गुरुवार, 26 दिसंबर 2019

आशा-निराशा के झूलों में झूलता रहा पूरा साल



जा रहे साल-2019 के नाम



-प्रो. संजय द्विवेदी
     किसी भी जाते हुए साल, बीते हुए समय को लोग याद कहां करते हैं। कई बार बीते दिन सुखद ही लगते हैं। फिर भी यह दिन नहीं है, साल है। वह भी 2019 जैसा। जिसने भारत की राजनीति, समाज, संस्कृति और उसके बौद्धिक विमर्शों को पूरा का पूरा बदल दिया है। जाते हुए साल ने नागरिकता संशोधन कानून(सीएए) के नाम पर सड़कों पर जो आक्रोश देखा है,यह संकेत है कि आने वाले दिन भी बहुत आसान नहीं हैं। कड़वाहटों, नफरतों और संवादहीनता से हमारी राजनीतिक जमातों ने जैसा भारत बनाया है, वह आश्वस्त नहीं करता। डराता है। राष्ट्र की समूची राजनीति के सामने आज यह प्रश्न है वह इस देश को कैसा बनाना चाहती है। यह देश एक साथ रहेगा, एकात्म विचार करेगा या खंड-खंड चिंतन करता हुआ,वर्षों से चली आ रही सुविधाजनक राजनीति का अनुगामी बनेगा। वह सवालों से टकराकर उनके ठोस और वाजिब हल तलाशेगा या शुतुरर्मुग की तरह बालू में सिर डालकर अपने सुरक्षित होने की आभासी प्रसन्नता में मस्त रहेगा।
पुलवामा हमले से हिला देशः
     साल के आरंभिक दिनों में हुए पुलवामा हमले ने जहां हमारी आंतरिक सुरक्षा पर गहरे सवाल खड़े किए, वहीं साल के आखिरी दिनों में मची हिंसा बताती है कि हमारा सभ्य होना अभी शेष है। लोकतांत्रिक प्रतिरोध का माद्दा अर्जित करने और गांधीवादी शैली को जीवन में उतारने के लिए अभी और जतन करने होगें। हम आजाद तो हुए हैं पर देशवासियों में अभी नागरिक चेतना विकसित करने में विफल रहे हैं। यह साधारण नहीं है कि सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुंचाने और अपने ही लोगों को ही प्रताड़ित करने में हमारे हाथ नहीं कांप रहे हैं। पुलवामा में 40 सैनिकों की शहादत देने के बाद भी राष्ट्रीय सुरक्षा को लेकर हमारी नागरिक चेतना में कोई चैतन्य नहीं है।राजनीतिक लाभ के लिए भारतीय संसद में बनाए गए कानूनों को रोकने की हमारी कोशिशें बताती हैं कि विवेकसम्मत और विचारवान नागरिक अभी हमारे समाज में अल्पमत में हैं। यह ठीक है कि सरकारों की जिम्मेदारी है कि वे अपने नागरिकों में विश्वास की बहाली करें और उनसे संवाद करें। किंतु यहां यह भी देखना होगा कि विरोध के लिए उतरे लोग क्या इतने मासूम हैं और संवाद के लिए तैयार हैं? अथवा वे ललकारों और हुंकारों के बीच ही अपने राजनीतिक पुर्नजीवन की आस लगाए बैठे हैं। ऐसे समय में हमारे राजनीतिक नेतृत्व से जिस नैतिकता और समझदारी की उम्मीद की जाती है, क्या वह उसके लिए तैयार भी हैं?
मोदी हैं सबसे बड़ी खबरः
      इस साल की सबसे बड़ी खबर तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ही हिस्से रही। लगातार दूसरी बार एक गैरकांग्रेसी सरकार का सत्ता में पूर्ण बहुमत के साथ आना भारतीय राजनीतिक इतिहास की एक बड़ी घटना है। मोदी का जादू फिर सिर चढ़कर बोला और भाजपा 303 सीटें जीतकर सत्ता में वापस आई। 2014 में भाजपा को 282 सीटें मिली थीं।  इसी के साथ मोदी ऐसे प्रधानमंत्री भी बन गए जिन्होंने पं. जवाहरलाल नेहरू और श्रीमती इंदिरा गांधी के बाद तीसरे ऐसे व्यक्ति हैं जिन्होंने, दूसरी बार पूर्ण बहुमत की सरकार बनाई। दूसरी तरफ कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने इस साल अपना पद छोड़ दिया और काफी मान-मनौव्वल के बाद भी नहीं माने। अंततः श्रीमती सोनिया गांधी को यह पद स्वीकार करना पड़ा।
