शनिवार, 3 मार्च 2018

आरएसएस की अविराम एवं भाव यात्रा का 'ध्येय पथ'


ध्येय पथ : राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नौ दशक
- लोकेन्द्र सिंह


     जनसंचार माध्यमों में जब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संबंध में भ्रामक जानकारी आती है, तब सामान्य व्यक्ति चकित हो उठते हैं, क्योंकि उनके जीवन में संघ किसी और रूप में उपस्थित रहता है, जबकि आरएसएस विरोधी ताकतों द्वारा मीडिया में संघ की छवि किसी और रूप में प्रस्तुत की जाती है। संघ ने लंबे समय तक इस प्रकार के दुष्प्रचार का खण्डन नहीं किया। अब भी बहुत आवश्यकता होने पर ही संघ अपना पक्ष रखता है। दरअसल, इसके पीछे संघ का यह विचार रहा- 'कथनी नहीं, व्यवहार से स्वयं को समाज के समक्ष प्रस्तुत करो।' विजयदशमी, 1925 से अब तक संघ के स्वयंसेवकों ने यही किया। परिणामस्वरूप सुनियोजित विरोध, कुप्रचार और षड्यंत्रों के बाद भी संघ अपने ध्येय पथ पर बढ़ता रहा। इसी संदर्भ में यह भी देखना होगा कि जब भी संघ को जानने या समझने का प्रश्न आता है, तब वरिष्ठ प्रचारक यही कहते हैं- 'संघ को समझना है, तो शाखा में आना होगा।' अर्थात् शाखा आए बिना संघ को नहीं समझा जा सकता। संभवत: प्रारंभिक वर्षों में संघ के संबंध में द्वितीयक स्रोत उपलब्ध नहीं रहे होंगे, यथा- प्रामाणिक पुस्तकें। जो साहित्य लिखा भी गया था, वह संघ के विरोध में तथाकथित प्रगतिशील खेमे द्वारा लिखा गया। संघ स्वयं भी संगठन के कार्य में निष्ठा के साथ जुड़ा रहा। 'प्रसिद्धिपरांगमुखता' की नीति के कारण प्रचार से दूर रहा। किंतु, आज संघ के संबंध में सब प्रकार का साहित्य लिखा जा रहा है/उपलब्ध है। यह साहित्य हमें संघ का प्राथमिक और सैद्धांतिक परिचय तो दे ही देता है। इसी क्रम में एक महत्वपूर्ण पुस्तक है- 'ध्येय पथ : राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नौ दशक'। पुस्तक का संपादन लेखक एवं पत्रकारिता के आचार्य प्रो. संजय द्विवेदी ने किया है। यह पुस्तक संघ पर उपलब्ध अन्य पुस्तकों से भिन्न है। दरअसल, पुस्तक में संघ के किसी एक पक्ष को रेखांकित नहीं किया गया है और न ही एक प्रकार की दृष्टिकोण से संघ को देखा गया है। पुस्तक में संघ के विराट स्वरूप को दिखाने का एक प्रयास संपादक ने किया है। सामग्री की विविधता एवं विभिन्न दृष्टिकोण/विचार 'ध्येय पथ' को शेष पुस्तकों से अलग दिखाते हैं।
            संपादक प्रो. संजय द्विवेदी ने संघ की दशक की यात्रा का निकट से अनुभव किया है, इसलिए उनके संपादन में इस यात्रा के लगभग सभी पड़ाव शामिल हो पाए हैं। चूँकि संघ का स्वरूप इतना विराट है कि उसको एक पुस्तक में प्रस्तुत कर देना संभव नहीं है। इसके बाद भी यह कठिन कार्य करने का प्रयास किया गया है। यह पुस्तक भ्रम के उन जालों को भी हटाने का महत्वपूर्ण कार्य करती है, जो हिटलर के प्रचार मंत्री गोएबल्स की संतानों ने फैलाए हैं। इस संबंध में संपादक प्रो. द्विवेदी की संपादकीय के शुरुआती पैराग्राफ से होकर गुजरना चाहिए। उन्होंने लिखा है- ''राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में ऐसा क्या है कि वह देश के तमाम बुद्धिजीवियों की आलोचना के केंद्र में रहता है? ऐसा क्या है कि मीडिया का एक बड़ा वर्ग भी उसे संदेह की नजर से देखता है? बिना यह जाने की उसका मूल विचार क्या है? आरएसएस को न जानने वाले और जानकर भी उसकी गलत व्याख्या करने वालों की तादाद इतनी है कि पूरा सच सामने नहीं आ पाता। आरएसएस के बारे में बहुत से भ्रम हैं। कुछ तो विरोधियों द्वारा प्रचारित हैं तो कुछ ऐसे हैं जिनकी गलत व्याख्या कर विज्ञापित किया गया है। आरएसएस की काम करने की प्रक्रिया ऐसी है कि वह काम तो करता है, प्रचार नहीं करता। इसलिए वह कही बातों का खंडन करने भी आगे नहीं आता है। ऐसा संगठन जो प्रचार में भरोसा नहीं करता और उसके कैडर को सतत प्रसिद्धि से दूर रहने का पाठ ही पढ़ाया गया है, वह अपनी अच्छाइयों को बताने के लिए आगे नहीं आता, न ही गलत छप रही बातों का खंडन करने का अभ्यासी है। ऐसे में यह जानना जरूरी है कि आरएसएस के बारे में जो कहा जा ता है, वह कितना सच है? ''
            'ध्येय पथ' ऐसे ही अनेक प्रश्नों के उत्तर हमारे सामने प्रस्तुत करती है। संघ की वास्तविक तस्वीर को हमारे सामने प्रस्तुत करती है। संघ को बदनाम करने में संलग्न विरोधी ताकतों के झूठ उजागर करने का महत्वपूर्ण कार्य इस पुस्तक ने किया है। आजकल बड़े जोर से एक झूठ बोला जा रहा है, बल्कि उस झूठ के सहारे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ एवं उसके कार्यकर्ताओं की देशभक्ति को कठघरे में खड़ा करने का प्रयास किया जा रहा है- 'देश के स्वतंत्रता आंदोलन में संघ ने हिस्सा नहीं लिया, अपितु उसके पदाधिकारियों ने अपने कार्यकर्ताओं को आंदोलन का हिस्सा बनने से रोकने के प्रयास किए। देश की स्वतंत्रता में संघ का कोई योगदान नहीं है।' संघ एक राष्ट्रनिष्ठ संगठन है। संघ के स्वयंसेवक देश के गौरव के लिए अपने प्राणों की बाजी लगा सकते हैं। समाज में संघ की ऐसी छवि बन गई है। सशक्त छवि। संघ और उसके स्वयंसेवक देशभक्ति के पर्याय हो गए हैं। ऐसे में संघ विरोधी ताकतों ने स्वतंत्रता आंदोलन से संबंधित उक्त झूठ को अपना हथियार बना लिया है। यह ताकतें बार-बार संघ को इस हथियार से क्षत-विक्षत करने का प्रयास कर रही हैं। 