सोमवार, 25 नवंबर 2024

सजग इतिहासबोध की बानगी

 

-प्रो.संजय द्विवेदी



  अच्युतानंद मिश्र हिंदी के यशस्वी संपादक और पत्रकार हैं। आजादी के बाद की हिंदी पत्रकारिता के इतिहास को सहेजने, संरक्षित करने और उसके नायकों के योगदान को रेखांकित करने का उनका पुरूषार्थ विरल है। माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल के कुलपति रहते हुए उन्होंने स्वतंत्र भारत की हिंदी पत्रकारिता पर शोधकार्य का बीड़ा उठाया, जिसके चलते अनेक चीजें प्रकाश में आ सकीं। स्वतंत्र भारत की पत्रकारिता पर शोध परियोजना के माध्यम से उन्होंने देश भर के पत्रकारों,संपादकों और शोधकर्ताओं को विश्वविद्यालय से जोड़ा। उनकी शोध परक दृष्टि और कुशल संपादन क्षमता से शोध परियोजना को बहुत लाभ हुआ। इस दौरान अनेक विशिष्ठ आयोजनों के माध्यम से देश की श्रेष्ठतम बौद्धिक विभूतियों का विश्वविद्यालय में आगमन हुआ। शोध परियोजना के तहत देश भर में बौद्धिक आयोजन भी हुए। इन गतिविधियों से विश्वविद्यालय अपनी राष्ट्रीय पहचान बनाने में सफल रहा। यह हमारे तत्कालीन कुलपति अच्युतानंद जी के निजी संपर्कों और औदार्य के चलते हो पाया। यह साधारण नहीं है कि इस परियोजना में 80 से अधिक पुस्तकों और मोनोग्राफ का प्रकाशन हुआ। अपने इस कार्य को मिश्र जी इतिहास संरक्षण का विनम्र प्रयास कहते हैं।

     शोध परियोजना के तहत ही चार खंडों में प्रकाशित पुस्तक हिंदी के प्रमुख समाचारपत्र और पत्रिकाएंभी अच्युतानंद जी के संपादन में प्रकाशित हुई। चार खंडों में छपी इस किताब में अच्युतानंद जी की विलक्षण संपादकीय दृष्टि का परिचय मिलता है। इस किताब के बहाने हम हिंदी पत्रकारिता के उजले इतिहास से परिचित होते हैं। अच्युतानंद मिश्र विलक्षण संपादक हैं। चीजों को देखने और मूल्यांकन करने की उनकी दृष्टि विरल है। अपनी संपादन कला में माहिर संपादक जब आजाद भारत की हिंदी पत्रकारिता के योगदान को रेखांकित करने के लिए आगे आता है तो उसके द्वारा चयनित प्रतिनिधि पत्रों, पत्रिकाओं का चयन बहुत खास हो जाता है। इसके साथ ही वे ऐसे लेखकों का चुनाव करते हैं जो विषय के साथ न्याय कर सकें।

प्रथम खंड-

   पहले खंड में वे साप्ताहिक हिंदुस्तान, धर्मयुग, दिनमान और रविवार का चयन करते हैं। जाहिर तौर पर ये चार प्रतिनिधि पत्रिकाएं हमारे तत्कालीन समय का न सिर्फ इतिहास लिखती हैं, बल्कि हिंदी समाज के बौद्धिक विकास में, चेतना के स्तर पर उन्हें समृद्ध करने में इनका बहुत बड़ा योगदान है। हिंदी समाज की निर्मिति में इन पत्रिकाओं का योगदान रेखांकित किया जाना शेष है। आजादी के बाद की पत्रकारिता की ये चार पत्रिकाएं न सिर्फ मानक बनीं, वरन अपनी संपादकीय दृष्टि, प्रस्तुति, कलेवर और भाषा के लिए भी याद की जाती हैं। व्यापक प्रसार और हिंदी समाज के मन और चेतना की समझ से निकली ये पत्रिकाएं पत्रकारिता का उजला इतिहास हैं।  ये बताती हैं कि कैसे हिंदी पत्रकारिता ने अपने बौद्धिक तेज और तेवरों से अंग्रेजी पत्रकारिता के समतुल्य आदर प्राप्त किया। इन पत्रिकाओं के यशस्वी संपादकों ने जो योगदान किया, उससे हिंदी पत्रकारिता आज भी प्रेरणा ले रही है।

    हिंदी के वरिष्ठ पत्रकार, कभी कादम्बिनी के संपादक मंडल में रहे संत समीर ने अपने विस्तृत लेख में साप्ताहिक हिंदुस्तान के महत्वपूर्ण अवदान को रेखांकित किया है। गांधी जयंती, 2 अक्टूबर, 1950 को गांधी अंक के साथ साप्ताहिक हिंदुस्तान की यात्रा का शुभारंभ होता है। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के पुत्र देवदास गांधी इस पत्रिका के प्रकाशन के मूल में थे। उस समय वे हिंदुस्तान समूह के प्रबंध निदेशक थे। वे चाहते थे कि हिंदी में एक ऐसी पत्रिका प्रकाशित हो जो स्पष्ट गांधीवादी नीति, उच्च पारिवारिक आदर्श, मानवीय मूल्यों की स्थापना के साथ शुद्ध,सरल सारगर्भित भाषा में छपे। आजादी के आंदोलन से निकले तपस्वी राजनेताओं की छाया में पत्रकारिता का भी विकास हो रहा था। पत्रकारिता उस समय तक प्रायः राष्ट्र के नवनिर्माण में अपनी भूमिका भी देख रही थी। साप्ताहिक हिंदुस्तान के राष्ट्रीय नवनिर्माण विशेषांकों को इसी दृष्टि से देखा जा सकता है। संत समीर ने बड़ी कुशलता उस मनोविज्ञान का वर्णन किया है। जो आजादी के बाद की पत्रकारिता का भावभूमि बना।  समीर लिखते हैं यह दौर संपादकों की हस्ती का था। प्रकाशन संपादकों के नाम से पहचाने जाते थे। पत्रकारिता बाजार के दबावों से मुक्त थी और विचार पर केंद्रित थी। साहित्य और पत्रकारिता  प्रायः एक मंच पर थे, जाहिर है लेखक संपादकों का यह समय हिंदी पत्रकारिता का साहित्य से भी सेतु बनाए रखता था। जो सिर्फ पत्रकारिता में थे वे साहित्यिक संस्कारों से संयुक्त थे। निश्चय ही भाषा उसमें बहुत खास थी। उसका सही प्रयोग और विकास सबके ध्यान में था। पत्रिका के प्रथम संपादक मुकुट बिहारी वर्मा रहे, जो संस्थान के हिंदी अखबार दैनिक हिंदुस्तान के भी संपादक थे। बाद में बांकें बिहारी भटनागर को संपादन का दायित्व मिला। वे 1953 से 1666 तक संपादक रहे। फिर कुछ समय गोविंद केजरीवाल ने अस्थाई तौर पर काम देखा और फिर रामांनद दोषी लगभग एक साल संपादक रहे। साप्ताहिक हिंदुस्तान के संपादक के रूप में सबसे लंबा कार्यकाल मनोहर श्याम जोशी का था। उन्होंने इसे विविध प्रयोगों से एक शानदार पत्रिका में बदल दिया। फिर शीला झुनझुनवाला, राजेंद्र अवस्थी और मृणाल पाण्डेय को भी संपादक बनने का अवसर मिला। पत्रिका के बंद होने पर मृणाल जी इसकी संपादक थीं। साप्ताहिक हिंदुस्तान की समूची यात्रा गांधीवादी विचारों के संवाहक की रही। मनोहर श्याम जोशी का कार्यकाल इसका उत्कर्ष काल रहा जिसमें उसे बहुत लोकप्रियता मिली। अपने अनेक विशेषांकों से भी पत्रिका खासा चर्चा में रहीं जिनमें टालस्टाय अंक, अंतराष्ट्रीय कहानी विशेषांक, फिल्म विशेषांक, विश्व सिनेमा अंक की खासी चर्चा रहे। माना जाता है कि 60 से 70का दशक इस पत्रिका का सर्वश्रेष्ठ समय रहा है और बाद में बाजारवाद और अन्य कारणों से पत्रिका का प्रकाशन बंद हो गया। बताया जाता है कि जोशी जी के संपादन काल में पत्रिका के अंक डेढ़ पौने दो लाख तक छपे और विशेषांक तीन लाख तक। किंतु ऐसी लोकप्रिय पत्रिका का बंद होना हिंदी जगत की बहुत बड़ी बौद्धिक हानि थी इसमें दो राय नहीं।

     धर्मयुग का नाम लेते ही परंपरा और आधुनिकता से जुड़े एक ऐसे प्रकाशन की स्मृति कौंध जाती है, जिसने समय की शिला पर जो लिखा वह अमिट है। अपने यशस्वी संपादक धर्मवीर भारती और उनकी टीम ने जो रचा और जो प्रस्तुत किया, वह अप्रतिम है। आलोच्य पुस्तक में श्री सुधांशु मिश्र ने बहुत गंभीरता के साथ धर्मयुग की यात्रा और भावभूमि का अध्ययन प्रस्तुत किया है। इस यात्रा से गुजरते हुए अद्भुत अनुभूति होती है कि किस तरह एक पत्रिका समाज की आवाज और जरूरत बन जाती है। इस खंड में पत्रिका के इतिहास विकास से लेकर उसके प्रदेय पर बहुत सार्थक चर्चा की गयी है। देश की आजादी के साथ ही हुए इस पत्रिका के प्रकाशन ने हिंदी समाज में क्रांति ला दी। हिंदी के विकास और उसे नए विषयों के साथ संवाद की क्षमता दी। पत्रिका के दिग्गज संपादकों ने हिंदी को सरोकारी पत्रकारिता का अहसास कराया। समाज जीवन के हर पक्ष पर सामग्री का प्रकाशन करते हुए यह एक संपूर्ण पत्रिका की तरह सामने आई। साहित्य और संस्कृति पत्रिका का मूल स्वर रहा।1960 से 1987तक इसके संपादक रहे धर्मवीर भारती की साहित्यिक प्रतिभा से सभी परिचित हैं। किंतु एक पत्रकार और संपादक के नाते उन्होंने जो किया वह स्वर्णिम इतिहास है। वे और धर्मयुग पर्याय ही हो गए। बाद में गणेश मंत्री पत्रिका के संपादक बने। हालांकि संपादक के रूप में प्रारंभ में प्रतीश नंदी का नाम जाता था। मंत्री जी का नाम कार्यवाहक संपादक के नाते जाता रहा। 1987 के अंत में वे इसके संपादक बने। किंतु बदली हुई परिस्थियों,बाजारवाद और नए समय में बहुत बेहतर करने के बाद भी धर्मयुग साप्ताहिक से पाक्षिक हुआ और उसका आकार भी घटा। धर्मयुग ने पाठकों के साथ-साथ लेखकों का भी एक नया संसार खड़ा किया। अनेक लेखकों को मंच और ख्याति यहां से मिली। चार दशकों तक हिंदी समाज पर इस पत्रिका की उपस्थिति बनी रही।

    संपादक श्री अच्युतानंद मिश्र ने दिनमान के खंड के अध्ययन का काम दिल्ली के चर्चित पत्रकार श्री उमेश चतुर्वेदी और मप्र के पत्रकार श्री सुधांशु मिश्र को सौंपा। जाहिर है हिंदी में वैचारिक पत्रकारिता का ध्वज ऊंचा करने का काम दिनमान ने किया। यशस्वी साहित्यकार सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय की परिकल्पना से बनी यह पत्रिका अपनी खास प्रवृत्तियों के लिए भी पहचानी गयी। अज्ञेय जी ने जो टीम दिनमान के लिए चुनी वह हिंदी पत्रकारिता की आदर्श टीम कही जा सकती है। विविध धाराओं और विशेषताओं के पत्रकार, साहित्यकार, कवि इस टीम का हिस्सा बने। जिनमें रघुवीर सहाय, मनोहर श्याम जोशी, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, श्रीकांत वर्मा,त्रिलोक दीप, जवाहरलाल कौल जैसे हिंदी पत्रकारिता के नायक शामिल थे। दिनमान का ध्येय वाक्य था राष्ट्र की भाषा में राष्ट्र का आह्वान  टाइम्स समूह की मालकिन रमा जैन की कल्पना टाइम जैसी विचार प्रधान पत्रिका निकालने का था। उसी संकल्पना से दिनमान की शुरूआत हुई। हालांकि पत्रिका के 28 फरवरी,1965 के अंक में छपी संपादक की टिप्पणी कहती है- ...दिनमान के लिए टाइम नमूना नहीं है। हां, समाचार संग्रह के लिए जितना बड़ा संगठन दिनमान कर सकेगा, करेगा।दिनमान जिंदगी के हर रूप को छूनेवाला बने अज्ञेय जी ने इसकी कोशिश की। बाद में रघुवीर सहाय इसके संपादक बने। वे 13 साल इसके संपादक रहे। बाद में कन्हैयालाल नंदन,सतीश झा, घनश्याम पंकज  भी इसके संपादक रहे। बाद में यह पत्र दिनमान टाइम्स के नाम से निकला और बाद में बंद हो गया। दिनमान की आरंभिक टीम में साहित्यकार ज्यादा थे। इसका असर उसके कथ्य और भाषा पर भी दिखता है। वैचारिकता के साथ उदारवादी और मानवीय चेहरा इसकी पहचान बना। पत्रकारों की एक पूरी पीढ़ी के निर्माण का श्रेय इस पत्रिका को जाता है। यह भी कहा जाता है कि दिनमान एक ऐसी पत्रिका बन पाई जो अंग्रेजी पत्रकारिता के बरक्स शान से खड़ी हो पाई।

