बुधवार, 25 मार्च 2020

कुशाभाऊ ठाकरे का नाम हटाना चंदूलाल जी का सम्मान नहीं

छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री श्री भूपेश बघेल के नाम संजय द्विवेदी का खुला पत्र



सेवा में,
श्री भूपेश बघेल जी
मुख्यमंत्रीः छत्तीसगढ़ शासन, रायपुर

 आदरणीय भूपेश जी,
 सादर नमस्कार,
    आशा है आप स्वस्थ एवं सानंद हैं। यह पत्र विशेष प्रयोजन से लिख रहा हूं। मुझे समाचार पत्रों से पता चला कि आपके मंत्रिमंडल ने रायपुर स्थित कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता एवं जनसंचार विश्वविद्यालय का नाम बदलकर अब चंदूलाल चंद्राकर पत्रकारिता एवं जनसंचार विश्वविद्यालय करने का निर्णय लिया है। राज्य के मुख्यमंत्री होने के नाते और लोकतंत्र में जनादेश प्राप्त राजनेता होने के नाते आपका निर्णय सिर माथे। लेकिन आपके इस फैसले पर मेरे मन में कई प्रश्न उठे हैं, जिन्हें आपसे साझा करना जागरूक नागरिक होने के नाते अपना कर्तव्य समझता हूं।
    मैंने 1994 से लेकर 2009 तक अपनी युवा अवस्था का एक लंबा समय पत्रकार होने के नाते छत्तीसगढ़ की सेवा में व्यतीत किया है। रायपुर और बिलासपुर में अनेक अखबारों के माध्यम से मैंने छत्तीसगढ़ महतारी की सेवा और उसके भूमिपुत्रों को न्याय दिलाने के लिए सतत लेखन किया है। मेरी पुस्तकों के विमोचन कार्यक्रमों में तत्कालीन मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह, अजीत जोगी, डा. रमन सिंह, सत्यनारायण शर्मा, बृजमोहन अग्रवाल, चरणदास महंत, धर्मजीत सिंह,स्व. नंदकुमार पटेल, स्व.बी.आर. यादव जैसे नेता आते रहे हैं। आपसे भी विधायक और मंत्री के नाते मेरा व्यक्तिगत संवाद रहा है। आपके गांव भी आपके साथ एक आयोजन में जाने का अवसर मिला और क्षेत्र में आपकी लोकप्रियता, संघर्षशीलता का गवाह  रहा हूं।
योद्धा हैं आप-
   आपसे हुए अनेक संवादों में आपके व्यक्तित्व, उदारता और लोगों को साथ लेकर चलने की आपकी क्षमता तथा छत्तीसगढ़ राज्य के लिए आपके मन में पल रहे सुंदर सपनों को जानने-समझने का अवसर मिला। मैं आपकी संघर्षशीलता, अंतिम व्यक्ति के प्रति आपके अनुराग को प्रणाम करता हूं। आप सही मायने में योद्धा हैं, जिन्होंने स्व. नंदकुमार पटेल के छोड़े हुए काम को पूरा किया। सत्ता में आने के बाद आपका रवैया आपको एक अलग छवि दे रहा है, जिसके बारे में शायद आपके सलाहकार आपको नहीं बताते हैं। आप राज्य के मुख्यमंत्री हो चुके हैं और मैं अदना सा लेखक हूं, सो आपसे मित्रता का दावा तो नहीं कर सकता। किंतु आपका शुभचिंतक होने के नाते मैं आपसे यह निवेदन करना चाहता हूं कि आप कटुता, बदले की भावना और निपटाने की राजनीति से बचें। यह कांग्रेस का रास्ता नहीं है, देश का रास्ता नहीं है और छत्तीसगढ़ का रास्ता तो बिल्कुल नहीं।
नाम में क्या रखा है-
   विश्वविद्यालय का नाम आदरणीय चंदूलाल चंद्राकर के नाम पर रखकर आप उनका सम्मान नहीं कर रहे, बल्कि एक महानायक को विवादों में ही डाल रहे हैं। चंदूलाल जी छत्तीसगढ़ राज्य के स्वप्नदृष्टा हैं। वे पांच बार दुर्ग क्षेत्र से लोकसभा के सांसद, दो बार केंद्रीय मंत्री, कांग्रेस के प्रवक्ता और राष्ट्रीय महासचिव जैसे पदों पर रहे हैं। वे छत्तीसगढ़ के पहले पत्रकार हैं जिन्हें दैनिक हिंदुस्तान जैसे राष्ट्रीय अखबार का संपादक होने का अवसर मिला। ऐसे महत्त्वपूर्ण पत्रकार, राजनेता और सामाजिक कार्यकर्ता के नाम पर आप कुछ बड़ा कर सकते थे। एक बड़ी लकीर खींच सकते थे किंतु आपको चंदूलाल जी का सम्मान नहीं, एक अन्य सामाजिक कार्यकर्ता कुशाभाऊ ठाकरे का नाम हटाना ज्यादा प्रिय है। मुझे लगता है इससे आपने अपना कद छोटा ही किया है।
      मृत्यु के बाद कोई भी सामाजिक कार्यकर्ता पूरे समाज का होता है। राजनीतिक आस्थाओं के नाम पर उसका मूल्यांकन नहीं किया जा सकता। समाज के प्रति उसका प्रदेय सब स्वीकारते और मानते हैं। स्वयं चंदूलाल जी यह पसंद नहीं करते कि उनकी स्मृति में ऐसा काम हो, जिसके लिए किसी का नाम मिटाना पड़े।
     कुशाभाऊ जी एक सात्विक वृत्ति के राजनीतिक नायक थे, जिन्होंने छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश की अहर्निश सेवा की। उनका नाम एक विश्वविद्यालय से हटाकर आप उसी अतिवाद को पोषित करेगें, जिसके तहत कुछ लोग जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय का नाम बदलने की बात करते हैं। नाम बदलने की प्रतियोगिता हमें कहीं का नहीं छोड़ेगी। यह देश की संस्कृति नहीं है। हमें यह भी सोचना चाहिए कि सत्ता आजन्म के लिए नहीं होती। काल के प्रवाह में पांच साल कुछ नहीं होते। कल अगर कोई अन्य दल सत्ता में आकर चंदूलाल जी का नाम इस विश्वविद्यालय से फिर हटाए तो क्या होगा ? हम अपने नायकों का सम्मान चाहते हैं या उनके नाम पर राजनीति यह आपको सोचना है। इस बहाने शिक्षा परिसरों को हम अखाड़ा बना ही रहे हैं, जो वस्तुतः अपराध ही है।
