शुक्रवार, 25 अक्तूबर 2013

समाचार लेखनः विविध आयाम

                         -संजय द्विवेदी
                     अध्यक्षः जनसंचार विभाग
     माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल 
                         
   सामाजिक जीवन में चलने वाली घटनाओं, झंझावातों के बारे में लोग जानना चाहते हैं, जो जानते हैं वे उसे बताना चाहते हैं। जिज्ञासा की इसी वृत्ति में पत्रकारिता के उद्भव एवं विकास की कथा छिपी है । पत्रकारिता जहाँ लोगों को उनके परिवेश से परिचित कराती है वहीं वह उनके होने और जीने में सहायक है । शायद इसी के चलते इन्द्रविद्यावचस्पति पत्रकारिता कोपांचवां वेदमानते हैं । वे कहते हैं पत्रकारिता पांचवां वेद है, जिसके द्वारा हम ज्ञान-विज्ञान संबंधी बातों को जानकर अपना बंद मस्तिष्क खोलते हैं
                      समाज जीवन का दर्पण
   वास्तव में पत्रकारिता भी साहित्य की भाँति समाज में चलने वाली गतिविधियों एवं हलचलों का दपर्ण है । वह हमारे परिवेश में घट रही प्रत्येक सूचना को हम तक पहुंचाती है । देश-दुनिया में हो रहे नए प्रयोगों, कार्यों को हमें बताती है । इसी कारण विद्वानों ने पत्रकारिता को शीघ्रता में लिखा गया इतिहास भी कहा है । वस्तुतः आज की पत्रकारिता सूचनाओं और समाचारों का संकलन मात्र न होकर मानव जीवन के व्यापक परिदृश्य को अपने आप में समाहित किए हुए है । यह शाश्वत नैतिक मूल्यों, सांस्कृतिक मूल्यों को समसामयिक घटनाचक्र को कसौटी पर कसने का साधन बन गई है । वास्तव में पत्रकारिता जन-भावना की अभिव्यक्ति, सद्भावों की अनुभूति और नैतिकता की पीठिका है । संस्कृति, सभ्यता और स्वतंत्रता की वाणी होने के साथ ही यह जीवन में अभूतपूर्व क्रांति की अग्रदूतिका है । सूचना, शिक्षा एवं मनोरंजन प्रदान करने के तीन उद्देश्यों में सम्पूर्ण पत्रकारिता का सार तत्व निहित है । पत्रकारिता व्यक्ति एवं समाज के बीच सतत संवाद का माध्यम है । अपनी बहुमुखी प्रवृत्तियों के चलते पत्रकारिता व्यक्ति एवं समाज को गहराई तक प्रभावित करती है । सत्य के शोध एवं अन्वेषण में पत्रकारिता एक सुखी, सम्पन्न एवं आत्मीय समाज बनाने की प्रेरणा से भरी-पूरी है । पत्रकारिता का मूल उद्देश्य ही अन्याय के खिलाफ प्रतिरोध दर्ज करना है । वह साहित्य की भाँति लोक-मंगल एवं जनहित के लिए काम करती है। वह पाठकों में वैचारिक उत्तेजना जगाने का काम करती है । उन्हें रिक्त नहीं छोड़ती। पीड़ितों, वंचितों के दुख-दर्दों में आगे बढ़कर उनका सहायक बनना पत्रकारिता की प्रकृति है । जनकल्याण एवं विश्वबंधुत्व के भाव उसके मूल में हैं । भारतीय संदर्भों में पत्रकारिता लोकमंगल की भावना से अनुप्राणित है । वह समाज से लेना नहीं वरन उसे देना चाहती है । उसकी प्रकृति एक समाज सुधारक एवं सहयोगी की है । पत्रकारिता की इस प्रकृति को उसके तीन उद्देश्यों में समझा जा सकता है ।  
1.सूचना देनाः  पत्रकारिता दुनिया-जहान में घट रही घटनाओं, बदलावों एवं हलचलों से लोगों को अवगत कराती है । इसके माध्यम से जनता को नित हो रहे परिवर्तनों की जानकारी मिलती रहती है । समाज के प्रत्येक वर्ग की रुचि के के लोगों के समाचार अखबार विविध पृष्ठों पर बिखरे होते हैं, लोग उनसे अपनी मनोनुकूल सूचनाएं प्राप्त करते हैं । इसके माध्यम से जनता को सरकारी नीतियों एवं कार्यक्रमों की जानकारी भी मिलती रहती है।इससे पत्रकारिता जनहितों की संरक्षिका के रूप में सामने आई है
2.शिक्षित करनाः सूचना के अलावा पत्रकारिता लोक गुरूकी भी भूमिका निभाती है । वह लोगों में तमाम सवालों पर जागरुकता लाने एवं जनमत बनाने का काम भी करती है । पत्रकारिता आम लोगों को उनके परिवेश के प्रति जागरुक बनाती है और उनकी विचार करने की शक्ति का पोषण करती है । पत्रकारों द्वारा तमाम माध्यमों से पहुंचाई गई बात का जनता पर सीधा असर पड़ता है । इससे पाठक या दर्शक अपनी मनोभूमि तैयार करता है । सम्पादकीय, लेखों, पाठकों के पत्र, परिचर्चाओं, साक्षात्कारों इत्यादि के प्रकाशन के माध्यम से जनता को सामयिक एवं महत्पूर्ण विषयों पर अखबार तथा लोगों की राय से अवगत कराया जाता है । वैचारिक चेतना में उद्वेलन का काम भी पत्रकारिता बेहतर तरीके से करती नजर आती है । इस प्रकार पत्रकारिता जन शिक्षण का एक साधन है
3. मनोरंजन करनाः समाचार पत्र, रेडियो एवं टीवी ज्ञान एवं सूचनाओं के अलावा मनोरंजन का भी विचार करते हैं । इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर आ रही विषय वस्तु तो प्रायः मनोरंजन प्रधान एवं रोचक होती है । पत्र-पत्रिकाएं भी पाठकों की मांग का विचार कर तमाम मनोरंजक एवं रोचक सामग्री का प्रकाशन करती हैं । मनोरंजक सामग्री स्वाभाविक तौर पर पाठकों को आकृष्ट करती है । इससे उक्त समाचार पत्र-पत्रिका की पठनीयता प्रभावित होती है । मनोरंजन के माध्यम से कई पत्रकार शिक्षा का संदेश भी देते हैं । अलग-अलग पाठक वर्ग का विचार कर भिन्न-भिन्न प्रकार की सामग्री पृष्टों पर दी जाती है । ताकि सभी आयु वर्ग के पाठकों को अखबार अपना लग सके । फीचर लेखों, कार्टून, व्यंग्य चित्रों, सिनेमा, बाल , पर्यावरण, वन्य पशु, रोचक-रोमांचक जानकारियों एवं जनरुचि से जुड़े विषयों पर पाठकों की रुचि का विचार कर सामग्री दी जाती है।
                        बड़ा होता आकाश
  पत्रकारिता का क्षेत्र एवं परिधि बहुत व्यापक है। उसेक किसी सीमा में बांधा नहीं जा सकता । जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में हो रही हलचलों, संभावनाओं पर विचार कर एक नई दिशा देने का काम पत्रकारिता के क्षेत्र में आ जाता है । पत्रकारिता जीवन के प्रत्येक पहलू पर नजर रखती है । इन अर्थों में उसका क्षेत्र व्यापक है । एक पत्रकार के शब्दों में समाचार पत्र जनता की संसद है, जिसका अधिवेशन सदैव चलता रहता है । इस समाचार पत्र रूपी संसद का कबी सत्रावसान नहीं होता । जिस प्रकार संसद में विभिन्न प्रकार की समस्याओ पर चर्चा की जाती है, विचार-विमर्श किया जाता है, उसी प्रकार समाचार-पत्रों का क्षेत्र भी व्यापक एवं बहुआयाम होता है । पत्रकारिता तमाम जनसमस्याओं एवं सवालों से जुड़ी होती है, समस्याओं को प्रसासन के सम्मुख प्रस्तुत कर उस पर बहस को प्रोत्साहित करती है । समाज जीवन के हर क्षेत्र में आज पत्रकारिता की महत्ता स्वीकारी जा रही है । आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक, विज्ञान, कला सब क्षेत्र पत्रकारिता के दायरे में हैं । इन संदर्भों में वर्तमान परिप्रेक्ष्य में आर्थिक पत्रकारिता का महत्व खासा बढ़ गया है । नई आर्थिक नीतियों के प्रभावों तथा जीवन में कारोबारी दुनिया एवं शेयर मार्केट के बढ़ते हस्तक्षेप ने इसका महत्व बढ़ा दिया है ।
अर्थव्यवस्था प्रधान युग होने के कारण प्रत्येक प्रमुख समाचार-पत्र दो से चार पृष्ठ आर्थिक गतिविधियों के लए आरक्षित कर रहा है । इसमें आर्थिक जगत से जुड़ी घटनाओं, कम्पनी समाचारों, शेयर मार्केट की सूचनाओं , सरकारी नीति में बदलावों, मुद्रा बाजार, सराफा बाजार एवं विविध मण्डियों से जुड़े समाचार छपते हैं
               आंचलिक पत्रकारिता का बढ़ता महत्व                   
  ग्रामीण क्षेत्रों की रिपोर्टिंग के संदर्भ में पत्रकारिता का महत्व बढ़ा है । भारत गावों का देश है । देश की अधिकांश आबादी गांवों मे रहती है । अतः देश के गांवों में रह रहे लाखों-करोड़ों देशवासियों की भावनाओं का विचार कर उनके योग्य एवं उनके क्षेत्र की सामग्री का प्रकासन पत्रों का नैतिक कर्तव्य है । एक परिभाषा के मुताबिक जिन समाचार-पत्रों में 40 प्रतिशत से ज्यादा सामग्री गांवों के बारे में, कृषि के बारे में, पशुपालन, बीज, खाद, कीटनाशक, पंचायती राज, सहकारिता के विषयों पर होगी उन्हीं समाचार पत्रों को ग्रामीण माना जाएगा ।
   तमाम क्षेत्रीय-प्रांतीय अखबार आज अपने आंचलिक संस्करण निकाल रहे हैं, पर उनमें भी राजनीतिक खबरों, बयानों का बोलबाला रहता है । इसके बाद भी आंचलिक समाचारों के चलते पत्रकारिता का क्षेत्र व्यापक हुआ है और उसकी महत्ता बढ़ी है।पत्रकारिता के प्रारम्भिक दौर में घटना को यथातथ्य प्रस्तुत करना ही पर्याप्त माना जाता था । परिवर्तित परिस्थितियों में पाठक घटनाओं के मात्र प्रस्तुतीकरण से संतुष्ट नहीं होता । वह कुछ और कुछभी जानना चाहता है । इसी औरकी संतुष्टि के लिए आज संवाददाता घटना की पृष्ठभूमि और कारणोंकी भी खोज करता है । पृष्ठभूमि के बाद वह समाचार का विश्लेषण भी करता है । इस विश्लेषणपरकता का कारण पाठक को घटना से जुड़े विविध मुद्दों का भी पता चल जाता है । प्रेस स्वतंत्रता पर अमेरिका के प्रेस आयोग ने यह भी स्वीकार किया था कि अब समाचार के तथ्यों को सत्य रूप से रिपोर्ट करना ही पर्याप्त नहीं वरन् यह भी आवश्यक है कि तथ्य के सम्पूर्ण सत्य को भी प्रकट किया जाए।
    पत्रकार का मुख्य कार्य अपने पाठकों को तथ्यों की सूचना देना है । जहां सम्भव हो वहां निष्कर्ष भी दिया जा सकता है। अपराध तथा राजनैतिक संवाददाताओं का यह मुख्य कार्य है । तीसरा एक मुख्य दायित्व प्रसार का है । आर्थिक-सामाजिक जीवन के बारे में तथ्यों का प्रस्तुतीकरण ही पर्याप्त नहीं वरन उनका प्रसार भी आवश्यक है । गम्भीर विकासात्मक समस्याओं से पाठकों को अवगत कराना भी आवश्यक है । पाठक को सोचने के लिए विवश कर पत्रकार का लेखन सम्भावित समाधानों की ओर भी संकेत करता है।विकासात्मक लेखन में शोध का भी पर्याप्त महत्व है ।
   शुद्ध विकासात्मक लेखक के क्षेत्रों को वरिष्ठ पत्रकार राजीव शुक्ल ने 18 भागों में विभक्त किया है उद्योग, कृषि, शिक्षा और साक्षरता, आर्थिक गतिविधियाँ, नीति और योजना, परिवहन, संचार, जनमाध्यम, ऊर्जा और ईंधन, श्रम व श्रमिक कल्याण, रोजगार, विज्ञान और तकनीक, रक्षा अनुसन्धान और उत्पाद तकनीक, परिवार नियोजन, स्वास्थ्य और चिकित्सा सुविधाएं, शहरी विकास, ग्रमीण विकास, निर्माण और आवास, पर्यावरण और प्रदूषण ।

