उनकी
पत्रकारिता, कविता और भाषणों में छिपे हैं
संचार के असाधारण सूत्र
-
प्रो.संजय
द्विवेदी
हमारे यहां शब्द को ‘ब्रम्ह’ कहा गया है। शब्द की साधना, वाक् की साधना
ईश्वर की ही साधना है। भारत रत्न श्री अटलबिहारी वाजपेयी हमारे समय के ऐसे नायक
हैं जिन्होंने संवाद और संचार के माध्यम से जो जगह बनाई वह दुर्लभ है। हम उनके
समूचे व्यक्तित्व का आकलन करेंगे तो पाएंगे ‘संचार’ और ‘संवाद’ ही दो ऐसे तत्व
हैं, जिन्होंने उन्हें गढ़ा था। उन्होंने भारतीय राजनीति और
समाज को अपने व्यक्तित्व-कृतित्व से इस तरह प्रभावित किया जिसकी मिसाल नहीं मिलती।
हर राजनेता अपने कुछ विलक्षण गुणों के लिए
जाना जाता है। हमारे देश में त्याग,बलिदान, लोकसेवा, ग्रामीण विकास, समाज सुधार के
कामों में रुचि लेकर काम करके बढ़े अनेक नायक दिखते हैं। आजादी के आंदोलन में अनेक
नायक समाज सुधार के प्रकल्पों से जुड़े थे। खुद राष्ट्रपिता महात्मा एक समाज
सुधारक और आंदोलनकारी की तरह सामने आते हैं। लोकमान्य तिलक ने गणेश उत्सव और अपनी
समाज सुधार की चेतना से समाज में अलग तरह का जागरण किया। बाबा साहब आंबेडकर
गैरबराबरी के विरुद्ध संघर्ष से जननायक बन जाते हैं। नेताजी सुभाषचंद्र बोस अपनी
रणनीतिक कुशलता और सैन्य रूचियों से एक अलग संसार रच देते हैं। लालबहादुर शास्त्री
और दीनदयाल उपाध्याय अपनी निजी ईमानदारी और त्याग से आकर्षित करते हैं। नानाजी
देशमुख अपने ग्राम स्वराज्य के संकल्पों से जगह बनाते हैं। इसी तरह अनेक नायक
अलग-अलग कामों के माध्यम से सामने आगे आते हैं।
संवाद
नायक अटलजी-
इन सबके बीच अटलजी का किस्सा बहुत अलग है।
वे प्रथमतः और अंततः संवाद नायक हैं। अनोखे संवाद नायक। ह्दय से ह्दय का संवाद
करने वाले नायक। उन्हें सुनना इस देश का स्वभाव बन गया। वे कविताएं पढ़ रहे हों या
भाषण दे रहे हों, उनका संवेदनशील मन लोगों के दिलों को स्पर्श करता है। अपनी
भाषणकला से वे असाधारण नायक बने। हिंदी में होने वाले उनके व्याख्यानों ने सारे
देश को एक सूत्र में बांध दिया। उनके दल के वैचारिक और भौगोलिक विस्तार में सहायक
बना। वे ही ऐसे हैं जो प्रथम प्रधानमंत्री पं. जवाहर लाल नेहरू से लेकर आज के दौर
तक प्रासंगिक बने रहे। अपनी बीमारी के बाद भी उनका मौन बहुत मुखर था। उनके निधन के
बाद का समय याद कीजिए किस तरह सारा देश जुड़ गया था, वर्तमान प्रधानमंत्री सहित
सारी सरकार और लाखों लोग पैदल चलकर उन्हें अंतिम विदाई देने पहुंचे। उनमें
नौजवानों की संख्या बहुत थी जिन्होंने उन्हें देखा नहीं था। आनलाईन या टीवी
माध्यमों पर सुना था। उनकी कविताएं और भाषण आज भी लोकतंत्र को राह दिखाते हैं।
एक साधारण परिवार में जन्में
