गुरुवार, 17 जुलाई 2025

संघ, सत्ता और समाज

                                                                 -प्रो. संजय द्विवेदी


         एक जीवंत लोकतंत्र में रहते हुए क्या आप राजनीति से विरत रह सकते हैं? राजनीति जो नीति-निर्माण से लेकर आपके संपूर्ण जीवन के फैसले कर रही है, उससे अलग रहना क्या उचित है? क्या बदलाव सत्ता के बिना संभव है? क्या समाज की अपनी भी कोई शक्ति है या वह राजनीति से ही नियंत्रित होता है ? ऐसे अनेक प्रश्न चिंतनशील व्यक्तियों को मथते रहते हैं। ऐसे में एक संगठन जो सौ साल की आयु पूरी करने जा रहा है, उसके लिए राजनीति और सत्ता के मायने क्या हैं? सत्ता राजनीति उसे कितनी कम या ज्यादा रास आती है। लोकतंत्र में बदलाव की राजनीति और सत्ता की राजनीति के विमर्शों में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ कहां खड़ा है। यह विचार जरूरी हो जाता है। संघ ऐसा संगठन बन चुका है, जिसने समाज जीवन के हर क्षेत्र में अपनी उपस्थिति दर्ज कराई है। उसके स्वयंसेवकों के उजले पदचिन्ह हर क्षेत्र में सफलता के मानक बन गए हैं। स्वयं को सांस्कृतिक संगठन बताने वाले संघ का मूल कार्य और केंद्र दैनिक शाखाहै, किंतु अब वह सत्ता-व्यवस्था में गहराई तक अपनी वैचारिक और सांगठनिक छाप छोड़ चुका है।

     संघ के संस्थापक और प्रथम सरसंघचालक का सपना तो राष्ट्रीय चेतना का जागरण, सांस्कृतिक एकता का बोध और सालों की गुलामी के उपजे आत्मदैन्य को हटाकर हिंदू समाज की शक्ति को पुनः प्रतिष्ठित करना था। इस दौर में डा. केशवराम बलिराम हेडगेवार ने ऐसे संगठन की परिकल्पना की, जो राष्ट्र को धर्म, भाषा, क्षेत्र से ऊपर उठाकर सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की भावना से जोड़े। संघ की शाखाएं उसकी कार्यप्रणाली की रीढ़ बनीं। प्रतिदिन कुछ समय एक निश्चित स्थान पर एकत्रित होकर शारीरिक, बौद्धिक और नैतिक प्रशिक्षण देना ही शाखा की आत्मा है। यह क्रमशः अनुशासित, राष्ट्रनिष्ठ और संस्कारित कार्यकर्ताओं का निर्माण करता है, जिन्हें 'स्वयंसेवक' कहा जाता है। संघ ने व्यक्ति निर्माण के माध्यम से राष्ट्र निर्माण" की अवधारणा को अपनाया है। इस प्रक्रिया में उसका जोर 'चरित्र निर्माण' और 'कर्तव्यपरायणता' पर होता है। ऐसे में विविध वर्गों तक पहुंचने के लिए संघ के विविध संगठन सामने आए जो अलग-अलग क्षेत्रों में सक्रिय हुए किंतु उनका मूल उद्देश्य राष्ट्र की चिति का जागरण और राष्ट्र निर्माण ही है। आप देखें तो संघ ने राजनीति और सत्ता के शिखरों पर बैठे लोगों से हमेशा संवाद बनाए रखा। राजनीति के महापुरुषों से भी संवाद रखा। आप देखें तो राष्ट्रपिता महात्मा गांधी,बाबा साहब भीमराव आंबेडकर, जयप्रकाश नारायण, पं. जवाहरलाल नेहरू  से लेकर श्रीमती इंदिरा गांधी तक संघ का संवाद सबसे रहा। अपनी बातों को रखना और उस पर दृढ़ता से डटे रहना संघ का मूल स्वभाव है। संघ सत्ता राजनीति से संवाद रखते हुए भी सत्ता मोह से कभी ग्रस्त नहीं रहा। 1951 में श्यामा प्रसाद मुखर्जी द्वारा जनसंघ की स्थापना में संघ का सक्रिय सहयोग था। इस पार्टी का सहयोग संघ द्वारा प्रशिक्षित अनेक प्रचारकों द्वारा किया गया। 1980 में जब भाजपा बनी, तो संघ के कई वरिष्ठ कार्यकर्ता उसमें शामिल हुए। संघ ने अपने अनेक प्रचारक और कार्यकर्ता पार्टी में भेजे और उन्हें स्वतंत्रता दी। सत्ता राजनीति में भी राष्ट्रीय भाव प्रखर हो,यही धारणा रही। एक समय था जब संघ पर गांधी हत्या के झूठे आरोप में प्रतिबंध लगाकर स्वयंसेवकों को प्रताड़ित किया जा रहा था,किंतु संघ की बात रखने वाला कोई राजनीति में नहीं था। सत्ता की प्रताड़ना सहते हुए भी संघ ने अपने संयम को बनाए रखा और झूठे आरोपों के आधार पर लगा प्रतिबंध हटा।

