सोमवार, 8 सितंबर 2025

मीडिया विद्यार्थियों को 'डिजिटल ट्रांसफॉर्म' के तैयार करें- प्रो.संजय द्विवेदी

                                                                       इंटरव्यू 

प्रो.संजय द्विवेदी से  वरिष्ठ पत्रकार रईस अहमद लाली की अंतरंग बाचतीत


 

प्रोफ़ेसर(डा.) संजय द्विवेदी मीडिया शिक्षा के क्षेत्र में एक जानी-मानी शख्सियत हैं। वे भारतीय जन संचार संस्थान (IIMC) दिल्ली के महानिदेशक रह चुके हैं। माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय के प्रभारी कुलपति और कुलसचिव बतौर भी उन्होंने अपनी सेवाएं दी हैं। मीडिया शिक्षक होने के साथ ही प्रो.संजय द्विवेदी ने सक्रिय पत्रकार और दैनिक अखबारों के संपादक के रूप में भी भूमिकाएं निभाई हैं। वह मीडिया विमर्श पत्रिका के कार्यकारी संपादक भी हैं। 35 से ज़्यादा पुस्तकों का लेखन और संपादन भी किया है। सम्प्रति वे माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय,भोपाल के जनसंचार विभाग में प्रोफेसर और विभागाध्यक्ष  हैं। मीडिया शिक्षा, मीडिया की मौजूदा स्थिति, नयी शिक्षा नीति जैसे कई अहम् मुद्दों पर वरिष्ठ पत्रकार रईस अहमद 'लाली' ने उनसे लम्बी बातचीत की है। प्रस्तुत हैं इस बातचीत के सम्पादित अंश : 

 

- संजय जी, प्रथम तो आपको बधाई कि वापस आप दिल्ली से अपने पुराने कार्यस्थल राजा भोज की नगरी भोपाल में आ गए हैं। यहाँ आकर कैसा लगता है आपको? मेरा ऐसा पूछने का तात्पर्य इन शहरों से इतर मीडिया शिक्षा के माहौल को लेकर इन दोनों जगहों के मिजाज़ और वातावरण को लेकर भी है। 

अपना शहर हमेशा अपना होता है। अपनी जमीन की खुशबू ही अलग होती है। जिस शहर में आपने पढ़ाई की, पत्रकारिता की, जहां पढ़ाया उससे दूर जाने का दिल नहीं होता। किंतु महत्वाकांक्षाएं आपको खींच ले जाती हैं। सो दिल्ली भी चले गए। वैसे भी मैं जलावतन हूं। मेरा कोई वतन नहीं है। लेकिन मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ की जमीन मुझे बांधती है। मैंने सब कुछ यहीं पाया। कहने को तो यायावर सी जिंदगी जी है। जिसमें दिल्ली भी जुड़ गया। आप को गिनाऊं तो मैंने अपनी जन्मभूमि (अयोध्या) के बाद 11 बार शहर बदले, जिनमें बस्ती, लखनऊ,वाराणसी, भोपाल, रायपुर, बिलासपुर, मुंबई, दिल्ली सब शामिल हैं। जिनमें दो बार रायपुर आया और तीसरी बार भोपाल में हूं। बशीर बद्र साहब का एक शेर है, जब मेरठ दंगों में उनका घर जला दिया गया, तो उन्होंने कहा था-

मेरा घर जला तो

सारा जहां मेरा घर हो गया।

मैं खुद को खानाबदोश तो नहीं कहता, पर यायावर कहता हूं। अभी भी बैग तैयार है। चल दूंगा। जहां तक वातावरण की बात है, दिल्ली और भोपाल की क्या तुलना। एक राष्ट्रीय राजधानी है,दूसरी राज्य की राजधानी। मिजाज की भी क्या तुलना हम भोपाल के लोग चालाकियां सीख रहे हैं, दिल्ली वाले चालाक ही हैं। सारी नियामतें दिल्ली में बरसती हैं। इसलिए सबका मुंह दिल्ली की तरफ है। लेकिन दिल्ली या भोपाल हिंदुस्तान नहीं हैं। राजधानियां आकर्षित करती हैं , क्योंकि यहां राजपुत्र बसते हैं। हिंदुस्तान बहुत बड़ा है। उसे जानना अभी शेष है।

 

- भोपाल और दिल्ली में पत्रकारिता और जन संचार की पढ़ाई के माहौल में क्या फ़र्क़ महसूस किया आपने ?

भारतीय जन संचार संस्थान में जब मैं रहा, वहां डिप्लोमा कोर्स चलते रहे। साल-साल भर के। उनका जोर ट्रेनिंग पर था। देश भर से प्रतिभावान विद्यार्थी वहां आते हैं, सबका पहला चयन यही संस्थान होता है। माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय इस मायने में खास है उसने पिछले तीस सालों से स्नातक और स्नातकोत्तर के रेगुलर कोर्स चलाए और बड़ी संख्या में मीडिया वृत्तिज्ञ ( प्रोफेसनल्स) और मीडिया शिक्षा निकाले। अब आईआईएमसी भी विश्वविद्यालय भी बन गया है। सो एक नई उड़ान के लिए वे भी तैयार हैं।

 

- आप देश के दोनों प्रतिष्ठित पत्रकारिता संस्थानों के अहम् पदों को सुशोभित कर चुके हैं। दोनों के बीच क्या अंतर पाया आपने ? दोनों की विशेषताएं आपकी नज़र में ?

दोनों की विशेषताएं हैं। एक तो किसी संस्था को केंद्र सरकार का समर्थन हो और वो दिल्ली में हो तो उसका दर्जा बहुत ऊंचा हो जाता है। मीडिया का केंद्र भी दिल्ली है। आईआईएमसी को उसका लाभ मिला है। वो काफी पुराना संस्थान है, बहुत शानदार एलुमूनाई है , एक समृध्द परंपरा है उसकी । एचवाई शारदा प्रसाद जैसे योग्य लोगों की कल्पना है वह। माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय(एमसीयू) एक राज्य विश्वविद्यालय है, जिसे सरकार की ओर से बहुत पोषण नहीं मिला। अपने संसाधनों पर विकसित होकर उसने जो भी यात्रा की, वह बहुत खास है। कंप्यूटर शिक्षा के लोकव्यापीकरण में एमसीयू की एक खास जगह है। देश के अनेक विश्वविद्यालयों में आप जाएंगें तो मीडिया शिक्षकों में एमसीयू के  ही पूर्व छात्र हैं, क्योंकि स्नातकोत्तर कोर्स यहीं चल रहे थे। पीएचडी यहां हो रही थी। सो दोनों की तुलना नहीं हो सकती। योगदान दोनों का बहुत महत्वपूर्ण है।

 

- आप लम्बे समय से मीडिया शिक्षक रहे हैं और सक्रिय पत्रकारिता भी की है आपने। व्यवहारिकता के धरातल पर मौजूदा मीडिया शिक्षा को कैसे देखते हैं ?

एक समय था जब माना जाता है कि पत्रकार पैदा होते हैं और पत्रकारिता पढ़ा कर सिखाई नहीं जा सकती। अब वक्त बदल गया है। जनसंचार का क्षेत्र आज शिक्षा की दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण हो गया है। 

   मीडिया शिक्षा में सिद्धांत और व्यवहार का बहुत गहरा द्वंद है। ज्ञान-विज्ञान के एक अनुशासन के रूप में इसे अभी भी स्थापित होना शेष है। कुछ लोग ट्रेनिंग पर आमादा हैं तो कुछ किताबी ज्ञान को ही पिला देना चाहते हैं। जबकि दोनों का समन्वय जरूरी है। सिद्धांत भी जरूरी हैं। क्योंकि जहां हमने ज्ञान को छोड़ा है, वहां से आगे लेकर जाना है। शोध, अनुसंधान के बिना नया विचार कैसे आएगा। वहीं मीडिया का व्यवहारिक ज्ञान भी जरूरी है। मीडिया का क्षेत्र अब संचार शिक्षा के नाते बहुत व्यापक है। सो विशेषज्ञता की ओर जाना होगा। आप एक जीवन में सब कुछ नहीं कर सकते। एक काम अच्छे से कर लें, वह बहुत है। इसलिए भ्रम बहुत है। अच्छे शिक्षकों का अभाव है। एआई की चुनौती अलग है। चमकती हुई चीजों ने बहुत से मिथक बनाए और तोड़े हैं। सो चीजें ठहर सी गयी हैं, ऐसा मुझे लगता है।

 

- नयी शिक्षा निति को केंद्र सरकार नए सपनों के नए भारत के अनुरूप प्रचारित कर रही है, जबकि आलोचना करने वाले इसमें तमाम कमियां गिना रहे हैं। एक शिक्षक बतौर आप इन नीतियों को कैसा पाते हैं?

राष्ट्रीय शिक्षा नीति बहुत शानदार है। जड़ों से जोड़कर मूल्यनिष्ठा पैदा करना, पर्यावरण के प्रति प्रेम, व्यक्ति को आत्मनिर्भर बनाना यही लक्ष्य है। किंतु क्या हम इसके लिए तैयार हैं। सवाल यही है कि अच्छी नीतियां- संसाधनों, शिक्षकों के समर्पण, प्रशासन के समर्थन की भी मांग करती हैं। हमें इसे जमीन पर उतारने के लिए बहुत तैयारी चाहिए। भारत दिल्ली में न बसता है, न चलता है। इसलिए जमीनी हकीकतों पर ध्यान देने की जरूरत है। शिक्षा हमारे तंत्र की कितनी बड़ा प्राथमिकता है, इस पर भी सोचिए। सच्चाई यही है कि मध्यवर्ग और निम्न मध्यवर्ग ने भी अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों से हटा लिया है। वे सरकारी संस्थानों से कोई उम्मीद नहीं रखते। इस विश्वास बहाली के लिए सरकारी संस्थानों के शिक्षकों, प्रबंधकों और सरकारी तंत्र को बहुत गंभीर होने की जरूरत है। उत्तर प्रदेश के ताकतवर मुख्यमंत्री प्राथमिक शिक्षकों की विद्यालयों में उपस्थिति को लेकर एक आदेश लाते हैं, शिक्षक उसे वापस करवा कर दम लेते हैं। यही सच्चाई है।

 

- पत्रकारिता में करियर बनाने के लिए क्या आवश्यक शर्त है ?