      संपादक श्री अच्युतानंद मिश्र ने अपने समय की महत्वपूर्ण पत्रिका रविवार के अध्ययन का काम सुधांशु मिश्र को सौंपा। पुस्तक के अंतिम अध्याय में रविवार के इतिहास विकास और योगदान की गंभीर चर्चा की गयी है। पत्रिका के उद्भव और विकास के खंड में बताया गया है कि इसके प्रथम संपादक एमजे अकबर बने और पत्रिका का प्रकाशन 28 अगस्त, 1977 को प्रारंभ हुआ। आनंद बाजार समूह की इस पत्रिका ने बहुत कम समय में हिंदी जगत में अपनी खास जगह बना ली। प्रकाशन के आठ माह बाद सुरेंद्र प्रताप सिंह इसके संपादक बने। वे सात साल संपादक रहे। फिर उदयन शर्मा और विजित कुमार बसु इसके क्रमशः संपादक और कार्यवाहक संपादक बने और अंततः 22 अक्टूबर,1989 को इसका प्रकाशन बंद कर दिया गया। पत्रिका देश में हो रहे राजनीतिक परिर्वतनों की साक्षी बनी और इसका मूल स्वर राजनैतिक ही रहा। तेवरों भरी राजनीतिक रिपोर्ताज इसकी पहचान बने। इसके साथ ही प्रादेशिक राजनीति, नक्सल संकट,दस्यु समस्या और सांप्रदायिक मुद्दों पर भी इसकी रिपोर्ट सराही गयी। अंतराष्ट्रीय विषयों के साथ-साथ, राजनीति में योगियों और तांत्रिकों की छाया के बारे में भी काफी कुछ छपा। आपातकाल के बाद की राजनीति और समाज को इस पत्रिका ने बहुत गंभीरता से रेखांकित किया।

पुस्तक का द्वितीय खंड –

पुस्तक के द्वितीय खंड में आज, हिंदुस्तान, दैनिक नवज्योति और नवभारत जैसे चार दैनिक अखबारों की चर्चा की गयी है। यह चार अखबार हिंदी पट्टी के न सिर्फ नामवर अखबार हैं बल्कि इनमें आजादी के पहले और बाद का भी इतिहास दर्ज है। इस खंड में आज के बारे में डा. धीरेंद्रनाथ सिंह(अब स्वर्गीय), हिंदुस्तान के बारे में संत समीर, दैनिक नवज्योति के बारे में सत्यनारायण जोशी और नवभारत के बारे में मनोज कुमार ने बहुत बेहतर तरीके से शोधपरक सामग्री प्रस्तुत की है। आज के उद्भव और विकास के अध्याय में बताया गया है कि राष्ट्ररत्न श्री शिवप्रसाद गुप्त ने अपनी ब्रिटेन यात्रा के दौरान लंदन टाइम्स का कार्यालय देखा और वैसा ही अखबार भारत से निकालने का संकल्प लिया। यह भारत का एक ऐसा अखबार था जिसके विदेशों में भी प्रतिनिधि थे। आज राष्ट्रीय आंदोलन से जुड़ा हुआ था। इसके यशस्वी संपादक बाबूराव विष्णुराव पराड़कर हिंदी के उन्नायकों में हैं। उनके संपादकीय नेतृत्व से भाषा का बहुत विकास हुआ, हिंदी आत्मनिर्भर बनी। पराड़कर जी के बाद इसके यशस्वी संपादकों में संपूर्णानंद जी, कमलापति शास्त्री, विद्याभास्कर, कालिका प्रसाद,श्रीकांत ठाकुर विद्यालंकार, रामकृष्ण रघुनाथ खाडिलकर जैसे लोग रहे। जिन पर सारा हिंदी समाज गर्व करता है। यह एक संपूर्ण अखबार था जिसने स्थानीयता विकास और राष्ट्रीयता का विमर्श साथ में चलाया।

   दूसरे चयनित पत्र हिंदुस्तान के बारे में संत समीर ने विस्तार से वर्णन किया है। 12 अप्रैल,1936 को इस अखबार का प्रकाशन हुआ और जल्दी ही जनभावनाओं का आईना बन गया। यह पत्र भी राष्ट्रीय विचारों का संवाहक बना और आजादी की लड़ाई में सहयोगी रहा। कांग्रेस की विचारधारा से जुड़ा रहा यह पत्र विचारों की अलख जगाता रहा। इसे अनेक बार प्रतिबंधों का सामना करना पड़ा। इसके आद्य संपादक सत्यदेव विद्यालंकार रहे। आज यह पत्र काफी विस्तार कर उत्तर भारत के बहुत प्रसारित दैनिकों में शामिल हो चुका है। इसके यशस्वी संपादकों में मुकुट विहारी वर्मा, हरिकृष्ण त्रिवेदी, रतनलाल जोशी, चंद्रूलाल चंद्राकर, विनोद कुमार मिश्र, हरिनारायण निगम, मृणाल पाण्डेय, आलोक मेहता, अजय उपाध्याय के नाम उल्लेखनीय हैं। इन दिनों श्री शशि शेखर इसके संपादक हैं।

  राजस्थान के प्रमुख हिंदी दैनिक दैनिक नवज्योति पर सत्यनारायण जोशी ने अध्ययन प्रस्तुत किया है। 2 अक्टूबर,1936 को अजमेर से प्रकाशित  यह अखबार आज भी राजस्थान में एक प्रमुख उपस्थिति बनाए हुए है। अखबार ने अपने प्रकाशन के साथ ही सामंती शासन और अंग्रेजी सरकार दोनों को चुनौती दी। इस दौरान सरकार ने अपना दमन चक्र भी चलाया। इस तरह जनचेतना फैलाने और सामाजिक सरोकारों के प्रति सजगता के लिए यह पत्र ख्यात रहा है। कांग्रेस समर्थक पत्र होने के कारण इसका स्वतंत्रता आंदोलन से सीधी रिश्ता रहा। आदर्श, नीति और सिद्धांतों पर चलने वाले पत्रों में इसका हमेशा उल्लेख होगा।

  इसी क्रम में नवभारत समाचार पत्र का विशेष अध्ययन मनोज कुमार ने प्रस्तुत किया है। रामगोपाल माहेश्वरी इसके संस्थापक संपादक थे। 1938 में नागपुर से प्रारंभ हुआ यह पत्र आज भी महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश का प्रमुख अखबार है। अपने समय में इसकी ख्याति एक गांधीवादी विचारों के समाचार पत्र की रही है। कांग्रेस से भी इसका जुड़ाव स्पष्ट ही है। स्वतंत्रता संग्राम में भी इस समाचार पत्र की सकारात्मक भूमिका रही है। पुस्तक में बताया गया है कि पत्र की रीति न काहू से दोस्ती न काहू से बैर वाली रही है। आजादी के बाद इसका काफी विस्तार हुआ यह पत्र मध्यभारत की आवाज बन गया। नवभारत से अनेक प्रमुख संपादक और पत्रकार जुड़े रहे जिनके योगदान से यह अखबार शिखर पर पहुंचा। जिनमें कुंजबिहारी पाठक, मायाराम सुरजन, कालिका प्रसाद दीक्षित कुसुमाकर, गंगा पाठक, मधुप पाण्डेय, विष्णु, दाऊलाल साखी, ध्यानसिंह राजा तोमर, विजयदत्त श्रीधर, राजेंद्र नूतन, जगत पाठक, गिरीश मिश्र, श्याम वेताल, गोविंदलाल वोरा,बबनप्रसाद मिश्र, कमल दीक्षित,राकेश पाठक आदि प्रमुख हैं।  

 पुस्तक का तृतीय खंड-

 पुस्तक के तीसरे खंड में संपादक श्री अच्युतानंद मिश्र ने नवभारत टाइम्स, नईदुनिया, स्वतंत्र भारत, दैनिक जागरण और अमर उजाला चयन किया है। निश्चित तौर पर ये समाचार पत्र हिंदी पट्टी के ऐसे पत्र हैं जिनके बिना हिंदी पत्रकारिता का इतिहास अधूरा रहेगा। इन पांचों समाचार पत्रों के व्यापक प्रसार, विषय सामग्री और श्रेष्ठ संपादकों के नेतृत्व ने इन्हें खास बनाया है।

   बेनेट कोलमैन कंपनी के अखबार नवभारत टाइम्स की विकास यात्रा और उसके प्रदेय पर अमरेंद्रकुमार राय ने अध्ययन किया है। पहले यह अखबार नवभारत नाम से निकला और बाद में यह नवभारत टाइम्स बना। इसके प्रथम संपादक सत्यदेव विद्यालंकार थे। बाद के दिनों में सुरेंद्र बालूपुरी, राणा जंगबहादुर सिंह,अक्षय कुमार जैन,सच्चिदानंद हीरानंद वात्सायन अज्ञेय,आनंद जैन, राजेंद्र माथुर,एसपी सिंह,विद्यानिवास मिश्र, सूर्यकांत बाली,रमेश चंद्र जैन, मधुसूदन आनंद जैसे दिग्गज संपादकों ने इसी दिशा दी और लोकप्रियता के शिखर तक पहुंचा दिया। विश्लेषण में कहा गया है कि अपने आरंभिक दिनों की तरह यह पत्र अब साहित्य संस्कृति का वाहक नहीं रहा। बल्कि बाजार की हवाओं ने इसके रूख में बहुत परिवर्तन किया है। अब यह तमाम उत्पादों की तरह एक उत्पाद है।

     इंदौर से छपकर राष्ट्रीय ख्याति पाने वाले नईदुनिया के बारे में श्री शिवअनुराग पटैरया ने अपना अध्ययन प्रस्तुत किया है। इस पत्र ने जो प्रतिष्ठा पाई वह आज भी इतिहास है। अपने दिग्गज संपादकों, श्रेष्ठ छाप-छपाई और प्रस्तुति, विषय वस्तु ने इसे राष्ट्रीय अखबारों के समतुल्य खड़ा कर दिया। 5 जून,1947 को सांध्य अखबार के तौर पर निकले इस अखबार के प्रधान संपादक थे कृष्णकांत व्यास और प्रकाशक थे कृष्णचंद्र मुद्गल। मुद्गल के हटने के बाद बाबू लाभचंद छजलानी के हाथ में इसकी कमान आई, साथ में नरेंद्र तिवारी और बसंतीलाल सेठिया भी जुड़ गए। इसके बाद से अखबार ने पीछे मुड़कर नहीं देखा। राहुल बारपुते, विष्णु चिंचालकर और रणवीर सक्सेना की त्रिमूर्ति ने अखबार का चेहरा बदलकर रख दिया। आधुनिक तकनीक, पाठकों से जीवंत रिश्ता, संपादकीय सामग्री की उत्कृष्ठता तीन कारणों ने अखबार को शिखर पहुंचा दिया। इस अखबार के संपादकों में राहुल बारपुते,अभय छजलानी, राजेंद्र माथुर ने इसे विविध प्रयोगों से राष्ट्रीय ख्याति दिलाई।

     कभी उत्तर प्रदेश के लोकप्रिय दैनिक रहे स्वतंत्र भारत के बारे में रजनीकांत वशिष्ठ ने अध्ययन प्रस्तुत किया है। इसमें अखबार के उत्कर्ष से अवसान  तक की गाथा को उन्होंने बहुत अच्छे से पिरोया है। अशोक जी जैसे दिग्गज संपादकों ने इस अखबार को संवारा और इसने लंबी यात्रा तय की। जयपुरिया से थापर और बाद में अनेक मालिकों के हाथों से गुजरते हुए यह अखबार अब बहुत दुर्बल अवस्था में है। राजनाथ सिंह, घनश्याम पंकज, ज्ञानेंद्र शर्मा जैसे दिग्गज इसके संपादक रहे।

  उत्तर प्रदेश के कानपुर शहर से 21 सितंबर,1947 को प्रकाशित हुए दैनिक जागरण की प्रगति यात्रा विस्मयकारी और निरंतर है। पुस्तक में इसका अध्ययन बच्चन सिंह ने प्रस्तुत किया है। यह समूह अपनी निर्भीकता, जनपक्षधरता और स्थानीय खबरों को महत्व देकर आगे बढ़ा। विस्तारवादी सोच ने इसे हिंदी का सबसे प्रसारित अखबार भी बना दिया है। यह सही मायने में एक संपूर्ण अखबार है जिसने अपने पाठकों को हमेशा केंद्र में रखा है। रंगीन साप्ताहिक परिशिष्ठों और तकनीकी के नए प्रयोगों से एक सुदर्शन अखबार की प्रस्तुति कैसी होनी चाहिए, प्रबंधन का ध्यान सदैव इस ओर रहा है। राष्ट्रीय विचारों और भारतीयता के प्रति समर्पित यह समाचार उत्तरभारत के पाठकों में बहुत लोकप्रिय है। अपने वैचारिक पृष्ठों और आग्रहों के लिए भी यह चर्चित रहा है।

   अमर उजाला, अपनी खास तरह की पत्रकारिता और संपादकीय परंपरा को उन्नत करने वाले समाचार पत्रों में एक है। इसका अध्ययन अभय प्रताप ने किया है। अमर उजाला ने अपने प्रकाशन के साथ ही अपनी आचार संहिता प्रस्तुत की और अपने मानक तय किए। यह किसी भी प्रकाशन के लिए बहुत महत्वपूर्ण है। अमर उजाला ने अपना व्यापक विस्तार किया  है और हिंदी के अग्रणी प्रकाशनों में शामिल है। एक व्यावसायिक पत्र होते भी अमर उजाला कुछ मूल्यों के साथ जुड़ा हुआ है। क्षेत्रीय पत्रकारिता का अग्रणी होने के साथ अमर उजाला को क्षेत्रीय पत्रकारिता के मूल्य विकसित करने चाहिए ऐसा सुझाव भी अध्ययनकर्ता ने दिया है।