            जरूरी है संदर्भों का सही उपयोग एवं संयोजन
    पत्रकारिता के बढ़ते महत्व के क्षेत्रों में आधुनिक समय मे संदर्भ पत्रकारिता अथवा संदर्भ सेवा का विशिष्ट स्थान है । संदर्भ सेवा का तात्पर्य संदर्भ सामग्री की उपलब्धता से है । सम्पादकीय लिखते समय किसी सामाजिक विषय पर टिप्पणी लिखने के लिए अथवा कोई लेख आदि तैयार करने क दृष्टि से कई बार विशेष संदर्भों की आवश्यकता होती है । ज्ञान-विज्ञान के विस्तार तथा यांत्रिक व्यवस्थाओं में कोई भी पत्रकार प्रत्येक विषय को स्मरण शक्ति के आधार पर नहीं लिख सकता । अतः पाठकों को सम्पूर्ण जानकारी देने के लिअ आवश्यक है कि पत्र-प्रतिष्ठान के पास अच्छा सन्दर्भ साहित्य संग्रहित हो । कश्मीरी लाल शर्मा ने संदर्भ पत्रकारिताविषयक लेख में सन्दर्भ सेवा के आठ वर्ग किए हैं कतरन सेवा, संदर्भ ग्रंथ, लेख सूची, फोटो विभाग, पृष्ठभूमि विभाग, रिपोर्ट विभाग, सामान्य पुस्तकों का विभाग और भण्डार विभाग । संसद तथा विधान-मण्डल समाचार-पत्रों के लिए प्रमुख स्रोत हैं । इन सदनों की कार्यवाही के दौरान समाचार-पत्रों के पृष्ठ संसदीय समाचारों से भरे रहते हैं । संसद तथा विधानसभा की कार्यवाही में आमजन की विशेष रुचि रहती है । देश तथा राज्य की राजनीतिक, सामाजिक आदि गतिविधियां यहां की कार्यवाही से प्रकट होती रहती हैं, जिसे समाचार-पत्र ही जनता तक पहुंचा कर उनका पथ-प्रदर्शन करते हैं । पत्रकार को अपना संदर्भ जरूर बनाना चाहिए। तभी वह इनका इस्तेमाल खास अवसरों पर कर पाएगा। वह जिस विषय पर काम कर रहा है उसके संदर्भ उसके लेखन को प्रभावी बनाते हैं। निजी तौर पर संदर्भ बनाने के कुछ प्रचलित तरीके हैं-
  1. विषयवार कतरनों और लेखों की फाइल बनाना।
  2. विषय से संबंधित पुस्तकों और शासन द्वारा प्रकाशित पुस्तिकाओं, वार्षिक रिपोट्स का संकलन।
  3. कम्प्यूटर पर काम करने वाले अपने संदर्भ की ई- फाइल बना, पेन ड्राइव या सीडी  में भी रख सकते हैं।
  4. जैसे एक क्राइम रिपोर्टर अपनी डायरी माह वार अपराधों का विवरण रख सकता है और छः माह या तीन माह में अपराधों या खास किस्म के अपराधों के बढ़ने या घटने पर टिप्पणी कर सकता है।
  5. शासन द्वारा की जा रही घोषणाओं और क्रियान्यवन की गति पर भी संदर्भों के माध्यम से नजर रखी जा सकती है।             

       समाचार संकलन एक जिम्मेदारी भरा काम       
     समाचार संकलन एक चुनौतीपूर्ण दायित्व है। क्योंकि संवाददाता के लिए यह संकट होता है कि वह समाचार किसे माने, किसे न माने। किसे कवर करे, किसे छोड़ दे। आज के दौर में समाचारों की दुनिया बहुत व्यापक हो गयी है। समाज-जीवन में घटने वाली हर गतिविधि आज कवर की जा रही है। अब सिर्फ राजनीति, अपराध और दुर्धटनाएं ही समाचार नहीं है वरन समाचारों की दुनिया बहुत व्यापक हो चुकी है।
     समाचार का यह विस्तृत होता आकाश अवसर भी है और चुनौती भी। क्योंकि पत्रकारिता के प्रारंभ में बड़ी घटनाएं कवर होती थीं, अब हर क्षेत्र को कवरेज का हिस्सा माना जाने लगा है ऐसे में विषय पर केंद्रित विशेषज्ञता की जरूरत भी जरूरत भी है। जैसे अब लाइफ स्टाइल के लिए भी संवाददाता रखे जा रहे हैं, सो उनकी खास योग्यता होना जरूरी है। विषय को समझे बिना उसे कवर करना आसान नहीं होता। सो खेल, व्यापार, कारपोरेट, कृषि, फैशन, संगीत, कला, प्रदर्शन कलाएं, जनजातीय मुद्दे, विकास से जुड़े मुद्दे, फिल्म, टीवी, आटो, सर्राफा, महिलाएं, बच्चे, शिक्षा, सैन्य, विदेशी मामले, संसदीय मामले, सूचना प्रौद्योगिकी,जल प्रबंधन जैसे तमाम क्षेत्र संवाददाता से एक खास उम्मीद रखते हैं। सो संवाददाता काम अब मात्र चीजों का सरसरी तौर पर वर्णन करना नहीं अपने पाठक को उसे समझाना भी है। उसे जानकारी के साथ लैस करना भी है। अगर वह ऐसा नहीं करता तो अपने पाठक और संस्थान के साथ अन्याय कर रहा होगा। देश और दुनिया में हो रहे परिवर्तनों के मद्देनजर उसे तैयार रहना होता है। यदि वह ऐसा नहीं कर पाता तो उपहास का पात्र बनता है।
          समाचार जिनसे बनता है ( समाचार तत्व)
समाचार यूं ही नहीं बनता उसके कुछ प्रेरक तत्व होते हैं। ये हैं -
1.नवीनता- यानी एकदम नई सूचना जिसे लोग अभी तक नहीं जानते थे।
2.जानकारी- जिससे लोगों को कोई नयी जानकारी पता चलती हो।
3.निकटता- आपके परिवेश से जुड़ी खबर, जिससे आप अपने जिले, गांव, प्रदेश, देश, भाषा के नाते कोई रिश्ता जोड़ पा रहे हैं।
4.महत्व- वह घटना कितनी महत्वपूर्ण है। उसका प्रभाव कितना व्यापक है।
5.विचित्रता- कोई अनहोनी, या हैरत में डालने वाली बात जो आपको चकित कर दे।
6. परिवर्तन- किसी बदलाव का कारण बनने वाली सूचना।
अगर हम श्री नंदकिशोर त्रिखा की मानें तो वे समाचार के तत्वों में इन मुद्दों का उल्लेख करते हैं-
 1.नवीनता, असामान्यता
2.अनपेक्षित भाव
3.आत्मीयता,आकांक्षा
4.व्यक्तिगत प्रभाव
5.निकटता
6.करूणा और भय
7.धन
8.मानवीय पक्ष
9.रहस्य
10.सहानुभूति
  कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि समाचार मानवीय भावनाओं के इर्द-गिर्द ही रहता है। मनुष्य की चेतना और सूचना की आकांक्षा ही उसके विषयगत विस्तार का कारण है। जैसे- जैसे ज्ञान, विज्ञान और तकनीक की नई शाखाएं विकसित हो रही हैं वैसै- वैसे ही समाज जीवन में मीडिया और सूचना का प्रवाह तेज होता जा रहा है। आज का युग सूचना विस्फोट का समय कहा जा रहा है, सो यह माना जाने लगा है कि जिसके पास जितनी सूचना होगी वह समाज उतना ही समृद्ध समाज होगा। ऐसे में संवाददाता के काम की चुनौती बहुत बढ़ जाती है।