पत्रकारिता, मीडिया या संचार तीनों क्षेत्रों में बनने वाली नौकरियों की पहली शर्त तो भाषा ही है। हम बोलकर, लिखकर भाषा में ही खुद को व्यक्त करते हैं। इसलिए भाषा पहली जरूरत है। तकनीक बदलती रहती है, सीखी जा सकती है। किंतु भाषा संस्कार से आती है। अभ्यास से आती है। पढ़ना, लिखना, बोलना, सुनना यही भाषा का असल स्कूल और परीक्षा है। भाषा के साथ रहने पर भाषा हममें उतरती है। यही भाषा हमें अटलबिहारी वाजपेयी,अमिताभ बच्चन, नरेंद्र मोदी,आशुतोष राणा या कुमार विश्वास जैसी सफलताएं दिला सकती है। मीडिया में अनेक ऐसे चमकते नाम हैं, जिन्होंने अपनी भाषा से चमत्कृत किया है। अनेक लेखक हैं, जिन्हें हमने रात भर जागकर पढ़ा है। ऐसे विज्ञापन लेखक हैं जिनकी पंक्तियां हमने गुनगुनाई हैं। इसलिए भाषा, तकनीक का ज्ञान और अपने पाठक, दर्शक की समझ हमारी सफलता की गारंटी है। इसके साथ ही पत्रकारिता में समाज की समझ, मिलनसारिता, संवाद की क्षमता बहुत मायने रखती है।

 

- मीडिया शिक्षा में कैसे नवाचारों की आवश्यकता है?

शिक्षा का काम व्यक्ति को आत्मनिर्भर और मूल्यनिष्ठ मनुष्य बनाना है। जो अपनी विधा को साधकर आगे ले जा सके। मीडिया में भी ऐसे पेशेवरों का इंतजार है जो फार्मूला पत्रकारिता से आगे बढ़ें। जो मीडिया को इस देश की आवाज बना सकें। जो एजेंड़ा के बजाए जन-मन के सपनों, आकांक्षाओं को स्वर दे सकें। इसके लिए देश की समझ बहुत जरूरी है। आज के मीडिया का संकट यह है वह नागरबोध के साथ जी रहा है। वह भारत के पांच प्रतिशत लोगों की छवियों को प्रक्षेपित कर रहा है। जबकि कोई भी समाज अपनी लोकचेतना से खास बनता है। देश की बहुत गहरी समझ पैदा करने वाले, संवेदनशील पत्रकारों का निर्माण जरूरी है। मीडिया शिक्षा को संवेदना, सरोकार, राग, भारतबोध से जोड़ने की जरूरत है। पश्चिमी मानकों पर खड़ी मीडिया शिक्षा को भारत की संचार परंपरा से जोड़ने की जरूरत है। जहां संवाद से संकटों के हल खोजे जाते रहे हैं। जहां संवाद व्यापार और व्यवसाय नहीं, एक सामाजिक जिम्मेदारी है।

 

- देश में मीडिया की मौजूदा स्थिति को लेकर आपकी राय क्या है?

मीडिया शिक्षा का विस्तार बहुत हुआ है। हर केंद्रीय विश्वविद्यालय में मीडिया शिक्षा के विभाग हैं। चार विश्वविद्यालय- भारतीय जन संचार संस्थान(दिल्ली), माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विवि(भोपाल), हरिदेव जोशी पत्रकारिता विवि(जयपुर) और कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता एवं जनसंचार विवि(रायपुर) देश में काम कर रहे हैं। इन सबकी उपस्थिति के साथ-साथ निजी विश्वविद्यालय और कालेजों में भी जनसंचार की पढ़ाई हो रही है। यानि विस्तार बहुत हुआ है। अब हमें इसकी गुणवत्ता पर ध्यान देने की जरूरत है। ये जो चार विश्वविद्यालय हैं वे क्या कर रहे हैं। क्या इनका आपस में भी कोई समन्वय है। विविध विभागों में क्या हो रहा है। उनके ज्ञान, शोध और आइडिया एक्सचेंज जैसी व्यवस्थाएं बनानी चाहिए। दुनिया में मीडिया या जनसंचार शिक्षा के जो सार्थक प्रयास चल रहे हैं, उसकी तुलना में हम कहां हैं। बहुत सारी बातें हैं, जिनपर बात होनी चाहिए। अपनी ज्ञान विधा में हमने क्या जोड़ा। हमारे वर्तमान प्रधानमंत्री ने भी एक समय देश में एक ग्लोबल कम्युनिकेशन यूनिर्वसिटी बनाने की बात की थी। देखिए क्या होता है।

    बावजूद इसके हम एक मीडिया शिक्षक के नाते क्या कर पा रहे हैं। यह सोचना है। वरना तो मशहूर शायर अकबर इलाहाबादी हमारे लिए ही लिख गए हैं-

हम क्या कहें अहबाब क्या कार-ए-नुमायाँ कर गए।

बी-ए हुए नौकर हुए पेंशन मिली फिर मर गए।।

 

- आज की मीडिया और इससे जुड़े लोगों के अपने मिशन से भटक जाने और पूरी तरह  पूंजीपतियों, सत्ताधीशों के हाथों बिक जाने की बात कही जा रही है। इससे आप कितना इत्तेफ़ाक़ रखते हैं?

देखिए मीडिया चलाना साधारण आदमी को बस की बात नहीं है। यह एक बड़ा उद्यम है। जिसमें बहुत पूंजी लगती है। इसलिए कारपोरेट,पूंजीपति या राजनेता चाहे जो हों, इसे पोषित करने के लिए पूंजी चाहिए। बस बात यह है कि मीडिया किसके हाथ में है। इसे बाजार के हवाले कर दिया जाए या यह एक सामाजिक उपक्रम बना रहेगा। इसलिए पूंजी से नफरत न करते हुए इसके सामाजिक, संवेदनशील और जनधर्मी बने रहने के लिए निरंतर लगे रहना है। यह भी मानिए कोई भी मीडिया जनसरोकारों के बिना नहीं चल सकता। प्रामणिकता, विश्वसनीयता उसकी पहली शर्त है। पाठक और दर्शक सब समझते हैं।

 

- आपकी नज़र में इस वक़्त देश में मीडिया शिक्षा की कैसी स्थिति है ? क्या यह बेहतर पत्रकार बनाने और मीडिया को सकारात्मक दिशा देने का काम कर पा रही है ?

मैं मीडिया शिक्षा क्षेत्र से 2009 से जुड़ा हूं। मेरे कहने का कोई अर्थ नहीं है। लोग क्या सोचते हैं, यह बड़ी बात है। मुझे दुख है कि मीडिया शिक्षा में अब बहुत अच्छे और कमिटेड विद्यार्थी नहीं आ रहे हैं। अजीब सी हवा है। भाषा और सरोकारों के सवाल भी अब बेमानी लगने लगे हैं। सबको जल्दी ज्यादा पाने और छा जाने की ललक है। ऐसे में स्थितियां बहुत सुखद नहीं हैं। पर भरोसा तो करना होगा। इन्हीं में से कुछ भागीरथ निकलेंगें जो हमारे मीडिया को वर्तमान स्थितियों से निकालेगें। ऐसे लोग तैयार करने होंगें, जो बहुत जल्दी में न हों। जो ठहरकर पढ़ने और सीखने के लिए तैयार हों। वही लोग बदलाव लाएंगें।

 

- देश में आज मीडिया शिक्षा के सामने प्रमुख चुनौतियाँ क्या हैं?

सबसे बड़ी चुनौती है ऐसे विद्यार्थियों का इंतजार जिनकी प्राथमिकता मीडिया में काम करना हो। सिर्फ इसलिए नहीं कि यह ग्लैमर या रोजगार दे पाए। बल्कि देश के लोगों को संबल, साहस और आत्मविश्वास दे सके। संचार के माध्यम से क्या नहीं हो सकता। इसकी ताकत को मीडिया शिक्षकों और विद्यार्थियों को पहचानना होगा। क्या हम इसके लिए तैयार हैं,यह एक बड़ा सवाल है। मीडिया शिक्षा के माध्यम से हम ऐसे क्म्युनिकेटर्स तैयार कर सकते हैं जिनके माध्यम से समाज के संकट हल हो सकते हैं। यह साधारण शिक्षा नहीं है। यह असाधारण है। भाषा,संवाद,सरोकार और संवेदनशीलता से मिलकर हम जो भी रचेगें, उससे ही नया भारत बनेगा। इसके साथ ही मीडिया एजूकेशन कौंसिल का गठन भारत सरकार करे ताकि अन्य प्रोफेशनल कोर्सेज की तरह इसका भी नियमन हो सके। गली-गली खुल रहे मीडिया कालेजों पर लगाम लगे। एक हफ्ते में पत्रकार बनाने की दुकानों पर ताला डाला जा सके। मीडिया के घरानों में तेजी से मोटी फीस लेकर मीडिया स्कूल खोलने की ललक बढ़ी है, इस पर नियंत्रण हो सकेगा। गुणवत्ता विहीन किसी शिक्षा का कोई मोल नहीं, अफसोस मीडिया शिक्षा के विस्तार ने इसे बहुत नीचे गिरा दिया है। दरअसल भारत में मीडिया शिक्षा मोटे तौर पर छह स्तरों पर होती है। सरकारी विश्वविद्यालयों या कॉलेजों मेंदूसरेविश्वविद्यालयों से संबंद्ध संस्थानों मेंतीसरेभारत सरकार के स्वायत्तता प्राप्त संस्थानों मेंचौथेपूरी तरह से प्राइवेट संस्थानपांचवे डीम्ड विश्वविद्यालय और छठेकिसी निजी चैनल या समाचार पत्र के खोले गए अपने मीडिया संस्थान। इस पूरी प्रक्रिया में हमारे सामने जो एक सबसे बड़ी समस्या हैवो है किताबें। हमारे देश में मीडिया के विद्यार्थी विदेशी पुस्तकों पर ज्यादा निर्भर हैं। लेकिन अगर हम देखें तो भारत और अमेरिका के मीडिया उद्योगों की संरचना और कामकाज के तरीके में बहुत अंतर है। इसलिए मीडिया के शिक्षकों की ये जिम्मेदारी हैकि वे भारत की परिस्थितियों के हिसाब से किताबें लिखें।

 

- भारत में मीडिया शिक्षा का क्या भविष्य देखते हैं आप ?