       साल के आखिरी महीने की कड़वाहटों को छोड़ दें तो जाता हुआ साल 2019 कई मामलों में बहुत उम्मीदें जगाने वाला साल भी है। कश्मीर में धारा 370 की समाप्ति और राममंदिर पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला दो ऐसी बातें हैं जो इस साल के नाम लिखी जा चुकी हैं। इस मायने में यह साल हमेशा के लिए इतिहास के खास लम्हों में दर्ज हो गया है। भारतीय राजनीति में चीजों को टालने का एक लंबा अभ्यास रहा है। समस्याओं से टकराने और दो-दो हाथ करने और हल निकालने के बजाए, हमारा सोच संकटों से मुंह फेरने का रहा है। श्रीमती इंदिरा गांधी के बाद अरसे से एक ऐसे नायक का इंतजार होता रहा, जो निर्णायक पहल कर सके और फैसले ले सके। धारा 370 सही मायने में केंद्र सरकार का एक अप्रतिम दुस्साहस ही कहा जाएगा। किंतु हमने देखा कि इसे देश ने स्वीकारा और कांग्रेस पार्टी सहित अनेक राजनीतिक दलों के नेताओं ने इस फैसले की सराहना की।
मंदिर पर सुप्रीम फैसलाः
    राममंदिर पर सुप्रीम कोर्ट का सुप्रीम फैसला भी इसी कड़ी में एक बहुत महत्वपूर्ण तारीख है। जिसने सदियों से चले आ रहे भूमि विवाद का निपटारा करके भारतीय इतिहास के सबसे खास मुकदमे का पटाक्षेप किया। तीन तलाक का मुद्दा एक ऐसा ही विषय था जिसने भारतीय मुस्लिम स्त्रियों की जिंदगी में छाए अंधेरों को काटकर एक नई शुरुआत की। यह एक ऐसा विषय था जिसे आस्था और संविधान की बहस में उलझाया गया। लेकिन मानवीय और संवैधानिक दृष्टि से यह बहुत बड़ा मुद्दा था। हालांकि स्त्री सुरक्षा के लिए यह साल भी बहुत उम्मीदें जगाकर नहीं गया। साल के प्रारंभ में उन्नाव दुष्कर्म कांड से लेकर साल के अंत में हैदराबाद की वेटनरी डाक्टर की निर्मम हत्या और दुराचार की घटनाओं ने बताया कि हमारे समाज में अभी बहुत कुछ करने की जरूरत है। हैदराबाद दुष्कर्म मामले के आरोपियों को पुलिस ने तत्काल मार गिराया किंतु निर्भया मामले के अपराधियों को आज तक फांसी के फंदों पर नहीं लटकाया जा सका। कानून की बेचारगी इस सबके बीच चर्चा का विषय बनी।
सामान्य वर्ग को आरक्षण की राहतः     
    जनवरी महीने में सामान्य वर्ग को दस प्रतिशत आरक्षण देने का बिल संसद ने पास किया। गुजरात इसे लागू करने वाला देश का पहला राज्य बना। इस कानून ने आरक्षण पर मचे बवाल पर सामान्य वर्गों को राहत देने की भावभूमि बनाई। इस साल के एक महत्वपूर्ण उत्सव के रूप में प्रयागराज में कुंभ को भी याद किया जाएगा। इस कुंभ में 15 करोड़ लोगों ने स्नान किया और दुनिया के 190 देशों को आमंत्रण भेजे गए। कुंभ की व्यवस्थाओं को लेकर उप्र सरकार की काफी सराहना भी हुयी।