      मैं आपको सिर्फ स्मरण दिलाना चाहता हूं कि डा. रमन सिंह की सरकार ने तीन विश्वविद्यालय साथ में खोले थे स्वामी विवेकानंद टेक्नीकल विश्वविद्यालय, पं. सुंदरलाल शर्मा खुला विश्वविद्यालय और कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता विश्वविद्यालय। इनमें सुंदरलाल शर्मा आजन्म कांग्रेसी रहे, जिनसे राष्ट्रपिता महात्मा गांधी भी प्रभावित थे। इससे क्या डा. रमन सिंह का कद घट गया। चंदूलाल चंद्राकर जी के नाम पर जनसंपर्क विभाग के पुरस्कार दिए जाते रहे, पंद्रह साल राज्य में भाजपा की सरकार रही तो क्या भाजपा ने उनके नाम पर दिए जा रहे पुरस्कारों को बदल दिया। नायक मृत्यु के बाद राजनीति का नहीं, समाज का होता है। तत्कालीन रमन सरकार ने इसी भावना को पोषित किया। इसके साथ ही महाकवि गजानन माधव मुक्तिबोध की स्मृति को चिरस्थायी बनाने के लिए राजनांदगांव में डा. रमन सिंह ने जो कुछ किया, उसकी देश के अनेक साहित्यकारों ने सराहना की। क्या हम अपने नायकों को भी दलगत राजनीतिक का शिकार बन जाने देगें। मुझे लगता है यह उचित नहीं है। कुशाभाऊ ठाकरे विश्वविद्यालय में ठाकरे जी की प्रतिमा भी स्थापित है। अनेक वर्षों में सैकड़ों विद्यार्थी यहां से अपनी डिग्री लेकर जा चुके हैं। उनकी डिग्रियों पर उनके विश्वविद्यालय का नाम है। इस नाम से एक भावनात्मक लगाव है। मुझे लगता है कि इतिहास को इस तरह बदलना जरूरी नहीं है। एक नए विश्वविद्यालय के साथ जो अभी ठीक से अपने पैरों पर खड़ा भी नहीं है, इस तरह के प्रयोग उसे कई नए संकटों में डाल सकते हैं। यह कहा जा रहा है कि कुछ पत्रकारों की मांग पर ऐसा किया गया, आप आदेश करें तो मैं देश भर के तमाम संपादकों के पत्र आपको भिजवा देता हूं जो इस नाम को बदलने का विरोध करेंगे। राजनीति में इस तरह के प्रपंचों को आप बेहतर समझते हैं, इस प्रायोजिकता का कोई मूल्य नहीं है। मूल्य है उन विचारों का जिससे आगे का रास्ता सुंदर और विवादहीन बनाया जा सकता है।
गांधी परिवार पर हमले के लिए अवसर-
    आपके विद्वान सलाहकार आपको नहीं बताएंगे क्योंकि उनकी प्रेरणाभूमि भारत नहीं है, नेहरू और गांधी नहीं हैं। प्रतिहिंसा और विवाद पैदा करना उनकी राजनीति है। आज वे कांग्रेस के मंच पर आकर यही सब करना चाहते हैं, जिसके चलते उनकी समूची विचारधारा पुरातात्विक महत्त्व की चीज बन गयी है। वे आपको यह नहीं बताएंगें कि ऐसे कृत्यों से आप गांधी- नेहरू परिवार के अपमान के लिए नई जमीन तैयार कर रहे हैं। देश में अनेक संस्थाएं पं. जवाहरलाल नेहरू,श्रीमती इंदिरा गांधी, श्री फिरोज गांधी, श्री राजीव गांधी, श्री संजय गांधी के नाम पर हैं। इस बहाने गांधी परिवार के राजनीतिक विरोधियों को इनकी गिनती करने और मृत्यु के बाद इन नायकों पर हमले करने का अवसर मिलता है। मेरा मानना है यह एक ऐसी गली में प्रवेश है, जहां से वापसी नहीं है। अपने राजनीतिक चिंतन का विस्तार करें, इन छोटे सवालों में आप जैसे व्यक्ति का उलझना ठीक नहीं है। छत्तीसगढ़ के अनेक नायकों के लिए आपको कुछ करना चाहिए पं. माधवराव सप्रे,कवि-पत्रकार-राजनेता श्रीकांत वर्मा,सरस्वती के संपादक रहे पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी, रंगकर्मी सत्यदेव दुबे जैसे अनेक नायक हैं जिनकी स्मृति का संरक्षण जरूरी है। लेकिन यह काम किसी का नाम पोंछकर न हो।
सेवा के अवसर को यूं न गवाएं-
    महिमामय प्रभु ने बहुत भाग्य से आपको छत्तीसगढ़ महतारी की सेवा का अवसर दिया है। छत्तीसगढ़ को देश का अग्रणी राज्य बनाना और उसके सपनों में रंग भरने की जिम्मेदारी इतिहास ने आपको दी है। इस समूचे भूगोल की सेवा और इसके नागरिकों को न्याय दिलाना आपका कर्तव्य है। इन विवादित कदमों से बड़े लक्ष्यों को हासिल करने में कोई मदद नहीं मिलेगी। छत्तीसगढ़ के स्वभाव को आप मुझसे ज्यादा जानते हैं। यहां अतिवाद की राजनीति के लिए कोई जगह नहीं है। राज्य के प्रथम मुख्यमंत्री श्री अजीत जोगी अपनी तमाम योग्यताओं के बावजूद भी राज्य की जनता वह स्नेह नहीं पा सके, जिसके वे अधिकारी थे। आप सोचिए कि ऐसा क्यों हुआ ? राज्य की जनता ने डा. रमन सिंह को सेवा के लिए तीन कार्यकाल दिए। यह छत्तीसगढ़ है जहां लोग अपने जैसे लोगों को,सरल और सहज स्वभाव को स्वीकारते हैं। यहां नफरतें और कड़वाहटें लंबी नहीं चल सकतीं।
      इस माटी के प्रति मेरा सहज अनुराग मुझे यह कहने के लिए बाध्य कर रहा है कि आप राज्य के स्वभाव के विपरीत न चलें। प्रतिहिंसा, विवाद और वितंडावाद यहां के स्वभाव का हिस्सा नहीं है। अभी तीन दिन पहले बस्तर में सुरक्षाबलों के 17 जवान शहीद हुए हैं। करोना से सारा देश जूझ रहा है। ऐसे समय में बस्तर की शांति, छत्तीसगढ़ के नागरिकों का स्वास्थ्य आपकी पहली प्राथमिकता होनी चाहिए। मुझे आपको कर्तव्यबोध कराने का साहस नहीं करना चाहिए किंतु आपके प्रति सद्भाव और मेरे प्रति आपका स्नेह मुझे यह हिम्मत दे रहा है। छत्तीसगढ़ महतारी की मुझ पर अपार कृपा रही है। बिलासपुर में बैठी मां महामाया, बस्तर की मां दंतेश्वरी, डोंगरगढ़ की मां बमलेश्वरी से मैं नवरात्रि के दिनों में यह प्रार्थना करता हूं वे आपको शक्ति, साहस दें कि आप अपना मार्ग प्रशस्त कर सकें। बेहतर होगा कि आप अपने मंत्रिमंडल द्वारा लिए इस फैसले को वापस लेकर सद्भाव की राजनीतिक परंपरा को अक्षुण्ण रखेंगें। भारतीय नववर्ष पर आपको सुखी और सार्थक जीवन के लिए मंगलकामनाएं।
जय जोहार!
सादर आपका शुभचिंतक
-        संजय द्विवेदी,
                                                                                कार्यकारी संपादकः मीडिया विमर्श, भोपाल