इस राजनेता ने अपनी भाषण कला,पत्रकारिता, लेखन, देहभाषा और विचारधारा के प्रति सातत्य का जो परिचय दिया वह आज की राजनीति
और समाज में दुर्लभ है। उनकी समूची यात्रा में उनका संवाद कौशल बार-बार उभरकर
सामने आता है, जो उन्हें उनके समकालीन नेताओं से बहुत अलग बनाता है। अटल जी का
मूल्यांकन करें तो वे मूलतःसंचारक ही हैं। उनकी इस प्रतिभा को पं. दीनदयाल
उपाध्याय ने पहचान लिया था और इसलिए जब उन्होंने लखनऊ से स्वदेश, राष्ट्रधर्म और
पांचजन्य जैसे प्रकाशन प्रारंभ किए तो उनकी नजर अटलजी ही पड़ी। इसके पहले से अटलजी
एक कवि के रूप में लोकप्रिय हो चुके थे। मंचों पर उनकी कविताएं सुनीं जाने लगीं
थीं। उनका कवि रूप भी बहुत संवादी है। उनकी कविताएं अप्रतिम संचार करती हैं। वे
लिखते हैं-
उजियारे में, अंधकार में, कल कहार में,
बीच धार में, क्षणिक जीत में, दीर्घ हार में,
परहित अर्पित अपना तन-मन,
जीवन को शत-शत आहुति में,
जलना होगा, गलना होगा।
कदम मिलाकर चलना होगा।
उनकी
संचार और संवाद कला ही उन्हें भारत जैसे महादेश का नायक बनाने में सबसे महत्वपूर्ण
है। एक बड़े परिवार का उत्तराधिकार पाकर कुर्सियां हासिल करना बहुत सरल है किंतु
वाजपेयी की पृष्ठभूमि और उनका संघर्ष देखकर लगता है कि संवादकला कैसे एक सामान्य
परिवार से आए बालक को महानायक बना सकती है। वे लोगों के स्वप्न को साकार करने वाले
नायक बने। लोगों ने उनके भाषण सुने और भरोसा किया। इन अर्थों में अटल जी का संवाद
ह्दय से ह्दय का संवाद बन जाता है।
याद
कीजिए अटल जी की कविता तन-मन हिंदू मेरा परिचय। वे अपनी कविताओं, लेखों ,भाषणों और जीवन से जो कुछ प्रकट करते रहे
उसमें इस मातृ-भू की अर्चना के सिवा क्या है। वे सही मायने में भारतीयता के ऐसे
अग्रदूत बने जिसने न सिर्फ सुशासन के मानकों को भारतीय राजनीति के संदर्भ में
स्थापित किया वरन अपनी विचारधारा को आमजन के बीच स्थापित कर दिया। उनके अद्भुत
संचार शैली की कविताएं, भाषण और लेख उनको लोगों के बीच ले गए। जिसने उन्हें सुना,
उनका दीवाना हो गया। जब वे पहली बार संसद पहुँचे, तो उनकी
भाषण कला से संसद भी प्रभावित हुई। तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने भी
श्री वाजपेयी की तारीफ की। इसके बाद श्री वाजपेयी ने पीछे मुड़कर नहीं देखा।
यशस्वी
संपादक एवं पत्रकार-
अटल जी
के संचार और संवाद के अनेक रूप हैं। जिसमें वे खुद को व्यक्त करते हैं। राष्ट्रीय
स्वयंसेवक संघ के आरंभिक प्रकाशनों स्वदेश, राष्ट्रधर्म और पांचजन्य के साथ वे
दैनिक वीर अर्जुन(दिल्ली) के भी संपादक बने। इस तरह उनका लेखन और संपादक कौशल
सामने दिखता है। वाराणसी शहर ने उनके अंदर के पत्रकार को पहचाना था और उसे मंच प्रदान किया
था। उनके पत्रकारिता जीवन की शुरुआत वाराणसी के 'समाचार'
