गुरुवार, 16 अक्टूबर 2025

संपादक के विस्थापन का कठिन समय!

                                                         हिंदी पत्रकारिता के 200 साल

-प्रो.संजय द्विवेदी




     हिंदी पत्रकारिता के 200 साल की यात्रा का उत्सव मनाते हुए हमें बहुत से सवाल परेशान कर रहे हैं जिनमें सबसे खास है संपादक का विस्थापन। बड़े होते मीडिया संस्थान जो स्वयं में एक शक्ति में बदल चुके हैं, वहां संपादक की सत्ता और महत्ता दोनों कम हुई है। अखबारों से खबरें भी नदारद हैं और विचार की जगह भी सिकुड़ रही है। बहुत गहरे सौंदर्यबोध और तकनीकी दक्षता से भरी प्रस्तुति के बाद भी अखबार खुद को संवाद के लायक नहीं बना पा रहे हैं। यह ऐसा कठिन समय है जिसमें रंगीनियां तो हैं पर गहराई नहीं। हर तथ्य और कथ्य का बाजार पहले ढूंढा जा रहा है, लिखा बाद में जा रहा है।

   नए समय में पत्रकारिता को सिर्फ कौशल या तकनीक के सहारे चलाने की कोशिशें हो रही हैं। जबकि पत्रकारिता सिर्फ कौशल नहीं बहुत गहरी संवेदना के साथ चलने वाली विधा है। जहां शब्द हैं, विचार हैं और उसका समाज पर पड़ने वाला प्रभाव है। ऐसे में सवाल यह उठता है कि क्या पत्रकारिता के पारंपरिक मूल्य और सिद्धांत अप्रासंगिक हो गए हैं या नए जमाने में ऐसा सोचना ठीक नहीं है। डिजीटल मीडिया की मोबाइल जनित व्यस्तता ने पढ़ने, गुनने और संवाद का सारा समय खा-पचा लिया है। जो मोबाइल पर आ रहा है,वही हमें उपलब्ध है। हम इसी से बन रहे हैं, इसी को सुन और गुन रहे हैं। ऐसे खतरनाक समय में जब अखबार पढ़े नहीं, पलटे जाने की भी प्रतीक्षा में हैं। दूसरी ओर वाट्सअप में अखबारों के पीडीएफ तैर रहे हैं। कुछ ऐसे हैं जो पीडीएफ पर ही छपते हैं। अखबारों को हाथ में लेकर पढ़ना और ई-पेपर की तरह पढ़ना दोनों के अलग अनुभव हैं। नई पीढ़ी मोबाइल सहज है। उसने मीडिया घरानों के एप मोबाइल पर ले रखे हैं। वे अपने काम की खबरें देखते हैं। न्यूज यू कैन यूज का नारा अब सार्थक हुआ है। खबरें भी पाठकों को चुन रही हैं और पाठक भी खबरों को चुन रहे हैं। यह कहना कठिन है कि अखबारों की जिंदगी कितनी लंबी है। 2008 में प्रिंट इज डेट किताब लिखकर जे. गोमेज इस अवधारणा को बता चुके हैं।

   सवाल यह नहीं है कि अखबार बचेंगे या नहीं मुद्दा यह है कि पत्रकारिता बचेगी या नहीं। उसकी संवेदना, उसका कहन, उसकी जनपक्षधरता बचेगी या नहीं। संपादक की सत्ता पत्रकारिता की इन्हीं भावनाओं की संरक्षक थी। संपादक अखबार की संवेदना, भाषा, उसके वैचारिक नेतृत्व,समाजबोध का संरक्षण करता था। उसकी विदाई के साथ कई मूल्य भी विदा हो जाएंगें। गुमनाम संपादकों को अब लोग समाज में नहीं जानते हैं। खासकर हिंदी इलाकों में अब पहचान विहीन और ब्रांड वादी अखबार निकाले जा रहे हैं। अब संपादक के होने न होने से फर्क नहीं पड़ता। उसके लिखने न लिखने से भी फर्क नहीं पड़ता। न लिखे तो अच्छा ही है। पहचानविहीन चेहरों की तलाश है, जो अखबार के ब्रांड को चमका सकें। संपादक की यह विदाई अब उस तरह से याद भी नहीं की जाती। पाठकों ने नए अखबार के साथ अनुकूलन कर लिया है। नया अखबार पहले पन्ने पर भी किसी भी प्रोडक्ट का एड छाप सकता है, संपादकीय पन्ने को आधा कर विचार को हाशिए लगा सकता है। खबरों के नाम पर एजेंडा चला सकता है। सत्य के बजाए यह नरेटिव के साथ खड़ा है। यहां सत्य रचे और तथ्य गढ़े जा सकते हैं। उसे बीते हुए समय से मोह नहीं है वह नए जमाने का नया अखबार है। वह विचार और समाचार नहीं कंटेट गढ़ रहा है। उसे बाजार में छा जाने की ललक है। उसके टारगेट पर खाये-अघाए पाठक हैं जो उपभोक्ता में तब्दील होने पर आमादा हैं। उसके कंटेंट में लाइफ स्टाइल की प्रमुखता है। वह जिंदगी को जीना और मौज सिखाने में जुटा है। इसलिए उसका जोर फीचर पर है, अखबार को मैग्जीन बनाने पर है। अखबार बहुत पहले रंगीन हो चुका है, उसका सारा ध्यान अब अपने सौंदर्यबोध पर है। वह प्रजेंटेबल बनना चाहता है। अपनी समूची प्रस्तुति में ज्यादा रोचक और ज्यादा जवान। उसे लगता है कि उसे सिर्फ युवा ही पढ़ते हैं और वह यह भी मानकर चलता है कि युवा को गंभीर चीजें रास नहीं आतीं।

    यह नया अखबार अब संपादक की निगरानी से मुक्त है। मूल्यों से मुक्त। संवेदनाओं से मुक्त। भाषा के बंधनों से मुक्त। यह भाषा सिखाने नहीं बिगाड़ने का माध्यम बन रहा है। मिश्रित भाषा बोलता हुआ। संपादक की विदा के बहुत से दर्द हैं जो दर्ज नहीं है। नए अखबार ने मान लिया है कि उसे नए पाठक चुनने हैं। बनाना है उन्हें नागरिक नहीं, उपभोक्ता। ऐसे कठिन समय में अब सक्रिय पाठकों का इंतजार है। जो इस बदलते अखबार की गिरावट को रोक सकें। जो उसे बता सकें कि उसे दृश्य माध्यमों से होड़ नहीं करनी है। उसे शब्दों के साथ होना है। विचार के साथ होना है।

   हिंदी के संपादकाचार्य बाबूराव विष्णु पराड़कर ने कहा था, ‘‘पत्र निकालकर सफलतापूर्वक चलाना बड़े-बड़े धनियों अथवा सुसंगठित कंपनियों के लिए ही संभव होगा। पत्र सर्वांग सुंदर होंगे। आकार बड़े होंगे, छपाई अच्छी होगी, मनोहर, मनोरंजक और ज्ञानवर्द्धक चित्रों से सुसज्जित होंगे, लेखों में विविधता होगी, कल्पकता होगी, गंभीर गवेषणा की झलक होगी, ग्राहकों की संख्या लाखों में गिनी जाएगी। यह सब कुछ होगा पर पत्र प्राणहीन होंगे। पत्रों की नीति देशभक्त, धर्मभक्त अथवा मानवता के उपासक महाप्राण संपादकों की नीति न होगी- इन गुणों से संपन्न लेखक विकृत मस्तिष्क समझे जाएंगे, संपादक की कुर्सी तक उनकी पहुंच भी न होगी। वेतनभोगी संपादक मालिक का काम करेंगे और बड़ी खूबी के साथ करेंगे। वे हम लोगों से अच्छे होंगे। पर आज भी हमें जो स्वतंत्रता प्राप्त है वह उन्हें न होगी। वस्तुतः पत्रों के जीवन में यही समय बहुमूल्य है।

    श्री पराड़कर की यह भविष्यवाणी आज सच होती हुई दिखती है। समानांतर प्रयासों से कुछ लोग विचार की अलख जगाए हुए हैं। लेकिन जरूरी है कि हम अपने पाठकों के सक्रिय सहभाग से मूल्य आधारित पत्रकारिता के लिए आगे आएं। तभी उसकी सार्थकता है।

 

समान नागरिक संहिता से कौन डरता है?

                                                                   -प्रोफेसर संजय द्विवेदी   



इन दिनों 'एक देेश एक कानून का सवाल' लोक विमर्श में हैं। राजनीतिक दलों से लेकर समाज में हर जगह इसे लेकर चर्चा है। संविधान निर्माताओं की यह भावना रही है कि देश में समान नागरिक कानून होने चाहिए। अब वह समय आ गया है कि हमें अपने राष्ट्र निर्माताओं की उस भावना का पालन करना चाहिए। इससे देश की आम जनता को शक्ति और संबल मिलेगा।

    हमारी आजादी के नायकों का एक ही स्वप्न था एकत्व। एकात्म भाव से भरे लोग। समता और समानता। इसे हमारे नायकों ने स्वराज कहा। यहां स्व बहुत खास है। स्वतंत्रता आंदोलन सिर्फ अंग्रेजी की विदाई और भारतीयों के राज्यारोहण के लिए नहीं था। अपने कानून, अपने नियम, अपनी भाषा, अपनी भूषा, अपना खानपान यानि इंडिया को भारत बनाना इसका लक्ष्य था। गुलामी के हर प्रतीक से मुक्ति इस आंदोलन का संकल्प था। इसलिए गांधी कह पाए- दुनिया से कह दो गांधी अंग्रेजी भूल गया है। यह स्वत्व की राह हम भुला बैठे, बिसरा बैठे। देश एक सूत्र में जुड़ा रहे। समान अवसर और समान भागीदारी का स्वप्न साकार हो यह जरूरी है। लोकतंत्र इन्हीं मूल्यों से साकार होता है। भारत ने पहले दिन से अपने सभी नागरिकों को बिना भेद के मताधिकार का अधिकार दिया और सबके मत का मूल्य समान रखा। अब समय है कि हम इस मुख्य अधिकार की भावना का विस्तार करते हुए देश को एकात्म बनाएं। वह सब कुछ करें जिससे देश एक हो सकता है। एक सूत्र में बांधा जा सकता है। यही एकता और अखंडता की पहली शर्त है। समान नागरिक संहिता एक ऐसा संकल्प है जो भारतीयों को एक तल पर लाकर खड़ा कर देती है। यहां एक ही पहचान सबसे बड़ी है जो है भारतीय होना, और एक ही किताब सबसे खास है जो है हमारा संविधान। समान नागरिक संहिता दरअसल हमारे गणतंत्र को जीवंत बनाने की रूपरेखा है।