   चीन युद्ध के बाद इसी संवाद और देश भक्ति पूर्ण आचरण के लिए उसी सत्ता ने संघ को 1963 के गणतंत्र दिवस की परेड में आमंत्रित किया। भारतीय मजदूर संघ के कार्यकर्ता रहे कृष्णलाल पठेला बताते हैं-स्वयंसेवकों की 1962 के युद्ध में उल्लेखनीय भूमिका को देखते हुए ही 1963 की गणतंत्र दिवस परेड में संघ को अपना जत्था भेजने के लिए आमंत्रित किया गया था। मुझे याद है, मैं भी उस जत्थे में शामिल था और जब संघ का जत्था राजपथ पर निकला था तब वहां मौजूद नागरिकों ने देर तक तालियां बजाई थीं। जहां तक मुझे याद है, उस जत्थे में 600 स्वयंसेवक पूर्ण गणवेश में शामिल हुए थे।

    संघ ने समाज जीवन के हर क्षेत्र में स्वयंसेवकों को जाने के लिए प्रेरित किया। किंतु अपनी भूमिका व्यक्ति निर्माण और मार्गदर्शन तक सीमित रखी। सक्रिय राजनीति के दैनिक उपक्रमों में शामिल न होकर समाज का संवर्धन और उसके एकत्रीकरण पर संघ की दृष्टि रही। इस तरह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ आज केवल एक संगठन नहीं, बल्कि एक वैचारिक परंपरा है। उसने भारतीय समाज में अनुशासन, संगठन और सांस्कृतिक चेतना का पुनर्जागरण किया है। सत्ता से उसका संवाद हमेशा रहा है और उसके पदाधिकारी राजनीतिक दलों से संपर्क में रहे हैं। इंदिरा गांधी से भी तत्कालीन सरसंघचालक बालासाहब देवरस का संवाद रहा है। उनका पत्र इसे बताता है। इस तरह देखें तो संघ किसी को अछूत नहीं मानता, उसकी भले ही व्यापक उपेक्षा हुई हो। संघ के अनेक प्रकल्पों और आयोजनों में विविध राजनीतिक दलों के लोग शामिल होते रहे हैं। इस तरह संघ एक जड़ संगठन नहीं है, बल्कि समाज जीवन के हर प्रवाह से सतत संवाद और उस पर नजर रखते हुए उसके राष्ट्रीय योगदान को संघ स्वीकार करता है। इस तरह सेवा, समर्पण ही संघ का मूल मंत्र है।

