tag:blogger.com,1999:blog-6865998346481992096.post2686203186888996554..comments2023-07-20T02:08:55.823-07:00Comments on संजय उवाच: अकेले हम, अकेले तुम !Prof. Sanjay Dwivedihttp://www.blogger.com/profile/09552910632128229763noreply@blogger.comBlogger4125tag:blogger.com,1999:blog-6865998346481992096.post-8912621066608068592011-01-11T03:36:03.676-08:002011-01-11T03:36:03.676-08:00संजय जी , बहुत ही सुन्दर , सवाल उठाता, झगझोरता सा ...संजय जी , बहुत ही सुन्दर , सवाल उठाता, झगझोरता सा लेख है आपका - इस खबर ने मुझे भी अन्दर तक दुःख पहुँचाया मैं तो हमेशा से हैरान होती हूँ फेसबुक पर लोगों की लम्बी लम्बी फ्रेंड लिस्ट देख कर ,सभी ना जाने किस माया जाल में जकडे है सब इक दूसरे को छलते रहते है कोई किसी को समझने की कोशिश नहीं करता ऐसा लगता है फेसबुक पर हर किसी का अपना अपना आसमां , हर कोई अपने जुनूं की कह रहा है दास्ताँ " मुझे तो लगता है कंप्यूटर और मोबाइल ने रिश्तों की मिठास छीन ली है ना फोन पर बात करते समय किसी की आवाज में सच्चाई नजर आती है ना फेसबुक पर ही लोग खुद को सही रूप में प्रस्तुत करते है <br />यक़ीनन सिमोन बेक की मौत और उसके दोस्तों की बेरुखी ने इस रिश्ते की कलई खोल दी है और उन लोगो को सोचने पर मजबूर किया है जो अपने दोस्तों की लम्बी लिस्ट देख कर खुश होते होगे अफ़सोस १०४८ दोस्तों में इक भी ऐसा नहीं था जो सिमोन के मन तक पहुंचा हो उसने जरुर मरते वक्त सोचा होगा की " सेहरा में मेरे हाल पर कोई फूट के रोया तो वो मेरे पाँव का छाला ही रोया " और रही बात हमें रोने के लिए कौन कंधा देगा ??? तो साहब यदि हमारे मन में किसी के लिए दर्द है और हम पीर पराई जानते है कभी किसी के लिए हमारी आखं नम हुई होगी और हमने किसी के आसुओं को अपना कंधा दिया होगा तो हमें भी रोने के लिए कंधा जरुर मिलेगा मनवा https://www.blogger.com/profile/02870656533991445962noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-6865998346481992096.post-5324219794748520122011-01-11T03:33:12.346-08:002011-01-11T03:33:12.346-08:00इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है. मनवा https://www.blogger.com/profile/02870656533991445962noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-6865998346481992096.post-47069950607844402572011-01-10T10:02:48.616-08:002011-01-10T10:02:48.616-08:00आज राष्ट्रीय सहारा में आपका यह लेख पढ़ा. कुछ बातें...आज राष्ट्रीय सहारा में आपका यह लेख पढ़ा. कुछ बातें मन को छू गईं.कभी कहा जाता था कि लोग पढ़-लिख लेंगे तो समाज बदहाली से निकल आयेगा और हम तरक्की करेंगें! आज पढ़-लिखकर और तरक्की करके हम कहाँ पहुँच रहे हैं? एक अंधी सुरंग में! और वो सुरंग भी हम ख़ुद ही बना रहे हैं! बहरहाल, ऐसी मौतें तो हर पल होती रहती हैं संजय जी , लेकिन आपने उस नामालुम शख्स की मौत को एक बड़े सामाजिक सरोकार से जोड़कर एक गंभीर मुद्दा उठाया है, इसके लिए आपको साधुवाद! यह बहस आगे बढ़नी चाहिएसुनील अमरhttps://www.blogger.com/profile/09357557181811146471noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-6865998346481992096.post-43508584819629662122011-01-08T02:03:54.724-08:002011-01-08T02:03:54.724-08:00आज के समाज कि विडंबना बन गयी है कि मोहल्ले की दोस्...आज के समाज कि विडंबना बन गयी है कि मोहल्ले की दोस्ती यारी और बैठिकी छोड़ कर इस आभासी दुनिये में सुख दुःख बाँट रहे हैं.दीपक बाबाhttps://www.blogger.com/profile/14225710037311600528noreply@blogger.com