    हमारे सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि संविधान के संस्थापकों ने उम्मीद जताई थी कि एक दिन राज्य समान नागरिक संहिता की अपेक्षाओं को पूरा करेंगे और नियमों का एक समान कानून प्रत्येक धर्म के रीति-रिवाजों जैसे- विवाह, तलाक आदि के अलग-अलग व्यक्तिगत कानूनों की जगह लेगा। यह भावना साधारण नहीं है। इस पर विवाद करना कहीं से भी उचित नहीं है। यह आजादी के आंदोलन के सपनों की दिशा में एक कदम है। वर्ष 1956 में हिंदू कानूनों को संहिताबद्ध कर दिया गया था, लेकिन देश के सभी नागरिकों के लिये एक समान नागरिक संहिता लागू करने का गंभीर प्रयास नहीं किया गया है। अब आवश्यक्ता इस बात की है कि हम देश को एक सूत्र में बांधने की दिशा में गंभीर प्रयास करें। यह बहुत सामयिक और उल्लेखनीय है कि उत्तराखंड की राज्य सरकार ने इस दिशा में कदम उठाया है। हम देखें तो भारतीय संविधान के भाग 4 (राज्य के नीति निदेशक तत्त्व) के तहत अनुच्छेद 44 के अनुसार कहा गया है कि भारत के समस्त नागरिकों के लिये एक समान नागरिक संहिता होगी। इसका व्यावहारिक अर्थ है कि, भारत के सभी पंथों के नागरिकों के लिये एक समान पंथनिरपेक्ष कानून बनना चाहिए।

     संविधान के संस्थापकों ने राज्य के नीति निदेशक तत्त्व के माध्यम से इसको लागू करने की ज़िम्मेदारी बाद की सरकारों को हस्तांतरित कर दी थी। अब यह सरकारों की जिम्मेदारी थी कि वे इस ओर देश को ले जाते । राजनीतिक कारणों से हमारी सरकारों ने इस संकल्प की पूर्ति के लिए जिम्मेदारी नहीं दिखाई। आज आजादी के अमृतकाल में हम प्रवेश कर चुके हैं। आने वाले दो दशकों में हमें भारत को शिखर पर ले जाना है। अपने सब संकटों के उपाय खोजने हैं। हमें वो सूत्र भी खोजने हैं जिससे भारत एक हो सके। सब भारतीय अपने आपको समान मानें और कोई अपने आप को उपेक्षित महसूस न करे। लोकतंत्र इसी प्रकार की सहभागिता और सामंजस्य की मांग करता है।

     

पंथ के आधार पर मिलने वाले विशेषाधिकार किसी भी समाज की एकता को प्रभावित करते हैं। इसके साथ ही समानता के संवैधानिक अधिकार की भी अपनी आकांक्षाएं हैं। हमें विचार करें तो पाते हैं कि मूल अधिकारों में विधि के शासन की अवधारणा साफ दिखती है लेकिन इन्हीं अवधारणाओं के बीच लैंगिक असमानता जैसी कुरीतियाँ भी व्याप्त हैं। विधि के शासन के अनुसार, सभी नागरिकों हेतु एक समान विधि होनी चाहिये लेकिन स्वतंत्रता के इतने वर्षों के बाद भी आबादी का बड़ा हिस्सा अपने मूलभूत अधिकारों के लिये संघर्ष कर रहा है। इस प्रकार समान नागरिक संहिता का लागू न होना एक प्रकार से विधि के शासन और संविधान की प्रस्तावना का उल्लंघन है। भारतीय जनता पार्टी ने आरंभ से ही समान नागरिक संहिता का वकालत की है। उसके प्रथम अध्यक्ष डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी( तब जनसंघ) ने एक देश में दो प्रधान, दो विधान और दो निशान के नाम पर अपना बलिदान दिया। ऐसे समय में एक बार देश ने भारतीय जनता पार्टी और उसके सहयोगी दलों को अवसर दिया है कि वे एक देश एक कानून की भावना के साथ आगे बढ़ें।

   हम देखें तो पाते हैं कि विधि और न्याय मंत्रालय द्वारा वर्ष 2016 में समान नागरिक संहिता से संबंधित मुद्दों के समग्र अध्ययन हेतु विधि आयोग का गठन किया गया। इसमें विधि आयोग ने कहा कि समान नागरिक संहिता का मुद्दा मूलाधिकारों के तहत अनुच्छेद 14 और 25 के बीच द्वंद्व से प्रभावित है। हमें इन बातों से सबक लेते हुए महिलाओं के हक में यह फैसला लेना होगा ताकि पंथ के नाम पर जारी कानूनों से उन्हें बचाया जा सके। कोई भी कानून अगर भेदभावपूर्ण समाज बनाता है तो उसके औचित्य पर सवाल उठते हैं। कानून का एक ही सूत्र है समानता और भेदभाव विहीन समाज बनाना। जिसे प्रधानमंत्री नारे की शक्ल में सबका साथ सबका विकास और सबका विश्वास कहते हैं। यह तभी संभव हो जब कानून सबके साथ समान व्यवहार करे। किसी को विशेषाधिकार न दे। लोकतंत्र को मजबूती दे। देश को एकात्म भाव से एकजुट करे। उम्मीद की जानी चाहिए गोवा और उत्तराखंड जैसे राज्यों को बाद अब देश में भी यह कानून लागू होगा और हमारे सपनों में रंग भरने का काम करेगा। आज समान नागरिक संहिता का मुद्दा एक राजनीतिक मुद्दा बन गया है, इसलिये जहाँ एक ओर कुछ राजनीतिक दल इस मामले के माध्यम से तुष्टिकरण का अभियान चला रहे हैं। जबकि दूसरी ओर कुछ राजनीतिक दल इस मुद्दे के माध्यम से पंथिक ध्रुवीकरण का प्रयास कर रहे हैं। इससे देश कमजोर होता है। समाज में विघटन होता है। हमारा संकल्प होना चाहिए कि हम जब विकसित भारत की ओर बढ़ रहे हैं, तब असमानता, गैरबराबरी सिर्फ आर्थिक स्तर पर नहीं कानूनी स्तर पर भी हटानी होगी। इसका एक मात्र विकल्प समान नागरिक संहिता है, इसमें दो राय नहीं है।

रामबहादुर राय होने का अर्थ समझाती एक किताब

‘दिल्ली’ में ‘भारत’ को जीने वाला बौद्धिक योद्धा!

-प्रोफेसर संजय द्विवेदी


   कभी जनांदोलनों से जुड़े रहे, पदम भूषण और पद्मश्री सम्मानों से अलंकृत श्री रामबहादुर राय का समूचा जीवन रचना, सृजन और संघर्ष की यात्रा है। उनकी लंबी जीवन यात्रा में सबसे ज्यादा समय उन्होंने पत्रकार के रूप में गुजारा है। इसलिए वे संगठनकर्ता, आंदोलनकारी, संपूर्ण क्रांति के नायक के साथ-साथ महान पत्रकार हैं और लेखक भी। अपने समय के नायकों से निरंतर संवाद और साहचर्य ने उनके लेखन को समृद्ध किया है। हमारे समय में उनकी उपस्थिति ऐसे नायक की उपस्थिति है, जिसके सान्निध्य का सुख हमारे जीवन को शक्ति और लेखन को खुराक देता है। उनका समावेशी स्वभाव, मानवीय संवेदना से रसपगा व्यक्तित्व भीड़ में उन्हें अलग पहचान देता है। ‘दिल्ली’ में ‘भारत’ को जीने वाले बौद्धिक योद्धा के रूप में पूरा देश उन्हें देखता, सुनता और प्रेरणा लेता है। जिस दौर की पत्रकारिता की प्रामाणिकता और विश्वसनीयता पर ढेरों सवाल हों, ऐसे समय में राम बहादुर राय की उपस्थिति हमें आश्वस्त करती है कि सारा कुछ खत्म नहीं हुआ है। सही मायने में उनकी मौजूदगी हिन्दी पत्रकारिता की उस परंपरा की याद दिलाती है, जो बाबूराव विष्णुराव पराड़कर से होती हुई राजेन्द्र माथुर और प्रभाष जोशी तक जाती है।

   4 फरवरी, 1946 को उत्तरप्रदेश के गाजीपुर जिले के एक गांव में जन्में श्री राय सही मायने में पत्रकारिता क्षेत्र में शुचिता और पवित्रता के जीवंत उदाहरण हैं। वे एक अध्येता, लेखक, दृष्टि संपन्न संपादक, मूल्यों के प्रति प्रतिबद्ध पत्रकार एवं सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में प्रेरक छवि रखते हैं। भारतीय जीवन मूल्यों और पत्रकारिता के उच्च आदर्शों को जीवन में उतारने वाले रामबहादुर राय ने राजनीति के शिखर पुरुषों से रिश्तों के बावजूद कभी कलम को ठिठकने नहीं दिया। उन्होंने वही लिखा और कहा जो उन्हें सच लगा। राय साहब काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से अर्थशास्त्र में स्नातकोत्तर उपाधि प्राप्त कर छात्र राजनीति में सक्रिय रहते हुए, ऐतिहासिक जयप्रकाश आंदोलन के नायकों में रहे। दैनिक 'आज' में बांग्लादेश मुक्ति संग्राम का आंखों देखा वर्णन लिखकर आपने अपनी पत्रकारीय पारी की एक सार्थक शुरुआत की। युगवार्ता फीचर सेवा, हिन्दुस्तान समाचार संवाद समिति में कार्य करने के बाद आप 'जनसत्ता' से जुड़ गए। 'जनसत्ता' में एक संवाददाता के रूप में कार्य प्रारंभ कर वे उसी संस्थान में मुख्य संवाददाता, समाचार ब्यूरो प्रमुख, संपादक, जनसत्ता समाचार सेवा के पदों पर रहे। आप नवभारत टाइम्स, दिल्ली में विशेष संवाददाता भी रहे। आप देश की अनेक सामाजिक संस्थाओं से जुड़े हैं जिनमें प्रज्ञा संस्थान, युगवार्ता ट्रस्ट, दशमेश एजुकेशनल चेरिटेबल ट्रस्ट, इंडियन नेशनल कमीशन फॉर यूनेस्को, प्रभाष परंपरा न्यास, भानुप्रताप शुक्ल न्यास के नाम प्रमुख हैं।

   आपकी चर्चित किताबों में आजादी के बाद का भारत झांकता है। ये किताबें राजनीति शास्त्र और समाजशास्त्र की मूल्यवान किताबें हैं। जिनमें भारतीय संविधानःएक अनकही कहानी, रहबरी के सवाल (पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर की जीवनी), मंजिल से ज्यादा सफर (पूर्व प्रधानमंत्री वीपी सिंह की जीवनी), काली खबरों की कहानी (पेड न्यूज पर केंद्रित), भानुप्रताप शुक्ल- व्यक्तित्व और विचार प्रमुख हैं। भारतीय पत्रकारिता की उजली परंपरा के नायक के रूप में रामबहादुर राय आज भी निराश नहीं हैं, बदलाव और परिवर्तन की चेतना उनमें आज भी जिंदा है। स्वास्थ्यगत समस्याओं के बावजूद आयु के इस मोड़ पर भी वे उतने ही तरोताजा हैं।

