सोमवार, 15 फ़रवरी 2016

जेएनयू के भारत विरोधी!

उन सिरफिरों का इलाज जरूरी जो जेएनयू की छवि और राष्ट्र की अस्मिता से खेल रहे हैं
-संजय द्विवेदी


   यह एक यक्ष प्रश्न है कि इतने बड़े विचारकों, विश्व राजनीति-अर्थनीति की गहरी समझ, तमाम नेताओं की अप्रतिम ईमानदारी और विचारधारा के प्रति समर्पण के किस्सों के बावजूद भारत का वामपंथी आंदोलन क्यों जनता के बीच स्वीकृति नहीं पा सका? अब लगता है, भारत की महान जनता इन राष्ट्रद्रोहियों को पहले से ही पहचानती थी, इसलिए इन्हें इनकी मौत मरने दिया। जो हर बार गलती करें और उसे ऐतिहासिक भूल बताएं, वही वामपंथी हैं। वामपंथी वे हैं जो नेताजी सुभाष चंद्र बोस जैसे राष्ट्रनायक को 'तोजो का कुत्ता' बताएं, वे वही हैं जो चीन के साथ हुए युद्ध में भारत विरोध में खड़े रहे। क्योंकि चीन के चेयरमैन माओ उनके भी चेयरमेन थे। वे ही हैं जो आपातकाल के पक्ष में खड़े रहे। वे ही हैं जो अंग्रेजों के मुखबिर बने और आज भी उनके बिगड़े शहजादे (माओवादी) जंगलों में आदिवासियों का जीवन नरक बना रहे हैं।

देश तोड़ने की दुआएं कौन कर रहे हैः    अगर जेएनयू परिसर में वे पाकिस्तान जिंदाबाद करते नजर आ रहे हैं, तो इसमें नया क्या है? उनकी बदहवासी समझी जा सकती है। सब कुछ हाथ से निकलता देख, अब सरकारी पैसे पर पल रहे जेएनयू के कुछ बुद्धिधारी इस इंतजाम में लगे हैं कि आईएसआई (पाकिस्तान) उनके खर्चे उठा ले। जब तक जेएनयू में भारत विरोधी नारे लगाने वाली ताकतें हैं ,देश के दुश्मनों को हमारे मासूम लोगों को कत्ल करने में दिक्कत क्या है? हमारा खून बहे, हमारा देश टूटे यही भारतीय वामपंथ का छुपा हुआ एजेंडा है। हमारी सुरक्षा एजेंसियां देश में आतंकियों के मददगार स्लीपर सेल की तलाश कर रही हैं, इसकी ज्यादा बड़ी जगह जेएनयू है। वहां भी नजर डालिए।
सरकारी पैसे पर राष्ट्रद्रोह की विषवेलः जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय एक ऐसी जगह है, जहां सरकारी पैसे से राष्ट्रद्गोह के बीज बोए जाते हैं। यहां ये घटनाएं पहली बार नहीं हुयी हैं। ये वे लोग हैं नक्सलियों द्वारा हमारे वीर सिपाहियों की हत्या पर खुशियां मनाते हैं। अपनी नाक के नीचे भारतीय राज्य अरसे से यह सब कुछ होने दे रहा है,यह आश्चर्य की बात है। इस बार भी घटना के बाद माफी मांग कर अलग हो जाने के बजाए, जिस बेशर्मी से वामपंथी दलों के नेता मैदान में उतरकर एक राष्ट्रद्रोही गतिविधि का समर्थन कर रहे हैं, वह बात बताती है, उन्हें अपने किए पर कोई पछतावा नहीं है। यह कहना कि जेएनयू को बदनाम किया जा रहा है,ठीक नहीं है। गांधी हत्या की एक घटना के लिए आजतक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को लांछित करने वाली शक्तियां क्यों अपने लिए छूट चाहती हैं? जबकि अदालतों ने भी गांधी हत्या के आरोप से संघ को मुक्त कर दिया है। टीवी बहसों को देखें तो अपने गलत काम पर पछतावे के बजाए वामपंथी मित्र भाजपा और संघ के बारे में बोलने लगते हैं। भारत को तोड़ने और खंडित करने के नारे लगाने वाले और इंडिया गो बैक जैसी आवाजें लगाने वाले किस तरह की मानसिकता में रचे बसे हैं, इसे समझा जा सकता है। देश तोड़ने की दुआ करने वालों को पहचानना जरूरी है।
राहुल जी, आप वहां क्या कर रहे हैः वामपंथी मित्रों की बेबसी, मजबूरी और बदहवासी समझी जा सकती है, किंतु भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस जैसी जिम्मेदार पार्टी के नेता राहुल गांधी का रवैया समझ से परे है। कांग्रेस पार्टी का राष्ट्रीय आंदोलन का अतीत और उसके नेताओं का राष्ट्र की रक्षा के लिए बलिदान लगता है राहुल जी भूल गए हैं। आखिर ऐसी क्या मजबूरी है कि वे जाकर देशद्रोहियों के पाले में खड़े हो जाएं? उनकी पं. नेहरू, श्रीमती इंदिरा गांधी और श्री राजीव गांधी की विरासत का यह अपमान है। इनमें से दो ने तो अपने प्राण भी इस राष्ट्र की रक्षा के लिए निछावर कर दिए। ऐसे परिवार का अंध मोदी विरोध या भाजपा विरोध में इस स्तर पर उतर जाना चिंता में डालता है। पहले दो दिन कांग्रेस ने जिस तरह की राष्ट्रवादी लाइन ली, उस पर तीसरे दिन जेएनयू जाकर राहुल जी ने पानी फेर दिया। जेएनयू जिस तरह के नारे लगे उसके पक्ष में राहुल जी का खड़ा होना बहुत दुख की बात है। वे कांग्रेस जैसी गंभीर और जिम्मेदार पार्टी के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष हैं। उन्हें यह सोचना होगा कि भाजपा और नरेंद्र मोदी का विरोध करते-करते कहीं वे देशद्रोहियों के एजेंडे पर तो नहीं जा रहे हैं। उन्हें और कांग्रेस पार्टी को यह भी ख्याल रखना होगा कि किसी दल और नेता से बड़ा है देश और उसकी अस्मिता। देश की संप्रभुता को चुनौती दे रही ताकतों से किसी भी तरह की सहानुभूति रखना राहुल जी और उनकी पार्टी के लिए ठीक नहीं है। जेएनयू की घटना को लेकर पूरे देश में गुस्सा है, ऐसे समूहों के साथ अपने आप को चिन्हित कराना, कांग्रेस की परंपरा और उसके सिद्धांतों के खिलाफ है।
अभिव्यक्ति की आजादी के नाम परः कौन सा देश होगा जो अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर खुद को तोड़ने की नारेबाजी को प्रोत्साहन देगा। राष्ट्र के खिलाफ षडयंत्र और देशद्रोहियों की याद में कार्यक्रम करने वालों के साथ जो आज खड़े हैं, वे साधारण लोग नहीं हैं। जिस देश ने आपको सांसद, विधायक, मंत्री और प्रोफेसर बनाया। लाखों की तनख्वाहें देकर आपके सपनों में रंग भरे, आपने उस देश के लिए क्या किया? आजादी आप किससे चाहते हैं? इस मुल्क से आजादी, जिसने आपको एक बेहतर जिंदगी दी। अन्याय और अत्याचार से मुक्ति दिलाने की आपकी यात्रा क्यों गांव-गरीब और मैदानों तक नहीं पहुंचती? अपने ही रचे जेएनयू जैसे स्वर्ग में शराब की बोतलों और सिगरेट की घुंओं में क्रांति करना बहुत आसान है किंतु जमीन पर उतर कर आम लोगों के लिए संघर्ष करना बहुत कठिन है। हिंदुस्तान के आम लोग पढ़े-लिखे लोगों को बहुत उम्मीदों से देखते हैं कि उनकी शिक्षा कभी उनकी जिंदगी में बदलाव लाने का कारण बनेगी। किंतु आपके सपने तो इस देश को तोड़ने के हैं। समाज को तोड़ने के हैं। समाज में तनाव और वर्ग संघर्ष की स्थितियां पैदा कर एक ऐसा वातावरण बनाने पर आपका जोर है ताकि लोगों की आस्था लोकतंत्र से, सरकार से और प्रशासनिक तंत्र से उठ जाए। विदेशी विचारों से संचालित और विदेशी पैसों पर पलने वालों की मजबूरी तो समझी जा सकती है। किंतु भारत के आम लोगों के टैक्स के पैसों से एक महान संस्था में पढ़कर इस देश के सवालों से टकराने के बजाए, आप देश से टकराएंगें तो आपका सिर ही फूटेगा।
    जेएनयू जैसी बड़ी और महान संस्था का नाम किसी शोधकार्य और अकादमिक उपलब्धि के लिए चर्चा में आए तो बेहतर होगा, अच्छा होगा कि ऐसे प्रदर्शनों-कार्यक्रमों के लिए राजनीतिक दल या समूह जंतर-मंतर, इंडिया गेट, राजधाट और रामलीला मैदान जैसी जगहें चुनें। शिक्षा परिसरों में ऐसी घटनाओं से पठन-पाठन का वातावरण तो बिगड़ता ही है, तनाव पसरता है, जो ठीक नहीं है। इससे विश्वविद्यालय को नाहक की बदनामी तो मिलती ही है, और वह एक खास नजर से देखा जाने लगता है। अपने विश्वविद्यालय के बचाने की सबसे ज्यादा जिम्मेदारी शायद वहां के अध्यापकों और छात्रों की ही है। ऐसी घटनाओं की पुनरावृत्ति रोकना ही, इस बार मिली बदनामी का सबसे बड़ा इलाज है।
    एक लोकतंत्र में होते हुए आपकी सांसें घुट रही हैं, तो क्या माओ के राज में, तालिबानों और आईएस के राज में आपको चैन मिलेगा? सच तो यह है कि आप बेचैन आत्माएं हैं, जिनका विचार ही है भारत विरोध, भारत द्वेष, लोकतंत्र का विरोध। आपका सपना है एक कमजोर और बेचारा भारत। एक टूटा हुआ, खंड-खंड भारत। ये सपने आप दिन में भी देखते हैं, ये ही आपके नारे बनकर फूटते हैं। पर भूल जाइए, ये सपना कभी साकार नहीं होगा, क्योंकि देश और उसके लोग आपके बहकावे में आने को तैयार नहीं है। देश तोड़क गतिविधियों और राष्ट्र विरोधी आचरण की आजादी यह देश किसी को नहीं दे सकता। आप चाहे जो भी हों। जेएनयू या दिल्ली भारत नहीं है। भारत के गांवों में जाइए और पूछिए कि आपने जो किया उसे कितने लोगों की स्वीकृति है, आपको सच पता चल जाएगा। राष्ट्र की अस्मिता और चेतना को चुनौती मत दीजिए। क्योंकि कोई भी व्यक्ति, विचारधारा और दल इस राष्ट्र से बड़ा नहीं हो सकता। चेत जाइए।

