुझे सुकून मिलता है, क्योंकि वहां मेरा बचपन बीता, लेखन की शुरुआत वहीं से हुई और रिश्तेदारों के साथ ही उनके सहपाठी भी वहीं हैं। यह शहर उनकी रग-रग में बसा था। खुद अपनी आत्म कथा में मालती जोशी ने उन दिनों को याद करते हुए लिखा है, ‘मुझमें तब कविता के अंकुर फूटने लगे थे, कॉलेज के जमाने में इतने गीत लिखे कि लोगों ने मुझे ‘मालव की मीरा’ की उपाधि दे डाली।’ कथाकथन के तहत उनकी अनेक कहानियां यूट्यूब पर उपलब्ध हैं। इसकी सीडी भी उपलब्ध है।


देह के विमर्श में परिवार की कहानियां-

मालती जोशी की कहानियां इस अर्थ में बहुत अलग हैं कि वे परिवार और सामाजिक मूल्यों की कहानियां हैं। उनके पात्र अपनी सीमाओं का अतिक्रमण नहीं करते और मूल्यों की स्थापना में सहयोगी हैं। वे परंपरा के भीतर रहकर भी सुधार का आग्रह करते हैं। मालती जी ने एक इंटरव्यू में स्वयं कहा था- “हिंदी साहित्य में स्त्री देह का विमर्श और बोल्डनेस बढ़ गया है किंतु मैं पारिवारिक कहानियां कहती हूं।” उन्होंने कहा था कि “ मेरी कहानियों में आपको कहीं बेडसीन नहीं मिलेगा। मैं जितना परहेज अपने बहू-बेटे के कमरे में जाने से करती हूं, उतना ही अपने पात्रों के बेडरूम में जाने से करती हूं।” वे साफ कहती थीं कि नारीवाद के नाम पर हमेशा नारेबाजी के बजाए विनम्रता से भी स्त्रियों का पक्ष रखा जा सकता है। इन अर्थों में मालती जी कहानियों के पात्र अलग तरह से प्रस्तुत होते हैं। वे पितृसत्ता के साथ टकराते हैं, नये विचारों से भरे-पूरे हैं, किंतु नारे नहीं लगाते। वे बदलाव के नायक और साक्षी बनते हैं। अपने निजी जीवन में भी इसे मानती हैं। इसी इंटरव्यू  में उन्होंने बताया है कि पारंपरिक मराठी परिवारों शादी के बाद बहू का नाम बदलने की परंपरा है। जब उनसे पति ने पूछा कि आपको क्या नाम पसंद है। तो उनका कहना था मेरे नाम में क्या बुराई है। वे बताती हैं कि मैंने न अपना नाम बदला न बहुओं का नाम बदलने दिया। वे मानती थीं कि नाम बदलने से स्त्री की पूरी पहचान बदल जाती है। उन्होंने एक अन्य इंटरव्यू में कहा है कि वे स्त्रियों की स्वतंत्रता की पक्षधर हैं किंतु स्वच्छंदता की नहीं।

 उनकी रचना प्रक्रिया पर दीपा लाभ ने लिखा है- “मालती जोशी की भाषा-शैली बेहद सरल, सुगम और सहज है। उनके सभी पात्र आम जीवन से प्रेरित हमारे-आपके बीच के क़िरदार हैं। अधिकतर कहानियाँ स्त्री-प्रधान हैं किन्तु न तो वे दबी-कुचली अबला नारी होती है और ना ही शहरी, ओवरस्मार्ट कामकाजी लडकियाँ - उनके सभी पात्र यथार्थ के धरातल से निकले वास्तविक-से प्रतीत होते हैं। उनकी कथाओं से सकारात्मकता का संचार होता है जो स्वतः ही दिल की गहराइयों में उतरता चला जाता है। पुरुष पात्रों को भी निरंकुश या अहंकारी नहीं बनाकर उन्होंने कई दफ़े उनके सकारात्मक पक्षों को उजागर किया है। मध्यम-वर्गीय परिवारों की आम समस्याएँ, दैनिक जद्दोजहद और मन के भावों को बहुत संवेदनशील अंदाज़ में संवाद रूप में प्रस्तुत करना।”