        इस साल ने हमें आशा, निराशा, उम्मीदों और सपनों के साथ चलने के सूत्र भी दिए हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी लगातार युवाओं पर भारी उम्मीदें जता रहे थे। हम देखें तो भारत का स्टार्टअप तंत्र  जिस तरह से युवा शक्ति के नाते प्रभावी हुआ है, वह हमारी एक बड़ी उम्मीद है। सन 2019 में ही कुल 1300 स्टार्टअप प्रारंभ हुए। कुल 27 कंपनियों के साथ भारत में पहले ही चीन और अमरीका के बाद तीसरे सबसे ज्यादा यूनिकार्न (एक अरब से ज्यादा के स्टार्टअप) मौजूद हैं। भारत की यह प्रतिभा सर्वथा नई और स्वागतयोग्य है। वहीं दूसरी ओर मंदी की खबरों से इस साल बाजार थर्राते रहे। निजी क्षेत्रों में काफी लोगों की नौकरियां  गईं और नए रोजगार सृजन की उम्मीदें भी दम तोड़ती दिखीं। बहुत कम ऐसा होता है महंगाई और मंदी दोनों साथ-साथ कदमताल करें। पर ऐसा हो रहा है और भारतीय इसे झेलने के लिए मजबूर हैं। नीतियों का असंतुलन, सरकारों का अनावश्यक हस्तक्षेप बाजार की स्वाभाविक गति में बाधक हैं। भारत जैसे महादेश में इस साल की दूसरी तिमाही में विकास दर 4.5 फीसद रह गयी थी, अगले छह माह में यह क्या रूप लेगी कहा नहीं जा सकता। इस साल पांच फीसदी की विकास दर भी नामुमकिन लग रही है। सच तो यह है कि मोदी सरकार ने अपने प्रारंभिक दो सालों में जो भी बेहतर प्रदर्शन किया, नोटबंदी और जीएसटी ने बाद के दिनों में उसके कसबल ढीले कर दिए। बिजनेस टुडे के पूर्व संपादक प्रोसेनजीत दत्ता मानते हैं कि-यदि सहस्त्राब्दी का पहला दशक मुक्त बाजार सिद्धांत की अपार संभावनाओं वाला था तो यह दशक बेतरतीब सरकारी हस्तक्षेप वाला रहा। ऐसे में आने वाला साल किस तरह की करवट लेगा इसके सूत्रों को जानने के लिए मार्च,2020 तक नए बजट के बाद की संभावनाओं का इंतजार करना होगा। इसमें दो राय नहीं कि वैश्विक स्तर पर भारत की विदेश नीति में प्रधानमंत्री ने अपनी सक्रियता से एक नर्ई ऊर्जा भरी, किंतु भारत की स्थानीय समस्याओं, लालफीताशाही, शहरों में बढ़ता प्रदूषण, कानून-व्यवस्था के हालात ऐसे ही रहे तो उन संभावनाओं का दोहन मुश्किल होगा।
नवसंकल्पों और नवाचारों का समयः
    उदारीकरण की इस व्यवस्था के बीज इस अकेले साल के माथे नहीं डाले जा सकते। 1991 से लागू इस भूमंडलीकरण और उदारीकरण ने हमारे गांवों, किसानों और सामान्य जनों को बेहद अकेला छोड़ दिया है। किसानों की आत्महत्याएं, उनकी फसल का सही मूल्य, जनजातियों के जीवन और सुरक्षा जैसे सवाल आज नक्कारखाने में तूती की तरह ही हैं। मुख्यधारा की राजनीति के मुद्दे बहुत अलग हैं। उन्हें देश के वास्तविक प्रश्नों पर लाना कठिन ही नहीं असंभव ही है। जाता हुआ साल भी हमारे सामने विकराल जनसंख्या, शरणार्थी समस्या, घुसपैठ, कृषि संकट, महंगाई, बेरोजगारी जैसे तमाम प्रश्न छोड़कर जा रहा है। सन 2020 में इन मुद्दों की समाप्ति हो जाएगी, सोचना बेमानी है। बावजूद इसके हमारे बौद्धिक विमर्श में असंभव प्रश्नों पर भी बातचीत होने लगी है, यह बड़ी बात है। हमें अपने देश के सवालों पर, संकटों पर, बात करनी होगी। भले वे सवाल कितने भी असुविधाजनक क्यों न हों। 2019 का साल जाते-जाते कुछ बड़े मुद्दों का हल देकर जा रहा है। नए साल-2020 का स्वागत करते हुए हमें कुछ नवसंकल्प लेने होंगें, नवाचार करने होंगे और अपने समय के संकटों के हल भी तलाशने होगें। अलविदा- 2019!