   पुस्तक का चौथा खंड-

 पुस्तक के चौथे खंड में राजस्थान पत्रिका पर अचला मिश्र, युगधर्म पर अंजनी कुमार झा, दैनिक भास्कर पर सोमदत्त शास्त्री, देशबंधु पर डा. देवेशदत्त मिश्र, स्वदेश पर रामभुवन सिंह कुशवाह, और प्रभात खबर पर जेब अख्तर की टिप्पणी है। इस खंड में शामिल अखबारों का प्रभाव प्रमुख क्षेत्र मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़,राजस्थान और झारखंड रहा है। इन अखबारों ने पत्रकारिता की जो उजली परंपराएं स्थापित की उसने इन्हें राष्ट्रीय ख्याति दिलाई है। स्वदेश और युगधर्म तो राष्ट्रीय भावधारा के पोषक पत्र रहे। बहुत प्रसार न होने के बाद भी इनकी बात गंभीरता से सुनी जाती थी। इन समाचार पत्रों को असहमति के पक्ष की तरह भी देखा जाना चाहिए। तो वहीं दैनिक भास्कर, राजस्थान पत्रिका और प्रभात खबर ने अपने व्यापक प्रसार क्षेत्र से हिंदी पत्रकारिता का गौरव बढ़ाया। इस खंड में चयनित अखबार संपादक के व्यापक दृष्टिकोण के परिचायक हैं किस तरह हिंदी क्षेत्र के सामान्य अखबारों ने भी निरंतर चलते हुए अपना न सिर्फ सामाजिक आधार बढ़ाया बल्कि देश के एक बड़े भौगोलिक क्षेत्र को भी संबोधित कर रहे हैं। पुस्तक के चारों खंड आजादी के बाद हिंदी पट्टी में चली पत्रकारिता का विहंगावलोकन प्रस्तुत करते हैं। इन्हें पढ़ते हुए हमें न सिर्फ एक पूरी यात्रा समझ में आती है बल्कि हिंदी पत्रकारिता का आत्मसंघर्ष, संपादकों और प्रकाशकों की जिजीविषा भी दिखती है। इनमें ज्यादातर प्रकाशन बहुत सामान्य स्थितियों से प्रारंभ होकर बहुत बड़े प्रकाशन बने। टाइम्स और हिंदुस्तान टाइम्स समूहों के अखबारों और पत्रिकाओं की बात छोड़ दें तो ज्यादातर प्रकाशन सामान्य मध्यवर्गीय पत्रकारों या परिवारों द्वारा प्रारंभ किये गए, जिनके पास बहुत पूंजी लगाने को नहीं थी। वावजूद इसके उनका विस्तार हमें प्रेरित करता है। राजस्थान पत्रिका के संपादक- प्रकाशक कुलिश जी तो एक पत्रकार हैं और आज यह समूह देश का गौरव है  और अहिंदीभाषी इलाकों से भी अपने संस्करण प्रकाशित कर हिंदी सेवा में लगा है।

   हिंदी के प्रमुख समाचारपत्र और पत्रिकाएं का संपादन कर श्री अच्युतानंद मिश्र ने इतिहास के संरक्षण का काम तो किया ही है, वे इस बहाने हिंदी भाषी समाज में गौरवबोध भी भरते नजर आते हैं। अखबारों और पत्रिकाओं का चयन भी उन्होंने इस तरह से किया है जिससे समूची हिंदी पट्टी का पत्रकारीय स्वर और व्यक्तित्व सामने आता है। चारों खंडों का पाठ हमें हमारी जातीय स्मृति का बोध तो कराता ही है, भाषा के विकास में पत्रकारिता के योगदान को भी रेखांकित करता है। एक ओर जहां ऐसे पत्र हैं जिन्होंने विचार को आगे रखकर अपनी यात्रा की तो वहीं ऐसे पत्र भी हैं जिन्होंने आक्रामण विपणन और मार्केटिंग रणनीतियों से हिंदी का बाजार व्यापक किया। हिंदी की संभावनाओं को बहुज्ञात कराया।  हिंदी सिर्फ विचार, साहित्य, सूचना के बजाए बाजार में भी इसके चलते स्थापित होती नजर आई। पाठकीय रूचियों और पाठकों के मन का अखबार बनाने के तौर तरीके भी इस अध्ययन से सामने आते हैं। इनमें दैनिक जागरण, अमर उजाला, दैनिक भास्कर, हिंदुस्तान,पत्रिका ऐसे पत्र हैं जो आज  देश के प्रथम दस अखबारों की सूची में जगह बनाते हैं। जाहिर तौर पर यह अध्ययन हिंदी के आत्मविश्वास, हिंदी के आत्मसंघर्ष और उससे उपजी सफलताओं का दस्तावेज है। इसके लिए संपादक की विलक्षण दृष्टि, संतुलित चयन और अध्ययनकर्ता लेखकों का श्रम स्तुत्य है।

पुस्तक- हिंदी के प्रमुख समाचारपत्र और पत्रिकाएं(चार खंड)

संपादक- अच्युतानंद मिश्र

प्रकाशक-सामयिक प्रकाशन,दिल्ली-110002

मूल्यः 2000 रूपए(चार खंड)

 


बुधवार, 20 नवंबर 2024

अजातशत्रु अच्युतानंद

 

-प्रो.संजय द्विवेदी



         हमारे समय के बेहद महत्वपूर्ण संपादक, पत्रकार, लेखक, पत्रकार संगठनों के अगुआ, शिक्षाविद्आयोजनकर्ता, और सामाजिक कार्यकर्ता जैसी अच्युतानंद मिश्र की अनेक छवियां हैं। उनकी हर छवि न सिर्फ पूर्णता लिए हुए है, वरन् लोगों को जोड़ने वाली साबित हुयी है। उन्हें देखकर ऐसा लगता है कि मानव की सहज कमजोरियां भी उनके आसपास से होकर नहीं गुजरी हैं। राग-द्वेष और अपने- पराए के भेद से परे जैसी दुनिया उन्होंने रची है उसमें सबके लिए आदर है, प्यार है, सम्मान है और कुछ देने का भाव है। देश के आला अखबारों जनसत्ता, नवभारत टाइम्स, अमर उजाला, लोकमत समाचार के संपादक के नाते उन्हें हिंदी की दुनिया ने देखा और पढ़ा है। अपनी संपादन क्षमता और नेतृत्व क्षमता से उन्होंने जो किया वह हिंदी पत्रकारिता का बहुत उजला अध्याय है।

     2 दिसंबर,1937 को गाजीपुर के एक गांव में जन्मे श्री मिश्र पत्रकारों के संघर्षों की अगुवाई करते हुए संगठन को शक्ति देते रहे हैं तो एक शिक्षाविद् के रूप में माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय के कुलपति के नाते उन्होंने पत्रकारिता शिक्षा और शोध के क्षेत्र में नए आयाम गढ़े। स्वतंत्र भारत की पत्रकारिता पर शोध परियोजना के माध्यम से उन्होंने जो काम किया है वह आने वाली पीढियों के लिए एक मानक काम है, जिसके आगे चलकर और भी नए रास्ते निकलेंगें। लोगों को जोड़ना और उन्हें अपने प्रेम से सींचना, उनसे सीखने की चीज है। उनके जानने वाले लोगों से आप मिलें तो पता चलेगा कि आखिर अच्युतानंद मिश्र क्या हैं। वे कितनी धाराओं, कितने विचारों, कितने वादों और कितनी प्रतिबद्धताओं के बीच सम्मान पाते हैं कि व्यक्ति आश्चर्य से भर उठता है। उनका कवरेज एरिया बहुत व्यापक है, उनकी मित्रता में देश की राजनीति, मीडिया और साहित्य के शिखर पुरूष भी हैं तो बेहद सामान्य लोग और साधारण परिवेश से आए पत्रकार और छात्र भी।

         वे हर आयु के लोगों के बीच लोकप्रिय हैं। उनके परिधानों की तरह उनका मन, जीवन और परिवेश भी बहुत स्वच्छ है। यह व्यापक रेंज उन्होंने सिर्फ अपने खरे पन से बनाई है, ईमानदारी भरे रिश्तों से बनाई है। लोगों की सीमा से बाहर जाकर मदद करने का स्वभाव जहां उनकी संवेदनशीलता का परिचायक है, वहीं रिश्तों में ईमानदारी उनके खांटी मनुष्य होने की गवाही देती है। वे जैसे हैं, वैसे ही प्रस्तुत हुए हैं। इस बेहद चालाक और बनावटी समय में वे एक असली आदमी हैं। अपनी भद्रता से वे लोगों के मन, जीवन और परिवारों में जगह बनाते गए। खाने-खिलाने, पहनने-पहनाने के शौक ऐसे कि उनसे हमेशा रश्क हो जाए। जिंदगी कैसे जीनी चाहिए उनको देख कर सीखा जा सकता है। डायबिटीज है पर वे ही ऐसे हैं जो खुद न खाने के बावजूद आपके लिए एक-एक से मिठाईंयां पेश कर सकते हैं। उनका आतिथ्यभाव,स्वागतभाव, प्रेमभाव मिलकर एक अहोभाव रचते हैं।  

           वे मेरे विश्वविद्यालय कुलपति रहे हैं। किंतु इससे ज्यादा वे मेरे अभिभावक हैं। जीवन में एक आत्मीय उपस्थिति। माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय में आने के पहले उन्हें रायपुर के एक- दो आयोजनों में सुना था। जनसत्ता के माध्यम से उन्हें जानते भी थे। उनकी लेखनी से परिचय था। जनसत्ता उन दिनों स्टार अखबार था। उनका नाम उसमें प्रिंट लाइन में जाता था। जाहिर है हमारे लिए वे हीरो ही थे। एक दिन उन्हें अपने बास के नाते पाया। उनकी बहुत गहरी आत्मीयता और वात्सल्य के निकट से दर्शन हुए। हर व्यक्ति की चिंता और उसकी समस्याओं का समाधान कैसे हो सकता है, इसके रास्ते निकालना उनका स्वभाव रहा है। एक प्रशासक के रूप में भी वे बहुत सरल और लोकतांत्रिक चेतना के वाहक हैं। कुर्सी कभी उन पर नहीं बैठी, वे कुर्सी पर बैठै। उनके कार्यकाल में विश्वविद्यालय को अकादमिक ऊंचाई मिली। स्वतंत्र भारत की पत्रकारिता पर शोध परियोजना के माध्यम से उन्होंने देश भर के पत्रकारों,संपादकों और शोधकर्ताओं को विश्वविद्यालय से जोड़ा। इस महती योजना का दायित्व उन्होंने आदरणीय विजयदत्त श्रीधर जैसे मनीषी को सौंपा जो भोपाल के माधवराव सप्रे समाचार पत्र संग्रहालय के संस्थापक हैं। उनकी शोध परक दृष्टि और कुशल संपादन क्षमता से शोध परियोजना को बहुत लाभ हुआ। इस दौरान अनेक विशिष्ठ आयोजनों के माध्यम से देश की श्रेष्ठतम बौद्धिक विभूतियों का विश्वविद्यालय में आगमन हुआ।

         शोध परियोजना के तहत देश भर में बौद्धिक आयोजन भी हुए। इन गतिविधियों से विश्वविद्यालय अपनी राष्ट्रीय पहचान बनाने में सफल रहा। यह हमारे तत्कालीन कुलपति अच्युतानंद जी के निजी संपर्कों और औदार्य के चलते हो पाया। हमने महसूस किया कि नेतृत्व कैसे किसी संस्था को न सिर्फ सही दिशा दे सकता है बल्कि उसे अखिलभारतीय पहचान भी दिला सकता है। निश्चित ही ऐसे लोग किसी भी संस्था को बहुत ऊंचाई प्रदान करते हैं। जिस दौर में बौनों और अनुचरों की बन आई है, वहां ऐसे लोग हमें प्रेरित करते हैं। शायद इसीलिए मिश्रजी ने अपने उदार लोकतांत्रिक व्यवहार से अजातशत्रु की संज्ञा प्राप्त कर ली। अक्षरा के प्रधान संपादक,साहित्यकार श्री कैलाशचंद्र पंत लिखते हैं-अच्युतानंद मिश्र ने हिंदी भाषा और हिंदी पत्रकारिता की गरिमा के लिए लंबे समय तक वैचारिक संघर्ष को जीवित रखा। सही मायनों में वे पत्रकारिता और साहित्य का सेतुबंध बनाने वाले लोगों में एक हैं। हाल में आई उनकी किताब तीन श्रेष्ठ कवियों का हिंदी पत्रकारिता में अवदान इस बात की पुष्टि करती है। किस तरह उन्होंने साहित्य के साधकों की पत्रकारीय साधना को रेखांकित किया है। इस पुस्तक में वे हमारे समय के तीन महत्वपूर्ण संपादकों अज्ञेय, रघुवीर सहाय और धर्मवीर भारती के बहाने एक पूरी परंपरा को याद करते हैं। हिंदी साहित्य और पत्रकारिता किस तरह साथ-साथ चलते हुए समाज की वैचारिक और सूचनात्मक आवश्यकताओं की पूर्ति करते रहे हैं, इससे पता चलता है। उनकी यह किताब बहुत गहन अध्ययन के बाद लिखी गयी है। क्योंकि वे इस दौर के साक्षी और सहयात्री भी रहे हैं। हमारी पत्रकारिता और साहित्य के नायकों को इस तरह याद किया जाना बहुत महत्वपूर्ण है। इसी तरह उनकी किताब कुछ सपने कुछ संस्मरण हमारे समय अनेक ज्वलंत मुद्दों पर बात करती है। इस किताब में संकलित निबंध श्री मिश्र कै वैचारिक अवदान को सामने लाते हैं। इसके साथ ही अनेक महापुरुषों के संस्मरण भी हैं। इस किताब में मिश्र जी के निबंध पत्रकारिता की नई समझ के द्वार खोलते हैं। इसमें भाषा की चिंता है तो महानायकों की याद भी जो इस समय में हमारा संबल बन सकते हैं। मिश्र जी के लेखन में आशा जगाने वाले तत्व हैं। वे उत्साह जगाते हैं। परंपरा से जोड़ते हैं और दायित्वबोध कराते हैं। इस मायने में उनकी लेखनी कहीं निराशा के बीज नहीं बोती। ऐसी गहरी सकारात्मकता, संस्कार और परंपरा के माध्यम से वे लोकशिक्षण करते हैं।