'ध्येय पथ' ने अपने शुरुआती अध्याय में ही संघ विरोधी ताकतों के इस हथियार को कुंद करने का बंदोबस्त कर दिया है। 'स्वतंत्रता संग्राम एवं संघ' अध्याय में वरिष्ठ पत्रकार एवं राष्ट्रीय पुस्तक न्यास के अध्यक्ष बल्देवभाई शर्मा, डॉ. मनोज चतुर्वेदी और राजेन्द्र नाथ तिवारी के आलेखों में प्रमाण और संदर्भ सहित यह सिद्ध किया गया है कि संघ और उसके स्वयंसेवकों ने स्वतंत्रता आंदोलन में न केवल हिस्सा लिया, अपितु अपने स्तर पर भी ब्रिटिश सरकार का विरोध किया। संघ की देशभक्ति ने ब्रिटिश सरकार के माथे पर भी चिंता की लकीरें खींच दी थीं।
            'इतिहास विकास एवं भावयात्रा' अध्याय में कुछ ग्यारह आलेख शामिल हैं, जिनमें प्रख्यात बुद्धिजीवी केएन गोविन्दाचार्य का लेख भी शामिल है। गोविन्दाचार्य संघ की यात्रा के सहयात्री भी रहे हैं। इसलिए जब वह लिखते हैं कि संघ की यह यात्रा 'रचना और सृजन की अविराम यात्रा' है, तो शब्द कहीं अधिक जीवंत होकर उनके कथन के साक्षी बनते हैं। गोविन्दाचार्य का यह लेख और इस अध्याय में शामिल अन्य लेख संघ के इतिहास, उसके उद्देश्य, कार्यप्रणाली और उसके स्वरूप से परिचित कराने का कार्य करते हैं। इसके आगे के अध्याय में आरएसएस के 'सामाजिक योगदान' की चर्चा की गई है। यह ज्ञात तथ्य है कि नित्य समाजसेवा करने वाला दुनिया का एकमात्र संगठन संघ ही है। देशभर में संघ की प्रेरणा से डेढ़ लाख से अधिक सेवा कार्य संचालित किए जा रहे हैं। संघ के सेवा विभाग की वेबसाइट 'सेवागाथा डॉट ओआरजी' पर उपलब्ध आंकड़े के अनुसार सेवाकार्यों की संख्या लगभग एक लाख सत्तर हजार है। संघ का मानना है कि वास्तविक एवं स्थायी परिवर्तन समाज जागरण से ही संभव है। इसलिए वह 'व्यक्ति निर्माण' के कार्य को ही अपना मुख्य कार्य मानता है। समाज को जागृत करने, समाज में समरसता बढ़ाने, समाज का सशक्त एवं स्वावलंबी बनाने में संघ की भूमिका का सम्मान स्वयं महात्मा गांधी ने भी किया है। एक लेखक वर्ग ने संघ के प्रति अपने राजनीतिक दुराग्रह एवं पूर्वाग्रहों के कारण समाज में उसके योगदान को कभी रेखांकित नहीं किया। राजनीतिक असर इस कदर था कि तटस्थ लेखकों का ध्यान भी संघकार्यों के प्रति नहीं गया। प्रख्यात साहित्यकार एवं कवि डॉ. देवेन्द्र दीपक ने अपने आलेख 'राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और हिंदी' में इस ओर संकेत किया है। उन्होंने लिखा है कि राज्यसभा सदस्य पं. बनारसीदास चतुर्वेदी ने 'साप्ताहिक हिन्दुस्तान' में छपे अपने लेख में विभिन्न संस्थानों की हिंदी सेवा की विस्तार से चर्चा की। इस लेख को पढ़कर जब डॉ. दीपक ने उनको पत्र लिख कर यह जानना चाहा कि उन्होंने हिंदी के विस्तार में संघ के योगदान का उल्लेख क्यों नहीं किया? तब पं. बनारसीदास चतुर्वेदी ने इसे अपनी चूक मानते हुए अपने उत्तर में लिखा था- 'राजनीतिक कारणों से ध्यान उधर नहीं जाता।' इसी प्रकार का एक और उदाहरण आता है, जब डॉ. दीपक ने हिंदी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग के शताब्दी वर्ष पर प्रकाशित स्मारिका में 'राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और हिंदी' विषय पर लेख लिखने का प्रस्ताव दिया। इस संबंध में उन्हें जो उत्तर प्राप्त हुआ, वह संघ के प्रति राजनीतिक दबाव को भी प्रकट करता है- 'सर, क्षमा करें। हमारी ग्रांट बंद हो जाएगी।' बहरहाल, हिंदी के विस्तार में संघ का जो योगदान है, वह अनुकरणीय है। संघ की जब शुरुआत हुई तो उसमें मराठी भाषा कार्यकर्ता अधिक थे, तब भी संघ का समूचा कार्य हिंदी में ही होता था। तृतीय वर्ष के संघ शिक्षावर्ग में देश के लगभग सभी प्रांतों से स्वयंसेवक प्रशिक्षण हेतु आते हैं। सबका प्रशिक्षण हिंदी भाषा में होता है। संघ ने प्रारंभ से ही बिना किसी आंदोलन और प्रचार के हिंदी का विस्तार किया है। उल्लेखनीय है कि संघ के द्वितीय सरसंघचालक श्री गुरुजी ने दो मार्च, 1950 को रोहतक में हरियाणा प्रांतीय हिंदी सम्मेलन में हिंदी को विश्वभाषा बनाने का आह्वान किया था। यहाँ यह भी समझना आवश्यक होगा कि संघ हिंदी को राष्ट्रभाषा एवं विश्वभाषा बनाने का आग्रही है, किंतु भारतीय भाषाओं की मजबूती का भी पक्षधर है। संघ मातृभाषाओं में शिक्षा एवं संवाद का हिमायती है। यहाँ उल्लेख करना चाहूँगा कि मेरे गुरुजी सुरेश चित्रांशी अकसर मुझे बताते हैं कि जब देश में आपातकाल थोपा गया था, तब संघ के कार्यकर्ताओं को खोज-खोज कर जेल में डाला जा रहा था। उन्हें प्रताडि़त किया जा रहा था। यातनाएं दी जा रही थीं। पुलिस के सामने सबसे बड़ा प्रश्न यह रहता था कि संघ के स्वयंसेवक की पहचान कैसे हो, संघ के कार्यकर्ता पर कोई पहचान-पत्र तो होता नहीं और न ही संघ में उनका पंजीयन होता है। ऐसे में कई कार्यकर्ता अपने हिंदी उच्चारण के कारण में पकड़े गए। यानी भाषा से उनकी पहचान की गई।
