मंगलवार, 20 सितंबर 2011

उनकी दुआओं से ही बरसती हैं रहमतें


-संजय द्विवेदी

बुर्जुगों की दुआएं और पुरखों की आत्माएं जब आशीष देती हैं तो हमारी जिंदगी में रहमतें बरसने लगती हैं। धरती पर हमारे बुर्जुग और आकाश से हमारे पुरखे हमारी जिंदगी को रौशन करने के लिए दुआ करते हैं। उनकी दुआओं-आशीषों से ही पूरा घर चहकता है। किलकारियों से गूंजता है और जिंदगी भी हमारे साथ महक उठती है। जिंदगी उजाले से भर जाती है, रास्ते रौशन हो उठते हैं और कायनात मुस्कराने लगती है।

यह फलसफा इतना आसान नहीं है। आत्मा से दुआ करके देखिए, या आत्माओं की दुआएं लेकर देखिए। यह तभी महसूस होगा। आत्मा के भीतर एक भरोसा, एक आंच और जज्बा धीरे-धीरे उतरता चला जाता है। वह भरोसा आत्मविश्वास की शक्ल ले लेता है, और आप वह कुछ भी कर डालते हैं जिसके बारे में आपने सोचा न था। क्योंकि आपको भरोसा है कि आपके साथ बड़ों की दुआएं हैं।

उन घरों की रौनक को देखिए जिनमें बुर्जुग भी हैं और बच्चे भी। एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को साथ खेलते हुए देखिए। उनके संवाद और निश्चल प्रेम को देखिए। यही पीढ़ियों का संवाद है। अनुभवों और परंपराओं का एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में स्थानांतरण है। हमारे बुर्जुग आने वाली पीढ़ी को देखकर खुश होते हैं। इसलिए बेटा नहीं, पोता ज्यादा प्यारा होता है,बेटी नहीं- उसकी बेटी ज्यादा प्यारी होती है। पीढ़ियां यूं ही बनती हैं। इसी तरह आत्मा को अजर-अमर मानने वाली संस्कृति के विश्वासी क्या ये मानेंगें कि हमारे पुरखे हमें देख रहे हैं ? वे यह देख रहे हैं कि हमने कैसे परिवार को जोड़कर रखा है ? कैसे हम प्रगति कर रहे हैं ? कैसे हमने अपनी विरासतों को संभाला हुआ है ? अगर हम सारा कुछ बेहतर करते हैं तो वे हमें आशीष देते हैं। कुछ बेहतर होने पर देवताओं द्वारा की जाने पुष्पवर्षा को सिर्फ कथा न मानिए। हमारे पुरखे भी अपनी आशीषों के, दुआओं के फूल हम पर बरसाते हैं। वे खुश होते हैं और हमारी तरक्की के रास्ते खोलते हैं।

वे हमसे दूर पर भगवान से निकट हैं, प्रकृति से उनका सीधा संवाद है,उनकी दुआएँ ही हममें ताकत भरती हैं कि हम कुछ कर सकें। पितृमोक्ष के ये दिन हमारे श्रद्धा निवेदन के दिन हैं। स्मृतियों के दिन हैं। उनको याद करने के दिन हैं जिनकी परंपरा के अनुगामी हम हैं। जिनके चलते हम इस दुनिया में हैं। यह स्मरण ही हमें जड़ों से जोड़ता है। यह बताता है कि कैसे पूरी सृष्टि एक भाव से हमें जोड़ती है और कैसे हम सब एक परमपिता के ही अंश हैं। यह पर्व बताता है कि कैसे हम एक परिवार हैं,बंधु-बांधव हैं और सहयात्री हैं। एक ऐसी परंपरा के हिस्से हैं जो अविनाशी है और चिरंतन है, सनातन है।