    पत्रकारिता के इस अनूठे नायक पर प्रो. कृपाशंकर चौबे की नई किताब ‘रामबहादुर रायःचिंतन के विविध आयाम’( प्रवासी प्रेम पब्लिशिंग, गाजियाबाद द्वारा प्रकाशित) उनके अवदान को अच्छी तरह से रेखांकित करती है। एक पत्रकार, संपादक, सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में बहुज्ञात राय साहब को इस तरह देखना निश्चित ही कृपाजी की उपलब्धि है। उनकी यह किताब राय साहब के संपूर्ण रचनाधर्मी स्वभाव का जिस तरह मूल्यांकन करती है, वह अप्रतिम है। किताब में उनका व्यक्तित्व, उनकी किताबें, उनके रिश्ते और रचना कर्म दिखता है। इस तरह यह किताब उन्हें जानने का सबसे बेहतरीन जरिया है। क्योंकि रामबहादुर राय जैसे बहुआयामी व्यक्तित्व को आप उनकी किसी एक किताब, एक मुलाकात, एक व्याख्यान से नहीं समझ सकते। किंतु यह किताब बड़ी सरलता से उनके बारे में सब कुछ कह देती है। किताब में अंत में छपा उनका साक्षात्कार तो अद्भुत है, एक यात्रा की तरह और फीचर का सुख देता हुआ। संवाद ऐसा कि चित्र और दृश्य साकार हो जाएं। रामबहादुर राय से यह सब कुछ कहलवा लेना लेखक के बूते ही बात है। यह किताब एक बड़ी कहानी की तरह धीरे-धीरे खुलती है और मन में उतरती चली जाती है। किताब एक बैठक में उपन्यास का आस्वाद देती है, तो पाठ-दर पाठ पढ़ने पर कहानी का सुख देती है। यह एक पत्रकार की ही शैली हो सकती है कि इतने गूढ़ विषय पर इतनी सरलता से, सहजता से संचार कर सके। संचार की सहजता ही इस पुस्तक की सबसे बड़ी विशेषता है। 

  किताब की सबसे बड़ी विशेषता इसकी समग्रता है। वह बताती है कि किसी खास व्यक्ति का मूल्यांकन किस तरह किया जाना चाहिए। हिंदी पत्रकारिता में आलोचना की परंपरा बहुत समृद्ध नहीं है। इसका कारण यह है कि साहित्यिक आलोचना में सक्रिय लोग पत्रकारिता को बहुत गंभीरता से नहीं लेते, मीडिया अध्ययन संस्थानों में भी पत्रकारों के काम पर शोध का अभ्यास नहीं है। ऐसे में यह किताब हमें पत्रकारीय व्यक्तित्व की आलोचना का पाठ भी सिखाती है। 11 अध्यायों में फैली इस किताब का हर अध्याय समग्रता लिए हुए है। हमारे बीते दिनों की यात्राएं, आजादी के बाद एक बनते हुए देश की चिंताएं, सरकारों की आवाजाही, हमारे नायकों की मनोदशा सबकुछ। पहले अध्याय में संघर्ष और सरोकार के तहत उनके बचपन,स्कूली शिक्षा,कालेज जीवन, अखिलभारतीय विद्यार्थी परिषद में उनकी सक्रियता, संघर्ष, जेल यात्रा सब कुछ जीवंत हो उठा है। उनके आंदोलनकारी और छात्र राजनीति के पक्ष को यहां समझा जा सकता है। जयप्रकाश नारायण से उनका रिश्ता कैसे उन्हें रूपांतरित करता है, कैसे वे आंदोलन के मार्ग से लोकजागरण के लिए पत्रकारिता के मार्ग पर आते हैं, इसे पढ़ना सुख देता है।

       अध्याय दो में ‘प्रश्नोत्तर शैली में पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर की जीवनी’ शीर्षक अध्याय में राय साहब की किताब ‘रहबरी के सवाल’ की चर्चा है। चंद्रशेखर जी के साथ संवाद से बनी यह किताब राजनीति, समाज और समय के संदर्भों की अनोखी व्याख्या है। जहां संवाद एक तरह के शिक्षण में बदल जाता है। पुस्तक में एक भाषण में भारत को पारिभाषित करते हुए चंद्रशेखर जी कहते हैं,-“भारत सिर्फ मिट्टी का नाम नहीं है। कुछ नदियों और पहाड़ों का समुच्चय नहीं है। भारत सत्य, एक सतत, शास्वत गवेषणा का नाम है। सत्य की इस धारा से दुनिया बार-बार आलोकित होती रही है।”

   अध्याय तीन में पूर्व प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह की जीवनी (मंजिल से ज्यादा सफर) भी संवाद शैली में ही लिखी गयी है। इस स्तर के राजनेताओं के अनुभव निश्चय ही हमें समृद्ध करते हैं। क्योंकि वे आजादी के बाद के भारत की राजनीति, संसद और समाज की गहरी समझ लेकर आते हैं। पत्रकार राय साहब इस तरह समाजविज्ञानियों और राजनीतिशास्त्रियों के लिए मौलिक पाठ रचते नजर आते हैं। इस किताब की भूमिका में यशस्वी संपादक प्रभाष जोशी लिखते हैं -“रामबहादुर राय देश के एक बहुत विश्वसनीय और प्रामाणिक पत्रकार हैं। यह जल्दी में काता-कूता कपास नहीं है। बड़े जतन से बुनी गयी चादर है। ”

अध्याय चार और पांच महान समाजवादी चिंतक और राजनेता जेबी कृपलानी और जयप्रकाश नारायण को समझने में मदद करते हैं। अध्याय –छह में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक रहे बालासाहब देवरस की विचार दृष्टि पर चर्चा है। यह पाठ ‘हमारे बालासाहब देवरस’ नामक पुस्तक पर केंद्रित है जिसका संपादन राय साहब और राजीव गुप्ता ने किया था। अध्याय सात में गोविंदाचार्य पर संपादित किताब की चर्चा है। गोविंदाचार्य के बहाने यह किताब राजनीति की लोकसंस्कृति पर विमर्श खड़ा करती है। अध्याय आठ में पड़ताल शीर्षक से छपे उनके स्तंभ का विश्वेषण है। इस स्तंभ पर केंद्रित चार पुस्तकें अरुण भारद्वाज के संपादन में प्रकाशित हुई हैं। जिनका प्रो. कृपाशंकर चौबे ने नीर-क्षीर विवेचन किया है। अध्याय- नौ में राय साहब की बहुचर्चित किताब ‘भारतीय संविधान- एक अनकही कहानी’ की चर्चा है। इस किताब में संविधान सभा की बहसें हमारे सामने चलचित्र की तरह चलती हैं। बहुत मर्यादित और गरिमामय टिप्पणियों के साथ। शायद लेखक चाहते हैं कि उनके पाठक भी वही भाव और स्पंदन महसूस कर सकें, जिसे संविधान सभा में उपस्थित महापुरुषों ने उस समय महसूस किया होगा। रामबहादुर जी की कलम उस ताप को ठीक से महसूस और व्यक्त करती है। जैसे राजेंद्र प्रसाद जी को संविधान सभा का स्थायी अध्यक्ष बनाते समय श्री सच्चिदानंद सिन्हा और अंत में बोलने वाली भारत कोकिला सरोजनी नायडू जी के वक्तव्य को पढ़ते हुए होता है। अध्याय-10 में राय साहब के निबंधों की चर्चा है। अध्याय-11 में राय साहब से कृपाशंकर जी का संवाद अद्भुत है। उसे पढ़ना पत्रकारिता में उनके अनुभवों के साथ बहुत सी बातें सामने आती हैं। खासकर नवभारत टाइम्स के संपादक राजेंद्र माथुर की मृत्य के कारणों पर उन्होंने जो कहा वह बहुत साहसिक है। यह वही समय है जब हमारी पत्रकारिता से संपादक के विस्थापन और कारपोरेट के पंजों की पकड़ मजबूत हो रही है। 

   अपनी आधी सदी की पत्रकारिता में रामबहादुर राय ने जिन आदर्शों और लोकधर्म का पालन किया है, यह किताब उनके जीवन मूल्यों को लोक तक लाने में सफल रही है। इस बहाने उनके जीवन, कृतित्व और सरोकारों से परिचित होने का मौका यह पुस्तक दे रही है। लेखक को इस शानदार किताब के लिए बधाई। राय साहब  के लिए प्रार्थनाएं कि वे शतायु हों।

सोमवार, 8 सितंबर 2025

मीडिया विद्यार्थियों को 'डिजिटल ट्रांसफॉर्म' के तैयार करें- प्रो.संजय द्विवेदी

                                                                       इंटरव्यू 

प्रो.संजय द्विवेदी से  वरिष्ठ पत्रकार रईस अहमद लाली की अंतरंग बाचतीत


 

प्रोफ़ेसर(डा.) संजय द्विवेदी मीडिया शिक्षा के क्षेत्र में एक जानी-मानी शख्सियत हैं। वे भारतीय जन संचार संस्थान (IIMC) दिल्ली के महानिदेशक रह चुके हैं। माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय के प्रभारी कुलपति और कुलसचिव बतौर भी उन्होंने अपनी सेवाएं दी हैं। मीडिया शिक्षक होने के साथ ही प्रो.संजय द्विवेदी ने सक्रिय पत्रकार और दैनिक अखबारों के संपादक के रूप में भी भूमिकाएं निभाई हैं। वह मीडिया विमर्श पत्रिका के कार्यकारी संपादक भी हैं। 35 से ज़्यादा पुस्तकों का लेखन और संपादन भी किया है। सम्प्रति वे माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय,भोपाल के जनसंचार विभाग में प्रोफेसर और विभागाध्यक्ष  हैं। मीडिया शिक्षा, मीडिया की मौजूदा स्थिति, नयी शिक्षा नीति जैसे कई अहम् मुद्दों पर वरिष्ठ पत्रकार रईस अहमद 'लाली' ने उनसे लम्बी बातचीत की है। प्रस्तुत हैं इस बातचीत के सम्पादित अंश : 

 

- संजय जी, प्रथम तो आपको बधाई कि वापस आप दिल्ली से अपने पुराने कार्यस्थल राजा भोज की नगरी भोपाल में आ गए हैं। यहाँ आकर कैसा लगता है आपको? मेरा ऐसा पूछने का तात्पर्य इन शहरों से इतर मीडिया शिक्षा के माहौल को लेकर इन दोनों जगहों के मिजाज़ और वातावरण को लेकर भी है। 