नामक अखबार से हुई थी। यह अखबार 1942 में भईया
जी बनारसी ने शुरू किया था। उस समय इस अखबार का कार्यालय चेतगंज स्थित हबीबपुरा
मोहल्ले में था। अटल जी ने 1977 में एक चुनावी रैली में इस
बात की जानकारी दी थी। इस अखबार के लिए नानाजी देशमुख और बाला साहब देवरस भी लिखा
करते थे। प्रधानमंत्री बनने के बाद भी पत्रकारों, साहित्यकारों
से उनका संवाद बना रहा है। वे अखबारों के आयोजनों में भी जाते रहे। पत्रकारिता पर
राय देते रहे। ऐसे ही 20 जनवरी 1982 को‘तरुण भारत’
की रजत जयंती पर अटल जी ने कहा था कि “समाचार
पत्र के ऊपर एक बड़ा राष्ट्रीय दायित्व है। भले हम समाचार पत्रों की गणना उद्योग
में करें, कर्मचारियों के साथ न्याय करने की दृष्टि से आज यह
आवश्यक भी होगा, लेकिन समाचार पत्र केवल उद्योग नहीं है,
उससे भी कुछ अधिक है।” अटल जी ने स्वयं कई
साक्षात्कारों में बताया था कि वह अपने पत्रकारिता जीवन से काफी खुश थे। साल 1953
में भारतीय जनसंघ के नेता डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी कश्मीर को
विशेष दर्जा देने का विरोध कर रहे थे। जम्मू-कश्मीर में लागू परमिट सिस्टम को
विरोध करने मुखर्जी श्रीनगर चले गए। वे परमिट सिस्टम को तोड़कर श्रीनगर गए थे। इस
घटना को कवर करने के लिए पत्रकार के रूप में वाजपेयी वहां थे। अटलजी ने इंटरव्यू
में बताया, मुखर्जी को गिरफ्तार कर लिया था, लेकिन मैं वापस आ गया। इस घटना के कुछ दिनों बाद ही डॉ. मुखर्जी की बीमारी
के कारण मृत्यु हो गई। इस घटना से वाजपेयी पूरी तरह से हिल गए। इसके बाद उन्होंने
राजनीति में आने का निर्णय लिया।
वे पत्रकारिता में शुचिता के पक्षधर थे।
वे नहीं चाहते थे पत्रकारिता में किसी का अंधसमर्थन हो। वरिष्ठ पत्रकार श्री हेमंत
शर्मा ने एक लेख में अटल जी इस भावना को रेखांकित करते हुए लिखा है-“मैं उस समय लखनऊ में जनसत्ता का स्टेट ब्यूरो
चीफ था। अटलजी लखनऊ से ही चुनाव लड़ा करते थे. उन दिनों टीवी था नहीं, अखबार ही चलते थे। अटलजी दिल्ली से जो कुछ भी इनपुट दिया करते थे वो अगले
दिन उन्हें अखबार में छपा मिला करता था। इसीलिए भी वह मुझे सबसे ज्यादा स्नेह करते
थे। उन दिनों मैंने उनके पक्ष में दो-तीन रिपोर्टें लिखीं। पहले और दूसरे पर
उन्होंने कहा, “बहुत अच्छा लिखा।” इससे
मुझे काफी हिम्मत मिली। लेकिन तीसरे लेख पर उन्होंने अपने अंदाज में कहा, “भई, दिल्ली में आपका बड़ा रसूख है। आपकी विश्वसनीयता
बहुत है। आप पत्रकारिता में अपने विश्वास को बनाये रखिए. हमारे बारे में ज्यादा
लिखेंगे तो दूसरा पक्ष आपके प्रति अलग भाव रखेगा।” आज ऐसा
कहने वाले राजनेता दुर्लभ हैं जो दूसरे के मान की चिंता करते हैं। कुल मिलाकर इससे