              कैसे संवाददाता- कितने संवाददाता
संवाददाता का काम खबरें भेजना ही है। खबरों का संकलन और उसका प्रेषण यही उसकी जिम्मेदारी है। अखबार जिस स्थान से निकलता है उस केंद्र पर संवाददाताओं की संख्या ज्यादा रहती है। जिन्हें नगर संवाददाता कहा जाता है। उनके प्रमुख को मुख्य नगर संवाददाता या सिटी चीफ या ब्यूरो चीफ अनेक नाम से संबोधित किया जाता है। जो प्रकाशन केंद्र से बाहर से खबरें भेजते हैं उनमें भी दो प्रकार के संवाददाता हैं एक वे जो पूर्णकालिक संवाददाता होते हैं दूसरे वे जो अंशकालिक संवाददाता (Stringer) के तौर पर काम करते हैं। इन्हें इनकी खबरों के आधार पर भुगतान की व्यवस्था होती है। बड़े केंद्रों पर संवाददाता अपनी बीट या विषय के आधार पर बंटे होते हैं। जैसे कोई क्राइम देखता है तो कोई राजनीतिक दल। किंतु छोटे केंद्रों पर क्योंकि गतिविधियां कम होती हैं सो एक ही व्यक्ति काम देख लेता है।
          विविध प्रकार के समाचारों का लेखन
सभा समारोहः समाज जीवन में कई प्रकार के आयोजन होते रहते हैं। सरकारी और तमाम गैरसरकारी आयोजनों से हमें खबरें मिलती है। इस दौरान न्यूज सेंस का इस्तेमाल बहुत जरूरी है। सबसे पहले हमें यह जानना जरूरी है कि आखिर आयोजन का उद्देश्य क्या है और आयोजन में  कौन-कौन प्रमुख लोग भाग ले रहे हैं। कार्यक्रम में होने वाली हर गतिविधि और वक्ततव्य पर अपनी नजर होनी चाहिए। क्योंकि कोई साधारण सी सूचना भी एक बड़ी खबर में बदल जाती है। समाचार लिखते समय यह ध्यान रखना होगा कि हम पूरे आयोजन को तो कवर नहीं कर सकते, हां उसकी मुख्य बातों का ही उल्लेख कर सकते हैं। यह संवाददाता को तय करना होता है कि इस आयोजन की सबसे खास बात या बयान क्या रहा। इसी निर्धारण से उसकी खबर को पकड़ने की क्षमता का पता लगता है। ऐसे अवसर का इस्तेमाल सिर्फ आयोजन की कवरेज ही नहीं वरन उपस्थिति विशिष्ट जनों के इंटरव्यू के रूप में भी हो सकता है। इससे आपके पास भेजने को दो खबरें होगीं। एक तो आयोजन का समाचार और दूसरा साक्षात्कार। इसी प्रकार विशेष महत्व के समारोह के एक दिन पूर्व ही उस पर समाचार या फीचर दिया जा सकता है। समारोह में भाग लेने वाले आम जनों की प्रतिक्रिया से समाचार को रोचक बनाया जा सकता है। महत्वपूर्ण आयोजनों की तो झलकियां देने की परंपरा भी है। उसमें रोचक प्रसंगों को बताया जा सकता है।
                       विकास पत्रकारिता
समाज जीवन में जनाकांक्षाएं का ज्वार देखा जा रहा है। लोग सुशासन और विकास के आधार पर आगे बढ़ना चाहते हैं। विकास का शाब्दिक अर्थ खुलना,प्रकट होना, क्रमिक विस्तार है। आर्थिक दृष्टि से जीवन स्तर में सुधार ही विकास का लक्ष्य है। विकास एक गतिमान प्रक्रिया है। आज का दौर समग्र विकास को लेकर चलने वाला है। भारतीय संदर्भ में भौतिक विकास के साथ मानवीय विकास भी जुड़ा हुआ है। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी यही कहते हैं- तुम्हें एक जन्तर देता हूं। जब भी तुम्हें संदेह हो ....जो सबसे गरीब और कमजोर आदमी तुमने देखा है, उसकी शकल याद करो और अपने दिल से पूछो कि जो कदम तुम उठाने जा रहे हो, वह उस आदमी के लिए कितना उपयोगी होगा। क्या उससे उसे कुछ लाभ पहुंचेगा।
    भारतीय संदर्भ में राष्ट्र के विकास की एक अनिवार्य शर्त है ग्रामीण विकास। गांवों मे सूचना का नितांत अभाव है। आज रोटी के साथ सूचना की गरीबी भी इन इलाकों को विकसित होने से रोकती है। विकास और सूचना एक-दूसरे के पूरक हैं। बिना सूचना के विकास असंभव है। जो समाज जितनी देरी से सूचना पाता है उतना ही पिछड़ जाता है।
विकास पत्रकारिता का आधार दरअसल कृषि एवं ग्रामीण पत्रकारिता ही बनाती है। विकास के कार्यक्रमों को कवर करते हुए उनके सार्थक पक्ष को रेखांकित करना चाहिए। जैसे एक पुल, बांध, पावर हाउस या सड़क के लोकार्पण कार्यक्रम में संवाददाता को इस बात को बताना चाहिए कि आखिर इस योजना से क्षेत्र को क्या लाभ होगा और कितने लोग इससे लाभान्वित होंगें। अगर किसी योजना पर कोई सवाल हो तो संवाददाता उसे भी उठा सकते हैं बशर्ते उनके पास उसके जायज कारण और संबंधित अधिकारी और विशेषज्ञों का पक्ष हो। शासकीय योजनाओं के क्रियान्यवन के समय कई बार लापरवाही की शिकायतें मिलती हैं, उसके लिए भी संबंधित विभाग का पक्ष जरूर लिया जाना उससे समस्या के दोनों पहलू सामने आते हैं और शासन को सुधार का अवसर भी मिलता है। मीडिया की भूमिका दरअसल एक स्वस्थ संवाद की है। वह शासन और जनता के बीच संवाद सेतु है। मीडिया का प्राथमिक और अंतिम उद्देश्य सूचनाओं को पहुंचाना है और जिम्मेदारी के साथ पहुंचाना है।