मीडिया शिक्षण में एक स्पर्धा चल रही है। इसलिए मीडिया शिक्षकों को ये तय करना होगा कि उनका लक्ष्य स्पर्धा में शामिल होने का हैया फिर पत्रकारिता शिक्षण का बेहतर माहौल बनाने का है। आज के समय में पत्रकारिता बहुत बदल गई हैइसलिए पत्रकारिता शिक्षा में भी बदलाव आवश्यक है। आज लोग जैसे डॉक्टर से अपेक्षा करते हैंवैसे पत्रकार से भी सही खबरों की अपेक्षा करते हैं। अब हमें मीडिया शिक्षण में ऐसे पाठ्यक्रम तैयार करने होंगेजिनमें विषयवस्तु के साथ साथ नई तकनीक का भी समावेश हो। न्यू मीडिया आज न्यू नॉर्मल है। हम सब जानते हैं कि आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के कारण लाखों नौकरियां गई हैं। इसलिए हमें मीडिया शिक्षा के अलग अलग पहलुओं पर ध्यान देना होगा और बाजार के हिसाब से प्रोफेशनल तैयार करने होंगे। नई शिक्षा नीति में क्षेत्रीय भाषाओं पर ध्यान देने की बात कही गई है। जनसंचार शिक्षा के क्षेत्र में भी हमें इस पर ध्यान देना होगा। मीडिया शिक्षण संस्थानों के लिए आज एक बड़ी आवश्यकता है क्षेत्रीय भाषाओं में पाठ्यक्रम तैयार करना। भाषा वो ही जीवित रहती हैजिससे आप जीविकोपार्जन कर पाएं और भारत में एक सोची समझी साजिश के तहत अंग्रेजी को जीविकोपार्जन की भाषा बनाया जा रहा है। ये उस वक्त में हो रहा हैजब पत्रकारिता अंग्रेजी बोलने वाले बड़े शहरों से हिंदी तथा अन्य भारतीय भाषाओं के शहरों और गांवों की ओर मुड़ रही है। आज अंग्रेजी के समाचार चैनल भी हिंदी में डिबेट करते हैं। सीबीएससी बोर्ड को देखिए जहां पाठ्यक्रम में मीडिया को एक विषय के रूप में पढ़ाया जा रहा है। क्या हम अन्य राज्यों के पाठ्यक्रमों में भी इस तरह की व्यवस्था कर सकते हैंजिससे मीडिया शिक्षण को एक नई दिशा मिल सके।

 

- तेजी से बदलते मीडिया परिदृश्य के सापेक्ष मीडिया शिक्षा संस्थान स्वयं को कैसे ढाल सकते हैं यानी उन्हें उसके अनुकूल बनने के लिए क्या करना चाहिए ?

 मीडिया शिक्षण संस्थानों को अपने पाठ्यक्रमों में इस तरह के बदलाव करने चाहिएकि वे न्यू मीडिया के लिए छात्रों को तैयार कर सकें। आज तकनीक किसी भी पाठ्यक्रम का महत्वपूर्ण हिस्सा है। मीडिया में दो तरह के प्रारूप होते हैं। एक है पारंपरिक मीडिया जैसे अखबार और पत्रिकाएं और और दूसरा है डिजिटल मीडिया। अगर हम वर्तमान संदर्भ में बात करें तो सबसे अच्छी बात ये है कि आज ये दोनों प्रारूप मिलकर चलते हैं। आज पारंपरिक मीडिया स्वयं को डिजिटल मीडिया में परिवर्तित कर रहा है। जरूरी है कि मीडिया शिक्षण संस्थान अपने छात्रों को 'डिजिटल ट्रांसफॉर्मके लिए पहले से तैयार करें। देश में प्रादेशिक भाषा यानी भारतीय भाषाओं के बाजार का महत्व भी लगातार बढ़ रहा है। एक रिपोर्ट के अनुसार अंग्रेजी भाषा के उपभोक्ताओं का डिजिटल की तरफ मुड़ना लगभग पूरा हो चुका है। ऐसा माना जा रहा है कि वर्ष 2030 तक भारतीय भाषाओं के बाजार में उपयोगकर्ताओं की संख्या 500 मिलियन तक पहुंच जाएगी और लोग इंटरनेट का इस्तेमाल स्थानीय भाषा में करेंगे। जनसंचार की शिक्षा देने वाले संस्थान अपने आपको इन चुनौतियों के मद्देनजर तैयार करेंयह एक बड़ी जिम्मेदारी है।

 

- वे कौन से कदम हो सकते हैं जो मीडिया उद्योग की अपेक्षाओं और मीडिया शिक्षा संस्थानों द्वारा उन्हें उपलब्ध कराये जाने वाले कौशल के बीच के अंतर को पाट सकते हैं?

 

 भारत में जब भी मीडिया शिक्षा की बात होती हैतो प्रोफेसर केईपन का नाम हमेशा याद किया जाता है। प्रोफेसर ईपन भारत में पत्रकारिता शिक्षा के तंत्र में व्यावहारिक प्रशिक्षण के पक्षधर थे। प्रोफेसर ईपन का मानना था कि मीडिया के शिक्षकों के पास पत्रकारिता की औपचारिक शिक्षा के साथ साथ मीडिया में काम करने का प्रत्यक्ष अनुभव भी होना चाहिएतभी वे प्रभावी ढंग से बच्चों को पढ़ा पाएंगे। आज देश के अधिकांश पत्रकारिता एवं जनसंचार शिक्षण संस्थानमीडिया शिक्षक के तौर पर ऐसे लोगों को प्राथमिकता दे रहे हैंजिन्हें अकादमिक के साथ साथ पत्रकारिता का भी अनुभव हो। ताकि ये शिक्षक ऐसा शैक्षणिक माहौल तैयार कर सकेंऐसा शैक्षिक पाठ्यक्रम तैयार कर सकेंजिसका उपयोग विद्यार्थी आगे चलकर अपने कार्यक्षेत्र में भी कर पाएं।  पत्रकारिता के प्रशिक्षण के समर्थन में जो तर्क दिए जाते हैंउनमें से एक दमदार तर्क यह है कि यदि डॉक्टरी करने के लिए कम से कम एम.बी.बी.एसहोना जरूरी हैवकालत की डिग्री लेने के बाद ही वकील बना जा सकता है तो पत्रकारिता जैसे महत्वपूर्ण पेशे को किसी के लिए भी खुला कैसे छोड़ा जा सकता है? बहुत बेहतर हो मीडिया संस्थान अपने अध्यापकों को भी मीडिया संस्थानों में अनुभव के लिए भेजें। इससे मीडिया की जरूरतों और न्यूज रूम के वातावरण का अनुभव साक्षात हो सकेगा। विश्वविद्यालयों को आखिरी सेमेस्टर या किसी एक सेमेस्टर में न्यूज रूम जैसे ही पढ़ाई पर फोकस करना चाहिए। अनेक विश्वविद्यालय ऐसे कर सकने में सक्षम हैं कि वे न्यूज रूम क्रियेट कर सकें।

 

- अपने कार्यकाल के दौरान मीडिया शिक्षा और आईआईएमसी की प्रगति के मद्देनज़र आपने क्या महत्वपूर्ण कदम उठाये, संक्षेप में उनका ज़िक्र करें।

मुझे लगता है कि अपने काम गिनाना आपको छोटा बनाता है। मैंने जो किया उसकी जिक्र करना ठीक नहीं। जो किया उससे संतुष्ठ हूं। मूल्यांकन लोगों पर ही छोड़िए।

 




 







प्रोफेसर द्विवेदी के अन्य साक्षात्कारों को पढ़ने के  लिए देखिए  उनके साक्षात्कारों का संग्रह-

'जो कहूंगा सच कहूंगा'

जमीन का टुकड़ा नहीं, आध्यात्मिक भाव है भारत!

 

                                                   -प्रोफेसर संजय द्विवेदी


    भारत का संकट यही है कि हमने आजादी के बाद भारत प्रेमी समाज खड़ा नहीं किया। समूची शिक्षा व्यवस्था, राजनीतिक-प्रशासनिक-न्याय तंत्र में पश्चिम से आरोपित विचारों ने हमारे पैर जमीन से उखाड़ दिए। औपनिवेशिक काल की गुलामी दिमाग में भी बैठ गई। उससे उपजे आत्मदैन्य ने हमें भारत की चिति(आत्मा) से अलग कर दिया। वैचारिक उपनिवेशवाद ने हमारा बुरा हाल कर दिया है।

  यह संकट निरंतर है। भारत को न जानने से ही भ्रम की स्थिति निर्मित होती है। जबकि एक गहरी आध्यात्मिक चेतना से उपजी भारतीयता किसी के विरुद्ध नहीं है। हमारी संस्कृति विश्व बंधुत्व, विश्व मंगल और लोक-मंगल की वाहक है। आध्यात्मिक भाव इसी जमीन की देन है जिसने बताया कि सारी दुनिया के मनुष्य एक ही हैं। मनुष्य और उसके दुखों का समाधान खोजने राम, बुद्ध, महावीर जैसे राजपुत्र वनों में जाते रहे। वसुधा को कुटुम्ब (विस्तृत परिवार) की संकल्पना भारत की अप्रतिम देन है। धरती के सभी मनुष्य, सभी जीव और सभी अजीव भी इस कुटुम्ब में शामिल हैं। अतः समूची सृष्टि के योगक्षेम की कामना करते हुए भारत सुख पाता है। यही भाव सबके संरक्षण और सबके संवर्धन का प्रेरक है। इसी भावना से "पृथिव्या लाभे पालने च.." लिखते हुए आचार्य चाणक्य अपने 'अर्थशास्त्र' के प्रथम अधिकरण में ही पृथ्वी के पालन की कामना की है। यूएनओ अर्थ चार्टर 2000 में धरती जीवंत है, ऐसा मान लिया है।

