शनिवार, 1 अगस्त 2015

देश को क्यों बांट रहा है मीडिया

कलाम हों रोलमाडल या मेमन सोचना होगा
-संजय द्विवेदी
  काफी समय हुआ पटना में एक आयोजन में माओवाद पर बोलने का प्रसंग था। मैंने अपना वक्तव्य पूरा किया तो प्रश्नों का समय आया। राज्य के बहुत वरिष्ठ नेता, उस समय विधान परिषद के सभापति रहे स्व.श्री ताराकांत झा भी उस सभा में थे, उन्होंने मुझे जैसे बहुत कम आयु और अनुभव में छोटे व्यक्ति से पूछा आखिर देश का कौन सा प्रश्न या मुद्दा है जिस पर सभी देशवासी और राजनीतिक दल एक है?” जाहिर तौर पर मेरे पास इस बात का उत्तर नहीं था। आज जब झा साहब इस दुनिया में नहीं हैं, तो याकूब मेमन की फांसी पर देश को बंटा हुआ देखकर मुझे उनकी बेतरह याद आयी।
   आतंकवाद जिसने कितनों के घरों के चिराग बुझा दिए, भी हमारे लिए विवाद का विषय है। जिस मामले में याकूब को फांसी हुयी है, उसमें कुल संख्या को छोड़ दें तो सेंचुरी बाजार की अकेली साजिश में 113 बच्चे, बीमार और महिलाएं मारे गए थे। पूरा परिवार इस घटना में संलग्न था। लेकिन हमारी राजनीति और मीडिया दोनों इस मामले पर बंटे हुए नजर आए। यह मान भी लें कि राजनीति का तो काम ही बांटने का है और वे बांटेंगें नहीं तो उन्हें गद्दियां कैसे मिलेंगीं? इसलिए हैदराबाद के औवेसी से लेकर दिग्विजय सिंह, शशि थरूर सबको माफी दी जा सकती है कि क्योंकि वे अपना काम कर रहे हैं। वही काम जो हमारी राजनीति ने अपने अंग्रेज अग्रजों से सीखा था। यानी फूट डालो और राज करो। इसलिए राजनीति की सीमाएं तो देश समझता है। किंतु हम उस मीडिया को कैसे माफ कर सकते हैं जिसने लोकजागरण और सत्य के अनुसंधान का संकल्प ले रखा है।
    टीवी मीडिया ने जिस तरह हमारे राष्ट्रपुरूष, प्रज्ञापुरूष, संत-वैज्ञानिक डा. एपीजे अबुल कलाम की खबर को गिराकर तीनों दिन याकूब मेमन को फांसी को ज्यादा तरजीह दी, वह माफी के काबिल नहीं है। प्रिंट मीडिया ने थोड़ा संयम दिखाया पर टीवी मीडिया ने सारी हदें पार कर दीं। एक हत्यारे-आतंकवादी के पक्ष पर वह दिन भर औवेसी को लाइव करता रहा। क्या मीडिया के सामाजिक सरोकार यही हैं कि वह दो कौमों को बांटकर सिर्फ सनसनी बांटता रहे। किंतु टीवी मीडिया लगभग तीन दिनों तक यही करता रहा और देश खुद को बंटा हुआ महसूस करता रहा। क्या आतंकवाद के खिलाफ लड़ना सिर्फ सरकारों, सेना और पुलिस की जिम्मेदारी है? आखिर यह कैसी पत्रकारिता है, जिसके संदेशों से यह ध्वनित हो रहा है कि हिंदुस्तान के मुसलमान एक आतंकी की मौत पर दुखी हैं? आतंकवाद के खिलाफ इस तरह की बंटी हुयी लड़ाई में देश तो हारेगा ही दो कौमों के बीच रिश्ते और असहज हो जाएंगें। हिंदुस्तान के मुसलमानों को एक आतंकी के साथ जोड़ना उनके साथ भी अन्याय है। हिंदुस्तान का मुसलमान क्या किसी हिंदू से कम देशभक्त है? किंतु औवेसी जैसे वोट के सौदागरों को उनका प्रतिनिधि मानकर उन्हें सारे हिंदुस्तानी मुसलमानों की राय बनाना या बताना कहां का न्याय है? किंतु ऐसा हुआ और सारे देश ने ऐसा होते हुए देखा। 
   इस प्रसंग में हिंदुस्तानी टीवी मीडिया के बचकानेपन, हल्केपन और हर चीज को बेच लेने की भावना का ही प्रकटीकरण होता है। आखिर हिंदुस्तानी मुसलमानों को मुख्यधारा से अलग कर मीडिया क्यों देखता है? क्या हिंदुस्तानी मुसलमान आतंकवाद की पीड़ा के शिकार नहीं हैं? क्या जब धमाके होते हैं तो उसका असर उनकी जिंदगी पर नहीं होता? देखा जाए तो हिंदू-मुसलमान दुख-सुख और उनके जिंदगी के सवाल एक हैं। वे भी समान दुखों से  घिरे हैं और समान अवसरों की प्रतीक्षा में हैं। उनके सामने भी बेरोजगारी, गरीबी, मंहगाई के सवाल हैं। वे भी दंगों में मरते और मारे जाते हैं। बम उनके बच्चों को भी अनाथ बनाते हैं। इसलिए यह लड़ाई बंटकर नहीं लड़ी जा सकती। कोई भी याकूब मेमन मुसलमानों का आदर्श नहीं हो सकता। जो एक ऐसा खतरनाक आतंकी है जो अपने परिवार से रेकी करवाता हो, कि बम वहां फटे जिससे अधिक से अधिक खून बहे, हिंदुस्तानी मुसलमानों को उनके साथ जोड़ना एक पाप है। हिंदुस्तानी मुसलमानों के सामने आज यह प्रश्न खड़ा है कि क्या वे अपनी प्रक्षेपित की जा रही छवि के साथ खड़े हैं या वे इसे अपनी कौम का अपमान समझते हैं? ऐसे में उनको ही आगे बढ़कर इन चीजों पर सवाल उठाना होगा। इस बात का जवाब यह नहीं है कि पहले राजीव गांधी के हत्यारों को फांसी दो या बेअंत सिंह के हत्यारों को फांसी दो। अगर 22 साल बाद एक मामले में फांसी की सजा हो रही है तो उसकी निंदा करने का कोई कारण नहीं है। कोई पाप इसलिए कम नहीं हो सकता कि एक अपराधी को सजा नहीं हुई है। हिंदुस्तान की अदालतें जाति या धर्म देखकर फैसले करती हैं यह सोचना और बोलना भी एक तरह का पाप है। फांसी दी जाए या न दी जाए इस बात का एक बृहत्तर परिप्रेक्ष्य है। किंतु जब तक हमारे देश में यह सजा मौजूद है तब तक किसी फांसी को सांप्रदायिक रंग देना कहां का न्याय है?
   कांग्रेस के कार्यकाल में फांसी की सजाएं हुयी हैं तब दिग्विजय सिंह और शशि थरूर कहां थे? इसलिए आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई के सवालों को हल्का बनाना, अपनी सबसे बड़ी अदालत और राष्ट्रपति के विवेक पर संदेह करना एक राजनीतिक अवसरवाद के सिवा क्या है? राजनीति की इसी देशतोड़क भावना के चलते आज हम बंटे हुए दिखते हैं। पूरा देश एक स्वर में कहीं नहीं दिखता, चाहे वह सवाल कितना भी बड़ा हो। हम बंटे हुए लोग इस देश को कैसे एक रख पाएंगें? दिलों को दरार डालने वाली राजनीति,उस पर झूमकर चर्चा करने वाला मीडिया क्या राष्ट्रीय एकता का काम कर रहा है? ऐसी हरकतों से राष्ट्र कैसे एकात्म होगा? राष्ट्ररत्न-राष्ट्रपुत्र कलाम के बजाए याकूब मेमन को अगर आप हिंदुस्तान के मुसलमानों का हीरो बनाकर पेश कर रहे हैं तो ऐसे मीडिया की राष्ट्रनिष्ठा भी संदेह से परे नहीं है? क्या मीडिया को यह अधिकार दिया जा सकता है कि वह किसी भी राष्ट्रीय प्रश्न लोगों को बांटने का काम करे? किंतु मीडिया ने ऐसा किया और पूरा देश इसे अवाक होकर देखता रहा।
   मीडिया का कर्म बेहद जिम्मेदारी का कर्म है। डा. कलाम ने एक बार मीडिया विद्यार्थियों शपथ दिलाते हुए कहा था-मैं मीडिया के माध्यम से अपने देश के बारे में अच्छी खबरों को बढ़ावा दूंगा, चाहे वो कहीं से भी संबंधित हों। शायद मीडिया अपना लक्ष्य पथ भूल गया है। पूरी मीडिया की समझ को लांछित किए बिना यह कहने में संकोच नहीं है कि टीवी मीडिया का ज्यादातर हिस्सा देश का शुभचिंतक नहीं है। वह बंटवारे की राजनीति को स्वर दे रहा है और राष्ट्रीय प्रश्नों पर लोकमत के परिष्कार की जिम्मेदारी से भाग रहा है। सिर्फ दिखने, बिकने और सनसनी फैलाने के अलावा सामान्य नागरिकों की तरह मीडिया का भी कोई राष्ट्रधर्म है पर उसे यह कौन बताएगा। उन्हें कौन यह बताएगा कि भारतीय हिंदुओं और मुसलमानों दोनों के नायक भारतरत्न कलाम हैं न कि कोई आतंकवादी। देश को जोड़ने में मीडिया एक बड़ी भूमिका निभा सकता है, पर क्या वह इसके लिए तैयार है?
(लेखक राजनीतिक विश्लेषक हैं)
  

