छत्तीसगढ़ के जाने-माने
पत्रकार और ‘देशबंधु’ के पूर्व संपादक बसंत
कुमार तिवारी का न होना जो शून्य रच है उसे लंबे समय तक भरना कठिन है। वे एक ऐसे
साधक पत्रकार रहे हैं, जिन्होंने निरंतर चलते
हुए, लिखते हुए, धैर्य न खोते हुए,परिस्थितियों के आगे घुटने न टेकते हुए न सिर्फ विपुल
लेखन किया ,वरन एक स्वाभिमानी जीवन भी जिया । उनके जीवन में भी एक नैतिक अनुशासन
दिखता रहा है। छत्तीसगढ़ की मूल्य आधारित
पत्रकारिता के सबसे महत्वपूर्ण हस्ताक्षर बसंत कुमार तिवारी राज्य के एक ऐसे
विचारक, लेखक
और वरिष्ठ पत्रकार के रूप में सामने आते हैं, जिसने अपनी पूरी जिंदगी कलम की साधना में गुजारी।
आकर्षक व्यक्तित्व के धनीः
बसंत जी जब रिटायर हो
चुके थे तो हमारे जैसे युवा पत्रकारिता में स्थापित होने के हाथ-पांव मार रहे थे।
हमने उन्हें हमेशा एक हीरो की तरह देखा। आकर्षक व्यक्तित्व, कार ड्राइव करते हुए
जब वे मुझसे मिलने ‘हरिभूमि’ के धमतरी रोड स्थित दफ्तर आते मैं उनसे कहता ” सर मैं अवंति विहार से आते समय आपसे मिलता आता, आपका घर मेरे
रास्ते में है। अपना लेख लेकर आप खुद न आया करें।“ वे कहते “अरे भाई अभी से घर न बिठाओ।“ मुझे अजीब सा लगता पर उनकी सक्रियता प्रेरणा भी देती। खास बात
यह कि खुद को लेकर, अपने व्यवसाय को लेकर उनमें कहीं कोई कटुता नहीं। कोई शिकायत
नहीं। चिड़चिड़ाहट नहीं। वे अकेले ऐसे थे जिन्होंने हमेशा पत्रकारिता के जोखिमों,
सावधानियों को लेकर तो हमें सावधान किया पर कभी भी निराश करने वाली बातें नहीं की।
उनका घर मेरा-अपना घर था। हम जब चाहे चले जाते और वे अपनी स्वाभाविक मुस्कान से
हमारा स्वागत करते। हमने उन्हें कभी संपादक के रूप में नहीं देखा पर सुना कि वे
काफी कड़क संपादक थे। हमें कभी ऐसा कभी लगा नहीं। एक बात उनमें खास थी कि उनमें
नकलीपन नहीं था। अपने रूचियों, रिश्तों को कभी उन्होंने छिपाया नहीं। वे जैसे थे,
वैसे ही लेखन में और मुंह पर भी वैसे। ‘मीडिया विमर्श ‘ पत्रिका का प्रकाशन रायपुर से प्रारंभ हुआ तो उन्होंने पहले
अंक में ही ‘मेरा समय’ स्तंभ की शुरूआत की, जिसमें वरिष्ठ पत्रकार अपने अनुभव लिखते
थे। बाद में यह स्तंभ लोकप्रिय काफी लोकप्रिय हुआ
जिसमें स्व. स्वराज प्रसाद त्रिवेदी, मनहर
चौहान, बबन प्रसाद मिश्र, रमेश नैयर जैसे अनेक पत्रकारों ने इसमें अपनी पत्रकारीय
यात्रा लिखी। ‘मीडिया विमर्श’ के वे एक प्रमुख लेखक थे। उसके हर आयोजन में वे अपनी उपस्थिति
देते थे। मेरी पत्नी भूमिका को भी उनका बहुत स्नेह मिला। वे जब भी मिलते हम दोनों
से बातें करते और परिवार के अभिभावक की तरह चिंता करते। रायपुर में गुजारे बहुत
खूबसूरत सालों में वे सही मायने में हमारे अभिभावक ही थे, पिता सरीखे भी और
मार्गदर्शक भी। उन्हें देखना, सुनना और साथ बैठना तीनों सुख देता था। अभी हाल में ही पत्रकार और पूर्व
मंत्री बी.आर.यादव पर केंद्रित मेरे द्वारा संपादित पुस्तक ‘कर्मपथ’ में भी उन्होंने बीमारी के बावजूद अपना लेख लिखा। किताब छपी
तो उन्हें देने घर पर गया। बहुत खुश हुए बोले कि “तुमने इस तरह का डाक्युमेंटन करने का जो काम शुरू किया है वह
बहुत महत्व का है।”
सांसें थमने तक चलती रही कलमः
छत्तीसगढ़ के प्रथम दैनिक 'महाकौशल' से प्रारंभ हुई उनकी पत्रकारिता की यात्रा 81 साल की आयु में उनकी
सांसें थमने तक अबाध रूप से जारी रही। सक्रिय पत्रकारिता से मुक्त होने के बाद भी
उनके लेखन में निरंतरता बनी रही और ताजापन भी। सही अर्थों में वे हिंदी और दैनिक
पत्रकारिता के लिए छत्तीसगढ़ में बुनियादी काम करने वाले लोगों में एक रहे। उनका
पूरा जीवन मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ की पत्रकारिता को समर्पित रहा । प्रांतीय, राष्ट्रीय
और विकासपरक विषयों पर निरंतर उनकी लेखनी ने कई ज्वलंत प्रश्न उठाए हैं। राष्ट्रीय
स्तर के कई समाचार पत्रों में उन्होंने निरंतर लेखन और रिपोर्टिंग की करते हुए एक