सोमवार, 23 दिसंबर 2019

बृजलाल द्विवेदी स्मृति पत्रकारिता सम्मान से अलंकृत किए जाएंगे कमलनयन पाण्डेय


9 फरवरी,2020 को मीडिया विमर्शके आयोजन में होंगे सम्मानित


भोपाल। पं. बृजलाल द्विवेदी स्मृति अखिल भारतीय साहित्यिक पत्रकारिता सम्मान इस वर्ष त्रैमासिक पत्रिका युगतेवर’ (सुल्तानपुर,उत्तर प्रदेश) के संपादक कमलनयन पाण्डेय को दिया जाएगा। सम्मान समारोह आगामी 09 फरवरी, 2020 (रविवार) को भोपाल स्थित गांधी भवन में आयोजित किया जाएगा।
          मीडिया विमर्शपत्रिका के कार्यकारी संपादक प्रो. संजय द्विवेदी ने बताया कि यह पुरस्कार प्रतिवर्ष हिंदी की साहित्यिक पत्रकारिता को सम्मानित करने के लिए दिया जाता है। उन्होंने बताया कि श्री कमलनयन पाण्डेय साहित्यिक पत्रकारिता के महत्वपूर्ण हस्ताक्षर होने के साथ-साथ जाने-माने साहित्यकार और लेखक भी हैं। 38 वर्षों से वे समकालीन लेखन को समर्पित साहित्यिक पत्रिका युगतेवरका संपादन कर रहे हैं। पूर्व में यह पत्रिका तेवरनाम से भी प्रकाशित होती रही है, 2006 में इसका नाम युगतेवरकर दिया गया। सम्मान का यह बारहवां वर्ष है। त्रैमासिक पत्रिका मीडिया विमर्शद्वारा प्रारंभ किए गए इस अखिल भारतीय सम्मान के तहत साहित्यिक पत्रकारिता के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान करने वाले संपादक को ग्यारह हजार रुपए, शाल, श्रीफल, प्रतीक चिन्ह और सम्मान पत्र से अलंकृत किया जाता है।
     पुरस्कार के निर्णायक मंडल में सर्वश्री विश्वनाथ सचदेव(पूर्व संपादकः नवभारत टाइम्स,मुंबई), रमेश नैयर (पूर्व निदेशकः छत्तीसगढ़ ग्रंथ अकादमी, रायपुर), तथा डा. सच्चिदानंद जोशी( सदस्य सचिवः इंदिरा गांधी कला केंद्र,दिल्ली) शामिल हैं। इसके पूर्व यह सम्मान वीणा(इंदौर) के संपादक स्व. श्यामसुंदर व्यास, दस्तावेज (गोरखपुर) के संपादक डा.विश्वनाथ प्रसाद तिवारी, कथादेश (दिल्ली) के संपादक हरिनारायण, अक्सर (जयपुर) के संपादक डा. हेतु भारद्वाज, सद्भावना दर्पण (रायपुर) के संपादक गिरीश पंकज, व्यंग्य यात्रा (दिल्ली) के संपादक डा. प्रेम जनमेजय, कला समय (भोपाल) के संपादक विनय उपाध्याय, संवेद (दिल्ली) के संपादक किशन कालजयी, अक्षरा (भोपाल) के संपादक कैलाशचंद्र पंत, अलाव (दिल्ली) के संपादक रामकुमार कृषक और प्रेरणा (भोपाल) के संपादक अरुण तिवारी को दिया जा चुका है।