                      विकासपरक समाचारों का लेखन
विकासपरक समाचारों का लेखन सही मायने में एक सही नजरिए से ही संभव हो पाता है। इससे सरकार को सही फीडबैक भी मिलता है और लोगों में जनचेतना का संचार होता है। विकास के काम और उनकी सूचना लोगों को आसानी से मिलती है। किसी भी विकास योजना की सफलता उसमें लोगों की भागीदारी से ही संभव हो पाती है। इसके लिए आवश्यक है कि लोगों तक सूचनाएं सही रूप में उनतक पहुंचें। तभी लोग उनका लाभ उठाने के लिए प्रेरित हो सकते हैं। योजनाओं का आंकलन करते समय भी यही शुभदृष्टि रखनी जरूरी है। किसी भी योजना या विकास के काम से कुछ संख्या में लोगों को लाभ जरूर मिलता है। खबर में इस तथ्य का रेखांकन किया जाना चाहिए कि इससे कितने लोगों को लाभ मिल रहा है। लाभ पाने वाले जनता का इस बारे में क्या कहना है। ताकि सरकार तक सही तस्वीर सामने जा सके। कई बार सही आंकलन न हो पाने से सही योजना और विकास के कामों पर विवाद खड़ा हो जाता है। एक सड़क, स्कूल या सिंचाई की योजना अपने आप में उस पूरे इलाके में परिवर्तन का कारण बनती है। यह सोच लेकर चलना जरूरी है। उससे होने वाले लाभ के आधार पर अन्य उपेक्षित इलाकों में भी विकास की ललक पैदा की जा सकती है। क्योंकि वास्तविक विकास तभी संभव है जब हम इसमें लोगों को सहभागी बना पाएं। जनभागीदारी का सिद्दांत इसीलिए सफलता की गारंटी बन गया है। विकास में सरकार तक लोगों का जाना ही नहीं लोगों का भी लाभ उठाने के लिए आगे आना महत्वपूर्ण होता है।
                    भाषणों की रिर्पोटिंग
वक्ता प्रायः विस्तार से अपनी बात रखते हैं। सारी बातों को अपने समाचार में ले पाना संभव नहीं होता। यहीं संवाददाता के विवेक की परीक्षा होती है कि वह कैसे लंबे भाषण के सबसे मुख्य अंश को उठाकर एक बड़े समाचार में तब्दील कर देता है। पाठकों के समय और अखबारों के पास स्थान का संकट रहता है इसलिए बहुत संक्षेप में सबसे मुख्य बात कहते हुए समाचार की प्रस्तुति प्रभावकारी होती है। संक्षेप में अपनी बात कहना वास्तव में एक बड़ी काल है हर पत्रकार के लिए यह जरूरी भी है। किंतु इसमें सावधानी की बात यह है कि संक्षेपीकरण से खबर का भाव न बदले। जो कहा गया है वह यथारूप प्रकाशित हो उसके अर्थ में भटकाव न आने पाए। कई बार चीजों को सही अर्थ में न समझने से संकट खड़ा होता है।
                       इंटरव्यू की तैयारी
किसी भी महत्वपूर्ण हस्ती का साक्षात्कार करने से पहले हमें पूरी तैयारी कर लेनी चाहिए। सबसे पहले इंटरव्यू का उद्देश्य तय कर लेना चाहिए। इंटरव्यू प्रायः दो प्रकार से किए जाते हैं एक तो व्यक्ति केंद्रित साक्षात्कार, दूसरे विषय केंद्रित साक्षात्कार। व्यक्ति केंद्रित साक्षात्कारों में व्यक्ति और उसका काम केंद्र में होता है। सवाल उसी पर आधारित होते हैं। किंतु विषय केंद्र्ति साक्षात्कारों में विषय केंद्र में होता है। जैसे किसी पर्यावरण विद से हमने पर्यावरण के बिगड़ते हालात पर बात की तो वहीं किसी राजनेता से उसकी राजनीति, उसके दल की स्थिति, उसके वर्तमान पद से जुड़ी जिम्मेदारियों पर बात की जा सकती है। साक्षात्कार का मुद्दा और प्रश्न दोनों का विचार कर लेना कर चाहिए। हमें देखना होगा कि इंटरव्यू की सफलता हमारे व्यवहार और कार्यशैली पर निर्भर होती है। भाषा शैली, मधुर और संयत हो। संयत भाषा में असुविधाजनक सवाल पूछे जाने पर भी साक्षात्कार दाता को परेशानी नहीं होती। हमें वकील या पुलिस सरीखी पूछताछ के बजाए संवाद का तरीका अपनाना चाहिए ताकि व्यक्ति खुल सके। साक्षात्कारदाता द्वारा दी गयी जानकारी को उसी रूप में प्रस्तुत करना चाहिए न कि तोड़ मरोड़ कर। इससे पत्रकार की प्रतिष्ठा और विश्वसनीयता में वृद्धि होती है। भेंटवार्ता लिखने के भी दो तरीके प्रचलन में हैं एक तो प्रश्नोत्तर की शैली दूसरा समाचार की शैली। दोनों ही शैलियों में इसे पठनीय बनाया जा सकता है। छोटे इंटरव्यू आमतौर पर समाचार शैली में ही प्रस्तुत करना ठीक होता है। इन भेंटवार्ताओं में संबंधित व्यक्ति का चित्र जरूर देना चाहिए।
                 प्रेस-कांफ्रेंस या संवाददाता सम्मेलन
पत्रकार वार्ता के माध्यम से अपनी बात कहने का चलन आजकल काफी है। इसे सामूहिक इंटरव्यू भी कहा जा सकता है। इसमें संबंधित पक्ष अपनी बात रखने के लिए पत्रकारों को आमंत्रित करता है। पत्रकार वार्ता का कोई न कोई उद्देश्य होता है। उसी के तहत पत्रकार वार्ता बुलायी जाती है। प्रेस कांफ्रेंस में संबंधित पक्ष पहले अपनी बात रखता है फिर पत्रकार गण उससे सवाल करते हैं। कई बार लिखित रूप में वक्तव्य दिया जाता है। जिससे संवाददाता खबर लिखते हुए मुख्य संदर्भों का ध्यान रखें। ताकि पत्रकार वार्ता लेने वाले का उद्देश्य पूरा हो सके और पत्रकार भी अपने काम से न्याय कर सके।
                    समाचार फीचर का लेखन
न्यूज फीचर आजकल खूब चलन में हैं। समाचारों की सरस और मनोरंजक प्रस्तुति के लिए समाचार फीचर लिखे जाते हैं। ये किसी भी विषय पर हो सकते हैं। व्यक्ति, स्थान या समस्या किसी भी चीज पर फीचर लिखे जा सकते हैं। अपने क्षेत्र के पौराणिक स्थानों, ऐतिहासिक संदर्भों और प्रख्यात व्यक्तियों पर फीचर लिखकर हम अपने लेखन को लोकप्रिय बना सकते हैं। फीचर और खबर का अंतर मूल रूप से इतना है कि फीचर एक सरस प्रस्तुति है। सत्य और तथ्य के साथ भाषा की ताजगी और रवानगी किसी भी फीचर की सफलता का मूलमंत्र है। विकास के मुद्दों पर भी फीचर लिखे जा सकते हैं। किसी गांव पर भी फीचर लिखा जा सकता है। स्वसहायता समूहों में काम करती महिलाएं और उसके पीछे उनकी कहानी एक फीचर का जीवंत विषय है। इसी तरह किसी इलाके में सार्थक काम कर रहे लोग। अपनी मेहनत से मुकाम हासिल करने वाले लोंगों पर व्यक्तिपरक फीचर लिखे जा सकते हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में होने वाले लोकपर्वों, परंपराओं,खानपान और पहनावों को लेकऱ भी फीचर लिखे जाने चाहिए। इसी तरह मप्र में बड़ी संख्या में आदिवासी समाज की उपस्थिति है। उनके तमाम संदर्भ फीचर का विषय बनते है और लोग रूचि से इसे पढ़ेगें भी। फीचर सही मायने में एक सरस रचना है जो भाषा और भाव के आधार पर ही समाचार से अलग की जा सकती है।
             सामाजिक सदभाव सबसे बड़ी पूंजी
समाचार लेखन में पत्रकारों की सबसे बड़ी जिम्मेदारी यही होती है कि वे हर हालत में समाज के साथ रहें। तनाव, सामाजिक सद्भाव को बिगाड़ने वाली सूचनाओं को प्रस्तुत करने में विशेष कौशल की जरूरत होती है। समाज जीवन में तमाम ऐसी ताकते हैं जो सामाजिक एकता को बिगाड़ने की कोशिशें में लगी रहती हैं। ऐसे मामलों में पत्रकारिता के मानवीय पक्ष की परीक्षा होती है। क्योंकि हमारे लिए समाज सर्वोपरि है। समाज में एकता और सदभाव से ही विकास के काम आगे बढ़ाए जा सकते हैं। कोई भी समाज अपने तनावों के साथ आगे नहीं बढ़ सकता। दूसरी बात स्त्री के सम्मान को लेकर है। हमारे समाज में अभी भी कई रूपों महिलाओं का उत्पीड़न देखने को मिलता है। यही ऐसे कृत्य होते हैं तो हमें महिलाओं के सम्मान को बचाए रखने तथा उनके साथ दुराचार के मामलों में उनकी पहचान को प्रकट न होने देने की मर्यादा का ख्याल रखना चाहिए। इसी प्रकार कोई भी विवादित समाचार लिखने में दूसरे या प्रभावित पक्ष का विचार लेने का प्रयास होना चाहिए। कोई भी एकांगी समाचार विश्वसनीयता का संकट ही खड़ा करता है। इसी तरह अंधश्रद्धा फैलाने वाले समाचारों से बचना चाहिए और प्रयास करना चाहिए कि ऐसे प्रयासों को मीडिया के माध्यम से प्रचार न मिले।
रोचकता और सूचनात्मकताः किसी भी खबर की पूंजी उसकी रोचकता और सूचनात्मकता ही होती है। अगर खबर रोचक तरीके से सही और अपेक्षित संदर्भों के साथ लिखी जाती है तो वह जरूर पढ़ी जाती है। रोचकता तो भाषा के माध्यम से पैदा की जाती है किंतु कोई समाचार प्रभावी तभी बनता है जब उसे सही और पूरे संदर्भों के साथ प्रस्तुत किया जाए। इसलिए संवाददाता को संदर्भों को संजोकर रखने की कला भी विकसित करनी चाहिए।