    अच्युतानंद मिश्र जैसे नायकों का हमारे बीच में होना इस बात की गवाही है कि सब कुछ खत्म नहीं हुआ है। वे जहां भी रहे संस्कारों के बीच रोपते रहे, रिश्तों को सींचते रहे। किसी भी शहर में जाकर उस शहर के बुद्धिजीवियों, कलावंतों से मिलने वाले मिश्र जी एक परंपरा बनाते हैं। संपादकों को सिखाते हैं कि कैसे संचार की दुनिया के लोगों को समावेशी, कलाओं का पारखी और उदार होना चाहिए। इसलिए उनका होना सिर्फ उत्सव नहीं है, संस्कार भी है, बहुत गहरी जिम्मेदारी भी। वे कुछ कहकर नहीं, करके सिखाते हैं। शब्द की साधना, भाषा की सेवा, संवेदनशीलता की जो थाती वे हमें सौंप रहे हैं, उसे हमें आगे बढ़ाना है और इसमें कुछ जोड़ना भी है। इस बहुत कठिन उत्तराधिकार के लिए हमारी पीढ़ी को आगे आना ही होगा। उनकी दिखाई राह ही मूल्यनिष्ठ और राष्ट्रभाव की पत्रकारिता की धारा को जीवंत बनाए रख पाएगी।


बुधवार, 9 अक्टूबर 2024

क्षमा याचना सहित

 दिनांक 30 जुलाई,2024 को आफिशियल इंटलीजेंस और मीडिया के उलझे रिश्ते नामक लेख मैंने ब्लाग पर शेयर किया।  यह लेख फेमिनिज्म इन इंडिया नामक वेबसाइट पर आदरणीय पूजा राठी जी द्वारा लिखा गया था। यह मेरी ऐसी भूल है जिसके लिए अपने पाठकों और लेखक और साइट के संपादकों से मैं क्षमा मांगता हूं। भूल को स्वीकारना और भविष्य के लिए संकल्प लेना ही इसका उपाय है। मैं अपनी भूल, चूक और अपराध के लिए संपादकगण और लेखिका से क्षमा याचना करता हूं। भविष्य में मेरे द्वारा ऐसा कृत्य नहीं किया जाएगा। इसका संकल्प लेता हूं।


मूल लेख मैंने इस ब्लाग से हटा दिया है।


सादर

संजय द्विवेदी

मंगलवार, 30 जुलाई 2024

'सरस्वती प्रज्ञा सम्मान' से अलंकृत किए गए प्रो.संजय द्विवेदी



भोपाल। प्रख्यात मीडिया शिक्षक और लेखक प्रो.संजय द्विवेदी को 'सरस्वती प्रज्ञा सम्मान -2024' से सम्मानित किया गया है। उन्हें यह सम्मान भोपाल स्थित गांधी भवन में निर्दलीय प्रकाशन,जन संगठन दृष्टि की ओर से आयोजित समारोह में पद्मश्री से अलंकृत वरिष्ठ पत्रकार श्री विजयदत्त श्रीधर ने प्रदान किया। इस अवसर पर नव नालंदा महाविहार विश्वविद्यालय के प्रो.विजय कुमार कर्ण, गांधी भवन न्यास के सचिव दयाराम नामदेव, पत्रकार कैलाश आदमी, गांधीवादी विचारक आर के पालीवाल, प्रिंस अभिषेक अज्ञानी विशेष रूप से उपस्थित थे।

  प्रो.संजय द्विवेदी भारतीय जनसंचार संस्थान (आईआईएमसी) के पूर्व महानिदेशक हैं। वे माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल के प्रभारी कुलपति भी रह चुके हैं। उन्होंने अनेक महत्वपूर्ण समाचार पत्रों में संपादक के रूप में काम किया है। मीडिया और राजनीतिक संदर्भों पर उनकी 35 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। सक्रिय पत्रकार,लेखक और संपादक के रूप में उन्होंने अपनी पहचान बनाई है।

  इस अवसर पर अपने संबोधन में प्रो.द्विवेदी ने कहा हमारा मीडिया पश्चिमी मानकों पर खड़ा है, उसे भारतीय मूल्यों पर आधारित करने की आवश्यकता है। उन्होंने कहा कि समाज के सब क्षेत्रों की तरह मीडिया भी औपनिवेशिक विचारों से मुक्त नहीं हो सका है। हमें संचार, संवाद की भारतीय अवधारणा पर काम करते हुए लोक-मंगल को केंद्र में रखना होगा और संचार के भारतीय माडल बनाने होंगे। इसके लिए समाधानपरक पत्रकारिता का विचार प्रासंगिक हो सकता है। कार्यक्रम का संचालन विमल भंडारी ने किया।

जिम्मेदारियों को बढ़ाता है सम्मान : प्रो. संजय द्विवेदी


 -खुशी फॉउण्डेशन एवं दिशा एजुकेशनल सोसायटी के संयुक्त तत्वावधान में सेवा शिखर सम्मान समारोह आयोजित

- विभिन्न क्षेत्रों की महान विभूतियों को सम्मान से नवाजा गया 



लखनऊ 27 जुलाई  - खुशी फॉउण्डेशन और दिशा एजुकेशनल सोसायटी के संयुक्त तत्वावधान में शनिवार को बौद्ध शोध संस्थान, गोमतीनगर के सभागार में सेवा शिखर सम्मान समारोह-2024 आयोजित किया गया। समारोह की अध्यक्षता  भारतीय जनसंचार संस्थान के पूर्व महानिदेशक प्रो(डॉ ) संजय द्विवेदी ने की। 

प्रो. संजय द्विवेदी ने  कहा कि प्रतिभाओं के सम्मान से समाज में सकारात्मक चेतना पैदा होती है और लोग अच्छे कामों को करने हेतु प्रेरित होते हैं। उन्होंने कहा कि भारतीय परिवारों की शक्ति उनकी मूल्यनिष्ठा ही है। संस्कृति, संस्कार और परम्पराओं की रक्षा से ही भारत श्रेष्ठ बनेगा। खुशी समय जैसी संस्थाएं देश को जीवंत बनाए रखने में सहयोगी हैं। प्रो. (डॉ.) संजय द्विवेदी ने कहा कि सेवा के बदले में मिलने वाले सम्मान की ख़ुशी ही कुछ अलग होती है। यह सम्मान समाज के अन्य लोगों में सेवा भाव को जगाने का पुनीत कार्य करता है। प्रो. द्विवेदी ने इस भव्य आयोजन के लिए ख़ुशी फाउंडेशन और दिशा एजुकेशनल सोसायटी के प्रतिनिधियों का आभार जताया। इसके साथ ही समाज के कमजोर वर्ग के हित में किये जा रहे उनके कार्यों को सराहा। 

इस मौके पर बौद्ध शोध संश्तान के अध्यक्ष हरगोविंद बौद्ध ने कहा कि सम्मान से नवाजी गयीं विभिन्न क्षेत्रों की महान विभूतियों के चेहरों पर ख़ुशी की झलक साफ़ देखी जा सकती थी। संस्था द्वारा सम्मानित लोगों की जिम्मेदारी अब और बढ़ जाती है कि वह और मनोयोग से अपने-अपने क्षेत्र में कार्य कर दूसरों के लिए उदाहरण प्रस्तुत करें। कार्यक्रम को पापुलेशन सर्विसेज इंटरनेशनल इंडिया के एग्जीक्यूटिव डायरेक्टर मुकेश कुमार शर्मा ने सम्बोधित किया और कार्यक्रम की भरपूर सराहना की ।  धन्यवाद ज्ञापन दिशा एजुकेशनल एवं वेलफेयर सोसाइटी के अध्यक्ष प्रभात पांडेय ने किया। 

इनको मिला सम्मान : संतोष गुप्ता (सीइओ - इंडियन सोशल रेस्पोंसबिल्टी नेटवर्क), श्री बलबीर सिंह मान(सचिव - उम्मीद), श्री महेंद्र दीक्षित(प्रबंध निदेशक - सिग्मा ट्रेड विंग्स) , सचिन गुप्ता - निदेशक -ओलिवहेल्थ, डॉ आर पी सिंह (निदेशक - खेल, उत्तर प्रदेश), श्रीमती सुमोना एस पांडेय(आकाशवाणी) , मेदांता, लखनऊ,  दीपेश सिंह( ऑर्गॅनिक्स4यू), श्री नरेंद्र कुमार मौर्या (मैनेजिंग डायरेक्टर- रोहित ग्रुप), अंतर्राष्ट्रीय बौद्ध शोध संस्थान , श्रीमती ममता शर्मा, श्रीमती रश्मि मिश्रा के अलावा कई अन्य क्षेत्रों में सराहनीय कार्य करने वालों को सेवा गौरव सम्मान से नवाजा गया।  

बच्चों की भाव भंगिमाओं ने लोगों के मन को मोहा : सम्मान समारोह की शुरुआत में पीहू द्विवेदी द्वारा गणेश वंदना एवं सरस्वती के साथ की गयी।  इसके बाद लखनऊ कनेक्शन वर्ल्ड वाइड द्वारा गीत गायन प्रस्तुत किया गया। गार्गी द्विवेदी द्वारा सांस्कृतिक नृत्य प्रस्तुत किया गया। इसके अलावा दीपा अवस्थी एवं निखिल कसुधान द्वारा भी शिव जी को समर्पित नृत्य प्रस्तुत किया गया। वहीं विद्याभूषण सोनी के भी मोहक नृत्य प्रस्तुति ने भी खूब तालियाँ बटोरी ।  प्रतुत और गार्गी द्विवेदी के नृत्य ने लोगों को नृत्यांगना डांस इंस्टीट्युट इंदिरानगर की डायरेक्टर और कोरियोग्राफर अनुपमा श्रीवास्तव की देखरेख में भानवी श्रीवास्तव ने गणेश वंदना प्रस्तुत कर लोगों को मन्त्रमुग्ध कर दिया।



प्रभात झा: लोकसंग्रह और संघर्ष से बनी शख्सियत

                                                                     -प्रो.संजय द्विवेदी 


   यह नवें दशक के बेहद चमकीले दिन थे। उदारीकरण और भूमंडलीकरण जिंदगी में प्रवेश कर रहे थे। दुनिया और राजनीति तेजी से बदल रहे थी। उन्हीं दिनों मैं छात्र आंदोलनों से होते हुए दुनिया बदलने की तलब से भोपाल में पत्रकारिता की पढ़ाई करने आया था। एक दिन श्री प्रभात झा जी अचानक सामने थे, बताया गया कि वे पत्रकार रहे हैं और भाजपा का मीडिया देखते हैं। इस तरह एक शानदार इंसान, दोस्तबाज,तेज हंसी हंसने वाले, बेहद खुले दिलवाले झा साहब हमारी जिंदगी में आ गए। मेरे जैसे नये-नवेले पत्रकार के लिए यह बड़ी बात थी कि जब उन्होंने कहा कि" तुम स्वदेश में हो, मैं भी स्वदेश में रह चुका हूं।" सच एक पत्रकार और संवाददाता के रूप में ग्वालियर में उन्होंने जो पारी खेली वह आज भी लोगों के जेहन में हैं। एक संवाददाता कैसे जनप्रिय हो सकता है, वे इसके उदाहरण हैं। रचना,सृजन, संघर्ष और लोकसंग्रह से उन्होंने जो महापरिवार बनाया मैं भी उसका एक सदस्य था।

      उत्साह, ऊर्जा और युवा पत्रकारों को प्रोत्साहित कर दुनिया के सामने ला खड़े करने वाला प्रभात जी का स्वभाव उन्हें खास बनाता था। अब उनका पर्याय नहीं है। वे अपने ढंग के अकेले राजनेता थे,जिनका पत्रकारों, लेखकों, बुद्धिजीवियों से लेकर पार्टी के साधारण कार्यकर्ताओं तक आत्मीय संपर्क था। वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े थे। फिर उसकी विचारधारा से जुड़े अखबार में रहे और बाद में भाजपा को समर्पित हो गये। भाजपा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष तक उनकी यात्रा उनका एकांगी परिचय है। वे विलक्षण संगठनकर्ता, अप्रतिम वक्ता और इन सबसे बढ़कर बेहद उदार व्यक्ति थे। उनके जीवन में कहीं जड़ता और कट्टरता नहीं थी। वे समावेशी उदार हिंदू मन का ही प्रतीक थे। उनका न होना मेरी व्यक्तिगत क्षति है। वे मेरे संरक्षक, मार्गदर्शक और सलाहकार बने रहे। उनकी प्रेरणा और प्रोत्साहन ने मेरे जैसे न जाने कितने युवाओं को प्रेरित किया।