बदलेंगें पर बचे रहेंगे अखबार


-प्रो. संजय द्विवेदी

          ई-मीडिया, सोशल मीडिया, यू-ट्यूब और कुल मिलाकर मोबाइल क्रांति ने सबसे बड़ा नुकसान अखबार और पत्रिकाओं का किया है। इस समय का संकट यह है कि अब पढ़ने का वक्त मोबाइल पर जा रहा है। पठनीयता का यह संकट प्रिंट माध्यमों के सामने एक चुनौती की तरह है। सूचना और ज्ञान के लिए ई-माध्यमों और मोबाइल पर बढ़ती निर्भरता ने प्रिंट माध्यमों को बदलने की चुनौती भी दी है। क्योंकि अगर ये बदलते नहीं तो अप्रासंगिक हो जाएंगे। बदलना मजबूरी है, सो अखबार खुद को बदलेंगें और बचे रहेंगे।
       इस पूरे परिदृश्य को देखें तो अखबार बदल रहे हैं। ज्यादा सरोकारी और ज्यादा संदर्भों के साथ प्रस्तुत हो रहे हैं। उनकी साज-सज्जा और प्रस्तुति भी होड़ करती दिखती है। अब राजनीति ही अखबार का मुख्य समाचार नहीं है। समाज जीवन के विविध संदर्भ यहां जगह पा रहे हैं। अखबार के पृष्ठ बढ़े हैं और यह आवश्यक नहीं प्रधानमंत्री पहले पन्ने पर लीड बनें। प्रधानमंत्री और सत्ताधीशों का पहले पन्ने से गायब होना यह संकेत है कि अखबार अपने को बदल रहे हैं। अब अखबार आपकी जरूरत का बन रहा है। वह आपके हिसाब से बनाया जा रहा है। उसे आपके सपनों, आकांक्षाओं, आवश्यक्ताओं के तहत बनाया जा रहा है। वह थोपा नहीं जा रहा है, वह बात कर रहा है। तकनीक की दुनिया ने इसे संभव किया है। हिंदुस्तान जैसे देश की विविधता और बहुलता के हिसाब से अलग-अलग अखबार बनाए जा रहे हैं। स्थानीयता इसमें एक प्रमुख तत्व के रूप में सामने आई है। स्थानीय संस्करणों की अवधारणा और शहरों के पूलआउट इसे व्यक्त रहे हैं। कंटेट के स्तर पर बदलाव हमें चौतरफा दिखता है।
       ई-मीडिया की क्रांति के बाद अखबार अब खबर देने वाले पहले माध्यम नहीं रहे। सूचनाएं कई अन्य माध्यमों से हमें मिल चुकी होती हैं। एक समय में अखबारों से ही जानते थे हमारे देश, प्रदेश और शहर में क्या हुआ। सोशल मीडिया और मोबाइल क्रांति के चलते हर व्यक्ति अब सूचना संपन्न है। उसके पास सारी सूचनाएं आ चुकी हैं। अब वह 24 घंटे में एक बार आने वाले अखबार का क्या करे? जाहिर तौर पर संकट गहरा है।  बावजूद इसके यह माना जा रहा है कि छपे हुए शब्दों पर भरोसा कम नहीं होगा, इसलिए अखबारों की अहमियत कायम रहेगी। अखबार के मूल तत्व मीडिया और सूचना क्रांति के बाद भी नहीं बदलेंगे। सोशल मीडिया का ऊफान आज है कल रहेगा, यह जरूरी नहीं। न्यू मीडिया भी कब तक न्यू रहेगा कहा नहीं जा सकता। हम याद करें तो टीवी क्रांति के समय भी यह माना गया था कि अब प्रिंट मीडिया को गहरा संकट है। किंतु ऐसा नहीं हुआ बल्कि चैनल क्रांति के चलते अखबार संभले, रंगीन हुए, ज्यादा सुदर्शन और आकर्षक प्रस्तुतिजन्य हुए। ऐसे में अखबारों की बेहतर प्रस्तुति और सिटीजन जर्नलिज्म की मांग बढ़ेगी। अखबार की दुनिया में काम करने वाले सभी मीडिया हाउस अब डिजीटल मीडिया पर भी काम कर रहे हैं। उनकी वर्षों में बनी विश्वसनीयता और प्रामणिकता उनके काम आ रही है। अखबार इस तरह बचे रहेगें। एक समय में अखबारों में 40 प्रतिशत भाषण, 20 प्रतिशत प्रेसनोट और 40 प्रतिशत खबरें छपती थीं। अब आपके मन और इच्छा का अखबार तैयार हो रहा है। उसका जोर सूचनाओं पर नहीं, विश्लेषण पर है, व्याख्या पर है। फीचर पर है। घटनाओं पर नहीं इवेंट्स पर है। वह सुंदर दृश्यों का साक्षी बनना चाहता