मंगलवार, 28 अगस्त 2012

हमने धर्म को माना लेकिन जाना नहीं- आरिफ बेग




एमसीयू में ईद और राष्ट्रीय सद्भाभावना विषय पर व्याख्यान
भोपाल,25 अगस्त।  पूर्व केंद्रीय मंत्री आरिफ बेग का कहना है कि हमने अपने ईश्वर, पैगंबर और भगवान को माना है लेकिन उनकी नहीं मानी है,इसलिए समाज में इतनी समस्याएं पैदा हो रही हैं। वे माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय में जनसंचार विभाग के साप्ताहिक आयोजन सार्थक शनिवार में ईद और राष्ट्रीय सद्भाभावना  विषय पर बोल रहे थे। श्री बेग ने कहा कि दुनिया के सभी धर्म प्रेम और भाईचारे में बंधे हुए हैं लेकिन उसके मानने वाले उस धर्म को ठीक से नहीं समझते हैं और उसके अनुसार आचरण नहीं करते इसलिए समस्या पैदा होती है ,क्योंकि जो भी अपने धर्म की शिक्षाएं सही तरीके से आत्मसात करता है वह कभी भी गलत रास्तों पर नहीं चल सकता।
   उन्होंने कहा कि एक-दूसरे न जानने के नाते समस्याएं पैदा होती हैं। उनका कहना था कि राष्ट्रप्रेम से बड़ी कोई चीज नहीं है और हम सभी एक ही परिवार के हिस्से हैं। उनका कहना था कि आजादी के बाद हमने शहीदों का रास्ता नहीं पकड़ा इसलिए आज हम तमाम संकटों और तनावों से घिरे हैं।
  कार्यक्रम के अध्यक्ष प्रो.बृजकिशोर कुठियाला ने कहा कि हमें अपनी एकता और सद्भभावना के फिर से पारिभाषित करने की जरूरत है। क्योंकि सब कुछ सब पर निर्भर है इसलिए हममें आपसी जुड़ाव जरूरी है। किसी के भी गलत करने का असर पूरी मानवता पर होता है। मैं नहीं हम का विचार इसमें हमारा सहायक बन सकता है। विशिष्ट अतिथि वरिष्ठ पत्रकार अशफाक मिशहदी ने कहा कि खुशी पाने और देने का सही तरीकों का नाम धर्म है। हम धर्म की दी गयी शिक्षाओं को नहीं अपनाते, सिर्फ धार्मिक होने का आवरण ओढ़ते हैं। सच्चाई यह है कि अपने धर्म को जान लेने वाला कभी गलत आचरण नहीं कर सकता।
  कार्यक्रम के पूर्व में विद्यार्थी ने सांस्कृतिक कार्यक्रम प्रस्तुत किया जिसमें एकता और सद्भाव को प्रकट करने वाले विचार थे। इस अवसर पर वरिष्ठ पत्रकार डा. माजिद हुसैन, विजय क्रांति, डा. श्रीकांत सिंह, पुष्पेंद्रपाल सिहं, प्रो. आशीष जोशी,डा. आरती सारंग, अभिजीत वाजपेयी, डा. पी. शशिकला सहित विवि के अध्यापक, कर्मचारी एवं छात्र-छात्राएं मौजूद थे। कार्यक्रम का संचालन डा. राखी तिवारी ने किया।