  उनके निधन से समाज जीवन में जो रिक्तता बनी है, उसे भर पाना कठिन है। छात्र जीवन से ही उनका मेरे कंधे पर जो हाथ था,वह कभी हटा नहीं। भोपाल, रायपुर, बिलासपुर, मुंबई मेरी पत्रकारीय यात्रा के पड़ाव रहे,प्रभात जी हर जगह मेरे साथ रहे। वे आते और उससे पहले उनका फोन आता। उनमें दुर्लभ गुरूत्वाकर्षण था। उनके पास बैठना और उन्हें सुनने का सुख भी विरल था। किस्सों की वे खान थे। भाजपा की राजनीति और उसकी भावधारा को मैं जितना समझ पाया उसमें श्री प्रभात झा और स्व.लखीराम अग्रवाल का बड़ा योगदान है। भाजपा की अंर्तकथाएं सुनाते फिर हिदायत भी देते, ये छापने के लिए नहीं, तुम्हारी जानकारी और समझ के लिए है।

   मुझे नहीं पता कि प्रभात जी पत्रकारिता में ही रहते तो क्या होते। किंतु भाजपा में रहकर उन्होंने 'विचार' के लिए जगह बनाकर प्रकाशन, लेखन और मीडिया के पक्ष को बहुत मजबूत किया। मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ की जमीन पर भाजपा के विचार को मीडिया और बौद्धिक वर्ग में उन्होंने लोकस्वीकृति दिलाई। वे 'कमल संदेश' जैसे भाजपा के राष्ट्रीय मुखपत्र के वर्षों संपादक रहे। राज्यों में भाजपा की पत्रिकाएं और प्रकाशन ठीक निकलें , ये उनकी चिंता के मुख्य विषय थे। आमतौर पर राजनेता जिन बौद्धिक विषयों को अलक्षित रखते थे, प्रभात जी उन विषयों पर सजग रहते। वे उन कुछ लोगों में थे जिनका हर दल और विचारधारा से जुड़े लोगों से संवाद था। एक बार उन्होंने मुझसे कहा था "अपने कार्यक्रमों में सभी को बुलाएं, तभी आनंद आता है। एक ही विचार के वक्ताओं के बीच एकालाप ही होता है, संवाद संभव नहीं।" उन्होंने मेरी किताब 'मीडिया नया दौर नयी चुनौतियां' का लोकार्पण एक भव्य समारोह में किया। जिसमें माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय के तत्कालीन कुलपति प्रो.बीके कुठियाला, टीवी पत्रकार और संपादक रविकांत मित्तल भी उपस्थित थे। दिल्ली के अनेक मंचों पर मुझे उनका सान्निध्य मिला। उनका साथ एक ऐसी छाया रहा, जिससे वंचित होकर उसका अहसास अब बहुत गहरा हो गया है। वे हमारे जैसे तमाम युवाओं की जिंदगी में सपने जगाने वाले नायक थे। हम छोटे शहरों, गांवों से आए लोगों को वे बड़ा आसमान दिखाकर उड़ान के लिए छोड़ देते थे। 

उन्होंने तमाम ऐसी प्रतिभाओं को खोजा, उन्हें संगठन में प्रवक्ता, संपादक , मंत्री, सांसद, विधायक और तमाम सांगठनिक पदों तक पहुंचने में मदद की। एक समय भाजपा के राष्ट्रीय सचिव के नाते वे बहुत ताकतवर थे। अध्यक्ष राजनाथ सिंह (अब रक्षा मंत्री) उन पर बहुत भरोसा करते थे। प्रभात जी ने इस समय का उपयोग युवाओं को जोड़ने में किया। मैं नाम गिनाकर न लेख को बोझिल बनाना चाहता हूं, न उन व्यक्तियों को धर्म संकट में डालना चाहता हूं, जो आज बहुत बड़े हो चुके हैं। भाजपा का आज स्वर्ण युग है, संसाधन, कार्यकर्ता आधार बहुत विस्तृत हो गया है। किंतु प्रभात जी बीजेपी के 'ओल्ड स्कूल' में ही बने रहे। जहां पार्टी परिवार की तरह चलती थी और व्यक्ति से व्यक्तिगत संपर्क को महत्व दिया जाता था। मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ ही नहीं देश के अनेक राज्यों के कार्यकर्ता, पत्रकार,समाज के विविध क्षेत्रों में सक्रिय लोग उनसे बेहिचक मिलते थे। इस सबके बीच उन्होंने अपने स्वास्थ्य का बिल्कुल ध्यान नहीं रखा। मैंने उन्हें दीनदयाल परिसर के एक छोटे कक्ष में रहते देखा है। परिवार ग्वालियर में ,खुद भोपाल में एकाकी जीवन जीते हुए। यहां भी दरवाजे सबके लिए हर समय खुले थे, जब अध्यक्ष बने तब भी। दिनचर्या पर उनका नियंत्रण नहीं था, क्योंकि पत्रकारिता में भी कोई दिनचर्या नहीं होती। मध्यप्रदेश भाजपा अध्यक्ष बनने के बाद उन्होंने जिस तरह तूफानी प्रवास किया, उसने कार्यकर्ताओं को भले खुश किया। राजपुत्रों को उनकी सक्रियता अच्छी नहीं लगी। वे षड्यंत्र के शिकार तो हुए ही, अपना स्वास्थ्य और बिगाड़ बैठे। उनका पिंड 'पत्रकार' का था, किंतु वे 'जननेता' दिखना चाहते थे। इससे उन्होंने खुद का तो नुकसान किया ही, दल में भी विरोधी खड़े किये। बावजूद इसके वे मैदान छोड़कर भागने वालों में नहीं थे। डटे रहे और अखबारों में अपनी टिप्पणियों से रौशनी बिखेरते रहे। आज जब परिवार जैसी पार्टी को कंपनी की तरह चलाने की कोशिशें हो रही हैं, तब प्रभात झा जैसे व्यक्ति की याद बहुत स्वाभाविक और मार्मिक हो उठती है।

 उनकी पावन स्मृति को शत्-शत् नमन। भावभीनी श्रद्धांजलि।



गुरुवार, 4 जुलाई 2024

नफरतों, कड़वाहटों और संवादहीनता का समय!


-सार्थक संवाद की दृष्टि से निराशाजनक रहा लोकसभा का पहला सत्र 

-प्रो.संजय द्विवेदी 



   भारतीय संसद अपनी गौरवशाली परंपराओं, विमर्शों और संवाद के लिए जानी जाती है। प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने लोकतांत्रिक बहसों को प्रोत्साहित किया और अपने प्रतिपक्ष के नेताओं डा.राममनोहर लोहिया, श्यामा प्रसाद मुखर्जी,अटल बिहारी वाजपेयी से लेकर पीलू मोदी तक को मुग्ध भाव से सुना। राष्ट्र प्रेम ऐसा कि चीन युद्ध के बाद गणतंत्र दिवस की परेड में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवकों को आमंत्रित कर उनकी राष्ट्रभक्ति को सराहा। किंतु लोकसभा के प्रथम सत्र में जो कुछ हुआ,वह संवाद की धारा को रोकने वाला है। इससे संसद विमर्श और संवाद का केंद्र नहीं अखाड़ा बन गयी। 

  राष्ट्रपति के भाषण पर धन्यवाद प्रस्ताव पर लोकसभा में जब नेता सदन और प्रधानमंत्री बोल रहे थे, उनके लगभग दो घंटे के भाषण में विपक्षी सदस्यों ने आसमान सिर पर उठा रखा था। लगातार नारेबाजी से उनका भाषण सुनना मुश्किल था। इसके विपरीत जब पहले दिन नेता प्रतिपक्ष बोल रहे थे,तो उनके भाषण में सत्तारूढ़ दल के प्रधानमंत्री सहित तीन मंत्रियों ने हस्तक्षेप किया। नेता प्रतिपक्ष को बताया गया कि वे सदन के पटल पर गलत तथ्य न रखें। यह दोनों स्थितियां भारतीय राजनीति में बढ़ते अतिवाद को स्पष्ट करती हैं, जहां संवाद संभव नहीं है। लोकसभा अध्यक्ष पर नेता प्रतिपक्ष द्वारा की गई अनावश्यक टीका-टिप्पणी को भी इसी संदर्भ में देखा जाना चाहिए।

  नेता प्रतिपक्ष की गलत बयानी के लिए बाद में सत्तारूढ़ दल के वक्ता अपने भाषणों में उनके भाषण की चीरफाड़ कर सकते थे। किंतु शीर्ष स्तर से लगातार हस्तक्षेप ने नेता प्रतिपक्ष का मनोबल बढ़ा दिया। वे सत्ता पक्ष को उत्तेजित करने में सफल रहे और पहले दिन के मीडिया विमर्श में उन्हें 'सक्रिय नेता प्रतिपक्ष' घोषित कर दिया गया। सेकुलर मीडिया के सेनानियों ने उन्हें 'मैन आफ द मैच' घोषित कर दिया। ज़ाहिर है लंबे समय से गंभीर राजनेता की छवि बनाने के लिए आतुर राहुल गांधी के लिए यह अप्रतिम समय था। किंतु पहले दिन की वाहवाही अगले दिन ही धराशाई हो गई जब प्रधानमंत्री के भाषण में दो घंटे तक नारेबाजी चलती रही। देश की जनता दोनों तरह की अतियों के विरुद्ध है। सदन की गरिमा को बचाने के लिए राजनीतिक दलों को कुछ ज्यादा उदार होना चाहिए। 

  लोकसभा के प्रथम सत्र से निकली छवियां बता रही हैं कि आगे भी सब कुछ सामान्य नहीं रहने वाला है। किंतु संसद को अखाड़ा, चौराहे की चर्चा के स्तर पर ले जाने के लिए किसे जिम्मेदार माना जाए? यह ठीक बात है कि सदन चलाना सरकार की जिम्मेदारी है, किंतु सदन में सार्थक और प्रभावी विमर्श खड़ा करना विपक्षी दलों की भी जिम्मेदारी है। अब जबकि विपक्ष अपनी बढ़ी संख्या पर मुग्ध है तो क्या उसे संसदीय मर्यादाओं को छोड़कर अराजकता का आचरण करना चाहिए? सच तो यह है कि सदन के इस तरह चलने से सत्तारूढ़ दल का ही लाभ है।  बिना बहस और चर्चा के कानून इसीलिए पास होते हैं क्योंकि संसद का ज्यादातर समय हम विवादों में खर्च कर देते हैं। संसदीय परंपरा रही है कि हर नयी सरकार को प्रतिपक्ष कम से कम छः माह का समय देता है। उसके कार्यक्रम और योजनाएं का मूल्यांकन करता है। पहले दिन से ही सदन को अराजकता की ओर ढकेलना उचित नहीं कहा जा सकता। अपनी लंबी संसदीय प्रणाली में भारत ने अनेक संकटों का समाधान किया है। हमारे संसदीय परंपरा का मूलमंत्र है संवाद से संकटों और समस्याओं का समाधान खोजना। संसद इसी का सर्वोच्च मंच है। यह प्रक्रिया नीचे पंचायत तक जाती है। इससे सहभागिता सुनिश्चित होती है, सुशासन का मार्ग प्रशस्त होता है। संसद से नीचे के सदनों विधानसभा सभाओं,विधान परिषदों, नगरपालिका, नगर निगमों और पंचायतों को भी सांसदों का आचरण ही रास्ता दिखाता है। लोकसभा के पहले सत्र का लाइव प्रसारण देखते हुए हर संवेदनशील भारतीय जन को ये दृश्य अच्छे नहीं लगे हैं। संसदीय मर्यादाओं और परंपराओं की रक्षा हमारे सांसद गण नहीं करेंगे तो कौन करेगा? संसदीय राजनीति के शिखर पर बैठे दायित्ववान सांसदों की यह बहुत बड़ी जिम्मेदारी है कि वे अपने आचरण से इस महान संस्था का गौरव बढ़ाने में सहयोगी बनें। नफरतों, कड़वाहटों और संवादहीनता से 'राजनीति' तो संभव है पर 'राष्ट्रनीति' हम न कर पाएंगे।

बुधवार, 26 जून 2024

सोने जैसे दिल वाला सामाजिक कार्यकर्ता कैसे बना राष्ट्रीय राजनीति का सितारा

 

ओम बिरला होने का मतलब

-प्रो.संजय द्विवेदी


 

  ओम बिरला में ऐसा क्या है जो उन्हें लगातार दूसरी बार लोकसभा के अध्यक्ष जैसी बड़ी जिम्मेदारी पर पहुंचाता है। अपने कोटा शहर में जरूरतमंद लोगों को कपड़े, दवाएं, भोजन पहुंचाते-पहुंचाते बिरला कब राष्ट्रीय राजनीति के सितारे बन गए, यह एक अद्भुत कहानी है। उनकी सरलता,सहजता और सदन चलाने की उनकी क्षमताएं प्रमाणित हैं। अब जब वे ध्वनिमत से लोकसभा के अध्यक्ष चुने जा चुके हैं, तब उन पर बहुत बड़ी जिम्मेदारी आन पड़ी है। यह भी शुभ रहा कि कांग्रेस ने प्रारंभिक चर्चाओं के बाद भी मत विभाजन की मांग नहीं की और उनका चयन सर्वसम्मत से हुआ। इससे संसद की गरिमा बनी और परंपराओं का पालन हुआ है। उम्मीद की जानी चाहिए आने वाले समय में लोकसभा ज्यादा बेहतर तरीके से अपने कामों को अंजाम दे सकेगी।

