-संजय द्विवेदी
काफी विमर्शों के बाद अंततः देश के मुख्य
विपक्षी दल भारतीय जनता पार्टी ने पीए संगमा को राष्ट्रपति चुनाव में अपना समर्थन
देने का फैसला कर लिया। यह एक ऐसा फैसला है, जिसके लिए भाजपा नेता बधाई के पात्र
हैं। देश में अगर पहली बार एक आदिवासी समुदाय का कोई व्यक्ति राष्ट्रपति बन जाता
है तो क्या ही अच्छा होता। इससे आदिवासी वर्गों में एक आत्मविश्वास का संचार होगा।
देश के आदिवासी
समाज को जिस तरह से लगातार सत्ता और व्यवस्था द्वारा उपेक्षित किया
गया है, उसका यह प्रतीकात्मक प्रायश्चित भी होगा। कब तक हम ‘दिल्ली
क्लब’
के द्वारा
संचालित होते रहेंगें। आदिवासी इस देश की 10
प्रतिशत से अधिक आबादी हैं। 65
सालों में उनके लिए हम शेष समाज में स्पेस क्यों नहीं बना पाए
यह एक बड़ा सवाल
है। पी.ए.संगमा हारे या जीतें किंतु उन्होंने अपने समाज में एक भरोसा जगाने
का काम किया है।
प्रणव मुखर्जी अगर राष्ट्रपति बनते
हैं तो कुछ खास नहीं होगा, वे वैसे भी एक आला नेता हैं और
खानदानी राजनेता हैं। उनके पिता भी विधायक रहे हैं। वे भद्रलोक
के लोग हैं।
किंतु पीए संगमा का राष्ट्रपति बनना इस देश का भाग्य होगा। वे उपेक्षित
आदिवासी समाज और राजनीतिक उपेक्षा के शिकार पूर्वांचल राज्य से आते
हैं। उनकी राष्ट्रपति भवन में मौजूदगी आम आदमी में शक्ति का संचार करेगी।
विशाल आदिवासी समाज को सिर्फ कौतुक और कौतुहल से मत देखिए, संगमा आदिवासी
आत्मविश्वास के प्रतीक हैं। पद की लालसा कहना ठीक नहीं, संगमा
क्यों नहीं उम्मीदवार हो सकते?
प्रणव बाबू के ममता से बुरे रिश्ते हैं पर वे अब उन्हें अपनी
बहन बता रहे हैं। चुनाव लड़ना सबका हक है और अपने पक्ष
में वातावरण बनाना सबका हक है। संगमा यही कर रहे हैं। वैसे भी कांग्रेस ने ऐसा
क्या कर दिया है कि उनके प्रत्याशी के लिए मैदान छोड़
दिया जाए। इसी वित्त मंत्री के राज में लोग महंगाई से त्रस्त
हैं और कुछ दल उनके लिए रेड कारपेट बिछा रहे हैं। मुद्दा आदिवासी राष्ट्रपति
का है, वैसे
कोई भी बने क्या फर्क पड़ता है। एक प्रतीक के रूप में
भी आदिवासी राष्ट्रपति की उपस्थिति के अपने मायने हैं। बाबा साहब ने जब कोट- टाई
पहनी
तो वो देश की दलित जनता को एक संदेश देना चाहते थे। पढ़ लिखकर
उंची कुर्सी हासिल करने से उनके समाज में एक
आत्मविश्वास आया। संगमा की मौजूदगी को इसी तरह से देखा जाना चाहिए। वे
हार जाएं चलेगा पर यह संदेश एक वर्ग को जाता है कि
उनके बीच का आदमी भी राष्ट्रपति बन सकता है। वे लोकसभा अध्यक्ष रहे हैं। सोनिया
जी यदि प्रधानमंत्री नही बन सकीं तो डा. कलाम,संगमा, पवार, मुलायम
सिंह, चंद्रशेखर
जी की भूमिका को मत भूलिए। ये देश के इतिहास के पृष्ठ हैं।
आदिवासी समाज को लेकर, उनकी
समस्याओं को लेकर, नक्सलवाद के चलते उनकी कठिन जिंदगियों
को लेकर विमर्श जरूरी हैं।संगमा आदिवासी हैं, नार्थ
इस्ट से आते हैं , उनका राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनना इस लोकतंत्र के लिए शुभ
है। इससे यह भरोसा जगता है कि एक दिन देश में एक आदिवासी राष्ट्रपति जरूर बनेगा।
संगमा ने उसकी शुरूआत कर दी है। लोकतंत्र इसी तरह परिपक्व होता है। दलित
राजनीति की तरह आदिवासी राजनीति भी परिपक्व होकर अपना हक जरूर मांगेंगी और
सबको देना ही होगा।चुनाव में हार-जीत मायने नहीं रखती। सवाल यह है कि आप अपना पक्ष
रख रहे हैं।
लोकतंत्र में जीतने वाला बड़ा नहीं होता, हारने
वाला खत्म नहीं होता। डा. लोहिया फूलपुर से पंडित नेहरू के
खिलाफ चुनाव लड़े और हारे।पर इससे पता चलता है कि विपक्ष की गंभीर उपस्थिति भी है
और मुद्दों पर संवाद हो रहा है। पंडित जी को घर में चुनौती देकर लोहिया जी
प्रतिरोध को सार्थकता देते थे। अभी लगने लगा है
कि दोनों मुख्य दलों ने सत्ता आधी-आधी बांट ली है। एक जाएगा तो दूसरा
आएगा ही इस विश्वास के साथ। आखिर मनमोहन सिंह की अमरीका
परस्त और जनविरोधी सरकार ने ऐसा क्या किया है कि उनका वित्तमंत्री निर्विरोध
राष्ट्रपति चुन लिया जाए। विरोध होना चाहिए वह एक वोट का हो या हजारों
वोटों का। चुनाव में हार-जीत नहीं, मुद्दे मायने रखते हैं। राष्ट्रपति के चुनाव
में मनमोहन सिंह की जनविरोधी और महंगाई परोसने वाली सरकार अगर
अपना उम्मीदवार निर्विरोध चुनवा ले जाते तो दुनिया हम पर, हमारे
लोकतंत्र पर हंसती कि एक अरब में एक भी मर्द नहीं जो इस भ्रष्ट
सरकार के खिलाफ चुनाव तो लड़ सके। मुझे लगता है हार सुनिश्चित
हो तो भी मैदान छोड़ना अच्छा नहीं है। याद कीजिए भैरौ सिंह शेखावत
को जिन्होंने मैदान में उतर कर चुनौती दी क्या उससे जीतने वाले का सम्मान
बढ़ गया और भैरो सिंह का घट गया। यह अकारण नहीं है लोग कलाम साहब को आज भी याद कर
रहे हैं।