शनिवार, 25 जुलाई 2015

राजनीति में शुचिता के सवाल



-संजय द्विवेदी

  राजनीति में शुचिता और पवित्रता के सवाल अब हवा हो गए लगते हैं। जोर अब सादगी, शुचिता और ईमानदारी पर नहीं है। आप हमसे अधिक भ्रष्ट हैं, यह कहकर अपने पाप कम करने की कोशिशें की जा रही हैं। समाज इस नजारे को भौंचक होकर देख रहा है। देश के हर राज्य में ऐसी कहानियां पल रही हैं और राजनीति व नौकरशाही दोनों इसे विवश खड़े देख रहे हैं। भ्रष्टाचार की तरफ देखने का हमारा दृष्टिकोण चयनित है। हमारे और तुम्हारे लोगों की जंग में देश छला जा रहा है।
  सवाल यह भी उठने लगा है कि सार्वजनिक जीवन में अब शुचिता और नैतिकता की अपेक्षा करना बेमानी है। जनता भी यह मानकर चलती है कि काम होगा तो भ्रष्टाचार भी होगा,सब चलता है, कौन पाक-साफ है, बिना लिए-दिए आजकल कहां काम होता है। जनता की यह वेदना एक हारे हुए हिंदुस्तान की पीड़ा है।जिसे लगने लगा है कि अब कुछ नहीं हो सकता। उसे लगने लगा है कि देवदूत न तो बैलेट बक्से से निकले हैं न ही वे वोटिंग मशीनों से निकलेंगें। फिर रास्ता क्या है। क्या एक अच्छा समाज बनाने, एक ईमानदार समाज बनाने, एक शुचितापूर्ण सार्वजनिक जीवन का सपना भी छोड़ दिया जाए? जाहिर तौर पर नहीं। ईमानदारी, शुचिता और पवित्रता के गुण एक नैसर्गिक गुण हैं।इनकी अधिकता ही किसी भी समाज और राष्ट्र को आदरणीय बनाती है। इसलिए प्रत्येक समाज और राष्ट्र यह प्रयास करता है कि वह बेहतरी की ओर बढ़े। उनके सार्वजनिक जीवन मूल्यों के आधार पर चलें। समाज में समरसता और समभाव का वातावरण हो। धन के बजाए नैतिक शक्ति को आदर मिले। इसीलिए समाज को मूल्यों पर चलने, मूल्यों को जीने की सीख दी जाती है। अपने पाठ्यक्रमों और दैनिक जीवन में भी इन मूल्यों के अंश डालने की कोशिशें यत्नपूर्वक की जाती हैं। धर्मों और पंथों की छाया में जाएं तो वे भी यही कहते और बताते हुए दिखते हैं। इसलिए इस पूरे वातावरण से निराश होने के बजाए, उजालों की ओर बढ़ना जरूरी है। भारत जैसे देश में जहां मूल्यों का इतना आदर रहा है और तमाम राजपुत्रों ने मूल्यों के लिए अपने पद और सिंहासन छोड़कर जंगलों और गांवों का रूख किया है, उस समाज में ऐसे प्रकरण हैरत में डालते हैं। राम, बुद्ध, महावीर सभी राजपुत्र हैं किंतु वे समाज में मूल्यों की स्थापना के लिए सत्ता के शिखरों को छोड़ते हैं। ऐसा समाज जहां संत-विद्वानों ने अपनी विद्वता से समाज को आलोकित किया है,वहां के सार्वजनिक जीवन में निरंतर आ रही गिरावट चिंता में डालती है। इसका सबसे कारण यह है कि हमने जो व्यवस्थाएं ग्रहण की हैं वे हमारी नहीं है। जो संविधान रचा वह हमारी परंपरा का नहीं है। जो शिक्षा हम ले और दे रहे हैं वह हमारी परंपरा से नहीं है। ऐसे में समाज में भारतीय जीवन मूल्य और भारतीय जीवन शैली कैसे स्थापित हो सकती है। 
  बहुत सपनों और संकल्पों वाला नौजवान भी इस व्यवस्था में अवसर पाकर खुद को संभाल नहीं पाता और अपने स्थापित होने के लिए मूल्यों से समझौतों को विवश हो जाता है। हमारे राजनेता भी इसी के शिकार हैं। इस व्यवस्था में जैसे चुनाव हो रहे हैं, जिस तरह राजनीति निरंतर महंगी होती जा रही है-उसमें क्या बिना काले घन, धन पशुओं और बाहुबलियों की मदद के बिना सफलता मिल सकती है? राजनीतिक दलों का वैचारिक आधार दरक गया है। वे कंपनियों में बदल रही हैं जहां संसदीय दलों का व्यवहार बोर्ड रूम सरीखा ही है। ऐसे में राजनीतिक क्षेत्र में नैतिक मूल्यों के साथ आ रही नई पीढ़ी भी समझौतों को विवश है, क्योंकि व्यवस्था उसे ऐसा बना देती है। राजनीति अगर समर्पण और समझौतों से प्रारंभ होगी तो वह जनता की मुक्ति में सहायक कैसे बन सकती है। आज के समय में महात्मा गांधी, पं.दीनदयाल उपाध्याय, राममनोहर लोहिया, जयप्रकाश नारायण, आचार्य नरेंद्र देव, पुरूषोत्तम दास टंडन की राजनीतिक धारा सूख सी गयी लगती है। चुनावी सफलताएं ही मूल्यांकन का आधार हैं। नैतिकता का मापदंड छीजता ही जा रहा है। राजनीति कभी इतनी बेबस नहीं थी। सत्ता और उसके समीकरण समझने में अब मुश्किलें आती हैं। सत्ता में होने के मूल्य और विपक्ष में होने के मूल्य अलग-अलग दिखते हैं। शार्टकट से जल्दी ज्यादा हासिल करने की भूख, पैसे और ताकत की प्रकट पिपासा से सारे वातावरण में एक अवसाद दिखने लगा है। लोग उम्मीदें लगाते हैं और छले जाते हैं। यह छल देश की जनता से ही नहीं, देश से भी विश्वासधात सरीखा है। एक लोकतंत्र में अगर लोकलाज भी नहीं होगी तो लोकराज कैसे चलेगा? सत्ता बेपरवाह हो सकती है किंतु जनता के सपनों को कुचल को कोई भी राजनीति अंजाम को प्राप्त नहीं कर सकती।
   आज की राजनीतिक और राजनीतिक दल लोगों को निराश कर रहे हैं। उनकी आपसी जंग से लोग तंग हैं। लोग चाहते हैं कि राष्ट्रीय मुद्दों पर, सार्वजनिक हित के सवालों पर, राष्ट्रहित के सवालों पर तो राजनीति एक हो। क्या राजनीतिक दलों और जनता के हित अलग-अलग हैं? क्या राष्ट्रहित और राजनीतिक दलों को हित अलग-अलग हैं या होने चाहिए? लेकिन कई बार लगता है कि दोनों की राह अलग-अलग है। राजनीति हिंदुस्तान को समझने में विफल है। हिंदुस्तान का मन उसे समझना होगा। लोगों के सपने, उनकी आकांक्षाएं उन्हें समझनी होगी। यहां के किसान, युवा, महिलाएं, बच्चे और समाज के हर वर्ग के लोग उम्मीदों से अपनी सरकारों और प्रशासन की ओर देखते हैं, लेकिन ये सारा का सारा तंत्र कुछ लोगों की मिजाजपुर्सी में व्यस्त दिखता है। अपने जीवन के संघर्षों में फंसा भारतीय मन ऐसे में टूटता है। उसके टूटते हुए भरोसे को जोडऩा और बचाकर रखना सबसे जरूरी है। राजनीति और राजनीतिक दलों को जनता के मनोभावों को समझकर ठोस कदम उठाने होगें। राष्ट्रीय विषयों पर एकजुट होकर न्यायपूर्ण, ईमानदार और शुचितापूर्ण सार्वजनिक जीवन की स्थापना हमारा लक्ष्य होना ही चाहिए। अँधेरा जितना भी घना हो उजाले की ओर बढ़ने की लालसा उतनी ही तेज होती है। हम इस सत्य को स्वीकार कर आगे बढें और भारतीयता की स्थापना करें। यही भारतीय जीवन मूल्य हमें सब संकटों से निजात तो दिलाएंगें ही साथ ही पूरी दुनिया को एक उदाहरण भी प्रस्तुत कर सकेगें।
(लेखक मीडिया विमर्श के कार्यकारी संपादक हैं)