मंगलवार, 2 फ़रवरी 2016

अमित शाहः कांटों का ताज


-संजय द्विवेदी
   भारतीय जनता पार्टी ने अंततः अमित शाह को दुबारा अपना अध्यक्ष बनाकर यह संदेश दे दिया है कि पार्टी में मोदी समय अभी जारी रहेगा। कई चुनावों में पराजय और नाराज बुजुर्गों की परवाह न करते हुए बीजेपी ने साफ कर दिया है कि अमित शाह, उसके शाह बने रहेगें। दिल्ली और बिहार की पराजय ने जहां अमित शाह के विरोधियों को ताकत दी थी, तथा उन्हें यह मौका दिया था कि वे शाह की कार्यशैली पर सवाल खड़े कर सकें। किंतु विरोधियों को निराशा ही हाथ लगी, और शाह के लिए एक मौका फिर है कि वे अपनी आलोचनाओं को बेमतलब साबित कर सकें।
कार्यशैली पर उठे सवालः अमित शाह के बारे में कहा जाता है कि वे अधिनायकवादी हैं, और संवाद में उनका भरोसा कम है। वे आदेश देते हैं और उसे यथाशब्द पालन होते देखना चाहते हैं। उनके बारे में सुना जाता है कि वे लोकतांत्रिक कम हैं, और बिग बास सरीखा व्यवहार करते हैं। उ.प्र. में भाजपा की अप्रत्याशित सफलता ने जहां शाह को एक कुशल रणनीतिकार के रूप में स्थापित किया वहीं उनके आलोचकों को किस्से बहुत मिल गए। हालांकि जब अमित शाह वहां पहुंचे तो उ.प्र. वैसे भी एक पस्तहाली से गुजर रहा था। नेता काफी थे, सब बड़े और अहंकार से भरे, किंतु काम के बहुत कम। अमित शाह ने जो भी किया वे उ.प्र. से बेहतर परिणाम ला सके। इसका सबसे बड़ा कारण यही था कि वे भाजपा के परंपरागत नेतृत्व की कम सुन रहे थे। क्या यह संभव था कि उ.प्र. जैसे राज्य में वहां के परंपरागत नेताओं की अगुवाई में चुनाव जीते जा सकें। अमित शाह ने जो भी किया, समय ने उसे सही साबित किया। मोदी का उ.प्र. का लड़ना साधारण फैसला नहीं था, किंतु उसने भाजपा की एक हवा बनाई और उ.प्र. अरसे बाद भाजपा की गोद में आ गया। अमित शाह को जानने वाले जानते हैं कि वे रणनीति के उस्ताद और काम में भरोसा रखने वाले हैं। संगठन को वैज्ञानिक ढंग से चलाना उनकी आदत है। वे भाषणप्रिय टीम के बजाए काम की टीम रखते हैं, और परिणाम देते हैं। ऐसे में बिहार और दिल्ली के परिणामों के आधार पर उनकी छुट्टी का कोई आधार नहीं बनता।
   दिल्ली के हार के कारण बहुत अलग हैं और बिहार भी एक अलग कहानी है। दोनों राज्यों में भाजपा की हार के कारण अध्ययन का विषय हैं। बिहार में भाजपा कुछ ज्यादा उम्मीदों से थी, जबकि यहां उसकी कोई जमीन है ही नहीं। मत विभाजन के चलते मिली सफलताओं को वह अपनी निजी सफलता मानने के भ्रम में थी। जैसे कल्पना करें उ.प्र. में सपा और बसपा का गठबंधन हो जाए तो परिणाम क्या होगें? जाहिर तौर पर उत्तर भारत की राजनीति में आज भी जातीय गोलबंदियां मायने रखती हैं। उनके परिणाम आते हैं। बिहार जैसे राज्य में जहां आज भी जाति सबसे विचार संगठन और विचार है, को जीतना भाजपा के परंपरागत तरीके से संभव कहां था? अपने व्यापक अभियान के चलते भाजपा ने अपना वोट बैंक तो बचा लिया, पर इतना तूफानी अभियान न होता तो भाजपा कहां होती?
नए अध्यक्ष की चुनौतियां- भाजपा के नए अध्यक्ष अमित शाह के लिए पराजयों का सिलसिला अभी जारी रहने वाला है। जिन राज्यों में आगामी चुनाव हैं वहां भाजपा कोई परंपरागत दल नहीं है। इसलिए उसकी ताकत तो बढ़ सकती है पर सत्ता में उसके आने के आसार बहुत कम हैं। राजनीति को पूरी तरह उलटा नहीं किया जा सकता। असम में भाजपा का उंचा दांव है, तो बंगाल में वह संघर्ष में आने को लालायित है। इसके साथ ही पंजाब से भी बहुत अच्छी खबरें नहीं है। उप्र का मैदान तो सपा-बसपा के बीच आज भी बंटा हुआ है। ऐसे में अमित शाह के लिए चुनौती यही है कि वे अपने दल की ताकत को बढ़ाएं और सम्मान जनक सफलताएं हासिल करें। इसके साथ ही उन पर सबसे आरोप संवादहीनता और मनमाने व्यवहार का है। उन्हें अपने साथ घट रही इस शिकायत पर भी ध्यान देना होगा। भाजपा एक परिवार की तरह चलने वाली पार्टी रही है, उसे कंपनी या कारपोरेट की तरह चलाना शायद लोगों को हजम न हो। किंतु अनुशासन की जिस तरह घज्जियां उड़ रही हैं, उसे संभालना होगा। अकेले बिहार के शत्रुध्न सिन्हा, कीर्ति आजाद, आर के सिंह, भोला सिंह, हुकुमदेव नारायण यादव जैसे लोकसभा सदस्यों ने जिस तरह की बातें कहीं, वह एक चेतावनी है। यह असंतोष बड़ा और संगठित भी हो सकता है। इसका उन्हें ध्यान देना होगा। उन्हें यह भी ध्यान देना होगा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से दुखी जन हमले मोदी पर नहीं अमित शाह पर ही करेगें, क्योंकि अमित शाह की विफलता को कहीं न कहीं मोदी की विफलता से जोड़कर ही देखा जाएगा।
भौगोलिक विस्तार और संगठनात्मक सुदृढ़ता का मोर्चाः भाजपा ने अपनी लंबी यात्रा में बहुत कुछ हासिल किया है। किंतु आज भी देश के तमाम वर्गों के लिए वह एक अछूत पार्टी है। अमित शाह को भाजपा के भौगोलिक-सामाजिक विस्तार के साथ संगठन की सुदृढ़ता पर भी ध्यान देना होगा। दक्षिण- भारत के राज्यों में उसका विस्तार अभी प्रतिक्षित है। उसकी कर्नाटक में रही अकेली सरकार भी जा चुकी है। ऐसे में भाजपा ऐसा क्या करेगी कि उसके माथे से उत्तर भारत का दल होने का तमगा हटे, इसे देखना रोचक होगा। भाजपा को समाज के बुद्धिजीवी वर्गों, तमाम प्रकार के प्रदर्शन कलाओं, और कलाक्षेत्र से जुड़े गुणवंतों से संपर्क बनाना होगा। उनके साथ संवाद निरंतर करना होगा और अपनी उदारता का परिचय देना होगा। संस्कृति और कला के सवालों पर अपने अपढ़ नेताओं को बोलने से रोकना होगा। इन विषयों पर अपेक्षित संवेदनशीलता के साथ ही बात करने वाले नेता आगे आएं। भाजपा में बड़ी संख्या में ऐसे कार्यकर्ता हैं जो भावनात्मक आधार पर काम करते हैं, उनके राजनीतिकरण की प्रक्रिया पार्टी को तेज करनी होगी। इसका लाभ यह होगा कि वे हर स्थिति में अपने राजनीतिक पक्ष का साथ देगें, और उसे स्थापित करने के सचेतन प्रयास करेंगें। आज स्थिति यह है कि भावनात्मक आधार पर जुड़े कार्यकर्ता कुछ गड़बड़ देखकर या तो अपनी ही सरकार के कटु आलोचक हो जाते हैं या निष्क्रिय होकर घर बैठ जाते हैं। वैचारिक प्रशिक्षण के अभियान चलाकर उन्हें भाजपा में होने के मायने बताने होगें। अपने दल के कार्यकर्ताओं का यह प्रशिक्षण उन्हें नए भारत में उनकी भूमिका से संबंधित होना चाहिए। कम समय में निराश हो रही अपनी फौज को संभालने के लिए शाह को कड़ाई से दल के बयानवीरों पर रोक लगानी होगी। भाजपा के सांसद और विधायक या मंत्री हर विषय के विशेषज्ञ बनकर अपनी राय न दें, इससे दल की जगहंसाई भी रूकेगी और विवाद के अवसर कम आएंगे। मोदी सरकार के मंत्रियों को भी अपेक्षित संयम के साथ ही संवाद के मैदान में कूदना चाहिए। अमित शाह और नरेंद्र मोदी लंबे समय तक गुजरात में काम किया था, उन्हें ध्यान देना होगा कि भारत गुजरात नहीं है।