                                                       

गुरुवार, 5 मार्च 2020

दिवाकर मुक्तिबोधः छत्तीसगढ़ की हिंदी पत्रकारिता का चमकदार चेहरा


-प्रो. संजय द्विवेदी


    छत्तीसगढ़ यानी वह प्रदेश जहां हिंदी पत्रकारिता की उजली परंपरा का प्रारंभ पं. माधवराव सप्रे ने सन् 1900 में छत्तीसगढ़ मित्र के माध्यम से किया। उसके बाद की पीढ़ी में तमाम नायक सामने आते गए और अपनी यशस्वी भूमिका का निर्वहन करते रहे। हमारे समय के नायकों में एक नाम है श्री दिवाकर मुक्तिबोध का। आधुनिक हिंदी पत्रकारिता में उनकी मौजूदगी ऐसे संपादक की तरह है, जिसने बिना शोरगुल मचाए पत्रकारिता का धर्म निभाया। बड़े अखबारों के संपादक रहे इस व्यक्ति ने खुद को हमेशा आम आदमी बनाए रखा। रायपुर, बिलासपुर में उनकी सौम्य उपस्थिति हमने देखी और महसूस की है। दिवाकर मुक्तिबोध हमारे समय के उन संपादकों में हैं, जिन्होंने रिपोर्टिंग से अपनी शुरुआत की और बाद के दिनों में कुशल संपादक, राजनीतिक विश्लेषक के रूप में अपनी पहचान बनाई।  
यशस्वी पारिवारिक परंपरा के संवाहक-
     हिंदी के यशस्वी कवि-लेखक श्री गजानन माधव मुक्तिबोध का पुत्र होना ही आत्मगौरव का विषय है। दिवाकर जी का पिता के प्रति आदर है, किंतु वे उनके नाम का इस्तेमाल नहीं करते। उनका नाम लेने से वे संकोच से भर जाते हैं। पिता की यादें, उनका संघर्ष उनकी आंखों को पनीला कर जाते हैं। मां और पिता के प्रति उनका यह स्वाभाविक अनुराग और सम्मान उन्हें आज भी संबल देता है। हिंदी सेवा के भाव उन्हें अपने परिवार से विरासत में ही मिले हैं। अपने पिता की लंबी छाया के बीच पहचान बनाना कठिन होता है। किंतु दिवाकर जी ने साहित्य के बजाए पत्रकारिता का मार्ग पकड़ा और अपनी खास जगह बनाई। छत्तीसगढ़ क्षेत्र के दिग्गज संपादकों का स्मरण करें तो उनमें सर्वश्री चंदूलाल चंद्राकर, गोविंदलाल वोरा, बबन प्रसाद मिश्र, रमेश नैयर, गुरूदेव काश्यप, तुषारकांति बोस, श्रीकांत वर्मा, जगदीश उपासने, सुधीर सक्सेना, ललित सुरजन, विष्णु सिन्हा, रम्मू श्रीवास्तव, बसंत कुमार तिवारी, राजनारायण मिश्र, डा. हिमांशु द्विवेदी,सुनील कुमार, गिरिजाशंकर, रूचिर गर्ग जैसे अनेक नाम ध्यान में आते हैं। इन सबके बीच दिवाकर मुक्तिबोध का नाम भी बहुत सम्मान से लिया जाता है। मराठीभाषी होते हुए भी वे हिंदी सेवा में पं. माधवराव सप्रे जी के मार्ग के अनुयायी हैं।
विविध भूमिकाओं में बनी शानदार पहचान-
     मध्यप्रदेश के इंदौर शहर में 5 अगस्त,1948 को जन्में दिवाकर जी ने समाजशास्त्र में स्नातकोत्तर की परीक्षा पास की।पत्रकारीय रुचि के चलते पत्रकारिता में स्नातक की डिग्री भी ली। छत्तीसगढ़ की पत्रकारिता के पिछले साढ़े चार दशक, दिवाकर मुक्तिबोध की पत्रकारीय यात्रा के गवाह हैं। मूल्यनिष्ठ पत्रकारिता के वे अप्रतिम उदाहरण हैं। राजनीतिक रिपोर्टिंग, खेल रिपोर्टिंग, उपसंपादक, समाचार संपादक, स्थानीय संपादक, संपादक जैसे अनेक भूमिकाओं में उन्होंने खुद को साबित किया। उनकी खास पहचान राजनीतिक विश्लेषक के रूप में बनी। दैनिक भास्कर एवं नवभारत में उनके स्तंभ हस्तक्षेप, हफ्तावार, देख भाई देख, बिंब-प्रतिबिंब बहुत सराहे गए। इन स्तंभों के अलावा भी उन्होंने विपुल लेखन किया है। अपने लेखों के माध्यम से वे हमारे समय की समस्याओं, संकटों, राजनीतिक संदर्भों पर पैनी टिप्पणियां करते रहे। जिनसे छत्तीसगढ़ का पाठक वर्ग जुड़ाव महसूस करता रहा। उनकी सबसे बड़ी खूबी यह है कि उनके लेखन में नीर-क्षीर-विवेक के दर्शन होते हैं। राजनीतिक विचारों से वे आक्रांत नहीं होते और सच के साथ निर्भीकता से खड़े होकर उन्होंने वही कहा जो उचित था। उनके समूचे लेखन में सच का स्पंदन है, उसका ताप है। वे कहते हैं तो सुनना अच्छा लगता है, क्योंकि वे हमारी बात कह रहे होते हैं। अपने जीवन में वे जितने सरल और संयत दिखते हैं, उनकी पत्रकारिता में उतना ही तेज और ताप है। आपसे निजी तौर पर वे बहुत सहजता, सरलता और धीमी आवाज में बात करेंगे, किंतु उनके मन में खबरों को लेकर जो तड़प है वह उनके पास बैठकर ही महसूस की जा सकती है। देशबंधु, नवभारत, अमृतसंदेश, दैनिक भास्कर, न्यूज चैनल वाच न्यूज,आज की जनधारा, अमन पथ, पायनियर जैसे मीडिया संस्थानों में काम करते हुए उनके साथ कई पीढ़ियों को पत्रकारिता का ककहरा सीखने का अवसर मिला। छत्तीसगढ़ के पत्रकार मित्रों से मिलते हुए दिवाकर जी बात हो तो ज्यादातर उनके मुरीद मिलेंगे। क्योंकि जब भी जिस भूमिका में रहे हों, दिवाकर जी ने सबके साथ न्याय किया है।
कुशल संपादक, योग्य नेतृत्वकर्ता-
   दैनिक भास्कर- रायपुर और बिलासपुर और नवभारत-बिलासपुर के संपादक के रुप में दिवाकर जी जब कार्यरत थे, उनके काम को, कार्यशैली को निकट से देखने और महसूस करने का अवसर मिला। दैनिक भास्कर, बिलासपुर में तो वे मेरे संपादक ही रहे। उनके साथ काम करना वात्सल्य की छांव में काम करना है। वे अपने अपने अधीनस्थों की जिस तरह रक्षा करते हैं, वह विरल है। जिम्मेदारी देना और भरोसा करना उनसे सीखा जा सकता है। कम बोलकर भी वे कमांड पूरा रखते हैं। भाषा के साथ उनका बहुत सावधानी का रिश्ता है। उनमें एक ऐसा कापी एडीटर है जो शुद्धता का  आग्रही है। वे पत्रकारिता की भाषा के साथ कोई मजाक नहीं चाहते। इसलिए साफ-सुथरी कापी उनकी पसंद है। वे मूलतः रिर्पोटर हैं किंतु भाषा की उनमें विलक्षण समझ उन्हें सफल संपादक भी बनाती है। उनके साथ काम करते हुए मैंने उनसे अनेक पाठ सीखे। उनकी ऊंचाई के सामने आपका सारा अहंकार विलीन हो जाता है, मंद मुस्कान के साथ जब वे आपका, आपके परिवार का हाल पूछते हैं तो लगता है कि आपने सब कुछ पा लिया। दिवाकर जी सही मायनों में खालिस पारिवारिक व्यक्ति हैं, उनका लेखन भले ही सार्वजनिक हो। उनकी दुआएँ और उनका साथ हमें मिला, इससे हमारी और हम जैसों की दुनिया खूबसूरत ही बनी। हमें खुशी है कि उनकी जिंदगी में हमारे लिए जगह है। सारगर्भित लेखन और संपादन के लिए उन्हें 2008 में वसुंधरा सम्मान से भी अलंकृत किया गया।
किताबें बताती हैं समय का सच-
    दिवाकर जी की दो किताबें इस राह से गुजरते हुए और 36 का चौसर उनके लेखन की बानगी देती हैं, इतिहास को समेटे हुए, अपने समय का आख्यान करते हुए। ये किताबें बिलासपुर के श्री प्रकाशन से छपी हैं। दिवाकर जी की पहली किताब उनके विश्लेषणों की किताब है जिसमें वे विविध सामाजिक, राजनीतिक संदर्भों पर बात करते हैं। दूसरी किताब छत्तीसगढ़ केंद्रित है। इसमें छत्तीसगढ़ की राजनीति का जायजा है। उनके लेखों के गुजरते हुए इतिहास साथ चलता है। एक जिंदादिल पत्रकार किस तरह अपने समय को देखता और विश्लेषित करता है, यह भी पता चलता है। बावजूद इसके इन किताबों से दिवाकर जी पूरे पता नहीं चलते। इसके लिए उनके जानने वालों के पास जाना होगा। वे रिर्पोटर, संपादक, प्रबंधक, परिवार के मुखिया, पिता और दोस्त हर भूमिका में फिट और हिट हैं। उनके साथ होना एक ऐसे पुराने पेड़ की छांव में होना है, जो निरंतर अपने लोगों को छांव दे रहा है और आक्सीजन भी। वे महसूस नहीं कराते, आपके लिए कर देते हैं। वे वाचाल नहीं हैं, इसलिए बोलकर करना उनकी आदत नहीं है। वे कहते कम हैं, करते ज्यादा हैं। इस दुनिया में उन्होंने सिर्फ दोस्त बनाए हैं, दुश्मन नहीं। अपने सच और अपने विचारों के साथ खड़े इस व्यक्ति ने कभी दुराग्रह नहीं रखे, लाभ और लोभ में नहीं फंसे। इसलिए हर कोई उनका अपना है और वे सबके हैं। छत्तीसगढ़ क्षेत्र के दिग्गज नेताओं, सामाजिक क्षेत्र और विविध विधाओं के नायकों से उनके जीवंत रिश्ते रहे हैं। इन रिश्तों को उन्होंने जिया किंतु अपने लाभ के लिए कभी उनका इस्तेमाल नहीं किया। शुचिता और परंपरा की विरासत और उसकी ठोस जमीन पर वे हमेशा खड़े नजर आए। राजनीति पर लिखना, राजनेताओं से रिश्ते रखना किंतु अपने लेखन और जीवन को उससे बचाकर रखना वे ही कर सकते थे, उन्होंने किया भी। उनके जैसे व्यक्ति के बारे में ही यह उक्ति कही गयी होगी- ज्योंकि त्यों धर दीनी चदरिया।  हिंदी की पत्रकारिता की सेवाओं के लिए उन्हें याद करना तो विशेष है ही, अच्छे मनुष्य के रूप में भी उनको याद किया जाना ज्यादा जरूरी है। क्योंकि इस कठिन समय में संपादक तो अनेक हैं किंतु मनुष्य कितने हैं। शायद इसलिए एक शायर लिखते हैं, आदमी को मयस्सर नहीं इंसा होना। दिवाकर मुक्तिबोध को मैं बेहतर संपादक, आला इंसान ,शानदार बास और बड़े भाई के रूप में याद करता हूं। इस तरह उनका हमारी जिंदगी में होना हमें भी गौरव देता है।
 संपर्कः प्रो. संजय द्विवेदी,
जनसंचार विभाग, माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय,
बी-38, विकास भवन, प्रेस कांप्लेक्स, महाराणा प्रताप नगर, भोपाल-462011 (मप्र)
मोबाइलः 9893598888, ई-मेलः 123dwivedi@gmail.com


मंगलवार, 3 मार्च 2020

बलदेव भाई शर्मा होने का मतलब


कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता विश्वविद्यालय के नए कुलपति का चयन क्यों है महत्त्वपूर्ण
-प्रो.संजय द्विवेदी