भाषा की भी है एक राजनीति




-संजय द्विवेदी

  अब जबकि भोपाल में विश्व हिंदी सम्मेलन सितंबर महीने में होने जा रहा तो एक बार यह विचार जरूर होना चाहिए कि आखिर हिंदी के विकास की समस्याएं क्या हैं? वे कौन से लोग और तत्व हैं जो हिंदी की विकास बाधा हैं? सही मायनों में हिंदी के मान-अपमान का संकट राजनीतिक ज्यादा है। हम पिछले सात दशकों में न तो हिंदी समाज बना सके न ही अपनी भाषा, माटी और संस्कृति को प्रेम करने वाला भाव लोगों के मन में जगा सके हैं। गुलामी में मिले, अंग्रेजियत में लिपटे मूल्य आज भी हमारे लिए आकर्षक हैं और आत्मतत्व की नासमझी हमें निरंतर अपनी ही जड़ों से दूर करती जा रही है। यूरोपियन विचारों से प्रभावित हमारा समूचा सार्वजनिक जीवन इसकी मिसाल है और हम इससे चिपके रहने की विवशता से भी घिरे हैं। इतना आत्मदैन्य युक्त समाज शायद दुनिया की किसी धरती पर निवास करता हो। इस अनिष्ट को जानने के बाद भी हम इस चक्र में बने रहना चाहते है।
    हिंदी आज मनोरंजन और वोट मांगने भर की भाषा बनकर रह गयी है तो इसके कारण तो हम लोग ही हैं। जिस तरह की फूहड़ कामेडी टीवी पर दृश्यमान होती है क्या यही हिंदी की शक्ति है? हिंदी मानस को भ्रष्ट करने के लिए टीवी और समूचे मीडिया क्षेत्र का योगदान कम नहीं है। आज हिंदी की पहचान उसकी अकादमिक उपलब्धियों के लिए कहां बन पा रही है? उच्च शिक्षा का पूरा क्रिया -व्यापार अंग्रेजी के सहारे ही पल और चल रहा है। प्राईमरी शिक्षा से तो हिंदी को प्रयासपूर्वक निर्वासन दे ही दिया गया है। आज हिंदी सिर्फ मजबूर और गरीब समाज की भाषा बनकर रह गयी है। हिंदी का राजनीतिक धेरा और प्रभाव तो बना है, किंतु वह चुनावी जीतने तक ही है। हिंदी क्षेत्र में अंग्रेजी स्कूल जिस तेजी से खुल रहे हैं और इंग्लिश स्पीकिंग सिखाने के कोचिंग जिस तरह पनपे हैं वह हमारे आत्मदैन्य का ही प्रकटीकरण हैं। तमाम वैज्ञानिक शोध यह बताते हैं मातृभाषा में शिक्षा ही उपयोगी है, पर पूरी स्कूली शिक्षा को अंग्रेजी पर आधारित बनाकर हम बच्चों की मौलिक चेतना को नष्ट करने पर आमादा हैं।
   हिंदी श्रेष्टतम भाषा है, हमें श्रेष्ठतम को ही स्वीकार करना चाहिए। लेकिन हम हमारी सोच, रणनीति और टेक्नालाजी में पिछड़ेपन के चलते मार खा रहे हैं। ऐसे में अपनी कमजोरियों को पहचानना और शक्ति का सही आकलन बहुत जरूरी है। आज भारत में निश्चय ही संपर्क भाषा के रूप में हिंदी एक स्वीकार्य भाषा बन चुकी है किंतु राजनीतिक-प्रशासनिक स्तर पर उसकी उपेक्षा का दौर जारी है। बाजार भाषा के अनुसार बदल रहा है। एक बड़ी भाषा होने के नाते अगर हम इसकी राजनीतिक शक्ति को एकजुट करें, तो यह महत्वपूर्ण हो सकता है। बाजार को भी हमारे अनुसार बदलना और ढलना होगा। हिंदी का शक्ति को बाजार और मनोरंजन की दुनिया में काम करने वाली शक्तियों ने पहचाना है। आज हिंदी भारत में बाजार और मनोरंजन की सबसे बड़ी भाषा है। किंतु हमारे राजनीतिक और प्रशासनिक समाज पर छाई उपनिवेशवादी छाया और अंग्रेजियत ने हमें कहीं का नहीं छोड़ा है। देश का सारा राजनीतिक-प्रशासनिक और न्यायिक विमर्श एक विदेशी भाषा का मोहताज है। हमारी बड़ी अदालतें भी बेचारे आम हिंदुस्तानी को न्याय अंग्रेजी में उपलब्ध कराती हैं। इस समूचे तंत्र के खिलाफ खड़े होने और बोलने का साहस हमारी राजनीति में नहीं है। आजादी के इन वर्षों में हर रंग और हर झंडे ने इस देश पर राज कर लिया है, किंतु हिंदी वहीं की वहीं है। हिंदी के लिए जीने-मरने की कसमें खाने के बाद सारा कुछ वहीं ठहर जाता है। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी अगर आजादी के बाद कहते हैं कि लोगों से कह दो गांधी अंग्रेजी भूल गया है तो इसके बहुत साहसिक अर्थ और संकल्प हैं। इस संकल्प से हमारी राजनीति अपने को जोड़ने में विफल पाती है।
   भाषा के सवाल पर राजनीतिक संकल्प के अभाव ने हिंदी सहित सभी भारतीय भाषाओं को पग-पग पर अपमानित किया है। हिंदी और भारतीय भाषाओं के सम्मान की जगह अंग्रेजी ने ले ली है, जो इस देश की भाषा नहीं है। अंग्रेजी उपनिवेशवाद के खिलाफ हमारी लड़ाई क्या सिर्फ शासक बदलने की थी? जाहिर तौर पर नहीं, यह लड़ाई देश और उसके लोगों को न्याय दिलाने की जंग थी। स्वराज लाने की जंग थी। यह देश अपनी भाषाओं मे बोले, सोचे, गाए, विचार करे और जंग लड़े, यही सपना था। इसलिए गुजरात के गांधी से लेकर दक्षिण के राजगोपालाचारी हिंदी के साथ दिखे। किंतु आजादी पाते ही ऐसा क्या हुआ कि हमारी भाषाएं वनवास भेज दी गयीं और अंग्रेजी फिर से रानी बन गयी। क्या हमारी भाषा में सामर्थ्य नहीं थी? क्या हमारी भारतीय भाषाएं ज्ञान-विज्ञान के विविध अनुशासनों को व्यक्त करने में समर्थ नहीं हैं? हमारे पास तमिल जैसी पुरानी भाषा है, हिंदी जैसी व्यापक भाषा है तो बांग्ला और मराठी जैसी समृद्ध भाषाओं का संसार है। लेकिन शायद आत्मगौरव न होने के कारण हम अपनी शक्ति को कम करके आंकते हैं। अपनी भाषा, अपनी संस्कृति, अपनी जीवनशैली और मूल्यों को दीनता से देखना और उसके लेकर न गौरवबोध, न सम्मानबोध। अपनी माटी की चीजें हमें कमतर दिखती हैं। भाषा भी उसी का शिकार है। ऐसे में जब कोई भी समाज आत्मदैन्य का शिकार होता है तो वह एक दयनीय समाज बनता है। वह समाज अपनी छाया से डरता है। उसका आत्मविश्वास कम होता जाता है और वह अपनी सफलताओं को दूसरों की स्वीकृति से स्वीकार कर पाता है। यह भारतबोध बढ़ाने और बताने की जरूरत है। भारतबोध और भारतगौरव न होगा तो हमें हमारी भाषा और भूमि दोनों से दूर जाना होगा। हम जमीन पर होकर भी इस माटी के नहीं होगें।
  दुनिया की तमाम संस्कृतियां अपनी जड़ों को तलाश कर उनके पास लौट रही हैं। तमाम समाज अपने होने और महत्वपूर्ण होने के लिए नया शोध करते हुए, अपनी संस्कृति का पुर्नपाठ कर रहे हैं। एक बार भारत का भी भारत से परिचय कराने की जरूरत है। उसे उसके तत्व और सत्व से परिचित कराने की जरूरत है। यही भारत परिचय हमें भाषा की राजनीति से बचाएगा, हमारी पहचान की अनिवार्यता को भी साबित करेगा।
(लेखक माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में जनसंचार विभाग के अध्यक्ष हैं)
