                 समाचार संपादन कैसे करें
आज के दौर में प्रायः सभी प्रमुख समाचार पत्रों में अपने ब्यूरो कार्यालयों पर ही पेज मेकिंग की परंपरा शुरू कर दी है। सो हर स्थानीय पत्रकार के लिए यह जरूरी है कि वह संपादन कला के मानकों से परिचित हो। क्योंकि उचित संपादन से ही किसी समाचार पत्र का कलेवर तैयार होता है। इससे ही अखबार सुदर्शन और पठनीय बनता है।समाचार पत्रों के बिना सुबह अधूरी सी लगती है। पत्रों के विकास के साथ-साथ अब तो दोपहर और शाम के अखबार भी निकलने लगे हैं। समाचार संपादन का साफ मतलब कापी को समाचार पत्र में छपने योग्य बनाना और उसकी प्रस्तुति से है। किसी खबर को आप किस नजर से देखते हैं और किस तरह से प्रस्तुत करते हैं- संपादन का आशय यही है। जब आप किसी समाचार का संपादन करते हैं तो तीन ही बातें महत्व की हैं समाचार का महत्व, स्थान और समय। किसी भी मीडिया हाउस में खबरों का प्रवाह निरंतर बना रहता है। अतः संपादन की बडी चुनौती होती है समाचार का चयन।
         समाचार का चयन किन आधारों पर हो सकता है-
1.ख्यातिनाम व्यक्ति या न्यूजमेकर्स
2.असाधारण बातें, जो प्रायः देखी सुनी नहीं जाती
3.संस्थाएं वो चाहे जिस स्तर की हों- राष्ट्रीय, प्रादेशिक, स्थानीय या अंतर्राष्ट्रीय
4.बजट या पैसे का जहां आवक जावक हो
5.अन्यायपूर्ण घटनाएं जिससे रोष उत्पन्न हो
6.भावनाप्रधान खबरें
7.अपराध
8.लोगों के हित से जुड़े समाचार
9.ज्ञान-विज्ञान या खोज से जुड़े समाचार
10.मनोरंजन या सर्वरूचि के समाचार- खेल, क्रिकेट, फिल्म
   कुल मिलाकर पाठकों की पसंद, जरूरत ही खबरों के चयन का आधार होना चाहिए। इसके अलावा समाचार चयन को संपादक की निजी सोच भी प्रभावित ही करती है। किंतु संपादक से अपेक्षा की जाती है कि खबरों का चयन अपने पाठकवर्ग और समाचार पत्र की रीति नीति के अनुसार करे।
  समाचार चयन के लिए समाचार पत्र में उपलब्ध स्थान, सामयिक परिस्थितियां, विज्ञापनों का दबाव काफी हद तक जिम्मेदार होता है। इन दबावों के बीच भी बेहतर प्रदर्शन ही किसी संपादक की पहचान बनाते हैं।
  समाचार चयन के बाद बड़ी जिम्मेदारी होती है उचित संपादन की। सही संपादन ही एक बेहतर कापी बना सकती है। एक सामान्य कापी को विशिष्ट बना सकती है। खबर के विकासक्रम को पहचान कर उसे सही स्थान दिला सकती है। प्रेस कापी या संवाददाता के द्वारा दी गयी खबर की पहचान कर उसे सही स्थान दिलाना ही संपादन का उद्देश्य होता है। ईमानदारी से संपादन न करने के कारण ही यह होता है एक बेहतर मर जाती है और सामान्य खबर अतिरंजित कर प्रस्तुत कर दी जाती है। संपादन का मतलब सिर्फ यही है- परिशुद्धता, परिशुद्धता और परिशुद्धता। इसके बाद बात आती है संक्षिप्तता और तथ्यों की।
प्रवीण दीक्षित अपनी किताब समाचार संपादन में कहते है समाचार संपादन का उद्देश्य है- समाचार को पाठकों की दृष्टि से सार्थक बनाना।
   इसके मायने साफ हैं आप अपनी खबर को पाठकों की जरूरत की मद्देनजर उपयोगी और सार्थक बनाएं। यानि तथ्य और कथ्य दोनों मानकों पर खबर सही उतर सके। विज्ञापनों की भीड़ में उपसंपादक की एक चुनौती यह भी है कि वह खबरों का अनावश्यक विस्तार रोके और कम शब्दों में अपनी बात को कहने का अभ्यास विकसित करे। इसके साथ ही आज भाषा का सवाल बहुत गहरा हो गया है। बेहतर भाषा का आशय आज हिंग्लिश मिक्स भाषा से लगाया जा रहा है। हिंदी के अखबारों को चाहिए कि वे उन्हीं शब्दों का अंग्रेजी शब्द लें जो हिंदी भाषियों में लोकप्रिय हों तथा उनके प्रयोग से भाषा में कोई अतिरिक्त बोझ न पैदा हो। साथ ही आमफहम भाषा का आग्रह तो है ही। हिंदी की सरलता का आशय यह कतई नहीं कि हम भाषा का बहुत सामान्यीकरण कर दें। क्योंकि संभव है कि यह भाषा किसी के प्रशिक्षण का कारण भी बने। बहुत से लोग अखबार से हिंदी भी सीखते हैं हम उनके इस अभ्यास में मददगार ही हों।
    कापी के पूर्ण संपादन के बाद सबसे महत्व का काम होता है खबरों के महत्वक्रम का निर्धारण। यह एक ऐसा काम है जो अनुभव भी मांगता है। किस समाचार को कितना स्पेश-स्थान देना है। इसका विचार संपादन करने की एक कसौटी है। जाहिर तौर पर अपनी  निर्णयात्मक क्षमता के आधार पर ही हम इसका समाधान करते हैं। इस अवसर पर संपादक की सोच ही सबसे महत्व की होती है।
                     प्रेस कापी का संपादन
समाचारों के चयन और महत्व निर्धारण के साथ ही समाचार की कापी तैयार करना एक तकनीकी किंतु भाषायी दक्षता का काम है। संभव है कि संवाददाता की बेहद सामान्य कापी के चलते आपको उसे फिर से लिखना पड़ जाए। पुर्नलेखन के अलावा कई बेहतर कापी में छोटे वाक्यों के अभाव के चलते दुरूहता बनी रहती है। सो छोटे-छोटे वाक्यों से प्रभाव बढ़ता है, ऐसे में समाचार ज्यादा पठनीय बनता है। समाचार को अनुच्छेदों में लिखने का अभ्यास जरूरी है क्योंकि इससे ही पाठकों को समाचार के पढ़ने और समझने में आसानी होती है। कहा जाता है कि समाचारों के साथ विचार न दिए जाएं। पत्ररकार सीपी स्काट की एक प्रसिद्द उक्ति है तथ्य पवित्र हैं और विचार स्वतंत्र । किंतु यदि समाचार विश्लेषणात्मक है तो जाहिर तौर पर उसमें संवाददाता के विचार आएंगें ही। लेकिन सामान्य खबरों में इससे बचने की बात कही जाती है।
   खबरें प्रस्तुत करते समय समाचार के श्रोतों का साफ तौर पर जिक्र किया जाना बेहतर होता है। इससे पाठकों के बीच समाचार पत्र की विश्वसनीयता बनी रहती है। कुल मिलाकर यह काम ज्यादा सावधानी के साथ ज्यादा रचनात्मक भी है। खबरों के विकासक्रम, महत्व और प्रभाव का आकलन कर सकनेवाले संपादक इस अवसर का लाभ उठाकर अपने पत्र को बेहद प्रभावी बना देते हैं। क्योंकि आप देखें तो ज्यादातर खबरें, तथ्य और फोटोग्राफ सभी अखबारों के पास होते हैं किंतु चयन, प्रस्तुति और उपलब्ध स्थान के सही इस्तेमाल से चीजें बेहतर हो जाती हैं। जबकि दूसरा अखबार अपनी लचर प्रस्तुति, ठंडे शीर्षकों और खराब संपादन का शिकार होकर अलोकप्रिय हो जाता है।
       समाचार चयन और प्रस्तुति से बेहतर बनता अखबार
   समाचार चयन एक बड़ी जिम्मेदारी का काम है। अखबार के पहले पन्ने से लेकर आखिरी पन्ने की खबरों का चयन, उसकी प्रस्तुति का निर्धारण कोई सामान्य काम नहीं है। अखबारों के रंगीन होने के साथ यह चुनौती और गहरी हो गयी है। अखबार को अब सिर्फ पठनीय नहीं, दर्शनीय भी होना है। रंग-संयोजन, चित्रों का सही चयन, प्रियरंजन प्रस्तुति एक जरूरी काम हो गए हैं। संपादन के सामने रंगीन अखबारों ने रूप विन्यास, साज सज्जा और ले-आउट को लेकर एक नई तरह की चुनौती उपस्थित की है। इसने पूरी पत्रकारिता का सौन्दर्य शास्त्र ही बदल दिया है। शायद इसीलिए अखबारों के कटेंट में भी तेजी से बदलाव दिखने लगा है। अब किसी अखबार की सुस्त प्रस्तुति उसे जनता के बीच लोकप्रिय नहीं बना सकती। शब्दों के साथ उसकी मोहक प्रस्तुति जिसमें चित्र, फांट, नए तरीके से प्रस्तुत की गयी खबर जिससे पाठक सीधा रिश्ता कायम कर सके ही कामयाब होती है।
              लीड (LEAD) समाचार का निर्धारण
किसी भी अखबार में लीड यानी सर्वप्रमुख समाचार का निर्धारण एक सोच के तहत होता है। कुछ घटनाएं इतनी वीभत्स या भीषण होती हैं कि वे खुद ही कहती हैं कि मैं आज की लीड हूं। किंतु कुछ दिन ऐसे भी होते हैं जब कोई बहुत प्रभावकारी घटना नहीं होती तब ही संपादक की असली परीक्षा होती है कि किस समाचार को लीड बनाया जाए। आज किस खबर को पहले पन्ने पर जगह दी जाए। यह विवेक ही संपादन का विवेक है। आमतौर पर लीड के निर्धारण मे भीषणता, अतिव्यापक प्रभाव, राजनीतिक महत्व, परिवर्तन की पराकाष्ठा को आधार माना जाता है। किंतु जिस दिन इस स्तर की कोई घटना न हो तो समाचारों में अलग-अलग खबरें लीड बनती हैं जो संपादक के विवेक का ही परिचय देती हैं। उसमें कौन अपनी खबर को बेच पाता है यह महत्वपूर्ण होता है। टीवी चैनलों में यह होड़ साफ दिखती है वे अपनी खबरें क्रियेट करने का भी प्रयास करते हैं औऱ कोशिश होती है कि वे अलग दिखें। अखबार भी अब होड़ में उतर पड़े हैं। बावजूद इसके संपादक का विवेक सबसे बड़ी चीज है।
                    इंट्रो (INTRO)लिखें कैसे-
    एक अच्छा इंट्रो खबर को पढ़ने के लिए विवश कर देता है और एक खराब इंट्रो खबर में आपकी रूचि समाप्त कर सकता है। अगर हम शीर्षक खबर का विज्ञापन मान सकते हैं तो इंट्रो भी उस विज्ञापन का थीम ही है। वही पूरे खबर का प्रभाव जमा सकता है तो बिगाड़ भी सकता है। सही मायने में यह खबर का पहला पैरा है, यानि पहला अनुच्छेद। इसमें आप अपनी खबर का जैसा प्रभाव दे पाते हैं वही आपको आगे की खबर पढ़ने के प्रेरित करता है। सबसे बड़ी बात यह है कि इंट्रो अगर कुछ कहता नहीं है तो बेकार है। उसे कुछ जरूर कहना होगा। यानी उसे अर्थ देते हुए होना चाहिए। उसे उलझाव पैदा करने के बजाए अपने पाठक को तुरंत अपनी बात बताना चाहिए। सही अभिव्यक्ति के जादू से ही कोई इंट्रो प्रभावी बनता है। इंट्रो के नंबर आता है बाडी का। खबर का शेष हिस्सा। सामान्य तौर पर खबर लिखने का तरीका यही है कि आप इंट्रो में खबर का सार-संक्षेप या परिचय दे देते हैं फिर घटते क्रम में बात कहते चले जाते हैं। यानि सबसे कम महत्व की बात सबसे नीचे जाएगी। इसे खबर लिखने की इनवर्टेड पिरामिड शैली कहते हैं। इसके अलावा खबरें लिखने के अन्य शिल्प भी हैं जिसका प्रयोग आज अखबार कर रहे हैं।
समाचारों के श्रोतः  आमतौर पर अखबारों को इन श्रोतों से खबरें मिलती हैं-
1.समाचार का निजी नेटवर्क- उसके संवाददाता, अंशकालिक संवाददाता
2.समाचार एजेंसियां
3.सरकारी जनसंपर्क विभाग, निजी संस्थाओं के जनसंपर्क विभाग
4.समाचार पत्र कार्यालय में आने वाली विज्ञप्तियां
5.टीवी चैनल, रेडियो, वेबसाइट्स
बेहतर समाचार पत्रः
किसी भी अखबार की सफलता की गारंटी तमाम मार्केटिंग गतिविधियों के अलावा उसकी विश्वसनीयता और प्रामणिकता पर निर्भर करती है। कोई भी अखबार अपनी विश्वसनीयता के बल पर ही लोकप्रिय हो सकता है। क्योंकि आज भी लोगों का छपे हुए शब्दों पर भरोसा कायम है। इसलिए इस भरोसे को कायम रखना आज की आ रही पत्रकार पीढ़ी की सबसे बड़ी जिम्मेदारी है। इसके साथ ही सभी विषयों के समान महत्व देना भी जरूरी है ताकि पाठक का सर्वांगीण विकास हो सके।
इलेक्ट्रानिक मीडिया का बढ़ता महत्व