'संगठनात्मक योगदान' अध्याय में संघ के प्रचारक मुकुल कानिटकर का महत्वपूर्ण लेख शामिल है, जिसमें उन्होंने भारतीय शिक्षण मंडल का विस्तृत परिचय दिया है। यह मात्र एक संगठन का परिचय नहीं है, बल्कि एक झलक है कि संघ की प्रेरणा से विभिन्न क्षेत्रों में ऐसे अनेक संगठन कार्य कर रहे हैं। कुछेक संगठनों का अत्यंत संक्षिप्त परिचय इस समीक्षा/लेख के अकिंचन लेखक ने भी आलेख 'संघ : बीज से वटवृक्ष' में देने का प्रयास किया है। अकसर आरएसएस का उल्लेख भारतीय जनता पार्टी के साथ ही किया जाता है। दरअसल, संघ की सांस्कृतिक पहचान पर राजनीतिक लेबल चस्पा करने का यह तुच्छ प्रयास है। विरोधी प्रयास करते हैं कि संघ को राजनीतिक संगठन साबित कर, समाज में उसके विस्तार एवं स्वीकार्यता को सीमित किया जाए। किंतु, वह सफल नहीं हो पाते, क्योंकि संघ को समझते नहीं हैं। 'संघ और राजनीति' अध्याय में इसी लेखक ने यह बताने का प्रयास किया है कि संघ के लिए 'प्राथमिकता में नहीं है राजनीति'
            'ध्येय पथ' में  संपादक प्रो. द्विवेदी ने 'स्त्री शक्ति और संघ' अध्याय को शामिल कर उचित ही जवाब उन मूढ़ों को दिया है, जो बिना जाने यह आरोप लगाते हैं कि संघ में महिलाओं के लिए कोई स्थान नहीं है। डॉ. प्रेरणा चतुर्वेदी और संगीता सचदेव ने अपने आलेखों में इस बात पर विस्तार से प्रकाश डाला है कि संघ किस विधि स्त्री शक्ति के मध्य कार्य कर रहा है। संघ न केवल महिलाओं के मध्य कार्य कर रहा है, बल्कि समाज में स्त्री शक्ति की भूमिका को सशक्त कर रहा है। राष्ट्रसेविका समिति एवं दुर्गा वाहिनी जैसे संगठन मातृशक्ति में आत्मविश्वास भर रहे हैं। इसके अलावा अन्य संगठनों के माध्यम से भी मातृशक्ति अपना योगदान दे रही है। इसके साथ ही एक अध्याय में यह भी बताया गया है कि संघ अब भी अपनी नीति 'प्रसिद्धिपरांगमुखता' में भरोसा करता है, किंतु अब उसने जनसंचार माध्यमों से मित्रता करना प्रारंभ कर दिया है। जनसंचार माध्यमों से यह मित्रता 'संघ के प्रचार' के लिए नहीं है, संघ को आज तो कतई प्रचार की आवश्यकता नहीं है, यह मित्रता तो समाज में चल रहे 'सकारात्मक एवं रचनात्मक कार्यों' के प्रचार-प्रसार के लिए है। इसके अलावा समाज से संवाद बढ़ाना भी एक उद्देश्य है, ताकि संघ विरोधियों द्वारा फैलाए भ्रमों का समुचित प्रत्युत्तर दिया जा सके। इसके साथ ही और भी महत्वपूर्ण आलेख इस पुस्तक में शामिल हैं, जो संघ के प्रति हमारी समझ को बढ़ाते हैं। पुस्तक के आखिर में 'संघ : एक परिचय, दृष्टि और दर्शन' अध्याय को शामिल किया गया है। यह अध्याय हमें संघ की बुनियादी रचना और जानकारी देता है, यथा- आरएसएस क्या है, उसका उद्देश्य, शाखा क्या है, शाखा में क्या होता है, स्वयंसेवक की परिभाषा क्या है? इसके साथ ही ऐसे और भी प्रश्नों के माध्यम से जानकारी देने का प्रयास किया गया है, जो अमूमन पूछे जाते हैं।
            बारह अध्यायों में 36 आलेखों को समेटे 'ध्येय पथ' वर्तमान सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत को समर्पित है। पुस्तक में कुछ 262 पृष्ठ हैं। मुखपृष्ठ आकर्षक बन पड़ा है, जो बरबस ही पाठकों को आकर्षित करता है। पुस्तक का प्रकाशन दिल्ली के 'यश पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर्स' ने किया है। प्रकाशक ने जनवरी, 2018 में दिल्ली के प्रगति मैदान में आयोजित विश्व पुस्तक मेले में पुस्तक को पाठकों के समक्ष प्रस्तुत किया था, जिसे पाठकों ने हाथों-हाथ लिया। अपनी समृद्ध एवं विविध सामग्री के कारण पुस्तक ने संघ संबंधी साहित्य में शीघ्र ही अपना स्थान बना लिया है। संघ को जानने और समझने का प्रयास करने वाले सभी प्रकार के लोगों को यह पुस्तक पढऩी चाहिए। इस 'पुस्तक-चर्चा आलेख' को मैं लेखक प्रो. संजय द्विवेदी के संपादकीय के अंतिम हिस्से के साथ पूर्ण करना चाहूँगा- 'एक संगठन जब अपनी सौ साल की आयु पूरी करने की तरफ बढ़ रहा है तो उसके बारे में उठे सवालों, जिज्ञासाओं, उसके अवदान, उसकी भविष्य की तैयारियों पर बातचीत होनी ही चाहिए। आशा है कि यह पुस्तक इस सिलसिले में एक अग्रगामी भूमिका निभाएगी तथा विमर्श और चिंतन के नये द्वार खोलेगी।'
पुस्तक  : ध्येय पथ : राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नौ दशक
संपादक  : प्रो. संजय द्विवेदी
मूल्य  :  250 रुपये (पेपरबैक), 650 रूपए (सजिल्द)
पृष्ठ : 262
प्रकाशक  :  यश पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर्स
                  1/10753, सुभाष पार्क, नवीन शाहदरा,
                  दिल्ली-110032