शुक्रवार, 24 अगस्त 2012

सहभागिता से ही सार्थक होगा जनतंत्रः कुठियाला


भोपाल,24अगस्त। माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो.बृजकिशोर कुठियाला का कहना है कि हमारी संसदीय संस्थाओं को अपनी शुचिता, पवित्रता और महत्व बनाए रखना है तो आम लोगों को भी इन सवालों पर सोचना होगा। क्योंकि कोई भी जनतंत्र लोगों की सहभागिता और संवाद से ही सार्थक होता है।  वे यहां विवि परिसर में आयोजित एक कार्यक्रम में विद्यार्थियों को संबोधित कर रहे थे।
   इस अवसर पर कुंजीलाल दुबे संसदीय विद्यापीठ द्वारा आयोजित युवा संसद में लगातार तीसरी बार पहला स्थान पाकर आए विश्वविद्यालय के छात्रों का सम्मान भी किया गया। कुलपति ने उन्हें लगातार तीसरी बार पहला स्थान पाने पर बधाई दी और विद्यापीठ के कार्यों की सराहना की। उनका कहना था वर्तमान स्थितियां संतोषजनक नहीं हैं। संसद और विधानसभाओं में बहस का स्तर कम हो रहा है और जनांकांक्षाओं की अभिव्यक्ति उस रूप में नहीं हो पा रही है जो होनी चाहिए। उन्होंने कहा आज के युवा और मीडिया दोनों मिलकर इस परिदृश्य को बदल सकते हैं।पं. जवाहर लाल नेहरू, डा. लोहिया, मधु लिमये, सुरेंद्र मोहन, चंद्रशेखर, अटलविहारी बाजपेयी, सोमनाथ चटर्जी जैसे सांसदों का उदाहरण देते हुए उन्होंने कहा कि इन तमाम नेताओं के योगदान से सीख लेकर हमें अपनी संवैधानिक संस्थाओं की गरिमा बनाए रखने की जरूरत है। कार्यक्रम का संचालन जनसंचार विभाग के अध्यक्ष संजय द्विवेदी ने किया। इस अवसर पर डा. श्रीकांत सिंह, पुष्पेंद्रपाल सिंह, डा. पवित्र श्रीवास्तव, डा. मोनिका वर्मा सहित छात्र-छात्राएं मौजूद रहे।

मंगलवार, 21 अगस्त 2012

खतरनाक है समाज का बाजार में बदलनाः कमल कुमार






भोपाल,21 अगस्त। प्रख्यात उपन्यासकार एवं कथाकार कमल कुमार का कहना है कि स्त्री के सामने सबसे बड़ी चुनौती यह कि वह समाज से बाजार बन रहे समय में किस तरह से प्रस्तुत हो। वे यहां माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में जनसंचार विभाग के द्वारा आयोजित कार्यक्रम में मीडिया और महिलाएं विषय पर व्याख्यान दे रही थीं। उन्होंने कहा कि आर्थिक उदारीकरण की लहर ने उपभोक्तावादी संस्कृति को बढ़ावा दिया है। मीडिया भी इसमें प्रतिरोध करने के बजाए सहयोगी की भूमिका में खड़ा है। ऐसे में रिश्तों का भी बाजारीकरण हो जाना खतरनाक है। बाजार ने महिलाओं को सही मायने में उत्पाद में बदल दिया है, मीडिया की नजर भी कुछ ऐसी ही है।
    उनका कहना था कि उच्च लालसाओं और इच्छाओं ने समाज के ताने-बाने को हिलाकर रख दिया है। हमारे परंपरागत मूल्य ऐसे में सकुचाए हुए से लगते हैं। उनका कहना था कि स्त्री अगर उत्पाद बनती है तो उसे डिस्पोज भी होना होगा। यह एक बड़ा खतरा है जो स्त्रियों के लिए बड़े संकट रच रहा है। उन्होंने कहा कि युवतियों की नई पीढ़ी में ज्यादा खुलापन और आत्मविश्वास है, किंतु महिलाएं इसके साथ आत्ममंथन और संयम का भी पाठ पढ़ें तो तस्वीर बदल सकती है।   
    कमल कुमार ने कहा कि हमारे समाज में स्त्रियों के प्रति धारणा निरंतर बदल रही है। वह नए-नए सोपानों का स्पर्श कर रही है। माता-पिता की सोच भी बदल रही है ,वे अपनी बच्चियों के बेहतर विकास के लिए तमाम जतन कर रहे हैं। स्त्री सही मायने में इस दौर में ज्यादा शक्तिशाली होकर उभरी है। किंतु बाजार हर जगह शिकार तलाश ही लेता है। वह औरत की शक्ति का बाजारीकरण करना चाहता है। हमें देखना होगा कि भारतीय स्त्री पर मुग्ध बाजार उसकी शक्ति तो बने किंतु उसका शोषण न कर सके। आज के मीडियामय और विज्ञापनी बाजार में औरत के लिए हर कदम पर खतरे हैं। पल-पल पर उसके लिए बाजार सजे हैं।  कार्यक्रम का संचालन डा. राखी तिवारी ने किया तथा आभार प्रदर्शन विभागाध्यक्ष संजय द्विवेदी ने किया। आयोजन में डा. संजीव गुप्ता, अजीत कुमार, जगमोहन राठौर सहित जनसंचार विभाग के विद्यार्थी मौजूद रहे।