       हिंदी पत्रकारिता के विनम्र सेवकों की सूची जब भी बनेगी उसमें प्रो. बलदेव भाई शर्मा का नाम अनिवार्य रूप से शामिल होगा। ऐसा इसलिए नहीं कि उन्हें रायपुर स्थित कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता एवं जनसंचार विश्वविद्यालय का कुलपति नियुक्त किया गया है। बल्कि इसलिए कि उन्होंने छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश और दिल्ली की पत्रकारिता में अपने उजले पदचिन्ह छोड़े हैं। उनकी पत्रकारिता की पूरी पारी ध्येयनिष्ठा और भारतबोध से भरी है। वे अपने आसपास इतना सृजनात्मक और सकारात्मक वातावरण बना देते हैं कि नकारात्मकता वहां से बहुत दूर चली जाती है।
      बड़े अखबारों के संपादक,प्रोफेसर, नेशनल बुक ट्रस्ट के अध्यक्ष रहते हुए उनकी सेवाओं को सारे देश ने देखा और उसके स्पंदन को महसूस किया है। इस पूरी यात्रा में बलदेव भाई के निजी जीवन के द्वंद्व, निजी दुख, पारिवारिक कष्ट कहीं से उन्हें विचलित  नहीं करते। अपने युवा पुत्र और पुत्री के निधन के समाचार उन्हें आघात तो देते हैं पर इन पारिवारिक दुखों के बीच भी वे अविचल और अडिग खड़े रहते हैं। अपने जीवन की ध्येयनिष्ठा उन्हें शक्ति देती है । लोगों का साहचर्य उन्हें सामान्य बनाए रखता है। उनका साथ और सानिध्य मुझ जैसे अनेक युवाओं को मिला है, जो उनसे प्रेरणा लेकर पत्रकारिता के क्षेत्र में आए। उनसे सीखा और उनकी बनाई राह पर चलने की कोशिश की।
     मुख्यधारा की पत्रकारिता में जिस तरह उनके विरोधी विचारों का आधिपत्य था, उसके बीच उन्होंने राह बनाई। दैनिक भास्कर, हरियाणा के राज्य संपादक के रूप में उनकी सेवाएं और एक नए संस्थान को जमाने में उनकी मेहनत हमारे सामने है। इसी तरह वाराणसी में अमर उजाला के संस्थापक संपादक के रूप में संस्थान को आकार देकर उन्होंने साबित किया कि वे किसी भी तरह के कामों को अंजाम देने में दक्ष हैं। दिल्ली के नेशनल दुनिया के संपादक, नेशनल बुक ट्रस्ट के अध्यक्ष रहते हुए उनके द्वारा किए गए काम सराहे गए। उनके कार्यकाल में राष्ट्रीय पुस्तक मेले को एक नया और व्यापक स्वरूप मिला। किताबों की बिक्री कई गुना बढ़ गयी। उनके स्वभाव और सौजन्य से लोग जुड़ते चले गए।  
     स्वदेश, ग्वालियर और रायपुर के संपादक के रूप में मध्यप्रदेश- छत्तीसगढ़ की जमीन पर उन्होंने अपने रिश्तों का संसार खड़ा किया जो आज भी उन्हें अपना मानता है। रिश्तों को बनाना और उन्हें जीना उनसे सीखा जा सकता है। बलदेव भाई की कहानी ऐसे व्यक्ति की कहानी है, जिसने अपनी किशोरावस्था में एक स्वप्न देखा और उसे पूरा करने के लिए पूरी जिंदगी लगा दी। उनकी आरंभिक पत्रकारिता राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की वैचारिक छाया में चलने वाले प्रकाशनों स्वदेश और पांचजन्य के साथ चली। इस यात्रा ने उन्हें वैचारिक तौर पर प्रखरता और तेजस्विता दी। अपने लेखन और विचारों में वे दृढ़ बने। किंतु इसी संगठनात्मक-वैचारिक दीक्षा ने उन्हें समावेशी और लोकसंग्रही बनाया। अपनी इसी धार को लेकर वे मुख्यधारा के अखबारों में भी सफलता के झंडे गाड़ते रहे। मथुरा जिले के पटलौनी(बल्देव) गांव में 6 अक्टूबर,1955 में जन्में बलदेव भाई अपने लेखन कौशल के लिए जाने जाते हैं। उनकी कई पुस्तकें अब प्रकाशित होकर लोक विमर्श का हिस्सा हैं। जिनमें मेरे समय का भारत’, ‘आध्यात्मिक चेतना और सुगंधित जीवन’, 'संपादकीय विमर्श', 'अखबार और विचार' 'हमारे सुदर्शन जी' और सहजता की भव्यता शामिल हैं। उन्हें म.प्र. शासन के पं. माणिकचंद वाजपेयी राष्ट्रीय पत्रकारिता सम्मान’, स्वामी अखंडानंद मेमोरियल ट्रस्ट, मुंबई का रचनात्मक पत्रकारिता राष्ट्रीय सम्मान व केंद्रीय हिंदी संस्थान, आगरा द्वारा पंडित माधवराव सप्रे साहित्यिक पत्रकारिता सम्मान दिया जा चुका है। मूल्यनिष्ठ पत्रकारिता की लंबी और सार्थक पारी के बाद अब जब उन्हें देश के दूसरे पत्रकारिता विश्वविद्यालय के कुलपति के रूप में नियुक्त किया गया है तब उम्मीद की जानी कि वे अपने अनुभव, दक्षता और उदारता से इस शिक्षण संस्थान की राष्ट्रीय पहचान बनाने में अवश्य सफल होंगे। फिलहाल तो इस यशस्वी पत्रकार को शुभकामनाओं के सिवा दिया ही क्या जा सकता है।



गुरुवार, 13 फ़रवरी 2020

अच्छा इंसान बनने के लिए साहित्य पढ़ना जरुरी : रघु ठाकुर


युगतेवर पत्रिका के संपादक श्री कमलनयन पांडेय
12 वें  पं. बृजलाल द्विवेदी सम्मान से सम्मानित  




भोपाल। प्रख्यात साहित्यकार एवं युगतेवर पत्रिका के संपादक श्री कमलनयन पांडेय को 12वें पं. बृजलाल द्विवेदी स्मृति अखिल भारतीय साहित्यिक पत्रकारिता सम्मान से सम्मानित किया गया। भोपाल के गांधी भवन में मीडिया विमर्श पत्रिका एवं मूल्यानुगत मीडिया अभिक्रम के संयुक्त तत्वावधान में आयोजित सम्मान समारोह में उनको सम्मानित किया गया। इस अवसर पर मुख्य अतिथि प्रख्यात सामाजिक कार्यकर्ता एवं विचारक श्री रघु ठाकुर ने कहा कि पत्रकारिता की डिग्री के लिए साहित्य पढ़ना भले जरूरी न हो लेकिन एक अच्छा इंसान होने के लिए साहित्य पढ़ना जरूरी है। उन्होंने कहा कि पत्रकारिता के लिए विज्ञापन एक रोग है, किंतु विज्ञापन के बिना पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन कठिन कार्य है।
       समाजवादी चिंतक श्री रघु ठाकुर ने कहा कि आज के अखबारों में नेताओं के बारे में, उनके निजी जीवन के बारे में तो बहुत कुछ छपता है लेकिन साहित्यकारों के बारे में, उनके निजी जीवन के बारे में नहीं छपता है। उन्होंने कहा कि साहित्यकारों के बारे में, उनके सृजन के बारे में लोगों को जानकारी देनी चाहिए, अखबारों में साहित्यकारों को प्रमुखता से स्थान देना चाहिए। अगर अखबार पढ़ने से तनाव पैदा होता है, बेचैनी होती है, तो होनी भी चाहिए। उन्होंने कहा कि समाज में व्याप्त खामियां और समस्याओं को बदलने की शक्ति होनी चाहिए। अगर समाज में लोगों के साथ अन्याय हो रहा है तो उसके लिए बेचैनी होनी चाहिए, उसके साथ खड़ा होना चाहिए। 
सच्चा राष्ट्रवादी वही होगा जो सच्चा विश्ववादी होगा :
   राष्ट्रवाद के संबंध में अपनी बात रखते हुए रघु ठाकुर ने कहा कि एक सच्चा राष्ट्रवाद वही होगा जो सच्चा विश्ववादी होगा। अगर सभी देश अपनी सीमाओं को छोड़ने के लिए तैयार हो जाए तभी असली राष्ट्रवाद की नींव रखी जा सकती है। उन्होंने कहा कि मीडिया और राष्ट्रवाद के बीच संघर्ष की स्थिति नहीं होनी चाहिए।
पत्रकारिता के केंद्र में मनुष्य होता है : प्रो. कमल दीक्षित
कार्यक्रम के मुख्य वक्ता प्रो. कमल दीक्षित ने कहा कि पत्रकारिता देश और समाज के लिए नहीं होती बल्कि मनुष्यता के लिए होती है। इसलिए पत्रकारिता के केंद्र में मनुष्य होना चाहिए। उन्होंने कहा कि पिछले कुछ वर्षों में पत्रकारिता सामाजिक सरोकारों और मूल्यों से कट गई है। मीडिया का मूल्यानुगत होना आवश्यक है। पिछले कुछ वर्षों से हम इसी दिशा में प्रयास कर रहे हैं।
समाज के लिए जरूरी है असहमति : कमलनयन पांडेय
त्रैमासिक पत्रिका युगतेवर के संपादक श्री कमलनयन पांडेय ने कहा कि समाज में असहमति जरूरी है। जहां असहमति नहीं होती है, वहां सत्य का विस्फोट नहीं होता है। उन्होंने कहा कि शब्द सिर्फ शब्द नहीं होता है। शब्द संस्कृति होता है, प्रतीक होता है। उन्होंने प्रतीकों पर आधारित पत्रकारिता पर जोर देते हुए कहा कि जब रचनाकार रचना करता है तो वह प्रतीकों में रच बस जाता है। श्री पांडेय ने कहा कि शब्दों और प्रतीकों का अपना उत्कर्ष और अपकर्ष होता है। उन्होंने आदि पत्रकार नारद का उदाहरण देते हुए कहा कि कुछ लोग उन्हें चुगलखोर की संज्ञा देते हैं लेकिन यह सत्य नहीं है। उन्होंने कहा कि नारद  हमेशा कमजोर और शोषित वर्ग के लिए खड़े रहे और संचार संवाद का काम किया। उन्होंने कहा कि एक पत्रकार के रूप में आज भी नारद जीवित हैं।  लघु पत्रिका को परिभाषित करते हुए श्री पांडेय ने कहा कि जो संसाधन में सीमित हो लेकिन उद्देश्यों में महान हो उसे लघु पत्रिका कहते हैं। उन्होंने कहा कि लघु पत्रिकाओं ने सीमित दायरे में ही सही लेकिन पाठकों को सामाजिक सरोकारों से जोड़े रखा है। तमाम वैश्वीकरण और स्थानीयता के संघर्ष के बीच लघु पत्रिकाएं स्थानीयता को बचाने में पूरी ताकत से लगी हुई हैं। उन्होंने कहा कि लघु पत्रिकाओं का भविष्य आन्दोलनों में ही है। अंत में लघु पत्रिकाएं ही जनसंघर्ष और जनता का मंच बनेंगी।
     इस मौके पर विशिष्ट अतिथि के रूप में उपस्थित वरिष्ठ लेखक श्री गिरीश पंकज ने कहा कि लघु पत्रिकाएं एक महत्वपूर्ण दस्तावेज होती हैं, संग्रहणीय होती हैं। अखबारों की तरह हम उन्हें फेंकते नहीं है बल्कि संग्रहित कर के रखते हैं। मीडिया विमर्श का उदाहरण देते हुए उन्होंने कहा कि इस पत्रिका के भी सभी अंक संग्रहणीय होते हैं।
बाजार सेवक के बजाए स्वामी बन गया हैः विजयदत्त श्रीधर
    कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे पद्मश्री से अलंकृत प्रख्यात पत्रकार श्री विजयदत्त श्रीधर ने कहा कि पत्रकारिता को सामाजिक सरोकारों और मूल्यों पर आधारित होना चाहिए। उन्होंने कहा कि ऐसा नहीं है कि पहले बाजार नहीं थे, बाजार पहले भी थे। लेकिन आज बाजार सेवक की बजाय स्वामी बन गया है। उन्होंने हिंदी पत्रकारिता की चिंता व्यक्ति करते हुए कहा कि एक समय था, जब अखबारों में हिंदी के गद्य शामिल किए जाते थे। लेकिन आज जबरन अंग्रेजी के शब्दों को जोड़ा जा रहा है।
    कार्यक्रम का संचालन दिल्ली से आईं साहित्यकार डॉ. पूनम मटिया ने किया। स्वागत भाषण श्रीकांत सिंह ने दिया और धन्यवाद ज्ञापन डॉ. बीके रीना ने किया।
पत्रकारिता पर केंद्रित दो पुस्तकों का विमोचन :
कार्यक्रम में पत्रकारिता पर केंद्रित दो महत्वपूर्ण पुस्तकों का भी विमोचन हुआ। सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के अध्येयता डॉ. सौरभ मालवीय एवं श्री लोकेंद्र सिंह की पुस्तक "राष्ट्रवाद और मीडिया" और मीडिया प्राध्यापक प्रो. संजय द्विवेदी एवं वरिष्ठ टेलीविजन पत्रकार डॉ. वर्तिका नंदा की पुस्तक "नये समय में अपराध पत्रकारिता" का विमोचन हुआ। आयोजन में अनेक साहित्यकारों, पत्रकारों, प्राध्यापकों और मीडिया छात्र-छात्राओं ने हिस्सा लिया।