  संघ की प्रेरणा से उसके स्वयंसेवकों ने अनेक स्वतंत्र संगठन स्थापित किए हैं। उनमें भाजपा भी है। इन संगठनों में आपसी संवाद और समन्वय की व्यवस्था भी है किंतु नियंत्रित करने का भाव नहीं है। सभी स्वयं में स्वायत्त और अपनी व्यवस्थाओं में आत्मनिर्भर हैं। यह संवाद विचारधारा के आधार पर चलता है। समान मुद्दों पर समान निर्णय और कार्ययोजना भी बनती है। 1951 में जनसंघ की स्थापना के समय ही संघ के कई स्वयंसेवक जैसे पं.दीनदयाल उपाध्याय, अटलबिहारी वाजपेयी, नानाजी देशमुख जैसे लोग शामिल थे।1977 में जनसंघ का जनता पार्टी में विलय हुआ, लेकिन आपसी मतभेदों और दोहरी सदस्यता के सवाल पर उपजे विवाद के कारण यह प्रयोग असफल रहा। 1980 में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के रूप में एक नए राजनीतिक दल का जन्म हुआ, जिसमें संघ प्रेरित वैचारिक नींव और सांगठनिक समर्थन मजबूत रूप से विद्यमान था।

   संघ ने सत्ता या राजनीतिक दलों के सहयोग से बदलाव के बजाए, व्यक्ति को केंद्र में रखा है। संघ का मानना है कि कोई बदलाव तभी सार्थक होता है, जब लोग इसके लिए तैयार हों। इसलिए संघ के स्वयंसेवक गाते हैं-

केवल सत्ता से मत करना परिवर्तन की आस।
जागृत जनता के केन्द्रों से होगा अमर समाज।

सामाजिक शक्ति का जागरण करते हुए उन्हें बदलाव के अभियानों का हिस्सा बनाना संघ का उद्देश्य रहा है। चुनाव के समय मतदान प्रतिशत बढ़ाने और नागरिकों की सक्रिय भूमिका को सुनिश्चित करने के लिए मतदाता जागरण अभियान इसका उदाहरण है। लोकतंत्र को सशक्त बनाते हुए नागरिकों की सहभागिता सुनिश्चित करना एक बड़ा काम है। राजनीति में प्रसिद्धि एक अनिवार्य विषय है। नेता अपने स्वागत, सम्मान के लिए बहुत से इंतजाम करते हैं। संघ इस प्रवृत्ति को पहले पहचान कर अपने स्वयंसेवकों को प्रसिद्धिपरांगमुखता का पाठ पढ़ाता आया है। ताकि काम की चर्चा हो नाम की न हो। स्वयंसेवक गीत गाते हैं-