पत्रकारिता की शुचिता पर उनका भरोसा पता चलता है।
पत्रकार तवलीन सिंह की किताब ‘दरबार’ में वे लिखती हैं- “21
महीने के बाद इमरजेंसी हटी थी। इसके बाद विपक्ष ने एकजुटता से
इंदिरा गांधी का मुकाबला करने का फैसला किया। इसी एकजुटता में पहली रैली दिल्ली के
रामलीला मैदान में आयोजित की गई।रैली को लेकर पत्रकारों में एक्साइटमेंट था। प्रेस
गैलरी में हम सब गपशप कर रहे थे। इस रैली में कम से कम लोग पहुंचे, इसके लिए इंदिरा गांधी ने दूरदर्शन पर उस समय पर सुपर-डुपर हिट फिल्म ‘बॉबी’ का प्रसारण करवा दिया। लेकिन ‘बॉबी’ भी लोगों को रामलीला मैदान आने से न रोक सकी। शाम
के लगभग 6 बजे नेताओं का काफिला आया… वे
सब लोग सफेद एम्बेसडर कारों से आए। उनमें से अधिकर बूढ़े हो चुके थे। बोलने का
क्रम शुरू हुआ। एक-एक करके माइक पर आते और बोरिंग स्पीच देते। हर कोई जेल में अपने
अनुभव बता रहा था। भीड़ भी बोर हो रही थी और अब थकने लगी थी। तभी मैंने हिंदुस्तान
टाइम्स के अपने साथी से कहा कि अगर किसी ने बहुत कुछ
हटकर नहीं बोला तो लोग यहाँ और टिकने वाले नहीं हैं। रात
के 9 बज चुके थे। हालांकि बारिश रुक चुकी थी लेकिन सर्दी थी।
तभी उस साथी ने मुस्काराकर जवाब दिया… चिंता मत करो,
जब तक अटलजी नहीं बोल लेते, कोई नहीं जाएगा। ये लोग उन्हें ही सुनने आए हैं। फिर लगभग 9:30
के आसपास अटलजी की बारी आई… जैसे ही बोलने के
लिए खड़े हुए। भीड़ उत्साह से भर गई, तमाम लोग खड़े होकर
तालियां बजाने लगे। नारे लगे। अटल बिहारी जिंदाबाद… अटलजी ने दोनों हाथ जोड़कर भीड़ का अभिवादन स्वीकार किया फिर हवा में
दोंनो हाथ लहराकर भीड़ से शांत होने का इशारा किया। फिर एक मंझे हुए अभिनेता की
तरह आंखें बंद करते हुए बोले… बाद मुद्दत के मिले
हैं दीवाने… अपने चिरपरिचित अंदाज में अटलजी थोड़ा
रुके। इतने भर में भीड़ बौरा गई। जब शोर शांत हुआ तो फिर आंखें बंद की और लंबी
खामोशी के बाद बोलना शुरू किया… कहने-सुनने को बहुत
हैं अफसाने… भीड़ अब उम्मादी/बेकाबू सी हो चुकी थी… खुली हवा में जरा सांस तो ले लें, कब तक रहेगी
आज़ादी कौन जाने!” जाहिर है संवाद पर ऐसी पकड़ उनकी ही
थी। वे किसी भी सभा का मूल आकर्षण होते थे।विपक्ष अनेक सर्वदलीय सभाओं में
दिग्गजों के बीच भी उनका भाषण अंत में करवाया जाता था, क्योंकि जनता उनको ही सुनने
के लिए आती थी। उनका एक अलग आकर्षण था। उनके ऐसे अनेक किस्से लोकविमर्श में हैं।
अटल जी का गांव आगरा जिले के बटेश्वर
में हैं। वहां अटल बिहारी वाजपेयी और मामा जी के नाम से विख्यात माणिकचंद्र
वाजपेयी दो पत्रकार निकले। मामा जी और अटल जी दोनों स्वदेश के संपादक रहे।
अटल जी के मन में पत्रकारिता के प्रति इतना आदर था कि उन्होंने मामा जी का सम्मान