(समीक्षक माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में सहायक प्राध्यापक हैं और विश्व संवाद केंद्र, भोपाल के कार्यकारी निदेशक हैं।)

मंगलवार, 20 फ़रवरी 2018

नंदकिशोर त्रिखाः पत्रकारिता के आचार्य

-संजय द्विवेदी
  इस कठिन समय में जब पत्रकारिता की प्रामणिकता और विश्वसनीयता दोनों पर गहरे सवाल खड़े हो रहे हों, डा. नंदकिशोर त्रिखा जैसे पत्रकार, संपादक, मीडिया प्राध्यापक के निधन का समाचार विह्वल करने वाला है। वे पत्रकारिता के एक ऐसे पुरोधा थे जिसने मूल्यों के आधार पर पत्रकारिता की और बेहद प्रामाणिक लेखन किया। अपने विचारों और विश्वासों पर अडिग रहते हुए संपादकीय गरिमा को पुष्ट किया। उनका समूचा व्यक्तित्व एक अलग प्रकार की आभा और राष्ट्रीय चेतना से भरा-पूरा था। भारतीय जनमानस की गहरी समझ और उसके प्रति संवेदना उनमें साफ दिखती थी। वे लिखते, बोलते और विमर्श करते हुए एक संत सी धीरता के साथ दिखते थे। वे अपनी प्रस्तुति में बहुत आकर्षक भले न लगते रहे हों किंतु अपनी प्रतिबद्धता, विषय के साथ जुड़ाव और गहराई के साथ प्रस्तुति उन्हें एक ऐसे विमर्शकार के रूप में स्थापित करती थी, जिसे अपने प्रोफेशन से गहरी संवेदना है। इन अर्थों में वे एक संपादक और पत्रकार के साथ पत्रकारिता के आचार्य ज्यादा दिखते थे।
  नवभारत टाइम्स, लखनऊ के संपादक, माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल के पत्रकारिता विभाग के संस्थापक अध्यक्ष, एनयूजे के  माध्यम से पत्रकारों के हित की लड़ाई लड़ने वाले कार्यकर्ता, लेखक, सामाजिक कार्यकर्ता, संस्कृतिकर्मी जैसी उनकी अनेक छवियां हैं, लेकिन वे हर छवि में संपूर्ण हैं। पत्रकारिता विश्वविद्यालय, भोपाल में उनके छोटे से कार्यकाल की अनेक यादें यहां बिखरी पड़ी हैं। समयबद्धता और कक्षा में अनुशासन को उनके विद्यार्थी आज भी याद करते हैं। ये विद्यार्थी आज मीडिया में शिखर पदों पर हैं लेकिन उन्हें उनके बेहद अनुशासनप्रिय प्राध्यापक डा. त्रिखा नहीं भूले हैं। प्रातः 8 बजे की क्लास में भी वे 7.55 पर पहुंच जाने का व्रत निभाते थे। वे  ही थे, जिन्हें अनुशासित जीवन पसंद था और वे अपने बच्चों से भी यही उम्मीद रखते थे। समय के पार देखने की उनकी क्षमता अद्भुत थी। वे एक पत्रकार और संपादक के रूप में व्यस्त रहे, किंतु समय निकालकर विद्यार्थियों के लिए पाठ्यपुस्तकें लिखते थे। उनकी किताबें हिंदी पत्रकारिता की आधारभूत प्रारंभिक किताबों  में से एक हैं। खासकर समाचार संकलन और प्रेस विधि पर लिखी गयी उनकी किताबें दरअसल हिंदी में पत्रकारिता की बहुमूल्य पुस्तकें हैं। हिंदी में ऐसा करते हुए न सिर्फ वे नई पीढ़ी के लिए पाथेय देते हैं बल्कि पत्रकारिता के शिक्षण और प्रशिक्षण की बुनियादी चिंता करने वालों में शामिल हो जाते हैं। इसी तरह दिल्ली और लखनऊ में उनकी पत्रकारिता की उजली पारी के पदचिन्ह बिखरे पड़े हैं। वे ही थे जो निरंतर नया विचार सीखते, लिखते और लोक में उसका प्रसार करते हुए दिखते रहे हैं। उनकी एक याद जाती है तो दूसरी तुरंत आती है। एनयूजे के माध्यम से पत्रकार हितों में किए गए उनके संघर्ष बताते हैं कि वे सिर्फ लिखकर मुक्त होने वालों में नहीं थे बल्कि सामूहिक हितों की साधना उनके जीवन का एक अहम हिस्सा रही है। डॉ. त्रिखा छह वर्ष भारतीय प्रेस परिषद् के भी सदस्य रहे ।उन्होंने 1963 से देश के अग्रणी राष्ट्रीय दैनिक नवभारत टाइम्स में विशेष संवाददाता, वरिष्ठ सहायक-संपादक, राजनयिक प्रतिनिधि और स्थानीय संपादक के वरिष्ठ पदों पर कार्य किया । उससे पूर्व वे संवाद समिति हिन्दुस्थान समाचार के काठमांडू (नेपाल), उड़ीसा और दिल्ली में ब्यूरो प्रमुख और संपादक रहे ! अपने इस लम्बे पत्रकारिता-जीवन में उन्होंने देश-विदेश की ज्वलंत समस्याओं पर हजारों लेख, टिप्पणिया, सम्पादकीय, स्तम्भ और रिपोर्ताज लिखे।