सोमवार, 13 अगस्त 2012

हम सुनते कम और बोलते ज्यादा हैः के.जी. सुरेश





एमसीयू में पत्रकारिता की वस्तुनिष्टता विषय पर व्याख्यान
भोपाल,13 अगस्त।  देश के जाने माने पत्रकार एवं स्तंभ लेखक के.जी.सुरेश का कहना है कि हम पढ़ते कम और लिखते ज्यादा हैं तथा सुनते कम व बोलते ज्यादा हैं। वे यहां माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में जनसंचार विभाग के द्वारा आयोजित कार्यक्रम में पत्रकारिता की वस्तुनिष्टता विषय पर व्याख्यान दे रहे थे। उन्होंने कहा कि वस्तुनिष्ठता के मायने हैं कि अपेक्षित तटस्थता और सभी पक्षों को समान अवसर देना। किंतु कोई भी पत्रकारिता राष्ट्रहित से बड़ी नहीं हो सकती। उन्होंने कहा कि राष्ट्रहित मीडिया को प्रभावित करते हैं, अमरीकी मीडिया इसका उदाहरण है। इसलिए वस्तुनिष्ठता और तटस्थता के मायने अलग-अलग संदर्भों में भिन्न हो जाते है। क्योंकि अगर राष्ट्र नहीं बचेगा तो न प्रेस बचेगा न उसकी आजादी।
     उन्होंने कहा कि सबके अपने-अपने सच हैं और हम अपने तरीके से घटनाओं की व्याख्या करते हैं। इसमें स्थानीयता दृष्टिकोण सबसे अहम है। श्री सुरेश ने कहा कि विभिन्न समाजों उसकी संस्कृति व परंपराओं की समझ न होने के कारण हम गड़बड़ करते हैं। यह ठीक नहीं है। जैसे उत्तर-पूर्व के राज्यों के बारे में हमारी नासमझी के चलते कई तरह से संकट खड़े हो जाते हैं। उनका कहना था कि देश की विविधता का ख्याल रखे बिना, उसे सम्मान दिए बिना हम राष्ट्र को एकजुट नहीं रख सकते। संकट यह है कि हम अपने परिवेश, परिवार से मिले मूल्यों और अपने दृष्टिकोण से चीजों को विश्लेषित करते हैं जबकि दूसरा नजरिया भी हो सकता है, हम इसका विचार नहीं करते। यह नासमझी हमारे लेखन से लेकर दैनंदिन व्यवहार में भी दिखती है। उनका कहना था कि पत्रकारिता जनता का मत निर्माण का काम करती है, वह जनता की रूचि के हिसाब से नहीं चल सकती। उसे सच और तथ्य बताने हैं न कि जनता की पसंद- नापसंद के आधार पर उसे चलना है। हम राजनेता नहीं हैं कि जनता को खुश रखने के उपाय सोचें। उन्होंने कहा कि देश की जमीन से ही नहीं, लोगों से भी प्यार करना होगा तभी वास्तविक सवाल सामने आ सकेंगें।
     श्री सुरेश ने कहा कि यह विडंबना ही है कि तीन प्रतिशत लोग शेयर मार्केट में निवेश करते हैं किंतु शेयरों के भाव गिरते हैं तो वह हेडलाइंस बनती है किंतु किसानों की आत्महत्या के सवाल बड़ी जगह नहीं पाते। उन्होंने छात्रों से अपील की कि वे स्वयं की पृष्ठभूमि, जाति, धर्म को अपनी रिर्पोटिंग में न आने दें। न ही भावुकता में बहकर तथ्यों से छेड़छाड़ करें। राष्ट्रीयता का प्रखर बोध ही पत्रकारिता का मार्गदर्शक बन सकता है। कार्यक्रम का संचालन डा.संजीव गुप्ता ने किया तथा आभार प्रदर्शन डा. राखी तिवारी ने किया। कार्यक्रम में विभागाध्यक्ष संजय द्विवेदी, जगमोहन राठौर, अजीत कुमार, हिमगिरी सिरोही, रेनू वर्मा, उमा सिंह यादव, शालिनी सिंह बघेल, बृजेंद्र शुक्ला सहित अनेक अध्यापक और जनसंचार विभाग के छात्र मौजूद रहे।