प्रकृति है ईश्वर का विस्तार-

    प्रकृति को लेकर भारत की अपनी समझ है। हम संपूर्ण प्रकृति को ईश्वर का ही विस्तार मानते हैं। हमारी मान्यता है कि देव स्वयं प्रकृति में आया। सृष्टि का निर्माता सृष्टि के साथ ही है। हमारे जीवन के नियंता भी प्रकृति के सूर्य,जल, वायु, अग्नि,वन जैसे अवयव ही हैं। इससे हममें प्रकृति के प्रति कृतज्ञता का भाव आता है। इसलिए हम इन सबको देवता कहकर संबोधित करने लगे। सूर्य देवता, अग्नि देव आदि। यह कृतज्ञता का चरम और प्रकृति से संवाद का अप्रतिम उदाहरण भी है। हम मानते हैं कि जो देता वह देवता है। इसी से हम देव और असुर में भेद करते आए हैं।

   हमारे वैदिक मंत्र सबके प्रति कृतज्ञता व्यक्त करते हैं। इस तरह हम एक ऐसी संस्कृति के उत्तराधिकारी बन जाते हैं जो प्रकृति सेवक या पूजक है। 'श्वेताश्वतरोपिषद्'(6.11) कहता है, "एको देव: सर्वभूतेषू गूढ़: सर्वव्यापी सर्वभूतान्तरात्मा"

इसलिए हममें प्रकृति के मालिक या स्वामी होने का भाव नहीं आया। प्रकृति के दोहन का विचार हमारा है, शोषण का विचार पराया है।

   भारतबोध इन्हीं तत्वों से विकसित होता है। भारत ने ज्ञान भूमि के रूप में स्वयं को विकसित किया। जहां 'भा' यानी ज्ञान और 'रत' का मतलब लीन। इस तरह यह ज्ञान की साधना में लीन भूमि है। जिसने मानवता के समक्ष प्रश्नों के ठोस और वाजिब उत्तर खोजे।

कालिदास भी कुमारसंभवम् में भारत की उत्तर दिशा में हिमालय का वर्णन करते हुए कहते हैं -

अस्त्युत्तरस्यां दिशि देवतात्मा हिमालयो नाम नगाधिराज:।

पूर्वापरौ तोयनिधी वगाह्म स्थित पृथिव्या इव मापदण्ड:।।

  हिमालय से समुद्र तक इस पवित्र भूमि का विस्तार है। व्यास, वाल्मीकि, कालिदास, पाणिनि से लेकर आधुनिक समय में बंकिमचंद्र चटोपाध्याय (वंदेमातरम), मैथिलीशरण गुप्त, जयशंकर प्रसाद जैसे कवि इसी भूमि का मंगलगान करते हैं। बावजूद इसके किंतु कुछ मूढ़ मति मानते हैं कि अंग्रेजों ने हमें आज का भारत दिया। जबकि अंग्रेज़ों ने हमारी सांस्कृतिक, सामुदायिक एकता को तोड़कर हमें विखंडित भारत दिया। बंग भंग में असफल रहे अंग्रेज़ों जो बंटवारे का जो दंश हमें दिया, उसे हम आज भी भोग रहे हैं। जिन्हें यह भ्रम है कि हमें 1947 में अंग्रेजों ने भारत बनाकर दिया वे विष्णु पुराण के इस श्लोक का पाठ जरूर करें-

उत्तरं यत् समुद्रस्य हिमाद्रेश्चैव दक्षिणम्।

वर्षं तद् भारतं नाम भारती यत्र सन्ततिः ।।

यानी समुद्र के उत्तर और हिमालय के दक्षिण में जो देश है उसे भारत, तथा उनकी संतानों (नागरिकों) को भारती कहते हैं।

     अपने देश के व्यापक भूगोल की समझ होनी ही चाहिए। देश को जोड़ने वाले तत्व क्या हैं, हमें खोजने और बताने चाहिए। क्योंकि कुछ लोग तोड़ने वाले तत्वों (फाल्ट लाइंस) की ही चर्चा करते हैं। जबकि सच यह है कि हर देश में कुछ अच्छी और बुरी बातें होती हैं। कोई भी राष्ट्र जीवन समस्या मुक्त नहीं है। किंतु सिर्फ देश तोड़क बातें करना और उसके लिए संदर्भ गढ़ना उचित नहीं कहा जा सकता। हालांकि सच सामने आ जाता है। बावजूद इसके नरेटिव की एक गहरी जंग देश झेल रहा है। यह कितना गजब है कि अकादमिक विमर्श जैसे भी चलते रहे हों, नरेटिव जैसे भी गढ़े जाते रहे हों। किंतु देश पिछले आठ दशकों में निरंतर आगे बढ़ा है। लोगों की अपने मान बिंदुओं के प्रति आस्था बढ़ी है। अपनी माटी के प्रति प्रेम बढ़ा है, भारत प्रेम बढ़ा है। एकत्व और एकात्म भारत हमारी आज हमारी शक्ति है। पूरी दुनिया भी इसे स्वीकार करती है।

सांस्कृतिक एकता के प्रतीक-

 भारत की इस पवित्र भूमि पर ही राम, कृष्ण, शिव, गौतम बुद्ध, महावीर,नानक, गुरु गोविंद सिंह, ऋषि वाल्मिकि, गुरु घासीदास, संत रैदास, आचार्य शंकर, गुरु गोरखनाथ, स्वामी दयानंद जन्में और सैकड़ों तीर्थों-मठों की स्थापना हुई। चारधाम, द्वादश ज्योतिर्लिंग, बावन शक्तिपीठ के साथ अनेक सिद्धपीठ और मंदिर इसके उदाहरण हैं। जो समाज में सेवा,संवाद और आध्यात्म के वाहक बने हुए हैं। हमारी सप्त पुरियां अयोध्या, मथुरा,माया, काशी, कांची, अवंतिका, द्वारिका हैं। जैन, बौद्ध, सिक्ख गुरुओं के पवित्र स्थान हैं। जो समूचे देश को जोड़ते हैं। नदियों के तट, सरोवर, पर्वतों

इसे लोक स्वीकृति प्राप्त है। असल भारत यही है। ऐसा भाव दुनिया में कहीं विकसित नहीं हुआ। स्थान-स्थान की परिक्रमाएं काशी, ब्रज-गोवर्धन, अयोध्या, चित्रकूट, चारधाम, उत्तराखंड के पृथक चार धाम, नर्मदा, कृष्णा परिक्रमा भारत को जोड़ने वाली कड़ियां हैं। इन यात्राओं से भारत धीरे-धीरे मन में उतरता है। कन्याकुमारी से कश्मीर तक, हिंगलाज से परशुराम कुण्ड तक पुण्य भूमि स्थापित है। अमरनाथ और ननकाना साहिब की कठिन यात्राएं भी इसी भाव बोध का सृजन करती हैं। इस भारत को जीते हुए ही हमारे पूर्व प्रधानमंत्री श्री अटलबिहारी वाजपेयी का कवि मन बोल पड़ा- भारत जमीन का टुकड़ा नहीं/ जीता जागता राष्ट्रपुरुष है/ इसका कंकर कंकर शंकर है/ इसका बिंदु-बिंदु गंगाजल है।

     सर्वश्री वासुदेवशरण अग्रवाल, राधाकुमुद मुखर्जी को पढ़ते हुए पुण्यभूमि भारत के दृश्य साक्षात हो जाते हैं। अनादिकाल से हो रही ये तीर्थ यात्राएं भारत को समझने की ही खिड़कियां रहीं हैं। इनसे गुजरता भारत खुद का आत्मसाक्षात्कार करता रहा है। वह प्रक्रिया धीमी हो सकती है, पर रुकी नहीं है। इसे तेज करने से न सिर्फ राष्ट्रीय एकता मजबूत होगी बल्कि दुनिया में भी सुख, शांति और समृद्धि का विचार प्रसारित होगा। एक सशक्त भारत ही विश्व शांति और विश्व मंगल की गारंटी है। अरसे बाद भारत में विचारों की घर वापसी हो रही है। वह अपने आत्मदैन्य से मुक्त हो रहा है। आइए, हम भी इस महान देश को जानने की खिड़कियां खोलें और भारत मां को जगद्गुरु के सिंहासन पर विराजता हुआ देखें।

(लेखक माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में जनसंचार विभाग के आचार्य और अध्यक्ष हैं।)

गुरुवार, 4 सितंबर 2025

केवल सत्ता से मत करना परिवर्तन की आस!