   विचारों के प्रति गहरी प्रतिबद्धता के बावजूद उनकी समूची पत्रकारिता में एक गहरी अंतर्दृष्टि, संवेदनशीलता, मानवीय मूल्य बोध, तटस्थता के दर्शन होते हैं। उनके संपादन में  निकले अखबार बेहद लोकतांत्रिकता चेतना से लैस रहे। वे ही थे जो सबको साध सकते थे और सबके साथ सधे कदमों से चल सकते थे। उनका संपादक सभी विचारों- विचार प्रवाहों को स्थान देने की लोकतांत्रिक चेतना से भरा-पूरा था। जीवन में भी वे इतने ही उदार थे। यही उदात्तता दरअसल भारतीयता है। जिसमें स्वीकार है, तिरस्कार नहीं है। वे व्यक्ति और विचार दोनों के प्रति गहरी संवेदना से पेश आते थे। उन्हें लोगों को सुनने में सुख मिलता था। वे सुनकर, गुनकर ही कोई प्रतिक्रिया करते थे। इस तरह एक मनुष्य के रूप में उन्हें हम बहुत बड़ा पाते हैं। आखिरी सांस तक उनकी सक्रियता ने हमें सिखाया है किस बड़े होकर भी उदार, सक्रिय और समावेशी हुआ जा सकता है। वे रिश्तों को जीने और निभाने में आस्था रखते थे। उनके मित्रों में सत्ताधीशों से लेकर सामान्य जन सभी शामिल थे। लेकिन संवेदना के तल पर वे सबके लिए समभाव ही रखते थे।  बाद के दिनों उनकी किताबें बड़े स्वरूप में प्रकाशित हुयीं जिसे माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय ने प्रकाशित किया। अंग्रेजी में उनकी किताब रिपोर्टिंग आज के विद्यार्थियों को ध्यान में रखकर लिखी गयी है। इसी तरह प्रेस ला पर उनकी किताब बार-बार रेखांकित की जाती है। वे हमारे समय के एक ऐसे लेखक और संपादक थे जिन्हें हिंदी और अंग्रेजी भाषाओं पर समान अधिकार था। वे अपने जीवन और लेखन में अगर किसी एक चीज के लिए याद किए जाएंगें तो वह है प्रामणिकता। मेरे जैसे अनेक पत्रकारों और मीडिया प्राध्यापकों के लिए वे हमेशा हीरो की तरह रहे हैं जिन्होंने खुद को हर जगह साबित किया और अव्वल ही रहे। हिंदी ही नहीं समूची भारतीय पत्रकारिता को उनकी अनुपस्थिति ने आहत किया है। आज जब समूची पत्रकारिता बाजारवाद और कारपोरेट के प्रभावों में अपनी अस्मिता संरक्षण के संघर्षरत है, तब डा. नंदकिशोर त्रिखा की याद बहुत स्वाभाविक और मार्मिक हो उठती है।

