-संजय द्विवेदी
इस कठिन समय में जब पत्रकारिता की प्रामणिकता और
विश्वसनीयता दोनों पर गहरे सवाल खड़े हो रहे हों, डा. नंदकिशोर त्रिखा जैसे
पत्रकार, संपादक, मीडिया प्राध्यापक के निधन का समाचार विह्वल करने वाला है। वे पत्रकारिता
के एक ऐसे पुरोधा थे जिसने मूल्यों के आधार पर पत्रकारिता की और बेहद प्रामाणिक
लेखन किया। अपने विचारों और विश्वासों पर अडिग रहते हुए संपादकीय गरिमा को पुष्ट
किया। उनका समूचा व्यक्तित्व एक अलग प्रकार की आभा और राष्ट्रीय चेतना से भरा-पूरा
था। भारतीय जनमानस की गहरी समझ और उसके प्रति संवेदना उनमें साफ दिखती थी। वे
लिखते, बोलते और विमर्श करते हुए एक संत सी धीरता के साथ दिखते थे। वे अपनी
प्रस्तुति में बहुत आकर्षक भले न लगते रहे हों किंतु अपनी प्रतिबद्धता, विषय के
साथ जुड़ाव और गहराई के साथ प्रस्तुति उन्हें एक ऐसे विमर्शकार के रूप में स्थापित
करती थी, जिसे अपने प्रोफेशन से गहरी संवेदना है। इन अर्थों में वे एक संपादक और
पत्रकार के साथ पत्रकारिता के आचार्य ज्यादा दिखते थे।
नवभारत टाइम्स, लखनऊ के संपादक,
माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल के
पत्रकारिता विभाग के संस्थापक अध्यक्ष, एनयूजे के
माध्यम से पत्रकारों के हित की लड़ाई लड़ने वाले कार्यकर्ता, लेखक, सामाजिक
कार्यकर्ता, संस्कृतिकर्मी जैसी उनकी अनेक छवियां हैं, लेकिन वे हर छवि में संपूर्ण
हैं। पत्रकारिता विश्वविद्यालय, भोपाल में उनके छोटे से कार्यकाल की अनेक यादें
यहां बिखरी पड़ी हैं। समयबद्धता और कक्षा में अनुशासन को उनके विद्यार्थी आज भी
याद करते हैं। ये विद्यार्थी आज मीडिया में शिखर पदों पर हैं लेकिन उन्हें उनके
बेहद अनुशासनप्रिय प्राध्यापक डा. त्रिखा नहीं भूले हैं। प्रातः 8 बजे की क्लास
में भी वे 7.55 पर पहुंच जाने का व्रत निभाते थे। वे ही थे, जिन्हें अनुशासित जीवन पसंद था और वे
अपने बच्चों से भी यही उम्मीद रखते थे। समय के पार देखने की उनकी क्षमता अद्भुत थी।
वे एक पत्रकार और संपादक के रूप में व्यस्त रहे, किंतु समय निकालकर विद्यार्थियों
के लिए पाठ्यपुस्तकें लिखते थे। उनकी किताबें हिंदी पत्रकारिता की आधारभूत
प्रारंभिक किताबों में से एक हैं। खासकर
समाचार संकलन और प्रेस विधि पर लिखी गयी उनकी किताबें दरअसल हिंदी में पत्रकारिता
की बहुमूल्य पुस्तकें हैं। हिंदी में ऐसा करते हुए न सिर्फ वे नई पीढ़ी के लिए
पाथेय देते हैं बल्कि पत्रकारिता के शिक्षण और प्रशिक्षण की बुनियादी चिंता करने
वालों में शामिल हो जाते हैं। इसी तरह दिल्ली और लखनऊ में उनकी पत्रकारिता की उजली
पारी के पदचिन्ह बिखरे पड़े हैं। वे ही थे जो निरंतर नया विचार सीखते, लिखते और
लोक में उसका प्रसार करते हुए दिखते रहे हैं। उनकी एक याद जाती है तो दूसरी तुरंत
आती है। एनयूजे के माध्यम से पत्रकार हितों में किए गए उनके संघर्ष बताते हैं कि
वे सिर्फ लिखकर मुक्त होने वालों में नहीं थे बल्कि सामूहिक हितों की साधना उनके
जीवन का एक अहम हिस्सा रही है। डॉ.