 

-प्रो. संजय द्विवेदी



        एक जीवंत लोकतंत्र में रहते हुए क्या आप राजनीति से विरत रह सकते हैं? राजनीति जो नीति-निर्माण से लेकर आपके संपूर्ण जीवन के फैसले कर रही है, उससे अलग रहना क्या उचित है? क्या बदलाव सत्ता के बिना संभव है? क्या समाज की अपनी भी कोई शक्ति है या वह राजनीति से ही नियंत्रित होता है ? ऐसे अनेक प्रश्न चिंतनशील व्यक्तियों को मथते रहते हैं। ऐसे में एक संगठन जो सौ साल की आयु पूरी करने जा रहा है, उसके लिए राजनीति और सत्ता के मायने क्या हैं? सत्ता राजनीति उसे कितनी कम या ज्यादा रास आती है। लोकतंत्र में बदलाव की राजनीति और सत्ता की राजनीति के विमर्शों में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ कहां खड़ा है। यह विचार जरूरी हो जाता है। संघ ऐसा संगठन बन चुका है, जिसने समाज जीवन के हर क्षेत्र में अपनी उपस्थिति दर्ज कराई है। उसके स्वयंसेवकों के उजले पदचिन्ह हर क्षेत्र में सफलता के मानक बन गए हैं। स्वयं को सांस्कृतिक संगठन बताने वाले संघ का मूल कार्य और केंद्र दैनिक शाखाहै, किंतु अब वह सत्ता-व्यवस्था में गहराई तक अपनी वैचारिक और सांगठनिक छाप छोड़ चुका है।

     संघ के संस्थापक और प्रथम सरसंघचालक का सपना तो राष्ट्रीय चेतना का जागरण, सांस्कृतिक एकता का बोध और सालों की गुलामी के उपजे आत्मदैन्य को हटाकर हिंदू समाज की शक्ति को पुनः प्रतिष्ठित करना था। इस दौर में डा. केशवराम बलिराम हेडगेवार ने ऐसे संगठन की परिकल्पना की, जो राष्ट्र को धर्म, भाषा, क्षेत्र से ऊपर उठाकर सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की भावना से जोड़े। संघ की शाखाएं उसकी कार्यप्रणाली की रीढ़ बनीं। प्रतिदिन कुछ समय एक निश्चित स्थान पर एकत्रित होकर शारीरिक, बौद्धिक और नैतिक प्रशिक्षण देना ही शाखा की आत्मा है। यह क्रमशः अनुशासित, राष्ट्रनिष्ठ और संस्कारित कार्यकर्ताओं का निर्माण करता है, जिन्हें 'स्वयंसेवक' कहा जाता है। संघ ने व्यक्ति निर्माण के माध्यम से राष्ट्र निर्माण" की अवधारणा को अपनाया है। इस प्रक्रिया में उसका जोर 'चरित्र निर्माण' और 'कर्तव्यपरायणता' पर होता है। ऐसे में विविध वर्गों तक पहुंचने के लिए संघ के विविध संगठन सामने आए जो अलग-अलग क्षेत्रों में सक्रिय हुए किंतु उनका मूल उद्देश्य राष्ट्र की चिति का जागरण और राष्ट्र निर्माण ही है। आप देखें तो संघ ने राजनीति और सत्ता के शिखरों पर बैठे लोगों से हमेशा संवाद बनाए रखा। राजनीति के महापुरुषों से भी संवाद रखा। आप देखें तो राष्ट्रपिता महात्मा गांधी,बाबा साहब भीमराव आंबेडकर, जयप्रकाश नारायण, पं. जवाहरलाल नेहरू  से लेकर श्रीमती इंदिरा गांधी तक संघ का संवाद सबसे रहा। अपनी बातों को रखना और उस पर दृढ़ता से डटे रहना संघ का मूल स्वभाव है। संघ सत्ता राजनीति से संवाद रखते हुए भी सत्ता मोह से कभी ग्रस्त नहीं रहा। 1951 में श्यामा प्रसाद मुखर्जी द्वारा जनसंघ की स्थापना में संघ का सक्रिय सहयोग था। इस पार्टी का सहयोग संघ द्वारा प्रशिक्षित अनेक प्रचारकों द्वारा किया गया। 1980 में जब भाजपा बनी, तो संघ के कई वरिष्ठ कार्यकर्ता उसमें शामिल हुए। संघ ने अपने अनेक प्रचारक और कार्यकर्ता पार्टी में भेजे और उन्हें स्वतंत्रता दी। सत्ता राजनीति में भी राष्ट्रीय भाव प्रखर हो,यही धारणा रही। एक समय था जब संघ पर गांधी हत्या के झूठे आरोप में प्रतिबंध लगाकर स्वयंसेवकों को प्रताड़ित किया जा रहा था,किंतु संघ की बात रखने वाला कोई राजनीति में नहीं था। सत्ता की प्रताड़ना सहते हुए भी संघ ने अपने संयम को बनाए रखा और झूठे आरोपों के आधार पर लगा प्रतिबंध हटा।

   चीन युद्ध के बाद इसी संवाद और देश भक्ति पूर्ण आचरण के लिए उसी सत्ता ने संघ को 1963 के गणतंत्र दिवस की परेड में आमंत्रित किया। भारतीय मजदूर संघ के कार्यकर्ता रहे कृष्णलाल पठेला बताते हैं-स्वयंसेवकों की 1962 के युद्ध में उल्लेखनीय भूमिका को देखते हुए ही 1963 की गणतंत्र दिवस परेड में संघ को अपना जत्था भेजने के लिए आमंत्रित किया गया था। मुझे याद है, मैं भी उस जत्थे में शामिल था और जब संघ का जत्था राजपथ पर निकला था तब वहां मौजूद नागरिकों ने देर तक तालियां बजाई थीं। जहां तक मुझे याद है, उस जत्थे में 600 स्वयंसेवक पूर्ण गणवेश में शामिल हुए थे।

    संघ ने समाज जीवन के हर क्षेत्र में स्वयंसेवकों को जाने के लिए प्रेरित किया। किंतु अपनी भूमिका व्यक्ति निर्माण और मार्गदर्शन तक सीमित रखी। सक्रिय राजनीति के दैनिक उपक्रमों में शामिल न होकर समाज का संवर्धन और उसके एकत्रीकरण पर संघ की दृष्टि रही। इस तरह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ आज केवल एक संगठन नहीं, बल्कि एक वैचारिक परंपरा है। उसने भारतीय समाज में अनुशासन, संगठन और सांस्कृतिक चेतना का पुनर्जागरण किया है। सत्ता से उसका संवाद हमेशा रहा है और उसके पदाधिकारी राजनीतिक दलों से संपर्क में रहे हैं। इंदिरा गांधी से भी तत्कालीन सरसंघचालक बालासाहब देवरस का संवाद रहा है। उनका पत्र इसे बताता है। इस तरह देखें तो संघ किसी को अछूत नहीं मानता, उसकी भले ही व्यापक उपेक्षा हुई हो। संघ के अनेक प्रकल्पों और आयोजनों में विविध राजनीतिक दलों के लोग शामिल होते रहे हैं। इस तरह संघ एक जड़ संगठन नहीं है, बल्कि समाज जीवन के हर प्रवाह से सतत संवाद और उस पर नजर रखते हुए उसके राष्ट्रीय योगदान को संघ स्वीकार करता है। इस तरह सेवा, समर्पण ही संघ का मूल मंत्र है।

  संघ की प्रेरणा से उसके स्वयंसेवकों ने अनेक स्वतंत्र संगठन स्थापित किए हैं। उनमें भाजपा भी है। इन संगठनों में आपसी संवाद और समन्वय की व्यवस्था भी है किंतु नियंत्रित करने का भाव नहीं है। सभी स्वयं में स्वायत्त और अपनी व्यवस्थाओं में आत्मनिर्भर हैं। यह संवाद विचारधारा के आधार पर चलता है। समान मुद्दों पर समान निर्णय और कार्ययोजना भी बनती है। 1951 में जनसंघ की स्थापना के समय ही संघ के कई स्वयंसेवक जैसे पं.दीनदयाल उपाध्याय, अटलबिहारी वाजपेयी, नानाजी देशमुख जैसे लोग शामिल थे।1977 में जनसंघ का जनता पार्टी में विलय हुआ, लेकिन आपसी मतभेदों और दोहरी सदस्यता के सवाल पर उपजे विवाद के कारण यह प्रयोग असफल रहा। 1980 में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के रूप में एक नए राजनीतिक दल का जन्म हुआ, जिसमें संघ प्रेरित वैचारिक नींव और सांगठनिक समर्थन मजबूत रूप से विद्यमान था।

   संघ ने सत्ता या राजनीतिक दलों के सहयोग से बदलाव के बजाए, व्यक्ति को केंद्र में रखा है। संघ का मानना है कि कोई बदलाव तभी सार्थक होता है, जब लोग इसके लिए तैयार हों। इसलिए संघ के स्वयंसेवक गाते हैं-

केवल सत्ता से मत करना परिवर्तन की आस।
जागृत जनता के केन्द्रों से होगा अमर समाज।

सामाजिक शक्ति का जागरण करते हुए उन्हें बदलाव के अभियानों का हिस्सा बनाना संघ का उद्देश्य रहा है। चुनाव के समय मतदान प्रतिशत बढ़ाने और नागरिकों की सक्रिय भूमिका को सुनिश्चित करने के लिए मतदाता जागरण अभियान इसका उदाहरण है। लोकतंत्र को सशक्त बनाते हुए नागरिकों की सहभागिता सुनिश्चित करना एक बड़ा काम है। राजनीति में प्रसिद्धि एक अनिवार्य विषय है। नेता अपने स्वागत, सम्मान के लिए बहुत से इंतजाम करते हैं। संघ इस प्रवृत्ति को पहले पहचान कर अपने स्वयंसेवकों को प्रसिद्धिपरांगमुखता का पाठ पढ़ाता आया है। ताकि काम की चर्चा हो नाम की न हो। स्वयंसेवक गीत गाते हैं-