वृत्तपत्र में नाम छपेगा, पहनूंगा स्वागत समुहार।

छोड़ चलो यह क्षुद्र भावना, हिन्दू राष्ट्र के तारणहार।।

सही मायनों में सार्वजनिक जीवन में रहते हुए यह बहुत कठिन संकल्प हैं। लेकिन संघ की कार्यपद्धति ऐसी है कि उसने इसे साध लिया है। संचार और संवाद की दुनिया में बेहद आत्मीय, व्यक्तिगत संवाद ही संघ की शैली है। जहां व्यक्ति से व्यक्ति का संपर्क सबसे प्रभावी और स्वीकार्य है। इसमें दो राय नहीं कि इन सौ सालों में संघ के अनेक स्वयंसेवक समाज में प्रभावी स्थिति में पहुंचें तो अनेक सत्ता के शिखरों तक भी पहुंचे। अटलबिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवानी और नरेंद्र मोदी इसमें शिखर तक पहुंचे लोग हैं। इसके अलावा एक लंबी श्रृंखला है जिनकी प्रेरणा संघ है। जिनके जीवन में भी संघ है। संघ का प्रशिक्षण न केवल वैचारिक स्पष्टता देता है, बल्कि संगठनात्मक अनुशासन, जनसंपर्क कौशल और सेवा भाव भी समाहित करता है। यही कारण है कि संघ से निकले नेता राजनीतिक दृष्टि से अधिक प्रभावशाली, अनुशासित और संगठन-निष्ठ होते हैं। संघ के स्वयंसेवकों के सक्रिय सहभाग से समाज जीवन के हर क्षेत्र में अब नीतियों के निर्माण और क्रियान्वयन में परिर्वतन दिखने लगा है। इसे बदलाव की राजनीति कहते हैं। जबकि सत्ता राजनीति के मार्ग अलहदा हैं। स्वदेशी, आत्मनिर्भरता, धार्मिक-सांस्कृतिक पुनर्जागरण और राष्ट्रवाद जैसे विषय संघ के लंबे समय से पोषित विचार रहे हैं, जिन्हें अब सरकारी नीतियों में प्राथमिकता मिलती दिखती है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति, राम मंदिर निर्माण, अनुच्छेद 370 हटाना, और समान नागरिक संहिता जैसे निर्णय संघ की वैचारिक दिशा को ही प्रकट करते हैं। इसमें कई कार्य लंबे आंदोलन के बाद संभव हुए। लोकजागरण की यह शैली संघ का लोकसंपर्क भी बताती है। किसी विषय को समाज में ले जाना और उसे स्थापित करना। फिर सरकारों के द्वारा उस पर पहल करना। लोकतंत्र को सशक्त करती यह परंपरा संघ ने अपने विविध संगठनों के साथ मिलकर स्थापित की है। संघ की प्रतिनिधि सभाओं में विविध मुद्दों पर पास प्रस्ताव बताते हैं कि संघ की राष्ट्र की ओर देखने की दृष्टि क्या है। ये प्रस्ताव हमारे समय के संकटों पर राष्ट्रीय दृष्टिकोण रखते हुए राह भी बताते हैं। अनेक बार संघ पर यह आरोप लगते हैं कि वह राजनीति को नियंत्रित करना चाहता है। किंतु विरोधी इसके प्रमाण नहीं देते। संघ का विषय प्रेरणा और मार्गदर्शन तक सीमित है। संघ की पूरी कार्यशैली में संवाद,संदेश और सुझाव ही हैं, चाहे वह सरकार किसी की भी हो। अपने वैचारिक हस्तक्षेप, प्रतिनिधि सभा के प्रस्तावों और सकारात्मक कार्यक्रमों के माध्यम से संघ ने समाज की बातों को ही सत्ता प्रतिष्ठानों के सामने रखा है। जिनमें कई बार सकारात्मक उत्तर आते हैं, तो कई बार कुछ मुद्दे उपेक्षित हो जाते हैं। भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व में संघ के स्वयंसेवकों की संख्या काफी है। जाहिर है भाजपा की सरकारों से स्वयंसेवकों की अपेक्षाएं भी ज्यादा रहती हैं। किंतु सरकारों के दैनिक कार्य में हस्तक्षेप के बजाए संघ सिर्फ वैचारिक और राष्ट्रहित के मुद्दों पर अपनी बात सार्वजनिक रूप से रखता है। कई बार शासकीय स्तर पर, नीतियों के स्तर पर उन्हें सुना भी जाता है। इसे सत्ता पर दबाव के बजाए प्रेरणा और परस्पर सहमति के रूप में देखा जाना चाहिए।

  संघ राजनीति में आदर्शवादी कैडर और संस्कारी नेतृत्व का निर्माण करता हुआ दिखता है। उसकी विचारधारा राष्ट्रवादी,अनुशासित और निःस्वार्थ सेवा पर आधारित है। सत्ता में उसके स्वयंसेवकों के रहते हुए भी संघ का जोर सामाजिक सेवा, पारिवारिक मूल्यों और सांस्कृतिक पुनरुत्थान पर रहता है। अनेक मुद्दों पर जैसे आर्थिक नीति, उदारवादी वैश्वीकरण की दिशा पर संघ ने हमेशा अपनी अलग राय व्यक्त की है। संघ इस तरह सत्ता राजनीति की मजबूरियों को समझते हुए भी उनकी हर बात से सहमत नहीं है। इसमें दो राय नहीं कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने भारतीय राजनीति में एक वैकल्पिक वैचारिक धारा का निर्माण किया है। उसने हिंदुत्व आधारित राष्ट्रीय भाव को मुख्यधारा में स्थापित किया है और अपनी सांगठनिक शक्ति से भारतीय राजनीति को नई दिशा दी है। समाज की सज्जनशक्ति को एकत्र कर उनसे संवाद बनाते हुए लोकजागरण का काम भी किया है। एक जागृत समाज कैसे निष्क्रियता छोड़कर सजग और सक्रिय हस्तक्षेप करे, यह संघ के निरंतर प्रयास हैं। पंच परिवर्तन का संकल्प इसी को प्रकट करता है।