सर्जना का सम्मान -

  साहित्य के क्षेत्र में योगदान के लिए उन्हें मध्यप्रदेश हिंदी साहित्य सम्मेलन का भवभूति अंलकरण,मध्यप्रदेश सरकार का साहित्य शिखर सम्मान, ओजस्विनी सम्मान, दुष्यन्त कुमार सम्मान, मैथिलीशरण गुप्त सम्मान, दिनकर संस्कृति सम्मान,माचवे सम्मान, महाराष्ट्र शासन द्वारा सम्मान, वनमाली सम्मान, मारीशस में विश्व हिन्दी सम्मेलन में पुरस्कृत होने के साथ साहित्य एवं शिक्षा के क्षेत्र में योगदान के लिये भारत सरकार द्वारा 2018 में पद्मश्री सम्मान से भी नवाजा जा चुका है।

  उनकी कथा संवेदना बहुत व्यापक है। इसीलिए वे पाठकों के बीच समादृत हैं। जयप्रकाश पाण्डेय लिखते है- “मालती जोशी अपनी कहानियों से संवेदना का एक अलग संसार बुनती हैं, जिसमें हमारे आसपास के परिवार, उनका राग और परिवेश जीवंत हो उठते  हैं।  उनकी कहानियां संवाद शैली में हैं, जिनमें जीवन की मार्मिक संवेदना, दैनिक क्रियाकलाप और वातावरण इस सुघड़ता से चित्रित हुए हैं कि ये कहानियां मन के छोरों से होते हुए चलचलचित्र सी गुजरती हैं. इतनी कि पाठक कथानक में बह उनसे एकाकार हो जाता है।” हिंदी साहित्य जगत पर अमिट छाप छोड़ने वाली मालती जोशी की मराठी में भी ग्यारह से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं. उनकी कहानियों का मराठी, उर्दू, बंगला, तमिल, तेलुगू, पंजाबी, मलयालम, कन्नड भाषा के साथ अँग्रेजी, रूसी तथा जापानी भाषाओं में अनुवाद भी हुआ है। 

    अब जबकि 90 साल की सक्रिय जिंदगी जीकर 15 मई,1924 को वे हमें छोड़कर जा चुकी हैं, उनकी स्मृतियां ही हमारा संबल हैं। हमारे जैसे न जाने कितने लोग इस बात का जिक्र करते रहेंगें कि उन्होंने मालती ताई को देखा था। एक लेखिका, एक मां, एक सामाजिक कार्यकर्ता और प्रेरक व्यक्तित्व की न जाने कितनी छवियों में वे हमारे साथ हैं और रहेंगीं। उनकी रचनाएं लंबे समय तक भारतीय परिवारों को उनकी शक्ति, जिजीविषा और आत्मीय  परिवेश की याद दिलाती रहेंगीं। भावभीनी श्रद्धांजलि!!

इंदौर: ये शहर है अमन का, यहां की फिजां है निराली


- प्रो.संजय द्विवेदी 


                                                 नई दुनिया , इंदौर में 31 मई,2024 को प्रकाशित


मध्यप्रदेश का एक शहर इंदौर। यह राजधानी नहीं है, एक शहर है। अपनी तरह का अलग और खास। बहुत खास। अपने संस्कार, शिक्षा, व्यापार, पत्रकारिता, संस्कृति, राजनीति, खानपान सबके लिए खास। हिंदुस्तान की आजादी के बाद की पत्रकारिता में हिंदी मीडिया का सबसे खास स्कूल। नामवर संपादकों,लेखकों,स्तंभकारों, संगीतकारो, कलाकारों , खिलाड़ियों, व्यापारियों का शहर। बाबा साहब आंबेडकर की जन्मभूमि महू से लेकर एक समय में ही राहुल बारपुते, राजेंद्र माथुर, प्रभाष जोशी, माणिकचंद्र वाजपेयी, वेदप्रताप वैदिक जैसे नामों को अपने साथ समेटे। बहुत बड़ी सूची, बहुत बड़ा काम। अप्रतिम योगदान। ऐसे शहर जो सिर्फ बसे नहीं जहां जीवन भी है, इंदौर उनमें एक है। अपने खास अंदाज और मालवा की माटी की महक ने इसे बनाया है।