समारोह प्रधानमंत्री आवास पर आयोजित किया और उनके बारे में न सिर्फ विचार रखे वरन
उनके चरण भी छुए। यह उनकी विनम्रता थी जो मामा जी के गुणों का सार्वजनिक सम्मान कर
रही थी। देश के अनेक लेखकों से उनका संवाद और पत्राचार था। किताबों को पढ़ना और उन
पर टिप्पणी करना उनकी रुचि का हिस्सा था।
संवाद से
समन्वय-
अटल जी का संवाद पर बहुत गहरा भरोसा था। वे हर
बार कहते थे कि कोई भी ऐसा संकट नहीं जो बातचीत से हल न किया जा सके। उनके शब्दों
पर लोग विश्वास करते थे। इसीलिए वे एक ऐसी सरकार के नायक बने जिसने भारतीय राजनीति
में समन्वय की राजनीति की शुरुआत की।किसी भी मिली- जुली सरकार को चलाना संवाद के
बगैर संभव नहीं है। वह एक ऐसी राष्ट्रीय सरकार बनी जिसमें विविध विचारों,
क्षेत्रीय हितों का प्रतिनिधित्व करने वाले तमाम लोग शामिल थे। दो
दर्जन दलों के विचारों को एक मंत्र से साधना आसान नहीं था। किंतु अटल जी की
राष्ट्रीय दृष्टि, उनकी साधना, संवाद कौशल और बेदाग
व्यक्तित्व ने सारा कुछ संभव कर दिया। वे सही मायने में भारतीयता और उसके औदार्य
के उदाहरण बन गए। उनकी सरकार ने अस्थिरता के भंवर में फंसे देश को एक नई राजनीति
को राह दिखाई। यह रास्ता मिली-जुली सरकारों की सफलता की मिसाल बन गया। भारत जैसे
देशों में जहां मिलीजुली सरकारों की सफलता एक चुनौती थी, अटलजी
ने साबित किया कि स्पष्ट विचारधारा,राजनीतिक चिंतन, संवाद और
समन्वय, साफ नजरिए से भी परिवर्तन लाए जा सकते हैं। विपक्ष भी उनकी कार्यकुशलता और
व्यक्तित्व पर मुग्ध था। यह शायद उनके विशाल व्यक्तित्व के चलते संभव हो पाया,
जिसमें सबको साथ लेकर चलने की भावना थी। देश प्रेम था, देश का विकास करने की इच्छाशक्ति थी। उनकी नीयत पर किसी कोई शक नहीं था।
शायद इसीलिए उनकी राजनीतिक छवि एक ऐसे निर्मल राजनेता की बनी जिसके मन में
विरोधियों के प्रति भी कोई दुराग्रह नहीं था।
उनकी सरकार सुशासन के उदाहरण रचने वाली साबित
हुई। जनसमर्थक नीतियों के साथ महंगाई पर नियंत्रण रखकर सरकार ने यह साबित किया कि
देश यूं भी चलाया जा सकता है। सन् 1999 के राजग के चुनाव घोषणापत्र का आकलन करें तो पता चलता है कि उसने “सुशासन प्रदान करने की हमारी प्रतिबद्धता”जैसे विषय
को उठाने के साथ कहा-“लोगों के सामने हमारी प्रथम
प्रतिबद्धता एक ऐसी स्थायी, ईमानदार, पारदर्शी
और कुशल सरकार देने की है, जो चहुंमुखी विकास करने में सक्षम
हो। इसके लिए सरकार आवश्यक प्रशासनिक सुधारों के समयबद्ध कार्यक्रम शुरू करेगी,
इन सुधारों में पुलिस और अन्य सिविल सेवाओं में किए जाने वाले सुधार
शामिल हैं।” राजग ने देश के सामने ऐसे सुशासन का आदर्श रखा