अपना शहर हमेशा अपना होता है। अपनी जमीन की खुशबू ही अलग होती है। जिस शहर में आपने पढ़ाई की, पत्रकारिता की, जहां पढ़ाया उससे दूर जाने का दिल नहीं होता। किंतु महत्वाकांक्षाएं आपको खींच ले जाती हैं। सो दिल्ली भी चले गए। वैसे भी मैं जलावतन हूं। मेरा कोई वतन नहीं है। लेकिन मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ की जमीन मुझे बांधती है। मैंने सब कुछ यहीं पाया। कहने को तो यायावर सी जिंदगी जी है। जिसमें दिल्ली भी जुड़ गया। आप को गिनाऊं तो मैंने अपनी जन्मभूमि (अयोध्या) के बाद 11 बार शहर बदले, जिनमें बस्ती, लखनऊ,वाराणसी, भोपाल, रायपुर, बिलासपुर, मुंबई, दिल्ली सब शामिल हैं। जिनमें दो बार रायपुर आया और तीसरी बार भोपाल में हूं। बशीर बद्र साहब का एक शेर है, जब मेरठ दंगों में उनका घर जला दिया गया, तो उन्होंने कहा था-

मेरा घर जला तो

सारा जहां मेरा घर हो गया।

मैं खुद को खानाबदोश तो नहीं कहता, पर यायावर कहता हूं। अभी भी बैग तैयार है। चल दूंगा। जहां तक वातावरण की बात है, दिल्ली और भोपाल की क्या तुलना। एक राष्ट्रीय राजधानी है,दूसरी राज्य की राजधानी। मिजाज की भी क्या तुलना हम भोपाल के लोग चालाकियां सीख रहे हैं, दिल्ली वाले चालाक ही हैं। सारी नियामतें दिल्ली में बरसती हैं। इसलिए सबका मुंह दिल्ली की तरफ है। लेकिन दिल्ली या भोपाल हिंदुस्तान नहीं हैं। राजधानियां आकर्षित करती हैं , क्योंकि यहां राजपुत्र बसते हैं। हिंदुस्तान बहुत बड़ा है। उसे जानना अभी शेष है।

 

- भोपाल और दिल्ली में पत्रकारिता और जन संचार की पढ़ाई के माहौल में क्या फ़र्क़ महसूस किया आपने ?

भारतीय जन संचार संस्थान में जब मैं रहा, वहां डिप्लोमा कोर्स चलते रहे। साल-साल भर के। उनका जोर ट्रेनिंग पर था। देश भर से प्रतिभावान विद्यार्थी वहां आते हैं, सबका पहला चयन यही संस्थान होता है। माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय इस मायने में खास है उसने पिछले तीस सालों से स्नातक और स्नातकोत्तर के रेगुलर कोर्स चलाए और बड़ी संख्या में मीडिया वृत्तिज्ञ ( प्रोफेसनल्स) और मीडिया शिक्षा निकाले। अब आईआईएमसी भी विश्वविद्यालय भी बन गया है। सो एक नई उड़ान के लिए वे भी तैयार हैं।

 

- आप देश के दोनों प्रतिष्ठित पत्रकारिता संस्थानों के अहम् पदों को सुशोभित कर चुके हैं। दोनों के बीच क्या अंतर पाया आपने ? दोनों की विशेषताएं आपकी नज़र में ?

दोनों की विशेषताएं हैं। एक तो किसी संस्था को केंद्र सरकार का समर्थन हो और वो दिल्ली में हो तो उसका दर्जा बहुत ऊंचा हो जाता है। मीडिया का केंद्र भी दिल्ली है। आईआईएमसी को उसका लाभ मिला है। वो काफी पुराना संस्थान है, बहुत शानदार एलुमूनाई है , एक समृध्द परंपरा है उसकी । एचवाई शारदा प्रसाद जैसे योग्य लोगों की कल्पना है वह। माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय(एमसीयू) एक राज्य विश्वविद्यालय है, जिसे सरकार की ओर से बहुत पोषण नहीं मिला। अपने संसाधनों पर विकसित होकर उसने जो भी यात्रा की, वह बहुत खास है। कंप्यूटर शिक्षा के लोकव्यापीकरण में एमसीयू की एक खास जगह है। देश के अनेक विश्वविद्यालयों में आप जाएंगें तो मीडिया शिक्षकों में एमसीयू के  ही पूर्व छात्र हैं, क्योंकि स्नातकोत्तर कोर्स यहीं चल रहे थे। पीएचडी यहां हो रही थी। सो दोनों की तुलना नहीं हो सकती। योगदान दोनों का बहुत महत्वपूर्ण है।

 

- आप लम्बे समय से मीडिया शिक्षक रहे हैं और सक्रिय पत्रकारिता भी की है आपने। व्यवहारिकता के धरातल पर मौजूदा मीडिया शिक्षा को कैसे देखते हैं ?

एक समय था जब माना जाता है कि पत्रकार पैदा होते हैं और पत्रकारिता पढ़ा कर सिखाई नहीं जा सकती। अब वक्त बदल गया है। जनसंचार का क्षेत्र आज शिक्षा की दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण हो गया है। 

   मीडिया शिक्षा में सिद्धांत और व्यवहार का बहुत गहरा द्वंद है। ज्ञान-विज्ञान के एक अनुशासन के रूप में इसे अभी भी स्थापित होना शेष है। कुछ लोग ट्रेनिंग पर आमादा हैं तो कुछ किताबी ज्ञान को ही पिला देना चाहते हैं। जबकि दोनों का समन्वय जरूरी है। सिद्धांत भी जरूरी हैं। क्योंकि जहां हमने ज्ञान को छोड़ा है, वहां से आगे लेकर जाना है। शोध, अनुसंधान के बिना नया विचार कैसे आएगा। वहीं मीडिया का व्यवहारिक ज्ञान भी जरूरी है। मीडिया का क्षेत्र अब संचार शिक्षा के नाते बहुत व्यापक है। सो विशेषज्ञता की ओर जाना होगा। आप एक जीवन में सब कुछ नहीं कर सकते। एक काम अच्छे से कर लें, वह बहुत है। इसलिए भ्रम बहुत है। अच्छे शिक्षकों का अभाव है। एआई की चुनौती अलग है। चमकती हुई चीजों ने बहुत से मिथक बनाए और तोड़े हैं। सो चीजें ठहर सी गयी हैं, ऐसा मुझे लगता है।

 

- नयी शिक्षा निति को केंद्र सरकार नए सपनों के नए भारत के अनुरूप प्रचारित कर रही है, जबकि आलोचना करने वाले इसमें तमाम कमियां गिना रहे हैं। एक शिक्षक बतौर आप इन नीतियों को कैसा पाते हैं?

राष्ट्रीय शिक्षा नीति बहुत शानदार है। जड़ों से जोड़कर मूल्यनिष्ठा पैदा करना, पर्यावरण के प्रति प्रेम, व्यक्ति को आत्मनिर्भर बनाना यही लक्ष्य है। किंतु क्या हम इसके लिए तैयार हैं। सवाल यही है कि अच्छी नीतियां- संसाधनों, शिक्षकों के समर्पण, प्रशासन के समर्थन की भी मांग करती हैं। हमें इसे जमीन पर उतारने के लिए बहुत तैयारी चाहिए। भारत दिल्ली में न बसता है, न चलता है। इसलिए जमीनी हकीकतों पर ध्यान देने की जरूरत है। शिक्षा हमारे तंत्र की कितनी बड़ा प्राथमिकता है, इस पर भी सोचिए। सच्चाई यही है कि मध्यवर्ग और निम्न मध्यवर्ग ने भी अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों से हटा लिया है। वे सरकारी संस्थानों से कोई उम्मीद नहीं रखते। इस विश्वास बहाली के लिए सरकारी संस्थानों के शिक्षकों, प्रबंधकों और सरकारी तंत्र को बहुत गंभीर होने की जरूरत है। उत्तर प्रदेश के ताकतवर मुख्यमंत्री प्राथमिक शिक्षकों की विद्यालयों में उपस्थिति को लेकर एक आदेश लाते हैं, शिक्षक उसे वापस करवा कर दम लेते हैं। यही सच्चाई है।

 

- पत्रकारिता में करियर बनाने के लिए क्या आवश्यक शर्त है ?

पत्रकारिता, मीडिया या संचार तीनों क्षेत्रों में बनने वाली नौकरियों की पहली शर्त तो भाषा ही है। हम बोलकर, लिखकर भाषा में ही खुद को व्यक्त करते हैं। इसलिए भाषा पहली जरूरत है। तकनीक बदलती रहती है, सीखी जा सकती है। किंतु भाषा संस्कार से आती है। अभ्यास से आती है। पढ़ना, लिखना, बोलना, सुनना यही भाषा का असल स्कूल और परीक्षा है। भाषा के साथ रहने पर भाषा हममें उतरती है। यही भाषा हमें अटलबिहारी वाजपेयी,अमिताभ बच्चन, नरेंद्र मोदी,आशुतोष राणा या कुमार विश्वास जैसी सफलताएं दिला सकती है। मीडिया में अनेक ऐसे चमकते नाम हैं, जिन्होंने अपनी भाषा से चमत्कृत किया है। अनेक लेखक हैं, जिन्हें हमने रात भर जागकर पढ़ा है। ऐसे विज्ञापन लेखक हैं जिनकी पंक्तियां हमने गुनगुनाई हैं। इसलिए भाषा, तकनीक का ज्ञान और अपने पाठक, दर्शक की समझ हमारी सफलता की गारंटी है। इसके साथ ही पत्रकारिता में समाज की समझ, मिलनसारिता, संवाद की क्षमता बहुत मायने रखती है।

 

- मीडिया शिक्षा में कैसे नवाचारों की आवश्यकता है?

शिक्षा का काम व्यक्ति को आत्मनिर्भर और मूल्यनिष्ठ मनुष्य बनाना है। जो अपनी विधा को साधकर आगे ले जा सके। मीडिया में भी ऐसे पेशेवरों का इंतजार है जो फार्मूला पत्रकारिता से आगे बढ़ें। जो मीडिया को इस देश की आवाज बना सकें। जो एजेंड़ा के बजाए जन-मन के सपनों, आकांक्षाओं को स्वर दे सकें। इसके लिए देश की समझ बहुत जरूरी है। आज के मीडिया का संकट यह है वह नागरबोध के साथ जी रहा है। वह भारत के पांच प्रतिशत लोगों की छवियों को प्रक्षेपित कर रहा है। जबकि कोई भी समाज अपनी लोकचेतना से खास बनता है। देश की बहुत गहरी समझ पैदा करने वाले, संवेदनशील पत्रकारों का निर्माण जरूरी है। मीडिया शिक्षा को संवेदना, सरोकार, राग, भारतबोध से जोड़ने की जरूरत है। पश्चिमी मानकों पर खड़ी मीडिया शिक्षा को भारत की संचार परंपरा से जोड़ने की जरूरत है। जहां संवाद से संकटों के हल खोजे जाते रहे हैं। जहां संवाद व्यापार और व्यवसाय नहीं, एक सामाजिक जिम्मेदारी है।

 

- देश में मीडिया की मौजूदा स्थिति को लेकर आपकी राय क्या है?