  स्वागतधर्मी और संस्कृतिधर्मी दोनों कह लीजिए। मुहब्बत ऐसी कि यहीं बस जाने का दिल करे। बहुत जिंदादिल और आत्मीय। महानगर होने के बाद भी गंवई दिल, देशज अंदाज और कनेक्टिविटी को बचाकर, बनाकर रखने वाला दिलदार शहर। यहां साहित्य,संस्कृति, कला और संगीत की दुनिया भी बेहद समृद्ध है।‘नई दुनिया’ के मीडिया स्कूल ने किस तरह हिंदी पत्रकारिता के नायकों को गढ़ा और उन सबने कैसे भारतीय पत्रकारिता और देश-विदेश के मीडिया संस्थाओं को समृद्ध किया, इसे जानना जरूरी है। राजबाड़ा से सराफे तक फैली रौनकें, जिंदादिली, पोहे और जलेबी के साथ पलता, साथ चलता 'विचार' इस शहर की खासियत है। 

ये देश का सबसे स्वच्छ शहर भी है। अपने मन की तरह पवित्र और साफ। इस शहर ने भारत रत्न लता मंगेशकर और मंगेशकर परिवार को भारत में संगीत साधना का पर्याय बनते देखा। कुमार गंधर्व, उस्ताद अमीर अली खां, किशोर कुमार, गोकुल उत्सव को सुनकर संगीत की ऊंचाई महसूस की है तो श्री राजेंद्र माथुर से एक अद्भुत गद्य शैली पाई है। इस शहर से श्री प्रभाष जोशी और श्री वेदप्रताप वैदिक की गहरी जनधर्मिता की यादें जुड़ी हैं। इसी के साथ राष्ट्रीय भावधारा की पत्रकारिता की मिसाल बन गए श्री माणिकचंद्र वाजपेयी और श्री जयकृष्ण गौड़ की स्मृतियां भी हैं।

इंदौर से ‘वीणा’ जैसी अत्यंत समृद्ध साहित्यिक पत्रिका निकली जो अब सौ साल पूरे करने की ओर है। ‘मीडिया विमर्श’ द्वारा दिए जाने वाले पं.बृजलाल द्विवेदी स्मृति अखिल भारतीय साहित्यिक पत्रकारिता सम्मान के तहत ‘वीणा’ के दो संपादकों श्री श्यामसुंदर व्यास और श्री राकेश शर्मा को सम्मानित करने का सौभाग्य हमें मिला है। दोनों आयोजन इंदौर में हुए और हम इंदौर के साहित्य रसिकों का सान्निध्य पाकर धन्य हुए।  

 इंदौर में होना जिंदगी और जिंदादिली के साथ होना है। फिल्म संसार में लेखक, कलाकारों की भावभूमि यहां बनी। सलीम खान और उनके बेटे सलमान खान,जानी वाकर का ये शहर रहा है। क्रिकेट और हाकी की दुनिया में भी इंदौर ने नामवर लोग दिए। शंकर लक्ष्मण हाकी के सितारे बने तो क्रिकेट में कैप्टन मुश्ताक अली, कर्नल सीके नायडू, राहुल द्रविड़, नरेन्द्र हिरवानी कौन भूल सकता है। लेखकों में बहुत लंबी सूची हिंदी, उर्दू, मराठी में श्रेष्ठ लेखन से पहचान बनाने वालों का शहर। उर्दू में राहत इंदौरी तो हिंदी में ज्ञानपीठ पुरस्कार से अलंकृत नरेश मेहता जैसे नाम। सिने लेखन में श्रीराम ताम्रकार और जयप्रकाश चौकसे जैसे दिग्गज। क्रिकेट कमेंट्री करने वाले पद्मश्री से अलंकृत सुशील दोषी की आवाज आज भी कानों में बसी हुई लगती है। फिल्मी दुनिया में अपने सुरीले गीतों से ख्यातिनाम हुए स्वानंद किरकिरे इस शहर के ही हैं। सामाजिक काम और व्यापार यहां साथ चले हैं। अपनी सामाजिक सोच से व्यापार क्षेत्र के लोगों ने भी इंदौर को चमकदार बनाया। जिसमें सर सेठ हुकुमचंद कासलीवाल, बाबूलाल पटौती, बाबूलाल बाहेती को भूलना नहीं चाहिए। शहर को साहित्यिक, सामाजिक और सांस्कृतिक परिवेश देने में संस्थाओं की बड़ी भूमिका रही है। मध्यभारत हिंदी साहित्य समिति, अभ्यास मंडल,अभिनव कला समाज, सानंद न्यास जैसी अनेक संस्थाओं ने शहर को जीवंत बनाए रखा। इंदौर अपनी इन्हीं बहुरंगी छवियों से बना है। उसे कुछ लोग मिनी बांबे कहते हैं, किंतु इंदौर, इंदौर ही है। इंदौर और उसकी इंदौरियत का पर्याय संभव नहीं। यह अलग है और बहुत खास। यहां आइए और इसे महसूस भी कीजिए।