सोमवार, 25 जनवरी 2016

छात्र आंदोलनः खो गया है रास्ता


-संजय द्विवेदी


      हैदराबाद विश्वविद्यालय के छात्र रोहित वेमूला की आत्महत्या की घटना ने हमारे शिक्षा परिसरों को बेनकाब कर दिया है। सामाजिक-राजनीतिक संगठनों में काम करने वाले छात्र अगर निराशा में मौत चुन रहे हैं, तो हमें सोचना होगा कि हम कैसा समाज बना रहे हैं? किसी राजनीति या विचारधारा से सहमति-असहमति एक अलग बात है, किंतु बात आत्महत्या तक पहुंच जाए तो चिंताएं स्वाभाविक हैं।
     यहां सवाल अगर हैदराबाद विश्वविद्यालय प्रशासन पर उठता है, तो साथ ही उन लोगों पर भी उठता है, जो रोहित से जुड़े हुए थे। उसके भावनात्मक उद्वेलन को समझकर उसे सही राह दिखाई जाती, तो शायद वह अपने जीवन को खत्म करने के बजाए बहादुरी से जूझने का फैसला करता। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने लखनऊ में छात्रों के बीच ठीक ही कहा कि मां भारती ने अपना एक लाल खोया है। एक युवा कितने सपनों के साथ एक परिसर में आता है। उसमें देश और समाज को बदलने के कितने सपने एक साथ झिलमिलाते हैं। सामाजिक-राजनीतिक संगठनों में काम करने वाले युवा अगर निराशा के कारण इस प्रकार के कदम उठा रहे हैं तो उन संगठनों को भी सोचना होगा कि आखिर वे इनका कैसा प्रशिक्षण दे रहे हैं। सामाजिक क्षेत्र में काम करने वाला युवा एक अलग तरह की प्रेरणा से भरा होता है। संघर्ष का पथ वह चुनता है, और उसके खतरे उठाता है। रोहित के प्रकरण में असावधानी हर तरफ से दिखती है। रोहित का अकेलापन, उसके दर्द की नासमझी, उसकी मौत का कारण बनी है। विश्वविद्यालय में अलग-अलग राजनीतिक धाराओं के संगठनों की सक्रियता कोई नई बात नहीं हैं, उनके आपसी संघर्ष भी कोई नई बात नहीं हैं। बल्कि पश्चिम बंगाल और केरल में तो वामपंथियों ने अपने राजनीतिक विरोधी छात्रों की हत्या करने से भी गुरेज नहीं किया। शिक्षा परिसरों में राजनीतिक दलों से जुड़े छात्र संगठन काम करते हैं और उन्हें करना भी चाहिए किंतु उस सक्रियता में सकारात्मकता कम होती है। संवाद, सरोकार और संघर्ष की त्रिवेणी से ही छात्र संगठन किसी भी परिसर को जीवंत बनाते हैं। किंतु देखा जा रहा है, उनकी सकारात्मक भूमिका कम होती जा रही है, और वे अपनी राजनीतिक पार्टियों के पिछलग्गू से ज्यादा कुछ नहीं बचे हैं।
    शिक्षा परिसरों में विचार-धारा के नाम पर छात्र और शिक्षक भी टकराव लगातार देखने में आ रहे हैं। यह टकराव संवाद के माध्यम से और मर्यादा में रहे तो ठीक है, किंतु यह टकराव मार-पिटाई और हत्या और आत्महत्या तक जा पहुंचे तो ठीक नहीं है। एक युवा कितने सपनों के साथ किसी अच्छे परिसर में पहुंचाता है। ये सपने सिर्फ उसके नहीं होते उसके माता-पिता और परिवार तथा समाज के भी होते हैं। किंतु जब परिसर की एक बड़ी दुनिया में पहुंचकर वह राजनीतिक कुचक्रों में फंस जाता है, तो उसकी एक नई यात्रा प्रारंभ होती है। संकट यह है कि हमारे अध्यापक भी असफल हो रहे हैं। वे इस दौर में अपने विद्यार्थियों में आ रहे परिर्वतनों को न देख पाते हैं, न ही समझ पाते हैं। वे तो अपनी कक्षा में उपस्थित छात्र तक भी नहीं पहुंच पा रहे हैं। विभिन्न विचारधाराओं से जुड़े छात्र परिसर में सक्रिय होते हैं, किंतु उन्हें संवाद की सीमाएं बताना शिक्षकों और प्रशासन का ही काम है। संसदीय राजनीतिक की तमाम बुराइयां छात्र संगठनों में भी आ चुकी हैं, किंतु संसदीय राजनीति में खत्म होता संवाद नीचे तक पसरता दिखता है। संकट यह है कि आज राष्ट्र से बड़ी विचारधारा है, विचारधारा से बड़ी पार्टी है और पार्टी से बड़ा व्यक्ति है। ऐसे में भावनात्मक आधार पर संगठन से जुड़े कार्यकर्ताओं का शोषण हर ओर दिखता है। गांव और सामान्य परिवारों से आए युवाओं को छात्र संगठन पकड़ लेते हैं, उनकी ऊर्जा का इस्तेमाल करते हैं और अपने संगठन को गति देते हैं।
   छात्र जीवन एक ऐसा समय है, जब युवा अपने भविष्य को रचता है। अपने अध्ययन-अनुशीलन और अभ्यास से वह भावी चुनौतियों के लिए तैयार होता है। परिसरों में राजनीतिक घुसपैठ से माहौल बिगड़ता जरूर है, किंतु एक संसदीय लोकतंत्र में रहते हुए इसे रोकने के बजाए, सही दिशा देनी जरूरी है। अपनी विचारधारा के आधार पर लोगों का संगठन और जनमत निर्माण एक लोकतांत्रिक प्रक्रिया को गति देते हैं। इससे विमर्श के नए द्वार खुलते हैं, और अधिनायकत्व को चुनौती मिलती है। संवाद, और लोकतंत्र एक दूसरे को शक्ति देते हैं। संवादहीनता और वैमनस्यता के बजाए हमें उदार लोकतांत्रिक विचारों के आधार पर अपने संगठनों को तैयार करना चाहिए। अतिवादिता के बजाए समन्वय, संघर्ष के बजाए संवाद, आक्रामकता के बजाए विमर्श इसका रास्ता है। अपने राजनीतिक विरोधियों को शत्रु समझना एक लोकतंत्र नहीं है। अपने राजनीतिक विरोधियों की असहमति को आदर देना ही लोकतंत्र है। हमें अपने लोकतंत्र को परिपक्व बनाना है, तो यह शुरूआत परिसरों से ही करनी होगी। परिसर खामोशी की चादर ओढ़ने के बजाए प्रश्नाकुल हों, यह समय की मांग है। इस तरह की हिंसक घटनाएं उन लोगों को मजबूत करती हैं, जो परिसरों में राजनीति के खिलाफ हैं, संवाद के खिलाफ हैं। कोई भी शिक्षा परिसर यथास्थिति को तोड़कर नए सवालों के साथ ही धड़कता और खड़ा होता है।
      राजनीति और सत्ता तो यही चाहते हैं कि परिसरों में सिर्फ फेयरवेल पार्टियां हों फेशर्स पार्टियां हों, आनंद उत्सव हो। यहां राजनीतिक विचारों, देश के सवालों पर विवाद और संवाद हो यह हमारी सत्ताएं भी नहीं चाहतीं। इसलिए अनेक राज्यों में आज छात्रसंघों के चुनाव नहीं होते। लोकतंत्र की नर्सरी में उगते कटीले झाड़ों का बहाना लेकर परिसरों से सिर्फ रोबोट बनाने का काम चल रहा है। जो युवाओं को एक मशीन में तब्दील कर रहे हैं। या जिन्हें सिर्फ जल्दी और ज्यादा कमाने की विधियां बता रहे हैं। सामाजिक सरोकार, सामाजिक जिम्मेदारी को उठाने और निभाने की भावना आज के युवा में कम होती जा रही है। एक लोकतंत्र में रहते हुए युवा अगर अपने समय के सवालों से जूझने के लिए तैयार नहीं है तो हम कैसा समाज बनाएगें? रोहित की आत्महत्या हम सबके सामने एक सवाल की तरह है, पर उसे प्रधानमंत्री पर हमले का हथियार न बनाएं। यह सोचें कि परिसरों में ऐसा क्या हो रहा है कि एक सामाजिक सोच का युवा भी मौत चुनने को तैयार है। जो रोहित की मौत पर आंसू बहा रहे हैं वे भी सोचें कि अगर वे आज की तरह उसके साथ होते तो उसे जीवन नहीं गंवाना पड़ता। इस क्रम को हमें रोकना है तो परिसरों को जीवंत बनाना होगा, उम्मीदों से भरना होगा। तभी हमारे युवा जीतते दिखेगें, हारते हुए नहीं। वे जिंदगी चुनेंगें मौत नहीं।