शनिवार, 11 जुलाई 2015

भारत-पाक रिश्तेः कब पिधलेगी बर्फ



-संजय द्विवेदी
 नरेंद्र मोदी की पाकिस्तानी प्रधानमंत्री से मुलाकात और उनका पाकिस्तान जाने का फैसला साधारण नहीं है। आखिर एक पड़ोसी से आप कब तक मुंह फेरे रह सकते हैं? बार-बार छले जाने के बावजूद भारत के पास विकल्प सीमित हैं, इसलिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की इस साहसिक पहल की आलोचना बेमतलब है। पूर्व प्रधानमंत्री अटलजी स्वयं कहा करते थे हम अपने पड़ोसी नहीं बदल सकते। यानि संवाद ही एक रास्ता है, क्योंकि रास्ता बातचीत से ही निकलेगा। पाकिस्तान और भारत के बीच अविश्वास के लंबे घने अंघेरों के बावजूद अगर शांति एक बहुत दूर लगती हुई संभावना भी है, तो भी हमें उसी ओर चलना है। सीमा पर अपने सम्मान के लिए डटे रहना, हमलों का पुरजोर जवाब देना किंतु बातचीत बंद न करना, भारत के पास यही संभव और सम्मानजनक विकल्प हैं।
  पाकिस्तान की राजनीति का मिजाज अलग है। सेना की मुख्य भूमिका ने वहां की राजनीति को बंधक बना रखा है। आवाम का मिजाज भी बंटा हुआ है। किंतु एक बड़ी संख्या ऐसी भी है जो भारत से शांतिपूर्ण रिश्ते चाहती है। गर्म बातों का बाजार ज्यादा जल्दी बनता है और वह बिकता भी है। मीडिया, राजनीति व समाज में ऐसी ही आवाजें ज्यादा दिखती और सुनी जाती हैं। अमन, शांति और बेहतर भविष्य की ओर देखने वाली आवाजें अक्सर अनसुनी कर दी जाती हैं। किंतु पाकिस्तान को भी पता है कि आतंकवाद को पालने-पोसने का अंजाम कैसे अपने ही मासूम बच्चों के जनाजे में बदल जाता है। अपने मासूमों का जनाजा ढोता पाकिस्तान जानता है कि शांति ही एक रास्ता है, किंतु उसकी राजनीति और गर्म मिजाज धर्मांधता ने उसके पांव बांध रखे हैं। हिंदुस्तान के प्रति धृणा और भारत भय वहां की राजनीति का स्थायी भाव है। इसका वहां एक बड़ा बाजार है। ऐसे में भारत जैसा देश जो निरंतर अपने पड़ोसियों से बेहतर रिश्तों का तलबगार है, पाकिस्तान को उसके हालात पर नहीं छोड़ सकता। रिश्तों में बर्फ जमती रही है तो नेतृत्व परिवर्तन के साथ पिघलती भी रही है। अपने परमाणु बम पर पाकिस्तान को बहुत नाज है। कुछ बहकी आवाजें अपना गम गलत को उसे भारत के विरूद्ध चलाने की बातें भी करती हैं। किंतु हमें पता है कि परमाणु युद्ध के अंजाम क्या हैं। कोई भी मुल्क खुद को नक्शे से मिटाने की सोच नहीं सकता। कश्मीर में हमारे कुछ भ्रमित नौजवानों को इस्तेमाल एक छद्य युद्ध लड़ना और आमने-सामने की लड़ाई में बहुत अंतर है। पाकिस्तान ने इसे भोगा है, सीखा भले कुछ न हो।
  आज की बदलती दुनिया में जब आतंकवाद के खिलाफ एक संगठित और बहुआयामी लड़ाई की जरूरत है तो पाकिस्तान आज भी अच्छे और बुरे तालिबान के अंतर को समझने में लगा है। नरेंद्र मोदी के दिल्ली की सत्ता में आगमन से पाकिस्तान के चरमपंथियों को भी अपनी राजनीति को चमकाने का मौका मिला। जुबानी तीर चले। किंतु नरेंद्र मोदी ने संवाद को आगे बढ़ाने का फैसला कर यह बता दिया है कि वे अड़ियल नहीं है और सही फैसलों को करते हुए बातचीत को जारी रखना चाहते हैं। आप देखें तो वर्तमान के दोनों शासकों मोदी और शरीफ के बीच संवाद पहले दिन से कायम है। दोनों ने शिष्टाचार बनाए रखते हुए आपसी संवाद बनाए रखा। मोदी की शपथ में आकर शरीफ ने साहस का ही परिचय दिया था। अपनी आलोचनाओं की परवाह न करते हुए पाकिस्तानी प्रधानमंत्री ने दिल्ली आने का फैसला किया था। अपने देशों की राजनीतिक-कूटनीतिक प्रसंगों पर होने वाली बयानबाजी को छोड़ दें तो दोनों नेताओं ने संयम बनाए रखा है। मोदी के सत्ता में आने से भारत-पाक रिश्ते बिगड़ेगें, इस संभावना की भी हवा निकल गयी है। मोदी ने साफ कहा है कि वे इस मामले में अटलजी को लाइन को आगे बढ़ाएंगें। आखिर कश्मीर में जो हुआ वह मोदी के साहस से ही उपजा फैसला था। पीडीपी- भाजपा सरकार को संभव बनाने का चमत्कार आखिरकार मोदी का ही मूल विचार है। अब जबकि वे ईद मानने कश्मीर जा रहे हैं तो यह समझा जा सकता कि कश्मीर की मोदी के लिए क्या अहमियत है। एक भारतीय शासक होने के नाते पाकिस्तान की कश्मीर फांस को भी वे समझते हैं। बावजूद इसके इतना तो मानना ही पड़ेगा की भारत-पाक रिश्तों में सुधार के बिना, भारत एक महाशक्ति नहीं बन सकता। सैन्य संसाधनों पर हो रहे व्यय के अलावा हिंसा, आतंक और अशांति के कारण दोनों देश बहुत नुकसान उठा रहे हैं। ऐसा नहीं है कि हुक्मरानों को इस सच्चाई का पता नहीं है किंतु कुछ ऐसे प्रसंग हैं जिससे बात निकलती तो  है पर दूर तलक नहीं जाती। भारत के पूर्व प्रधानमंत्रियों ने अपने स्तर पर काफी प्रयास किए किंतु कहते हैं कि इतिहास की गलतियों का सदियां भुगतान करती हैं। भारत और पाकिस्तान एक ऐसे ही भंवरजाल में फंसे हैं।
  नरेंद्र मोदी ने विश्व राजनीति में भारत की उपस्थिति को स्थापित करते हुए अपने पड़ोसियों से भी रिश्ते सुधारने की पहल की है। वे जहां दुनिया जहान को नाप रहे हैं वहीं वे नेपाल, भूटान,वर्मा, बांग्लादेश, अफगानिस्तान को भी उतना ही सहयोग, समय और महत्व दे रहे हैं। वे सिर्फ महाशक्तियों को साधने में नहीं लगे हैं बल्कि हर क्षेत्रीय शक्ति का साथ ले रहे हैं। रूस से अलग हुए देशों की यात्रा इसका उदाहरण है। मोदी की पाकिस्तान यात्रा इस मायने में खास है। इससे यह मजाक भी खत्म होगा कि आखिर मोदी और शरीफ पाकिस्तान के बाहर ही क्यों मिलते हैं। राजनीतिशास्त्री श्री वेदप्रताप वैदिक भी मानते हैं कि पाकिस्तान का भद्रलोक व्यक्ति के तौर पर चाहे मोदी को पसंद न करता हो लेकिन वह भारत के प्रधानमंत्री के रुप में मोदी का स्वागत करने के लिए आतुर है। पिछले साल मेरी पाकिस्तान-यात्रा के दौरान यह बात मुझे सभी महत्वपूर्ण सत्तारुढ़ और विरोधी नेताओं ने कही थी। मोदी ने अपनी पाकिस्तान-यात्रा की बिसात अच्छी तरह से बिछा ली है। शायद यह यात्रा युगांतरकारी सिद्ध हो।

   यह उम्मीद लगाने में हर्ज नहीं है कि नरेंद्र मोदी कश्मीर संकट को हल करने को पहली प्राथमिकता देगें। उनके मन में धारा-370 की टीस है किंतु वे इस लेकर हड़बड़ी में नहीं हैं। देश को लेकर मोदी में मन में अनेक सपने हैं जिनमें शांतिपूर्ण कश्मीर भी उनका एक बड़ा सपना है। कश्मीर में हुए पीडीपी-भाजपा समझौते को किसी भी नजर से देखें, किंतु भाजपा उसकी राजनीतिक धारा को समझने वाला हर व्यक्ति मानता है कि कश्मीर का भाजपा और संघ परिवार के लिए क्या महत्व है। भाजपा चाहकर भी अपने पूर्वापर से पल्ला नहीं झाड़ सकती। नरेंद्र मोदी अगर पाकिस्तान की राजनीतिक सोच में कुछ परिवर्तन लाकर भारत के प्रति थोड़ा भी सद्भभाव भर पाते हैं तो यह एक ऐतिहासिक घटना होगी। यह काम किसी भाजपाई प्रधानमंत्री के लिए उतना ही आसान है जबकि किसी अन्य के लिए बहुत मुश्किल। देखना है कि इतिहास की इस घड़ी में नरेंद्र मोदी अपने सपनों को कैसे सच कर पाते हैं।