त्रिखा छह वर्ष भारतीय प्रेस परिषद् के भी सदस्य रहे ।उन्होंने 1963 से देश के अग्रणी राष्ट्रीय दैनिक नवभारत टाइम्स में विशेष संवाददाता, वरिष्ठ सहायक-संपादक, राजनयिक प्रतिनिधि और स्थानीय संपादक के वरिष्ठ पदों पर
कार्य किया । उससे पूर्व वे संवाद समिति हिन्दुस्थान समाचार के काठमांडू (नेपाल), उड़ीसा और दिल्ली में ब्यूरो प्रमुख और संपादक रहे ! अपने इस लम्बे पत्रकारिता-जीवन में उन्होंने देश-विदेश की ज्वलंत समस्याओं पर हजारों लेख, टिप्पणिया, सम्पादकीय,
स्तम्भ और रिपोर्ताज लिखे।
विचारों के प्रति गहरी प्रतिबद्धता
के बावजूद उनकी समूची पत्रकारिता में एक गहरी अंतर्दृष्टि, संवेदनशीलता, मानवीय
मूल्य बोध, तटस्थता के दर्शन होते हैं। उनके संपादन में निकले अखबार बेहद लोकतांत्रिकता चेतना से लैस
रहे। वे ही थे जो सबको साध सकते थे और सबके साथ सधे कदमों से चल सकते थे। उनका
संपादक सभी विचारों- विचार प्रवाहों को स्थान देने की लोकतांत्रिक चेतना से
भरा-पूरा था। जीवन में भी वे इतने ही उदार थे। यही उदात्तता दरअसल भारतीयता है।
जिसमें स्वीकार है, तिरस्कार नहीं है। वे व्यक्ति और विचार दोनों के प्रति गहरी
संवेदना से पेश आते थे। उन्हें लोगों को सुनने में सुख मिलता था। वे सुनकर, गुनकर
ही कोई प्रतिक्रिया करते थे। इस तरह एक मनुष्य के रूप में उन्हें हम बहुत बड़ा
पाते हैं। आखिरी सांस तक उनकी सक्रियता ने हमें सिखाया है किस बड़े होकर भी उदार,
सक्रिय और समावेशी हुआ जा सकता है। वे रिश्तों को जीने और निभाने में आस्था रखते
थे। उनके मित्रों में सत्ताधीशों से लेकर सामान्य जन सभी शामिल थे। लेकिन संवेदना
के तल पर वे सबके लिए समभाव ही रखते थे।
बाद के दिनों उनकी किताबें बड़े स्वरूप में प्रकाशित हुयीं जिसे माखनलाल
चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय ने प्रकाशित किया। अंग्रेजी में
उनकी किताब रिपोर्टिंग आज के विद्यार्थियों को ध्यान में रखकर लिखी गयी है। इसी
तरह प्रेस ला पर उनकी किताब बार-बार रेखांकित की जाती है। वे हमारे समय के एक ऐसे
लेखक और संपादक थे जिन्हें हिंदी और अंग्रेजी भाषाओं पर समान अधिकार था। वे अपने
जीवन और लेखन में अगर किसी एक चीज के लिए याद किए जाएंगें तो वह है प्रामणिकता।
मेरे जैसे अनेक पत्रकारों और मीडिया प्राध्यापकों के लिए वे हमेशा हीरो की तरह रहे
हैं जिन्होंने खुद को हर जगह साबित किया और अव्वल ही रहे। हिंदी ही नहीं समूची
भारतीय पत्रकारिता को उनकी अनुपस्थिति ने आहत किया है। आज जब समूची पत्रकारिता
बाजारवाद और कारपोरेट के प्रभावों में अपनी अस्मिता संरक्षण के संघर्षरत है, तब
डा. नंदकिशोर त्रिखा की याद बहुत स्वाभाविक और मार्मिक हो उठती है।