क्रोमोजोम्स के जरिए वैज्ञानिक यह सिद्ध करने में सफल रहे हैं कि नवजात शिशु में कितने गुण दादा व परदादा तथा कितने गुण नानामह और नाना के आते हैं। इसके मायने यह हैं कि पूर्वजों का हमसे जुड़ाव बना रहता है। श्राद्ध के वैज्ञानिक आधार तक पहुंचने में शायद दुनिया को अभी समय लगे किंतु हमारे पुराण और ग्रंथ इन रहस्यों को भली-भांति उजागर करते हैं। हमारी परंपरा में श्राद्ध एक विज्ञान ही है, जिसके पीछे तार्किक आधार हैं और आत्मा की अमरता का विश्वास है। श्राद्ध कर्म करके अपने पितरों को संतुष्ट करना, वास्तव में पीढ़ियों का आपसी संवाद है। यही परंपरा हमें पुत्र कहलाने का हक देती है और हमें हमारी संस्कृति का वास्तविक उत्तराधिकारी बनाती है। पितरों का सम्मान और उनका आशीष हमें हर कदम पर आगे बढ़ाता है। उनका हमारे पास आना और संतुष्ट होकर जाना,कपोल कल्पना नहीं है। यह बताता है कि किस तरह हम अपने पितरों से जुड़कर एक परंपरा से जुड़ते हैं, समाज के प्रति दायित्वबोध से जुड़ते हैं और अपनी संस्कृति के संरक्षण और उसकी जड़ों को सींचने का काम करते हैं। यही पितृऋण है। जिससे मुक्त होने के लिए हम सारे जतन करते हैं।

मृत्यु के अंतराल के बाद भी हमारे पुरखे हमसे जुड़े रहते हैं। यह स्मृति ही हमें जड़ों से जोड़ती है, परिवार के संस्कारों से जोड़ती है और बताती है कि दुनिया कितनी भी बदल जाए, हम लोग अपनी परंपरा के सच्चे उत्तराधिकारी हैं। श्राद्ध कर्म के बहाने हमारे पुरखे हमसे जुड़े रहते हैं, हमारी स्मृतियों में कायम रहते हैं। भारत की संस्कृति सही मायने में स्मृतियों का ही लोक है। इस लोक में हमारे पूर्वजों की यादें, उनकी सांसें, उनकी बातें, उनके जीवन मूल्य, उनकी जीवन शैली सब महकती है। हमें हमारी जड़ों से जोड़ने का यह उपक्रम भी है और मां-माटी का ऋण चुकाने का अवसर भी। श्रद्धा और विश्वास से तर्क की किताबें बेमानी हो जाती हैं। यह समय हमें लोक से जोड़ता है, जिसमें हमारी माटी, पूरी प्रकृति, विभिन्न जीव एवं देव (गाय, कुत्ते, कौआ, देवता,चीटियां, ब्राम्हण) तक का विचार है। यह हमें बताता है कि लोक के साथ हमारा रिश्ता क्या है। प्रकृति और इसमें बसने वाले जीवधारी सब हमारे लिए समान रूप से आदर के पात्र हैं। उनका संरक्षण और पूजन ही हमारी संस्कृति है। यह पाठ है लोक के साथ जीने का और उसका मान करने का। यह एक सहजीवन है जिसमें पूरी प्रकृति की पूजा का भाव है। इस लोकअर्चना से ही पितृ प्रसन्न होते हैं। वे हमें दुआएं देते हैं, जिसका फल हमारे जीवन की सर्वांगीण प्रगति के रूप में सामने आता है।

अब सवाल यह उठता है कि मृत्यु के पश्चात भी अपने पुरखों का इतना सम्यक विचार करने वाली संस्कृति का विचलन आखिर क्यों हो रहा है ? हालात यह हैं कि आत्माओं के तर्पण की बात करने वाला समाज आज परिवार के बुर्जुगों को सम्मान से जीने की स्थितियां भी बहाल नहीं कर पा रहा है। जहां माता-पिता को भगवान का दर्जा हासिल है, वहां ओल्ड होम्स या वृद्धाश्रम बन रहे हैं। यह कितने खेद का विषय है कि हमारी परंपरा के विपरीत हमारे बुर्जुग घरों में अपमानित हो रहे हैं। उनके साथ अच्छा व्यवहार नहीं हो रहा है। बाजार और अपसंस्कृति का परिवार नाम की संस्था पर सीधा हमला है। अगर हमारे समाज में ऐसा हो रहा तो पितृमोक्ष के मायने क्या रह जाते हैं। एक भटका हुआ समाज ही ऐसा कर सकता है।