शुक्रवार, 17 जनवरी 2020

भारतीय पत्रकारिता के ‘कर्मवीर’ पं. माखनलाल चतुर्वेदी


-प्रो. संजय द्विवेदी
प्राध्यापक
माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल



   पं.माखनलाल चतुर्वेदी के संपादन में निकला कर्मवीर एक ऐसा पत्र है, जिसकी धमक हम आज भी महसूस करते हैं। हिंदी पत्रकारिता के क्षेत्र में कर्मवीर एक ऐसा नाम है, जिसे छोड़कर भारतीय पत्रकारिता का समग्र मूल्यांकन नहीं किया जा सकता। इसी तरह उसके संपादक पं. माखनलाल चतुर्वेदी और उनकी संपूर्ण जीवनयात्राआत्मसमर्पण के खिलाफ लड़ने वाले संपादक की यात्रा है। रचना और संघर्ष की भावभूमि पर खड़ी हुयी उनकी लेखनी में अन्याय के खिलाफ प्रतिरोध का जज्बा न चुकान कम हुआ। वस्तुतः वे एक साथ कई मोर्चों पर लड़ रहे थे और कोई मोर्चा ऐसा न थाजहां उन्होंने अपनी छाप न छोड़ी हो। सही मायने में कर्मवीर के संपादक ने अपने पत्र के नाम को सार्थक किया और माखनलाल जी स्वयं कर्मवीर बन गए। 4 अप्रैल, 1889 को होशंगाबाद(मप्र) के बाबई जिले में जन्में माखनलालजी ने जब पत्रकारिता शुरू की तो सारे देश में राष्ट्रीय आंदोलन का प्रभाव देखा जा रहा था। राष्ट्रीयता एवं समाज सुधार की चर्चाएं और फिरंगियों को देश बदर करने की भावनाएं बलवती थीं। इसी के साथ महात्मा गांधी जैसी तेजस्वी विभूति के आगमन ने सारे आंदोलन को एक नई ऊर्जा से भर दिया। दादा माखनलाल जी भी उन्हीं गांधी भक्तों की टोली में शामिल हो गए। गांधी के जीवन दर्शन से अनुप्राणित दादा ने रचना और कर्म के स्तर पर जिस तेजी के साथ राष्ट्रीय आंदोलन को ऊर्जा एवं गति दी वह महत्व का विषय है।
पत्रकारिता का गांधी समयः
       इस दौर की पत्रकारिता भी कमोवेश गांधी के विचारों से खासी प्रभावित थी। सच कहें तो हिंदी पत्रकारिता का वह जमाना ही अजीब था। आम कहावत थी – जब तोप मुकाबिल हो तो अखबार निकालो और सच में अखबार की ताकत का अहसास आजादी के दीवानों को हो गया था। इसी के चलते सारे देश में आंदोलन से जुड़े नेताओं ने अपने पत्र निकाले। जिनके माध्यम से ऐसी जनचेतना पैदा की कि भारत आजादी की सांस ले सका। वस्तुतः इस दौर में अखबारों का इस्तेमाल एक अस्त्र के रूप में हो रहा था और माखनलाल जी का कर्मवीर इसमें एक जरूरी नाम बन गया था।
    हालांकि इस दौर में राजनीतिक एवं सामाजिक पत्रकारिता के समानांतर साहित्यिक पत्रकारिता का एक दौर भी चल रहा था। सरस्वती और उसके संपादक महावीर प्रसाद द्विवेदी उसके प्रतिनिधि के रूप में उभरे। माखनलाल जी ने भी 1913 में प्रभा नाम की एक उच्चकोटि की साहित्यिक पत्रिका के माध्यम से इस क्षेत्र में सार्थक हस्तक्षेप किया। लोगों को झकझोरने एवं जगानेवाली रचनाओं के प्रकाशन के माध्यम से प्रभा शीध्र ही हिंदी जगत का एक जरूरी नाम बन गयी। दादा की 56 सालों की ओजपूर्ण पत्रकारिता की यात्रा में प्रतापप्रभा  कर्मवीर उनके विभिन्न पड़ाव रहे। साथ ही उनकी राजनीतिक वरीयता भी बहुत उंची थी। वे बड़े कवि थेपत्रकार थे पर उनके इन रूपों पर राजनीति कभी हावी न हो पायी। इतना ही नहीं जब प्राथमिकताओं की बात आयी तो मप्र कांग्रेस का वरिष्टतम नेता होने के बावजूद उन्होंने सत्ता में पद लेने के बजाए मां सरस्वती की साधना को ही प्राथमिकता दी। आजादी के बाद 30 अप्रैल, 1968 तक वे जीवित रहे पर सत्ता का लोभ उन्हें स्पर्श भी नहीं कर पाया। इतना ही नहीं 1967 में भारतीय संसद द्वारा राजभाषा विधेयक पारित होने के बाद उन्होंने राष्ट्रपति को वह पद्मभूषण का अलंकरण भी लौटा दिया जो उन्हें 1963 में दिया गया था। उनके मन में संघर्ष की ज्वाला हमेशा जलती रही। वे निरंतर समझौतों के खिलाफ लोंगों में चेतना जगाते रहे। उन्होंने स्वयं लिखा है-
अमर राष्ट्रउदंड राष्ट्रउन्मुक्त राष्ट्रयह मेरी बोली
यह सुधार-समझौतों वाली मुझको भाती नहीं ठिठोली।
     माखनलाल जी सदैव असंतोष एवं मानवीय पीड़ाबोध को अपनी पत्रकारिता के माध्यम से स्वर देते रहे। पत्रकारिता के क्षेत्र में कोई भी जंजीर उन्हें बांध नहीं पायी। उनकी लेखनी भद्रता एवं मर्यादा की तो कायल थी किंतु वे भयसंत्रास एवं बंधनों के खिलाफ थे।
कर्मवीर और उसके संपादक के तेवरः
 कर्मवीर के संपादक कैसे संपादक थे, इसे बताने के लिए उन्होंने कहा कि – हम फक्कड़ सपनों के स्वर्गों को लुटाने निकले हैं। किसी की फरमाइश पर जूते बनानेवाले चर्मकार नहीं हैं हम” यह निर्भीकता ही उनकी पत्रकारिता की भावभूमि का निर्माण करती थी। स्वाधीनता आंदोलन की आँच को तेज करने में उनका कर्मवीर अग्रणी बना। कर्मवीर की परिधि व्यापक थी। राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय विषयों पर समान अधिकार से चलने वाली संपादक की लेखनी हिंदी को सोच की भाषा देने वाली तथा युगचिंतन को भविष्य के परिप्रेक्ष्य में व्यक्त करने वाली थी। कर्मवीर जिस भाषा में अंग्रेजी राजसत्ता से संवाद कर रहा थाउसे देखकर यह अनुमान लगाया जा सकता है कि भारतीय जनमानस में आजादी पाने की ललक कितनी तेज थी।
   स्वाधीनता आंदोलन में अपने प्रखर हस्तक्षेप के अलावा कर्मवीर ने जीवन के विविध पक्षों को भी पर्याप्त महत्व दिया। आए दिन होने वाली घटनाओं को मापने- जोखने एवं उनसे रास्ता निकालने की दिव्यदृष्टि भी कर्मवीर के संपादक के पास थी। अपनी पत्रकारिता के माध्यम से राजनीति के अलावा साहित्य कला और संस्कृति को भी उन्होंने महत्व दिया। साहित्यिक पत्रों के संदर्भ में उनकी समझदारी विलक्षण थी वो कहते हैं- हिंदी भाषा का मासिक साहित्य बेढंगें और बीते जमाने की चाल चल रहा है। यहां बरसाती कीड़ों की तरह पत्र पैदा होते हैं। फिर भी यह आश्चर्य नहीं कि वे मर क्यों जाते हैं। यूरोप में हर पत्र अपनी एक निश्चित नीति रखता है। हिंदी वालों को इस मार्ग में रीति की गंध नहीं लगी। यह टिप्पणी आज के संदर्भ में भी प्रासंगिक है।
     अपने लंबे पत्रकारीय जीवन के माध्यम से दादा ने नई पीढ़ी को रचना और संघर्ष का जो पाठ पढ़ाया वह आज भी हतप्रभ कर देने वाला है। कम ही लोग जानते होंगें कि दादा को इसकी कितनी बड़ी कीमत चुकानी पड़ी। उनके संपादकीय कार्यालय यानी घर पर तिरसठ बार छापे पड़ेतलाशियां हुयीं। 12 बार वे जेल गए। कर्मवीर को अर्थाभाव में कई बार बंद होना पड़ा। लेखक से लेकर प्रूफ रीडर तक सबका कार्य वे स्वयं कर लेते थे। इन अर्थों में दादा विलक्षण स्वावलंबी थे।
पत्रकारिता के मूल्य और राष्ट्र प्रथम की नीतिः