पत्रकारिता के महत्व को आज इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों की पत्रकारिता ने बहुत बढ़ा दिया है । इन्होंने समय एवं स्थान की सीमा को चुनौती देकर सूचना विस्फोटका युग ला दिया है ।  टेलीविज़न पत्रकारिता का फलक आज बहुत विस्तृत हो गया है । उपग्रह चैनलों की बढ़ती भीड़ के बीच यह एक प्रतिस्पर्धा एवं कौशल का क्षेत्र बन गया है । आधुनिक संचार-क्रांति में निश्चय ही इसकी भूमिका को नकारा नहीं जा सकता । इसके माध्यम से हमारे जीवन में सूचनाओं का विस्फोट हो रहा है । ग्लोबल विलेज (वैश्विक ग्राम) की कल्पना को साकार रूप देने में यह माध्यम सबसे प्रभावी हुआ । दृश्य एवं श्रव्य होने के कारण इसकी स्वीकार्यता एवं विश्वसनीयता अन्य माध्यमों से ज्यादा है । भारत में 1959. में आरंभ दूरदर्शन की विकास यात्रा ने आज सभी संचार माध्यमों की पीछे छोड़ दिया है । टीवी चैनलों की पत्रकारिता में समाचार संकलन, लेखन एवं प्रस्तुतिकरण संबंधी विशिष्ट क्षमता अपेक्षित होती है । टीवी का संवाददाता घटना का चल-चित्रांकन करता है तथा वह परिचयात्मक विवरण हेतु भाषागत सामर्थ्य एवं वाणी की विशिष्ट शैली का मर्मज्ञ होता है । विविध स्रोतों से प्राप्त समाचारों के सम्पादन का उत्तरदायित्व समाचार संपादक का होता है । वह समाचारों को महत्वक्रम के अनुसार क्रमबद्ध कर सम्पादित करता है तथा इसे समाचार वाचक के समक्ष प्रस्तुत करने योग्य बनाता है । चित्रात्मकता टीवी मीडिया का प्राणतत्व है । यह वही तत्व है जो समाचार की विश्वसनीयता एवं स्वीकार्यता को बढ़ाता है । आज तमाम निजी टीवी चैनलों में समाचार एवं सूचना प्रधान कार्यक्रमों की होड़ लगी है । सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक सवालों पर परिचर्चाओं एवं बहस का आयोजन होता रहतै है । प्रतिस्पर्धा के वातावरण से टेलीविज़न की पत्रकारिता में क्रांति आ गई है
   चैनलों के विस्फोट ने दरअसल मीडिया की दुनिया को पूरी तरह बदल दिया है। चैनलों पर प्रस्तुति और बहसों का स्तर भी पुराने दूरदर्शनी अंदाज का नहीं रहा। अब सबकुछ बड़ा सुर्दशन और मनोहारी बनाने की कोशिश है। सो बाडी लैंग्वेज, कपड़े, हेयर स्टाइल सब कुछ केंद्र में है। सो सार्वजनिक जीवन में काम करने वालों के लिए यह माध्यम एक बड़ी चुनौती है। आपके वस्त्र बहुत अस्त-व्यस्त, बिखरे बाल अब काम न आएंगें। टीवी के लिए उसके जैसा बनना होता है। सफेद वस्त्रों की जगह ऐसे रंगीन कपड़े जो कैमरे पर आप पर अच्छे लगें। रिपोर्टर को फामर्ल कपड़ों में ही होना चाहिए। स्पोर्टस के कवरेज को छोड़कर टी-शर्ट में पीटूसी न दें।
  1. केश विन्यास सही हो।
  2. भाषा का सही उच्चारण और इस्तेमाल जरूरी।
  3. बाडी लैंग्वेज और आपके शब्दों की संगति जरूरी है।
  4. किसी दुखद प्रंसग पर मुस्काते हुए बात कहने से बचें।
  5. शेष किसी संवाद पर चेहरे पर हल्की मुस्कान जरूरी है।
  6. कम से कम शब्दों में अपनी बात कहने की आदत डालें।
  7. विषय से संबंधित सवालों को सोच लें । कई बार एंकर सवाल काफी पूछते हैं जिनके उत्तर हमें पता नहीं होते सो यह कहना उचित होगा कि इस मुद्दे पर पूरी जानकारी आने पर बात करेंगें।
  8. कैमरा देखकर विचलित न हों, अगर किसी स्टोरी में पीटूसी ( पीस टू कैमरा) दे रहे हैं तो उसका अभ्यास कर लें।