जिसमें राष्ट्रीय सुरक्षा, राष्ट्रीय पुनर्निर्माण, संघीय समरसता, आर्थिक आधुनिकीकरण, सामाजिक न्याय, शुचिता जैसे सवाल शामिल थे। आम जनता
से जुड़ी सुविधाओं का व्यापक संवर्धन, आईटी क्रांति, सूचना क्रांति इससे जुड़ी उपलब्धियां हैं।
अपनी कुशल संवाद शैली से
उन्होंने देश में सकारात्मकता का संचार किया और अपने दल और सहयोगियों के लिए
जनसमर्थन जुटाया। चुनाव अभियान सही मायने में लोकसंचार के सबसे बड़े उदाहरण हैं,
जिसमें आप निरंतर संवाद करते हुए जनता का भरोसा हासिल करते हैं। भारत जैसे महादेश
में अटल जी ने इसे संभव किया। अटल जी जिस तरह पूरे देश का निरंतर प्रवास किया,
उसने न सिर्फ उनकी संवेदात्मक ग्रहणशीलता को व्यापक किया बल्कि सरोकारी भी बनाया।
विपक्ष के नेता के रूप में संसद में उनके व्याख्यान संचार और संवाद कला उदाहरण
हैं। उन्होंने बहुत संवेदना के साथ पूरी मर्यादा में रहते हुए लोकतंत्र को मजबूती
देना का काम किया। एक सांसद के रुप में उनकी सक्रियता राज्यसभा और लोकसभा में हुए
उनके व्याख्यान उनकी अध्ययनशीलता और देशप्रेम का उदाहरण हैं। जब वे सदन में खड़े
होते थे, तब उन्हें सुनने की लालसा सांसदों को भी रहती थी। उनके सुनने के सांसद
अपनी व्यस्तताओं के बीच भी सदन में रहते थे। नये सांसदों के वे प्रेरणापुरुष ही
थे। नयी पीढ़ी को इस तरह प्रेरित और प्रशिक्षित करना उनका विरल योगदान है। जो लोग
आज भी याद करते हैं। संसदीय परंपराओं और लोकतांत्रिक मर्यादा का उन सरीखा समर्थक
दुर्लभ है। उनका संसदीय जीवन ऐसी कथा है जिस पर शोध किए जाने की जरूरत है।
एक
भारतीय प्रधानमंत्री-
संचार और
संवाद की सफलता बहुत कुछ देहभाषा (बाडी लैंग्वेंज) पर निर्भर करती है। जैसे
महात्मा गांधी, सुभाषचंद्र बोस अपनी देहभाषा से बहुत कुछ कहते थे। अटलजी ने भी
अपनी देहभाषा, वेशभूषा से देश को जोड़ा। लोग उनमें अपनी छवि देख पाए। खुद को उनसे
जोड़ पाए।अटलबिहारी बाजपेयी सही मायने में एक ऐसे प्रधानमंत्री थे जो भारत को
समझते थे। भारतीयता को समझते थे। राजनीति में उनकी खींची लकीर इतनी लंबी है जिसे
पारकर पाना संभव नहीं दिखता। अटलजी सही मायने में एक ऐसी विरासत के उत्तराधिकारी
हैं जिसने राष्ट्रवाद को सर्वोपरि माना। देश को सबसे बड़ा माना। देश के बारे में
सोचा और अपना सर्वस्व देश के लिए अर्पित किया।
उनकी समूची राजनीति राष्ट्रवाद के संकल्पों को
समर्पित रही। वे भारत के प्रधानमंत्री बनने से पहले विदेश मंत्री भी रहे। उनकी
यात्रा सही मायने में एक ऐसे नायक की यात्रा है जिसने विश्वमंच पर भारत और उसकी
संस्कृति को स्थापित करने का प्रयास किया। मूलतः पत्रकार और संवेदनशील कवि रहे अटल
जी के मन में पूरी विश्वमानवता के लिए एक संवेदना है। यह बार-बार उनकी वाणी से,