मीडिया शिक्षा का विस्तार बहुत हुआ है। हर केंद्रीय विश्वविद्यालय में मीडिया शिक्षा के विभाग हैं। चार विश्वविद्यालय- भारतीय जन संचार संस्थान(दिल्ली), माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विवि(भोपाल), हरिदेव जोशी पत्रकारिता विवि(जयपुर) और कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता एवं जनसंचार विवि(रायपुर) देश में काम कर रहे हैं। इन सबकी उपस्थिति के साथ-साथ निजी विश्वविद्यालय और कालेजों में भी जनसंचार की पढ़ाई हो रही है। यानि विस्तार बहुत हुआ है। अब हमें इसकी गुणवत्ता पर ध्यान देने की जरूरत है। ये जो चार विश्वविद्यालय हैं वे क्या कर रहे हैं। क्या इनका आपस में भी कोई समन्वय है। विविध विभागों में क्या हो रहा है। उनके ज्ञान, शोध और आइडिया एक्सचेंज जैसी व्यवस्थाएं बनानी चाहिए। दुनिया में मीडिया या जनसंचार शिक्षा के जो सार्थक प्रयास चल रहे हैं, उसकी तुलना में हम कहां हैं। बहुत सारी बातें हैं, जिनपर बात होनी चाहिए। अपनी ज्ञान विधा में हमने क्या जोड़ा। हमारे वर्तमान प्रधानमंत्री ने भी एक समय देश में एक ग्लोबल कम्युनिकेशन यूनिर्वसिटी बनाने की बात की थी। देखिए क्या होता है।

    बावजूद इसके हम एक मीडिया शिक्षक के नाते क्या कर पा रहे हैं। यह सोचना है। वरना तो मशहूर शायर अकबर इलाहाबादी हमारे लिए ही लिख गए हैं-

हम क्या कहें अहबाब क्या कार-ए-नुमायाँ कर गए।

बी-ए हुए नौकर हुए पेंशन मिली फिर मर गए।।

 

- आज की मीडिया और इससे जुड़े लोगों के अपने मिशन से भटक जाने और पूरी तरह  पूंजीपतियों, सत्ताधीशों के हाथों बिक जाने की बात कही जा रही है। इससे आप कितना इत्तेफ़ाक़ रखते हैं?

देखिए मीडिया चलाना साधारण आदमी को बस की बात नहीं है। यह एक बड़ा उद्यम है। जिसमें बहुत पूंजी लगती है। इसलिए कारपोरेट,पूंजीपति या राजनेता चाहे जो हों, इसे पोषित करने के लिए पूंजी चाहिए। बस बात यह है कि मीडिया किसके हाथ में है। इसे बाजार के हवाले कर दिया जाए या यह एक सामाजिक उपक्रम बना रहेगा। इसलिए पूंजी से नफरत न करते हुए इसके सामाजिक, संवेदनशील और जनधर्मी बने रहने के लिए निरंतर लगे रहना है। यह भी मानिए कोई भी मीडिया जनसरोकारों के बिना नहीं चल सकता। प्रामणिकता, विश्वसनीयता उसकी पहली शर्त है। पाठक और दर्शक सब समझते हैं।

 

- आपकी नज़र में इस वक़्त देश में मीडिया शिक्षा की कैसी स्थिति है ? क्या यह बेहतर पत्रकार बनाने और मीडिया को सकारात्मक दिशा देने का काम कर पा रही है ?

मैं मीडिया शिक्षा क्षेत्र से 2009 से जुड़ा हूं। मेरे कहने का कोई अर्थ नहीं है। लोग क्या सोचते हैं, यह बड़ी बात है। मुझे दुख है कि मीडिया शिक्षा में अब बहुत अच्छे और कमिटेड विद्यार्थी नहीं आ रहे हैं। अजीब सी हवा है। भाषा और सरोकारों के सवाल भी अब बेमानी लगने लगे हैं। सबको जल्दी ज्यादा पाने और छा जाने की ललक है। ऐसे में स्थितियां बहुत सुखद नहीं हैं। पर भरोसा तो करना होगा। इन्हीं में से कुछ भागीरथ निकलेंगें जो हमारे मीडिया को वर्तमान स्थितियों से निकालेगें। ऐसे लोग तैयार करने होंगें, जो बहुत जल्दी में न हों। जो ठहरकर पढ़ने और सीखने के लिए तैयार हों। वही लोग बदलाव लाएंगें।

 

- देश में आज मीडिया शिक्षा के सामने प्रमुख चुनौतियाँ क्या हैं?

सबसे बड़ी चुनौती है ऐसे विद्यार्थियों का इंतजार जिनकी प्राथमिकता मीडिया में काम करना हो। सिर्फ इसलिए नहीं कि यह ग्लैमर या रोजगार दे पाए। बल्कि देश के लोगों को संबल, साहस और आत्मविश्वास दे सके। संचार के माध्यम से क्या नहीं हो सकता। इसकी ताकत को मीडिया शिक्षकों और विद्यार्थियों को पहचानना होगा। क्या हम इसके लिए तैयार हैं,यह एक बड़ा सवाल है। मीडिया शिक्षा के माध्यम से हम ऐसे क्म्युनिकेटर्स तैयार कर सकते हैं जिनके माध्यम से समाज के संकट हल हो सकते हैं। यह साधारण शिक्षा नहीं है। यह असाधारण है। भाषा,संवाद,सरोकार और संवेदनशीलता से मिलकर हम जो भी रचेगें, उससे ही नया भारत बनेगा। इसके साथ ही मीडिया एजूकेशन कौंसिल का गठन भारत सरकार करे ताकि अन्य प्रोफेशनल कोर्सेज की तरह इसका भी नियमन हो सके। गली-गली खुल रहे मीडिया कालेजों पर लगाम लगे। एक हफ्ते में पत्रकार बनाने की दुकानों पर ताला डाला जा सके। मीडिया के घरानों में तेजी से मोटी फीस लेकर मीडिया स्कूल खोलने की ललक बढ़ी है, इस पर नियंत्रण हो सकेगा। गुणवत्ता विहीन किसी शिक्षा का कोई मोल नहीं, अफसोस मीडिया शिक्षा के विस्तार ने इसे बहुत नीचे गिरा दिया है। दरअसल भारत में मीडिया शिक्षा मोटे तौर पर छह स्तरों पर होती है। सरकारी विश्वविद्यालयों या कॉलेजों मेंदूसरेविश्वविद्यालयों से संबंद्ध संस्थानों मेंतीसरेभारत सरकार के स्वायत्तता प्राप्त संस्थानों मेंचौथेपूरी तरह से प्राइवेट संस्थानपांचवे डीम्ड विश्वविद्यालय और छठेकिसी निजी चैनल या समाचार पत्र के खोले गए अपने मीडिया संस्थान। इस पूरी प्रक्रिया में हमारे सामने जो एक सबसे बड़ी समस्या हैवो है किताबें। हमारे देश में मीडिया के विद्यार्थी विदेशी पुस्तकों पर ज्यादा निर्भर हैं। लेकिन अगर हम देखें तो भारत और अमेरिका के मीडिया उद्योगों की संरचना और कामकाज के तरीके में बहुत अंतर है। इसलिए मीडिया के शिक्षकों की ये जिम्मेदारी हैकि वे भारत की परिस्थितियों के हिसाब से किताबें लिखें।

 

- भारत में मीडिया शिक्षा का क्या भविष्य देखते हैं आप ?

मीडिया शिक्षण में एक स्पर्धा चल रही है। इसलिए मीडिया शिक्षकों को ये तय करना होगा कि उनका लक्ष्य स्पर्धा में शामिल होने का हैया फिर पत्रकारिता शिक्षण का बेहतर माहौल बनाने का है। आज के समय में पत्रकारिता बहुत बदल गई हैइसलिए पत्रकारिता शिक्षा में भी बदलाव आवश्यक है। आज लोग जैसे डॉक्टर से अपेक्षा करते हैंवैसे पत्रकार से भी सही खबरों की अपेक्षा करते हैं। अब हमें मीडिया शिक्षण में ऐसे पाठ्यक्रम तैयार करने होंगेजिनमें विषयवस्तु के साथ साथ नई तकनीक का भी समावेश हो। न्यू मीडिया आज न्यू नॉर्मल है। हम सब जानते हैं कि आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के कारण लाखों नौकरियां गई हैं। इसलिए हमें मीडिया शिक्षा के अलग अलग पहलुओं पर ध्यान देना होगा और बाजार के हिसाब से प्रोफेशनल तैयार करने होंगे। नई शिक्षा नीति में क्षेत्रीय भाषाओं पर ध्यान देने की बात कही गई है। जनसंचार शिक्षा के क्षेत्र में भी हमें इस पर ध्यान देना होगा। मीडिया शिक्षण संस्थानों के लिए आज एक बड़ी आवश्यकता है क्षेत्रीय भाषाओं में पाठ्यक्रम तैयार करना। भाषा वो ही जीवित रहती हैजिससे आप जीविकोपार्जन कर पाएं और भारत में एक सोची समझी साजिश के तहत अंग्रेजी को जीविकोपार्जन की भाषा बनाया जा रहा है। ये उस वक्त में हो रहा हैजब पत्रकारिता अंग्रेजी बोलने वाले बड़े शहरों से हिंदी तथा अन्य भारतीय भाषाओं के शहरों और गांवों की ओर मुड़ रही है। आज अंग्रेजी के समाचार चैनल भी हिंदी में डिबेट करते हैं। सीबीएससी बोर्ड को देखिए जहां पाठ्यक्रम में मीडिया को एक विषय के रूप में पढ़ाया जा रहा है। क्या हम अन्य राज्यों के पाठ्यक्रमों में भी इस तरह की व्यवस्था कर सकते हैंजिससे मीडिया शिक्षण को एक नई दिशा मिल सके।

 

- तेजी से बदलते मीडिया परिदृश्य के सापेक्ष मीडिया शिक्षा संस्थान स्वयं को कैसे ढाल सकते हैं यानी उन्हें उसके अनुकूल बनने के लिए क्या करना चाहिए ?

