शनिवार, 8 अगस्त 2015

खो रही है चमकः कुछ करिए सरकार

-संजय द्विवेदी

  नरेंद्र मोदी के चाहने वाले भी अगर उनकी सरकार से निराशा जताने लगे हों तो यह उनके संभलने और विचार करने का समय है। कोई भी सरकार अपनी छवि और इकबाल से ही चलती है। चाहे जिस भी कारण से अगर आपके चाहने वालों में भी निराशा आ रही है तो आपको सावधान हो जाना चाहिए।
   नरेंद्र मोदी की सरकार पहले दिन से ही अपने विरोधियों के निशाने पर है। दिल्ली में बसनेवाला एक बड़ा वर्ग उन्हें आज भी स्वीकार नहीं करता। उनका प्रधानमंत्री बनना उनकी उम्मीदों और आशाओं पर तुषारापात जैसा ही था। नरेंद्र मोदी अपनी छवि और वकृत्वकला के चलते ही भले ही लोगों के लिए आकर्षण का केंद्र बने हुए हैं किंतु एक बड़ी बौद्धिक दुनिया के लिए वे नफरत के ही पात्र हैं। इसलिए उनके हर फैसले और वक्तव्य की नुक्ताचीनी होती है। यूपीए-3 के इंतजार में बैठे बौद्धिकों-मीडिया के एक खास तबके लिए नरेंद्र मोदी की सरकार का पूर्ण बहुमत में आना एक ऐसा झटका था, जिससे वे आज तक उबरे नहीं हैं। इसलिए विरोधियों की जमात से आलोचना के स्वरों का बहुत मतलब नहीं है किंतु अगर राहुल बजाज जैसे उनके प्रशंसक भी निराश दिखते हैं तो सवाल उठता है कि आखिर गड़बड़ कहां हो रही है? जब मोदी आए तो उनके साथ सपनों की एक लंबी फेहरिस्त थी। उन्होंने उम्मीदें जगायीं और लोगों ने उनको स्वीकार किया। यह उम्मीदें और सपने ही अब उनका पीछा कर रहे हैं। यह पीछा ऐसा कि नरेंद्र मोदी उनसे पीछा नहीं छुड़ा सकते।
    उद्योग जगत में तमाम चिंताएं व्याप्त हैं, तो लोगों को भी लगने लगा है कि बदलाव की गति बहुत धीमी है। सरकार के काम करने का तरीका और उसका तंत्र अपेक्षित संवेदनाओं से युक्त नहीं है। उनकी वही चाल है और लोगों को परेशान करने वाली शैली बदस्तूर है। भारतीय नौकरशाही का चरित्र अपने आप में बहुत अजूबा है और वह राजनीतिक तंत्र को अपने हिसाब से अनूकूलित कर लेने की कला में बहुत प्रवीण है। यही तंत्र अंततः जनविरोधी तंत्र में बदल जाता है। सामान्य तरीके संघर्ष कर संसद और फिर मंत्रालयों में पहुंचे जनप्रतिनिधि अचानक खास वर्ग के प्रतिनिधि बन जाते हैं। सत्ता और प्रशासन का तंत्र उन्हें आम आदमी से काट देता है। नौकरशाही उनकी माई-बाप बन जाती है। नरेंद्र मोदी भी बहुलतः नौकरशाही के आधारतंत्र पर भरोसा करने वाले और राजनीतिक तंत्र को दूसरे दर्जे पर रखने वाले राजनेता हैं। इससे राजनीतिक तंत्र की शक्ति तो कम होती ही है और नौकरशाही भी बेलगाम हो जाती है। मंत्रियों और नौकरशाही के बीच के तनावपूर्ण संबंध विकसित होते हैं और काम पीछे छूटता है। आज हालात यह हैं कि एनडीए सांसदों के बीच भी अपनी ही सरकार के प्रति गहरा असंतोष है। यह असंतोष संवादहीनता, काम की शिथिल गति, समस्याओं के समाधान के लिए उदासीन रवैये से पनपा है। शायद इसीलिए उद्योगपति राहुल बजाज की चेतावनी को अनसुना करने का समय नहीं हैं। केंद्र सरकार को यह मान लेना चाहिए कि राहुल बजाज, कोई शत्रुध्न सिन्हा नहीं हैं। वे एक जाने-माने उद्योगपति और सही बातें कहने वाले व्यक्ति हैं। ऐसे व्यक्ति की चेतावनी को अनसुना कर केंद्र सरकार और भाजपा अपना ही नुकसान करेगी।
   सरकार को इस बात पर गंभीरता से सोचने की जरूरत है कि 2014 में जो महानायक हमें मिला था आज उसकी चमक फीकी क्यों पड़ रही है? ऐतिहासिक विजय का शिल्पकार क्यों बड़े सवालों पर बात नहीं करता? भारत जैसे देश में जहां एक बड़ी युवा आपकी तरफ उम्मीदों से देख रही है, उसके सपनों को संबोधित करना नेतृत्व की जिम्मेदारी है। इसके साथ ही राष्ट्रीय सुरक्षा और आतंकवाद की बढ़ती गतिविधियों पर केंद्र की अपेक्षित सक्रियता का इंतजार है। विपक्ष के आरोपों से पूरी सरकार हिलती हुयी नजर आ रही है और बिना कुछ गलत किए खुद को कटघरे में पा रही है। नरेंद्र मोदी जैसे नेता के लिए इंतजार भारी पड़ सकता है, क्योंकि वे एक ऐसे प्रधानमंत्री हैं जो उम्मीदों के पहाड़ पर ही खड़ा है। नरेंद्र मोदी की सरकार की विफलता को मनमोहन की विफलता से मत जोड़िए, क्योंकि मनमोहन सिंह की सरकार एक मजबूर सरकार थी, जिससे लोगों को बहुत उम्मीदें नहीं थीं। आज मोदी की सरकार लोगों के सपनों, उम्मीदों और आकांक्षाओं की सरकार है। किंतु वह उन्हीं कठघरों में उलझ रही है जिनके चलते मनमोहन सरकार विफल हुयी।
   नौकरशाही पर ज्यादा भरोसा, राजनीतिक तंत्र की उपेक्षा, मंत्रियों का अंहकार और सांसदों की निराशा इस सरकार का सबसे बड़ा संकट है। सरकार को संभालने और संवाद के माध्यम से चीजों को दुरूस्त कर सकने वाले मार्गदर्शक भी कोप भवन में हैं। लालकृष्ण आडवानी, डा. मुरली मनोहर जोशी और यशवंत सिन्हा जैसे नेताओं का उपयोग क्राइसिस मैनेजमेंट के लिए हो सकता था। वे सरकार और कार्यकर्ताओं के बीच संवादसेतु भी बन सकते थे। किंतु एक पूरी पीढ़ी को घर बिठाकर, सरकार उनके विकल्प में समर्थ संवादकर्ता तंत्र विकसित नहीं कर पाई। एक अकेले प्रधानमंत्री और उनके सेनापति अमित शाह को अपनी क्षमताओं पर जरूरत से ज्यादा भरोसा नहीं करना चाहिए। अंततः एक विशाल परिवार की पार्टी होने के नाते भाजपा को संवाद के कई तल खोलने ही होगें। जहां लोगों के काम भले न हों पर बातें तो सुन ली जाएं। इस मामले में भाजपा की सांगठनिक विफलता और सरकारी दिशाहीनता दोनों ही उसे नुकसान पहुंचाएगी।