वृत्तपत्र में नाम छपेगा, पहनूंगा स्वागत समुहार।

छोड़ चलो यह क्षुद्र भावना, हिन्दू राष्ट्र के तारणहार।।

सही मायनों में सार्वजनिक जीवन में रहते हुए यह बहुत कठिन संकल्प हैं। लेकिन संघ की कार्यपद्धति ऐसी है कि उसने इसे साध लिया है। संचार और संवाद की दुनिया में बेहद आत्मीय, व्यक्तिगत संवाद ही संघ की शैली है। जहां व्यक्ति से व्यक्ति का संपर्क सबसे प्रभावी और स्वीकार्य है। इसमें दो राय नहीं कि इन सौ सालों में संघ के अनेक स्वयंसेवक समाज में प्रभावी स्थिति में पहुंचें तो अनेक सत्ता के शिखरों तक भी पहुंचे। अटलबिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवानी और नरेंद्र मोदी इसमें शिखर तक पहुंचे लोग हैं। इसके अलावा एक लंबी श्रृंखला है जिनकी प्रेरणा संघ है। जिनके जीवन में भी संघ है। संघ का प्रशिक्षण न केवल वैचारिक स्पष्टता देता है, बल्कि संगठनात्मक अनुशासन, जनसंपर्क कौशल और सेवा भाव भी समाहित करता है। यही कारण है कि संघ से निकले नेता राजनीतिक दृष्टि से अधिक प्रभावशाली, अनुशासित और संगठन-निष्ठ होते हैं। संघ के स्वयंसेवकों के सक्रिय सहभाग से समाज जीवन के हर क्षेत्र में अब नीतियों के निर्माण और क्रियान्वयन में परिर्वतन दिखने लगा है। इसे बदलाव की राजनीति कहते हैं। जबकि सत्ता राजनीति के मार्ग अलहदा हैं। स्वदेशी, आत्मनिर्भरता, धार्मिक-सांस्कृतिक पुनर्जागरण और राष्ट्रवाद जैसे विषय संघ के लंबे समय से पोषित विचार रहे हैं, जिन्हें अब सरकारी नीतियों में प्राथमिकता मिलती दिखती है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति, राम मंदिर निर्माण, अनुच्छेद 370 हटाना, और समान नागरिक संहिता जैसे निर्णय संघ की वैचारिक दिशा को ही प्रकट करते हैं। इसमें कई कार्य लंबे आंदोलन के बाद संभव हुए। लोकजागरण की यह शैली संघ का लोकसंपर्क भी बताती है। किसी विषय को समाज में ले जाना और उसे स्थापित करना। फिर सरकारों के द्वारा उस पर पहल करना। लोकतंत्र को सशक्त करती यह परंपरा संघ ने अपने विविध संगठनों के साथ मिलकर स्थापित की है। संघ की प्रतिनिधि सभाओं में विविध मुद्दों पर पास प्रस्ताव बताते हैं कि संघ की राष्ट्र की ओर देखने की दृष्टि क्या है। ये प्रस्ताव हमारे समय के संकटों पर राष्ट्रीय दृष्टिकोण रखते हुए राह भी बताते हैं। अनेक बार संघ पर यह आरोप लगते हैं कि वह राजनीति को नियंत्रित करना चाहता है। किंतु विरोधी इसके प्रमाण नहीं देते। संघ का विषय प्रेरणा और मार्गदर्शन तक सीमित है। संघ की पूरी कार्यशैली में संवाद,संदेश और सुझाव ही हैं, चाहे वह सरकार किसी की भी हो। अपने वैचारिक हस्तक्षेप, प्रतिनिधि सभा के प्रस्तावों और सकारात्मक कार्यक्रमों के माध्यम से संघ ने समाज की बातों को ही सत्ता प्रतिष्ठानों के सामने रखा है। जिनमें कई बार सकारात्मक उत्तर आते हैं, तो कई बार कुछ मुद्दे उपेक्षित हो जाते हैं। भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व में संघ के स्वयंसेवकों की संख्या काफी है। जाहिर है भाजपा की सरकारों से स्वयंसेवकों की अपेक्षाएं भी ज्यादा रहती हैं। किंतु सरकारों के दैनिक कार्य में हस्तक्षेप के बजाए संघ सिर्फ वैचारिक और राष्ट्रहित के मुद्दों पर अपनी बात सार्वजनिक रूप से रखता है। कई बार शासकीय स्तर पर, नीतियों के स्तर पर उन्हें सुना भी जाता है। इसे सत्ता पर दबाव के बजाए प्रेरणा और परस्पर सहमति के रूप में देखा जाना चाहिए।

  संघ राजनीति में आदर्शवादी कैडर और संस्कारी नेतृत्व का निर्माण करता हुआ दिखता है। उसकी विचारधारा राष्ट्रवादी,अनुशासित और निःस्वार्थ सेवा पर आधारित है। सत्ता में उसके स्वयंसेवकों के रहते हुए भी संघ का जोर सामाजिक सेवा, पारिवारिक मूल्यों और सांस्कृतिक पुनरुत्थान पर रहता है। अनेक मुद्दों पर जैसे आर्थिक नीति, उदारवादी वैश्वीकरण की दिशा पर संघ ने हमेशा अपनी अलग राय व्यक्त की है। संघ इस तरह सत्ता राजनीति की मजबूरियों को समझते हुए भी उनकी हर बात से सहमत नहीं है। इसमें दो राय नहीं कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने भारतीय राजनीति में एक वैकल्पिक वैचारिक धारा का निर्माण किया है। उसने हिंदुत्व आधारित राष्ट्रीय भाव को मुख्यधारा में स्थापित किया है और अपनी सांगठनिक शक्ति से भारतीय राजनीति को नई दिशा दी है। समाज की सज्जनशक्ति को एकत्र कर उनसे संवाद बनाते हुए लोकजागरण का काम भी किया है। एक जागृत समाज कैसे निष्क्रियता छोड़कर सजग और सक्रिय हस्तक्षेप करे, यह संघ के निरंतर प्रयास हैं। पंच परिवर्तन का संकल्प इसी को प्रकट करता है।

        संघ भले ही स्वयं राजनीति में न हो, पर राजनीति पर उसके विचारों का गहरा प्रभाव परिलक्षित होने लगा है। राजनीतिक दलों में भी संघ पर टीका करने की होड़ दिखती है। जबकि संघ अपने ऊपर लगने वाले निरंतर मिथ्या आरोपों पर भी प्रायः खामोश रहता है। क्योंकि राजनीति के द्वारा उठाए जा रहे प्रश्नों का उत्तर देकर वह घटिया राजनीति का हिस्सा नहीं बनना चाहता। आज समाज जीवन में भी संघ को जानने की भूख है। लोग संघ से जुड़कर भारत का भविष्य गढ़ना चाहते हैं। इसलिए एक वरिष्ठ पदाधिकारी कहते हैं-

भारत को जानो, भारत को मानो

भारत के बने, भारत को बनाओ।

   यह बदला हुआ समय संघ के लिए अवसर भी है और परीक्षा भी। उम्मीद की जानी कि संघ अपने शताब्दी वर्ष में ज्यादा सरोकारी भावों से भरकर सामाजिक समरसता, राष्ट्रबोध जैसे विषयों पर समाज में परिवर्तन की गति को तेज कर पाएगा। संघ के अनेक पदाधिकारी इसे ईश्वरीय कार्य मानते हैं।  जाहिर है उनके संकल्पों से भारत मां एक बार फिर जगद्गुरू के सिंहासन के विराजेगी, ऐसा विश्वास स्वयंसेवकों की संकल्प शक्ति को देखकर सहज ही होता है।

  

शुक्रवार, 18 जुलाई 2025

असभ्यताओं के बीच संघर्ष में सिसकती मानवता!

 

विविधता और बहुलता के सम्मान से ही बनेगी सुंदर दुनिया

-प्रो.संजय द्विवेदी

 

यूक्रेन-रूस और अब ईरान-इजराइल की जंग, फ्रांस से लेकर सीरिया, ईराक, अफगानिस्तान, पाकिस्तान से लेकर दुनिया के तमाम देशों में बहता खून आखिर क्या कह रहा हैमानवता के शत्रु, पंथ की नकाब पहनकर मनुष्यों के खून की होली खेल रहे हैं। वे यह सारा कुछ ‘पंथ राज्य’ की स्थापना के लिए हो रहा है। सैम्युल पी. हटिंग्टन ने अपनी किताब ‘क्लैस आफ सिविलाइजेशन’ में इन खतरों पर बात करते हुए इसे ‘सभ्यताओं के संघर्ष’ की संज्ञा दी थी। लेकिन सवाल यह उठता है कि क्या सभ्यताएं भी संघर्ष करती हैंवास्तव में इसे तो असभ्यताओं के संघर्ष की संज्ञा दी जानी चाहिए। लगता है यह पूरा समय असभ्यताओं के विस्तार का समय है और लगता है कि असभ्यताओं का नया उपनिवेश भी स्थापित हो रहा है। अगर दुनिया के महादेशों में मानवता के अंश और बीज होते तो वे इन घटनाओं पर शर्मसार होते और उनकी पुनरावृत्ति रोकने के लिए कदम उठाते। आखिर यह सिलसिला कब रूकेगा, इस प्रश्न के उत्तर भी नदारद हैं।

    हम देख रहे हैं कि 21 वीं सदी में यह खतरा और गहरा हो रहा है। अपने ही संप्रदाय बंधुओं का खून बहाने की वृत्ति भी देखी जा रही है। आतंकवादी संगठन नई तकनीकों और हथियारों से लैस हैं। वे राजसत्ता और समाज दोनों को चुनौती दे रहे हैं। मानवता सामने खड़ी सिसक रही है। ये चित्र हैरान करने वाले हैं किंतु इससे निजात पाना कठिन दिखता है।

   देखने में आ रहा है कि पंथ ने राष्ट्र-राज्य की सीमाएं तोड़कर एक नया संसार बना लिया है। जहां लोग अपने राष्ट्र की सीमाएं छोड़कर दूर देश में अपने पंथ की खातिर खून बहाने के लिए एकत्र हो रहे हैं। आंतकी संगठनों के आह्वान पर अपना देश छोड़कर खून बहाने के लिए निकलना साधारण नहीं है। भारत, फ्रांस और ब्रिटेन के नागरिक भी खून बहाने वाली जमातों में शामिल हैं। यह बात बताती है कि अब राष्ट्रीयता पर पंथ का विचार भारी पड़ रहा है। पंथ की उग्रता ने राष्ट्रों को शर्मशार किया है। क्या हमें उन पंथों की पहचान नहीं करनी चाहिए जो देश से बड़ा अपने पंथ को बता रहे हैं। क्या कारण है कि सांप्रदायिकता की भावना में हम अपने ही भाई का खून बहाने से नहीं चूकते। माटी का प्यार कमजोर हो रहा है और पांथिक भावनाएं मजबूत बन रही हैं। भारत जैसे देश के सामने यह बड़ा सवाल है कि वह नए विचारों के साथ खड़ा हो। क्योंकि वैश्विक आतंकवाद के सामने वह सबसे कमजोर शिकार है। देश के नागरिकों में राष्ट्रप्रेम की भावना को गहरा करना जरूरी है। अपनी शिक्षा में, अपने नागरिकबोध में हमें देशभक्ति की भावना को तीव्रतम करना होगा। हम भारतीय हैं और यही भारतबोध हमें जागृत करना है। यही भारतबोध हमारा धर्म है और हमारा पंथ उसके बाद है। यह सवाल हर नागरिक से पूछने की जरूरत है कि पहले राष्ट्र है या उसका पंथ। हमें हर मन में यह स्थापित करना होगा कि पंथ या पूजा पद्धति हमेशा द्वितीयक है और हमारा राष्ट्र सर्वोच्च है। तभी हम इस आंधी को रोक पाएंगें। 