खास पहचान बनाई थी।अपने पत्रकारिता जीवन के लेखन पर आधारित प्रदर्शनी के साथ-साथ
पत्रकारिता के इतिहास से जुड़ी 'समाचारों का सफर' नामक प्रदर्शनी उन्होंने लगाई।
इसका रायपुर,भोपाल, भिलाई और इंदौर में प्रदर्शन किया गया। उनके पूरे लेखन में
डाक्युमेंट्रेशन और विश्वसनीयता पर जोर रहा है, लेकिन इन
अर्थों में वे बेहद प्रमाणिक और तथ्यों पर आधारित पत्रकारिता में भरोसा रखते थे।
संपादकीय पृष्ठ पर छपने वाली सामग्री को आज भी बहुत महत्वपूर्ण माना जाता है।बसंत
कुमार तिवारी के पूरे लेखन का अस्सी प्रतिशत संपादकीय पृष्ठों पर ही छपा है।
बोलचाल की भाषा में रिपोर्टिंग, फीचर लेखन और कई पुस्तकों के प्रकाशन के माध्यम से श्री तिवारी
ने अपनी पत्रकारिता को विविध आयाम दिए हैं।
मध्यप्रदेश की राजनीति पर उनकी तीन पुस्तकों में
एक प्रामाणिक इतिहास दिखता है। प्रादेशिक राजनीति पर लिखी गई ये पुस्तकें हमारे
समय का बयान भी हैं जिसका पुर्नपाठ सुख भी देता है और तमाम स्मृतियों से जोड़ता भी
है। वे मध्यप्रदेश में महात्मा गांधी की १२५ वीं जयंती समिति के द्वारा भी
सम्मानित किए गए और छत्तीसगढ़ में उन्हें 'वसुंधरा सम्मान' भी मिला। राजनीति, समाज, पत्रकारिता, संस्कृति और अनेक विषयों पर उनका लेखन एक नई रोशनी देता है।
उनकी रचनाएं पढ़ते हुए समय के तमाम रूप देखने को मिलते रहे हैं।
असहमति का साहसः
अपने लेखन की भांति
अपने जीवन में भी वे बहुत साफगो और स्पष्टवादी थे। अपनी असहमति को बेझिझक प्रगट
करना और परिणाम की परवाह न करना बसंत कुमार तिवारी को बहुत सुहाता था। वे किसी को
खुश करने के लिए लिखना और बोलना नहीं जानते थे। इस तरह अपने निजी जीवन में अनेक
संघर्षों से घिरे रहकर भी उन्होंने सुविधाओं के लिए कभी भी आत्मसमर्पण नहीं किया।
पं. श्यामाचरण शुक्ल और अर्जुन सिंह जैसे दिग्गज नेताओं से बेहद पारिवारिक और
व्यक्तिगत रिश्तों के बावजूद वे इन रिश्तों को कभी भी भुनाते हुए नजर नहीं देखे
गए। मौलिकता और चिंतनशीलता उनके लेखन की ऐसी विशेषता है जो उनकी सैद्धांतिकता के
साथ समरस हो गई थी। उन्हें न तो गरिमा गान आता था, न ही वे
किसी की प्रशस्ति में लोटपोट हो सकते थे। इसके साथ ही वे लेखन में द्वेष और आक्रोश
से भी बचते रहे हैं। नैतिकता, शुद्ध आचरण और प्रामाणिकता इन तीन कसौटियों पर उनका लेखन खरा
उतरता है। उनके पास बेमिसाल शब्द संपदा है। मध्यप्रदेश से लेकर छत्तीसगढ़ की छ:
दशकों की पत्रकारिता का इतिहास उनके बिना पूरा नहीं होगा। वे इस दौर के नायकों में
एक हैं।
पत्रकारिता में आने
के बाद और बड़ी जिम्मेदारियां आने के बाद पत्रकारों का लेखन और अध्ययन प्राय: कम
या सीमित हो जाता है किंतु श्री तिवारी हमेशा दुनिया-जहान की जानकारियों से लैस
दिखते हैं। 80 वर्ष की आयु में भी उनकी कर्मठता देखते ही बनती थी। राज्य में
नियमित लिखने वाले कुछ पत्रकारों में वे भी शामिल थे। उनका निरंतर लिखना और निरंतर
छपना बहुत सुख देता था। वे स्वयं कहते थे-'मुझे लिखना अच्छा लगता है, न
लिखूं तो शायद बीमार पड़ जाऊं।' उनके बारे
में डा. हरिशंकर शुक्ल का कहना है कि “वे प्रथमत: और अंतत: पूर्ण पत्रकार ही हैं।“ यह एक ऐसी सच्चाई है, जो उनके खरेपन का बयान है। उनकी सबसे बड़ी विशेषता यह है कि
उम्र का असर उन पर दिखता नहीं था। वे हर आयु, वर्ग के व्यक्ति से न सिर्फ संवाद कर सकते हैं, बल्कि
उनके व्यक्तित्व से सामने वाला बहुत कुछ सीखने का प्रयास भी करता है। उनमें
विश्लेषण की परिपक्वता और भाषा की सहजता का संयोग साफ दिखता है। वे बहुत दुर्लभ हो
जा रही पत्रकारिता के ऐसे उदाहरण थे, जो
छत्तीसगढ़ के लिए गौरव का विषय है। उनका धैर्य, परिस्थितियों से जूङाने की उनकी क्षमता वास्तव में उन्हें
विशिष्ट बनाती है। अब जबकि वे इस दुनिया में नहीं हैं तो उम्मीद की जानी चाहिए कि आने
वाली पीढ़ी के लिए बसंत जी एक ऐसे नायक की तरह याद किए जाएंगें जो हम सबकी
प्रेरणा और संबल दोनों है।
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