है। अब समस्याएं ही उसका मुख्य स्वर नहीं, अब जीवन या लाइफ स्टाइल भी उसका मुख्य समाचार है। उसकी इच्छा एक साथ आधुनिकता और परंपरा दोनों को साधने की है। भारत की विविधता और उत्सवधर्मिता उसका मूल स्वर है। बाजार भी इसमें उसके साथ खड़ा है। वह अब ईद और दीवाली भर नहीं, करवा चौथ, छठ और गरबा सबका राष्ट्रीयकरण कर रहा है। उसे अक्षय तृतीया की भी याद है और वेलेंटाइन डे की भी। उसे रोज डे भी मनाना है और नया साल भी। नया साल एक जनवरी का भी और गुड़ी पाड़वा, हिंदू नववर्ष का भी।
      इस बदलते अखबार को समझना है तो भारत और उसके समाज को भी समझना होगा। 1991 के बाद जीवन में घुस आई उदारीकरण के पैदा हुई, समझ को भी समझना होगा। यह झोलाछाप पत्रकारिता का समय नहीं है, यह एक कारपोरेट मीडिया है। जिसके केंद्र में सिर्फ गरीब, संघर्ष करते लोग नहीं, खाय-अधाए लोग भी हैं। वह जरुरतों और संसाधनों से भरे पूरे लोगों की भी कहानियां सुना रहा है। उनकी पार्टियां उसके पन्नों पर पेज-3 की तरह परोसी जा रही हैं। सेलेब्रटी होना अब समाचार के लायक होना भी है। सेलेब्रेटी के लिए सामाजिक मूल्य मायने नहीं रखते, वह क्या खाता है, क्या पहनता है, उसकी पार्टियां कितनी रंगीन है, यहां उसी का मूल्य है। अखबारों में अब एक साथ गंभीरता और हल्कापन दोनों है। वे बाजार को भी साधते हैं और कुछ पढ़ने वाले पाठकों को भी। वे अब एक बड़े वृत्त के लिए काम करते हैं। अखबार भी चाहते हैं कि वे भी आदमी की तरह स्मार्ट बनें और स्मार्ट पाठकों के बीच पढ़े जाएं। इसलिए अब पाठक ही नहीं, अखबार भी अपने पाठकों को चुन रहे हैं। अखबार अब सिर्फ प्रसारित नहीं होना चाहते, वे क्लास के बीच पढ़े जाना चाहते हैं। वे प्रभुवर्गों के बीच अपनी मौजूदगी चाहते हैं। राजनीति की तरह अब अखबारों के केंद्र में जनता नहीं ताकतवर लोग हैं। खाए-अधाए लोग हैं, जो उपभोक्ता बन चुके हैं या उनमें खरीददार बनने की संभावनाएं हैं। इसलिए यहां प्रबंधन खास है, संपादक दोयम। क्योंकि यहां विचारों का भी प्रबंधन करना है, इसलिए कुछ समझदार लोग बिठाए गए हैं। जो एक बाजार के लिए अनुकूलित समाज बनाने में अहर्निश साधना कर रहे हैं। ऐसे अखबारों में काम के लोग तलाशे जा रहे हैं। कई अर्थों में कार्य स्थितियां बेहतर हो रही हैं।
       इस नए समय ने डेस्क और फील्ड की दूरी को भी पाट दिया है। नए कंटेंट का विकास और सृजन यहां महत्वपूर्ण है। चलता है, वाला ट्रेंड अब विदाई की ओर है। कहते हैं अखबारों के डिजीटल एडीशन का सूरज नहीं ढलता, अखबार अब चौबीस घंटों के उत्पाद में बदल रहे हैं, वे भले घर में सुबह या शाम को एक बार आ रहे हैं किंतु उनका डिजीटल संस्करण 24X7 है। ऐसे में अपार अवसरों का सृजन भी हो रहा है। एक नए अखबार से मुलाकात हो रही है, जो 1991 के बाद पैदा हुआ है। यह बाजारीकरण, भूमंडलीकरण के मूल्यों से पैदा हुआ अखबार है। परिर्वतन के इसी प्रभाव को रेखांकित करते हुए 1982 में टीवी के कलर होने पर कवि-संपादक रघुवीर सहाय ने कहा था कि अब खून का भी रंग दिखेगा 1991 में भूमंडलीकरण की नीतियों को स्वीकार करने के बाद की मीडिया में अनेक ऐसे रंग दिख रहे हैं, जो हमारे इंद्रधनुष में नहीं थे। यह बिल्कुल नया अखबार है, जिसकी जड़ें स्वतंत्रता आंदोलन के गर्भनाल में नहीं हैं, उसे वहां खोजिएगा भी नहीं। नैतिक अपेक्षाएं तो बिल्कुल मत पालिएगा। निराशा होगी।