      श्री बलराम जाखड़ के बाद वे दूसरे ऐसे सांसद हैं, जिन्होंने यह गरिमामय पद दुबारा संभाला है। इस बात को रेखांकित करते हुए प्रधानमंत्री ने अपने भाषण में कहा कि नए सांसदों को बिरला से सीखना चाहिए। मोदी ने कहा कि संसद 140 करोड़ देशवासियों की आशा का केंद्र है। सदन में आचरण और नियमों का पालन जरूरी है। सदन की गरिमा और परंपराओं का पालन अध्यक्ष की बहुत महती जिम्मेदारी है। उम्मीद की जानी चाहिए कि संसद में लोकसभा अध्यक्ष के रूप में बिरला जी का यह कार्यकाल उदाहरण बनेगा। जहां गंभीर बहसें होंगी और शासकीय काम के साथ विमर्शों का नया आकाश खुलेगा।
     राजस्थान के कोटा जिले में 23 नवंबर,1962 को जन्में ओम बिरला का समूचा राजनीतिक और सावर्जनिक जीवन सेवा, समर्पण और उससे उपजी सफलताओं से बना है। भारतीय जनता युवा मोर्चा के जिलाध्यक्ष के रूप में काम प्रारंभ कर वे राजस्थान में युवा मोर्चा के प्रदेश अध्यक्ष, राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बने। इसके बाद उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा। वे 2003, 2008 और 2013 में तीन बार राजस्थान विधानसभा में विधायक निर्वाचित किए गए। 2014 से वे लगातार तीसरी बार लोकसभा पहुंचे हैं। इस तरह वे एक सफल जनप्रतिनिधि के रूप में कोटा के लोगों का दिल जीतते रहे हैं। 17 वीं लोकसभा में अध्यक्ष चुने जाते ही वे राष्ट्रीय फलक पर छा गए। अपने तमाम फैसलों की तरह उस समय नरेंद्र मोदी ने राजनीतिक विश्वेषकों को चौंकाते हुए बिरला के नाम का प्रस्ताव रखा था। किंतु अपनी सौजन्यता, कुशल सदन संचालन और लोकसभा उपाध्यक्ष का चुनाव न होने के बाद भी अकेले वरिष्ठ सांसदों के पैनल के आधार उन्होंने सदन चलाया । उनका सहज अंदाज और हल्की मुस्कान,मीठी डांट से सदन को चलाने का तरीका उन्हें इस बार इस पद का स्वाभाविक उत्तराधिकारी बना चुका था। अब कोटा की स्थानीय राजनीति से राष्ट्रीय फलक पर आए बिरला सदन की उपलब्धि बन चुके हैं।

      बिरला राजनीति में आने से पहले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) से जुड़े थे। उनके मन में समाजसेवा की भावना इसी संगठन से उपजी और वे विविध प्रकल्पों के माध्यम से इसी काम में रम गए। उन्होंने अपने क्षेत्र में 2012 में परिधान नाम कल्याणकारी कार्यक्रम प्रारंभ किया, जिसके तहत समाज के कमजोर वर्गों को किताबें और कपड़े वितरित किए जाते थे। इसके साथ ही रक्तदान और मुफ्त दवा वितरण के आयोजनों से वे लोगों के दिलों में उतरते चले गए। फिर उन्होंने मुफ्त भोजन कार्यक्रम भी चलाया। उनका संकल्प था उनके लोग भूखे न सोएं। इस तरह वे बहुत संवेदनशील और बड़े दिलवाले सामाजिक कार्यकर्ता और राजनेता की तरह सामने आते हैं। यह उन हाशिए के लोगों की दुआएं ही थीं कि बिरला आज सत्ता राजनीति के शिखर पर हैं।

   
     भाजपा को एक दल के रूप में इस बार लोकसभा में पूर्ण बहुमत नहीं है और उसकी निर्भरता राजग के सहयोगियों पर बढ़ी है। इसी तरह सदन में प्रतिपक्ष ज्यादा ताकतवर हुआ है। तीसरी बार प्रधानमंत्री बने नरेंद्र मोदी की सरकार के सामने अब नेता प्रतिपक्ष के रूप में राहुल गांधी मौजूद होंगे। मोदी की तीसरी सरकार में नेता प्रतिपक्ष का पद मिलना भी एक बड़ी सूचना है। पिछले दो सदनों में कांग्रेस के इतने सदस्य नहीं थे कि वह नेता प्रतिपक्ष का पद हासिल कर सके। इससे नेता प्रतिपक्ष अब लोकलेखा समिति के अध्यक्ष भी होंगे और सरकारी खर्चों पर टिप्पणी कर सकेंगें। इस बदले हुए परिदृश्य में सदन में प्रतिपक्ष की आवाज भी प्रखर होगी। राहुल गांधी और अखिलेश यादव ने अध्यक्ष को धन्यवाद प्रस्ताव देते हुए सत्ता पक्ष पर अंकुश और प्रतिपक्ष को संरक्षण देने की अपील की। उम्मीद की जानी कि ओम बिरला अपने बड़े दिल से सदन की गरिमा को नई ऊंचाई प्रदान करेंगें। फिलहाल तो उन्हें शुभकामनाएं ही दी जा सकती हैं।

शनिवार, 15 जून 2024

'इंडिया' की आंखों से भारत को मत देखिए!

-भारतीयता को नए संदर्भों  में व्याख्यायित करना जरूरी 

-प्रो. संजय द्विवेदी



    आजकल राष्ट्रीयता,भारतीयता, राष्ट्रत्व और राष्ट्रवाद जैसे शब्द चर्चा और बहस के केंद्र में है। ऐसे में यह जरूरी है कि हम भारतीयता पर एक नई दृष्टि से सोचें और जानें कि आखिर यह क्या है? ‘राष्ट्र’ सामान्य तौर पर सिर्फ भौगोलिक नहीं बल्कि ‘भूगोल-संस्कृति-लोग’ के तीन तत्वों से बनने वाली इकाई है। इन तीन तत्वों से बने राष्ट्र में आखिर सबसे महत्वपूर्ण तत्व कौन सा है? जाहिर तौर पर वह ‘लोग’ ही होगें। इसलिए लोगों की बेहतरी,भलाई, मानवता का स्पंदन ही किसी राष्ट्रीयता का सबसे प्रमुख तत्व होना चाहिए।

        जब हम लोगों की बात करते हैं तो भौगोलिक इकाईयां टूटती हैं। अध्यात्म के नजरिए से पूरी दुनिया के मनुष्य एक हैं। सभी संत, आध्यात्मिक नेता और मनोवैज्ञानिक भी यह मानने हैं कि पूरी दुनिया पर मनुष्यता एक खास भावबोध से बंधी हुयी है। यही वैश्विक अचेतन (कलेक्टिव अनकांशेसनेस) हम-सबके एक होने का कारण है। स्वामी विवेकानंद इसी बात को कहते थे कि इस अर्थ में भारत एक जड़ भौगोलिक इकाई नहीं है। बल्कि वह एक चेतन भौगोलिक इकाई है, जो सीमाओं और सैन्य बलों पर ही केंद्रित नहीं है। भारतीय राष्ट्रवाद मनुष्य के विस्तार व विकास पर केंद्रित है। जिसे भारत ने ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ कहकर संबोधित किया। यह ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ राजनीतिक सत्ता का उच्चार नहीं है। उपनिषद् का उच्चार है। सारी दुनिया के लोग एक परिवार, एक कुटुम्ब के हैं, इसे समझना ही दरअसल भारतबोध को समझना है। यह भाव ही मनुष्य की सांस्कृतिक एकता के विस्तार का प्रतीक है। हमारे सांस्कृतिक मूल्य, मानवतावादी सांस्कृतिक मूल्यों पर केंद्रित हैं। हमारी भारतीय अवधारणा में राज्य निर्मित भौगोलिक-प्रशासनिक इकाईयां प्रमुख स्थान नहीं रखतीं बल्कि हमारी चेतना, संस्कृति, मूल्य आधारित जीवन और परंपराएं ही यहां हमें राष्ट्र बनाती हैं। हमारे सांस्कृतिक इतिहास की ओर देखें तो आर्यावर्त की सीमाएं कहां से कहां तक विस्तृत हैं, जबकि सच यह है कि इस पूरे भूगोल पर राज्य बहुत से थे, राजा अनेक थे- किंतु हमारा सांस्कृतिक अवचेतन हमें एक राष्ट्र का अनुभव करता था। एक ऐतिहासिक सत्य यह  भी यह है  कि हमारा राष्ट्रीयता दरअसल राज्य संचालित नहीं था, वह समाज और बौद्धिक चेतना से संपन्न संतों, ऋषियों द्वारा संचालित थी। एक विद्वान कहते हैं राजा राज्य बनाते हैं, राष्ट्र ऋषि बनाते हैं। वही भारतबोध इस व्यापक भूगोल की चेतना में समाया हुआ था। यहां का ज्ञान विस्तार जिस तरह चारों दिशाओं में हुआ,वह बात हैरत में डालती है।

    आप देखें तो भगवान बुद्ध पूरी दुनिया में अपने संदेश को यूं ही नहीं फैला पाए, बल्कि उस ज्ञान में एक ऐसा नवाचार,नवचेतन था, जिसे दुनिया ने स्वतः आगे बढ़कर ग्रहण किया। भारत कई मायनों में अध्यात्म और चेतना की भूमि है। सच कहें तो दुनिया की तमाम स्थितियों से भारत एक अलग स्थिति इसलिए पाता है, क्योंकि यह भूमि संतों के लिए, ज्ञानियों के लिए उर्वर भूमि है। दुनिया के तमाम विचारों की सांस्कृतिक चेतना जड़वादी है, जबकि भारत की चेतना जैविक है। इसलिए भारत मरता नहीं है, क्योंकि वह जड़वादी और हठवादी नहीं है। यहां का मनुष्य सांस्कृतिक एकता के लिए तो खड़ा होता है पर विचारों में जड़ता आते ही उससे अलग हो जाता है। हमारा ईश्वर आंतरिक उन्नयन और पाप क्षय के लिए काम करता है। हमारे संत भी आध्यात्मिक उन्नयन और पापों के क्षय के लिए काम करते हैं। मनुष्य की चेतना का आत्मिक विस्तार ही हमारी राष्ट्रीयता का लक्ष्य है। इसलिए यह सिर्फ एक खास भूगोल, एक खास विचारधारा और पूजा पध्दति में बंधे लोगों के उद्धार के लिए नहीं, बल्कि समूची मानवता की मुक्ति के काम करने वाला विचार है। यहां मानव की मुक्ति ही उसका लक्ष्य है। यह राष्ट्रीयता सैन्यबल और व्यापार बल से चालित नहीं है, बल्कि यह चेतना के विस्तार, उसके व्यापक भावबोध और मनुष्य मात्र की मुक्ति के विचार से अनुप्राणित है।

   भारतीय संदर्भ में भारतबोध को समझना वास्तव में मानवतावाद के व्यापक परिप्रेक्ष्य को समझना है। यह विचार कहता है- “ संतों को सीकरी से क्या काम” और फिर कहता है ‘’कोई नृप होय हमें क्या हानि”। इस मायने में हम राज या राज्य पर निर्भर रहने वाले समाज नहीं थे। राजा या राज्य एक व्यवस्था थी, किंतु जीवन मुक्त था-मूल्यों पर आधारित था। पूरी सांस्कृतिक परंपरा में समाज ज्यादा ताकतवर था और स्वाभिमान के साथ उदार मानवतावाद और एकात्म मानवदर्शन पर आधारित जीवन जीता था। वह चीजों को खंड-खंड करके देखने का अभ्यासी नहीं था। इसलिए इस राष्ट्रीयता में जो समाज बना, वह राजा केंद्रित नहीं, संस्कृति केंद्रित समाज था। जिसे अपने होने-जीने की शर्तें पता थीं, उसे उसके कर्तव्य ज्ञात थे। उसे राज्य की सीमाएं भी पता थीं और अपनी मुक्ति के मार्ग भी पता थे। इस समाज में गुणता की स्पर्धा थी- इसलिए वह एक सुखी और संपन्न समाज था। इस समाज में भी बाजार था, किंतु समाज- बाजार के मूल्यों पर आधारित नहीं था। आनंद की सरिता पूरे समाज में बहती थी और आध्यात्मिकता के मूल्य जीवन में रसपगे थे। भारतीय समाज जीवन अपनी सहिष्णुता के नाते समरसता के मूल्यों का पोषक है। इसीलिए तमाम धाराएं,विचार,वाद और पंथ इस देश की हवा-मिट्टी में आए और अपना पुर्नअविष्कार किया, नया रूप लिया और एकमेक हो गए। भारतीयता हमारे राष्ट्र का अनिवार्य तत्व है। भारतीयता के माने ही है स्वीकार। दूसरों को स्वीकार करना और उन्हें अपनों सा प्यार देना। यह राष्ट्रवाद विविधता को साधने वाला, बहुलता को आदर देने वाला और समाज को सुख देने वाला है। इसी नाते भारत का विचार आक्रामकता का, आक्रमण का, हिंसा या अधिनायकवाद का विचार नहीं है। यह श्रेष्ठता को आदर देने वाली,विद्वानों और त्यागी जनों को पूजने वाली संस्कृति है। अपने लोक तत्वों को आदर देना ही यहां भारतबोध है। इसलिए यहां भूगोल का विस्तार नहीं, मनों और दिलों को जीतने की संस्कृति जगह पाती है।