सोमवार, 18 जनवरी 2016

सांप्रदायिकता से कौन लड़ना चाहता है?

        क्योंकि उनके पास तिरंगे से ज्यादा बड़े और ज्यादा गहरे रंगों वाले झंडे हैं
-संजय द्विवेदी


     देश भर के तमाम हिस्सों से सांप्रदायिक उफान, गुस्सा और हिंसक घटनाएं सुनने में आ रही हैं। वह भी उस समय जब हम अपनी सुरक्षा चुनौतियों से गंभीर रूप से जूझ रहे हैं। एक ओर पठानकोट के एयरबेस पर हुए हमले के चलते अभी देश विश्वमंच पर पाकिस्तान को घेरने की कोशिशों में हैं, और उसे अवसर देने की रणनीति पर काम कर रहा है। दूसरी ओर आईएस की वैश्विक चुनौती और उसकी इंटरनेट के माध्यम से विभिन्न देशों की युवा शक्ति को फांसने और अपने साथ लेने की कवायद,  जिसकी चिंता हमें भी है। मालदा से लेकर पूर्णिया तक यह गुस्सा दिखता है, और चिंता में डालता है। पश्चिम बंगाल और असम के चुनावों के चलते इस गुस्से के गहराने की उम्मीदें बहुत ज्यादा हैं।
कौन किसे दे रहा है ताकतः 
हम देखें तो सांप्रदायिकता और राजनीति के रिश्ते आपस में इस तरह जुड़े हैं, जिसमें यह कहना कठिन है कि कौन किससे ताकत पा रहा है? मालदा की घटना में तस्कर हों या नकली नोटों के माफिया। सच तो यह है कि राजनीति उन्हें इस्तेमाल करने के कोई अवसर छोड़ना नहीं चाहती। सवाल सिर्फ हिंदू-मुसलमान का है या राजनीति का भी है। दंगे जब होते हैं या कराए जाते हैं तब इसका भी विश्लेषण होना चाहिए कि इसके पीछे कारण क्या हैं। पता चलेगा कि पंथ के बजाए कोई और मामला है, तथा हिंदू-मुसलमान का इस्तेमाल कर लिया जाता है। यह मानना बहुत कठिन है कि कोई भी समाज, जाति, परिवार या वर्ग अपने परिवार के साथ सुख-शांति से नहीं रहना चाहता। हिंसा किसे प्यारी है? आतंकवाद को कौन पालना चाहता है? लेकिन हिंसा होती है, और आतंकवाद बढ़ता है। यानि यह सामान्य मनुष्यों का काम नहीं है। कोई भी स्वस्थ मनुष्य न तो हिंसा करेगा, न ही वह किसी आतंकी कार्रवाई का समर्थन करेगा। जो लोग ऐसा कर रहे हैं, वे साधारण लोग नहीं हैं। वे दिमागी तौर पर अस्वस्थ, मनोविकारी, कुंठित और अपराधी मानसिकता के लोग हैं । लेकिन आश्चर्य यह कि शेष समाज का समर्थन पाने में वे सफल हो जाते हैं। कोई समय से, कोई पैसे से, कोई हथियारों से उन्हें समर्थन देता है। आखिर ये समर्थन देने वाले लोग कौन हैं? आप वैश्विक स्तर से स्थानीय हिंसक समूहों को देखें तो उन्हें मदद करने वाले हाथ साधारण नहीं है। आईएस के मनुष्यता-विरोधी अभियान को तमाम देशों से मदद के प्रमाण हैं। भारत में माओवादी आतंक को भी तमाम ताकतों का समर्थन मिलता है। इसी तरह सांप्रदायिकता के विषधरों को भी समाज के तमाम तबकों से अलग-अलग रूपों में समर्थन मिलता है।
देश के कानून पर कीजिए भरोसाः
 क्या कारण है हिंसक घटनाओं के पीछे हमारी राजनीतिक पार्टियों के तार जुड़े नजर आते हैं? मालदा की घटना की जैसी व्याख्या मीडिया में हो रही है, उसे समझने की जरूरत है। क्या पंथ पर हमला ही उन्हें उत्तेजित कर सका या उसके पीछे कहानी कुछ और थी। यह भी गजब है कि जिस मुस्लिम के नेता अपने समाज की गरीबी, अशिक्षा, बदहाली और पिछड़ेपन पर खामोश रहते हैं वे एक ऐसे व्यक्ति के खिलाफ सड़क पर एक माह बाद उतरते हैं, जब उसे जेल में डालकर उस पर राष्ट्रीय सुरक्षा कानून के तहत कार्रवाई की जा चुकी है। यह बात बताती है कि हम इस देश के कानून पर भी भरोसा करने को तैयार नहीं है। भारत के लोकतांत्रिक- जनतांत्रिक चरित्र पर विश्वास को तैयार नहीं।  किसी भी व्यक्ति के खिलाफ कार्रवाई इस देश के कानून के हिसाब से होगी। फांसी मांगने से फांसी नहीं मिल सकती। यह भी गजब है कि आतंकवादियों को फांसी देने का विरोध करने वाली शक्तियां, किसी को एक बयान के आधार पर फांसी पर लटकाने की मांग करती हैं।
वोट बैंक की राजनीति से समस्याः
     भारत का संविधान और कानून सबके लिए बराबर है। संविधान के दायरे में आकर अपने अधिकारों की मांग करना तो ठीक है। किंतु थाना जलाना, गोलियां चलाना और दहशत पैदा करना कहां का तरीका है। समूची दुनिया में मुस्लिम समाज के सामने ये सवाल खड़े हैं। अपनी प्रतिक्रिया में संयम न रखना आज मुस्लिम समाज के समाज के सामने एक चुनौती है। अपने पंथ की ऐसी आक्रामक छवि बनता देखकर भी उसके नेताओं में चिंता नहीं दिखती। राजनीतिक दल अपने वोट बैंक के लिए उनका इस्तेमाल करते आए हैं करते रहेंगें। किंतु यह भी सोचना होगा कि आप कब तक इस्तेमाल होते रहेंगे। नकली नोटों के कारोबारी, हथियारों के सप्लायर, अवैध कारोबारों में लिप्त लोग अगर समाज का इस्तेमाल कर अपनी ताकत को बचाना चाहते हैं तो समाज को भी होशियार होना चाहिए। राजनीतिक दलों, बुद्धिजीवियों, समाज के अगुआ लोगों को इस तरह की प्रवृत्ति के खिलाफ समाज को जागृत करना होगा। लोगों की भावनाओं से खेलने का काम बहुत हो चुका। अब लोगों में वैज्ञानिक सोच जगाने और मानवता को सबसे बड़ा दर्जा देने का विचार आगे बढ़ाना होगा। गलत करने वाले को सजा देने वाले हम कौन हैं? कानून को हाथ में लेकर, तोड़फोड़ और आगजनी कर क्या हम अपने पंथ, उसकी पवित्र शिक्षाओं का आदर कर रहे हैं?
युवाओं को बचाइएः
     हमारे युवा गुमराह होकर आतंकवाद की राह पकड़कर युवा अवस्था में ही मौत की भेंट चढ़ रहे हैं, इससे स्पष्ट है कि हमारे समाज के अगुआ, धर्मगुरू, शिक्षक, बुद्धिजीवी सब हार रहे हैं। भारत हार रहा है। एक लोकतंत्र में होते हुए भी अगर हमारी सांसें घुट रही हैं, हम विचारों को व्यक्त करने के बजाए दहशत पैदा कर, थाने जलाकर, पाकिस्तान जिंदाबाद के नारे लगाकर अपनी कुठाएं निकाल रहे हैं, तो हमें सोचना होगा कि आखिर हमने कैसा भारत बनाया है। भारत जैसे देश में जहां सब पंथों, समाजों और वर्गों को सम्मान और आदर के साथ रहने के समान अवसर हैं, वहां हिंसा की राह पकड़ रहा कोई भी समूह भारत-प्रेमी नहीं कहा जा सकता। अपने रोष और गुस्से को निकालने के लिए तमाम संवैधानिक और सत्याग्रही तरीके हमारी परंपरा में हैं, हम उनका अनुसरण करें और न्याय प्राप्त करें। एक न्यायपूर्ण समाज बनाने के लिए जनता का जाग्रत होना भी जरूरी है।