        संघ भले ही स्वयं राजनीति में न हो, पर राजनीति पर उसके विचारों का गहरा प्रभाव परिलक्षित होने लगा है। राजनीतिक दलों में भी संघ पर टीका करने की होड़ दिखती है। जबकि संघ अपने ऊपर लगने वाले निरंतर मिथ्या आरोपों पर भी प्रायः खामोश रहता है। क्योंकि राजनीति के द्वारा उठाए जा रहे प्रश्नों का उत्तर देकर वह घटिया राजनीति का हिस्सा नहीं बनना चाहता। आज समाज जीवन में भी संघ को जानने की भूख है। लोग संघ से जुड़कर भारत का भविष्य गढ़ना चाहते हैं। इसलिए एक वरिष्ठ पदाधिकारी कहते हैं-

भारत को जानो, भारत को मानो

भारत के बने, भारत को बनाओ।

   यह बदला हुआ समय संघ के लिए अवसर भी है और परीक्षा भी। उम्मीद की जानी कि संघ अपने शताब्दी वर्ष में ज्यादा सरोकारी भावों से भरकर सामाजिक समरसता, राष्ट्रबोध जैसे विषयों पर समाज में परिवर्तन की गति को तेज कर पाएगा। संघ के अनेक पदाधिकारी इसे ईश्वरीय कार्य मानते हैं।  जाहिर है उनके संकल्पों से भारत मां एक बार फिर जगद्गुरू के सिंहासन के विराजेगी, ऐसा विश्वास स्वयंसेवकों की संकल्प शक्ति को देखकर सहज ही होता है।

 

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ: रचना ,सृजन और संघर्ष के सौ साल

                                                                       -प्रो.संजय द्विवेदी



राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) भारतीय समाज के पुनर्गठन की वह प्रयोगशाला है, जो विचार, सेवा और अनुशासन के आधार पर एक सांस्कृतिक राष्ट्र का निर्माण कर रही है। 1925 में डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार की अनोखी भारतीय दृष्टि से उपजा यह संगठन आज अपनी शताब्दी के द्वार पर खड़ा है। यह केवल संगठन विस्तार की नहीं, बल्कि भारत के सामाजिक-सांस्कृतिक पुनरुत्थान की एक अनवरत यात्रा है।

सौ वर्षों की इस साधना में संघ और इसके स्वयंसेवकों ने देश की चेतना को जाग्रत किया है। उन्होंने दिखाया कि न तो किसी सरकारी सहयोग की आवश्यकता होती है और न ही प्रचार के माध्यम से प्रसिद्धि की—यदि लक्ष्य पवित्र हो, मार्ग अनुशासित हो और कार्यकर्ता समर्पित हों।

सेवा: राष्ट्र के हृदय को स्पर्श करती संवेदना-

संघ के स्वयंसेवकों की सेवा-भावना समाज के सबसे वंचित वर्गों तक पहुंचती है। गिरिजनों और वनवासियों से लेकर महानगरों की झुग्गी बस्तियों तक, संघ प्रेरित संगठन—जैसे सेवा भारती, वनवासी कल्याण आश्रम, एकल विद्यालय, राष्ट्र सेविका समिति और आरोग्य भारती—अखंड सेवा के भाव से कार्यरत हैं।

इन संस्थाओं का उद्देश्य केवल राहत पहुंचाना नहीं, बल्कि लोगों को आत्मनिर्भर, शिक्षित और संस्कारित बनाना है। सेवा, संघ के लिए कर्मकांड नहीं, जीवनधर्म है—जो मानवता को जोड़ता है, पोषित करता है और राष्ट्र के लिए भावनात्मक एकता निर्मित करता है।