गुरुवार, 12 दिसंबर 2019

मलयालम मीडिया पर शोध ग्रंथ सरीखा है मीडिया विमर्श का विशेषांकःगफूर


त्रिश्शूर में मलयालम मीडिया पर केंद्रित अंक का विमोचन


त्रिश्शूर,(केरल)। मीडिया विमर्श पत्रिका के मलयालम विशेषांक का लोकार्पण मुस्लिम एजुकेशन सोसाइटी (एम.ई.एस ) के अध्यक्ष डॉ .पी.ए .फसल गफूर जी के कर कमलों से सम्पन्न हुआ । पत्रिका की प्रथम प्रति दक्षिण अफ्रीका के अरबा मिंच विश्व विद्यालय के अंग्रेजी विभाग के अध्यक्ष प्रो.डॉ गोपाल शर्मा ने स्वीकार किया। केरल राज्य के एम्.इ.एस कल्लटी कालेज, त्रिश्शूर के भाषा विभागों के संयुक्त तत्वावधान में आयोजित द्विदिवसीय अंतर राष्ट्रीय संगोष्ठी महात्मा : सरहदों से परे के उदघाटन सत्र में इस विशेषांक के अतिथि सम्पादक  डॉ.सी जयशंकर बाबु के प्रयास को महत्वपूर्ण बताते हुए कहा कि यह अंक मलयालम मीडिया पर एक शोध ग्रंथ सरीखा है।
  इस अवसर मुस्लिम एजुकेशन सोसाइटी  के अध्यक्ष डॉ .पी.ए .फसल गफूर जी ने कहा कि “यह अंक दक्षिण भारत के मलयालम मीडिया को हिंदी के पाठकों के समक्ष रखने का अद्भुत प्रयास है।इससे भारतीय भाषाओं की एकता में अभिवृद्धि होगी। प्रो.डॉ गोपाल शर्मा ने  बताया की “देश-विदेश में फैले हिंदी पाठक समूह को इस पत्रिका में प्रकाशित मलयालम मीडिया के रचनाकार,संपादक,फिल्म निदेशक,विभिन्न पत्र-पत्रिकाएँ आदि का परिचय प्राप्त होगा। इस क्षेत्र में तुलनात्मक अध्ययन अब शैशव दशा में है । इस दृष्टि यह शोधार्थियों को शोध के लिए  प्रेरित करेगा ।उनके विचार में मलयालम भाषी भी इस अंक को पढ़ना और पढ़वाना चाहेंगे”।
 अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी के संयोजक एवं हिंदी विभाग के अध्यक्ष डॉ.रंजित एम् ने इस अंक को महात्मा गांधी जी के व्यापक भाषा दृष्टि से जोड़ा और कहा इस अंक का यहाँ इस रूप में लोकार्पण होने से गांधी जी के हिंदी दर्शन को आगे बढ़ावा भी मिलेगा। सभा में उपस्थित सभी विद्वानों ने अतिथि संपादक की भूरी –भूरी प्रशंसा की और कहा मूलतः तेलुगु भाषी एवं हिंदी के वरिष्ठ विद्वान् एवं संपादक डा.जयशंकर बाबूजी ने मलयालम भाषा के अनेक विद्वानों से मीडिया संबंधी विषयों पर अनुग्रह पूर्वक लिखवाकर दक्षिण की भाषा पत्रकारिता के क्षेत्र में सराहनीय योगदान दिया है,और आशा की जानी चाहिए की सभी भारतीय  भाषाओं की पत्रकारिता पर विशेषांक निकाला जायेंगे। विमोचन समारोह में कोलेज के एम्.इ.एस कल्लटी कोलेज प्रबन्धन समिति के सचिव जनाब पी .यु मुजीब,चेयरमान के.सी.के.सैद अली, प्राचार्य टी.के जलील, एम्.इ.एस पालक्काट,जिला अध्यक्ष जब्बार अली, शाजिद वलांचेरी,श्रीमती ए.रमला आदि भी शामिल थे । उल्लेखनीय है कि त्रैमासिक पत्रिका मीडिया विमर्श निरंतर भाषाई पत्रकारिता पर काम करते हुए अब तक उर्दू पत्रकारिता, तेलुगु मीडिया, गुजराती मीडिया पर विशेषांकों का प्रकाशन कर चुकी है। मलयालम चौथी भारतीय भाषा है जिस पर पत्रिका ने विशेषांक का प्रकाशन किया है।