    समाज को बांटकर शक्ति नहीं पायी जा सकती। सब साथ मिलकर विकास करें। सपनों में रंग भरें तभी भारत बचेगा और तभी हमारी शान दुनिया में बनेगी। लेकिन सवाल यह उठता है कि राजनीति में अगर पंथिक राजनीति हस्तक्षेप करेगी, सांप्रदायिक भावनाएं वोट-बैंक के निर्माण में मददगार होंगी। हिंसा और आतंकवाद के खिलाफ हमारा दृष्टिकोण चयनित होगा, एक हिंसा पर खामोशी, दूसरी हिंसा पर बवेला होगा, तब सांप्रदायिकता से कैसे लड़ेगें। यह सवाल आज हम सबके सामने है, उनके सामने भी- जो दादरी पर चीखते हैं, पर मालदा पर खामोश हैं। उनके सामने भी जो प्रवीण तोगड़िया से दुखी हैं पर आजम खान से उन्हें परहेज नहीं है। काश राजनीति वाणी संयम और भारत-प्रेम की भावनाओं से लबरेज होती तो हम ऐसे सामाजिक संकटों का आसानी से मुकाबला कर पाते। लेकिन अफसोस राजनीतिक दलों के पास तिरंगे से ज्यादा बड़े और ज्यादा गहरे रंगों वाले झंडे हैं।

शनिवार, 9 जनवरी 2016

सामना, शहादत और मातम!

सामना, शहादत और मातम!
जग नहीं सुनता कभी दुर्बल जनों का शांति प्रवचन
-संजय द्विवेदी