बुधवार, 14 फ़रवरी 2018

मुज्जफर हुसैनः हम तुम्हें यूं भुला ना पाएंगें


                                          -संजय द्विवेदी

    मुंबई की सुबह और शामें बस ऐसे ही गुजर रही थीं। एक अखबार की नौकरी,लोकल ट्रेन के घक्के,बड़ा पाव और ढेर सी चाय। जिंदगी में कुछ रोमांच नहीं था। इस शहर में बहुत कम लोग थे, जिन्हें अपना कह सकें। पैसे इतने कम कि मनोरंजन के बहुत उपलब्ध साधनों से दूर रहना जरूरत और विवशता दोनों ही थी। ऐसे कठिन समय में जिन लोगों से मुलाकात ने मेरी जिंदगी में बहुत से बदलाव किए, लगा कि लिखकर भी व्यस्त और मस्त रहा जा सकता है, उन्हीं में एक थे पद्मश्री से अलंकृत वरिष्ठ पत्रकार-स्तंभकार-अप्रतिम वक्ता श्री मुजफ्फर हुसैन। 13फरवरी,2018 की रात जब श्री मुजफ्फर हुसैन के निधन की सूचना मिली, तबसे मुंबई में बीता सारा समय चलचित्र की भांति आंखों के सामने तैर रहा है।
   श्री मुजफ्फर हुसैन हमारी जिंदगी में एक ऐसी जगह रखते थे, जो उनकी अनुपस्थिति में  और ज्यादा महसूस हो रही है। उनका घर और उनकी धर्मपत्नी नफीसा आंटी सब याद आते हैं। एक याद जाती है, तो तुरंत दूसरी आती है। लिखने का उनका जुनून, लगभग हर भारतीय भाषा के अखबारों में उनकी निरंतर उपस्थिति, अद्भुत भाषण कला, संवाद की आत्मीय शैली,सादगी सारा कुछ याद आता है। सत्ता के शिखर पुरुषों से निकटता के बाद भी उनसे एक मर्यादित दूरी रखते हुए, उन्होंने सिर्फ कलम के दम पर अपनी जिंदगी चलाई। वे सही मायने में हिंदी के सच्चे मसिजीवी पत्रकार थे। नौकरी बहुत कम की। बहुत कम समय देवगिरि समाचार, औरंगाबाद के संपादक रहे। एक स्वतंत्र लेखक, पत्रकार और वक्ता की तरह वे जिए और अपनी शर्तों पर जिंदगी काटी। सच कहें तो यह उनका ही चुना हुआ जीवन था। मनचाही जिंदगी थी। वे चाहते तो क्या हो सकते थे, क्या पा सकते थे यह कहने की आवश्यक्ता नहीं है। भाजपा और संघ परिवार के शिखर पुरुषों से उनके अंतरंग संबंध किसी से छिपे नहीं थे। लेकिन उन्हें पता था कि वे एक लेखक हैं, पत्रकार हैं और उनकी अपनी सीमाएं हैं।
    वे लिखते रहे एक विचार के लिए, एक सपने के लिए,ताजिंदगी और अविराम। भारतीय मुस्लिम समाज को भारतीय नजर से देखने और व्याख्यायित करने वाले वे विरले पत्रकारों में थे। अरब देशों और वैश्विक मुस्लिम दुनिया को भारतीय नजरों से देखकर अपने राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में समाचार पत्रों में प्रस्तुत करने वाले वे ही थे। वे ही थे जो भारतीय मुस्लिमों को एक राष्ट्रीय प्रवाह में शामिल करने के स्वप्न देखते थे। उन्हें अपनी मातृभूमि और उसके लोगों से प्यार था। वे भारतीयता और इस देश के सपनों को जीने वाले पत्रकार थे। उन्हें संवाद प्रिय था। वे अपनी प्रिय भाषा हिंदी में लिखते, बोलते और संवाद करते हुए देश भर के दुलारे बने। श्री अटलबिहारी वाजपेयी से लेकर उन दिनों के संघ प्रमुख श्री केसी सुदर्शन अगर उनकी प्रतिभा के प्रशंसक थे, तो यह अकारण नहीं था।
  आज कंगूरों पर बैठे लोगों को शायद श्री मुजफ्फर हुसैन नजर न आएं, किंतु जिन्हें परंपरा के पाठ का तरीका पता है, वे अपने इस बुजुर्ग को यूं भुला न पाएंगें। जिन दिनों में भारतीयता और भारतबोध जैसी बातें मुख्यधारा के मीडिया में अछूत थीं, उन्हीं दिनों में सिर्फ पांचजन्य जैसे पत्रों में ही नहीं, देश के हर भाषा के बड़े अखबार मुजफ्फर हुसैन को सम्मान के साथ छापते थे। अखबारों में छपने वाले लेखों से ही उनकी जिंदगी चलती थी। इसलिए उन्हें मसिजीवी कहना अकारण नहीं है। वे सही मायने में कलम के हो गए थे। एक विचार के लिए जीना और उसी के लिए अपनी समूची प्रतिभा, मेघा, लेखन और जीवन को समर्पित कर देना उनसे सीखा जा सकता है।