लेखों से कविताओं से मुखर होती है। यही भारतीय तत्व है। इसके चलते ही उनके विदेश
मंत्री रहते पड़ोसी देशों से रिश्तों को सुधारने के प्रयास हुए तो प्रधानमंत्री रहते
भी उन्होंने इसके लिए प्रयास जारी रखे। भले ही कारगिल का धोखा मिला, पर उनका मन इन सबके विपरीत एक प्रांजलता से भरा रहा। उन्होंने संवाद किया
और भरोसा किया। बदले की भावना न तो उनके जीवन में थी न राजनीति में। इसी के चलते
वे अजातशत्रु कहे जाते रहे। उनकी यही संवेदना भी इस कविता में व्यक्त होती है-
छोटे
मन से कोई बड़ा नहीं होता
टूटे
मन से कोई खड़ा नहीं होता।
हाजिरजवाबी
और संवादशैली-वे अपनी हाजिर जवाबी और मजाकिया
अंदाज में गंभीर बात कहने की खूबी से हर किसी का दिल जीत लेते थे। फरूर्खाबाद में 1991
में ऐसे ही एक वाकये को उस दौर के साक्षी लोग आज भी यादों में संजोए
हैं। तब पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी जी भाजपा प्रत्याशी ब्रह्मदत्त
द्विवेदी के समर्थन में आयोजित जनसभा को संबोधित करने आए थे। मंच काफी ऊंचा बना था
तो पहले इस पर ही चुटकी ली। बोले, “मुझे नहीं पता कि मैं मंच
पर खड़ा हूं या मचान पर।” उनका इतना कहना था कि मैदान में
भीड़ के बीच ठहाकों के साथ तालियां गूंज गई। दरअसल, अटल
बिहारी वाजपेयी जी के कार्यक्रम की अचानक सूचना पर आननफानन में एक ट्रक को खड़वा
कर उसे मंच का रूप दे दिया गया था।
भारत-पाक रिश्तों में सहजता लाने के लिए वे
1999 में बस से लाहौर गए थे। वहां पहुंचने पर पाकिस्तानी मीडिया की एक महिला पत्रकार
ने उनसे कश्मीर को लेकर सवाल पूछने के साथ ही शादी का प्रस्ताव भी दे दिया। महिला
पत्रकार ने कहा, “मैं आपसे शादी करना चाहती हूं,
लेकिन मुंह दिखाई में कश्मीर लूंगी।” इस पर
अटल जी ने खूबसूरत जवाब देकर सबको हैरान कर दिया। उन्होंने कहा, “मैं शादी के लिए तैयार हूं, लेकिन मुझे दहेज में
पूरा पाकिस्तान चाहिए।” उनका यह जवाब मीडिया की सुर्खियां बन
गया था और काफी चर्चित रहा। ऐसे अनेक उदाहरण अटल जी की हाजिर जबावी के मशहूर हैं।
एक बार वे मेरे शहर बस्ती (उत्तर प्रदेश) में थे। वहां की सभा में काफी विलंब से
पहुंचे। लोग इंतजार करते रहे और अंततः अटलजी आए। वे बोले, “मैं
देर से आया हूं लेकिन दूर से आया हूं।” लोगों की तालियों ने
उनका समर्थन किया। वे फिर बोले “मैंने आज दिल्ली की लोकसभा
सीटों पर प्रचार किया और उन्हें मथ डाला और इस मंथन से अमृत निकलेगा।” उनके भाषण कविता की तरह दिलों में उतर जाते थे। मैंने अमीनाबाद (लखनऊ)
में उन्हें एक चुनावी सभा में ही सुना। उन सभा बिजली चली गयी। वे बोलते रहे। भीड़
थोड़ी इधर- उधर हुई तो वो बोले “अरे भाई मैं सुनने की चीज
हूं, देखने की नहीं।” फिर क्या था तालियां बजने लगीं। इस बीच