जो समाज अपने पुरखों के प्रति श्रद्धाभाव रखता आया, उनकी स्मृतियों को संरक्षित करता आया, उसका ही जीवित आत्माओं को पीड़ा देने का प्रयास कई सवाल खड़े करता है। ये सवाल, ये हैं कि क्या हमारा दार्शनिक और नैतिक आधार चरमरा गया है? क्या हमारी स्मृतियों पर बाजार और संवेदनहीनता की इतनी गर्द चढ़ गयी है कि हम अपनी सारी नैतिकता व विवेक गवां बैठे हैं। अपने पितरों की मोक्ष के लिए प्रार्थना में जुड़ने वाले हाथ कैसे बुर्जुगों पर उठ रहे हैं, यह एक बड़ा सवाल है। पितृपक्ष के बहाने हमें यह सोचना होगा कि आखिर हम कहां जा रहे हैं? किस ओर बढ़ रहे हैं? कौन सा पाठ पढ़ रहे हैं और अपनी जड़ों का तिरस्कार कैसे कर पा रहे हैं? पाठ यह भी है कि आखिर हम अपने लिए कैसा भविष्य और कैसी गति चाहते हैं। अपने बुर्जुगों का तिरस्कार कर हम जैसी परंपरा बना रहे हैं क्या वही हमारे साथ दुहराई नहीं जाएगी। माता-पिता का तिरस्कार या उपेक्षा करती पीढ़ियां आखिर किस मुंह से अपनी संततियों से सदव्यवहार की अपेक्षा कर सकती हैं, इस पर सोचिएगा जरूर। यह भी सोचिए कि मृत्यु के बाद भी अपने पितरों को स्मृतियों में रखकर उनका पूजन,अर्चन करने वाली प्रकृति जीवित माता-पिता के अपमान को क्या सह पाएगी ? टूटते परिवारों, समस्याओं और अशांति से घिरे समाज का चेहरा क्या हमें यह बताता कि हमने अपने पारिवारिक मूल्यों के साथ खिलवाड़ किया है। अपनी परंपराओं का उल्लंधन किया है। मूल्यों को बिसराया है। इसके कुफल हम सभी को उठाने पड़ रहे हैं। आज फिर एक ऐसा समय आ रहा है जब हमें अपनी जड़ों की ओर झांकने की जरूरत है। बिखरे परिवारों और मनुष्यता को एक करने की जरूरत है। भारतीय संस्कृति के उन उजले पन्नों को पढ़ने की जरूरत है जो हमें अपने बड़ों का आदर सिखाते हैं। जो पूरी प्रकृति से पूजा एवं सद्भाव का रिश्ता रखते हैं। जहां कलह, कलुष और अवसरवाद के बजाए प्रेम, सद् भावना और संस्कार हैं। पितृऋण से मुक्ति इसी में है कि हम उन आदर्श परंपराओं का अनुगमन करें, उस रास्ते पर चलें जिन पर चलकर हमारे पुरखों ने इस देश को विश्वगुरू बनाया था। पूरी दुनिया हमें आशा के साथ देख रही है। हमारी परिवार नाम की संस्था, हमारे रिश्ते और उनकी सधनता-सब कुछ दुनिया में आश्चर्यलोक ही हैं। हम उनसे न सीखें जो पश्चिमी भोगवाद में डूबे हैं, हमें पूरब के ज्ञान- अनुशासन के आधार के एक नई दुनिया बनाने के लिए तैयार होना है। श्रवण कुमार, भगवान राम जैसी कथाएं हमें प्रेरित करती हैं, अपनों के लिए सब कुछ उत्सर्ग करने की प्रेरणा देती हैं। मां, मातृभूमि, पिता, पितृभूमि इसके प्रति हम अपना सर्वस्व अर्पित करने की मानसिकता बनाएं, यही इस समय का संदेश है। इस भोगवादी समय मे अगर हम ऐसा करने का साहस जुटा पाते हैं तो यह बात हमारे परिवारों के लिए सौभाग्य का टीका साबित होगी।


3 टिप्‍पणियां:

  1. जहाँ भी ये परम्‍पराएं टूटी हैं वहीं से हमने अपने जीवित माता-पिता का भी अपमान करना प्रारम्‍भ कर दिया है। इसलिए इन परम्‍पराओं के जीवित रहने की आवश्‍यकता है और निरर्थक कर्मकाण्‍ड को छोड़ने की भी।

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  2. समाज में हम दो तरह के लोगों को देखते है एक तो वह जो की अपने स्वार्थ को फलित होने तक माता-पिता को आदर्श और अपने कर्तव्य के प्रति समर्पित रहता है स्वार्थ सिद्ध होने पर तिरस्कार करता है और एक वह जो की निस्वार्थ भाव से जीवंत माँ-बाप को ईश्वर की तरह पूजता है .... परिणाम स्वार्थ की नाव मझधार में ही हिलोरे खाकर डूब जाती है दुर्गति का तांडव वहाँ होता है लेकिन जहाँ मातृ देव भव पितृ देवो भव की परंपरा और भाव आज जीवित है वहाँ सुख शांति और सम्रद्दी के साथ ही इंसान मानवता से उपर उठ जाता है उसके लिए जीवन में हर मोड पर सफलता के रास्ते खुले होते है ......

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