   जिस नौकरशाही ने आजतक किसी भी सरकार को चलने नहीं दिया और उसे उसके सपनों के साथ ही दफन कर दिया। जो नौकरशाही खुद को असली शासक मानने के अहंकार से भरी हुई हैं, वह इस देश में लोकतंत्र को वास्तविक लोकतंत्र में बदलने में सबसे बड़ी बाधक है। नरेंद्र मोदी और उनके सहयोगी इस बात को जितनी जल्दी समझ लेगें, चमक खोती सरकार की छवि को बचाने में वे उतने ही कामयाब हो पाएंगें। सरकार पांच साल रहेगी और पांच साल बाद हिसाब पूछिए ऐसा दंभ कभी भी किसी को मुक्ति नहीं देता। हर दिन का हिसाब और हर पल लोगों के लिए और इस देश के जनतंत्र के लिए, यह भावना ही भाजपा की सरकार को सार्थकता देगी। भाजपा को पूर्ण बहुमत लोगों ने जुमलों के लिए नहीं, काम करके दिखाने के लिए दिया  है। बदलाव के लिए दिया था। यह बदलाव का वादा सिर्फ चेहरे का बदलाव नहीं, बल्कि राजनीतिक संस्कृति में बदलाव का भी था। अगर लोग बहुत कम समय में यह कहने लगे हैं कि क्या बदला, सब पहले जैसा है तो सरकार के छवि प्रबंधकों के लिए सचेत होने का समय है। क्योंकि मोदी सरकार की विफलता इस देश की आकांक्षाओं और उसके सपनों की हार होगी।

बुधवार, 5 अगस्त 2015

दीनदयाल जी की याद दिलाती एक किताब




- लोकेन्द्र सिंह
    भारतीय जनता पार्टी के प्रति समाज में जो कुछ भी आदर का भाव है और अन्य राजनीतिक दलों से भाजपा जिस तरह अलग दिखती है, उसके पीछे महामानव पंडित दीनदयाल उपाध्याय की तपस्या है। दीनदयालजी के व्यक्तित्व, चिंतन, त्याग और तप का ही प्रतिफल है कि आज भारतीय जनता पार्टी देश की सबसे बड़ी पार्टी बनकर राजनीति के शीर्ष पर स्थापित हो सकी है। राज्यों की सरकारों से होते हुए केन्द्र की सत्ता में भी मजबूती के साथ भाजपा पहुंच गई है। राजनीतिक पंडित हमेशा संभावना व्यक्त करते हैं कि यदि दीनदयालजी की हत्या नहीं की गई होती तो आज भारतीय राजनीति का चरित्र कुछ और होता। दीनदयालजी श्रेष्ठ लेखक, पत्रकार, विचारक, प्रभावी वक्ता और प्रखर राष्ट्र भक्त थे। सादा जीवन और उच्च विचार के वे सच्चे प्रतीक थे। उन्होंने शुचिता की राजनीति के कई प्रतिमान स्थापित किए थे। उनकी प्रतिभा देखकर ही श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने कहा था कि यदि मेरे पास एक और दीनदयाल उपाध्याय होता तो मैं भारतीय राजनीति का चरित्र ही बदल देता।
                ऐसे राष्ट्रनायक पंडित दीनदयाल उपाध्याय की इस वर्ष जन्मशती प्रारम्भ हो रही है। उन्होंने मानव समाज की पश्चिम की सभी परिकल्पनाओं को नकारते हुए 'एकात्म मानववाद' जैसा अद्भुत और पूर्ण दर्शन दिया। यह वर्ष 'एकात्म मानवदर्शन' का स्वर्ण जयंती वर्ष भी है। पंडितजी की 100वीं जयंती 25 सितम्बर, 2015 से अगले वर्ष तक उन्हें याद किया जाने वाला है। उनकी अपनी पार्टी भाजपा तो सालभर कार्यक्रम करेगी ही अन्य सामाजिक संगठन और लेखक-विचारक भी उनके विचारदर्शन पर मनन-चिंतन-व्याख्यान करने वाले हैं।
   ऐसे महत्वपूर्ण समय में दीनदयाल उपाध्याय के समग्र जीवन को ध्यान में रखकर राजनीतिक विचारक संजय द्विवेदी द्वारा संपादित पुस्तक 'भारतीयता का संचारक, पं. दीनदयाल उपाध्याय' का आना सुखद है। पुस्तक की चर्चा भी प्रासंगिक है। दरअसल, लम्बे समय तक सत्ता रूपी गुलाब जामुन के इर्द-गिर्द पसरी चासनी चाटकर पलते-बढ़ते वामपंथियों ने प्रोपेगंडा फैलाकर भारतीय जनता पार्टी और उसकी विचारधारा को 'राजनीतिक अछूत' की श्रेणी में रखा। अकादमिक संस्थाओं और संचार के संगठनों में बैठकर उन्होंने इस तरह के षड्यंत्र को अंजाम दिया। इस षड्यंत्र को ध्वस्त करने का काम दीनदयालजी ने किया। हालांकि यह भी सच है कि संचार माध्यमों पर वामपंथियों के एकाधिकार के कारण ही दीनदयालजी और उनके विचार को जितना विस्तार मिलना चाहिए था, नहीं मिल सका। अब समय आया है कि दीनदयालजी का असल मूल्यांकन हो। श्यामा प्रसाद मुखर्जी के आग्रह पर दीनदयाल उपाध्याय राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक जीवन से राजनीति में भेजे गए थे। उन्होंने भारतीय राजनीति को एक दर्शन दिया, एक नया विचार दिया और एक नया विकल्प दिया। राष्ट्रवादी विचारधारा के मजबूत स्तम्भ दीनदयालजी ने मानव जीवन के संबंध में दुनिया में प्रचलित