शिक्षा: मूल्यबोध से युक्त राष्ट्रनिर्माण

संघ ने प्रारंभ से ही यह अनुभव किया कि एक ऐसी शिक्षा व्यवस्था की आवश्यकता है, जो केवल ज्ञान नहीं, बल्कि संस्कार दे। इस विचार की परिणति विद्या भारती के रूप में हुई। देश भर में फैले इसके विद्यालयों में लाखों छात्र न केवल आधुनिक शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं, बल्कि भारतीय संस्कृति, नैतिकता और राष्ट्रबोध की गंगोत्री में स्नान भी कर रहे हैं।

अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (अभाविप) ने छात्र राजनीति में एक नई संस्कृति का प्रारंभ किया। ‘शिक्षक अध्यक्ष’ की परंपरा, ‘शैक्षिक परिवार’ का विचार और संगठन के कार्यों में राष्ट्र के प्रति समर्पण—ये सब अभाविप को विशिष्ट बनाते हैं।

शिक्षा संस्कृति उत्थान न्यास, भारतीय शिक्षण मंडल और अखिल भारतीय शैक्षिक महासंघ जैसे संगठनों ने शिक्षा नीति निर्माण में सक्रिय भूमिका निभाई। राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 संघ प्रेरित वैचारिक चेतना का मूर्त रूप मानी जा सकती है।

विविध क्षेत्रों में राष्ट्र की पुनर्रचना

संघ का कार्यक्षेत्र अत्यंत व्यापक है। समाज जीवन के प्रत्येक आयाम में उसकी सृजनात्मक उपस्थिति देखी जा सकती है। उपभोक्ता हितों की रक्षा हेतु अखिल भारतीय ग्राहक पंचायत, साहित्यिक जगत में हस्तक्षेप करती अखिल भारतीय साहित्य परिषद, और कला-संस्कृति को संवारती संस्कार भारती—संघ की इस बहुआयामी दृष्टि की प्रतीक हैं।

भारत विकास परिषद, लघु उद्योग भारती, भारतीय किसान संघ, सहकार भारती, स्वदेशी जागरण मंच भारत के सशक्तिकरण, स्वदेशी चेतना और किसान कल्याण को समर्पित हैं। ये सभी संगठन संघ की उस मूल भावना को मूर्त करते हैं, जो कहती है कि परिवर्तन केवल सरकार से नहीं, समाज से होता है। राम मंदिर निर्माण के माध्यम से विश्व हिन्दू परिषद ने अभूतपूर्व लोक जागरण किया। इस ऐतिहासिक जनांदोलन ने भविष्य के भारत की आधारशिला रखी। जाति,पंथ, भाषा से ऊपर उठकर चले इस महाभियान ने स्व.अशोक सिंहल जैसा नायक दिया, जिसने समाज और संत शक्ति के समन्वय से समरसता की धारा को तेज गति से प्रवाहित किया। एक तरफ जहां राजनीतिक दल समाज को तोड़ने में जुटे हैं विहिप समाज के एकीकरण और एकात्म भाव को लेकर सक्रिय है।

श्रमिक और छात्र आंदोलनों का नया विमर्श

संघ ने श्रमिक आंदोलन को संघर्ष की नहीं, संवाद और संगठन की दिशा दी। भारतीय मजदूर संघ (बीएमएस) इसकी जीवंत मिसाल है। दत्तोपंत ठेंगड़ी जैसे विचारकों के मार्गदर्शन में बीएमएस देश का सबसे बड़ा श्रमिक संगठन बना, जिसने मज़दूरों को राष्ट्र निर्माण का सहभागी बनाने का कार्य किया।

अभाविप ने भी छात्र आंदोलनों में अनुशासन, विचार और सकारात्मक हस्तक्षेप की एक नई परंपरा शुरू की। छात्र और शिक्षक का परस्पर सहयोग, शिक्षा में नवाचार और राष्ट्रवादी चिंतन—अभाविप ने इसे एक आंदोलन का रूप दिया।

समावेशी दृष्टिकोण: भारत के विविध समाज का एकीकरण

संघ को प्रायः अल्पसंख्यक विरोधी कहा गया, किंतु इसके विपरीत संघ ने राष्ट्र को धर्म और जाति की संकीर्णताओं से ऊपर रखकर देखा है। ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ के भाव के साथ संघ ने मुस्लिम समाज के साथ संवाद और समरसता को बल दिया।