     मैं ही श्रेष्ठ हूं, मेरा पंथ ही सर्वश्रेष्ठ है” की भावना चलते यह स्थितियां पैदा हुयी हैं। अगर तमाम देशों के लोग यह भाव अपने नागरिकों में भर पाते हैं कि मेरी माटी,मेरा देश सबसे बड़ा है- कोई भी पंथ या विचारधारा उसके बाद है तो खून बहने से रोका जा सकता था। भारत इसमें एक बड़ी भूमिका निभा सकता है। क्योंकि हमारी सांस्कृतिक परंपरा के सूत्र ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की बात कहते हैं। यह विचार आशा का विचार है क्योंकि यह ‘सर्वे भवंतु सुखिनः’ की अवधारणा पर काम करने वाला समाज है। संकट यह है कि हम अपने विचार को भूल रहे हैं। इसलिए आतंकी ताकतें कामयाब होती हुई दिखती हैं और उन्होंने हमारे युवाओं के हाथ में कहीं बंदूक, कही एके-47 तो कहीं पत्थर पकड़ा रखे हैं।

     पंथ के नाम पर हो रहे कत्लेआम के अलावा विचारधारा के नाम पर भी खून बहा रहे कम्युनिस्ट या उग्र माओवादी इसी विचार का हिस्सा हैं। क्या किसी विचार और पंथ या समूह को लोगों की हत्याओं की आजादी दी जा सकती हैएक सभ्य समाज में रह रहे हम लोगों का मुकाबला कैसे असभ्यों से हैजो असहमति या विविध विचारों को फलने-फूलने तो दूरउसे सांस लेने की भी अनुमति नहीं दे रहे हैं। ऐसे में हमें तय करना होगा कि हम पंथों की उस जड़ पर चोट करें जो खुद को ही श्रेष्ठ मानती है और इतना तक तो ठीक है पर उन्हें न मानने वालों को खत्म कर देने के स्वप्न देखती है। विविधता और बहुलता एक प्राकृतिक तत्व है। यह ऊपरवाले के द्वारा ही बनाई गयी है। इसे जो नहीं समझते वे जाहिल हैं। उन्हें न तो धर्म का पता है, न पंथ, न ही प्रकृति को वे समझते हैं। हमें एक ऐसे समाज के निर्माण की ओर बढ़ना होगा जो विविध विश्वासों, विविध विचारों और पंथों के बीच सहजता से जी सके। एक- दूसरे के विश्वासों का आदर और उसकी अस्मिता की रक्षा कर सके। यह होगा, सिर्फ माटी के प्रति अटूट प्यार से। सबसे बड़ा है मेरा देश, मेरा राष्ट्र सर्वोपरि है। उसके एक-एक व्यक्ति से मेरा रिश्ता है। इस माटी का ऋण मुझे चुकाना है। यह भाव आते ही आप दूसरे देश में अपने पंथ की लड़ाई लड़ने नहीं जाएंगें। अपनी सेना और अपनी फौज पर पत्थर नहीं फेंकेंगें, अपने लोगों का खून बहाते हुए आपके हाथ कांपेंगें, मुंबई की अमर जवान ज्योति पर हमला करने की आप सोच भी नहीं पाएंगें।

   हम सब एक माटी के पुत्र और एक सांस्कृतिक प्रवाह के उत्तराधिकारी हैं। मेरा राष्ट्र ही मेरा देवता है, मैं इस मादरेवतन के लिए अपना सर्वश्रेष्ठ दूंगा। आज इसी भावना की जरूरत है। ऐसा हो पाया तो हम दुनिया में शांति और सद् भावना को स्थापित होते हुए देख पाएंगें। खून बहाते लोगों को भी इससे सबक मिलेगा। आज जरूरत इस बात की है कि हम यह भावना स्थापित करें कि ‘देश प्रथम। देश सबसे ऊपर होगा तो हम कई संकटों से निजात पा सकेंगें। अपने-अपने देश को सर्वोच्च बनाएं और विश्वबंधुत्व का प्रसार करें। भारत के वैश्विक परिवार दर्शन को दुनिया में स्थापित करें। यही दर्शन विश्वमानवता को सुख-शांति का मार्ग दिखा सकता है। कटुता को समाप्त कर सकता है। विभिन्न पंथों के आपसी संघर्ष ने पूरी दुनिया में सिर्फ खून की नदियां बहाई हैं। क्योंकि ये पंथ विस्तारवाद की भावना से पीड़ित हैं। ये चाहते हैं कि पूरी दुनिया एक ही रंग में रंग जाए। जबकि हमें पता है कि यह असंभव है। दुनिया में विविध विचार, विश्वास और आस्थाएं साथ-साथ सांस लेती हैं, ऐसा होना भी चाहिए। बावजूद इसके इस सत्य को स्वीकार कर लेने में कुछ पंथों को मुश्किल क्यों है, यह समझना कठिन है। दुनिया में खून बहने से रोकने का अब एक ही तरीका है कि हम अपने ही विश्वास को श्रेष्ठतम मानना बंद करें और दूसरों को भी जगह और सम्मान दें। इससे दुनिया ज्यादा सुंदर, ज्यादा मानवीय और ज्यादा रहने लायक बनेगी।


 

पंच परिवर्तन से बदल जाएगा समाज का चेहरा-मोहरा

                                                                  -प्रो. संजय द्विवेदी


    इतिहास के चक्र में किसी सांस्कृतिक संगठन के सौ साल की यात्रा साधारण नहीं होती। यह यात्रा बीज से बिरवा और अंततः उसके वटवृक्ष में बदल जाने जैसी है। ऐसे में उस संगठन के भविष्य की यात्रा पर विमर्श होना बहुत स्वाभाविक है। स्वतंत्रता के अमृतकाल में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संकल्प भविष्य के भारत की रचना में सहयोगी बन सकते हैं।

     अपने शताब्दी वर्ष में संघ ने पंच परिवर्तन का संकल्प लिया है। यह पंच परिवर्तन क्या है? इससे क्या होने वाला है? इसे भी जानना जरूरी है। संघ की मान्यता है कि व्यवस्था परिवर्तन का लक्ष्य तभी पूरा होगा, जब भारत की व्यवस्थाएं स्व पर आधारित हों।स्व आधारित तंत्र बनाना साधारण नहीं है। महात्मा गांधी से लेकर देश के तमाम विचारक और राजनेता स्व की बात करते रहे,किंतु व्यवस्था ने उनके विचारों को अप्रासंगिक बना दिया। समाज परिर्वतन के बिना व्यवस्था परिर्वतन संभव नहीं, इसे भी सब मानते हैं। वैचारिक संभ्रम इसका बहुत बड़ा कारण है। हम आत्मविस्मृति के शिकार और आत्मदैन्य से घिरे हुए समाज हैं। गुलामी के लंबे कालखंड ने इस दैन्य को बहुत गहरा कर दिया है। इससे हम अपना मार्ग भटक गए। स्वामी विवेकानंद, महर्षि अरविंद, स्वामी दयानंद सरस्वती, लोकमान्य तिलक, महात्मा गांधी, बाबा साहब आंबेडकर हमें वह रास्ता बताते हैं जिनपर चलकर हम अपनी कुरीतियों से मुक्त एक सक्षम, आत्मनिर्भर और स्वाभिमानी समाज बन सकते थे। किंतु अंग्रेजों के बाद सत्ता में आए नायकों ने सारा कुछ बिसरा दिया। उस आरंभिक समय में भी दीनदयाल उपाध्याय और डा. राममनोहर लोहिया जैसे नायक भारत की आत्मा में झांकने का प्रयास करते रहे किंतु सत्ता की राजनीति को वे विचार अनुकुल नहीं थे।

    राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने अपने शताब्दी वर्ष में पंच परिर्वतन का जो संकल्प लिया है,वह भारत की चिति और उसकी स्मृति को जागृत करने का काम करेगा। राष्ट्रीय चेतना का स्तर बढ़ाने के लिए 1.नागरिक कर्तव्य, 2. स्वदेशी, 3. पर्यावरण संरक्षण, 4.समरसता, 5.कुटुंब प्रबोधन जैसे पांच संकल्प ही पंच परिवर्तन के सूत्र हैं। इन विषयों में भारत की आत्मा को झकझोरकर जगाने और नया भारत बनाने का संकल्प झलकता है।

नागरिक कर्तव्यबोध से नवचेतन का संचार-

किसी भी राष्ट्र और लोकतंत्र की सफलता उसके नागरिकों की सहभागिता और कर्तव्यबोध से ही सार्थक होती है। एक जीवंत लोकतंत्र की गारंटी उसकी नागरिक चेतना ही है। कानूनों की अधिकता और उसे न मानने का मानस दोनों साथ-साथ चलते हैं। अपनी माटी के प्रति प्रेम, उत्कट राष्ट्रभक्ति ही सफल राष्ट्र का आधार है। जापान जैसे देशों का उदाहरण देते समय हमें देखना होगा कि क्या हमारी राष्ट्रीय चेतना और संवेदना वही है जो एक जापानी में है। आखिर क्या कारण है कि अपनी महान परंपराओं, ज्ञान परंपरा के बाद भी हम एक लापरवाह और कुछ मामलों में अराजक समाज में बदलते जा हैं। कानूनों को तोड़ना यहां फैशन है। यहां तक की हम सार्वजनिक स्थानों पर गंदगी फैलाने और सड़कों पर रेड लाइट का उल्लंधन करने से भी बाज नहीं आते। ये बहुत छोटी बातें लगती हैं, किंतु हैं बहुत बड़ी। चुनावों में शत प्रतिशत मताधिकार तो दूर का सपना है। बहुत शिक्षित शहरों में वोटिंग 50 प्रतिशत से आगे नहीं बढ़ पाती। ये सूचनाएं बताती हैं कि हमें अभी जागरूक नागरिक या सजग भारतीय होना शेष है।कानूनों का पालन, कर का समय पर भुगतान, सामाजिक और सामुदायिक सेवा, पर्यावरण संरक्षण, राष्ट्रीय संपत्ति की सुरक्षा जरूरी है। एक शानदार समाज की पहचान है कि वह अपने परिवेश को न सिर्फ स्वच्छ और सुंदर बनाने का प्रयास करता है बल्कि अपने प्रयासों से अन्यों को भी प्रेरित करता है। देखा जाता है कि हममें अधिकार बोध बहुत है किंतु कर्तव्यबोध कई बार कम होता है। जबकि संविधान हमें मौलिक अधिकारों के साथ कर्तव्यों की भी सीख देता है। हमारे धार्मिक ग्रंथ हमें नागरिकता और सामाजिक आचरण का पाठ पढ़ाते हैं। सवाल यह है कि हम उन्हें अपने जीवन में कितना उतार पाते हैं।