शनिवार, 11 अगस्त 2012

समाज की बेहतर समझ से ही अच्छी पत्रकारिताः कुठियाला






                 ‘संचार, संस्कृति और मानव समाज विषय पर व्याख्यान
भोपाल,11 अगस्त। माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो.बृजकिशोर कुठियाला का कहना है कि समाज और संस्कृति की बेहतर समझ से ही अच्छी पत्रकारिता हो सकती है। वे यहां विवि परिसर में जनसंचार विभाग के साप्ताहिक आयोजन सार्थक शनिवार में संचार, संस्कृति और मानव समाज विषय पर व्याख्यान दे रहे थे।
   प्रो. कुठियाला ने कहा कि राष्ट्र सिर्फ भूखंड नहीं है, एक सांस्कृतिक अवधारणा है। जब हम अपने राष्ट्र से प्रेम करते हैं तो इसकी महान परंपरा को भी आत्मसात करते हैं। उन्होंने कहा कि संचार ही संस्कृति का वाहक है। अकेला मनुष्य अपने आप में कुछ नहीं है उसकी दूसरों पर निर्भरता है। यह एक सामाजिक नहीं बल्कि वैज्ञानिक सच है। उन्होंने कहा कि संचार और संवाद से ही स्थितियां और समाज बनते व बिगड़ते हैं। यह एक मौलिक जरूरत है। उनका कहना था कि मनुष्य के लिए सृजन, भोजन और समाज जरूरी हैं। इसके बावजूद संचार और संवाद मनुष्य की अनिर्वायता है। उन्होंने कहा कि आज के समय में अच्छे संचारकर्मी ही हमें मौजूदा चुनौतियों से जूझना सिखा सकते हैं और समाज में व्याप्त तनावों को कम कर सकते हैं। कार्यक्रम का संचालन डा. राखी तिवारी ने किया। आरंभ में डा. संजीव गुप्ता ने पुष्पगुच्छ देकर कुलपति का स्वागत किया।
   इसके पश्चात विद्यार्थियों ने सांस्कृतिक कार्यक्रम प्रस्तुत किए और हिंदी सिनेमा के 100 साल पर एक क्विज में हिस्सा लिया। कार्यक्रम में विभागाध्यक्ष संजय द्विवेदी, जगमोहन राठौर, अजीत कुमार, हिमगिरी सिरोही, रेनू वर्मा, साइमा इम्तियाज सहित अनेक लोग मौजूद रहे।

बुधवार, 1 अगस्त 2012

भविष्य की ओर देखे पत्रकारिताः जितात्मतानंद



         पत्रकारिता विश्वविद्यालय का सत्रारंभ समारोह 
भोपाल,1 अगस्त। देश के प्रख्यात संत स्वामी जितात्मतानंद का कहना है कि पत्रकारिता को समस्याओ का समाधान देने वाला बनना होगा और अपनी ताकत का इस्तेमाल लोगों के लिए भले के लिए करना चाहिए। वे यहां माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय के सत्रारंभ समारोह के मुख्यअतिथि की आसंदी से बोल रहे थे। कार्यक्रम का विषय था मीडिया और नैतिक मूल्य