कर्मवीर एक ऐसा पत्र था जिसके संपादक आजादी के आंदोलन के अग्रणी नेता थे। इसलिए राष्ट्र प्रथम उसकी वैचारिक नीति भी रही। आजादी के समय देश के बंटवारे का दंश पूरे देशवासियों के मनों को मथ रहा था। इस भावना को व्यक्त करते हुए कर्मवीर के 15 अगस्त,1947 को माखनलाल जी लिखते हैं- यह 15 अगस्त है, भारत दो टुकड़े हैं, किंतु आजाद है, क्या पूर्ण आजाद है...? यह जवाहर और जयप्रकाश जानें कि भारत पूर्ण स्वतंत्र होगा या उपनिवेश बनकर रह जाएगा। नोआखली को जानेवाले यात्री गांधी से गांधी से देश स्वागत नहीं कह सकता, क्योंकि देश खंडित है। बिदा भी नहीं कह सकते क्योंकि अखंड भारत और पूर्ण स्वातंयि का स्वप्न अभी अपनी मुठ्ठी में लिए वह चला जा रहा है। यह 15 अगस्त है। इसी तरह पत्रकारिता उनके लिए राष्ट्रसेवा और समाज के जागरण का ही एक माध्यम थी। कर्मवीर के माध्यम से वे यही कर रहे थे। भरतपुर के संपादक सम्मेलन में वे पत्रकारिता जगत का आह्वान करते हुए कहते हैं-यदि समाचार पत्र संसार की एक बड़ी ताकत है तो उसके सिर जोखिम भी कम नहीं है। पर्वत की जो शिखरें हिम से चमकती हैं और राष्ट्रीय रक्षा की महान दीवार बनती हैं, उन्हें ऊंची होना पड़ता है। जगत में समाचार पत्र यदि बड़प्पन पाए हुए हैं, तो उनकी जिम्मेदारी भी भारी है।बिना जिम्मेदारी के बड़प्पन का मूल्य ही क्या है?
     कर्मवीर अपने समय का एक ऐसा पत्र बना जिसने समकालीन रचनाशीलता को बहुत प्रोत्साहित किया। तमाम उदीयमान लेखक इसके माध्यम से लेखन की दुनिया में आए। इसके साथ ही अनेक बड़े लेखक जैसे बालकृष्ण शर्मा नवीन, सुभद्रा कुमारी चौहान, रमाशंकर शुक्ल, भवानी प्रसाद तिवारी, भवानी प्रसाद मिश्र, प्रभाकर माचवे, गजानन माधव मुक्तिबोध, वीरेंद्र जैन, शिवमंगल सिंह सुमन, धर्मवीर भारती ही नहीं दिनकर, रामबृक्ष बेनीपुरी, सोहनलाल द्विवेदी तक इसमें छपते रहे।
कर्मवीर की संपादकीय नीतिः
      माखनलाल जी आम लोगों के बीच से उपजे पत्रकार थे। उनका कहना था कि पत्र संपादक की दृष्टि परिणाम पर सतत लगी रहनी चाहिए। क्योंकि वह समस्त देश के समक्ष उत्तरदायी है। वे समाचार पत्रों में उत्तरदायित्तव की भावना भरना चाहते थे। वहीं उनके मन में समाचार पत्र की पूर्णता को लेकर भी विचार थे। उनकी सोच थी कि हमें अपने पत्रों को ऐसा बनाना चाहिए कि हम पर ज्ञान की कमी का लांछन न लगे। वे पत्रकारिता जगत में फैल सकने वाले प्रदूषण के प्रति भी आशंकित थे। इसी के चलते उन्होंने अपने लिए आचार संहिता भी बनाई। आज जब पत्रकारिता और पत्रकारों के चरित्र पर सवालिया निशान लग रहे हैं तो यह सहज ही पता लग जाता है कि दादा वस्तुतः कितनी अग्रगामी सोच के वाहक थे। हिंदी पत्र साहित्य को उनकी एक बड़ी देन यह है कि उन्होंने कई तरह से हिंदी को मोड़ा और लचीला बनाया। भाषा को समृद्ध एवं जनप्रिय बनाने में उनका योगदान सदा स्मरणीय रहेगा। 4 अप्रैल,1925 को खंडवा से कर्मवीर का प्रकाशन प्रारंभ हुआ। कर्मवीर’ के संपादक के रूप में पं. माखनलाल चतुर्वेदी ने अपने संपादन-सिद्धांत बनाए और उन्हें घोषित किया जो इस प्रकार थे-
1.    कर्मवीर’ संपादन और ‘कर्मवीर परिवार’ की कठिनाइयों का उल्लेख न करना।
2.    कभी धन के लिए अपील न निकालना।
3.    ग्राहक संख्या बढ़ाने के लिए ‘कर्मवीर’ के कालमों में न लिखना।
4.    क्रांतिकारी पार्टी के खिलाफ वक्तव्य नहीं छापना। (गांधीजी का वक्तव्य भी कर्मवीर में नहीं छपा था।)
5.    सनसनीखेज खबरें नहीं छापना।
6.    विज्ञापन जुटाने के लिए किसी आदमी की नियुक्ति न करना।
     ये संपादकीय सिद्धांत कर्मवीर के तेवर को बताते हैं। आज के समय में इन सिद्धांतों पर चलकर पत्र प्रकाशन मुश्किल है। लेकिन माखनलाल जी ने ऐसा किया और गरिमा के साथ किया। आजादी के आंदोलन में वे महात्मा गांधी के अनुयायी थे किंतु गरम दल के नेताओं और क्रांतिकारियों के प्रति उनकी सहानुभूति साफ दिखती थी। उनका मानना था कि अलग-अलग मार्ग से हम सभी भारत माता की मुक्ति के यज्ञ में योगदान दे रहे हैं, इसलिए क्रांतिकारियों के विरुद्ध कुछ भी कर्मवीर नहीं छापेगा। महात्मा गांधी स्वयं उनके इस संकल्प को जानते थे। राष्ट्रपिता ने इस महान पत्रकार के बारे में कहा-हम सब लोग तो बात करते हैं, बोलना (भाषण) तो माखनलाल जी ही जानते हैं। इतना ही नहीं राष्ट्रपिता ने कहा- मैं बाबई जैसे छोटे स्थान पर इसलिए जा रहा हूं क्योंकि वह माखनलालजी का जन्मस्थान है। जिस भूमि ने माखनलालजी को जन्म दिया, उसी भूमि को मैं सम्मान देना चाहता हूं।
चर्चित शायर श्री फिराक गोरखपुरी भी माखनलाल जी कलम के प्रशंसक थे। उनका कहना था कि-उनके लेखों को पढ़ने से ऐसा मालूम होता था कि आदि-शक्ति शब्दों के रूप में अवतरित हो रही है या गंगा स्वर्ग से उतर रही है। यह शैली हिंदी में ही नहीं, भारत की दूसरी भाषाओं में भी विरले ही लोगों को नसीब हुई है। मुझ जैसे हजारों लोंगो ने अपनी भाषा और लिखने की कला माखनलाल जी  से ही सीखी।
पत्रकारिता विद्यापीठ के स्वप्नदृष्टाः
    माखनलाल जी ने ही देश में एक पत्रकारिता विद्यापीठ स्थापित करने का स्वप्न देखा था। उन्होंने भरतपुर(राजस्थान) में 1927 में आयोजित संपादक सम्मेलन में कहा था-हिंदी समाचार पत्रों में कार्यालय में योग्य व्यक्तियों के प्रवेश कराने के लिए, एक पाठशाला आजकल के नए नामों की बाढ़ में से कोई शब्द चुनिए तो कहिए कि एक संपादन कला के विद्यापीठ की आवश्यक्ता है। ऐसी विद्यापीठ किसी योग्य स्थान पर बुद्धिमान, परिश्रमी, अनुभवी, संपादक-शिक्षकों द्वारा संचालित होना चाहिए। उक्त पीठ में अन्यान्य विषयों का एक प्रकांड ग्रंथ संग्रहालय होना चाहिए।” यह संयोग ही है कि उनके इस स्वप्न को 1990 में मध्यप्रदेश सरकार ने साकार करते हुए उनके नाम पर ही भोपाल में पत्रकारिता विश्वविद्यालय की स्थापना की। 30 जनवरी,1968 को उनका निधन हो गया। यह संयोग ही है कि उनकी और राष्ट्रपिता महात्मा गांधी जो उनके आदर्श थे की पुण्यतिथि एक ही दिन मनायी जाती है।
     आज जब पत्रकारिता की विश्वसनीयता पर संकट के बादल हैंपाठक एवं अखबार के बीच एक नया रिश्ता जन्म ले रहा है ऐसे संक्रमण में कर्मवीर जैसे पत्रों और उसके यशस्वी संपादक की याद आना बहुत स्वाभाविक है। 16-17 जनवरी,1965 को खंडवा में मध्यप्रदेश शासन द्वारा आयोजित कार्यक्रम एक भारतीय आत्मा माखनलाल चतुर्वेदी के सम्मान समारोह में तत्कालीन मुख्यमंत्री, मध्यप्रदेश पं. द्वारिका प्रसाद मिश्र ने कहा- सत्ता साहित्य के चरणों में नत है।  सही मायनों में कर्मवीर और उसके संपादक का अवदान हमेशा भारतीय पत्रकारिता को उसके उजले अतीत और कर्तव्यबोध की याद दिलाता रहेगा। हमारी कई पीढियां उनके इस अवदान के लिए सदैव नतमस्तक रहेंगी।