राजनीति में भी चमके मीडिया के सितारे

 

- प्रो. (डा.) संजय द्विवेदी

      इन दिनों देश में लोकतंत्र का महापर्व चल रहा है। राजनीति का आकर्षण प्रबल है। सिने कलाकार, साहित्यकार, वकील, न्यायाधीश, खिलाड़ी, गायक, उद्योगपति सब क्षेत्रों के लोग राजनीति में हाथ आजमाना चाहते हैं। ऐसा ही हाल पत्रकारिता के सितारों का भी है। मीडिया और पत्रकारिता के अनेक चमकीले नाम राजनीति के मैदान में उतरे और सफल हुए।

     आजादी के आंदोलन में तो मीडिया को एक तंत्र की तरह इस्तेमाल करने के लिए प्रायः सभी वरिष्ठ राजनेता पत्रकारिता से जुड़े और उजली परंपराएं खड़ी कीं। बालगंगाधर तिलक, महात्मा गांधी से लेकर सुभाष चन्द्र बोस, महामना पं.मदनमोहन मालवीय, पंडित नेहरू सभी पत्रकार थे। आजादी के बाद बदलते दौर में पत्रकारिता और राजनीति की राहें अलग-अलग हो गईं, लेकिन सत्ता का आकर्षण बढ़ गया। जनपक्ष, राष्ट्र सेवा की पत्रकारिता अब आजाद भारत में राष्ट्र निर्माण का भाव भरने में लगी थी। सेवा राजनीति के माध्यम से भी की जा सकती है, यह भाव भी प्रबल हुआ।



मूल्यों पर अटलरहने वाले वाजपेयी’-

     राजनीतिक दलों से संबंधित समाचार पत्रों, पत्रिकाओं के अलावा मुख्यधारा की पत्रकारिता से भी लोग राजनीति में आए, जिसमें सबसे खास नाम श्री अटल बिहारी वाजपेयी का है।वे  'वीर अर्जुन' जैसे दैनिक अखबार के संपादक थे। इसके साथ ही वे 'स्वदेश', 'पांचजन्य' और 'राष्ट्रधर्म' के भी संपादक भी थे। वे जहां संसदीय राजनीति के लंबे अनुभव के साथ प्रधानमंत्री और विदेश मंत्री भी रहे, तो वहीं भाजपा के संस्थापक अध्यक्ष भी थे। पूर्व उप प्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी भी 'हिंदुस्तान समाचार' और 'ऑर्गनाइजर' से संबद्ध थे, फिर राजनीति में आए।

  कांग्रेस के कार्यकारी अध्यक्ष रहे पं.कमलापति त्रिपाठी जाने-माने पत्रकार थे। आज(वाराणसी) के संपादक के रूप में उन्होंने ख्याति अर्जित की। बाद में वे लोकसभा के सदस्य चुने गए और केंद्र सरकार में मंत्री भी रहे। मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री पं. द्वारिका प्रसाद मिश्र ने दैनिक 'लोकमत', साप्ताहिक 'सारथी' और 'श्री शारदा' के संपादक के रूप में ख्याति अर्जित की।तत्कालीन विंध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शंभूनाथ शुक्ल बाद में बने मध्यप्रदेश में मंत्री और सांसद रहे। 'विशाल भारत' के संपादक रहे बनारसी दास चतुर्वेदी दो बार राज्यसभा के सदस्य निर्वाचित हुए। गणेश शंकर विद्यार्थी के शिष्य बालकृष्ण शर्मा नवीन 'प्रताप' के संपादक थे और कांग्रेस से राज्यसभा पहुंचे। महाराष्ट्र का दर्डा परिवार राजनीति में अग्रणी स्थान रखता है । 'लोकमत' समाचार के संस्थापक जवाहरलाल दर्डा, राजेन्द्र दर्डा और विजय दर्डा सांसद, विधायक और मंत्री रहे। 'विजया कर्नाटक' और 'कन्नड़ प्रभा' अखबार से जुड़े रहे प्रताप सिम्हा भाजपा से दो बार लोकसभा पहुंचे। उनका नाम चर्चा में तब आया, जब उनके द्वारा अनुमोदित विजिटर पास से दो युवकों ने नई संसद में पहुंच कर हंगामा किया। अंग्रेजी के नामवर पत्रकार खुशवंत सिंह राज्यसभा के लिए मनोनीत सदस्य के रूप राष्ट्रपति द्वारा नामित किए गए। सपा ने दैनिक जागरण के मालिकों में एक महेंद्र मोहन गुप्त को उप्र से राज्यसभा भेजा।