   उन्होंने कहा कि भविष्योन्मुखी पत्रकारिता ही लोगों के सवालों का जवाब बन सकती है। मीडिया की जिम्मेदारी न सिर्फ भविष्य की ओर देखना है, वरन उसे सुखद बनाने के लिए वातावरण बनाना भी है। स्वामी जितात्मतानंद ने कहा कि एकता से ही नैतिकता पनपती है। ऐसे में शिक्षा में ऐसे मूल्यों का होना जरूरी है जो हमें एकत्व का पाठ पढ़ाएं। शिक्षा ही हमें प्रेम करना और संवेदनशील होना सिखा सकती है। शांति, प्रसन्नता और वैभव तभी आएगा, जब समाज में एकता होगी। उनका कहना था कि जैसा हमारी शिक्षा ने हमें बनाया है हम वैसे ही बने हैं। जबकि हमें पता है कि पैसा कमाने से शांति नहीं पाई जा सकती जबकि आधुनिक शिक्षा हमें धनपशु ही बना रही है। उन्होंने कहा कि दुनिया को बदलने का काम पैसे वालों ने नहीं किया क्योंकि हमें नहीं पता कि महात्मा गांधी और नेल्सन मंडेला के पास कितना पैसा था। नेल्सन मंडेला 27 साल जेल में रहे यह बताता है कि दुनिया सपनों और संघर्षों को याद रखती है। प्रेम के विचार का प्रसार करने वाले और दूसरों के लिए सोचने वाले हमेशा सुखी रहते हैं। जाहिर तौर पर हमें प्रसन्नता और पूर्णता के सूत्रों की तलाश करनी होगी। पैसे के लिए, सत्ता के लिए संघर्ष हमें अंततः एक पशु में बदल देता है।
  उन्होंने कहा कि देश के तमाम विश्वविद्यालयों को अपने केंद्रों पर ध्यान केंद्र खोलने चाहिए उससे भारतीय मेघा और प्रतिभा का विस्तार होगा। इससे एक नई चेतना होगी और युवा शक्ति को एक नया तेज मिलेगा। इसी से एक नया भारत खड़ा होगा। उनका कहना था कि भारतीय प्रतिभा और मेघा को पुनः विश्वपटल पर स्थापित सिर्फ उसकी आध्यात्मिक और नैतिक शक्ति कर सकती है। पत्रकारों के पास ऐसे अवसर नित्य हैं कि वे समाज की सेवा कर सकते हैं। लेखन भी एक पूजा है क्योंकि किसी भी लेखन की सार्थकता तभी है जब वह समाज के हितों के अनूकूल हो। लेखन तब देश के लोगों की सेवा में बदल जाता है- जब उसके उद्देश्य व्यापक होते हैं, सरोकारी होते हैं।
  इस अवसर पर प्रदेश के उच्चशिक्षा और जनसंपर्क मंत्री लक्ष्मीकांत शर्मा ने विश्वविद्यालय के नए विद्यार्थियों को अपनी शुभकामनाएं दी और उम्मीद जतायी कि वे अपने बेहतर भविष्य के लिए ज्यादा धैर्य और समर्पण के साथ काम करेंगें। उन्होंने कहा कि मीडिया जैसे जिम्मेदार प्रोफेशन में आ रही पीढ़ी की जिम्मेदारियां बहुत बड़ी हैं।  कुलपति प्रो.बृजकिशोर कुठियाला ने कहा कि सत्रारंभ के माध्यम से जीवन लिए दिशाबोध देने का काम स्वामी जी ने किया है। उन्होंने जो कहा है उससे हम सीखें और उस दिशा में चलें तो सत्रारंभ सार्थक होगा। कार्यक्रम में पत्रकार रामभुवन सिंह कुशवाह, शिवशंकर पटैरया, दीपक शर्मा, अनिल सौमित्र, अभय प्रधान सहित विश्वविद्यालय के अध्यापक, छात्र एवं अधिकारी मौजूद रहे।