   यहां शांति है, सुख है, आनंद है और वैभव है। यह देकर, छोड़कर और त्याग कर मुक्त होती है। समेटना यहां ज्ञान को है। संपत्ति, जमीन और वैभव को नहीं। इसलिए फकीरी यहां आदर पाती है और सत्ताएं लांछन पाती हैं। इसलिए यहां लोकसत्ता का भी मानवतावादी होना जरूरी है। यहां सत्ता विचारों से, कार्यों से और आचरण से लोकमानस का विचार करती है तो ही सम्मानित होती है। वैसे भी भारतीय समाज एक सत्ता निरपेक्ष समाज है। वह सत्ताओं की परवाह न करने वाला स्वाभिमानी समाज है। इसलिए उसने जीवन की एक अलग शैली विकसित की है, जो उसके भारतबोध ने उसे दी है। यही स्वाभिमान एक नागरिक का भी है और राष्ट्र का भी। इसलिए वह अपने अध्यात्म के पास जाता है, अपने लोक के पास जाता है और सत्ता या राज्य के चमकीले स्वप्न उसे रास नहीं आते। इसी राष्ट्र तत्व को खोजते हुए राजपुत्र सत्ता को छोड़कर वनों, जंगलों में जाते रहे हैं, ज्ञान की खोज में,सत्य की खोज में, लोक के साथ सातत्य और संवाद के लिए। राम हों, कृष्ण हों, शिव हों, बुद्ध हों, महावीर हों- सब राजपुत्र हैं, संप्रुभ हैं और सब राज के साथ समाज को भी साधते हैं और अपनी सार्थकता साबित करते हैं। इसलिए हमारी राष्ट्रीयता की अलग कथा है, उसे पश्चिमी पैमानों से नापना गलत होगा। आज इस वक्त जब भारतीयता की अनाप-शनाप व्याख्या हो रही है, हमें ठहरकर सोचना होगा कि क्या सच में हममें अपने राष्ट्र की थोड़ी भी समझ बची है? 'भारत' को 'इंडिया' की आंखों से देखने से हमें वही दिखाई देगा ,जो सत्य से बहुत दूर होगा। आइए हम भारत की आंखों से ही भारत को देखने का अभ्यास करें।  

(लेखक भारतीय जनसंचार संस्थान,(IIMC) नई दिल्ली के पूर्व महानिदेशक हैं)

अबू धाबी के विद्यार्थियों से बोले प्रो. द्विवेदी - यह क्रियेटिविटी और आईडियाज का समय

 

-भारतीय विद्या भवन , अबू धाबी का आयोजन

-कम्युनिकेशन से ही होगा दुनिया के संकटों का समाधान




भोपाल। किसी भी इंसान को छोटी-छोटी समस्याओं पर नजर रखनी चाहिए। उनका हल सोचना चाहिए। बड़े और सफल आइडियाज इन्हीं से निकलते हैं।" यह विचार भारतीय जन संचार संस्थान (आईआईएमसी)के पूर्व महानिदेशक प्रो. संजय द्विवेदी ने अबू धाबी के भारतीय विद्या भवन द्वारा संचालित इंटरनेशनल स्कूल में आयोजित आनलाईन संवाद कार्यक्रम में व्यक्त किए। प्रो. द्विवेदी ने कहा कि यह समय क्रियेटिविटी और आईडियाज का है। दुनिया का हर संकट संवाद और संचार से हल किया जा सकता है। उन्होंने कहा संचार और संवाद की दुनिया में वही लोग स्थापित हो सकते हैं, जिनके पास नए विचार, नई भाषा और कहानी कहने की कला है। कार्यक्रम की अध्यक्षता प्राइवेट इंटरनेशनल स्कूल, आबूधाबी की प्राचार्या वनिता वाल्टर ने की। इस अवसर पर प्रधानाचार्य सुरेश बालकृष्णन, उप-प्रधानाचार्या श्रीमती मिनी रमेश, हिंदी विभाग प्रमुख रवि शुक्ल भी उपस्थित रहे।

    विद्याथियों के प्रश्नों के उत्तर देते हुए उन्होंने जहां मीडिया की दुनिया में अवसरों के बारे में  बताया, वहीं जीवन में भाषा की महत्ता पर भी बात की। प्रो. द्विवेदी ने कहा कि अकसर कुछ नया देखते ही हम उसके उपभोग के बारे में सोचने लगते हैं, लेकिन उसे बेहतर बनाने की ओर हमारा ध्यान नहीं जाता। हर प्रोडक्ट या सर्विस अलग-अलग जगहों पर सफल नहीं हो सकती, लेकिन तुलना करने पर हम हर जगह के बारे में बेहतर जान सकते हैं। फिर पहले से मौजूद आइडिया में जरूरी बदलाव कर कुछ नया सोच सकते हैं। प्रो. द्विवेदी ने कहा कि अपनी रुचि की चीजों के बारे में खूब पढ़िए। कुछ नया सीखने को मिले, तो इसके बारे में लोगों से बातें कीजिए। वे क्या सोचते हैं, यह जानने की कोशिश कीजिए। मन में जो भी विचार आते हैं, उन्हें अमलीजामा पहनाने की कोशिश कीजिए। इनके नतीजे अच्छे न निकलें, तो घबराइए मत, क्योंकि इसके बाद ही अच्छे आइडिया भी आएंगे। बस आपको अपनी क्रिएटिव सोच बनाए रखनी है। 

कार्यक्रम का संचालन विद्यालय की छात्राओं सुश्री अक्षया अनिल कुमार, नंदिनी त्रिवेदी ने किया। कार्यक्रम में 

सहभागी विद्यार्थी में कीर्तना नायर, प्रज्वल राव, अफ़शीन शेक, आकाश, साईं सिद्धार्थ प्रमुख रहे। कार्यक्रम में 

विद्यालय के भिन्न कक्षाओं  विद्यार्थियों ने सहभाग किया।

सोमवार, 10 जून 2024

निरंतरता, अनुभव और उत्साह का संगम है केंद्रीय मंत्रिमंडल

-डा.संजय द्विवेदी 


   केंद्र सरकार का नया मंत्रिमंडल निरंतरता की गवाही देता है। यह बात बताती है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को अपनी टीम पर भरोसा कायम है। प्रमुख विभागों में अपनी आजमाई जा चुकी टीम को मौका देकर मोदी ने बहुत गंभीर संदेश दिए हैं। मंत्रिमंडल में अनुभव, उत्साह और नवाचारी विचारों के वाहक नायकों को जगह मिली है।

अनुभवी सरकार:

यह मंत्रिमंडल गहरी राजनीतिक सूझबूझ वाले नायकों से संयुक्त है। लंबे समय तक राज्य सरकारों को चलाने वाले 7 पूर्व मुख्यमंत्री इस सरकार में शामिल हैं। कैबिनेट में नरेंद्र मोदी सहित सात पूर्व मुख्यमंत्री शामिल हैं। जिनमें मोदी खुद गुजरात के मुख्यमंत्री रहे हैं। इसके अलावा राजनाथ सिंह (उप्र), शिवराज सिंह चौहान (मप्र), जीतनराम मांझी (बिहार), एचडी कुमारस्वामी (कर्नाटक), मनोहरलाल खट्टर(हरियाणा), सर्वानंद सोनोवाल (असम) मुख्यमंत्री रहे हैं। भारत सरकार के विदेश सचिव और पिछली सरकार में विदेश मंत्री रह चुके एस.जयशंकर अपने क्षेत्र के दिग्गज हैं। आईएएस अधिकारी रहे अश्विनी वैष्णव अटलबिहारी वाजपेयी सरकार में उनके सचिव रहे,विविध अनुभव संपन्न वैष्णव सरकार में नवाचारों के वाहक हैं। पिछली सरकार उनके प्रदर्शन की गवाही है। इसी क्रम में नौकरशाह रहे हरदीप सिंह पुरी सरकार की शक्ति हैं।  नितिन गडकरी का महाराष्ट्र सरकार से लेकर अब केंद्र में 10 साल का कार्यकाल सबकी नजर में है। देश में हुई परिवहन और सड़क क्रांति के वे वाहक हैं। वे केंद्र में सबसे लंबे समय तक परिवहन मंत्री रहने का रिकार्ड बना चुके हैं।

   भाजपा के पास अनुभवी मंत्रियों की टीम सरकार के संकल्पों की वाहक बनेगी, इसमें दो राय नहीं। धर्मेंद्र प्रधान, पीयूष गोयल, प्रहलाद जोशी,किरण रिजिजू, भूपेंद्र यादव,जोएल ओराम, गजेंद्र सिंह शेखावत, डा.वीरेंद्र कुमार , ज्योतिरादित्य सिंधिया अपने विभिन्न क्षेत्रों में प्रभावी हस्ताक्षर बन चुके हैं। सरकार के विभिन्न मंत्रालयों के प्रभावी संचालन का रिकार्ड इनके नाम है। 

सरकार के संकटमोचक:

केंद्रीय मंत्रिमंडल में राजनाथ सिंह और अमित शाह इस सरकार के संकटमोचक हैं। राजनाथ सिंह के साथ जहां सहयोगी दलों का शानदार संवाद है, वहीं अमित शाह अपने कुशल राजनीतिक प्रबंधन के लिए जाने जाते हैं।  इस सरकार में सहयोगी दलों के 11 मंत्री हैं। जबकि 2014 में 5 और 2019 में सहयोगी दलों के 4 मंत्री शामिल थे। यह संख्या अभी और बढ़ सकती है। ऐसे में सरकार में कुशल प्रबंधन की जरूरत हमेशा बनी रहेगी। आने वाले समय में महाराष्ट्र, हरियाणा और झारखंड के चुनाव भी होने हैं। यही इस सरकार का पहला सार्वजनिक टेस्ट भी है।

    मंत्रिमंडल में प्रतिबद्धता, निरंतरता और वरिष्ठता का ख्याल रखते हुए भी युवाओं को खास मौके दिए गए हैं। इसके साथ ही यह अखिल भारतीय चरित्र की सरकार भी है, केरल, तमिलनाडु से लेकर जम्मू कश्मीर तक का प्रतिनिधित्व इस सरकार में है। पांच अल्पसंख्यक समुदायों से भी सरकार में मंत्री बने हैं। साथ ही सामाजिक समरसता की दृष्टि से यह समावेशी सरकार कही जा सकती है। 

  अभी तक की स्थितियों को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि सुशासन को लेकर सरकार पर कोई दबाव नहीं है। लेकिन समान नागरिक संहिता, मुस्लिम आरक्षण, जातीय जनगणना, राज्यों को विशेष दर्जा जैसे मुद्दे मतभेद का कारण जरूर बनेंगे। प्रधानमंत्री के कद और उनकी छवि जरूर इन साधारण प्रश्नों से बड़ी है। सरकार के प्रबंधक इन मुद्दों से कैसे जूझते हैं,यह बड़ा सवाल है। सहयोगी दलों के साथ संतुलन और उनकी महत्ता बनाए रखते हुए चलना सरकार की जरूरत हमेशा बनी रहेगी। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने जिस तरह अपने अभिभावकत्व और नेतृत्व से एनडीए को संभालते हुए काम प्रारंभ किया है। वे आसानी से साधारण विवादों का हल भी निकाल ही लेंगे। 



रविवार, 9 जून 2024

'सर्वमत' और 'सुशासन' से बनेगा विकसित भारत

- आर्थिक-सामाजिक विकास तथा सामाजिक न्याय ही रहेगा एजेंडा 

-प्रो.संजय द्विवेदी 



 लोकसभा चुनाव में नरेन्द्र मोदी भले ही सीटों के मामले में अपने घोषित लक्ष्य से पीछे रह गए हों , किन्तु चुनौती स्वीकार करने की उनकी जिजीविषा स्पष्ट है। पिछले तीन दिनों से उनके भाषण, बाडी लैंग्वेज बता रही है कि वे राजग की सरकार को उसी अंदाज से चलाना चाहते हैं, जैसी सरकार वे अब तक चलाते आए हैं। सहयोगी दलों से मिली पूर्ण आश्वस्ति के पश्चात मोदी ने अपने नेता पद पर चयन के बाद 'बहुमत' से नहीं बल्कि 'सर्वमत' से सरकार चलाने की बात कही है। वैसे भी चंद्रबाबू नायडू तथा नीतिश कुमार की ज्यादा रूचि अपने राज्यों की राजनीति में हैं। इसलिए सीधे तौर पर दो बड़े सहयोगी दलों तेलुगु देशम और जनता दल (यूनाइटेड) से कोई तात्कालिक चुनौती नहीं है। इसके साथ ही 'सुशासन' मोदी, नायडू और नीतिश तीनों की प्राथमिकता है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी, पिछले 22 वर्षों से मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री जैसे पदों पर रहते हुए सरकारों का नेतृत्व कर रहे हैं। उनमें सबको साथ लेकर चलने की अभूतपूर्व क्षमता है। सुशासन और भ्रष्टाचार के विरुद्ध जीरो टालरेंस उनकी कार्यशैली है। यह बात उन्होंने इस बार भी स्पष्ट कर दी है। लंबे नेतृत्व अनुभव ने उनमें साथियों के प्रति सद्भाव और अभिभावकत्व भी पैदा किया है। उन्होंने यह भी कहा कि उनके लिए एनडीए का हर एक सांसद समान है।  मोदी जब 2014 में प्रधानमंत्री बने तब यह बात काफी कही गई थी कि उन्हें दिल्ली की समझ नहीं है। विदेश नीति जैसे विषयों पर क्या मोदी नेतृत्व दे पाएंगे। जबकि पिछले 10 वर्षों में मोदी ने इन दोनों प्रारंभिक धारणाओं को खारिज किया। ऐसे में गठबंधन सरकार का नेतृत्व वे सफलतापूर्वक करेंगे, ऐसी उम्मीद की जानी चाहिए। 

   सत्ता के संकटों और सीमाओं के बाद भी नरेंद्र मोदी ने अपने विजन और नेतृत्व क्षमता से लंबी लकीर खींची है। गहरी राष्ट्रीय चेतना से लबरेज उनका व्यक्तित्व एनडीए की चुनावी सफलताओं की गारंटी बन गया है। अब जबकि एनडीए के लगभग 303 सांसद हो चुके हैं,तब यह मानना ही पड़ेगा यह सरकार आर्थिक विकास, सामाजिक न्याय और सामाजिक कल्याण की योजनाएं लागू करते हुए तेज़ी से आगे बढ़ेगी। अरूणाचल प्रदेश, उड़ीसा की राज्य सरकारें मोदी मैजिक का ही परिणाम है। केरल में खाता खोलने के साथ तेलंगाना, आंध्र और कर्नाटक के परिणाम दक्षिण भारत में भाजपा की बढ़ती स्वीकार्यता बताते हैं। इन परिणामों में नरेंद्र मोदी की छवि और उनका परिश्रम संयुक्त है। 