परिकल्पनाओं की अपेक्षा कहीं अधिक संपूर्ण दर्शन दिया। वामपंथियों के ढकोसलावादी सिद्धांतों की अपेक्षा दीनदयालजी का एकात्म मानवदर्शन व्यावहारिक था। यही कारण है कि विरोधी विचारधाराओं द्वारा तमाम अवरोध खड़े करने के बाद भी एकात्म मानवदर्शन लोक स्वीकृति पा गया। इसमें सम्पूर्ण जीवन की एक रचनात्मक दृष्टि है। इसमें भारत का अपना जीवन दर्शन है, जो व्यक्ति, समाज और राष्ट्र को टुकड़ों में नहीं, समग्रता में देखता है। दीनदयालजी अपने दर्शन में बताते हैं कि मन, बुद्धि, आत्मा और शरीर इन चारों का मनुष्य में रहना आवश्यक है। इन चारों को अलग-अलग करके विचार नहीं किया जा सकता।
                बहरहाल, जब दीनदयाल उपाध्याय के विलक्षण व्यक्तित्व एवं उनके विचारदर्शन की व्यापक चर्चा का अवसर आया है तो राजनीति, मीडिया और जनसंचार के अध्येताओं को उनके संबंध में अधिक से अधिक संदर्भ सामग्री की आवश्यकता होगी। संजय द्विवेदी द्वारा संपादित पुस्तक 'भारतीयता का संचारक' राजनीतिज्ञों, संचारवृत्तिज्ञों और लेखकों की बौद्धिक भूख को कुछ हद तक शांत करने में सफल होगी। पुस्तक को चार खण्डों में बांटकर दीनदयाल जी के समग्र व्यक्तित्व का आंकलन किया गया है। पहले खण्ड में उनके विचार दर्शन पर चर्चा है। दूसरे खण्ड में उनके संचारक, लेखकीय और पत्रकारीय व्यक्तित्व पर विमर्श है। तीसरे खण्ड 'दस्तावेज' में डॉ. सम्पूर्णानंद, श्रीगुरुजी और नानाजी देशमुख द्वारा उन पर लिखी-बोली गई सामग्री संकलित की गई है। इसी हिस्से में दीनदयाल जी के दो महत्वपूर्ण लेख भी सम्मिलित किए गए हैं, जिनमें से एक भाषा पर है तो दूसरा पत्रकारिता पर है। चौथे अध्याय में एकात्म मानववाद को प्रवर्तित करते हुए दीनदयाल जी के व्याख्यान संकलित किए गए हैं। पंडित दीनदयाल उपाध्याय की ख्याति विश्व को एकात्म मानवदर्शन का चिंतन देने और भारतीय जनता पार्टी के विचार-पुरुष के रूप में हैं। भारतीय राजनीति में उनके अवदान से फिर भी दुनिया भली-भांति परिचित है। लेकिन, पत्रकारिता एवं जनसंचार के क्षेत्र में उनके योगदान को बहुत कम विद्वान जानते हैं। श्री द्विवेदी की पुस्तक के दूसरे अध्याय से गुजरते हुए दीनदयाल जी उपाध्याय की छवि 'भारतीयता के संचारक' के नाते सदैव के लिए अंकित हो जाती है। इस हिस्से में बताया गया है कि कैसे और किन परिस्थितियों में पंडितजी ने भारतीय विचार के प्रचार-प्रसार के लिए पत्रकारिता को माध्यम बनाया। संचार के माध्यमों पर वामपंथियों के कब्जे के बीच उन्होंने राष्ट्रवादी विचार को लोगों तक पहुंचाने के लिए स्वदेश, राष्ट्रधर्म और पाञ्चजन्य की शुरूआत की। पंडितजी ने कंपोजीटर से लेकर संवाददाता तक की भूमिका निभाई थी। इस अध्याय में देखने को मिलता है कि कैसे उन्होंने पत्रकारिता के सिद्धांतों की स्थापना की थी। पुस्तक दूसरे क्षेत्रों में भी उनके चिंतन के दर्शन कराती है। निश्चित ही दीनदयाल जी के आर्थिक चिंतन के बारे में बहुत कम लोग जानते होंगे। कृषि, उद्योग, स्वास्थ्य और शिक्षा के क्षेत्र में भी उनके गहरे चिंतन की जानकारी हमें इस पुस्तक से मिलेगी। दीनदयाल जी संभवत: पहले राजनेता हैं जिनके चिंतन का केन्द्र अंतिम आदमी है। आदमी की बुनियादी जरूरतों के बारे में उन्होंने जिस गहराई से विचार किया, वहां तक भी पहले कोई नहीं पहुंचा था। पंडितजी अधिक व्यावहारिक धरातल पर उतरते हुए कहते हैं कि प्रत्येक अर्थव्यवस्था में न्यूनतम आवश्यकताओं की पूर्ति की गारंटी एवं व्यवस्था अवश्य रहनी चाहिए। न्यूनतम आवश्यकताओं में वे रोटी, कपड़ा और मकान तक ही सीमित नहीं रहते बल्कि उससे आगे जाकर शिक्षा, स्वास्थ्य और सुरक्षा को भी सम्मिलित करते हैं। बहरहाल, अंत्योदय का विचार देने वाले राष्ट्रऋषि दीनदयाल उपाध्याय पर उनके जन्मशती वर्ष में एक सम्पूर्ण पुस्तक का आना वास्तव में शोधार्थियों, राजनीतिज्ञों, पत्रकारों और लेखकों के लिए महत्वपूर्ण है। दीनदयाल जी के समग्र व्यक्तित्व के दर्शन कराने में पुस्तक सफल है। उम्मीद की जानी चाहिए कि इस पुस्तक के बहाने पंडित दीनदयाल उपाध्याय का बिना किसी अवरोध-विरोध के ईमानदारी से विश्लेषण किया जा सकेगा।
                                                               