      पाकिस्तान के जन्म की कथा, उसकी राजनीति की व्यथा और वहां की सेना की मनोदशा को जानकर भी जो लोग उसके साथ अच्छे रिश्तों की प्रतीक्षा में हैं, उन्हें दुआ कि उनके स्वप्न पूरे हों। हमें पाकिस्तान से दोस्ती का हाथ बढ़ाते समय सिर्फ इस्लामी आतंकवाद की वैश्विक धारा का ही विचार नहीं करना चाहिए बल्कि यह भी सोचना चाहिए कि आखिर यह देश किस अवधारणा पर बना और अब तक कायम है? पाकिस्तान सेना का कलेजा अपने मासूम बच्चों के जनाजों को कंधा देते हुए नहीं कांपा (पेशावर काण्ड) तो पड़ोसी मुल्क के नागरिकों और सैनिकों की मौत उनके लिए क्या मायने रखती है।
    द्विराष्ट्रवाद की अवधारणा की मोटी समझ रखने वालों को यह पता है कि पाकिस्तान की एकता आज सिर्फ भारत घृणा पर ही टिकी हुयी है। भारत विरोध वहां की राजनीति का एक एजेंडा और कश्मीर उसका लक्ष्य है। शायद पाकिस्तान के बगल में भारत न होता तो पाकिस्तान कबके कई टुकड़ों में विभक्त हो गया होता। दो टुकड़े तो उसके काफी पहले हो चुके हैं। वह अपनी ही प्रेतछाया से लड़ता हुआ देश है। इस जमीन पर शायद इकलौता देश जो अपने पुराने देश से लड़ रहा है, जिससे वह जिद करके अलग हुआ था।
निरंतर है प्राक्सी वारः सीधे युद्ध में तीन बार मात खाकर पाकिस्तान ने यह समझ विकसित की अब प्राक्सी वार ही भारत को सताए-पकाए और छकाए रखने का तरीका है। 1947 में देश के बंटवारे के पीछे मंशा तो यही थी कि अब सबको जमीन मिल गयी है, घर के बंटवारे के बाद हम शांति से जी सकेंगे। पर ऐसा कहां हुआ। देश को नरेन्द्र मोदी के रूप में पहली बार एक सशक्त नेतृत्व मिला है, यह कहना और मानना ऐतिहासिक रूप से गलत है।
     श्री लालबहादुर शास्त्री, श्रीमती इंदिरा गांधी और श्री अटलबिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में पाकिस्तान को मुंहतोड़ जवाब हमारा नेतृत्व देता रहा है। किंतु क्या पाकिस्तान इन पराजयों से रत्ती भर सीख सका? आज की तारीख में हमें पाकिस्तान को आइसोलेट करना पड़ेगा। पाकिस्तान से निरंतर संवाद की जिदें भी उसे शक्ति देती हैं, और वह एक नए हमले की तैयारी कर लेता है। ऐसे खतरनाक और आतंकवादियों के पनाहगाह देश को अलग-थलग करके ही हम सुख- चैन से रह सकते हैं। अमन की आशा एक सपना है जो पाकिस्तान जैसे कुंठित राष्ट्र के साथ संभव नहीं है। आप देखें तो संवाद की ये कोशिशें नई नहीं है। शायद हमारे हर प्रधानमंत्री ने ऐसी कोशिशें की हैं, लेकिन सफलता उन्हें नहीं मिली।
बंद कीजिए ड्रामाः   बाघा सीमा पर हम कितने सालों से मोमबत्तियां जलाने से लेकर मिठाईयों का आदान-प्रदान और पैर पटकने की कवायद कर रहे हैं। यह सब देखने-सुनने और एक इवेंट के लिहाज से बहुत अच्छा है किंतु इससे हमें हासिल क्या हुआ? इस्लामिक देशों का एक पूरा संगठन बना हुआ है, जिसमें मिडिल ईस्ट के देशों के साथ मिलकर पाकिस्तान भारत के हितों को नुकसान पहुंचाता है। हिंदुस्तान के कुछ लीडरों ने हालात ऐसे कर दिए हैं कि आप बहस भी नहीं कर सकते।जो देश अपने सुरक्षा सवालों पर भी संवाद से डरता हो कि मुसलमान नाराज हो जाएंगे, उसे कोई नहीं बचा सकता। आखिर हिंदुस्तान का मुसलमान पहले हिंदुस्तानी है या मुसलमान? अगर हमें सुरक्षित रहना है, एक रहना है तो हम सबको मानना होगा कि हम पहले हिंदुस्तानी हैं, बाद में कुछ और। कोई भी पंथ अगर राष्ट्र से बड़ा होगा तो राष्ट्र एक नहीं रह सकता। इतने हमलों और इतना खून बहाने के बाद भी यह एक वाक्य का सबक हम नहीं सीख पा रहे हैं। जिस तरह की घुसपैठ व घटनाएं हो रही हैं, वे बताती हैं कि हम एक लापरवाह देश हैं। पाकिस्तानी रेंजर्स और पाक सेना तो घुसपैठियों के पीछे हैं हीं, हमारे अपने देश में भी सीमा सुरक्षा के काम में लगे लोग और देश के भीतर पाकिस्तानी इरादों के मददगार भी इसमें एक बड़ा कारण है। एक बिकाऊ हिंदुस्तानी कैसे अपनी मातृभूमि की रक्षा कर सकता है?
कितने धोखों के बादः  आज ईरान ने सऊदी अरब से राजनायिक संबंध तोड़ लिए। हमारी ऐसी क्या मजबूरी है कि हम पाकिस्तान को चिपकाए पड़े हैं। हमलों के बाद पाकिस्तान से जैसी प्रतिक्रियाएं आती हैं, वह कोई तारीफ के काबिल नहीं हैं। हम धोखे खाने के लिए उन्हें अवसर देते हैं। इंटलीजेंस इनपुट के बाद भी हमारे देश में घुसकर वे हमारी जमीन पर अपने नापाक इरादों को अंजाम दे जाते हैं, और हम अपने वसुधैव- कुटुम्बकम् के अंदाज पर मुग्ध हैं। अमरीका और पश्चिमी देशों के नकलीपन और दोहरेपन पर तो मत जाईए। वे हमें पाकिस्तान से संवाद बनाए रखने की सलाहें देते हैं किंतु पठानकोट हमला उनकी जमीन पर हुआ होता तो उनकी प्रतिक्रिया क्या होती? 6 फरवरी,1913 को हमारे वर्तमान प्रधानमंत्री ने एक विपक्षी दल के नेता के नाते कहा था पाकिस्तान को लव लेटर लिखना बंद कीजिए। आज वे रायसीना हिल्स में बैठकर अगर नोबेल पुरस्कार लेने के सपने देख रहे हैं, तो उन्हें अग्रिम बधाई। एक के बदले 10 सिर लेने की बात करने वाली शक्तियां आज सत्ता में हैं, पर क्या देश सुरक्षित है? नवाज शरीफ की पोती को आशीष दीजिए, पर सैनिकों की बेवाएं भी एक सवाल की तरह हमारे सामने हैं। इतना तो तय कीजिए की युद्ध के लिए सिर्फ हमारी ही जमीन का इस्तेमाल न हो। हम युद्धकामी लोग नहीं हैं, बिल्कुल युद्ध नहीं चाहते। भारत का मन बड़ा है और शांति का पक्षधर है। किंतु छद्म युद्ध भी हमारी जमीन पर ही क्यों लड़े जाएं। प्राक्सीवार के लिए पाकिस्तान और पाक अधिकृत कश्मीर की जमीनों का इस्तेमाल क्यों नहीं होता? हमारे पास हजारों विकल्प हैं, पर हम धोखा खाने को अपनी शान समझ बैठे हैं। जिन देशों ने अपने एक नागरिक की मौत पर शहर के शहर खत्म कर दिए हम उनकी नजरों में अच्छा बनना चाहते हैं। हमारे देश के सबसे बड़े और सुरक्षित एयरफोर्स बेस पर हमला साधारण बात नहीं हैं, किंतु हमारी हरकतों ने इसे साधारण बना दिया है। सुरक्षा क्यों फेल हुयी, आगे हमले न होगें इसकी गारंटी क्या है? सुरक्षा समस्याओं पर हम संभलकर बात क्यों कर रहे हैं? एक जमाने में पाकिस्तान के प्रमुख जनरल जिया उल हक कहा करते थे भारत  को एक हजार जगह घाव दो। ये संख्या भी गिनें तो पूरी हो चुकी है। हमारी सरकार को और कितने घावों का इंतजार है? फिलहाल तो हमारे सैनिकों के सामने तीन ही विकल्प हैं- सामना, शहादत और मातम। इसी मंजर पर एक कवि की वाणी भी सुनिए-

हम चले थे विश्व भर को शांति का सन्देश देने,
किन्तु जिसको बंधु समझा, आ गया वह प्राण लेने
शक्ति की हमने उपेक्षा की, उसी का दंड पाया,
यह प्रकृति का ही नियम है, अब हमें यह जानना है।
जग नहीं सुनता कभी, दुर्बल जनों का शांति प्रवचन,
सर झुकाता है उसे, जो कर सके रिपु मान मर्दन।

सोमवार, 4 जनवरी 2016

आतंकवाद से कैसे लड़ें



-संजय द्विवेदी
     आतंकवाद के खिलाफ हमारी लड़ाई कड़े संकल्पों के कारण धीमी पड़ रही है। पंजाब के हाल के वाकये बता रहे हैं कि हम कितनी गफलत में जी रहे हैं। राजनीतिक संकल्पों और मैदानी लड़ाई में बहुत अंतर है, यह साफ दिख भी रहा है। पाकिस्तान और चीन जैसे पड़ोसियों के रहते हम वैसे भी शांति की उम्मीदें नहीं पाल सकते किंतु जब हमारे अपने ही संकल्प ढीले हों तो खतरा और बढ़ जाता है। आतंकवाद के खिलाफ लंबी यातना भोगने के बाद भी हमने सीखा बहुत कम है। किसी आतंकी को फांसी देते वक्त भी हमारे देश में उसे फांसी देने और न देने पर जैसा विमर्श चलता है उसकी मिसाल खोजने पर भी नहीं मिलेगी। आखिर हम आतंकवाद के खिलाफ जीरो टालरेंस का रवैया अपनाए बिना कैसे सुरक्षित रह सकते हैं।
    भारतीय राजनीति में किसी का सीना कितने भी इंच का हो फर्क नहीं पड़ता क्योंकि लोकतंत्र में लोगों की लाशें बिछ रही हैं और हम राज्य की हिंसा पर विमर्श में व्यस्त हैं। एक मोमबत्ती गिरोह भी है जो हर आतंकी के लिए टेसुए बहाता है किंतु बहादुर सैनिकों की मौत उनके लिए सिर्फ एक कर्तव्य है। आतंकवाद के खिलाफ हमें निर्णायक लड़ाई लड़ने का संकल्प लेना होगा वरना सीमा से लेकर नक्सल इलाकों में खून बहता रहेगा और देखते रहने के अलावा कुछ नहीं कर पाएंगें। इसमें दो राय नहीं कि प्रधानमंत्री जो कि भारत के सर्वप्रमुख नेता हैं वे भारत के मूल स्वभाव जैसा ही व्यवहार कर पाएंगें। भारत का मूल मंत्र है- वसुधैव कुटुम्बकम्। पड़ोसियों के साथ बेहतर रिश्ते हमारी जरूरत है और आकांक्षा भी। लेकिन इस स्वभाव के बाद भी हमें मिल क्या रहा है, क्या पड़ोसियों की सदाशयता पाने में हम सफल हैं। हमारा कौन सा पड़ोसी देश है जो हमें सम्मान से देखता है। अब तो नेपाल भी आंखें दिखा रहा है और चीन से बेहतर रिश्ते बनाने में लगा है। बाकी देशों के बारे में हम बेहतर जानते हैं। इसके मायने यह हैं कि हमारी जो आपसी लड़ाईयां हैं, इनके चलते आकार में बड़े होने के बाद भी हम एक कमजोर देश हैं। हमारी ये कमजोरियों देश के अंदर बैठे आतंकी भी समझते हैं और देश के बाहर बैठे लोग तो चतुर सुजान हैं ही।