मध्यप्रदेश से छत्तीसगढ़ तक सितारों की जगमगाहट-



     मूलतः पत्रकारिता से सार्वजनिक जीवन में आए मोतीलाल वोरा मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री, केंद्रीय मंत्री और लंबे समय तक कांग्रेस के कोषाध्यक्ष थे। मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री श्यामाचरण शुक्ल ने रायपुर से 'दैनिक महाकौशल' अखबार निकाला। भाजपा के मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ दोनों राज्यों के अध्यक्ष और राज्यसभा सांसद बने लखीराम अग्रवाल ने बिलासपुर से 'लोकस्वर' अखबार निकाला। बिलासपुर के पत्रकार बीआर यादव मध्यप्रदेश सरकार में मंत्री और चार बार विधायक चुने गए। स्वतंत्रता संग्राम सेनानी ज्वाला प्रसाद ज्योतिषी नवभारत, नागपुर के संपादक थे और बाद में सांसद बने। नवीन दुनिया, जबलपुर के संपादक मुंदर शर्मा विधायक और सांसद दोनों पदों पर चुने गए। जबलपुर से प्रहरी (साप्ताहिक) के संपादक रहे उसी शहर से मेयर और 2 बार राज्यसभा के सदस्य थे।

     बिलासपुर के रहने वाले कवि, पत्रकार श्रीकांत वर्मा कांग्रेस के राष्ट्रीय महासचिव और राज्यसभा के सदस्य बने। वे 'दिनमान' के संपादक मंडल में रहने के बाद राजनीति में आए थे । छत्तीसगढ़ के दुर्ग जिले के रहने वाले चंदूलाल चंद्राकर दैनिक 'हिन्दुस्तान' के संपादक बने। बाद में कांग्रेस ने उन्हें राज्यसभा में भेजा। चंद्राकर, राजीव गांधी की सरकार में मंत्री भी बने किंतु एक विवाद में नाम आने पर उनका इस्तीफा ले लिया गया। नवभारत से जुड़े रहे राजनांदगांव के पत्रकार लीलाराम भोजवानी छत्तीसगढ़ सरकार में श्रम मंत्री थे। 'देशबन्धु' में पत्रकारिता का पाठ पढ़ने वाले चंद्रशेखर साहू छत्तीसगढ़ से सांसद, मंत्री और विधायक बने। मध्यप्रदेश में सीहोर के पत्रकार शंकर लाल साहू विधायक थे। दमोह के आनंद श्रीवास्तव भी पत्रकार थे, बाद में विधायक बने। त्रिभुवन यादव पिपरिया से विधायक बने। कांग्रेस सरकार में मंत्री रहे और दो बार विधायक चुने गए विष्णु राजोरिया मूलतः पत्रकार ही हैं, बाद में उन्होंने 'शिखर वार्ता' पत्रिका भी निकाली। मप्र में ही केएन प्रधान सांसद, विधायक और मंत्री भी थे। नागपुर के अंग्रेजी अखबार 'हितवाद' के प्रकाशन करने वाले बनवारी लाल पुरोहित कांग्रेस और भाजपा दोनों से लोकसभा पहुंचे। संप्रति वे पंजाब के राज्यपाल हैं।