शनिवार, 11 जनवरी 2020

युवा शक्ति के प्रेरक और आदर्शः स्वामी विवेकानंद


-प्रो. संजय द्विवेदी
 
  स्वामी विवेकानंद भारतीय आध्यात्मिकता और भारतीय जीवन दर्शन को विश्वपटल पर स्थापित करने वाले नायक हैं। भारत की संस्कृति, भारतीय जीवन मूल्यों और उसके दर्शन को उन्होंने विश्व बंधुत्व और मानवता को स्थापित करने वाले विचार के रूप में प्रचारित किया। अपने निरंतर प्रवासों, लेखन और मानवता को सुख देने वाले प्रकल्पों के माध्यम से उन्होंने यह स्थापित किया कि भारतीयता और वेदांत का विचार क्यों श्रेष्ठ है। कोलकाता महानगर के एक संभ्रांत परिवार में 12 जनवरी,1863 को जन्मे नरेंद्रनाथ दत्त या नरेन का विवेकानंद हो जाना साधारण घटना नहीं है। बताते हैं कि बाल्यावस्था से ही नरेन एक चंचल प्रकृति के विनोदप्रिय बालक थे। सन्यासी जीवन के प्रति उनका सहज आकर्षण था। बचपन में वे अपने मित्रों से कहा करते थे- मैं तो अवश्य ही सन्यासी बनूंगा। एक हस्तरेखा विशारद ने ऐसी भविष्य वाणी की है। स्वामी रामकृष्ण परंमहंस ने उनकी जिंदगी को पूरा का पूरा बदल डाला। नवंबर,1881 के आसपास हुई गुरु-शिष्य की इस मुलाकात ने एक ऐसे व्यक्तित्व को संभव किया, जिसे रास्तों की तलाश थी।
छोटी जिंदगी का बड़ा पाठ-
    स्वामी विवेकानंद ज्यादा बड़े संन्यासी थे या उससे बड़े संचारक (कम्युनिकेटर) या फिर उससे बड़े प्रबंधक ? यह सवाल हैरत में जरूर डालेगा पर उत्तर हैरत में डालनेवाला नहीं है क्योंकि वे एक नहीं,तीनों ही क्षेत्रों में शिखर पर हैं। वे एक अच्छे कम्युनिकेटर हैंप्रबंधक हैं और संन्यासी तो वे हैं ही। भगवा कपड़ों में लिपटा एक संन्यासी अगर युवाओं का रोल माडल बन जाए तो यह साधारण घटना नहीं हैकिंतु विवेकानंद के माध्यम से भारत और विश्व ने यह होते हुए देखा। उनके विचार अगर आज भी प्रासंगिक बने हुए हैं तो समय के पार देखने की उनकी क्षमता को महसूस कीजिए। एक बहुत छोटी सी जिंदगी पाकर भी उन्होंने जो कर दिखाया वह इस धरती पर तो चमत्कार सरीखा ही था।
   स्वामी विवेकानंद की बहुत छोटी जिंदगी का पाठ बहुत बड़ा है। वे अपने समय के सवालों पर जिस प्रखरता से टिप्पणियां करते हैं वे परंपरागत धार्मिक नेताओं से उन्हें अलग खड़ा कर देती हैं। वे समाज से भागे हुए सन्यासी नहीं हैं। वे समाज में रच बस कर उसके सामने खड़े प्रश्नों से मुठभेड़ का साहस दिखाते हैं। वे विश्वमंच पर सही मायने में भारतउसके अध्यात्मपुरूषार्थ और वसुधैव कुटुंबकम् की भावना को स्थापित करने वाले नायक हैं। वे एक गुलाम देश के नागरिक हैं पर उनकी आत्मा,वाणी और कृति स्वतंत्र है। वे सोते हुए देश और उसके नौजवानों को झकझोर कर जगाते हैं और नवजागरण का सूत्रपात करते हैं। धर्म को वे जीवन से पलायन का रास्ता बनाने के बजाए राष्ट्रप्रेमराष्ट्र के लोगों से प्रेम और पूरी मानवता से प्रेम में बदल देते हैं।शायद इसीलिए वे कह पाए-“ व्यावहारिक देशभक्ति सिर्फ एक भावना या मातृभूमि के प्रति प्रेम की अभिव्यक्ति मात्र नहीं है। देशभक्ति का अर्थ है अपने साथी देशवासियों की सेवा करने का जज्बा।
अप्रतिम संवाद कला और नेतृत्व क्षमता-
   अपने जीवन,लेखनव्याख्यानों में वे जिस प्रकार की परिपक्वता दिखाते हैंपूर्णता दिखाते हैं वह सीखने की चीज है। उनमें अप्रतिम नेतृत्व क्षमताकुशल प्रबंधन के गुर,परंपरा और आधुनिकता का तालमेल दिखता है। उनमें परंपरा का सौंदर्य है और बदलते समय का स्वीकार भी है। वे आधुनिकता से भागते नहींबल्कि उसका इस्तेमाल करते हुए नए समय में संवाद को ज्यादा प्रभावकारी बना पाते हैं। स्वामी जी का लेखन और संवादकला उन्हें अपने समय में ही नहींसमय के पार भी एक नायक का दर्जा दिला देती है।
    आज के समय में जब संचार और प्रबंधन की विधाएं एक अनुशासन के रूप में हमारे सामने हैं तब हमें पता चलता है कि स्वामी जी ने कैसे अपने पूरे जीवन में इन दोनों विधाओं को साधने का काम किया। यह वह समय था जब मीडिया का इतना कोलाहल न था फिर भी छोटी आयु पाकर भी वे न सिर्फ भारत वरन दुनिया में भी जाने गए। अपने विचारों को लोगों तक पहुंचाया और उनकी स्वीकृति पाई। क्या कम्युनिकेशन की ताकत और प्रबंधन को समझे बिना उस दौर में यह संभव था। स्वामी जी के व्यक्तित्व और उनकी पूरी देहभाषा को समझने पर उनमें प्रगतिशीलता के गुण नजर आते हैं। उनका अध्यात्म उन्हें कमजोर नहीं बनाताबल्कि शक्ति देता है कि वे अपने समय के प्रश्नों पर बात कर सकें। उनका एक ही वाक्य –“उठो!जागो ! और तब तक मत रूको जब तक लक्ष्य प्राप्त नहीं हो जाता। उनकी संचार और संवादकला के प्रभाव को स्थापित करने के लिए पर्याप्त है। यह वाक्य हर निराश व्यक्ति के लिए एक प्रभावकारी स्लोगन बन गया। इसे पढ़कर जाने कितने सोएनिराशहताश युवाओं में जीवन के प्रति एक उत्साह पैदा हो जाता है। जोश और उर्जा का संचार होने लगता है। स्वामी जी ने अपने जीवन से भी हमें सिखाया। उनकी व्यवस्थित प्रस्तुतिसाफा बांधने की शैली जिसमें कुछ बाल बाहर झांकते हैं बताती है कि उनमें एक सौंदर्यबोध भी है।
      वे स्वयं को भी एक तेजस्वी युवा के रूप में प्रस्तुत करते हैं और उनके विचार भी उसी युवा चेतना का प्रतिनिधित्व करते हैं। वे शास्त्रीय प्रसंगों की भी ऐसी सरस व्याख्या करते हैं कि उनकी संचारकला स्वतः स्थापित हो जाती है। अपने कर्मजीवनलेखनभाषण और संपूर्ण प्रस्तुति में उनका एक आदर्श प्रबंधक और कम्युनिकेटर का स्वरूप प्रकट होता है। किस बात को किस समय और कितने जोर से कहना यह उन्हें पता है। 1893 में शिकागो में आयोजित धर्म सम्मेलन में उनकी उपस्थति सही मायने में भारत के आत्मविश्वास और युवा चेतना की मौजूदगी थी। जिसने समूचे विश्व के समक्ष भारत के मानवतावादी पक्ष को रखा। श्री अरविंद ने अमरीका में स्वामी विवेकानंद के प्रवास की सफलता से प्रभावित होकर कहा-विवेकानंद का विदेश गमन, उनके गुरु की यह उक्ति कि इस वीर पुरुष का जन्म ही इस संसार को अपने दोनों हाथों को बीच लेकर बदल देने के लिए हुआ है। इस बात का प्रथम दृश्य प्रमाण था कि भारत जाग उठा है, केवल जीवित रहने के लिए नहीं बल्कि विश्वविजयी होने के लिए।
सामाजिक न्याय के प्रखर प्रवक्ता-