एक मजबूत भारत किसके लिए चुनौतीः

 खतरा हमें हर उस ताकत से है जिसकी आंखों में एक मजबूत भारत चुभता है। एक मजबूत भारत उन्हें नहीं चाहिए। वे इसे रोक नहीं सकते पर इस प्रक्रिया में व्यवधान डाल सकते हैं। भारत की समस्या मुख्यतः पाकिस्तान और चीन केंद्रित है। इन दो पड़ोसियों ने जेहादी आतंक और माओवादी आतंक के बीज को हमारे देश में पोषित किया है और राष्ट्रीय सुरक्षा को गंभीर चुनौती दी है। एक समय में पंजाब में फैले आतंकवाद से हमने निजात पाई तो पाक ने कश्मीर को अपना केंद्र बनाकर एक नई चुनौती पेश कर दी। यह हालात आज भी संभले नहीं हैं। जेहाद का सपना लिए नौजवान आज भी गुमराह किए जा रहे हैं, तो खालिस्तान की आग भी धधकाने की कोशिशें होती हैं। भारत की राष्ट्रीय चेतना को कुंठित करना, भारतीय समाज में भेदभाव भर कर देशतोड़क गतिविधियों में, समाज का इस्तेमाल करना हमारे विरोधियों की शक्ति रही है। इसके चलते देश में तमाम देशतोड़क अभियान गति पा रहे हैं। अलग-अलग नामों से चल रहे इन हिंसक आंदोलनों की एक ही नीयत है भारत को कमजोर करना। वनांचलों से लेकर कश्मीर, पंजाब और पूर्वांचल के राज्यों में हिंसक गतिविधियों का ठीक से अध्ययन किया जाए तो यह सच सामने आएगा। भारत की एकता और उसकी अखंडता को चुनौती देती ये शक्तियां किस तरह देश के समाज को तोड़ना चाहती हैं यह सच भी सामने आएगा।
इजराइल सा माद्दा और पुतिन सा नेतृत्व जरूरीः

हमारे देश को अगर आतंकवाद की गहरी आग में नहीं जलना है तो नागरिकों में राष्ट्रभाव प्रबल करना होगा। इजराइल छोटा देश है किंतु हमारे लिए एक आदर्श बन सकता है। आतंकवाद के खिलाफ उसकी जंग हमें सिखाती है कि किस तरह अपनी अस्मिता के लिए पूरा देश एक होकर खड़ा होता है। रूस के कमजोर होते और बिखरे स्वरूप के बाद भी पुतिन जैसे नायक हमारे सामने उम्मीद की तरह हैं। हमारे अपने लोगों का खून बहता रहे और हम देखते रहें तो इसके मायने क्या हैं। यह सही बात है कि आतंक कहीं भी फैलाया जा सकता है। आतंकवादियों से जूझना साधारण बात नहीं है। किंतु क्या हमारा समाज और हमारी सरकारें इसके लिए तैयार हैं। सीमा सुरक्षा बल की चौकसी के बाद भी बस्तर के जंगलों तक विदेशी हथियार पहुंच रहे हैं, तो क्या हमारे अपने लोगों की मदद के बिना ऐसा हो रहा है। आजादी के इन सात दशकों में जैसा भारत हमने बनाया है वहां लोगों का थोड़ी लालच में बिक जाना बहुत आसान है। विदेशी ताकतें इतनी सशक्त और चाक चौबंद हैं कि उनके तंत्र को हमारी हर गतिविधि का पता है। राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार के रूप में अजीत ढोभाल जैसे योग्य अधिकारी की उपस्थिति के बाद भी हालात संभलने को कहां हैं। भारत- पाक के रिश्तों को बनाने के सचेतन प्रयासों के बीच आतंकी ताकतों की कोशिश रिश्तों पर पानी फेरने की है। भारत की नागरिक चेतना को जागृत किए बिना इस दानवी आतंकवाद के तमाम सिरों से निपट पाना संभव नहीं दिखता।


निर्णायक संघर्ष की जरूरतः

 भारतीय समाज और उसके नायकों के लिए जरूरी है कि वे एक निर्णायक संकल्प की ओर बढ़ें। आतंकवाद के सभी रूपों के खिलाफ एक लड़ाई छेड़ी जाए चाहे वह जेहादी आतंक हो या माओवादी आंतक। भारतीय नागरिकों, मीडिया, सामाजिक रूप से प्रभावी वर्गों को यह चेतना नागरिकों के भीतर भरनी होगी कि अपने लोगों का खून बहाकर हम वसुधैव कुटुम्बकम् का मंत्रजाप नहीं कर सकते। दुनिया के हर ताकतवर देश ने जिस तरह आतंकवाद का सामना किया है, वही रास्ता हमारे लिए भी है। अमरिका अपने नागरिकों के रक्षा के लिए अलग तरीके से पेश आता है और ब्रिटेन अपने नागरिकों की रक्षा के लिए अलग तरीके से पेश आ रहा है तो भारत के लोगों की जान-माल क्या इतनी सस्ती है कि उन्हें अकारण नरभक्षियों के सामने निहत्था छोड़ दिया जाए? भारत का सरकार सहित राज्यों की सरकारों को यह विचार किए बिना कि इसके क्या परिणाम होंगें, राजनीतिक रूप से इसके क्या गणित बनेंगें, एक दृढ़ संकल्प के साथ आगे आना होगा। भारत की शक्ति और उसकी गरिमा को स्थापित करना होगा। एक साफ्ट स्टेट का लांछन लेकर हम कितना खून धरती पर बहने देंगें। अपने नागरिकों में राष्ट्रीय भावना भरना और देशद्रोही ताकतों के खिलाफ शत्रुओं सा व्यवहार ही हमें इस संकट से मुक्ति दिलाएगा। अपनी खुफिया सेवाओं को चुस्त-दुरूस्त बनाते हुए, सेना और अन्य सुरक्षा बलों का मनोबल बनाए रखते हुए हमे आगे बढ़ना होगा। सत्ता और व्यवस्था में नागरिकों के प्रति अपेक्षित संवेदनशीलता भरनी होगी। क्योंकि लोकतंत्र की विफलता  भी कहीं न कहीं असंतोष का कारण बनती है। सामान्य जनों में रोष और विद्रोह की भावना पैदा करती है। इससे पहले हिंसा और बाद में आतंकवाद की समस्या पैदा होती है। एक आगे बढते देश के सामने बहुत से संकट हैं, उनमें आतंकवाद सबसे बड़ा है क्योंकि लोगों के जानमाल की रक्षा किसी भी सरकार की पहली जिम्मेदारी है। हमारी सरकार की पहली और अंतिम प्रतिबद्धता लोगों की सुरक्षा है, पर क्या हम इस जिम्मेदारी पर खरे उतर रहे हैं  ?

शनिवार, 2 जनवरी 2016

कौन चाहता है बन जाए राममंदिर?