पुस्तक : भारतीयता का संचारक : पं. दीनदयाल उपाध्याय (संपादकः संजय द्विवेदी)
मूल्य : 500 रुपये (सजिल्द संस्करण), पृष्ठ : 324
प्रकाशक : विज्डम पब्लिकेशन, सी-14, डी.एस.आई.डी.सी. वर्क सेंटर,

झिलमिल कॉलोनी, शाहदरा, दिल्ली-110095

शनिवार, 1 अगस्त 2015

देश को क्यों बांट रहा है मीडिया

कलाम हों रोलमाडल या मेमन सोचना होगा
-संजय द्विवेदी
  काफी समय हुआ पटना में एक आयोजन में माओवाद पर बोलने का प्रसंग था। मैंने अपना वक्तव्य पूरा किया तो प्रश्नों का समय आया। राज्य के बहुत वरिष्ठ नेता, उस समय विधान परिषद के सभापति रहे स्व.श्री ताराकांत झा भी उस सभा में थे, उन्होंने मुझे जैसे बहुत कम आयु और अनुभव में छोटे व्यक्ति से पूछा आखिर देश का कौन सा प्रश्न या मुद्दा है जिस पर सभी देशवासी और राजनीतिक दल एक है?” जाहिर तौर पर मेरे पास इस बात का उत्तर नहीं था। आज जब झा साहब इस दुनिया में नहीं हैं, तो याकूब मेमन की फांसी पर देश को बंटा हुआ देखकर मुझे उनकी बेतरह याद आयी।
   आतंकवाद जिसने कितनों के घरों के चिराग बुझा दिए, भी हमारे लिए विवाद का विषय है। जिस मामले में याकूब को फांसी हुयी है, उसमें कुल संख्या को छोड़ दें तो सेंचुरी बाजार की अकेली साजिश में 113 बच्चे, बीमार और महिलाएं मारे गए थे। पूरा परिवार इस घटना में संलग्न था। लेकिन हमारी राजनीति और मीडिया दोनों इस मामले पर बंटे हुए नजर आए। यह मान भी लें कि राजनीति का तो काम ही बांटने का है और वे बांटेंगें नहीं तो उन्हें गद्दियां कैसे मिलेंगीं? इसलिए हैदराबाद के औवेसी से लेकर दिग्विजय सिंह, शशि थरूर सबको माफी दी जा सकती है कि क्योंकि वे अपना काम कर रहे हैं। वही काम जो हमारी राजनीति ने अपने अंग्रेज अग्रजों से सीखा था। यानी फूट डालो और राज करो। इसलिए राजनीति की सीमाएं तो देश समझता है। किंतु हम उस मीडिया को कैसे माफ कर सकते हैं जिसने लोकजागरण और सत्य के अनुसंधान का संकल्प ले रखा है।
    टीवी मीडिया ने जिस तरह हमारे राष्ट्रपुरूष, प्रज्ञापुरूष, संत-वैज्ञानिक डा. एपीजे अबुल कलाम की खबर को गिराकर तीनों दिन याकूब मेमन को फांसी को ज्यादा तरजीह दी, वह माफी के काबिल नहीं है। प्रिंट मीडिया ने थोड़ा संयम दिखाया पर टीवी मीडिया ने सारी हदें पार कर दीं। एक हत्यारे-आतंकवादी के पक्ष पर वह दिन भर औवेसी को लाइव करता रहा। क्या मीडिया के सामाजिक सरोकार यही हैं कि वह दो कौमों को बांटकर सिर्फ सनसनी बांटता रहे। किंतु टीवी मीडिया लगभग तीन दिनों तक यही करता रहा और देश खुद को बंटा हुआ महसूस करता रहा। क्या आतंकवाद के खिलाफ लड़ना सिर्फ सरकारों, सेना और पुलिस की जिम्मेदारी है? आखिर यह कैसी पत्रकारिता है, जिसके संदेशों से यह ध्वनित हो रहा है कि हिंदुस्तान के मुसलमान एक आतंकी की मौत पर दुखी हैं? आतंकवाद के खिलाफ इस तरह की बंटी हुयी लड़ाई में देश तो हारेगा ही दो कौमों के बीच रिश्ते और असहज हो जाएंगें। हिंदुस्तान के मुसलमानों को एक आतंकी के साथ जोड़ना उनके साथ भी अन्याय है। हिंदुस्तान का मुसलमान क्या किसी हिंदू से कम देशभक्त है? किंतु औवेसी जैसे वोट के सौदागरों को उनका प्रतिनिधि मानकर उन्हें सारे हिंदुस्तानी मुसलमानों की राय बनाना या बताना कहां का न्याय है? किंतु ऐसा हुआ और सारे देश ने ऐसा होते हुए देखा। 
   इस प्रसंग में हिंदुस्तानी टीवी मीडिया के बचकानेपन, हल्केपन और हर चीज को बेच लेने की भावना का ही प्रकटीकरण होता है। आखिर हिंदुस्तानी मुसलमानों को मुख्यधारा से अलग कर मीडिया क्यों देखता है? क्या हिंदुस्तानी मुसलमान आतंकवाद की पीड़ा के शिकार नहीं हैं? क्या जब धमाके होते हैं तो उसका असर उनकी जिंदगी पर नहीं होता? देखा जाए तो हिंदू-मुसलमान दुख-सुख और उनके जिंदगी के सवाल एक हैं। वे भी समान दुखों से  घिरे हैं और समान अवसरों की प्रतीक्षा में हैं। उनके सामने भी बेरोजगारी, गरीबी, मंहगाई के सवाल हैं। वे भी दंगों में मरते और मारे जाते हैं। बम उनके बच्चों को भी अनाथ बनाते हैं। इसलिए यह लड़ाई बंटकर नहीं लड़ी जा सकती। कोई भी याकूब मेमन मुसलमानों का आदर्श नहीं हो सकता। जो एक ऐसा खतरनाक आतंकी है जो अपने परिवार से रेकी करवाता हो, कि बम वहां फटे जिससे अधिक से अधिक खून बहे, हिंदुस्तानी मुसलमानों को उनके साथ जोड़ना एक पाप है। हिंदुस्तानी मुसलमानों के सामने आज यह प्रश्न खड़ा है कि क्या वे अपनी प्रक्षेपित की जा रही छवि के साथ खड़े हैं या वे इसे अपनी कौम का अपमान समझते हैं? ऐसे में उनको ही आगे बढ़कर इन चीजों पर सवाल उठाना होगा। इस बात का जवाब यह नहीं है कि पहले राजीव गांधी के हत्यारों को फांसी दो या बेअंत सिंह के हत्यारों को फांसी दो। अगर 22 साल बाद एक मामले में फांसी की सजा हो रही है तो उसकी निंदा करने का कोई कारण नहीं है। कोई पाप इसलिए कम नहीं हो सकता कि एक अपराधी को सजा नहीं हुई है। हिंदुस्तान की अदालतें जाति या धर्म देखकर फैसले करती हैं यह सोचना और बोलना भी एक तरह का पाप है। फांसी दी जाए या न दी जाए इस बात का एक बृहत्तर परिप्रेक्ष्य है। किंतु जब तक हमारे देश में यह सजा मौजूद है तब तक किसी फांसी को सांप्रदायिक रंग देना कहां का न्याय है?
   कांग्रेस के कार्यकाल में फांसी की सजाएं हुयी हैं तब दिग्विजय सिंह और शशि थरूर कहां थे? इसलिए आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई के सवालों को हल्का बनाना, अपनी सबसे बड़ी अदालत और राष्ट्रपति के विवेक पर संदेह करना एक राजनीतिक अवसरवाद के सिवा क्या है? राजनीति की इसी देशतोड़क भावना के चलते आज हम बंटे हुए दिखते हैं। पूरा देश एक स्वर में कहीं नहीं दिखता, चाहे वह सवाल कितना भी बड़ा हो। हम बंटे हुए लोग इस देश को कैसे एक रख पाएंगें? दिलों को दरार डालने वाली राजनीति,उस पर झूमकर चर्चा करने वाला मीडिया क्या राष्ट्रीय एकता का काम कर रहा है? ऐसी हरकतों से राष्ट्र कैसे एकात्म होगा? राष्ट्ररत्न-राष्ट्रपुत्र कलाम के बजाए याकूब मेमन को अगर आप हिंदुस्तान के मुसलमानों का हीरो बनाकर पेश कर रहे हैं तो ऐसे मीडिया की राष्ट्रनिष्ठा भी संदेह से परे नहीं है? क्या मीडिया को यह अधिकार दिया जा सकता है कि वह किसी भी राष्ट्रीय प्रश्न लोगों को बांटने का काम करे? किंतु मीडिया ने ऐसा किया और पूरा देश इसे अवाक होकर देखता रहा।
   मीडिया का कर्म बेहद जिम्मेदारी का कर्म है। डा. कलाम ने एक बार मीडिया विद्यार्थियों शपथ दिलाते हुए कहा था-मैं मीडिया के माध्यम से अपने देश के बारे में अच्छी खबरों को बढ़ावा दूंगा, चाहे वो कहीं से भी संबंधित हों। शायद मीडिया अपना लक्ष्य पथ भूल गया है। पूरी मीडिया की समझ को लांछित किए बिना यह कहने में संकोच नहीं है कि टीवी मीडिया का ज्यादातर हिस्सा देश का शुभचिंतक नहीं है। वह बंटवारे की राजनीति को स्वर दे रहा है और राष्ट्रीय प्रश्नों पर लोकमत के परिष्कार की जिम्मेदारी से भाग रहा है। सिर्फ दिखने, बिकने और सनसनी फैलाने के अलावा सामान्य नागरिकों की तरह मीडिया का भी कोई राष्ट्रधर्म है पर उसे यह कौन बताएगा। उन्हें कौन यह बताएगा कि भारतीय हिंदुओं और मुसलमानों दोनों के नायक भारतरत्न कलाम हैं न कि कोई आतंकवादी। देश को जोड़ने में मीडिया एक बड़ी भूमिका निभा सकता है, पर क्या वह इसके लिए तैयार है?
(लेखक राजनीतिक विश्लेषक हैं)
  