स्वदेशी से बनेगा स्वाभिमानी और आत्मनिर्भर भारत-

पंचपरिवर्तन का दूसरा सूत्र है स्वदेशी। स्वदेशी सिर्फ आत्मनिर्भरता का मामला नहीं है यह राष्ट्रीय स्वाभिमान का भी विषय है। अपनी जमीन पर खड़े रहकर विकास की यात्रा ही स्वदेशी का मूलमंत्र है। विनोबा जी कहते थे- स्वदेशी का अर्थ है आत्मनिर्भरता और अहिंसा।राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ इसे सादगी से भी जोड़ता है। जिसके मायने हैं मितव्ययिता से जियो, कंजूसी से नहीं। स्वदेशी का सोच बहुत व्यापक है। परिवारों में भाषा, वेशभूषा, भवन, भ्रमण, भजन और भोजन ये छः चीजें हमारी ही होनी चाहिए। हम विदेशी भाषा, बोलें, दुनिया के साथ संवाद करें। किंतु अपने परिवारों अपनी मातृभाषा का उपयोग करें। विदेशी वस्त्रों से परहेज नहीं किंतु पारिवारिक मंगल आयोजनों और उत्सवों में अपनी वेशभूषा धारण करें। स्वभूषा, उपासना पद्धति, भोजन हमारा होना चाहिए। इसी तरह हम पूरी दुनिया घूमकर आएं किंतु भारत के तपोस्थलों, तीर्थस्थलों, वीरभूमियों तक भी हमारा प्रवास हो। हमारे परिजन जानें की राणा प्रताप कौन हैं और चित्तौड़गढ़ कहां है। शिवाजी कौन थे और रायगढ़ कैसा है। जालियांवालाबाग कहां है। इसी तरह हमारे घर भारतीयता का प्रतिनिधित्व करते हुए दिखने चाहिए। वहां एक भारतीय परिवार रहता है ,यह प्रकट होना चाहिए। महापुरूषों की तस्वीरें। अपनी भाषा में नाम पट्ट और स्वागतम् जैसे उच्चार लिखे हों। परिवारों में हमारी संस्कृति की छाप साफ दिखनी चाहिए। तुलसी का पौधा और पूजाघर के साथ, किताबों का एक कोना भी हो जिसमें हमारे धार्मिक ग्रंथ गीता, रामायण, महाभारत आदि अवश्य हों। उनका समय-समय पर पाठ भी परिवार के साथ हो। हमारी जीवनशैली आधुनिक हो किंतु पश्चिमी शैली का अंधानुकरण न हो। परिवार में काम करने वाले सेवकों के प्रति सम्मान की दृष्टि भी जरूरी है। ऐसे अनेक विषय हैं जिन पर विचार होना चाहिए।

पर्यावरण संरक्षण से होगी जीवन रक्षा-

प्रकृति के साथ संवाद और सहजीवन भारत का मूल विचार है। अपनी नदियों, पहाड़ों और पेड़-पौधों में ईश्वर का वास देखने की हमारी संस्कृति और परंपरा रही  है। प्रकृति के बिना मानव जीवन की कल्पना असंभव है। प्रदूषण आज बहुत बड़ी चिंता बन गया है। कुछ भी स्वच्छ नहीं रहा। हवा भी जहरीली है। इसलिए हमें अपने भारतीय विचारों पर वापसी करनी ही होगी। प्रकृति और पर्यावरण के साथ सार्थक संवाद ही हमें बचा पाएगा। ग्लोबल वार्मिंग जैसी चिंताएं हमारे सामने चुनौती की तरह हैं। पानी, बिजली को बचाना, प्लास्टिक मुक्त समाज बनाने के साथ वाहनों का संयमित उपयोग जरूरी है। एयरकंडीशनर का न्यूनतम उपयोग, वनों और जंगलों की रक्षा जैसे अनेक प्रयासों से हम सुंदर दुनिया बना सकते हैं। घरों में पेड़-पौधे लगाएं और हरित घर का संकल्प लें। सच तो यह है कि अगर हम पर्यावरण की रक्षा करेंगें तो वह हमारी रक्षा करेगा।

सामाजिक समरसता से बनेगी सुंदर दुनिया-

सामाजिक समरसता के बिना कोई भी राष्ट्र अग्रणी नहीं बन सकता। गुरु घासीदास कहते हैं- मनखे-मनखे एक हैं। किंतु जातिवाद ने इस भेद को गहरा किया है। तमाम प्रयासों के बाद भी आज भी हम इस रोग से मुक्त नहीं हो सके हैं। भेदभाव ने हमारे समाज को विभाजित कर रखा है, जिसके चलते दुनिया में हमारी छवि ऐसी बनाई जाती है कि हम अपने ही लोगों से मानवीय व्यवहार नहीं करते हैं। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी कहते थे- अस्पृश्यता ईश्वर और मानवता के प्रति अपराध है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक रहे पू. बालासाहब देवरस ने इस संकट को रेखांकित करते हुए बसंत व्याख्यानमाला में कहा था कि- अगर छूआछूत गलत नहीं है दुनिया में कुछ भी गलत नहीं है, इसे मूल से नष्ट कर देना चाहिए।ऐसे में हमें यह समझना होगा कि जो कुछ भी सैकड़ों सालों से परंपरा के नाम पर चल रहा है वह हमारा धर्म नहीं है। इतिहास में हुए इन पृष्ठों का कोई भी सभ्य समाज समर्थन नहीं कर सकता। जबकि हमारे धर्म ग्रंथ और शास्त्र इससे अलग हैं। हमारे ऋषि और ग्रंथों के रचयिता सभी वर्गों से हैं। भगवान बाल्मीकि और वेद व्यास इसी परंपरा से आते हैं। यानि यह भेद शास्त्र आधारित नहीं है। यह विकृति है। इससे मुक्ति जरूरी है।हमें इसके सचेतन प्रयास करते हुए अपने आचरण, व्यवहार और वाणी से समरसता का अग्रदूत बनना होगा। सभी समाजों और वर्गों से संवाद और सहकार बनाकर हम एक आदर्श समाज की रचना में सहयोगी हो सकते हैं। इससे समाज का सशक्तिकरण भी होगा। समानता का व्यवहार, वाणी संयम, परस्पर सहयोग, संवेदनशीलता से हम दूरियों को घटा सकते हैं और भ्रम के जाले साफ कर सकते हैं। साथ ही अपने गांव, नगर के मंदिर, जलश्रोत, श्मशान सबके लिए समान रूप से खुल होने ही चाहिए। इसमें कोई भी भेद नहीं होना चाहिए।

हमारी शक्ति है कुटुंब-

आज का सबसे बड़ा संकट कुटुंब का बिखराव है। एकल परिवारों में बंटते जाना और अकेले होते जाना इस समय की त्रासदी है। जबकि कल्याणकारी कुटुंब वह है जहां सब संरक्षण, स्नेह और संवेदना के सूत्र में बंधे होते हैं। जहां बालकों को प्यार और शिक्षा, वयस्कों को सम्मान और बुजुर्गों को सम्मान और सेवा मिलती है। परिवार हमारी शक्ति बनें इसके लिए पंच परिवर्तन का बड़ा मंत्र है- कुटुंब प्रबोधन। कुटुंब की एक परंपरा होती है। हम उसे आगे बढ़ाते हैं और संरक्षित करते हैं। मूल्यआधारित जीवन इससे ही संभव होता है। परिवार के मूल्यों से ही बच्चों को संस्कार आते हैं और वे सीखते हैं। जैसे देखते हैं वैसा ही आचरण करते हैं।कुटुंब दरअसर रिश्तों का विस्तार है। जिसमें पति-पत्नी और बच्चों के अलावा हमारे सगे-संबंधी भी शामिल हैं। उनके सुख में सुख पाना, दुख में दुखी होना और उन्हें संबल देना हमें मनुष्य बनाता है। इसके लिए बच्चों के साथ-साथ रिश्तों को समय देना जरूरी है। औपचारिक और अनौपचारिक रुप से कार्यक्रमों, खान-पान, उत्सवों के माध्यमों से ये रिश्ते दृढ़ होते जाएं यह बहुत जरूरी है।

    पंच परिवर्तन के साधारण दिखने वाले सूत्रों में ही भारत की आत्मा के दर्शन होते हैं। इन सूत्रों को अपनाकर हम एक सुंदर बनाने की दिशा में बड़ा काम कर सकते हैं। संघ की शताब्दी वर्ष में लिए गए ये संकल्प हमें एक समाज और राष्ट्र के रूप में संबल देने का काम करेगें इसमें दो राय नहीं है। 22 जनवरी,2024 को अयोध्या में राममंदिर में भगवान की प्राणप्रतिष्ठा के बाद राम राज्य की ओर हम बढ़ चले हैं। राम राज्य के मूल्य हमारे जीवन में आएं। परिवारों में आएं। इससे एक सबल, आत्मनिर्भर और आत्मविश्वासी भारत बनेगा। आचरण की शुचिता से आए परिर्वतन ही स्थाई होते हैं। इससे ही हमारे मन में राम रमेंगें और देश में रामराज्य आएगा।