-संजय द्विवेदी

  राममंदिर के लिए फिर से अयोध्या में पत्थरों की ढलाई का काम शुरू हो गया है। नेताओं की बयानबाजियां शुरू हो गयी हैं। उप्र पुलिस भी अर्लट हो गयी है। कहा जा रहा है कि पत्थरों की यह ढलाई राममंदिर की दूसरी मंजिल के लिए हो रही है।
   राममंदिर के लिए चले लंबे संघर्ष की कथाएं आज भी आखों के सामने तैर जाती हैं। खासकर नवें दशक में एक प्रखर आंदोलन खड़ा करने वाले राममंदिर आंदोलन की त्रिमूर्ति रामचंद्र परमहंस, महंत अवैद्यनाथ और अशोक सिंहल तीनों इस दुनिया से विदा हो चुके हैं। ऐतिहासिक अयोध्या आंदोलन के तमाम नायकों ने समय से समझौता कर अपनी-अपनी राह पकड़ ली है। तब के बजरंगी विनय कटियार वाया भाजपा कई चुनाव हारकर अब राज्यसभा में हैं, तो उमाश्री भारती अपने पड़ोसी राज्य उप्र से दो चुनाव जीतकर (एक विधानसभा एक लोकसभा) अब केंद्र में मंत्री हैं। साध्वी ऋतंभरा ने वात्सल्य आश्रम के माध्यम से सेवा की नई राह चुन ली है। इसके अलावा राजनीति में इस आंदोलन के शिखर पुरूष रहे श्री लालकृष्ण आडवानी भी अब राजनीतिक बियाबान में ही हैं। कुल मिलाकर मंदिर आंदोलन के सारे योद्धा या निस्तेज हो गए हैं तो कई दुनिया छोड़ गए हैं। राममंदिर आंदोलन ने जिस तरह का जनज्वार खड़ा किया था उससे अशोक सिंहल, विनय कटियार, श्रीषचंद्र दीक्षित, दाउदयाल खन्ना, जयभान सिंह पवैया जैसे तमाम चेहरे अचानक खास बन गए थे। लगता था कि सारा जमाना उनके पीछे चल रहा है। अपने अनोखे प्रयोगों जैसे रामशिला पूजन, रामज्योति आदि से यह आंदोलन लोगों तक ही नहीं उत्तर भारत के गांव-गांव तक फैला। यह साधारण नहीं है, अयोध्या में गोली से मरे दो भाई कोठारी बंधु भी पश्चिम बंगाल के रहने वाले थे।
    आंदोलन को खड़ा करने की सांगठनिक शक्ति से वास्तव में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उनके संगठनों का कोई मुकाबला नहीं है। हिंदी पट्टी में जहां जाति ही सबसे बड़ी विचारधारा और संगठन है वहां हिंदू शक्ति को एकजुट कर खड़ा करना कठिन था, किंतु एक संगठन ने इसे कर दिखाया। इस समय ने अपने नायक चुने और समूचा हिंदू समाज राममंदिर के निर्माण की भावना के साथ खड़ा दिखाई दिया। इस आंदोलन से शक्ति लेकर ही भाजपा एक बड़ी पार्टी बनी और उसका भौगोलिक और सामाजिक विस्तार हुआ। अनेक जातियों में उसके नेता खड़े हुए। यह साधारण नहीं था कि राममंदिर आंदोलन के तमाम पोस्टर ब्वाय पिछड़े वर्ग से आते थे। जिसमें कल्याण सिंह, उमा भारती और विनय कटियार सबसे बड़े चेहरे थे। राजनीति की पाठशाला में तमाम नए नवेले चेहरे आए और राममंदिर आंदोलन के नाते बड़े नेता बन गए। उप्र में भाजपा को ऐतिहासिक विजय मिली, उसने अपने दम पर पहली बार पूर्ण बहुमत पाकर सरकार बनायी। यह घटना दिल्ली में भी दोहराई गयी और केंद्र में भी सरकार बनी। किंतु राममंदिर का क्या हुआ? तीन बार अटलजी की गठबंधन सरकार और एक बार नरेंद्र मोदी की पूर्ण बहुमत वाली सरकार भी भाजपा बना चुकी है, लेकिन सरकार और संगठन का दृष्टिकोण हमेशा अलग-अलग रहा है। सत्ता में जाते ही नेताओं की जुबान बदल जाती है। वे सरकारी बोलने के अभ्यस्त हो जाते हैं। जबकि मंदिर विवाद अदालती से ज्यादा राजनीतिक समस्या है। किंतु यह अफसोसजनक है कि चंद्रशेखर के अलावा किसी भी प्रधानमंत्री ने इस विवाद को संवाद से हल कराने की गंभीर कोशिश नहीं की। चंद्रशेखर जी सिर्फ बहुत कम समय सत्ता में रहे, इसलिए विवाद के हल होने की संभावना भी खत्म हो गयी। आज भी सत्ता के शिखरों पर बैठे लोग इस मंदिर आंदोलन से शक्ति पाकर ही आगे बढ़े हैं किंतु समस्या के समाधान के लिए उनकी कोशिशें नहीं दिखतीं।
    राममंदिर को एक नारे की तरह इस्तेमाल करना और फिर चुप बैठ जाना बार-बार आजमाया गया फार्मूला है। होना तो यह चाहिए या तो अदालत या फिर संवाद दो में से किसी एक रास्ते का अनुसरण हो। हमारे राजनीतिक दलों और राजनेताओं में वह इकबाल नहीं कि वे समस्या के समाधान के लिए संवाद का धरातल बन सकें, वे हर चीज के लिए अदालतों पर निर्भर हैं। सो इस मामले में भी अदालत ही आखिरी फैसला करेगी। सरकारों के बस का तो यह है ही नहीं। इसलिए बेहतर होगा कि संघ परिवार और भाजपा अपने काडर को साफ तौर पर यह संदेश दे कि राममंदिर को लेकर बेवजह की बयानबाजियां रोकी जाएं। बार-बार हिंदू जनमानस से छल करने के ये प्रयास, उनकी हवा खराब कर रहे हैं। जितना बड़ा जनांदोलन 90 के दशक में खड़ा हुआ, अब हो नहीं सकता। इसलिए जनांदोलन की भाषा बोलने के बजाए, समाधान पर जोर दिया जाना चाहिए। अब जबकि यह साफ है कि राममंदिर के मुद्दे पर राजनीतिक दलों और राजनेताओं की सीमाएं स्पष्ट हो चुकी हैं तब इस मामले पर माहौल बिगाड़ने की कोशिशें रोकी जानी चाहिए। आज की तारीख में हमारे सामने अदालत से फैसला लाना ही एकमात्र विकल्प है। हाईकोर्ट इस विषय में फैसला दे चुकी है। सुप्रीम कोर्ट का फैसला आना शेष है। इसके बावजूद तमाम लोग जिनकी राजनीति राममंदिर के बिना पूरी नहीं होती, इस मुद्दे पर बयान देने से बाज नहीं आते। दोनों तरफ ऐसी राजनीतिक शक्तियां हैं जो इस मामले को जिंदा रखना चाहती हैं। छह दिसंबर को जिस तरह का वातावरण बनाने की कोशिशें होती हैं वह बताती हैं कि राममंदिर की फिक्र दरअसल किसी को नहीं हैं। यह गजब है कि अयोध्या में अपनी जन्मभूमि पर भी इस देश के राष्ट्रपुरूष भगवान श्रीराम का मंदिर बनाने पर विवाद है। जो आजादी के वक्त सोमनाथ में हो सकता है, वह अयोध्या में क्यों नहीं? क्या हम पहले से कम राष्ट्रीय हो गए हैं? अयोध्या में राममंदिर का विवाद दरअसल इस देश की हिंदू-मुस्लिम समस्या का एक जीवंत प्रमाण है। किस प्रकार एक आक्रांता ने एक हिंदू मंदिर को तोड़कर वहां एक ढांचा खड़ा कर दिया था। आज इतने समय बाद भी हम उन यादों को भुला कहां पाए हैं। इतिहास को विकृत करने वाली विरासतों से रिश्ता जोड़ना कहां से भाईचारे की बुनियाद को मजबूत कर सकता है? खुद इकबाल लिखते हैं-
है राम के वजूद पर हिंदोस्तां को नाज
अहले नजर समझते हैं उनको इमामे-हिंद।
  ऐसी सांझी विरासतों को जब मजबूत करने की जरूरत है तो भी राममंदिर न बनने देने के पक्ष में खड़ी ताकतों को भी यह लोकतंत्र अवसर देता है। आप इसे लोकतंत्र का सौंदर्य कह सकते हैं, किंतु यह एक राष्ट्रपुरूष, राष्ट्र की प्रज्ञा और राष्ट्र की अस्मिता का अपमान है। भगवान श्रीराम इस देश के 80 प्रतिशत नागरिकों के लिए राष्ट्रपुरूष और धीरोदात्त नायक हैं। वे जन-मन की आस्था के केंद्र हैं। भारत में बसने वाला शेष समाज प्रभु राम के प्रति सम्मान व्यक्त करते हुए इस स्थान को हिंदू समाज की भावनाओं के मद्देनजर सौंप देता तो कितनी सुंदर राष्ट्रीय भावना का संचार होता। राजनीति के खिलाड़ियों ने इस सद्भावना के बीज को पनपने ही नहीं दिया और अपने-अपने राजनीतिक खेल के लिए लोगों का इस्तेमाल किया। सही मायने में जब कांग्रेस नेता और उप्र सरकार में मंत्री रहे दाऊदयाल खन्ना ने आठवें दशक के अंत में राममंदिर का मामला उठाया था तब यह विषय एक स्थानीय सवाल था, आज यह मुद्दा अपने विशाल स्वरूप से फिर बहुत छोटे रूप में जिंदा है। इस आंदोलन के ज्यादातर नायक कालबाह्य हो चुके हैं। बावजूद इसके 1990 से आज 2015 के अंतिम समय में भी इसके समाधान के लिए शांतिप्रिय आवाजें आगे नहीं आईं। सबको पता है कि वहां अब कभी बाबरी ढांचा या कोई अन्य स्मारक नहीं बन सकता,लेकिन रामलला तिरपाल और टीनशेड में उत्तर प्रदेश की शीत लहर झेल रहे हैं। राममंदिर आंदोलन के समर्थक और विरोधी दोनों प्रकार के राजनीतिक दल जनता का इस्तेमाल कर सत्ता पा चुके हैं। राजभोग जारी है, इसलिए आ रहे साल 2016 की देहरी पर खड़े होकर यह पूछने का मन हो रहा है कि आखिर राममंदिर की चिंता किसे है?