                             ---------------------------





गुरुवार, 24 अक्तूबर 2013

विश्व बाजार का सांस्कृतिक एजेंट न बने सिनेमा

-संजय द्विवेदी

  जब हर कोई बाजार का माल बनने पर आमादा है तो हिंदी सिनेमा से नैतिक अपेक्षाएं पालना शायद ठीक नहीं है। अपने खुलेपन के खोखलेपन से जूझता हिंदी सिनेमा दरअसल विश्व बाजार के बहुत बड़े साम्राज्यवादी दबावों से जूझ रहा है। जाहिर है कि यह वक्त नैतिक आख्यानों, संस्कृति और परंपरा की दुहाई देने का नहीं है। हिंदी सिनेमा अब आदर्शों के तनाव नहीं पालना चाहिता । वह अब सिर्फ विश्व बाजार का सांस्कृतिक एजेंट है। उसके ऊपर अब सिर्फ बाजार के नियम लागू होते हैं।मांग और आपूर्ति के इस सिद्धांत पर वह खरा उतरने को बेताब है।
कला सिनेमा को निगलने के बादः
 यह अकारण नहीं है कि कला सिनेमा की एक पूरी की पूरी धारा को यह बाजार निगल गया। कला या समानांतर सिनेमा से जुड़ा जागरुक तबका भी अब इसी बाजार की ताल से ताल मिलाकर मालबनाने में लगा है। ऐसे में सिनेमा के सामाजिक उत्तरदायित्व और उसके सरोकारों पर बातचीत बहुत जरूरी हो जाती है। ऐसे में समाज को सर्वाधिक प्रभावित करने वाले इस माध्यम का विचलन और उसके संदेशों को लेकर लंबी बहसें चलती रही हैं, लेकिन अब इसका दौर भी थम गया है। शायद इस सबने यह मान लिया है कि इस माध्यम से जन अपेक्षाएं पालना ही अनैतिक है। सिनेमा बनाने वाले भी यह कहकर हर प्रश्न का अंत कर देते हैं कि हम वहीं दिखते हैं जो समाज में घट रहा है।लेकिन यह बयान सत्य के कितना करीब है, सब जानते हैं। सच कहें तो आज का सिनेमा समाज में चल रही हलचलों का वास्तविक आईना कभी प्रस्तुत नहीं करता । वह उसे या तो अंतिरंजित करता है या चीजों को अतिसरलीकृत करके पेश करता है। 47 के पहले या 60 के दशक में दर्शक अपने नैतिक मूल्यों के लिए हीरो को लड़ते और बुरी ताकतों पर विजय प्राप्त करते हुए देखते थे। प्रेम और नैतिक आदर्श के लिए लड़ने वाला हीरो समाज में स्वीकारा जाता था। नेहरू युग के बाद लोगों की टूटती आस्था, आजादी के सपनों से छल की भावना बलवती हुई तो मुख्यधारा का सिनेमा अभिताभ बच्चन के रुप में एक में एक ऐसी व्यक्तिगत सत्ताके स्थापना का गवाह बना जो अपने बल और दुस्साहस सेल लोगों की लड़ाई लड़ता है।
कहां खो गया नायकः
    आज का सिनेमा जहां पहुंचा है, वहां नायक-खलनायक और जोकर का अंतर ही समाप्त हो गया है। इसके बीच में चले कला फिल्मों के आंदोलन को उनका सचऔर उनकीवस्तुनिष्ठ प्रस्तुतिही खा गई । यहां यह तथ्य उभरकर सामने आया कि बाजार में झूठ ही बिक सकता है, सच नहीं। इस एक सत्य की स्थापना ने हिंदी सिनेमा के मूल्य ही बदल दिए। दस्तक, अंकुर, मंथन, मोहन जोशी हाजिर हो, चक्र, अर्धसत्य, पार, आधारशिला, दामुल, अंकुश, धारावी जैसी फिल्में देने वाली धारा ही कहीं लुप्त हो गई। एक सामाजिक माध्यम के रूप में सिनेमा के इस्तेमाल की जिनमें समझ थी वे भी मुख्यधारा के साथ बहने लगे। यहां यह बात भी काबिले गौर है कि कला फिल्मों ने अपने सीमित दौर में भी अपनी सीमाओं के बावजूद व्यावसायिक सिनेमा की झूठी और मक्कार दुनिया की पोल खोल दी। यह सही बात है कि आज सिनेमा का माध्यम अपनी तकनीकगत श्रेष्ठताओं, प्रयोगों के चलते एक बेहद खर्चीला माध्यम बन गया है। ऐसे में सेक्स, हिंसा उनके अतिरिक्त हथियार बन गए हैं। पुराने जमाने में भी वी. शांताराम से लेकर गुरुदत्त, ख्वाजा अहमद अब्बास ने व्यावसायिक सिनेमा में सार्थक हस्तक्षेप किया, लेकिन आज का सिने-उद्योग सिर्फ मुनाफाखोरी तक ही सीमित नहीं है, उसके इरादे खतरनाक हैं। काले धन की माया, काले लोग इस बाजार को नियंत्रित कर रहे हैं। आज के मुख्यधारा का सिनेमा समाज के लिएनहीं बाजार के लिएहै। देशभक्ति, प्रेम, सामाजिक सरोकार सब कुछ यदि बेचने के काम आए तो ठीक वरना दरकिनार कर दिये जाते हैं। नकली इच्छाएं जगाने, मायालोक में घूमते इस सिनेमा का अपने आसपास के परिवेश से कोई लेना-देना नहीं है। इसीलिए आज उसके पास कोई नायकनहीं बचा है। पहले एकांत में नाचते नायक-नायिका इसलिए अब भीड़ में नाचते हैं । शोर का संगीत और शब्दों का अकाल इस सिनेमा की दयनीयता का बखान करते हैं । सच कहें तो भारतीय जीवन का अनिवार्य हिस्सा बने होने के बावजूद सिनेमा पर जनता का कोई बौद्धिक अंकुश नहीं रह गया है । परिणाम यह हुआ है कि हिंदी सिनेमा पागल हाथी की तरह व्यवहार कर रहा है।
मनोविकारी फिल्मों का समयः
   हिंदी सिनेमा तो वैसे ही हॉलीवुड की जूठन उठाने और खाने के लिए मशहूर है। इसीलिए प्रेम के कोमल और मोहक अंदाज की फिल्मों के साथ मनोविकारी प्रेम की फिल्में भी बालीवुड में खूब बनीं । एक दौर में शाहरूख खान ऐसी मनोविकारी प्रेम की फिल्मों के महानायक बन गए । सही अर्थों में मनोविकारों से ग्रस्त प्रेमी को पहली बार बालीवुड में शाहरूख खान ने ग्लैमराइज्डकिया । फिल्मबाजीगरसे प्रेम में हिंसा व उन्माद के जिस दौर की शुरूआत हुई, ‘डरऔरअंजाममें उसे और विस्तार मिला । फिल्म बाजीगरमें शिल्पा शेट्टी के प्रेम में दीवाना शाहरूख खान छत से धकेल कर उसकी हत्या कर देता है। डरमें जूही की दीवानगी में वह इस कदर पागल है कि वह जूही के पति सन्नी देओल की जान से पीछे पड़ जाता है। अंजाममें शाहरूख, शादीशुदा माधुरी दीक्षित की चाहत में उसके पति की हत्या कर डालता है। इस शाहरूख लहरकी सवारी नाना पाटेकर भी अग्निसाक्षीमें करते नजर आते हैं। इस फिल्म में नाना पाटेकर स्लीपिंग विद द एनमीके नायक सरीखा पति साबित होते हैं। पूरी फिल्म एक ऐसे सनकी इंसान की कथा है, जो यह बर्दाश्त नहीं कर सकता कि उसकी पत्नी किसी और से बात भी करे । दीवानगी की इस हिंसक हद से आतंकित उसकी पत्नी कहती है वह मुझे इतना प्यार करता है कि मुझको छूकर गुजरने वाली हवा से भी नफरत करने लगा है। नाना इस फिल्म में मुहब्बत के तानाशाह के रूप में नजर आते हैं। इसके बावजूद ये फिल्में सफल रहीं। बदलते जीवन मूल्यों की बानगी पेश करती ये फिल्म एक नए विषय से साक्षात्कार कराती हैं। प्रेम की उदात्त भावनाओं के प्रति आस्था दिखाने वाला समाज एक हिंसक एवं क्रूर प्रेमी को सिर क्यों चढ़ाने लगा है, यह सवाल वस्तुतः एक बड़े समाज शास्त्रीय अध्ययन का विषय थोड़े अलग जरूर है, लेकिन वह भी प्रेम के विकृत रूप का ही परिचय कराती है।
प्रेम के चित्रण का इतिहासः
 आप हिंदी सिनेमा के 100 सालों का मूल्यांकन करें तो वह मूलतः प्रेम के चित्रण का इतिहास है। मानव सभ्यता के विकास के साथ-साथ दरअसल यौन सम्बन्धों की उन्मुक्ति एवं वर्जनाओं का भी रूप बदलता रहा है। सिनेमा की संपूर्ण यात्रा में प्रेम संबंधों की व्याख्या का दौर सबसे महत्वपूर्ण है। हिंदुस्तानी लोक चेतना में प्रेम के इस तत्व की जगह वैसे भी बहुत बड़ी है। दूसरे यौन संबंधों पर खुली बहस की कम गुंजाइश के कारण हम इसके अक्स एवं विकल्प परदे पर तलाशते रहे । दमित इच्छाओं एवं यौन कुंठाओं के इसी संदर्भ की समझ ने हिंदी सिनेमा व्यवसायियों को एक बेहतर मसाला दिया। गीत संगीत एवं प्रेम की इस चेतना का व्यवसाय फिल्म उद्योग की प्राथमिकता बन गई। इस सबके बावजूद हिंसा से लबरेज यह प्रेम, भारतीय दर्शकों के लिए बहुत अजनबी न था। हिंसाचार की शुरुआत और अंत अपने प्रेम को पाने या अनाचार से मुक्ति के लिए होती थी। पर प्रेम के आयातित संस्करण में अब अपनी मुहब्बत का ही गला घोंटने की तैयारियों पर जोर है। हिंसा प्रेमका यह दौर वास्तव में भारतीय सिने जगत की रेखांकित की जाने लायक परिघटना है, जो कहीं से भी प्रेम के परंपरागत चरित्र से मेंल नहीं खाती । हिंसा भारतीय सिनेमा की जानी पहचानी चीज है, पर नायक आम तौर पर खलनायक के अनाचार से मुक्ति के लिए हिंसा का सहारा लेता दिखता था। उसकी प्रमिका का ही उसके द्वारा उत्पीड़न, यह नया दौर है। जाहिर है समाज में ऐसी घटनाएं घट रही थीं और उनकी छाया रूपहले पर्दे पर भी दिखी। इस प्रकार की घटनाओं ने पर्दे पर भी हिंसक प्रेमकी थ्यौरीको जगह दी।
पलायनवादी नायकः
  शाहरूख खान की फिल्में इसी थ्यौरीका संदर्भ मानी जा सकती हैं। वह चुनौती को स्वीकारता नहीं, भागता है। मध्य वर्ग के नौजवान की चेतना एवं उसकी कुंठाओं का शाहरूख सच्चा प्रतिनिधि नजर आता है। वह प्यार करता है, किंतु स्वीकार का साहस उसमें नहीं हैं । उसे श्रम, रचनाशीलता एवं इंतजार नहीं है। सो वह पागलों सी हरकतें करता है, जिसमें प्रेमिका का उत्पीड़न भी शामिल है। इस प्रसंग पर मीडिया विशेषज्ञ सुधीश पचौरी की राय गौरतलब है। वे लिखते है- वह हमेशा लड़ता भिड़ता नजर आता है। किसी लड़की से छेड़छाड़ से लेकर मारपीट तकहिंसकऔर देहके रिश्ते बनाना ही उसका लक्ष्य है। उसके गीतों में भी सौंदर्य व कमनीयता के प्रतीक तलाशे नहीं मिलते। वह इंस्टेटिज्म’ (तुरंतवाद) का शिकार है। उसे जो भी कुछ चाहिए तुरंत चाहिए। इंस्टेट। अपने प्रेम को न पा सकने की स्थिति में उसे समाप्त कर देने की आकांक्षा उसके इसी पागलपन से उपजी है। आप इसे पूरे चित्र को पढ़ने की कोशिश करें तो यह भारतीय काव्य के धीरोदात्त नायक की विदाई का दौर है। इसमें लडके और लड़की के बीच कहीं प्यार या सामाजिक संबंध नहीं।पचौरी आगे लिखते शुद्ध रुप में फिजिकलरिश्ते पल रहे हैं। इसे हम फिल्मों के डांस सिक्वेंससे देख समझ सकते हैं नौजवान का 2 कैरेट खरा फिजिकल रूप ।यहां नायक और नायिका सिर्फ शरीरहैं। एक ऐसा शरीर, जिसमें मन, आत्मा, भावना, सुख व दुख सारे भाव तिरोहित हो चुके हैं। वह सिर्फ शरीरबनकर रह गया है। उसे खोज भी प्रेम के प्रतीक नहीं मिलते। इसीलिए गीतों में भी वह प्रेम की प्रतीक नहीं खोज पाता। एक गीत में नायक कहता है खंभे जैसी खड़ी है,/ लड़की है या छड़ी है। जाहिर है कोमल अनूभूतियों को व्यक्त करने वाले शब्दों व प्रतीकों के भी लाले हैं।
समाज में घट रही घटनाएं प्रेम के प्रति हिंसाचार इस संवेदनहीनता पर मुहर भी लगाती हैं। सिर्फ शरीरही बचा है, जिसमें से मन, आत्मा, भावना, सुखदुख, हर्ष-विषाद आदि सारे भाव तिरोहित हो चुके हैं। अपने अहंकार पर चोट आज के युवा को आहत करती है। वह घर, परिवार, समाज की बनी बनाई लीक को एक झटके में तोड़ डालने पर आमादा है। साहिर लुधियानवी की कुछ पंक्तियां इस संदर्भ को समझने में सहायक हो सकती हैं तुम अगर मुझको न चाहो तो / कोई बात नहीं,/ तुम किसी और को चाहोगी/तो मुश्किल होगी। साहिर की ये पंक्तियां इस घातक चाहत का बयान करती हैं। जहां प्रेम की प्राप्ति न होने पर उसे नष्ट कर डालने का संदेश फिल्मों में दिखता है। उपभोक्तावाद के ताजा दौर में भोगवादी संस्कृति के थपेड़ों में हमारा दार्शनिक आधार चरमरा गया है। इसी के चलते फिल्मों ने ऐसे नकारात्मक मूल्यों को सिर चढ़ाया है। पैसे की सनक और नवधनाढ्यों के उभार के बीच ये फिल्मी कथाएं वस्तुतः हमारे समाज के सच की गवाही हैं। समाचार पत्रों में आए दिन प्रेमी द्वारा प्रेमिका की हत्या, पत्नी की हत्या या पति की हत्या जैसे समाचार छपते हैं। दुर्भाग्य से सिनेमा और दूरदर्शन इस नकारात्मक प्रवृत्ति को एक आधार प्रदान करते हैं। फिल्मों की कथाएं देखकर छोटे कस्बे गांवों के नौजवान उससे गलत प्रेरणा ग्रहण करते हैं। कई बार वे पर्दे पर दिखाई घटना को जीवन में दोहराने की कोशिश करते हैं। निश्चित रूप से ताजा बाजारवादी अवधारणाओं में हमारा सिनेमा पाश्चात्य प्रभावों से तेजी से ग्रस्त हो रहा है। पश्चिमी जीवन की ज्यों की त्यों स्वीकार्यता हमारे समाज में संकट का सबब बनेगी। प्रेम के एक क्रूर चेहरे को भारतीय मन पर आरोपित करने की कोशिशें तेज हैं। दुर्भाग्य है कि यह सारा कुछ प्रेम के नाम पर हो रहा है।
सिनेमा पर गैरहाजिर विमर्शः
   किसी भी समाज में बौद्धिक और सांस्कृतिक अंकुश रखने का काम लेखक और विचारक ही करते हैं, कोई सरकार नहीं। फिल्मों पर हिंदी पत्रकारिता और टी. वी. चेनलों पर भी चल रही चर्चाएं एवं उन पर आधारित कार्यक्रम भी सतही और बचकाने होते हैं । हिंदी सिनेमा ने सही अर्थों में भारतीय समाज एवं उसके संघर्षों, उसकी चेतना को अपनी ही जमीन से बदखल कर दिया है। उसकी ताकत लगातार बढ़ी है, वह हमारा लोकाक्षर और दैन्दिन का व्यवहार तय करने लगा है। इतनी सशक्त माध्यम पर समूचे हिंदी क्षेत्र में ठोस विचार की शुरुआत के बजाए गाशिप बाजीचल रही है।