शुक्रवार, 3 जुलाई 2015

रायपुर में आयोजित कार्यक्रम की छवियां और समाचार पत्रों में प्रकाशित क्लिीपिंग्स










सवालों में सरकार

-संजय द्विवेदी
  नरेंद्र मोदी की सरकार के लिए सुषमा स्वराज, वसुंधरा राजे सिंधिया, स्मृति ईरानी और पंकजा मुंडे के मामलों ने नया संकट खड़ा कर दिया है। विपक्ष को बैठे बिठाए एक मुद्दा हाथ लग गया है, तो लंदन में बैठे ललित मोदी रोज एक नया ट्विट करके मीडिया और विरोधियों को मसाला उपलब्ध करा ही देते हैं। विपक्ष ऐसी स्थितियों में अवसर को छोड़ना नहीं चाहता और उसकी मांग है कि नरेंद्र मोदी इस विषय पर कुछ तो बोलें। राजनीति में मौन कई बार रणनीति होता है और नरसिंह राव, मनमोहन सिंह से लेकर नरेंद्र मोदी सभी इसे साधते रहे हैं। ऐसे में मीडिया के लिए ये खबरें रोजाना का खाद्य बन गयी हैं। एक भगोड़े का ट्विट और उस पर प्रतिक्रियाएं जुटाकर मीडिया ने भी अपने नित्य के हल्लाबोल को निरंतर कर लिया है।
   राजनीति में ऐसे प्रसंग चौंकाने वाले होते हैं और छवि को दागदार भी करते हैं। किंतु जैसी राजनीति बन गयी है उसमें यह उम्मीद कर पाना कठिन है कि पूंजीपतियों और राजनेताओं का रिश्ता न बने। राजे और सुषमा की कहानी दरअसल रिश्तों की भी कहानी है। संपर्क हुआ, रिश्ते बने और आत्मीय व व्यावासायिक रिश्ते भी बन गए। प्रथम दृष्ट्या तो ये कहानियां बहुत सहज हैं और इसे सीधे तौर पर भ्रष्टाचार कहना भी कठिन है। किंतु ललित मोदी ने अपनी जैसा छवि बनायी है, उसके बाद उनसे रिश्ते किसी को भी संकट में ही डालेगें। राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी और समाजवादी पार्टी जैसी पार्टियां कम हैं जो रिश्तों को छिपाती नहीं बल्कि अपने साथियों का खुलकर साथ देती हैं। आप देखें तो शरद पवार और उनके दल की सहानुभूति ललित मोदी से साफ दिखती है। अपने पुराने समाजवादी साथी स्वराज कौशल के पक्ष में समाजवादी पार्टी के नेता रामगोपाल यादव ने खबर आते ही सुषमा स्वराज को क्लीन चिट दे दी। किंतु भाजपा, कांग्रेस जैसे दलों का संकट यह है कि वे रिश्ते रखते हुए भी कूबूल करने की जहमत नहीं उठा सकते। क्या ही अच्छा होता कि प्रधानमंत्री को भाजपा के ये नेता इस्तीफे के लिए आफर करते और प्रधानमंत्री उसे अस्वीकार कर देते। किंतु भाजपा का नेतृत्व किंकर्तव्यविमूढ़ता का शिकार है। दिखावटी नैतिकता की बंदिशें उन्हें वास्तविकता के साथ खड़े होने से रोकती हैं।
   सुषमा स्वराज के प्रकरण में ऐसा कुछ नहीं था कि जिसके कारण भाजपा को किंतु- परंतु करने की जरूरत थी। बावजूद उसके प्रवक्ता लड़खड़ाते नजर आए। नीतियों को लेकर अस्पष्टता ऐसे ही दृश्य रचती है। नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार का मीडिया प्रबंधन पहले दिन से लड़खड़ाया हुआ है। बिना किसी बड़े आरोप के साल भर में सरकार की छवि मीडिया द्वारा कैसी प्रक्षेपित की जा रही है, उसे देखना रोचक है। मंत्रिमंडल के सहयोगियों की मेहनत और उनके काम पर कुछ अनावश्यक आरोप भारी पड़ते हैं। पहले मीडिया से संवाद नियंत्रित करना और साल के अंत में सबको संवाद को लिए लगा देना, एक नासमझी भरी रणनीति है। नियंत्रित संवाद वहीं सफल हो सकता है जो दल बहुजन समाज पार्टी जैसे एकल नेता के दल हों। सुषमा स्वराज प्रकरण पर बिहार के दो सांसदों (कीर्ति आजाद और आर के सिंह) की बयानबाजी की जरूरत क्या थी? एक तरफ मंत्रियों पर नियंत्रण और दूसरी ओर सांसदों की ओर से किया जा रहा ज्ञान दान भाजपा की बदहवासी को ही प्रकट करता है।
        संकट को समझना और उस पर उपयुक्त प्रतिक्रिया देना अभी भाजपा को सीखना है। भाजपा के प्रवक्ताओं को  टीवी पर हकलाते देखना भी रोचक है। ये ऐसे लोग हैं जो बिना पाप किए अपराधबोध से ग्रस्त हैं। सक्रिय प्रधानमंत्री, सक्रिय सरकार और व्यापक जनसमर्थन भी मीडिया और प्रतिपक्ष के साझा दुष्प्रचार पर भारी पड़ रहा है। मेरे जैसे व्यक्ति की यह मान्यता है कि नरेंद्र मोदी को दिल्ली में बैठे परंपरागत राजनेता, राजनीतिक परिवार, नौकरशाह, भारतद्वेषी बुद्धिजीवी और पत्रकार आज भी स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं। उन्हें देश की जनता ने प्रधानमंत्री बना दिया है पर ये भारतद्वेषी बुद्धिजीवी नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हैं। इसलिए उनकी सरकार का छिद्रान्वेषण पहले दिन से ही जारी है। जब पूरी दुनिया योग कर रही होगी, तो वे योग के खिलाफ भारतीय टीवी चैनलों पर ज्ञान देते हैं। मोदी विदेश यात्रा पर होते हैं तो वे उनकी यात्राओं की आलोचना करने में व्यस्त होते हैं। यानि नरेंद्र मोदी का हर काम उनकी स्वाभाविक आलोचना के केंद्र में होता है। शायद यह पहली बार है कि कोई सरकार और उसका नेता जनसमर्थन से तो संयुक्त है किंतु दिल्लीपतियों के निशाने पर है। इस पूरे समूह के लिए नरेंद्र मोदी का दिल्ली प्रवेश एक ऐसी घटना है जिसे वे स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं। इसलिए भाजपा और उसके नेताओं पर लगने वाले आरोपों को अपराध बनाकर प्रस्तुत किया जा रहा है। एक सक्षम विदेश मंत्री के नाते सुषमा स्वराज के कामों, उनके द्वारा एक साल में 37 देशों की यात्राओं का जिक्र नहीं होता। विदेशों में भारतवंशियों जब भी कोई संकट आया,वे और उनका विभाग सक्रिय दिखे। किंतु ललित मोदी से उनके पति के रिश्ते चर्चा के केंद्र में हैं।

     भारतीय राजनीति और मीडिया के लिए यह गहरे संकट का क्षण है, जहां आग्रह, दुराग्रह में बदलता दिखता है। नेताओं के प्रतिमा भंजन की इस राजनीति का मुकाबला भाजपा और उसकी सरकार को करना है। उन्हें यह मान लेना होगा कि यह यूपीए की सरकार नहीं है, जिसकी ओर बहुत से बुद्धिजीवी और पत्रकार इसलिए आंखें मूंद कर बैठे थे कि उसने भाजपा को रोक रखा है। यूपीए-तीन की प्रतीक्षा में जो समूह दिल्ली में बैठा था, नरेंद्र मोदी का आगमन उनके लिए सबसे बड़ी चुनौती है। इसलिए नरेंद्र मोदी और केंद्र सरकार की छवि बिगाड़ना एक सुनियोजित यत्न है और इसे समझना भाजपा की जिम्मेदारी है। भाजपा नेताओं के लिए सत्ता में होने से ज्यादा जरूरी अपनी छवि, आचरण और देहभाषा का संयमित होना है। अपने असफल मीडिया प्रबंधन के नाते भाजपा ने साल भर में बहुत कुछ खोया है। भाजपा को अपनी सरकार के प्रति लोगों का भरोसा बनाए रखने के लिए कुछ टोटके करने होगें। करने के साथ कहने का भी साहस जुटाना होगा। जहां आप गलत नहीं हैं, वहां मौन रणनीति नहीं हो सकता। प्रधानमंत्री को अपनी टीम में वही भरोसा भरना होगा जिससे वे खुद लबरेज हैं। उनका मौन सरकार पर भारी पड़ रहा है। दिग्गजों की छवियां खराब हो रही हैं। ऐसे में भाजपा को ज्यादा भरोसा और ज्यादा आत्मविश्वास के साथ सामने आने की जरूरत है।