राष्ट्रीय मुस्लिम मंच इसका मूर्त उदाहरण है, जहां मुस्लिम समुदाय के कई जागरूक सदस्य देश और संस्कृति के साथ जुड़कर रचनात्मक कार्य कर रहे हैं। इसी प्रकार राष्ट्रीय सिख संगत ने सिख और हिंदू समाज के बीच भेद बनाने के लिए खींची गई रेखाओं को मिटाने का कार्य किया है।

संघ की दृष्टि में भारत केवल एक भूखंड नहीं, बल्कि एक सांस्कृतिक जीवित सत्ता है, जिसमें प्रत्येक नागरिक का स्थान है—चाहे उसकी जाति, पंथ या भाषा कोई भी हो।

राजनीति से ऊपर, राष्ट्रनीति की प्रेरणा

संघ का मूल कार्यक्षेत्र राजनीति नहीं है, परंतु उसके स्वयंसेवकों ने राजनीति में प्रवेश कर उसे मूल्यनिष्ठा, सेवा और राष्ट्रधर्म से जोड़ा है। डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी, पंडित दीनदयाल उपाध्याय, अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी और नरेंद्र मोदी जैसे नायक संघ की विचारभूमि से निकले तपस्वी हैं, जिन्होंने राजनीति को राष्ट्रसेवा का माध्यम बनाया।

भारतीय जनता पार्टी के माध्यम से संघ की राष्ट्रवादी विचारधारा को राजनीतिक मंच मिला, जिसने भारत की राजनीतिक संस्कृति को स्थायित्व, उद्देश्य और राष्ट्रबोध प्रदान किया।

शाखा: संगठन का मूल बीज

संघ की सबसे विशिष्ट विशेषता उसकी ‘शाखा’ है। यह केवल दिनचर्या का अनुशासन नहीं, बल्कि व्यक्तित्व निर्माण और समाज संगठन की पाठशाला है। यहां खेल, योग, गीत, व्याख्यान और अभ्यास के माध्यम से राष्ट्रप्रेम, सेवा और अनुशासन के बीज रोपे जाते हैं।

शाखा का वातावरण सामाजिक समरसता का भी प्रतीक है—जहां जाति, वर्ग, भाषा और आयु का भेद नहीं होता। सभी स्वयंसेवक एक समान भाव से भारतमाता की सेवा के लिए कटिबद्ध होते हैं।

भारत की आत्मा का जागरण

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ आज केवल एक संगठन नहीं, बल्कि एक वैचारिक आंदोलन है। उसने दिखाया है कि संगठन, विचार और समर्पण के बल पर समाज को बदला जा सकता है, और राष्ट्र का नव निर्माण संभव है।

संघ की यात्रा सेवा से समरसता तक, अनुशासन से राष्ट्रधर्म तक और शाखा से संसद तक—हर पड़ाव पर भारत की आत्मा को जागृत करती है। वह भारत को केवल एक राजनीतिक राष्ट्र नहीं, बल्कि एक सांस्कृतिक चेतना के रूप में स्थापित करना चाहता है।

संघ के कार्य को कोई चाहे जितना विरोध करे, किंतु उसकी राष्ट्रनिष्ठा, सेवा भावना और समर्पण को नकारा नहीं जा सकता। यही कारण है कि विरोधी भी व्यक्तिगत रूप से संघ के कार्यों की प्रशंसा करते हैं, और कहीं-न-कहीं उससे प्रेरित भी होते हैं।

संघ की शताब्दी यात्रा भारत की उस यात्रा का प्रतीक है, जो हजारों वर्षों की सभ्यता, संस्कृति और साधना का प्रतिफल है। यह यात्रा निरंतर चल रही है—भारत के निर्माण, उत्थान और पुनः विश्वगुरु बनने की दिशा में।

(लेखक भारतीय जन संचार संस्थान- आईआईएमसी, नई दिल्ली के पूर्व महानिदेशक हैं।)