  आज जब वे नहीं हैं तो उनकी पत्रकारिता से कई बातें सीख सकते हैं। पहला है उनका साहस और धारा के विरूद्ध लिखने का । दूसरा वे सिद्धांतनिष्ठ जीवन, ध्येयनिष्ठ जीवन का भी उदाहरण हैं। वे पल-पल बदलने वाले लोगों में नहीं हैं। जीवन के कठिन संघर्ष उनमें अपने विचार के प्रति आस्था कम नहीं करते। वे अपने लेखन में कड़वाहटों से भरे नहीं हैं, बल्कि इस महादेश की समस्याओं के हल खोजते हैं। वे सुविधाजनक सवाल नहीं उठाते बल्कि असुविधाजनक प्रश्नों से टकराते हैं। वे अपने मुस्लिम समाज में भारतीयता का भाव भरने के लिए सवाल खड़े करते हैं और अभिव्यक्ति के खतरे भी उठाते हैं। उन पर हुए हमले, विरोधों ने उन्हें अपने विचारों के प्रति और अडिग बनाया। वे वही कहते,लिखते और बोलते थे जो उनके अपने मुस्लिम समाज और राष्ट्र के हित में था। वे कट्टरपंथियों की धमकियों से डरकर रास्ते बदलने वाले लोगों में नहीं थे। उनके लिए राष्ट्र और उसके लोग सर्वोपरि थे। अपने इन्हीं विचारों के नाते देश भर में वे आमंत्रित किए जाते थे। लोग उन्हें ध्यान से सुनते और गुनते थे। एक प्रखर वक्ता, सम्मोहक व्यक्तित्व के रूप में वे हर सभा का गौरव बने रहे। भारत, भारतप्रेम की प्रस्तुति से उनका शब्द-शब्द ह्दय में उतरता था। उन्हें मुझे मुंबई से लेकर भोपाल,रायपुर, बिलासपुर की अनेक सभाओं में सुनने का अवसर मिला। उनके अनेक आयोजनों का संचालन करते हुए, साथ रहने का अवसर मिला। यूं लगता था, जैसे मां सरस्वती उनके कंठ से बरस रही हैं। वे कश्मीर, देश विभाजन जैसे प्रश्नों पर बोलते तो स्वयं उनकी आंखों से आंसू झरने लगते। सभा में मौजूद लोगों की आंखें पनीली हो जाती थीं। ऐसा आत्मीय और भावनात्मक संवाद वही कर सकता है जिसकी कथनी-करनी, वाणी और कर्म में अंतर न हो। वे ह्दय से ह्दय का संवाद करते थे। इसलिए उनकी वाणी आज भी कानों में गूंजती है। महाराष्ट्र के अनेक नगरों में गणेशोत्वों पर दिए गए उनके व्याख्यान एक बौद्धिक उपलब्धि हैं।
   इन चार दशकों में उनका लिखा-बोला गया विपुल साहित्य उपलब्ध है। दैनिक अखबारों समेत, पांचजन्य जैसे पत्रों में उन्होंने नियमित लिखा है। उस पूरे साहित्य को एकत्र कर उनके लेखन का समग्र प्रकाशित होना चाहिए। केंद्र और महाराष्ट्र सरकार को उनकी स्मृति को संरक्षित करने के लिए कुछ सचेतन प्रयास करने चाहिए। वे अपनी परंपरा के बिरले पत्रकारों में हैं। वे भारतीय पत्रकारिता में साहस, धैर्य,प्रतिभा, स्वावलंबन और वैचारिक चेतना के प्रतीक भी हैं। लोकजागरण के लिए पत्रकारिता के माध्यम से उन्होंने जो प्रयास किए उनको रेखांकित करते हुए कुछ प्रयत्न उनसे जुड़े लोग और संस्थाएं भी कर सकती हैं। राष्ट्रवादी पत्रकारिता के तो वे शिखर हैं ही, उनकी स्मृति हमें संबल देगी, इसमें दो राय नहीं हैं। किंतु इससे जरूरी यह भी है कि उनके जाने के बाद, उनकी स्मृति संरक्षण के लिए हम क्या प्रयास करते हैं, ताकि आने वाली पीढ़ियां याद कर सकें कि इस घरती पर एक मुजफ्फर हुसैन नाम का पत्रकार भी रहा, जिसने बिना बड़े अखबारों की कुर्सियों के भी, सिर्फ कलम के दम पर अपनी बात कही और देश ने उसे बहुत ध्यान से सुना। इन दिनों जब भारतीय पत्रकारिता की प्रामणिकता और विश्वसनीयता पर गहरे काले बादल छाए हुए हैं तब श्री मुजफ्फर हुसैन  का जाना एक बड़ा शून्य रच रहा है, जिसे भर पाना कठिन है, बहुत कठिन।