बुधवार, 24 जून 2015

मोदी मुहिम से पड़ोसियों के दिलों में उतरता भारत

-संजय द्विवेदी
    प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सफल बंगलादेश यात्रा ने यह साबित कर दिया है कि अगर नेतृत्व आत्मविश्वास से भरा हो तो अपार सफलताएं हासिल की जा सकती हैं। बंगलादेश से लेकर नेपाल, म्यांमार, श्रीलंका तक अब नरेंद्र मोदी की यशकथा कही और सुनी जा रही है। ढाका के विश्वविद्यालय में उनका संबोधन वास्तव में उन्हें एक ऐसी ऊंचाई और गरिमा प्रदान करता है, जिसके वे हकदार हैं। उनके संबोधन ने भारत और बंगलादेश रिश्तों में एक नए युग की शुरुआत की है। एक राष्ट्रनायक सरीखी छवि और वाणी उनके पूरे व्यक्तित्व से झलकती है।
   समूचा भारतीय उपमहाद्वीप एक साझी विरासत और रिश्तों का उत्तराधिकारी है। बावजूद इसके भारत के रिश्ते अपने पड़ोसियों से बहुत सहज नहीं रहे। इस दर्द को भारत ने हमेशा महसूस किया है, किंतु साझा नहीं किया। पाकिस्तान और चीन ही इस इलाके में हमारे समूचे विदेश विमर्श का हिस्सा बने रहे। अपने अन्य पड़ोसियों से हमारे रिश्ते सहज ही रहे किंतु उन्हें अच्छा नहीं कहा जा सकता। हम पाकिस्तान और चीन से रिश्ते सुलझाने में ही लगे रहे, बाकी कहीं झांककर नहीं देखा। ऐसे में यह बात महत्व की है कि हमें लंबे अरसे बाद एक ऐसा नेता मिला है जो संवाद में रूचि रखता है और अपने पड़ोसियों से सहज रिश्ते बनाना चाहता है। नेपाल के भूकंप में मानवीय सहायता उपलब्ध कराकर जिस तरह से उन्होंने सारे विषय पर अपेक्षित संवेदना का संचार किया वह उनकी मानवीय दृष्टि का परिचायक है। इस काम से जहां नेपाल-भारत के रिश्ते और सहज हुए वहीं नेपाल में सक्रिय भारतविरोधी शक्तियों को भी सीख मिली। नरेंद्र मोदी ने सत्ता संभालते ही अपने शपथ ग्रहण समारोह में दक्षेस देशों के प्रमुखों को ससम्मान बुलाकर अपने इरादे जाहिर कर दिए थे। वे पड़ोसियों से बेहतर रिश्ते बनाना चाहते हैं। नरेंद्र मोदी की यह रणनीति अब अमल में दिखने लगी है। वे निरंतर प्रवास और संपर्क से इसे साध रहे हैं। भारत का पाकिस्तान के साथ रिश्ता किसी से छिपा नहीं है। भारतीय मीडिया और पाकिस्तानी मीडिया में भी यह रोजाना की खास खबर है। नरेंद्र मोदी इतिहास की इस घड़ी में रुकना नहीं चाहते, वे जहां जैसे रिश्ते बनाए और बचाए जा सकते हैं, उसके प्रयासों में लगे हैं। श्रीमती सुषमा स्वराज जैसी अनुभवी और दक्ष विदेशमंत्री का लाभ भी इस पूरी मुहिम को मिल रहा है। भारतवंशियों की शक्ति को एकत्र कर दुनिया के हर देश में नरेंद्र मोदी एक अलग वातावरण बनाने का काम कर रहे हैं। अमरीका से लेकर आस्ट्रेलिया तक उनका यह रूप लोगों ने देखा है। यह वैश्विक स्तर पर भारत के उठ खड़े होने का समय भी है। अपने पहले भाषण में ही मोदी ने साफ किया कि वे न तो आंख झुकाकर बात करना चाहते हैं न ही चाहते हैं कि कोई देश सिर झुकाकर बात करे। एक-दूसरे की अस्मिता का सम्मान करते हुए आगे बढ़ना प्रारंभ से भारत की नीति रही है। नरेंद्र मोदी इसे साकार करते हुए दिखते हैं। नेपाल,म्यांमार, बंगलादेश, श्रीलंका, मालदीव जैसे अपेक्षाकृत आकार में छोटे देश हों या चीन जैसे विशाल देश मोदी ने सबको साथ लेने का प्रयास किया है। वे चाहते हैं कि इस उपमहाद्वीप में शांति का वातावरण बने और आतंकवाद समाप्त हो। सबसे बड़ी बात वे इन देशों में आर्थिक प्रगति को होते हुए देखना चाहते हैं। एक-दूसरे के सहयोग से बड़ी आर्थिक बनकर अपने देश का गौरव बनाना उनका उद्देश्य दिखता है।
 मोदी एक अच्छे वक्ता और आक्रामक शैली में संवाद करने वाले नेता हैं। उनकी देहभाषा में गर्मजोशी और ठहराव है। श्रीमती इंदिरा गांधी के बाद शायद वे सबसे प्रभावी राजनेता हैं जिसकी देश की जनता और विदेश के जनमानस पर पकड़ बनती हुई दिख रही है। उन्हें इवेंट मैनेजर कहकर उनकी ताकत को कम करने, कम आंकने के सुनियोजित यत्न भी चल रहे हैं किंतु दुनिया भर में फैले भारतवंशियों को एकजुट कर एक सकारात्मक दबाव समूह खड़ा करना उनकी एक सोची समझी नीति है। वे इस पर अरसे से काम भी कर रहे हैं। गुजरात के मुख्यमंत्री रहते हुए भी वे वैश्विक संवाद करते रहे हैं। उद्योगों और निवेश के लिए अनुकूल वातावरण बनाना ऐसे ही संवादों से संभव है। वे भारत को एक ब्रांड में तब्दील करने की कोशिशों में लगे हैं। उनको देखकर और सुनकर ऐसा लगता है कि वे इसे संभव बनाने में सफल रहेंगे।

  राजनीति की पिच पर वे एक ऐसे राजनेता हैं जो हर सभा में शतक बनाते ही हैं। लोगों के दिलों को छूती हुयी उनकी आवाज उन्हें विश्वसनीय बनाती है। रिश्तों में वे दिलदार दिखते हैं। पड़ोसियों के संकट में खड़े होना या उन्हें उनके विकास में मदद करना दोनों मोर्चों पर वे अपनी दरियादिली दिखा चुके हैं। उनके इन तेवरों से पाकिस्तान जैसे पड़ोसियों की प्रतिक्रियाएं समझी जा सकती हैं। म्यांमार में जंगलों में जिस तरह भारतीय सेना ने आपरेशन किया और विद्रोही आतंकियों को मार गिराया, वह एक ऐतिहासिक सूचना है। इस घटना पर पाकिस्तान की असेंबली में प्रस्ताव पास करने से लेकर वहां के नेताओं की बौखलाहट बताती है कि इस क्षेत्र में भारत की बढ़ती स्वीकृति से वे खासे परेशान हैं। यह बात साबित करती है कि किस तरह पाकिस्तान आतंकवादियों की पनाहगाह बना हुआ है। वरना एक दूसरे देश के साथ अच्छे रिश्तों के नाते हुए भारतीय सेना के आपरेशन पर इतना हायतौबा मचाने की जरूरत क्या है। पाकिस्तान को यह समझना होगा कि भारत का राजनैतिक नेतृत्व अधिनायकवादी नहीं है। वह अपने पड़ोसियों को आदर देने वाला और उनकी स्वतंत्रता का सम्मान करने वाला देश है। भारत की विदेशनीति भी इन्हीं आदर्शों पर आधारित है। लाइन आफ कंट्रोल का आए दिन उल्लंघन करने वाले पाकिस्तान के प्रति भारत की सदाशयता का उसने सदा फायदा उठाया है। भारत में आतंकवाद को पोषित करना और कश्मीर में रोजाना संकट खड़े करना पाकिस्तान की नीति रही है। कश्मीर का एक बड़ा हिस्सा आज भी पाकिस्तान के कब्जे में है। बावजूद भारत उसके साथ शांति का ही राग गाता रहा है। उसकी तमाम नादानियों और साजिशों के बाद भी भारत ने हमेशा दोस्ती का हाथ बढ़ाया। पूर्व प्रधानमंत्री अटलजी हमेशा ये कहते ही थे कि हम अपने पड़ोसी नहीं बदल सकते। एक सुखी, समृद्ध पाकिस्तान भारत के लिए भी अच्छा होगा। किंतु पाकिस्तान की सूइयां अटकी हुयी हैं। कश्मीर उसकी दुखती रग बन गया है और भारतविरोध वहां की राजनीति की प्राणवायु। कश्मीर के नाम पर की जा रही पाकिस्तानी हरकतें इस देश को हमेशा दुखी करती हैं। अब जबकि एक सरकार कश्मीर में बनी है जिसमें भाजपा भी हिस्सेदार है तो पाकपरस्त ताकतें खुद को असहाय पा रही हैं। मोदी ने इसे समझते हुए आगे बढ़ने का फैसला किया है। पाक पर अपनी ज्यादा ताकत लगाने के बजाए वे पूरी दुनिया को साथ लाना और सबके साथ बढ़ना चाहते हैं। नरेंद्र मोदी की यह नीति भारत के भविष्य को भी रेखांकित करती है। वे विश्वमंच पर भारत को स्थापित करने के प्रयत्नों में लगे हैं ऐसे में जरूरी है उनकी इस यात्रा में उनके पड़ोसी भी साथ हों। पाकिस्तान को छोड़कर उन्होंने लगभग सभी पड़ोसियों से रिश्ते सहज किए हैं। इसका लाभ भारत को आर्थिक रूप से भले न हो किंतु मानवीय दृष्टि और वैश्विक दृष्टि से जरूर मिलेगा।

गुरुवार, 4 जून 2015

भाजपा के लिए कठिन परीक्षा हैं उत्तर प्रदेश और बिहार के चुनाव

-संजय द्विवेदी

   लोकसभा चुनावों में उत्तर प्रदेश और बिहार की राजनीति का सिरमौर बनकर भारतीय जनता पार्टी ने केंद्र की सत्ता पर तो काबिज हो गयी है पर अब इन दोनों राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनावों में उसकी साख दांव पर है। लोकसभा चुनावों के परिणामों के आधार पर तो दोनों राज्यों में उसकी सरकार बननी तय है किंतु दिल्ली के विधानसभा चुनावों ने यह साबित किया कि कहानियां दोहराई नहीं जाती हैं।