शनिवार, 25 जुलाई 2015

राजनीति में शुचिता के सवाल



-संजय द्विवेदी

  राजनीति में शुचिता और पवित्रता के सवाल अब हवा हो गए लगते हैं। जोर अब सादगी, शुचिता और ईमानदारी पर नहीं है। आप हमसे अधिक भ्रष्ट हैं, यह कहकर अपने पाप कम करने की कोशिशें की जा रही हैं। समाज इस नजारे को भौंचक होकर देख रहा है। देश के हर राज्य में ऐसी कहानियां पल रही हैं और राजनीति व नौकरशाही दोनों इसे विवश खड़े देख रहे हैं। भ्रष्टाचार की तरफ देखने का हमारा दृष्टिकोण चयनित है। हमारे और तुम्हारे लोगों की जंग में देश छला जा रहा है।
  सवाल यह भी उठने लगा है कि सार्वजनिक जीवन में अब शुचिता और नैतिकता की अपेक्षा करना बेमानी है। जनता भी यह मानकर चलती है कि काम होगा तो भ्रष्टाचार भी होगा,सब चलता है, कौन पाक-साफ है, बिना लिए-दिए आजकल कहां काम होता है। जनता की यह वेदना एक हारे हुए हिंदुस्तान की पीड़ा है।जिसे लगने लगा है कि अब कुछ नहीं हो सकता। उसे लगने लगा है कि देवदूत न तो बैलेट बक्से से निकले हैं न ही वे वोटिंग मशीनों से निकलेंगें। फिर रास्ता क्या है। क्या एक अच्छा समाज बनाने, एक ईमानदार समाज बनाने, एक शुचितापूर्ण सार्वजनिक जीवन का सपना भी छोड़ दिया जाए? जाहिर तौर पर नहीं। ईमानदारी, शुचिता और पवित्रता के गुण एक नैसर्गिक गुण हैं।इनकी अधिकता ही किसी भी समाज और राष्ट्र को आदरणीय बनाती है। इसलिए प्रत्येक समाज और राष्ट्र यह प्रयास करता है कि वह बेहतरी की ओर बढ़े। उनके सार्वजनिक जीवन मूल्यों के आधार पर चलें। समाज में समरसता और समभाव का वातावरण हो। धन के बजाए नैतिक शक्ति को आदर मिले। इसीलिए समाज को मूल्यों पर चलने, मूल्यों को जीने की सीख दी जाती है। अपने पाठ्यक्रमों और दैनिक जीवन में भी इन मूल्यों के अंश डालने की कोशिशें यत्नपूर्वक की जाती हैं। धर्मों और पंथों की छाया में जाएं तो वे भी यही कहते और बताते हुए दिखते हैं। इसलिए इस पूरे वातावरण से निराश होने के बजाए, उजालों की ओर बढ़ना जरूरी है। भारत जैसे देश में जहां मूल्यों का इतना आदर रहा है और तमाम राजपुत्रों ने मूल्यों के लिए अपने पद और सिंहासन छोड़कर जंगलों और गांवों का रूख किया है, उस समाज में ऐसे प्रकरण हैरत में डालते हैं। राम, बुद्ध, महावीर सभी राजपुत्र हैं किंतु वे समाज में मूल्यों की स्थापना के लिए सत्ता के शिखरों को छोड़ते हैं। ऐसा समाज जहां संत-विद्वानों ने अपनी विद्वता से समाज को आलोकित किया है,वहां के सार्वजनिक जीवन में निरंतर आ रही गिरावट चिंता में डालती है। इसका सबसे कारण यह है कि हमने जो व्यवस्थाएं ग्रहण की हैं वे हमारी नहीं है। जो संविधान रचा वह हमारी परंपरा का नहीं है। जो शिक्षा हम ले और दे रहे हैं वह हमारी परंपरा से नहीं है। ऐसे में समाज में भारतीय जीवन मूल्य और भारतीय जीवन शैली कैसे स्थापित हो सकती है। 
  बहुत सपनों और संकल्पों वाला नौजवान भी इस व्यवस्था में अवसर पाकर खुद को संभाल नहीं पाता और अपने स्थापित होने के लिए मूल्यों से समझौतों को विवश हो जाता है। हमारे राजनेता भी इसी के शिकार हैं। इस व्यवस्था में जैसे चुनाव हो रहे हैं, जिस तरह राजनीति निरंतर महंगी होती जा रही है-उसमें क्या बिना काले घन, धन पशुओं और बाहुबलियों की मदद के बिना सफलता मिल सकती है? राजनीतिक दलों का वैचारिक आधार दरक गया है। वे कंपनियों में बदल रही हैं जहां संसदीय दलों का व्यवहार बोर्ड रूम सरीखा ही है। ऐसे में राजनीतिक क्षेत्र में नैतिक मूल्यों के साथ आ रही नई पीढ़ी भी समझौतों को विवश है, क्योंकि व्यवस्था उसे ऐसा बना देती है। राजनीति अगर समर्पण और समझौतों से प्रारंभ होगी तो वह जनता की मुक्ति में सहायक कैसे बन सकती है। आज के समय में महात्मा गांधी, पं.दीनदयाल उपाध्याय, राममनोहर लोहिया, जयप्रकाश नारायण, आचार्य नरेंद्र देव, पुरूषोत्तम दास टंडन की राजनीतिक धारा सूख सी गयी लगती है। चुनावी सफलताएं ही मूल्यांकन का आधार हैं। नैतिकता का मापदंड छीजता ही जा रहा है। राजनीति कभी इतनी बेबस नहीं थी। सत्ता और उसके समीकरण समझने में अब मुश्किलें आती हैं। सत्ता में होने के मूल्य और विपक्ष में होने के मूल्य अलग-अलग दिखते हैं। शार्टकट से जल्दी ज्यादा हासिल करने की भूख, पैसे और ताकत की प्रकट पिपासा से सारे वातावरण में एक अवसाद दिखने लगा है। लोग उम्मीदें लगाते हैं और छले जाते हैं। यह छल देश की जनता से ही नहीं, देश से भी विश्वासधात सरीखा है। एक लोकतंत्र में अगर लोकलाज भी नहीं होगी तो लोकराज कैसे चलेगा? सत्ता बेपरवाह हो सकती है किंतु जनता के सपनों को कुचल को कोई भी राजनीति अंजाम को प्राप्त नहीं कर सकती।
   आज की राजनीतिक और राजनीतिक दल लोगों को निराश कर रहे हैं। उनकी आपसी जंग से लोग तंग हैं। लोग चाहते हैं कि राष्ट्रीय मुद्दों पर, सार्वजनिक हित के सवालों पर, राष्ट्रहित के सवालों पर तो राजनीति एक हो। क्या राजनीतिक दलों और जनता के हित अलग-अलग हैं? क्या राष्ट्रहित और राजनीतिक दलों को हित अलग-अलग हैं या होने चाहिए? लेकिन कई बार लगता है कि दोनों की राह अलग-अलग है। राजनीति हिंदुस्तान को समझने में विफल है। हिंदुस्तान का मन उसे समझना होगा। लोगों के सपने, उनकी आकांक्षाएं उन्हें समझनी होगी। यहां के किसान, युवा, महिलाएं, बच्चे और समाज के हर वर्ग के लोग उम्मीदों से अपनी सरकारों और प्रशासन की ओर देखते हैं, लेकिन ये सारा का सारा तंत्र कुछ लोगों की मिजाजपुर्सी में व्यस्त दिखता है। अपने जीवन के संघर्षों में फंसा भारतीय मन ऐसे में टूटता है। उसके टूटते हुए भरोसे को जोडऩा और बचाकर रखना सबसे जरूरी है। राजनीति और राजनीतिक दलों को जनता के मनोभावों को समझकर ठोस कदम उठाने होगें। राष्ट्रीय विषयों पर एकजुट होकर न्यायपूर्ण, ईमानदार और शुचितापूर्ण सार्वजनिक जीवन की स्थापना हमारा लक्ष्य होना ही चाहिए। अँधेरा जितना भी घना हो उजाले की ओर बढ़ने की लालसा उतनी ही तेज होती है। हम इस सत्य को स्वीकार कर आगे बढें और भारतीयता की स्थापना करें। यही भारतीय जीवन मूल्य हमें सब संकटों से निजात तो दिलाएंगें ही साथ ही पूरी दुनिया को एक उदाहरण भी प्रस्तुत कर सकेगें।
(लेखक मीडिया विमर्श के कार्यकारी संपादक हैं)