बुधवार, 3 जनवरी 2018

बृजलाल द्विवेदी सम्मान से अलंकृत किए जाएंगें ‘अलाव’ के संपादक रामकुमार कृषक

       

भोपाल, 4 जनवरी, 2018। हिंदी की साहित्यिक पत्रकारिता को सम्मानित किए जाने के लिए दिया जाने वाला पं. बृजलाल द्विवेदी अखिल भारतीय साहित्यिक पत्रकारिता सम्मान इस वर्ष अलाव’ (दिल्ली) के संपादक श्री रामकुमार कृषक  को दिया जाएगा।
      श्री रामकुमार कृषक  साहित्यिक पत्रकारिता के एक महत्वपूर्ण हस्ताक्षर होने के साथ-साथ देश के जाने-माने संस्कृतिकर्मी,कवि एवं लेखक हैं। 1989 से वे लोकोन्मुख साहित्य चेतना पर केंद्रित महत्वपूर्ण पत्रिका अलाव’ का संपादन कर रहे हैं।
    सम्मान कार्यक्रम आगामी 4फरवरी2018 को गांधी भवनभोपाल में दिन में 11 बजे आयोजित किया गया है। मीडिया विमर्श पत्रिका के कार्यकारी संपादक संजय द्विवेदी ने बताया कि आयोजन में अनेक साहित्कारबुद्धिजीवी और पत्रकार हिस्सा लेगें। पुरस्कार के निर्णायक मंडल में सर्वश्री विश्वनाथ सचदेव,  रमेश नैयरडा. सच्चिदानंद जोशी शामिल हैं।
         इसके पूर्व यह सम्मान वीणा(इंदौर) के संपादक स्व. श्यामसुंदर व्यासदस्तावेज(गोरखपुर) के संपादक विश्वनाथ प्रसाद तिवारीकथादेश (दिल्ली) के संपादक हरिनारायणअक्सर (जयपुर) के संपादक डा. हेतु भारद्वाजसद्भावना दर्पण (रायपुर) के संपादक गिरीश पंकजव्यंग्य यात्रा (दिल्ली) के संपादक डा. प्रेम जनमेजय,कला समय के संपादक विनय उपाध्याय (भोपाल) संवेद के संपादक किशन कालजयी(दिल्ली) और अक्षरा(भोपाल) के संपादक कैलाशचंद्र पंत को दिया जा चुका है। त्रैमासिक पत्रिका ‘मीडिया विमर्श’ द्वारा प्रारंभ किए गए इस अखिलभारतीय सम्मान के तहत साहित्यिक पत्रकारिता के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान करने वाले संपादक को ग्यारह हजार रूपएशालश्रीफलप्रतीकचिन्ह और सम्मान पत्र से अलंकृत किया जाता है।    
कौन हैं रामकुमार कृषकः 1 अक्टूबर, 1943 को अमरोहा (मुरादाबाद-उप्र) के एक गांव गुलड़िया में जन्मे रामकुमार कृषक ने मेरठ विश्वविद्यालय से हिंदी में एमए की उपाधि और प्रयाग विवि से साहित्यरत्न की उपाधि प्राप्त की। दिल्ली में लंबे समय पत्रकारिता की। अध्यापन और लेखन करते हुए आठवें दशक के प्रमुख प्रगतिशील-जनवादी कवियों में शुमार हुए। गजल और गीत विधाओं में विशेष योगदान के साथ-साथ कहानी, संस्मरण, साक्षात्कार और आलोचना आदि गद्य विधाओं में भी उल्लेखनीय स्थान। सात कविता संग्रहों के अलावा विविध विधाओं में एक दर्जन से अधिक किताबें प्रकाशित।1978 से 1992 तक राजकमल प्रकाशन में संपादक और संपादकीय प्रमुख रहे।  1989 से अलाव पत्रिका के संपादक।