   उत्तर प्रदेश और बिहार पिछले तीन दशकों से सामाजिक न्याय की ताकतों की लीलाभूमि बने हुए हैं और इन शक्तियों ने अपनी राजनीतिक ताकत का एहसास राष्ट्रीय राजनीतिक दलों को बार-बार कराया है। उप्र और बिहार में कांग्रेस किस हाल में है किसी से छिपा नहीं है तो भाजपा भी उप्र में लंबे समय से सत्ता से बाहर है। विधानसभा चुनावों का मैदान उप्र में सपा-बसपा के बीच बंटा हुआ है। लोकसभा चुनावों का कोई असर मैदान में नहीं है यह उप्र में हुए विधानसभा उपचुनावों से साफ जाहिर है। इसी तरह बिहार में भाजपा एक बड़ी शक्ति है किंतु विधानसभा में यह शक्ति उसे एक मजबूत गठबंधन का हिस्सा होने के नाते हासिल हुयी थी। ऐसे में उत्तर भारत के ये दो राज्य मोदी लहर की असलियत भी सामने लाने वाले हैं। यह भी गजब है कि दोनों राज्यों में भाजपा के पास मुख्यमंत्री पद के लिए एक भी लोकप्रिय चेहरा नहीं है। यानि यह तय है कि ये चुनाव भी मोदी की आदमकद छाया में ही लड़े जाएंगें। जिस तरह स्मृति ईरानी को उप्र का मुख्यमंत्री प्रोजेक्ट कर चुनाव लड़ने की बात की जा रही है, वह प्रयोग दिल्ली चुनाव में किरण बेदी प्रयोग की तरह भारी पड़ सकता है। अमेठी के चुनाव समर में पराजित स्मृति ईरानी के साथ उप्र के कार्यकर्ता कोई रिश्ता जोड़ पाएंगें ऐसा संभव नहीं लगता। ऐसे में उप्र की डगर कठिन है और मोदी का नाम ही वहां एक सहारा रहेगा। अमित शाह की सारी रणनीतिक कुशलता के बावजूद चुनाव अंततः कार्यकर्ता लड़ता है और वही अपने वोटर को घर से निकाल कर मतदान केंद्र तक पहुंचाता है। बिहार में चुनाव पहले हैं इसलिए बिहार का प्रभाव उप्र के चुनावों पर भी पड़ना तय है। आप देखें तो बिहार में जनता परिवार की एकता पर ही भाजपा की रणनीति और नजरें टिकी हुयी हैं। दलित नेता जीतन राम मांझी से प्रधानमंत्री की मुलाकात साधारण घटना नहीं है। यानि प्रधानमंत्री भी इस चुनाव के मायने समझ रहे हैं और अपने तरीके से कदम उठा रहे हैं। जनता परिवार की एकता अगर टूटती है तो भाजपा को इस बहुकोणीय मुकाबले में ज्यादा लाभ मिल सकता है किंतु आज भी वहां का संगठन अपने दम पर पूर्ण बहुमत लाने के आत्मविश्वास से खाली है। दूसरी ओर भाजपा के दिग्गज नेताओं की आपसी स्पर्धा और अविश्वास भी एक बड़ी  चुनौती हैं। कभी स्टार प्रचारक रहे शत्रुध्न सिन्हा जैसे नेताओं की नाराजगी समय-समय पर मीडिया के माध्यम से मुखरित होती रहती है। ऐन चुनाव के वक्त ऐसी उलटबासियों को रोकना और नियंत्रित करना जरूरी है। बिहार की सामाजिक-राजनीतिक संरचना और वहां के समाज की राजनीतिक प्रतिक्रियाएं हमेशा ही राजनीतिक विज्ञानियों और समाज शास्त्रियों के चिंतन-मनन और अनुशीलन का विषय रही हैं। कोई एक सबसे बड़ा कारक इस राज्य की राजनीति को सर्वाधिक प्रभावित करता है तो वह आज भी जाति ही है। जाति के इस समीकरण को समझकर जो दल गठबंधन करते हैं और उपयुक्त उम्मीदवारों का चयन करते हैं वो मैदान मार ले जाते हैं। भाजपा ने पिछले लोकसभा चुनावों में रामविलास पासवान और उपेंद्र कुशवाहा जैसे स्थानीय क्षत्रपों से तालमेल कर एक सोशल इंजीनिरिंग की और उसे इसका लाभ भी मिला। आने वाले चुनावों में ये दो नेता अपने दल के साथ भाजपा के साथ हैं और उम्मीद है कि जीतनराम मांझी भी भाजपा के साथ आ जाएं। मोदी सरकार के साल भर के कामकाज और उसके प्रभावों का आकलन भी इस चुनावों में एक बड़ा कारक रहेगा। भूमि अधिग्रहण कानून पर बना वातावरण जिसे अभी भी भाजपा जनता के गले नहीं उतार पाई है चिंता का कारण बन सकता है। बिहार के लोग अपनी राजनीतिक समझ और पक्षधरता के लिए जाने जाते हैं। उनकी राजनीतिक समझ पूरे देश के सामने एक उदाहरण की तरह सामने आती रही है। क्रांतिकारी विचारों और आंदोलनों के बीज इस धरती से फूटते रहे हैं और पूरा देश यहां से आंदोलित होता रहा है। पटना का गांधी मैदान ऐसी तमाम रैलियों का गवाह है, जिनसे देश की राजनीति में परिवर्तन परिलक्षित हुए हैं। ऐसे में मोदी और उनकी टीम के लिए बिहार एक चुनौती की तरह है। यदि भाजपा बिहार के मैदान को फतह करती है तो उसे उप्र की जीत के लिए एक नया आत्मविश्वास मिलेगा, जो दिल्ली की पराजय से कहीं न कहीं कमजोर पड़ा है। नरेंद्र मोदी के सेनापति अमित शाह की कठिन परीक्षा इस राज्य में होनी है क्योंकि उनकी भी रणनीतिक कुशलता एक बार सवालों के दायरे में हैं। बिहार में भाजपा के पास प्रखर नेताओं की एक पूरी जमात है जिसमें सुशील कुमार मोदी, रविशंकर प्रसाद, नंदकिशोर यादव, गिरिराज सिंह, शत्रुध्न सिन्हा, सीपी ठाकुर, शाहनवाज हुसैन, राजीव प्रताप रूढ़ी आदि शामिल हैं। ये सारे नेता अगर एक होकर बिहार के मैदान में उतरते हैं तो एनडीए में शामिल रामविलास पासवान और उपेंद्र सिन्हा को मिलाकर भाजपा की ताकत बहुत बढ़ जाती है। दूसरी तरफ नीतीश कुमार अपने स्वयं के चेहरे के नाते एक लोकप्रिय छवि रखते हैं किंतु उनका संकट यह है उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से नाहक टकराव लेकर और मांझी प्रकरण में जल्दबाजी दिखाकर अपनी विश्वसनीयता को चोट ही पहुंचाई है। आज जनता परिवार के दल ही उनको नेता स्वीकारने के लिए तैयार नहीं है। बिहार के भीतर-बाहर भी उनकी छवि एक ऐसे नेता की बन रही है, जो अवसरवाद के साथ- साथ सत्ता के लिए समझौते कर सकता है। इससे निश्चय ही नीतीश की नैतिक आभा कम हुयी है। वहीं नरेंद्र मोदी ने लोकसभा चुनावों के दौरान स्वयं को एक पिछड़ा वर्ग से आने वाला प्रधानमंत्री प्रचारित कर बिहार के जनमानस में पैठ बनाई है। विकास के सवाल पर भाजपा के नेता यह प्रचारित करने में लगे हैं कि भाजपा जब तक जेडीयू सरकार में थी तभी तक यह विकास और सुशासन का मामला चला और अब क्योंकि भाजपा अलग है इसलिए नीतीश पर भरोसा करना कठिन है।यह कह पाना कठिन है कि भाजपा का यह विकास मंत्र कितना काम करेगा। बिहार की राजनीति को समझने वाले इस बात को समझते हैं कि इस प्रदेश के चुनाव साधारण नहीं है, यहां से हवा बिगड़ने और बनने का काम प्रारंभ होता है। नीतीश कुमार, लालू प्रसाद यादव का भविष्य जहां इस चुनाव से तय होगा, वहीं नरेंद्र मोदी और अमित शाह के लिए भी ये चुनाव भाजपा संगठन में उनकी उपस्थिति को तय करेंगें। दिल्ली प्रदेश के बाद मोदी के लिए यह दूसरी कठिन परीक्षा है। भाजपा को बिहार में मौजूदा विधायकों से अधिक लाने की चुनौती जहां मौजूद है,वहीं उप्र के नेता इस बात से आश्वस्त हो सकते हैं कि वहां तो मौजूदा विधायकों से ज्यादा विधायक निश्चित ही आएंगें। जानकारी के लिए दिल्ली और उप्र दो ऐसे राज्य हैं जहां भाजपा के लोकसभा सदस्यों की संख्या विधायकों से ज्यादा है। 

शनिवार, 30 मई 2015

आप क्यों चाहते हैं कि विरोधी भी करें मोदी-मोदी!