भाषा की भी है एक राजनीति




-संजय द्विवेदी

  अब जबकि भोपाल में विश्व हिंदी सम्मेलन सितंबर महीने में होने जा रहा तो एक बार यह विचार जरूर होना चाहिए कि आखिर हिंदी के विकास की समस्याएं क्या हैं? वे कौन से लोग और तत्व हैं जो हिंदी की विकास बाधा हैं? सही मायनों में हिंदी के मान-अपमान का संकट राजनीतिक ज्यादा है। हम पिछले सात दशकों में न तो हिंदी समाज बना सके न ही अपनी भाषा, माटी और संस्कृति को प्रेम करने वाला भाव लोगों के मन में जगा सके हैं। गुलामी में मिले, अंग्रेजियत में लिपटे मूल्य आज भी हमारे लिए आकर्षक हैं और आत्मतत्व की नासमझी हमें निरंतर अपनी ही जड़ों से दूर करती जा रही है। यूरोपियन विचारों से प्रभावित हमारा समूचा सार्वजनिक जीवन इसकी मिसाल है और हम इससे चिपके रहने की विवशता से भी घिरे हैं। इतना आत्मदैन्य युक्त समाज शायद दुनिया की किसी धरती पर निवास करता हो। इस अनिष्ट को जानने के बाद भी हम इस चक्र में बने रहना चाहते है।
    हिंदी आज मनोरंजन और वोट मांगने भर की भाषा बनकर रह गयी है तो इसके कारण तो हम लोग ही हैं। जिस तरह की फूहड़ कामेडी टीवी पर दृश्यमान होती है क्या यही हिंदी की शक्ति है? हिंदी मानस को भ्रष्ट करने के लिए टीवी और समूचे मीडिया क्षेत्र का योगदान कम नहीं है। आज हिंदी की पहचान उसकी अकादमिक उपलब्धियों के लिए कहां बन पा रही है? उच्च शिक्षा का पूरा क्रिया -व्यापार अंग्रेजी के सहारे ही पल और चल रहा है। प्राईमरी शिक्षा से तो हिंदी को प्रयासपूर्वक निर्वासन दे ही दिया गया है। आज हिंदी सिर्फ मजबूर और गरीब समाज की भाषा बनकर रह गयी है। हिंदी का राजनीतिक धेरा और प्रभाव तो बना है, किंतु वह चुनावी जीतने तक ही है। हिंदी क्षेत्र में अंग्रेजी स्कूल जिस तेजी से खुल रहे हैं और इंग्लिश स्पीकिंग सिखाने के कोचिंग जिस तरह पनपे हैं वह हमारे आत्मदैन्य का ही प्रकटीकरण हैं। तमाम वैज्ञानिक शोध यह बताते हैं मातृभाषा में शिक्षा ही उपयोगी है, पर पूरी स्कूली शिक्षा को अंग्रेजी पर आधारित बनाकर हम बच्चों की मौलिक चेतना को नष्ट करने पर आमादा हैं।
   हिंदी श्रेष्टतम भाषा है, हमें श्रेष्ठतम को ही स्वीकार करना चाहिए। लेकिन हम हमारी सोच, रणनीति और टेक्नालाजी में पिछड़ेपन के चलते मार खा रहे हैं। ऐसे में अपनी कमजोरियों को पहचानना और शक्ति का सही आकलन बहुत जरूरी है। आज भारत में निश्चय ही संपर्क भाषा के रूप में हिंदी एक स्वीकार्य भाषा बन चुकी है किंतु राजनीतिक-प्रशासनिक स्तर पर उसकी उपेक्षा का दौर जारी है। बाजार भाषा के अनुसार बदल रहा है। एक बड़ी भाषा होने के नाते अगर हम इसकी राजनीतिक शक्ति को एकजुट करें, तो यह महत्वपूर्ण हो सकता है। बाजार को भी हमारे अनुसार बदलना और ढलना होगा। हिंदी का शक्ति को बाजार और मनोरंजन की दुनिया में काम करने वाली शक्तियों ने पहचाना है। आज हिंदी भारत में बाजार और मनोरंजन की सबसे बड़ी भाषा है। किंतु हमारे राजनीतिक और प्रशासनिक समाज पर छाई उपनिवेशवादी छाया और अंग्रेजियत ने हमें कहीं का नहीं छोड़ा है। देश का सारा राजनीतिक-प्रशासनिक और न्यायिक विमर्श एक विदेशी भाषा का मोहताज है। हमारी बड़ी अदालतें भी बेचारे आम हिंदुस्तानी को न्याय अंग्रेजी में उपलब्ध कराती हैं। इस समूचे तंत्र के खिलाफ खड़े होने और बोलने का साहस हमारी राजनीति में नहीं है। आजादी के इन वर्षों में हर रंग और हर झंडे ने इस देश पर राज कर लिया है, किंतु हिंदी वहीं की वहीं है। हिंदी के लिए जीने-मरने की कसमें खाने के बाद सारा कुछ वहीं ठहर जाता है। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी अगर आजादी के बाद कहते हैं कि लोगों से कह दो गांधी अंग्रेजी भूल गया है तो इसके बहुत साहसिक अर्थ और संकल्प हैं। इस संकल्प से हमारी राजनीति अपने को जोड़ने में विफल पाती है।
   भाषा के सवाल पर राजनीतिक संकल्प के अभाव ने हिंदी सहित सभी भारतीय भाषाओं को पग-पग पर अपमानित किया है। हिंदी और भारतीय भाषाओं के सम्मान की जगह अंग्रेजी ने ले ली है, जो इस देश की भाषा नहीं है। अंग्रेजी उपनिवेशवाद के खिलाफ हमारी लड़ाई क्या सिर्फ शासक बदलने की थी? जाहिर तौर पर नहीं, यह लड़ाई देश और उसके लोगों को न्याय दिलाने की जंग थी। स्वराज लाने की जंग थी। यह देश अपनी भाषाओं मे बोले, सोचे, गाए, विचार करे और जंग लड़े, यही सपना था। इसलिए गुजरात के गांधी से लेकर दक्षिण के राजगोपालाचारी हिंदी के साथ दिखे। किंतु आजादी पाते ही ऐसा क्या हुआ कि हमारी भाषाएं वनवास भेज दी गयीं और अंग्रेजी फिर से रानी बन गयी। क्या हमारी भाषा में सामर्थ्य नहीं थी? क्या हमारी भारतीय भाषाएं ज्ञान-विज्ञान के विविध अनुशासनों को व्यक्त करने में समर्थ नहीं हैं? हमारे पास तमिल जैसी पुरानी भाषा है, हिंदी जैसी व्यापक भाषा है तो बांग्ला और मराठी जैसी समृद्ध भाषाओं का संसार है। लेकिन शायद आत्मगौरव न होने के कारण हम अपनी शक्ति को कम करके आंकते हैं। अपनी भाषा, अपनी संस्कृति, अपनी जीवनशैली और मूल्यों को दीनता से देखना और उसके लेकर न गौरवबोध, न सम्मानबोध। अपनी माटी की चीजें हमें कमतर दिखती हैं। भाषा भी उसी का शिकार है। ऐसे में जब कोई भी समाज आत्मदैन्य का शिकार होता है तो वह एक दयनीय समाज बनता है। वह समाज अपनी छाया से डरता है। उसका आत्मविश्वास कम होता जाता है और वह अपनी सफलताओं को दूसरों की स्वीकृति से स्वीकार कर पाता है। यह भारतबोध बढ़ाने और बताने की जरूरत है। भारतबोध और भारतगौरव न होगा तो हमें हमारी भाषा और भूमि दोनों से दूर जाना होगा। हम जमीन पर होकर भी इस माटी के नहीं होगें।
  दुनिया की तमाम संस्कृतियां अपनी जड़ों को तलाश कर उनके पास लौट रही हैं। तमाम समाज अपने होने और महत्वपूर्ण होने के लिए नया शोध करते हुए, अपनी संस्कृति का पुर्नपाठ कर रहे हैं। एक बार भारत का भी भारत से परिचय कराने की जरूरत है। उसे उसके तत्व और सत्व से परिचित कराने की जरूरत है। यही भारत परिचय हमें भाषा की राजनीति से बचाएगा, हमारी पहचान की अनिवार्यता को भी साबित करेगा।
(लेखक माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में जनसंचार विभाग के अध्यक्ष हैं)
