माइक भी बंद हो गया। उन्होंने गहरे व्यंग्यबोध से कहा “अरे
भाई क्या माइक भी चंदे में लाए हो।” इस तरह उनका हास्य,
व्यंग्य और सरलता से संवाद दिलों में उतर जाता था।
सही
मायने में राजनीति में उनकी अनुपस्थिति इसलिए भी बेतरह याद की जाती है,
क्योंकि उनके बाद मूल्यपरक राजनीति का अंत होता दिखता है। क्षरण तेज
हो रहा है, आदर्श क्षरित हो रहे हैं। उसे बचाने की कोशिशें
असफल होती दिख रही हैं। आज भी वे एक जीवंत इतिहास की तरह हमें प्रेरणा दे रहे हैं।
वे एक ऐसे नायक हैं जिसने हमारे इसी कठिन समय में हमें प्रेरणा दी और हममें ऊर्जा
भरी और स्वाभिमान के साथ साफ-सुथरी राजनीति का पाठ अपने समूचे जीवन और संवाद से
अटलजी जो पाठ पढ़ाते हैं उसमें राजनीति कम और राष्ट्रीय चेतना ज्यादा है। सारा
जीवन एक तपस्वी की तरह जीते हुए भी वे राजधर्म को निभाते हैं। सत्ता में रहकर भी
वीतराग उनका सौंदर्य है। वे एक लंबी लकीर खींच गए हैं, इसे
उनके चाहनेवालों को न सिर्फ बड़ा करना है बल्कि उसे दिल में भी उतारना होगा। उनके
सपनों का भारत तभी बनेगा और सामान्य जनों की जिंदगी में उजाला फैलेगा।
स्वतंत्र भारत के इस करिश्माई नेता का
व्यक्तित्व और कृतित्व सदियों तक याद किया जाएगा, वे धन्य हैं जिन्होंने अटल जी को देखा, सुना और उनके
साथ काम किया है। ये यादें और उनके काम ही प्रेरणा बनें तो भारत को परमवैभव तक
पहुंचने से रोका नहीं जा सकता। उनकी कविता और भाषण दोनों देश के लिए हैं। लोगों को
जगाने के लिए हैं। ऐसी ही एक कविता में वे कहते हैं-
भारत जमीन का टुकड़ा नहीं,
जीता जागता राष्ट्रपुरुष है।
हिमालय मस्तक है, कश्मीर किरीट है,
पंजाब और बंगाल दो विशाल कंधे हैं।
पूर्वी और पश्चिमी घाट दो विशाल जंघायें
हैं।
कन्याकुमारी इसके चरण हैं, सागर इसके पग पखारता है।
यह चन्दन की भूमि है, अभिनन्दन की भूमि है,
यह तर्पण की भूमि है, यह अर्पण की भूमि है।
इसका कंकर-कंकर शंकर है,
इसका बिन्दु-बिन्दु गंगाजल है।
हम जियेंगे तो इसके लिये
मरेंगे तो इसके लिये।
ऐसी अनेक कविताएं और लोकप्रिय भाषणों से लोगों के दिलों में वे
बसे रहे। उन्हें सुनने के लिए विरोधी दलों के लोग भी जाते थे। उनको सुनने का सुख
विरल था। लंबे समय तक विपक्ष में रहने के बाद भी उनकी लोकप्रियता अपार थी। लोग
बताते हैं कि देश में प्रधानमंत्री के बाद अगर किसी की सभा में स्वस्फूर्त
सर्वाधिक लोग आते थे तो वे अटल जी थे। उन्होंने वाक् को साध लिया था। उसी की
आराधना की थी। अनोखे संचारक, विरल वक्ता, संवेदनशील कवि, मंचों के नायक, अप्रतिम
संसदविद् जैसी उनकी अनेक छवियां हैं। वे संचार के महानायक थे। लोक में व्याप्त
उनकी स्मृति इतनी सघन है कि आज भी लोग उनका नाम सुनकर श्रद्धा से भर जाते हैं।