भाजपा सरकार को राजनीतिक विरोधियों की आलोचना से घबराने की जरूरत नहीं
-संजय द्विवेदी

   भारतीय जनता पार्टी और उसकी सरकार इन दिनों इस बात के लिए काफी दबाव में है कि उसके अच्छे कामों के बावजूद उसकी आलोचना या विरोध ज्यादा हो रहा है। भाजपा मंत्रियों और संगठन के नेताओं के इन दिनों काफी इंटरव्यू देखने को मिले जिनमें उन्हें लगता है कि मीडिया उनके प्रतिपक्ष की भूमिका में है। खुद सूचना एवं प्रसारण मंत्री अरूण जेटली ने कहा कि मीडिया एजेंडा सेट कर रहा है। इसी तरह पार्टी अध्यक्ष अमित शाह की नाराजगी भी मीडिया से नजर आती है। उनसे एक एंकर ने पूछा कि कभी ऐसा लगा कि कुछ गलत हो गया, तो वे बोले कि तभी ऐसा लगता है जब आप लोगों को नहीं समझा पाते। जाहिर तौर पर दिल्ली की नई सरकार मीडिया से कुछ ज्यादा उदारता की उम्मीद कर रही है। जबकि यह आशा सिरे से गलत है।
सारे सर्वेक्षण यह बता रहे हैं कि मोदी आज भी सबसे लोकप्रिय नेता हैं, उनकी लोकप्रियता के समकक्ष भी कोई नहीं है और जनता की उम्मीदें अभी भी उनसे टूटी नहीं है। समस्या यह है कि भाजपा नेता उन लोगों से अपने पक्ष में सकारात्मक संवाद की उम्मीद कर रहे हैं जो परंपरागत रूप से भाजपा और उसकी राजनीति के विरोधी हैं। वे मोदी विरोधी भी हैं, भाजपा और संघ के विरोधी भी हैं। वे आलोचक नहीं हैं, वे स्थितियों को तटस्थ व्याख्याकार नहीं हैं। उनका एक पक्ष है उससे वे कभी टस से मस नहीं हुए। ऐसे आग्रही विचारकों की निंदा या विरोध को भाजपा को बहुत गंभीरता से लेने की जरूरत नहीं हैं। आज के टीवी दर्शक और अखबारों के पाठक बहुत समझदार हैं। वे इन आलोचनाओं के मंतव्य भी समझते हैं। टीवी पर भी रोज जो ड्रामा रचा जाता है बहस के नाम पर वह भी दर्शकों के लिए एक लीला ही है। पार्टियों के प्रवक्ताओं को छोड़ दें तो शेष राजनीतिक विश्लेषक या बुद्धिजीवी जो टीवी पर बैठकर हिंदुस्तान का मन बताते हैं उनके चेहरे देखकर कोई भी टीवी दर्शक यह जान जाता है कि वे क्या कहेंगें। इसी तरह नाम पढकर पाठक उनके लेख का निष्कर्ष समझ जाता है। वे वही लोग हैं जो चुनाव के पूर्व यह मानने को तैयार नहीं थे कि मोदी की कोई लहर है और भाजपा कभी सत्ता में भी आ सकती है। वे देश की दुदर्शा के दौर में भी यूपीए-तीन का इंतजार कर रहे थे। भाजपा उनके तमाम विश्वेषणों और लेखमालाओं व किंतु-परंतु के बाद भी चुनाव में पूर्ण बहुमत हासिल कर लेती है। उसके बाद ये सारे लोग यह बताने में लग गए कि भाजपा को देश में सिर्फ 31 प्रतिशत वोट मिले हैं और मोदी को मिला समर्थन अधूरा है क्योंकि 69 प्रतिशत वोट उनके विरूद्ध गिरे हैं।
   भाजपा की दुविधा यह है कि वह इस कथित बुद्धिजीवी वर्ग से सहानुभूति पाना चाहती है। आखिर यह क्यों जरूरी है। जबकि सच तो यह है यह वर्ग आज भी नरेंद्र मोदी को दिल से प्रधानमंत्री स्वीकार करने को तैयार नहीं है। उन्हें इस जनादेश का लिहाज और उसके प्रति आस्था नहीं है। जनमत को वे नहीं मानते क्योंकि वे बुद्धिजीवी हैं। उनके मन का न हो तो सामने खड़े सत्य को भी झूठ करने की विधियां जानते हैं। ऐसे लोगों की सदाशयता आखिर भाजपा को क्यों चाहिए? आप देखें तो वे भाजपा के हर कदम के आलोचक हैं। कश्मीर का सवाल देखें। जिन्हें गिलानी और अतिवादियों के साथ मंच पर बैठने में संकोच नहीं वे आज वहां फहराए जा रहे पाकिस्तानी झंडों पीडित हैं। अगर कश्मीर में कांग्रेस या नेशनल कांफ्रेस के साथ पीडीपी सरकार बनाती तो सेकुलर गिरोह को समस्या नहीं थी। किंतु भाजपा ने ऐसा किया तो उन्हें डा. श्यामाप्रसाद मुखर्जी की याद आने लगी। वे लिखने लगे कि 370 का क्या होगा? भाजपा अपने वादे से हट रही है। भाजपा अपने वादे से हटकर आपके स्टैंड पर आती है तो आप उसके विरोध में क्यों हैं? ऐसे जाने कितने विवाद रोज बनाए और खड़े किए जाते हैं। सरकार के अच्छे कामों पर एक शब्द नहीं। किसी साध्वी के बयान पर हंगामा। राजनीति का यह दौर भी अजब है। जहां प्रधानमंत्री की सफलता भी एक बड़े वर्ग को दुखी कर रही है। उनके द्वारा विदेशों में जाकर किए जा सफल अनुबंधों और संपर्कों पर भी स्यापा व्याप्त है। यह सूचनाएं बताती हैं कि मोदी को आज भी दिल्ली वालों ने स्वीकार नहीं किया है। यह सोचना गजब है कि जब आडवानी जी का भाजपा संगठन पर खासा प्रभाव था तो इस सेकुलर खेमे के लिए अटल जी हीरो थे। जब मोदी आए तो उन्हें आडवानी जी की उपेक्षा खलने लगी। आज भाजपा के सफल पीढ़ीगत परिवर्तन को भी निशाना बनाया जा रहा है। मोदी के नेतृत्व में मिली असाधारण सफलताओं का भी छिद्रान्वेषण किया जा रहा है। यह कितना विचित्र है कि मोदी का वस्त्र चयन भी चर्चा का मुद्दा है। उनकी देहभाषा भी आलोचना के केंद्र में है। एक कद्दावर नेता को किस तरह डिक्टेटर साबित करने की कोशिशें हो रही हैं इसे देखना रोचक है।

   ऐसे में यह बहुत जरूरी है कि भाजपा और उसके समविचारी संगठनों को आलोचकों को उनके हाल पर छोड़ देना चाहिए। क्योंकि वे आलोचक नहीं है बल्कि भाजपा और संघ परिवार के वैचारिक विरोधी हैं। इसीलिए मोदी जैसे कद्दावर नेता के विरूद्ध कभी वे अरविंद केजरीवाल को मसीहा साबित करने लगते हैं तो कभी राहुल गांधी को मसीहा बना देते हैं। उन्हें मोदी छोड़ कोई भी चलेगा। जनता में मोदी कुछ भी हासिल कर लें, अपने इन निंदकों की सदाशयता मोदी को कभी नहीं मिल सकती। इसलिए मीडिया में उपस्थित इन वैचारिक विरोधियों का सामना विचारों के माध्यम से भी करना चाहिए। इनकी सद्भावना हासिल करने का कोई भी प्रयास भाजपा को हास्य का ही पात्र बनाएगा। क्योंकि एक लोकतंत्र में रहते हुए विरोध का अपना महत्व है। आलोचना का भी महत्व है। इसलिए इन प्रायोजित और तय आलोचनाओं से अलग मोदी और उनके शुभचिंतकों को यह पहचानने की जरूरत है कि इनमें कौन आलोचक हैं और कौन विरोधी। आलोचकों की आलोचना को सुना जाना चाहिए और उनके सुझावों का स्वागत होना चाहिए,जबकि विरोधियों को उनके हाल पर छोड़ देना चाहिए और यह उम्मीद नहीं करनी चाहिए आपके राजनीतिक-वैचारिक विरोधी भी देश की बेहतरी के लिए मोदी-मोदी करने लगेंगें। यह काम अपने समर्थकों से ही करवाइए, विरोधियों को उनके दुख के साथ अकेला छोड दीजिए। अपनी चिंताओं के केंद्र में सिर्फ सुशासन,विकास और भ्रष्टाचार को रखिए, आखिरी आदमी की पीड़ा को रखिए। क्योंकि अगर देश के लोग आपके साथ हैं, तो राजनीतिक विरोधियों को मौका नहीं मिलेगा। इसलिए विचलित होकर प्रतिक्रियाओं में समय नष्ट करने के बजाए निरंतर संवाद और राष्ट्र सर्वोपरि का भाव ही मोदी सरकार का एकमात्र मंत्र होना चाहिए।

सोमवार, 25 मई 2015

समाचार पत्रों में छपे लेखों की क्लीपिंग्स

जगबानी(पंजाबी) 25 मई,2015

                                                       डेली न्यूज एक्टीविस्ट, लखनऊ,25मई,2015
                                                           स्वदेश, भोपाल 25मई,2015
                                                      हिंद समाचार (उर्दू) 25.5.2015
स्टार समाचार,सतना 25.5.2015

                                                    पंजाब केसरी, जालंधर, 25.5.2015