गुरुवार, 21 जून 2012

पहले आदिवासी राष्ट्रपति का रायसीना हिल्स पर इंतजार


                       -संजय द्विवेदी
    काफी विमर्शों के बाद अंततः देश के मुख्य विपक्षी दल भारतीय जनता पार्टी ने पीए संगमा को राष्ट्रपति चुनाव में अपना समर्थन देने का फैसला कर लिया। यह एक ऐसा फैसला है, जिसके लिए भाजपा नेता बधाई के पात्र हैं। देश में अगर पहली बार एक आदिवासी समुदाय का कोई व्यक्ति राष्ट्रपति बन जाता है तो क्या ही अच्छा होता। इससे आदिवासी वर्गों में एक आत्मविश्वास का संचार होगा। देश के आदिवासी समाज को जिस तरह से लगातार सत्ता और व्यवस्था द्वारा उपेक्षित किया गया है, उसका यह प्रतीकात्मक प्रायश्चित भी होगा। कब तक हम दिल्ली क्लब के द्वारा संचालित होते रहेंगें। आदिवासी इस देश की 10 प्रतिशत से अधिक आबादी हैं। 65 सालों में उनके लिए हम शेष समाज में स्पेस क्यों नहीं बना पाए यह एक बड़ा सवाल है। पी.ए.संगमा हारे या जीतें किंतु उन्होंने अपने समाज में एक भरोसा जगाने का काम किया है।
    प्रणव मुखर्जी अगर राष्ट्रपति बनते हैं तो कुछ खास नहीं होगा, वे वैसे भी एक आला नेता हैं और खानदानी राजनेता हैं। उनके पिता भी विधायक रहे हैं। वे भद्रलोक के लोग हैंकिंतु पीए संगमा का राष्ट्रपति बनना इस देश का भाग्य होगा। वे उपेक्षित आदिवासी समाज और राजनीतिक उपेक्षा के शिकार पूर्वांचल राज्य से आते हैं। उनकी राष्ट्रपति भवन में मौजूदगी आम आदमी में शक्ति का संचार करेगी। विशाल आदिवासी समाज को सिर्फ कौतुक और कौतुहल से मत देखिए, संगमा आदिवासी आत्मविश्वास के प्रतीक हैं। पद की लालसा कहना ठीक नहीं, संगमा क्यों नहीं उम्मीदवार हो सकते? प्रणव बाबू के ममता से बुरे रिश्ते हैं पर वे अब उन्हें अपनी बहन बता रहे हैं। चुनाव लड़ना सबका हक है और अपने पक्ष में वातावरण बनाना सबका हक है। संगमा यही कर रहे हैं। वैसे भी कांग्रेस ने ऐसा क्या कर दिया है कि उनके प्रत्याशी के लिए मैदान छोड़ दिया जाए। इसी वित्त मंत्री के राज में लोग महंगाई से त्रस्त हैं और कुछ दल उनके लिए रेड कारपेट बिछा रहे हैं। मुद्दा आदिवासी राष्ट्रपति का है, वैसे कोई भी बने क्या फर्क पड़ता है। एक प्रतीक के रूप में भी आदिवासी राष्ट्रपति की उपस्थिति के अपने मायने हैं। बाबा साहब ने जब कोट- टाई पहनी तो वो देश की दलित जनता को एक संदेश देना चाहते थे। पढ़ लिखकर उंची कुर्सी हासिल करने से उनके समाज में एक आत्मविश्वास आया। संगमा की मौजूदगी को इसी तरह से देखा जाना चाहिए। वे हार जाएं चलेगा पर यह संदेश एक वर्ग को जाता है कि उनके बीच का आदमी भी राष्ट्रपति बन सकता है। वे लोकसभा अध्यक्ष रहे हैं। सोनिया जी यदि प्रधानमंत्री नही बन सकीं तो डा. कलाम,संगमा, पवार, मुलायम सिंह, चंद्रशेखर जी की भूमिका को मत भूलिए। ये देश के इतिहास के पृष्ठ हैं।
  आदिवासी समाज को लेकर, उनकी समस्याओं को लेकर, नक्सलवाद के चलते उनकी कठिन जिंदगियों को लेकर विमर्श जरूरी हैं।संगमा आदिवासी हैं, नार्थ इस्ट से आते हैं , उनका राष्ट्रपति  पद का उम्मीदवार बनना इस लोकतंत्र के लिए शुभ है। इससे यह भरोसा जगता है कि एक दिन देश में एक आदिवासी राष्ट्रपति जरूर बनेगा। संगमा ने उसकी शुरूआत कर दी है। लोकतंत्र इसी तरह परिपक्व होता है। दलित राजनीति की तरह आदिवासी राजनीति भी परिपक्व होकर अपना हक जरूर मांगेंगी और सबको देना ही होगा।चुनाव में हार-जीत मायने नहीं रखती। सवाल यह है कि आप अपना पक्ष रख रहे हैं।
  लोकतंत्र में जीतने वाला बड़ा नहीं होता, हारने वाला खत्म नहीं होता। डा. लोहिया फूलपुर से पंडित नेहरू के खिलाफ चुनाव लड़े और हारे।पर इससे पता चलता है कि विपक्ष की गंभीर उपस्थिति भी है और मुद्दों पर संवाद हो रहा है। पंडित जी को घर में चुनौती देकर लोहिया जी प्रतिरोध को सार्थकता देते थे। अभी लगने लगा है कि दोनों मुख्य दलों ने सत्ता आधी-आधी बांट ली है। एक जाएगा तो दूसरा आएगा ही इस विश्वास के साथ। आखिर मनमोहन सिंह की अमरीका परस्त और जनविरोधी सरकार ने ऐसा क्या किया है कि उनका वित्तमंत्री निर्विरोध राष्ट्रपति चुन लिया जाए। विरोध होना चाहिए वह एक वोट का हो या हजारों वोटों का। चुनाव में हार-जीत नहीं, मुद्दे मायने रखते हैं। राष्ट्रपति के चुनाव में मनमोहन सिंह की जनविरोधी और महंगाई परोसने वाली सरकार अगर अपना उम्मीदवार निर्विरोध चुनवा ले जाते तो दुनिया हम पर, हमारे लोकतंत्र पर हंसती कि एक अरब में एक भी मर्द नहीं जो इस भ्रष्ट सरकार के खिलाफ चुनाव तो लड़ सके। मुझे लगता है हार सुनिश्चित हो तो भी मैदान छोड़ना अच्छा नहीं है। याद कीजिए भैरौ सिंह शेखावत को जिन्होंने मैदान में उतर कर चुनौती दी क्या उससे जीतने वाले का सम्मान बढ़ गया और भैरो सिंह का घट गया। यह अकारण नहीं है लोग कलाम साहब को आज भी याद कर रहे हैं।