भाजपा हो या कांग्रेस, सबने दिये मौके-



कांग्रेस ने अंग्रेजी के दिग्गज पत्रकार कुलदीप नैयर, एचके दुआ (हिंदुस्तान टाइम्स), हिंदी के राजीव शुक्ला, प्रफुल्ल कुमार माहेश्वरी, मराठी के कुमार केतकर आदि को राज्यसभा से नवाजा। राजीव शुक्ला मनमोहन सरकार में केंद्रीय मंत्री भी रहे। शिवसेना से अंग्रेजी के पत्रकार और फिल्ममेकर प्रतीश नंदी राज्यसभा पहुंचे। पांचवा स्तंभ नामक मासिक पत्रिका निकालने वाली मृदुला सिन्हा गोवा की राज्यपाल बनीं। चौथी दुनिया के संपादक संतोष भारतीय भी जनता दल से फरूखाबाद से लोकसभा पहुंचे। वरिष्ठ पत्रकार संजय निरुपम भी लोकसभा पहुंचे, वे मुंबई कांग्रेस के अध्यक्ष भी रहे। 'सामना' के संपादक संजय राऊत अपने धारदार बयानों के लिए लोकप्रिय हैं, वे भी उद्धव ठाकरे की शिवसेना से राज्यसभा सदस्य हैं। जनता दल (यू) ने प्रभात खबर के संपादक रहे हरिवंश नारायण सिंह को दो बार राज्यसभा भेजा, वे इन दिनों राज्यसभा के उपसभापति भी हैं। 'ऑर्गनाइजर' के संपादक रहे श्री के.आर.मलकानी बाद में राज्यसभा पहुंचे। भारतीय जनता पार्टी ने अरूण शौरी, चंदन मित्रा, स्वप्नदास गुप्ता, दीनानाथ मिश्र, बलबीर पुंज, राजनाथ सिंह सूर्य, नरेन्द्र मोहन, प्रभात झा, तरुण विजय को राज्यसभा भेजा। शौरी वाजपेयी सरकार में संचार और सूचना प्रौद्योगिकी मंत्री थे। उनके पास विनिवेश मंत्री का कार्यभार भी था। इनमें चंदन मित्रा बाद में तृणमूल कांग्रेस में शामिल हो गए, जबकि पुंज और झा पार्टी के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष भी मनोनीत हुए। प्रभात झा मध्यप्रदेश भाजपा के चर्चित अध्यक्ष भी थे। भाजपा और कांग्रेस दोनों दलों में रह चुके वरिष्ठ पत्रकार एमजे अकबर किशनगंज से कांग्रेस के टिकट पर लोकसभा पहुंचे। बाद में भाजपा ने उन्हें राज्यसभा भेजा और विदेश राज्यमंत्री बनाया। मोदी सरकार में मानव संसाधन विकास मंत्री और उत्तराखंड के मुख्यमंत्री के रूप में कार्य कर चुके रमेश पोखरियाल निशंक का पत्रकारिता से गहरा नाता रहा है। वे दैनिक जागरण से जुड़े थे, साथ ही स्वयं का सीमांत वार्ता नाम का अखबार भी प्रकाशित किया।हिमाचल प्रदेश के उप मुख्यमंत्री मुकेश कौशिक भी मूलतः पत्रकार हैं। वह दिल्ली और शिमला में पत्रकारिता की लंबी पारी के बाद राजनीति में आए। हरियाणा के अंबाला लोकसभा क्षेत्र से 2014 में भाजपा सांसद चुने गए अश्विनी कुमार अब इस दुनिया में नहीं हैं, लेकिन 'पंजाब केसरी' के माध्यम से की गई उनकी धारदार पत्रकारिता लोगों के जेहन में है। 'इकोनॉमिक टाइम्स' में रहे देवेश कुमार बिहार में भाजपा से विधान परिषद में है और प्रदेश महामंत्री भी हैं। हरियाणा सरकार में वित्त मंत्री बने कैप्टन अभिमन्यु भी दैनिक 'हरिभूमि' के संपादक, प्रकाशक थे।