  उत्तर प्रदेश, राजस्थान,बंगाल और महाराष्ट्र से गंभीर नुकसान के बाद भी सबसे बड़े दल के रूप में भाजपा को जिताकर ले आना और एनडीए को बहुमत दिलाने में उनकी खास भूमिका है।  एनडीए सांसद और सहयोगी दल भी मानते हैं उन्हें मोदी की छवि का फायदा अपने-अपने क्षेत्रों में मिला है। 10 साल के सत्ता विरोधी रूझानों के बाद भी अन्य क्षेत्रों में विस्तार करते हुए भाजपा और एनडीए अपनी सत्ता बचाने में कामयाब रहे, यह साधारण बात नहीं है।

   राजग ने चुनावी जंग में मध्यप्रदेश, हिमाचल प्रदेश, दिल्ली, उत्तराखंड, अरुणाचल प्रदेश की सभी सीटें जीत लीं। बावजूद इसके अपराजेय समझे जाने वाले 'मोदी -योगी ब्रांड' को उत्तर प्रदेश में बहुत गहरा झटका लगा है। प्रधानमंत्री की वाराणसी में जीत के अंतर को भी विरोधी रेखांकित कर रहे हैं। अयोध्या की हार मीडिया की सबसे बड़ी खबर बन गयी है। जाहिर तौर पर इसे लोकतंत्र की खूबसूरती ही मानना चाहिए। इसलिए इसे जनादेश कहते हैं। आरक्षण और संविधान बदलाव के भ्रामक प्रचार ने जैसा उत्तर प्रदेश में असर दिखाया है , संभव है बिहार में चिराग पासवान और जीतनराम मांझी गठबंधन में न होते तो वहां भी ऐसा ही नुकसान संभावित था। 

 कांग्रेस और उसके गठबंधन को निश्चित ही बड़ी सफलता मिली है। इसके चलते संसद और उसके बाहर मोदी सरकार को चुनौतियां मिलती रहेंगी। विपक्ष का बढ़ा आत्मविश्वास क्या आनेवाले समय में सरकार के लिए संकट खड़ा कर पाएगा, इसे देखना रोचक होगा।

  भारतीय लोकतंत्र वैसे भी निरंतर परिपक्व हुआ है। सर्वसमावेशी होना उसका स्वभाव है। 'सबका साथ, सबका विकास' ही मोदी मंत्र रहा है। बाद में मोदी ने इसमें दो चीजें और जोड़ीं 'सबका विश्वास और सबका प्रयास'। गठबंधन सरकार चलाने के लिए इससे अच्छा मंत्र क्या हो सकता है। मोदी और उनकी पार्टी ने विकसित भारत बनाने का कठिन उत्तरदायित्व लिया है, वे इस संकल्प को पूरा करने के लिए प्रयास करेंगे तो यही बात भारत मां के माथे पर सौभाग्य का टीका साबित होगी।


शनिवार, 8 जून 2024

मध्यप्रदेश में खास रही 'स्त्री शक्ति' की भूमिका

-लोकसभा की सभी सीटें जीतकर भाजपा ने रचा इतिहास 

-प्रो.संजय द्विवेदी 



मध्यप्रदेश में सभी लोकसभा सीटों पर विजय प्राप्त कर भाजपा ने कठिन समय में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को बड़ा सहारा दिया है। जिसमें मध्यप्रदेश की महिला मतदाताओं का योगदान सबसे महत्वपूर्ण है। विधानसभा चुनाव अभियान से ही प्रधानमंत्री मोदी मध्यप्रदेश में सबसे खास चेहरा बने हुए हैं। मध्यप्रदेश विधानसभा चुनावों में भाजपा ने मोदी के चेहरे पर ही चुनाव लड़ा था और भारी जनसमर्थन प्राप्त किया। 'मोदी के मन में मध्यप्रदेश, मध्यप्रदेश के मन में मोदी' यह मुख्य नारा था, जिसमें संगठन के परिश्रम ने प्राण फूंक दिए।

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की सत्ता में तीसरी बार वापसी एक असाधारण घटना है। भारत जैसे जीवंत लोकतंत्र में अपनी लोकप्रियता और प्रासंगिकता बनाए रखना इतना आसान नहीं होता। भाजपा जैसे दल के लिए जिसने 8 वें दशक में सिर्फ दो लोकसभा सीटों के साथ अपनी यात्रा प्रारंभ की हो, यह चमत्कार ही है।  अनपेक्षित परिणामों के बाद भी केंद्र में भाजपा सबसे बड़ी पार्टी और एनडीए सबसे बड़ा गठबंधन है। मध्यप्रदेश वैसे भी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भाजपा के अद्भुत समन्वय से चलने वाला राज्य रहा है। मुख्यमंत्री मोहन यादव, भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष विष्णु दत्त शर्मा, पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान, संगठन मंत्री हितानंद शर्मा, ज्योतिरादित्य सिंधिया जैसे दिग्गजों की जुगलबंदी ने जो इतिहास रचा है, उसे लंबे समय तक याद किया जाएगा। इसके अलावा नरेंद्र सिंह तोमर, कैलाश विजयवर्गीय, प्रहलाद पटेल, राजेन्द्र शुक्ल, फग्गन सिंह कुलस्ते, वीरेंद्र कुमार जैसे अनेक नेता भाजपा के सामाजिक और भौगोलिक विस्तार को स्थापित करते हैं।

संघ की प्रयोगभूमि होने के कारण मध्यप्रदेश पर पूरे देश की निगाह थी। मध्यप्रदेश में यह वैचारिक यात्रा हिंदुत्व,भारतबोध की यात्रा तो है ही समाज के सभी वर्गों की हिस्सेदारी ने इसे सफल बनाया है। स्त्री शक्ति इसमें सबसे प्रमुख है। पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने जहां स्त्री शक्ति को भाजपा के साथ गोलबंद करने में अहम भूमिका निभाई, वहीं प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने सत्ता में आते ही सामान्य जन के जीवन स्तर को उठाने के प्रयास किए। विभिन्न योजनाओं के माध्यम से गरीब परिवारों को संबल दिया, जिस बदलाव को स्त्री शक्ति ने महसूस किया। स्त्री भारतीय परिवारों की धुरी है। भारतीय राजनीति में स्त्री को इस तरह से केंद्र में रखकर कभी विचार नहीं किया गया। यह बात रेखांकित करना चाहिए कि आखिर देश की राजनीति में स्त्री के सवाल हाशिए पर क्यों रहे हैं? स्त्री आखिर चाहती क्या है? वह चाहती है सुखद, सुरक्षित, आनंदमय जीवन और अपने बच्चों का सुनहरा भविष्य। एक अदद छत जिसमें वह अपने परिवार के साथ चैन से रह सके। 

 नरेंद्र मोदी ने सामान्य भारतीय स्त्री के इस मन और जीवन की समस्याओं को संबोधित किया। स्त्री को सुरक्षित परिवेश और बेटियों को आसमान छूने की प्रेरणा दी। बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ सिर्फ नारा नहीं एक सामाजिक संकल्प बन गया। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी बहुत सामान्य परिस्थितियों से आगे बढ़े हैं। वे परिवारों को चलाने वाली स्त्री के दर्द, उसकी जरूरतों को समझने वाले राजनेता हैं। उज्जवला गैस जैसे योजना उनके संवेदनशील मन की गवाही देती है। लकड़ियां लेटर आने,गोबर के उपलों से खाना बनाती स्त्री, उसके कष्ट सब नहीं समझ सकते। धुएं के नाते उसको होने वाले स्वास्थ्यगत नुकसान को भी सब नहीं समझ सकते। बात छोटी है,पर संवेदना बहुत बड़ी। इसी तरह शौचालय न होने के कारण स्त्री के कष्ट से हर घर शौचालय का विचार एक क्रांतिकारी कदम था। यह मुद्दा महिला सुरक्षा ,स्वास्थ्य और स्वच्छता सबसे जुड़ा हुआ मुद्दा है। मध्यप्रदेश ने केंद्र की सभी योजनाओं का श्रेष्ठ क्रियान्वयन किया। इस पहल ने देश और प्रदेश में परिवर्तन का सूत्रपात किया।  प्रधानमंत्री आवास योजना इसी दिशा में उठाया गया एक ऐसा कदम था, जिसने परिवार को छत दी। आप लाख कहें महिला के लिए उसके घर से बड़ी कोई चीज नहीं होती। यह बहुत भावनात्मक विषय है, जो सामान्य मन से समझ में नहीं आएगा। कोरोना संकट में देश और उसके नागरिकों की अभिभावक की तरह चिंता करके प्रधानमंत्री ने लोगों के मन में जगह बना ली। वैक्सीन से लेकर 80 करोड़ परिवारों को राशन ने स्त्रियों के मन में सरकार के प्रति भरोसा जगाया। 

  स्त्री कल्याण की योजनाएं मध्यप्रदेश में शिवराज सिंह चौहान को 'मामा' के रूप में स्थापित कर गयीं। शिवराज जी मध्यप्रदेश में इसी लोकप्रियता के कारण अपनी सीट आठ लाख से ज्यादा मतों से जीते और मध्य प्रदेश में सबसे बड़ी सफलता मिली। भाजपा मध्यप्रदेश की सरकार सामाजिक कल्याण की योजनाएं और केंद्र की योजनाओं ने कमाल किया। भरोसा पैदा किया। मोदी ने 2014 में सत्ता में आते ही अपनी सरकार को गरीबों के कल्याण के समर्पित होने की 'घोषणा' की थी। यह घोषणा बाद के 10 सालों में 'संकल्प' सरीखी नजर आई। भरोसा जगाते हुए मोदी देश के दिल में उतरते चले गए। मध्यप्रदेश में नरेंद्र मोदी के प्रति गहरा प्रेम और सम्मान तब भी प्रकट हुआ, जब विधानसभा चुनावों में भाजपा ने अभूतपूर्व जनादेश प्राप्त किया। इसके लिए पीएम ने सार्वजनिक मंच पर प्रदेश अध्यक्ष विष्णु दत्त शर्मा की पीठ भी ठोंकी। मुख्यमंत्री मोहन यादव ने साफ कहा कि महिला कल्याण की कोई योजना बंद नहीं होगी। कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष जीतू पटवारी भी लालड़ी बहना योजना को चुनावों में प्रभावित करने वाला बताते हैं।

  संसद और विधानसभाओं के लिए महिला आरक्षण बिल पास करवाना  भी केंद्र सरकार की बहुत बड़ी उपलब्धि रही। लंबे समय से लंबित यह बिल अनेक सरकारों के प्रयास के बाद भी पास नहीं हो सका था। मोदी सरकार की स्त्री मुद्दों पर प्रतिबद्धता भी इससे जाहिर हुई। साथ ही इस संसदीय चुनाव में देश में भाजपा ने 69 महिलाओं को टिकट दिया। कांग्रेस ने 41 महिला प्रत्याशी उतारे।‌ संकेत और संदर्भ राजनीति को प्रभावित करते हैं। ऐसे में भाजपा की ओर स्त्री शक्ति का आकर्षण सहज ही है। आंकड़े बताते हैं कि हर वर्ग की महिलाओं में भाजपा की लोकप्रियता किसी अन्य दल से ज्यादा है। मोदी वैसे भी सामान्य रूप से सभी वर्गों के आकर्षण के केंद्र हैं। महिलाओं और युवाओं में उनकी लोकप्रियता बहुत है। सही मायनों में भारतीय लोकतंत्र में बढ़ती महिलाओं की हिस्सेदारी और उनका वोट प्रतिशत बड़े बदलाव का सूचक है। राष्ट्रपति के रूप में श्रीमती द्रोपदी मुर्मू के चुनाव ने राष्ट्रीय स्तर पर महिलाओं को प्रेरित किया। नरेंद्र मोदी ने 'आकांक्षावान भारत' की उम्मीदों को पंख लगा दिए हैं। अपने बच्चों के उज्जवल भविष्य को लेकर महिलाएं सदैव चिंतित रहती हैं। अपने विकास केंद्रित विजन से मोदी सरकार भविष्य के आत्मविश्वासी भारत की नींव रख चुकी है। भरोसा यहीं से आता है। महिलाएं जानती हैं यह मोदी की गारंटी है, पूरी होनी चाहिए। स्त्री शक्ति के इस सहयोग और आशीर्वाद के बाद मोदी सरकार की जिम्मेदारियां बहुत बढ़ गई हैं, देखना है केंद्र सरकार आने वाले समय में इन प्रश्नों को किस तरह संबोधित करती है। फिलहाल तो देश की जनता और स्त्री शक्ति के जनादेश से सत्ता में आई एनडीए सरकार को शुभकामनाएं ही दी जा सकती हैं। 

मध्यप्रदेश ने साबित किया है कि सत्ता और संगठन में समन्वय से ही अच्छे परिणाम पाए जा सकते हैं। महिलाओं को अपने साथ गोलबंद कर भाजपा ने अपना आधार मध्यप्रदेश में बहुत मजबूत कर लिया है। महिला आरक्षण बिल के बाद निश्चित ही आने वाले समय में राजनीति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने के लिए महिलाओं को आगे आना ही होगा। ऐसे में मध्यप्रदेश में होने वाले संगठनात्मक प्रयोग अन्य राज्यों के लिए भी सबक होंगे।