 मीडिया शिक्षण संस्थानों को अपने पाठ्यक्रमों में इस तरह के बदलाव करने चाहिएकि वे न्यू मीडिया के लिए छात्रों को तैयार कर सकें। आज तकनीक किसी भी पाठ्यक्रम का महत्वपूर्ण हिस्सा है। मीडिया में दो तरह के प्रारूप होते हैं। एक है पारंपरिक मीडिया जैसे अखबार और पत्रिकाएं और और दूसरा है डिजिटल मीडिया। अगर हम वर्तमान संदर्भ में बात करें तो सबसे अच्छी बात ये है कि आज ये दोनों प्रारूप मिलकर चलते हैं। आज पारंपरिक मीडिया स्वयं को डिजिटल मीडिया में परिवर्तित कर रहा है। जरूरी है कि मीडिया शिक्षण संस्थान अपने छात्रों को 'डिजिटल ट्रांसफॉर्मके लिए पहले से तैयार करें। देश में प्रादेशिक भाषा यानी भारतीय भाषाओं के बाजार का महत्व भी लगातार बढ़ रहा है। एक रिपोर्ट के अनुसार अंग्रेजी भाषा के उपभोक्ताओं का डिजिटल की तरफ मुड़ना लगभग पूरा हो चुका है। ऐसा माना जा रहा है कि वर्ष 2030 तक भारतीय भाषाओं के बाजार में उपयोगकर्ताओं की संख्या 500 मिलियन तक पहुंच जाएगी और लोग इंटरनेट का इस्तेमाल स्थानीय भाषा में करेंगे। जनसंचार की शिक्षा देने वाले संस्थान अपने आपको इन चुनौतियों के मद्देनजर तैयार करेंयह एक बड़ी जिम्मेदारी है।

 

- वे कौन से कदम हो सकते हैं जो मीडिया उद्योग की अपेक्षाओं और मीडिया शिक्षा संस्थानों द्वारा उन्हें उपलब्ध कराये जाने वाले कौशल के बीच के अंतर को पाट सकते हैं?

 

 भारत में जब भी मीडिया शिक्षा की बात होती हैतो प्रोफेसर केईपन का नाम हमेशा याद किया जाता है। प्रोफेसर ईपन भारत में पत्रकारिता शिक्षा के तंत्र में व्यावहारिक प्रशिक्षण के पक्षधर थे। प्रोफेसर ईपन का मानना था कि मीडिया के शिक्षकों के पास पत्रकारिता की औपचारिक शिक्षा के साथ साथ मीडिया में काम करने का प्रत्यक्ष अनुभव भी होना चाहिएतभी वे प्रभावी ढंग से बच्चों को पढ़ा पाएंगे। आज देश के अधिकांश पत्रकारिता एवं जनसंचार शिक्षण संस्थानमीडिया शिक्षक के तौर पर ऐसे लोगों को प्राथमिकता दे रहे हैंजिन्हें अकादमिक के साथ साथ पत्रकारिता का भी अनुभव हो। ताकि ये शिक्षक ऐसा शैक्षणिक माहौल तैयार कर सकेंऐसा शैक्षिक पाठ्यक्रम तैयार कर सकेंजिसका उपयोग विद्यार्थी आगे चलकर अपने कार्यक्षेत्र में भी कर पाएं।  पत्रकारिता के प्रशिक्षण के समर्थन में जो तर्क दिए जाते हैंउनमें से एक दमदार तर्क यह है कि यदि डॉक्टरी करने के लिए कम से कम एम.बी.बी.एसहोना जरूरी हैवकालत की डिग्री लेने के बाद ही वकील बना जा सकता है तो पत्रकारिता जैसे महत्वपूर्ण पेशे को किसी के लिए भी खुला कैसे छोड़ा जा सकता है? बहुत बेहतर हो मीडिया संस्थान अपने अध्यापकों को भी मीडिया संस्थानों में अनुभव के लिए भेजें। इससे मीडिया की जरूरतों और न्यूज रूम के वातावरण का अनुभव साक्षात हो सकेगा। विश्वविद्यालयों को आखिरी सेमेस्टर या किसी एक सेमेस्टर में न्यूज रूम जैसे ही पढ़ाई पर फोकस करना चाहिए। अनेक विश्वविद्यालय ऐसे कर सकने में सक्षम हैं कि वे न्यूज रूम क्रियेट कर सकें।

 

- अपने कार्यकाल के दौरान मीडिया शिक्षा और आईआईएमसी की प्रगति के मद्देनज़र आपने क्या महत्वपूर्ण कदम उठाये, संक्षेप में उनका ज़िक्र करें।

मुझे लगता है कि अपने काम गिनाना आपको छोटा बनाता है। मैंने जो किया उसकी जिक्र करना ठीक नहीं। जो किया उससे संतुष्ठ हूं। मूल्यांकन लोगों पर ही छोड़िए।

 




 







प्रोफेसर द्विवेदी के अन्य साक्षात्कारों को पढ़ने के  लिए देखिए  उनके साक्षात्कारों का संग्रह-

'जो कहूंगा सच कहूंगा'

जमीन का टुकड़ा नहीं, आध्यात्मिक भाव है भारत!

 

                                                   -प्रोफेसर संजय द्विवेदी


    भारत का संकट यही है कि हमने आजादी के बाद भारत प्रेमी समाज खड़ा नहीं किया। समूची शिक्षा व्यवस्था, राजनीतिक-प्रशासनिक-न्याय तंत्र में पश्चिम से आरोपित विचारों ने हमारे पैर जमीन से उखाड़ दिए। औपनिवेशिक काल की गुलामी दिमाग में भी बैठ गई। उससे उपजे आत्मदैन्य ने हमें भारत की चिति(आत्मा) से अलग कर दिया। वैचारिक उपनिवेशवाद ने हमारा बुरा हाल कर दिया है।

  यह संकट निरंतर है। भारत को न जानने से ही भ्रम की स्थिति निर्मित होती है। जबकि एक गहरी आध्यात्मिक चेतना से उपजी भारतीयता किसी के विरुद्ध नहीं है। हमारी संस्कृति विश्व बंधुत्व, विश्व मंगल और लोक-मंगल की वाहक है। आध्यात्मिक भाव इसी जमीन की देन है जिसने बताया कि सारी दुनिया के मनुष्य एक ही हैं। मनुष्य और उसके दुखों का समाधान खोजने राम, बुद्ध, महावीर जैसे राजपुत्र वनों में जाते रहे। वसुधा को कुटुम्ब (विस्तृत परिवार) की संकल्पना भारत की अप्रतिम देन है। धरती के सभी मनुष्य, सभी जीव और सभी अजीव भी इस कुटुम्ब में शामिल हैं। अतः समूची सृष्टि के योगक्षेम की कामना करते हुए भारत सुख पाता है। यही भाव सबके संरक्षण और सबके संवर्धन का प्रेरक है। इसी भावना से "पृथिव्या लाभे पालने च.." लिखते हुए आचार्य चाणक्य अपने 'अर्थशास्त्र' के प्रथम अधिकरण में ही पृथ्वी के पालन की कामना की है। यूएनओ अर्थ चार्टर 2000 में धरती जीवंत है, ऐसा मान लिया है।

प्रकृति है ईश्वर का विस्तार-

    प्रकृति को लेकर भारत की अपनी समझ है। हम संपूर्ण प्रकृति को ईश्वर का ही विस्तार मानते हैं। हमारी मान्यता है कि देव स्वयं प्रकृति में आया। सृष्टि का निर्माता सृष्टि के साथ ही है। हमारे जीवन के नियंता भी प्रकृति के सूर्य,जल, वायु, अग्नि,वन जैसे अवयव ही हैं। इससे हममें प्रकृति के प्रति कृतज्ञता का भाव आता है। इसलिए हम इन सबको देवता कहकर संबोधित करने लगे। सूर्य देवता, अग्नि देव आदि। यह कृतज्ञता का चरम और प्रकृति से संवाद का अप्रतिम उदाहरण भी है। हम मानते हैं कि जो देता वह देवता है। इसी से हम देव और असुर में भेद करते आए हैं।

   हमारे वैदिक मंत्र सबके प्रति कृतज्ञता व्यक्त करते हैं। इस तरह हम एक ऐसी संस्कृति के उत्तराधिकारी बन जाते हैं जो प्रकृति सेवक या पूजक है। 'श्वेताश्वतरोपिषद्'(6.11) कहता है, "एको देव: सर्वभूतेषू गूढ़: सर्वव्यापी सर्वभूतान्तरात्मा"

इसलिए हममें प्रकृति के मालिक या स्वामी होने का भाव नहीं आया। प्रकृति के दोहन का विचार हमारा है, शोषण का विचार पराया है।

   भारतबोध इन्हीं तत्वों से विकसित होता है। भारत ने ज्ञान भूमि के रूप में स्वयं को विकसित किया। जहां 'भा' यानी ज्ञान और 'रत' का मतलब लीन। इस तरह यह ज्ञान की साधना में लीन भूमि है। जिसने मानवता के समक्ष प्रश्नों के ठोस और वाजिब उत्तर खोजे।

कालिदास भी कुमारसंभवम् में भारत की उत्तर दिशा में हिमालय का वर्णन करते हुए कहते हैं -

अस्त्युत्तरस्यां दिशि देवतात्मा हिमालयो नाम नगाधिराज:।

पूर्वापरौ तोयनिधी वगाह्म स्थित पृथिव्या इव मापदण्ड:।।

  हिमालय से समुद्र तक इस पवित्र भूमि का विस्तार है। व्यास, वाल्मीकि, कालिदास, पाणिनि से लेकर आधुनिक समय में बंकिमचंद्र चटोपाध्याय (वंदेमातरम), मैथिलीशरण गुप्त, जयशंकर प्रसाद जैसे कवि इसी भूमि का मंगलगान करते हैं। बावजूद इसके किंतु कुछ मूढ़ मति मानते हैं कि अंग्रेजों ने हमें आज का भारत दिया। जबकि अंग्रेज़ों ने हमारी सांस्कृतिक, सामुदायिक एकता को तोड़कर हमें विखंडित भारत दिया। बंग भंग में असफल रहे अंग्रेज़ों जो बंटवारे का जो दंश हमें दिया, उसे हम आज भी भोग रहे हैं। जिन्हें यह भ्रम है कि हमें 1947 में अंग्रेजों ने भारत बनाकर दिया वे विष्णु पुराण के इस श्लोक का पाठ जरूर करें-

उत्तरं यत् समुद्रस्य हिमाद्रेश्चैव दक्षिणम्।

वर्षं तद् भारतं नाम भारती यत्र सन्ततिः ।।

यानी समुद्र के उत्तर और हिमालय के दक्षिण में जो देश है उसे भारत, तथा उनकी संतानों (नागरिकों) को भारती कहते हैं।