    सिनेमा पर लगभग गैरहाजिर विमर्श को चर्चा के केंद्र में लाना और उस पर बौद्धिक-सामाजिक अंकुश लगाना समय की जरूरत है। 1939 में हिंदी के यशस्वी कथाकार-उपन्यासकार प्रेमचंद ने लिखा था मगर खेद है कि इसे कोरा व्यवसाय बनाकर हमने उसे कला के उच्च आसन से खींचकर ताड़ी की दूकान तक पहुंचा दिया है यह बात प्रेमचंद के दौर की है, जब देश के लोग आजादी की लड़ाई लड़ रहे थे और आज तो हिंदी सिनेमा विकृतियों का सुपर बाजारबन गया है। ऐसे ही चित्रों पर हमारी नई पीढ़ी और बचपन झूम-झूम कर जवान हो रहा है। क्या हम समाज के इतने प्रभावकारी माध्यम को, यूं ही बेलगाम छोड़ दें ?

सोमवार, 21 अक्तूबर 2013

संजय द्विवेदी को प्रवक्ता सम्मान

कांस्टीट्यूशन क्लब, दिल्ली में देश की महत्वपूर्ण वेबसाइट प्रवक्ता डाट काम http://www.pravakta.com/ के पांच साल पूरे होने पर आयोजित समारोह में मुझे सम्मानित करते हुए देश के जाने-माने पत्रकार एवं संपादक श्री राहुल देव। साथ में हैं श्री जगदीश उपासने (पूर्व संपादकः इंडिया टुडे)। इस सम्मान में आप सबकी भी हिस्सेदारी है जो मुझे बहुत प्यार करते हैं और कुछ बेहतर लिखने की प्रेरणा देते हैं।