शनिवार, 11 जुलाई 2015

भारत-पाक रिश्तेः कब पिधलेगी बर्फ



-संजय द्विवेदी
 नरेंद्र मोदी की पाकिस्तानी प्रधानमंत्री से मुलाकात और उनका पाकिस्तान जाने का फैसला साधारण नहीं है। आखिर एक पड़ोसी से आप कब तक मुंह फेरे रह सकते हैं? बार-बार छले जाने के बावजूद भारत के पास विकल्प सीमित हैं, इसलिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की इस साहसिक पहल की आलोचना बेमतलब है। पूर्व प्रधानमंत्री अटलजी स्वयं कहा करते थे हम अपने पड़ोसी नहीं बदल सकते। यानि संवाद ही एक रास्ता है, क्योंकि रास्ता बातचीत से ही निकलेगा। पाकिस्तान और भारत के बीच अविश्वास के लंबे घने अंघेरों के बावजूद अगर शांति एक बहुत दूर लगती हुई संभावना भी है, तो भी हमें उसी ओर चलना है। सीमा पर अपने सम्मान के लिए डटे रहना, हमलों का पुरजोर जवाब देना किंतु बातचीत बंद न करना, भारत के पास यही संभव और सम्मानजनक विकल्प हैं।
  पाकिस्तान की राजनीति का मिजाज अलग है। सेना की मुख्य भूमिका ने वहां की राजनीति को बंधक बना रखा है। आवाम का मिजाज भी बंटा हुआ है। किंतु एक बड़ी संख्या ऐसी भी है जो भारत से शांतिपूर्ण रिश्ते चाहती है। गर्म बातों का बाजार ज्यादा जल्दी बनता है और वह बिकता भी है। मीडिया, राजनीति व समाज में ऐसी ही आवाजें ज्यादा दिखती और सुनी जाती हैं। अमन, शांति और बेहतर भविष्य की ओर देखने वाली आवाजें अक्सर अनसुनी कर दी जाती हैं। किंतु पाकिस्तान को भी पता है कि आतंकवाद को पालने-पोसने का अंजाम कैसे अपने ही मासूम बच्चों के जनाजे में बदल जाता है। अपने मासूमों का जनाजा ढोता पाकिस्तान जानता है कि शांति ही एक रास्ता है, किंतु उसकी राजनीति और गर्म मिजाज धर्मांधता ने उसके पांव बांध रखे हैं। हिंदुस्तान के प्रति धृणा और भारत भय वहां की राजनीति का स्थायी भाव है। इसका वहां एक बड़ा बाजार है। ऐसे में भारत जैसा देश जो निरंतर अपने पड़ोसियों से बेहतर रिश्तों का तलबगार है, पाकिस्तान को उसके हालात पर नहीं छोड़ सकता। रिश्तों में बर्फ जमती रही है तो नेतृत्व परिवर्तन के साथ पिघलती भी रही है। अपने परमाणु बम पर पाकिस्तान को बहुत नाज है। कुछ बहकी आवाजें अपना गम गलत को उसे भारत के विरूद्ध चलाने की बातें भी करती हैं। किंतु हमें पता है कि परमाणु युद्ध के अंजाम क्या हैं। कोई भी मुल्क खुद को नक्शे से मिटाने की सोच नहीं सकता। कश्मीर में हमारे कुछ भ्रमित नौजवानों को इस्तेमाल एक छद्य युद्ध लड़ना और आमने-सामने की लड़ाई में बहुत अंतर है। पाकिस्तान ने इसे भोगा है, सीखा भले कुछ न हो।
  आज की बदलती दुनिया में जब आतंकवाद के खिलाफ एक संगठित और बहुआयामी लड़ाई की जरूरत है तो पाकिस्तान आज भी अच्छे और बुरे तालिबान के अंतर को समझने में लगा है। नरेंद्र मोदी के दिल्ली की सत्ता में आगमन से पाकिस्तान के चरमपंथियों को भी अपनी राजनीति को चमकाने का मौका मिला। जुबानी तीर चले। किंतु नरेंद्र मोदी ने संवाद को आगे बढ़ाने का फैसला कर यह बता दिया है कि वे अड़ियल नहीं है और सही फैसलों को करते हुए बातचीत को जारी रखना चाहते हैं। आप देखें तो वर्तमान के दोनों शासकों मोदी और शरीफ के बीच संवाद पहले दिन से कायम है। दोनों ने शिष्टाचार बनाए रखते हुए आपसी संवाद बनाए रखा। मोदी की शपथ में आकर शरीफ ने साहस का ही परिचय दिया था। अपनी आलोचनाओं की परवाह न करते हुए पाकिस्तानी प्रधानमंत्री ने दिल्ली आने का फैसला किया था। अपने देशों की राजनीतिक-कूटनीतिक प्रसंगों पर होने वाली बयानबाजी को छोड़ दें तो दोनों नेताओं ने संयम बनाए रखा है। मोदी के सत्ता में आने से भारत-पाक रिश्ते बिगड़ेगें, इस संभावना की भी हवा निकल गयी है। मोदी ने साफ कहा है कि वे इस मामले में अटलजी को लाइन को आगे बढ़ाएंगें। आखिर कश्मीर में जो हुआ वह मोदी के साहस से ही उपजा फैसला था। पीडीपी- भाजपा सरकार को संभव बनाने का चमत्कार आखिरकार मोदी का ही मूल विचार है। अब जबकि वे ईद मानने कश्मीर जा रहे हैं तो यह समझा जा सकता कि कश्मीर की मोदी के लिए क्या अहमियत है। एक भारतीय शासक होने के नाते पाकिस्तान की कश्मीर फांस को भी वे समझते हैं। बावजूद इसके इतना तो मानना ही पड़ेगा की भारत-पाक रिश्तों में सुधार के बिना, भारत एक महाशक्ति नहीं बन सकता। सैन्य संसाधनों पर हो रहे व्यय के अलावा हिंसा, आतंक और अशांति के कारण दोनों देश बहुत नुकसान उठा रहे हैं। ऐसा नहीं है कि हुक्मरानों को इस सच्चाई का पता नहीं है किंतु कुछ ऐसे प्रसंग हैं जिससे बात निकलती तो  है पर दूर तलक नहीं जाती। भारत के पूर्व प्रधानमंत्रियों ने अपने स्तर पर काफी प्रयास किए किंतु कहते हैं कि इतिहास की गलतियों का सदियां भुगतान करती हैं। भारत और पाकिस्तान एक ऐसे ही भंवरजाल में फंसे हैं।
  नरेंद्र मोदी ने विश्व राजनीति में भारत की उपस्थिति को स्थापित करते हुए अपने पड़ोसियों से भी रिश्ते सुधारने की पहल की है। वे जहां दुनिया जहान को नाप रहे हैं वहीं वे नेपाल, भूटान,वर्मा, बांग्लादेश, अफगानिस्तान को भी उतना ही सहयोग, समय और महत्व दे रहे हैं। वे सिर्फ महाशक्तियों को साधने में नहीं लगे हैं बल्कि हर क्षेत्रीय शक्ति का साथ ले रहे हैं। रूस से अलग हुए देशों की यात्रा इसका उदाहरण है। मोदी की पाकिस्तान यात्रा इस मायने में खास है। इससे यह मजाक भी खत्म होगा कि आखिर मोदी और शरीफ पाकिस्तान के बाहर ही क्यों मिलते हैं। राजनीतिशास्त्री श्री वेदप्रताप वैदिक भी मानते हैं कि पाकिस्तान का भद्रलोक व्यक्ति के तौर पर चाहे मोदी को पसंद न करता हो लेकिन वह भारत के प्रधानमंत्री के रुप में मोदी का स्वागत करने के लिए आतुर है। पिछले साल मेरी पाकिस्तान-यात्रा के दौरान यह बात मुझे सभी महत्वपूर्ण सत्तारुढ़ और विरोधी नेताओं ने कही थी। मोदी ने अपनी पाकिस्तान-यात्रा की बिसात अच्छी तरह से बिछा ली है। शायद यह यात्रा युगांतरकारी सिद्ध हो।

   यह उम्मीद लगाने में हर्ज नहीं है कि नरेंद्र मोदी कश्मीर संकट को हल करने को पहली प्राथमिकता देगें। उनके मन में धारा-370 की टीस है किंतु वे इस लेकर हड़बड़ी में नहीं हैं। देश को लेकर मोदी में मन में अनेक सपने हैं जिनमें शांतिपूर्ण कश्मीर भी उनका एक बड़ा सपना है। कश्मीर में हुए पीडीपी-भाजपा समझौते को किसी भी नजर से देखें, किंतु भाजपा उसकी राजनीतिक धारा को समझने वाला हर व्यक्ति मानता है कि कश्मीर का भाजपा और संघ परिवार के लिए क्या महत्व है। भाजपा चाहकर भी अपने पूर्वापर से पल्ला नहीं झाड़ सकती। नरेंद्र मोदी अगर पाकिस्तान की राजनीतिक सोच में कुछ परिवर्तन लाकर भारत के प्रति थोड़ा भी सद्भभाव भर पाते हैं तो यह एक ऐतिहासिक घटना होगी। यह काम किसी भाजपाई प्रधानमंत्री के लिए उतना ही आसान है जबकि किसी अन्य के लिए बहुत मुश्किल। देखना है कि इतिहास की इस घड़ी में नरेंद्र मोदी अपने सपनों को कैसे सच कर पाते हैं।