     अपने देश के व्यापक भूगोल की समझ होनी ही चाहिए। देश को जोड़ने वाले तत्व क्या हैं, हमें खोजने और बताने चाहिए। क्योंकि कुछ लोग तोड़ने वाले तत्वों (फाल्ट लाइंस) की ही चर्चा करते हैं। जबकि सच यह है कि हर देश में कुछ अच्छी और बुरी बातें होती हैं। कोई भी राष्ट्र जीवन समस्या मुक्त नहीं है। किंतु सिर्फ देश तोड़क बातें करना और उसके लिए संदर्भ गढ़ना उचित नहीं कहा जा सकता। हालांकि सच सामने आ जाता है। बावजूद इसके नरेटिव की एक गहरी जंग देश झेल रहा है। यह कितना गजब है कि अकादमिक विमर्श जैसे भी चलते रहे हों, नरेटिव जैसे भी गढ़े जाते रहे हों। किंतु देश पिछले आठ दशकों में निरंतर आगे बढ़ा है। लोगों की अपने मान बिंदुओं के प्रति आस्था बढ़ी है। अपनी माटी के प्रति प्रेम बढ़ा है, भारत प्रेम बढ़ा है। एकत्व और एकात्म भारत हमारी आज हमारी शक्ति है। पूरी दुनिया भी इसे स्वीकार करती है।

सांस्कृतिक एकता के प्रतीक-

 भारत की इस पवित्र भूमि पर ही राम, कृष्ण, शिव, गौतम बुद्ध, महावीर,नानक, गुरु गोविंद सिंह, ऋषि वाल्मिकि, गुरु घासीदास, संत रैदास, आचार्य शंकर, गुरु गोरखनाथ, स्वामी दयानंद जन्में और सैकड़ों तीर्थों-मठों की स्थापना हुई। चारधाम, द्वादश ज्योतिर्लिंग, बावन शक्तिपीठ के साथ अनेक सिद्धपीठ और मंदिर इसके उदाहरण हैं। जो समाज में सेवा,संवाद और आध्यात्म के वाहक बने हुए हैं। हमारी सप्त पुरियां अयोध्या, मथुरा,माया, काशी, कांची, अवंतिका, द्वारिका हैं। जैन, बौद्ध, सिक्ख गुरुओं के पवित्र स्थान हैं। जो समूचे देश को जोड़ते हैं। नदियों के तट, सरोवर, पर्वतों

इसे लोक स्वीकृति प्राप्त है। असल भारत यही है। ऐसा भाव दुनिया में कहीं विकसित नहीं हुआ। स्थान-स्थान की परिक्रमाएं काशी, ब्रज-गोवर्धन, अयोध्या, चित्रकूट, चारधाम, उत्तराखंड के पृथक चार धाम, नर्मदा, कृष्णा परिक्रमा भारत को जोड़ने वाली कड़ियां हैं। इन यात्राओं से भारत धीरे-धीरे मन में उतरता है। कन्याकुमारी से कश्मीर तक, हिंगलाज से परशुराम कुण्ड तक पुण्य भूमि स्थापित है। अमरनाथ और ननकाना साहिब की कठिन यात्राएं भी इसी भाव बोध का सृजन करती हैं। इस भारत को जीते हुए ही हमारे पूर्व प्रधानमंत्री श्री अटलबिहारी वाजपेयी का कवि मन बोल पड़ा- भारत जमीन का टुकड़ा नहीं/ जीता जागता राष्ट्रपुरुष है/ इसका कंकर कंकर शंकर है/ इसका बिंदु-बिंदु गंगाजल है।

     सर्वश्री वासुदेवशरण अग्रवाल, राधाकुमुद मुखर्जी को पढ़ते हुए पुण्यभूमि भारत के दृश्य साक्षात हो जाते हैं। अनादिकाल से हो रही ये तीर्थ यात्राएं भारत को समझने की ही खिड़कियां रहीं हैं। इनसे गुजरता भारत खुद का आत्मसाक्षात्कार करता रहा है। वह प्रक्रिया धीमी हो सकती है, पर रुकी नहीं है। इसे तेज करने से न सिर्फ राष्ट्रीय एकता मजबूत होगी बल्कि दुनिया में भी सुख, शांति और समृद्धि का विचार प्रसारित होगा। एक सशक्त भारत ही विश्व शांति और विश्व मंगल की गारंटी है। अरसे बाद भारत में विचारों की घर वापसी हो रही है। वह अपने आत्मदैन्य से मुक्त हो रहा है। आइए, हम भी इस महान देश को जानने की खिड़कियां खोलें और भारत मां को जगद्गुरु के सिंहासन पर विराजता हुआ देखें।

(लेखक माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में जनसंचार विभाग के आचार्य और अध्यक्ष हैं।)

गुरुवार, 4 सितंबर 2025

केवल सत्ता से मत करना परिवर्तन की आस!

 

-प्रो. संजय द्विवेदी



        एक जीवंत लोकतंत्र में रहते हुए क्या आप राजनीति से विरत रह सकते हैं? राजनीति जो नीति-निर्माण से लेकर आपके संपूर्ण जीवन के फैसले कर रही है, उससे अलग रहना क्या उचित है? क्या बदलाव सत्ता के बिना संभव है? क्या समाज की अपनी भी कोई शक्ति है या वह राजनीति से ही नियंत्रित होता है ? ऐसे अनेक प्रश्न चिंतनशील व्यक्तियों को मथते रहते हैं। ऐसे में एक संगठन जो सौ साल की आयु पूरी करने जा रहा है, उसके लिए राजनीति और सत्ता के मायने क्या हैं? सत्ता राजनीति उसे कितनी कम या ज्यादा रास आती है। लोकतंत्र में बदलाव की राजनीति और सत्ता की राजनीति के विमर्शों में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ कहां खड़ा है। यह विचार जरूरी हो जाता है। संघ ऐसा संगठन बन चुका है, जिसने समाज जीवन के हर क्षेत्र में अपनी उपस्थिति दर्ज कराई है। उसके स्वयंसेवकों के उजले पदचिन्ह हर क्षेत्र में सफलता के मानक बन गए हैं। स्वयं को सांस्कृतिक संगठन बताने वाले संघ का मूल कार्य और केंद्र दैनिक शाखाहै, किंतु अब वह सत्ता-व्यवस्था में गहराई तक अपनी वैचारिक और सांगठनिक छाप छोड़ चुका है।

     संघ के संस्थापक और प्रथम सरसंघचालक का सपना तो राष्ट्रीय चेतना का जागरण, सांस्कृतिक एकता का बोध और सालों की गुलामी के उपजे आत्मदैन्य को हटाकर हिंदू समाज की शक्ति को पुनः प्रतिष्ठित करना था। इस दौर में डा. केशवराम बलिराम हेडगेवार ने ऐसे संगठन की परिकल्पना की, जो राष्ट्र को धर्म, भाषा, क्षेत्र से ऊपर उठाकर सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की भावना से जोड़े। संघ की शाखाएं उसकी कार्यप्रणाली की रीढ़ बनीं। प्रतिदिन कुछ समय एक निश्चित स्थान पर एकत्रित होकर शारीरिक, बौद्धिक और नैतिक प्रशिक्षण देना ही शाखा की आत्मा है। यह क्रमशः अनुशासित, राष्ट्रनिष्ठ और संस्कारित कार्यकर्ताओं का निर्माण करता है, जिन्हें 'स्वयंसेवक' कहा जाता है। संघ ने व्यक्ति निर्माण के माध्यम से राष्ट्र निर्माण" की अवधारणा को अपनाया है। इस प्रक्रिया में उसका जोर 'चरित्र निर्माण' और 'कर्तव्यपरायणता' पर होता है। ऐसे में विविध वर्गों तक पहुंचने के लिए संघ के विविध संगठन सामने आए जो अलग-अलग क्षेत्रों में सक्रिय हुए किंतु उनका मूल उद्देश्य राष्ट्र की चिति का जागरण और राष्ट्र निर्माण ही है। आप देखें तो संघ ने राजनीति और सत्ता के शिखरों पर बैठे लोगों से हमेशा संवाद बनाए रखा। राजनीति के महापुरुषों से भी संवाद रखा। आप देखें तो राष्ट्रपिता महात्मा गांधी,बाबा साहब भीमराव आंबेडकर, जयप्रकाश नारायण, पं. जवाहरलाल नेहरू  से लेकर श्रीमती इंदिरा गांधी तक संघ का संवाद सबसे रहा। अपनी बातों को रखना और उस पर दृढ़ता से डटे रहना संघ का मूल स्वभाव है। संघ सत्ता राजनीति से संवाद रखते हुए भी सत्ता मोह से कभी ग्रस्त नहीं रहा। 1951 में श्यामा प्रसाद मुखर्जी द्वारा जनसंघ की स्थापना में संघ का सक्रिय सहयोग था। इस पार्टी का सहयोग संघ द्वारा प्रशिक्षित अनेक प्रचारकों द्वारा किया गया। 1980 में जब भाजपा बनी, तो संघ के कई वरिष्ठ कार्यकर्ता उसमें शामिल हुए। संघ ने अपने अनेक प्रचारक और कार्यकर्ता पार्टी में भेजे और उन्हें स्वतंत्रता दी। सत्ता राजनीति में भी राष्ट्रीय भाव प्रखर हो,यही धारणा रही। एक समय था जब संघ पर गांधी हत्या के झूठे आरोप में प्रतिबंध लगाकर स्वयंसेवकों को प्रताड़ित किया जा रहा था,किंतु संघ की बात रखने वाला कोई राजनीति में नहीं था। सत्ता की प्रताड़ना सहते हुए भी संघ ने अपने संयम को बनाए रखा और झूठे आरोपों के आधार पर लगा प्रतिबंध हटा।

   चीन युद्ध के बाद इसी संवाद और देश भक्ति पूर्ण आचरण के लिए उसी सत्ता ने संघ को 1963 के गणतंत्र दिवस की परेड में आमंत्रित किया। भारतीय मजदूर संघ के कार्यकर्ता रहे कृष्णलाल पठेला बताते हैं-स्वयंसेवकों की 1962 के युद्ध में उल्लेखनीय भूमिका को देखते हुए ही 1963 की गणतंत्र दिवस परेड में संघ को अपना जत्था भेजने के लिए आमंत्रित किया गया था। मुझे याद है, मैं भी उस जत्थे में शामिल था और जब संघ का जत्था राजपथ पर निकला था तब वहां मौजूद नागरिकों ने देर तक तालियां बजाई थीं। जहां तक मुझे याद है, उस जत्थे में 600 स्वयंसेवक पूर्ण गणवेश में शामिल हुए थे।

    संघ ने समाज जीवन के हर क्षेत्र में स्वयंसेवकों को जाने के लिए प्रेरित किया। किंतु अपनी भूमिका व्यक्ति निर्माण और मार्गदर्शन तक सीमित रखी। सक्रिय राजनीति के दैनिक उपक्रमों में शामिल न होकर समाज का संवर्धन और उसके एकत्रीकरण पर संघ की दृष्टि रही। इस तरह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ आज केवल एक संगठन नहीं, बल्कि एक वैचारिक परंपरा है। उसने भारतीय समाज में अनुशासन, संगठन और सांस्कृतिक चेतना का पुनर्जागरण किया है। सत्ता से उसका संवाद हमेशा रहा है और उसके पदाधिकारी राजनीतिक दलों से संपर्क में रहे हैं। इंदिरा गांधी से भी तत्कालीन सरसंघचालक बालासाहब देवरस का संवाद रहा है। उनका पत्र इसे बताता है। इस तरह देखें तो संघ किसी को अछूत नहीं मानता, उसकी भले ही व्यापक उपेक्षा हुई हो। संघ के अनेक प्रकल्पों और आयोजनों में विविध राजनीतिक दलों के लोग शामिल होते रहे हैं। इस तरह संघ एक जड़ संगठन नहीं है, बल्कि समाज जीवन के हर प्रवाह से सतत संवाद और उस पर नजर रखते हुए उसके राष्ट्रीय योगदान को संघ स्वीकार करता है। इस तरह सेवा, समर्पण ही संघ का मूल मंत्र है।