क्षेत्रीय दलों ने भी दिए अवसर-



तृणमूल कांग्रेस ने हाल में ही अंग्रेजी की पत्रकार सागरिका घोष को राज्यसभा भेजा है। इसके पूर्व उर्दू  पत्रकारिता से जुड़े रहे नदीमुल हक भी तृणमूल से राज्यसभा पहुंचे। हिंदी अखबार 'सन्मार्ग' के मालिक विवेक गुप्ता तृणमूल से सांसद भी रहे, अब विधानसभा में हैं। कुणाल घोष भी इसी दल से राज्यसभा पहुंचे।   उर्दू के पत्रकार शाहिद सिद्दीकी (उर्दू नई दुनिया) सपा से, तो मीम अफजल (अखबार-ए-नौ) कांग्रेस से राज्यसभा पहुंचे। शाहिद सपा, कांग्रेस, आरएलडी की परिक्रमा करके फिर सपा में हैं। आंध्र प्रदेश से छपने वाले तेलुगु अखबार 'वार्ता' के संपादक गिरीश सांघी कांग्रेस से राज्यसभा हो आए। पत्रकारिता से जुड़े रहे तेलंगाना के के. केशवराव कांग्रेस और टीआरएस दोनों दलों से राज्यसभा जा चुके हैं। कोलकाता के पत्रकार अहमद सईद मलीहाबादी भी राज्यसभा पहुंचे। जनता दल (यूनाइटेड) से एजाज अली भी राज्यसभा (2008 से 2010) में रहे। टीवी पत्रकार मनीष सिसोदिया आम आदमी पार्टी के दिग्गज नेताओं में हैं और दिल्ली सरकार में उपमुख्यमंत्री बने। संप्रति वे शराब घोटाले के आरोप में तिहाड़ जेल में हैं।

      कुछ पत्रकार लोकसभा चुनाव लड़कर भी संसद नहीं पहुंच पाए। जैसे वरिष्ठ पत्रकार उदयन शर्मा, सुप्रिया श्रीनेत (कांग्रेस), साजिया इल्मी, आशीष खेतान, आशुतोष (आप), और सीमा मुस्तफा जनता दल के टिकट पर लोकसभा नहीं पहुंच सके। साजिया अब बीजेपी में आ चुकी हैं।

कुछ ने नेपथ्य में तलाशी संभावनाएं-



   अनेक दिग्गज पत्रकार चुनावी समर में उतरने के बजाए नेपथ्य में ताकतवर रहे और अपने समय की राष्ट्रीय राजनीति को प्रभावित करते रहे। श्रीमती इंदिरा गांधी और राजीव गांधी के साथ मीडिया सलाहकार एच.वाई. शारदा प्रसाद ने इंडियन एक्सप्रेस से अपना कैरियर प्रारंभ किया था। बाद में वे इंडियन इंस्टीट्यूट आफ मासकम्युनिकेशन और नेशनल डिजाइन इंस्टीट्यूट की स्थापना में सहयोगी थे। उन्हें पद्मविभूषण से भी अलंकृत किया गया। इंडिया टुडे के पत्रकार सुमन दुबे भी राजीव गांधी के मीडिया सलाहकार थे। अब वे राजीव गांधी फाउंडेशन का काम देख रहे हैं। इसके अलावा प्रधानमंत्री कार्यालय में पदस्थ रहे अशोक टंडन, सुधीन्द्र कुलकर्णी,हरीश खरे, पंकज पचौरी, संजय बारू के नाम उल्लेखनीय हैं। इनमें टंडन और कुलकर्णी अटल जी के साथ और खरे,पचौरी, तथा बारू मनमोहन सिंह के साथ थे। बारू बाद में अपनी किताब द एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर लिखकर विवादों में भी आए।

       राजनीति के मंच पर ऐसे अनेक सितारे चमके और अपनी जगह बनाई। तमाम ऐसे भी थे, जो पार्टी के प्रवक्ता या बौद्धिक कामों से संबद्ध थे। तमाम अज्ञात ही रह गये। राजनीति वैसे भी कठिन खेल है, संभावनाओं से भरा भी। किंतु सबको इसका फल मिले यह जरूरी नहीं। बावजूद इसके इसका आकर्षण कम नहीं हो रहा। वरिष्ठ पत्रकार प्रभाष जोशी कहते थे, "पत्रकार की पोलिटिकल लाइन तो ठीक है, पर पार्टी लाइन नहीं होनी चाहिए।" किंतु यह लक्ष्मण रेखा भी टूट रही है। क्यों, इस पर सोचिए जरूर।