शुक्रवार, 3 जुलाई 2015

रायपुर में आयोजित कार्यक्रम की छवियां और समाचार पत्रों में प्रकाशित क्लिीपिंग्स










सवालों में सरकार

-संजय द्विवेदी
  नरेंद्र मोदी की सरकार के लिए सुषमा स्वराज, वसुंधरा राजे सिंधिया, स्मृति ईरानी और पंकजा मुंडे के मामलों ने नया संकट खड़ा कर दिया है। विपक्ष को बैठे बिठाए एक मुद्दा हाथ लग गया है, तो लंदन में बैठे ललित मोदी रोज एक नया ट्विट करके मीडिया और विरोधियों को मसाला उपलब्ध करा ही देते हैं। विपक्ष ऐसी स्थितियों में अवसर को छोड़ना नहीं चाहता और उसकी मांग है कि नरेंद्र मोदी इस विषय पर कुछ तो बोलें। राजनीति में मौन कई बार रणनीति होता है और नरसिंह राव, मनमोहन सिंह से लेकर नरेंद्र मोदी सभी इसे साधते रहे हैं। ऐसे में मीडिया के लिए ये खबरें रोजाना का खाद्य बन गयी हैं। एक भगोड़े का ट्विट और उस पर प्रतिक्रियाएं जुटाकर मीडिया ने भी अपने नित्य के हल्लाबोल को निरंतर कर लिया है।
   राजनीति में ऐसे प्रसंग चौंकाने वाले होते हैं और छवि को दागदार भी करते हैं। किंतु जैसी राजनीति बन गयी है उसमें यह उम्मीद कर पाना कठिन है कि पूंजीपतियों और राजनेताओं का रिश्ता न बने। राजे और सुषमा की कहानी दरअसल रिश्तों की भी कहानी है। संपर्क हुआ, रिश्ते बने और आत्मीय व व्यावासायिक रिश्ते भी बन गए। प्रथम दृष्ट्या तो ये कहानियां बहुत सहज हैं और इसे सीधे तौर पर भ्रष्टाचार कहना भी कठिन है। किंतु ललित मोदी ने अपनी जैसा छवि बनायी है, उसके बाद उनसे रिश्ते किसी को भी संकट में ही डालेगें। राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी और समाजवादी पार्टी जैसी पार्टियां कम हैं जो रिश्तों को छिपाती नहीं बल्कि अपने साथियों का खुलकर साथ देती हैं। आप देखें तो शरद पवार और उनके दल की सहानुभूति ललित मोदी से साफ दिखती है। अपने पुराने समाजवादी साथी स्वराज कौशल के पक्ष में समाजवादी पार्टी के नेता रामगोपाल यादव ने खबर आते ही सुषमा स्वराज को क्लीन चिट दे दी। किंतु भाजपा, कांग्रेस जैसे दलों का संकट यह है कि वे रिश्ते रखते हुए भी कूबूल करने की जहमत नहीं उठा सकते। क्या ही अच्छा होता कि प्रधानमंत्री को भाजपा के ये नेता इस्तीफे के लिए आफर करते और प्रधानमंत्री उसे अस्वीकार कर देते। किंतु भाजपा का नेतृत्व किंकर्तव्यविमूढ़ता का शिकार है। दिखावटी नैतिकता की बंदिशें उन्हें वास्तविकता के साथ खड़े होने से रोकती हैं।
   सुषमा स्वराज के प्रकरण में ऐसा कुछ नहीं था कि जिसके कारण भाजपा को किंतु- परंतु करने की जरूरत थी। बावजूद उसके प्रवक्ता लड़खड़ाते नजर आए। नीतियों को लेकर अस्पष्टता ऐसे ही दृश्य रचती है। नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार का मीडिया प्रबंधन पहले दिन से लड़खड़ाया हुआ है। बिना किसी बड़े आरोप के साल भर में सरकार की छवि मीडिया द्वारा कैसी प्रक्षेपित की जा रही है, उसे देखना रोचक है। मंत्रिमंडल के सहयोगियों की मेहनत और उनके काम पर कुछ अनावश्यक आरोप भारी पड़ते हैं। पहले मीडिया से संवाद नियंत्रित करना और साल के अंत में सबको संवाद को लिए लगा देना, एक नासमझी भरी रणनीति है। नियंत्रित संवाद वहीं सफल हो सकता है जो दल बहुजन समाज पार्टी जैसे एकल नेता के दल हों। सुषमा स्वराज प्रकरण पर बिहार के दो सांसदों (कीर्ति आजाद और आर के सिंह) की बयानबाजी की जरूरत क्या थी? एक तरफ मंत्रियों पर नियंत्रण और दूसरी ओर सांसदों की ओर से किया जा रहा ज्ञान दान भाजपा की बदहवासी को ही प्रकट करता है।
        संकट को समझना और उस पर उपयुक्त प्रतिक्रिया देना अभी भाजपा को सीखना है। भाजपा के प्रवक्ताओं को  टीवी पर हकलाते देखना भी रोचक है। ये ऐसे लोग हैं जो बिना पाप किए अपराधबोध से ग्रस्त हैं। सक्रिय प्रधानमंत्री, सक्रिय सरकार और व्यापक जनसमर्थन भी मीडिया और प्रतिपक्ष के साझा दुष्प्रचार पर भारी पड़ रहा है। मेरे जैसे व्यक्ति की यह मान्यता है कि नरेंद्र मोदी को दिल्ली में बैठे परंपरागत राजनेता, राजनीतिक परिवार, नौकरशाह, भारतद्वेषी बुद्धिजीवी और पत्रकार आज भी स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं। उन्हें देश की जनता ने प्रधानमंत्री बना दिया है पर ये भारतद्वेषी बुद्धिजीवी नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हैं। इसलिए उनकी सरकार का छिद्रान्वेषण पहले दिन से ही जारी है। जब पूरी दुनिया योग कर रही होगी, तो वे योग के खिलाफ भारतीय टीवी चैनलों पर ज्ञान देते हैं। मोदी विदेश यात्रा पर होते हैं तो वे उनकी यात्राओं की आलोचना करने में व्यस्त होते हैं। यानि नरेंद्र मोदी का हर काम उनकी स्वाभाविक आलोचना के केंद्र में होता है। शायद यह पहली बार है कि कोई सरकार और उसका नेता जनसमर्थन से तो संयुक्त है किंतु दिल्लीपतियों के निशाने पर है। इस पूरे समूह के लिए नरेंद्र मोदी का दिल्ली प्रवेश एक ऐसी घटना है जिसे वे स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं। इसलिए भाजपा और उसके नेताओं पर लगने वाले आरोपों को अपराध बनाकर प्रस्तुत किया जा रहा है। एक सक्षम विदेश मंत्री के नाते सुषमा स्वराज के कामों, उनके द्वारा एक साल में 37 देशों की यात्राओं का जिक्र नहीं होता। विदेशों में भारतवंशियों जब भी कोई संकट आया,वे और उनका विभाग सक्रिय दिखे। किंतु ललित मोदी से उनके पति के रिश्ते चर्चा के केंद्र में हैं।

     भारतीय राजनीति और मीडिया के लिए यह गहरे संकट का क्षण है, जहां आग्रह, दुराग्रह में बदलता दिखता है। नेताओं के प्रतिमा भंजन की इस राजनीति का मुकाबला भाजपा और उसकी सरकार को करना है। उन्हें यह मान लेना होगा कि यह यूपीए की सरकार नहीं है, जिसकी ओर बहुत से बुद्धिजीवी और पत्रकार इसलिए आंखें मूंद कर बैठे थे कि उसने भाजपा को रोक रखा है। यूपीए-तीन की प्रतीक्षा में जो समूह दिल्ली में बैठा था, नरेंद्र मोदी का आगमन उनके लिए सबसे बड़ी चुनौती है। इसलिए नरेंद्र मोदी और केंद्र सरकार की छवि बिगाड़ना एक सुनियोजित यत्न है और इसे समझना भाजपा की जिम्मेदारी है। भाजपा नेताओं के लिए सत्ता में होने से ज्यादा जरूरी अपनी छवि, आचरण और देहभाषा का संयमित होना है। अपने असफल मीडिया प्रबंधन के नाते भाजपा ने साल भर में बहुत कुछ खोया है। भाजपा को अपनी सरकार के प्रति लोगों का भरोसा बनाए रखने के लिए कुछ टोटके करने होगें। करने के साथ कहने का भी साहस जुटाना होगा। जहां आप गलत नहीं हैं, वहां मौन रणनीति नहीं हो सकता। प्रधानमंत्री को अपनी टीम में वही भरोसा भरना होगा जिससे वे खुद लबरेज हैं। उनका मौन सरकार पर भारी पड़ रहा है। दिग्गजों की छवियां खराब हो रही हैं। ऐसे में भाजपा को ज्यादा भरोसा और ज्यादा आत्मविश्वास के साथ सामने आने की जरूरत है।