  संघ की प्रेरणा से उसके स्वयंसेवकों ने अनेक स्वतंत्र संगठन स्थापित किए हैं। उनमें भाजपा भी है। इन संगठनों में आपसी संवाद और समन्वय की व्यवस्था भी है किंतु नियंत्रित करने का भाव नहीं है। सभी स्वयं में स्वायत्त और अपनी व्यवस्थाओं में आत्मनिर्भर हैं। यह संवाद विचारधारा के आधार पर चलता है। समान मुद्दों पर समान निर्णय और कार्ययोजना भी बनती है। 1951 में जनसंघ की स्थापना के समय ही संघ के कई स्वयंसेवक जैसे पं.दीनदयाल उपाध्याय, अटलबिहारी वाजपेयी, नानाजी देशमुख जैसे लोग शामिल थे।1977 में जनसंघ का जनता पार्टी में विलय हुआ, लेकिन आपसी मतभेदों और दोहरी सदस्यता के सवाल पर उपजे विवाद के कारण यह प्रयोग असफल रहा। 1980 में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के रूप में एक नए राजनीतिक दल का जन्म हुआ, जिसमें संघ प्रेरित वैचारिक नींव और सांगठनिक समर्थन मजबूत रूप से विद्यमान था।

   संघ ने सत्ता या राजनीतिक दलों के सहयोग से बदलाव के बजाए, व्यक्ति को केंद्र में रखा है। संघ का मानना है कि कोई बदलाव तभी सार्थक होता है, जब लोग इसके लिए तैयार हों। इसलिए संघ के स्वयंसेवक गाते हैं-

केवल सत्ता से मत करना परिवर्तन की आस।
जागृत जनता के केन्द्रों से होगा अमर समाज।

सामाजिक शक्ति का जागरण करते हुए उन्हें बदलाव के अभियानों का हिस्सा बनाना संघ का उद्देश्य रहा है। चुनाव के समय मतदान प्रतिशत बढ़ाने और नागरिकों की सक्रिय भूमिका को सुनिश्चित करने के लिए मतदाता जागरण अभियान इसका उदाहरण है। लोकतंत्र को सशक्त बनाते हुए नागरिकों की सहभागिता सुनिश्चित करना एक बड़ा काम है। राजनीति में प्रसिद्धि एक अनिवार्य विषय है। नेता अपने स्वागत, सम्मान के लिए बहुत से इंतजाम करते हैं। संघ इस प्रवृत्ति को पहले पहचान कर अपने स्वयंसेवकों को प्रसिद्धिपरांगमुखता का पाठ पढ़ाता आया है। ताकि काम की चर्चा हो नाम की न हो। स्वयंसेवक गीत गाते हैं-

वृत्तपत्र में नाम छपेगा, पहनूंगा स्वागत समुहार।

छोड़ चलो यह क्षुद्र भावना, हिन्दू राष्ट्र के तारणहार।।

सही मायनों में सार्वजनिक जीवन में रहते हुए यह बहुत कठिन संकल्प हैं। लेकिन संघ की कार्यपद्धति ऐसी है कि उसने इसे साध लिया है। संचार और संवाद की दुनिया में बेहद आत्मीय, व्यक्तिगत संवाद ही संघ की शैली है। जहां व्यक्ति से व्यक्ति का संपर्क सबसे प्रभावी और स्वीकार्य है। इसमें दो राय नहीं कि इन सौ सालों में संघ के अनेक स्वयंसेवक समाज में प्रभावी स्थिति में पहुंचें तो अनेक सत्ता के शिखरों तक भी पहुंचे। अटलबिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवानी और नरेंद्र मोदी इसमें शिखर तक पहुंचे लोग हैं। इसके अलावा एक लंबी श्रृंखला है जिनकी प्रेरणा संघ है। जिनके जीवन में भी संघ है। संघ का प्रशिक्षण न केवल वैचारिक स्पष्टता देता है, बल्कि संगठनात्मक अनुशासन, जनसंपर्क कौशल और सेवा भाव भी समाहित करता है। यही कारण है कि संघ से निकले नेता राजनीतिक दृष्टि से अधिक प्रभावशाली, अनुशासित और संगठन-निष्ठ होते हैं। संघ के स्वयंसेवकों के सक्रिय सहभाग से समाज जीवन के हर क्षेत्र में अब नीतियों के निर्माण और क्रियान्वयन में परिर्वतन दिखने लगा है। इसे बदलाव की राजनीति कहते हैं। जबकि सत्ता राजनीति के मार्ग अलहदा हैं। स्वदेशी, आत्मनिर्भरता, धार्मिक-सांस्कृतिक पुनर्जागरण और राष्ट्रवाद जैसे विषय संघ के लंबे समय से पोषित विचार रहे हैं, जिन्हें अब सरकारी नीतियों में प्राथमिकता मिलती दिखती है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति, राम मंदिर निर्माण, अनुच्छेद 370 हटाना, और समान नागरिक संहिता जैसे निर्णय संघ की वैचारिक दिशा को ही प्रकट करते हैं। इसमें कई कार्य लंबे आंदोलन के बाद संभव हुए। लोकजागरण की यह शैली संघ का लोकसंपर्क भी बताती है। किसी विषय को समाज में ले जाना और उसे स्थापित करना। फिर सरकारों के द्वारा उस पर पहल करना। लोकतंत्र को सशक्त करती यह परंपरा संघ ने अपने विविध संगठनों के साथ मिलकर स्थापित की है। संघ की प्रतिनिधि सभाओं में विविध मुद्दों पर पास प्रस्ताव बताते हैं कि संघ की राष्ट्र की ओर देखने की दृष्टि क्या है। ये प्रस्ताव हमारे समय के संकटों पर राष्ट्रीय दृष्टिकोण रखते हुए राह भी बताते हैं। अनेक बार संघ पर यह आरोप लगते हैं कि वह राजनीति को नियंत्रित करना चाहता है। किंतु विरोधी इसके प्रमाण नहीं देते। संघ का विषय प्रेरणा और मार्गदर्शन तक सीमित है। संघ की पूरी कार्यशैली में संवाद,संदेश और सुझाव ही हैं, चाहे वह सरकार किसी की भी हो। अपने वैचारिक हस्तक्षेप, प्रतिनिधि सभा के प्रस्तावों और सकारात्मक कार्यक्रमों के माध्यम से संघ ने समाज की बातों को ही सत्ता प्रतिष्ठानों के सामने रखा है। जिनमें कई बार सकारात्मक उत्तर आते हैं, तो कई बार कुछ मुद्दे उपेक्षित हो जाते हैं। भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व में संघ के स्वयंसेवकों की संख्या काफी है। जाहिर है भाजपा की सरकारों से स्वयंसेवकों की अपेक्षाएं भी ज्यादा रहती हैं। किंतु सरकारों के दैनिक कार्य में हस्तक्षेप के बजाए संघ सिर्फ वैचारिक और राष्ट्रहित के मुद्दों पर अपनी बात सार्वजनिक रूप से रखता है। कई बार शासकीय स्तर पर, नीतियों के स्तर पर उन्हें सुना भी जाता है। इसे सत्ता पर दबाव के बजाए प्रेरणा और परस्पर सहमति के रूप में देखा जाना चाहिए।

  संघ राजनीति में आदर्शवादी कैडर और संस्कारी नेतृत्व का निर्माण करता हुआ दिखता है। उसकी विचारधारा राष्ट्रवादी,अनुशासित और निःस्वार्थ सेवा पर आधारित है। सत्ता में उसके स्वयंसेवकों के रहते हुए भी संघ का जोर सामाजिक सेवा, पारिवारिक मूल्यों और सांस्कृतिक पुनरुत्थान पर रहता है। अनेक मुद्दों पर जैसे आर्थिक नीति, उदारवादी वैश्वीकरण की दिशा पर संघ ने हमेशा अपनी अलग राय व्यक्त की है। संघ इस तरह सत्ता राजनीति की मजबूरियों को समझते हुए भी उनकी हर बात से सहमत नहीं है। इसमें दो राय नहीं कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने भारतीय राजनीति में एक वैकल्पिक वैचारिक धारा का निर्माण किया है। उसने हिंदुत्व आधारित राष्ट्रीय भाव को मुख्यधारा में स्थापित किया है और अपनी सांगठनिक शक्ति से भारतीय राजनीति को नई दिशा दी है। समाज की सज्जनशक्ति को एकत्र कर उनसे संवाद बनाते हुए लोकजागरण का काम भी किया है। एक जागृत समाज कैसे निष्क्रियता छोड़कर सजग और सक्रिय हस्तक्षेप करे, यह संघ के निरंतर प्रयास हैं। पंच परिवर्तन का संकल्प इसी को प्रकट करता है।

        संघ भले ही स्वयं राजनीति में न हो, पर राजनीति पर उसके विचारों का गहरा प्रभाव परिलक्षित होने लगा है। राजनीतिक दलों में भी संघ पर टीका करने की होड़ दिखती है। जबकि संघ अपने ऊपर लगने वाले निरंतर मिथ्या आरोपों पर भी प्रायः खामोश रहता है। क्योंकि राजनीति के द्वारा उठाए जा रहे प्रश्नों का उत्तर देकर वह घटिया राजनीति का हिस्सा नहीं बनना चाहता। आज समाज जीवन में भी संघ को जानने की भूख है। लोग संघ से जुड़कर भारत का भविष्य गढ़ना चाहते हैं। इसलिए एक वरिष्ठ पदाधिकारी कहते हैं-

भारत को जानो, भारत को मानो

भारत के बने, भारत को बनाओ।

   यह बदला हुआ समय संघ के लिए अवसर भी है और परीक्षा भी। उम्मीद की जानी कि संघ अपने शताब्दी वर्ष में ज्यादा सरोकारी भावों से भरकर सामाजिक समरसता, राष्ट्रबोध जैसे विषयों पर समाज में परिवर्तन की गति को तेज कर पाएगा। संघ के अनेक पदाधिकारी इसे ईश्वरीय कार्य मानते हैं।  जाहिर है उनके संकल्पों से भारत मां एक बार फिर जगद्गुरू के सिंहासन के विराजेगी, ऐसा विश्वास स्वयंसेवकों की संकल्प शक्ति को देखकर सहज ही होता है।