    अमरीका के विश्व धर्म सम्मेलन में वे अपने संबोधन से ही लोगों को सम्मोहित कर लेते हैं। भारत राष्ट्र और उसके लोगों से उनका प्रेम उनके इस वाक्य से प्रकट होता है-“ आपको सिखाया गया है अतिथि देवो भवपितृ देवो भवमातृदेवो भव। पर मैं आपसे कहता हूं दरिद्र देवो भवअज्ञानी देवो भवमूर्ख देवो भव। यह बात बताती है कि कैसे वे अपनी संचार कला से लोगों के बीच गरीबअसहाय और कमजोर लोगों के प्रति संवेदना का प्रसार करते नजर आते हैं। समाज के कमजोर लोगों को भगवान समझकर उनकी सेवा का भाव विवेकानंद जी ने लोगों के बीच भरना चाहा। वे साफ कहते हैं- यदि तुम्हें भगवान की सेवा करनी हो तोमनुष्य की सेवा करो। भगवान ही रोगी मनुष्यदरिद्र पुरूष के रूप में हमारे सामने खड़ा है।वह नर वेश में नारायण है। संचार की यह शक्ति कैसे धर्म को एक व्यापक सामाजिक सरोकारों से जोड़ देती है यह स्वामी जी बताते हैं। सही मायने में विवेकानंद जी एक ऐसे युगपुरूष के रूप में सामने आते हैं जिनकी बातें आज के समय में ज्यादा प्रासंगिक हो गयी दिखती हैं। धर्म के सच्चे स्वरूप को स्थापित कर उन्होंने जड़ता को तोड़ने और नए भारत के निर्माण पर जोर दिया। भारतीय समाज में आत्मविश्वास भरकर उन्हें हिंदुत्व के वास्तविक स्वरूप का ज्ञान दिया जिसमें सबका स्वीकार है और सभी विचारों का आदर करने का भाव है। इसलिए वे कहते थे भारत का उदय अमराईयों से होगा। अमराइयां का मायने था छोटी झोपड़ियां। वे कहते हैं- जनसाधारण को शिक्षा दो। उनको जगाओ-तभी राष्ट्र का निर्माण होगा।सारा दोष इसी में है कि सच्चा राष्ट्र जो झोपड़ियों में रहता है अपना मनुष्यत्व भूल चुका है, अपना व्यक्तित्व खो चुका है। उनके मस्तिष्क में उच्च विचारों को पहुंचाओ, शेष सब वे स्वयं कर लेंगे।
       स्वामी विवेकानंद भारतीय संदर्भ में सामाजिक न्याय के सबसे प्रखर प्रवक्ता हैं। वे दिखावटी संवेदना के खिलाफ थे और इसलिए स्वामी जी को जीवन में उतारना एक कठिन संकल्प है। आज जबकि कुपोषण,पर्यावरण के सवालों पर बात हो रही है। स्वामी जी इन मुद्दों पर बहुत सधी भाषा में अपनी बात कर चुके हैं। वे बेहतर स्वास्थ्य को एक नियामत मानते हैं। इसीलिए वे कह पाए कि गीता पढ़ने से अच्छा हैफुटबाल खेलो। एक स्वस्थ शरीर के बिना भारत सबल न होगा यह उनकी मान्यता थी। वे समूची विश्व मानवता को संदेश देते हैं- जो ईश्वर तुम्हारे भीतर है ,वही ईश्वर सभी के भीतर विराजमान है। यदि तुमने यह नहीं जाना है तो तुमने कुछ भी नहीं जाना है। भेद भला कैसे संभव है? सब एक ही हैं। प्रत्येक व्यक्ति परमात्मा का मंदिर है। यदि तुम देख सको तो अच्छा है। यदि नहीं, तो तुम्हारे जीवन में आध्यात्मिकता आई ही नहीं है।
सोते हुए भारत को जगाने वाला सन्यासी-
     मात्र 39 साल की आयु में 4 जुलाई,1902 वे दुनिया से विदा हो गए, किंतु वे कितने मोर्चों पर कितनी बातें कह और कर गए हैं कि वे हमें आश्चर्य में डालती हैं। एक साधारण इंसान कैसे अपने आपको विवेकानंद के रूप में बदलता है। इसमें एक प्रेरणा भी है और प्रोत्साहन भी। आज की युवा शक्ति उनसे प्रेरणा ले सकती है। स्वामी विवेकानंद ने सही मायने में भारतीय समाज को एक आत्मविश्वास दियाशक्ति दी और उसके महत्व का उसे पुर्नस्मरण कराया। सोते हुए भारत को उन्होंने झकझोरकर जगाया और अपने समूचे जीवन से सिखाया कि किस तरह भारतीयता को पूरे विश्वमंच पर स्थापित किया जा सकता है। वे अपने देश भारत और उसकी आध्यात्मिक शक्ति को पहचानते थे, इसीलिए उन्होंने सितंबर,1894 को मद्रास के हिंदुओं को लिखे पत्र में कहा-क्या भारत मर जाएगा? तब तो संपूर्ण विश्व से आध्यात्मिकता लुप्त हो जाएगी, सभी नैतिकता पूर्णतः समाप्त हो जाएगी, आर्दशवाद समाप्त हो जाएगा तथा उसके स्थान पर काम और विलासिता रुपी पुरुष और स्त्री राज्य करेंगे। जिसमें धन पुरोहित होगा, छल,बल और प्रतियोगिता पूजा-विधि होगी तथा मानव आत्मा बलि होगी। ऐसा कभी नहीं हो सकता । एक बेहतर कम्युनिकेटरएक प्रबंधन गुरूएक आध्यात्मिक गुरूवेदांतों का भाष्य करने वाला सन्यासीधार्मिकता और आधुनिकता को साधने वाला साधकअंतिम व्यक्ति की पीड़ा और उसके संघर्षों में उसके साथ खड़ा सेवकदेशप्रेमीकुशल संगठनकर्तालेखक एवं संपादकएक आदर्श शिष्य जैसी न कितनी छवियां स्वामी विवेकानंद से जुड़ी हैं। किंतु हर छवि में वे अव्वल नजर आते हैं।
राष्ट्रीय युवा दिवस क्यों-
   भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री राजीव गांधी ने 1984 में स्वामी विवेकानंद की जयंती 12 जनवरी को राष्ट्रीय युवा दिवस मनाने की घोषणा की। इसके बाद 1985 से यह दिन युवा दिवस के रुप में निरंतर मनाया जा रहा है। संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा वर्ष 1985 को अंतर्राष्ट्रीय युवा वर्ष घोषित किया गया था,इसी बात को मद्देनजर रखते हुए भारत सरकार ने घोषणा की थी कि सन 1985 से हर वर्ष 12 जनवरी यानी स्वामी विवेकानंद के जन्मदिवस को देश भर में राष्ट्रीय युवा दिन के रूप में मनाया जाए। इस संदर्भ में भारत सरकार का विचार था कि स्वामी जी का दर्शन, उनका जीवन तथा कार्य एवं उनके आदर्श भारतीय युवकों के लिए प्रेरणास्रोत साबित हो सकते हैं। इस दिन देश भर के विद्यालयों एवं महाविद्यालयों में तरह-तरह के कार्यक्रम होते हैं, रैलियां निकाली जाती हैं, योगासन की स्पर्धा आयोजित की जाती है, व्याख्यान होते हैं और विवेकानन्द साहित्य की प्रदर्शनी लगती है। भारत सरकार के संगठन नेहरू युवा केंद्र के द्वारा देश भर में स्वामी विवेकानंद जयंती पर अनेक आयोजन किए जाते हैं।
     स्वामी विवेकानंद को याद किया जाना सही मायनों में भारत की युवा तेजस्विता, भारतबोध और भारत के बहाने विश्व को सुखी बनाने के विचार को प्रेरित करना है। उनकी याद एक ऐसे नायक की याद है जिसने विश्व मानवता के सुख के सूत्र खोजे। जिसने स्वीकार्यता को, आत्मीयता को, विश्व बंधुत्व को वास्तविक धर्म से जोड़ा। जिसने सेवा के संस्कार को धर्म के मुख्य विचार के रूप में स्थापित किया। जिसने किताबों में पड़े कठिन अधात्म को जनता के सरोकारों से जोड़ा। प्रख्यात लेखक रोमां रोलां इसलिए कहते हैं-उनके शब्द महान् संगीत हैं, बेथोवन-शैली के टुकड़े हैं, हैडेल के समवेत गान के छन्द-प्रवाह की भांति उद्दीपक लय हैं। शरीर में विद्युत स्पर्श के –से आघात की सिहरन का अनुभव किए बिना मैं उनके इन वचनों का स्पर्श नहीं कर सकता जो तीस वर्ष की दूरी पर पुस्तकों के पृष्ठों में बिखरे पड़े हैं। और जब वे नायक के मुख से ज्वलंत शब्दों में निकले होगें तब तो न जाने कैसे आघात एवं आवेग पैदा हुए होंगे।