रविवार, 8 दिसंबर 2019

प्रो.संजय द्विवेदी मूल्यानुगत मीडिया अभिक्रम समिति के अध्यक्ष बने


इंदौर में हुई महापरिषद की बैठक में चुने गए पदाधिकारी

इंदौर, 8 दिसंबर, 2019। मूल्यानुगत मीडिया अभिक्रम समिति(Society of Media Initiative for Values) की महापरिषद का चुनाव कार्यक्रम इंदौर के ओम शांति भवन में संपन्न हुआ। चुनाव में समिति के संयोजक, संचालन परिषद एवं कोर कमेटी के सदस्य शामिल हुए। महापरिषद चुनाव में सर्वसम्मति से संचालन परिषद का अध्यक्ष वरिष्ठ पत्रकार एवं शिक्षाविद् प्रो. संजय द्विवेदी को चुना गया।
    इसके साथ ही रंजीता ठाकुर (भोपाल) को संचालन परिषद का सचिव, वरिष्ठ पत्रकार राजेश राजोरे(संपादकः देशोन्नति, मराठी दैनिक,बुलढाना) को उपाध्यक्ष एवं प्रभाकर कोहेकर (सामाजिक कार्यकर्ता, इंदौर) को कोषाध्यक्ष चुना गया। परिषद में सर्वश्री प्रो. संजीव भानावत( जयपुर), वैभव वर्धन (टीवी पत्रकार, दिल्ली), संदीप कुलश्रेष्ठ (उज्जैन) और सुशांत बेहरा सदस्य चुने गए। इसी प्रकार कोर कमेटी के अध्यक्ष सोमनाथ वडनेरे (जलगांव) होंगें तथा सदस्यों में वरिष्ठ पत्रकार एन.के. सिंह(दिल्ली),मधुकर द्विवेदी(रायपुर),बीके शांतनु(दिल्ली), नारायण जोशी (इंदौर),गौरव चतुर्वेदी(भोपाल), प्रियंका कौशल यादव (रायपुर), संतोष गुप्ता (इंदौर), सोमनाथ महस्के, दिलीप बोरसे(नासिक) के नाम शामिल हैं। रावेंद्र सिंह(भोपाल) को मध्यप्रदेश राज्य समन्वक की जिम्मेदारी दी गई है।
      उल्लेखनीय है कि मूल्यानुगत मीडिया अभिक्रम समिति की स्थापना 13 साल पहले वरिष्ठ पत्रकार प्रो. कमल दीक्षित ने इंदौर में की थी। समिति का उद्देश्य मूल्यनिष्ठ मीडिया का विकास तथा इसका नेटवर्क बनाना है। मानवीय मूल्यों पर आधारित समाज निर्माण में मीडिया की सक्रिय भागीदारी के लिए संस्था निरंतर कार्यक्रम, प्रशिक्षण, विमर्श तथा शोध के प्रकल्प चली है। संस्था 12 वर्षों से मूल्यानुगत मीडिया नामक एक पत्रिका का प्रकाशन भी कर रही है।
   इस अवसर पर समिति के संस्थापक प्रो. कमल दीक्षित ने चुने गए पदाधिकारियों को बधाई दी। उन्होंने इस वर्ष उनके द्वारा आयोजित की गईं पचास मीडिया कार्यशालाओं के अनुभव साझा करते हुए कहा कि इन आयोजनों ने पत्रकारिता के नए सिद्धांतों को जन्म दिया है। इनसे आइकॉनिक जर्नलिज्म की समझ और भी अधिक विकसित हुई है। राजयोगिनी ब्रह्माकुमारी हेमलता दीदी ने कहा कि किसी भी विचारधारा की शुरुआत एक छोटे से विचार से होती है। मूल्यानुगत मीडिया ने पत्रकारिता में सकारात्मकता की विचारधारा को जन्म दिया है। संचालन परिषद के पूर्व अध्यक्ष संदीप कुलश्रेष्ठ ने भी अपने अनुभव साझा किए और नए अध्यक्ष और पदाधिकारियों का स्वागत किया।
   नवनिर्वाचित अध्यक्ष प्रो. संजय द्विवेदी ने  कार्यभार ग्रहण करते हुए अपने संबोधन में कहा कि मीडिया के विमर्शकार,संचालक जब यह सोचने बैठेंगे कि मीडिया किसके लिए और क्यों? तब उन्हें इसी समाज के पास आना होगा। रूचि परिष्कार, मत निर्माण की अपनी भूमिका को पुनर्परिभाषित करना होगा। क्योंकि यही मीडिया की सार्थकता है। उन्होंने कहा कि विचारों के अनुकूलून के समय में भी लोग सच को पकड़ लेते हैं।  प्रो. द्विवेदी ने कहा कि मीडिया को मूल्यों, सिद्धांतों और आदर्शों के साथ खड़ा होना होगा, यह शब्द आज की दुनिया में बोझ भले लगते हों पर किसी भी संवाद माध्यम को सार्थकता देने वाले शब्द यही हैं। सच की खोज कठिन है पर रुकी नहीं है। सच से साथ खड़े रहना कभी आसान नहीं था। हर समय अपने नायक खोज ही लेता है। इस कठिन समय में भी कुछ चमकते चेहरे हमें इसलिए दिखते हैं क्योंकि वे मूल्यों के साथ, आदर्शों की दिखाई राह पर अपने सिद्धांतों के साथ डटे हैं। समय ऐसे ही नायकों को इतिहास में दर्ज करता है और उन्हें ही मान देता है।
    कार्यक्रम में समिति के पूर्व अध्यक्ष श्री जयकृष्ण गौड़ और वरिष्ठ पत्रकार श्री शशीन्द्र जलधारी को भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए उनके योगदान का स्मरण किया गया। इस अवसर डा. चंदर सोनाने, विश्वास शर्मा दाधीच, सोहन दीक्षित, क्रांति पटले भी उपस्थित रहे।

नवनिर्वाचित  अध्यक्ष का परिचयः
प्रो.संजय द्विवेदी, देश के प्रख्यात पत्रकारसंपादकलेखकसंस्कृतिकर्मी और मीडिया प्राध्यापक हैं। दैनिक भास्करहरिभूमिनवभारतस्वदेशइंफो इंडिया डाटकाम और छत्तीसगढ़ के पहले सेटलाइट चैनल जी 24 घंटे छत्तीसगढ़ जैसे मीडिया संगठनों में महत्वपूर्ण जिम्मेदारियां संभाली। माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालयभोपाल में 10 वर्ष मास कम्युनिकेशन विभाग के अध्यक्ष और विश्वविद्यालय के रजिस्ट्रार रहे। संप्रति जनसंचार विभाग में प्रोफेसर और 'मीडिया विमर्शपत्रिका के कार्यकारी संपादक हैं। राजनीतिकसामाजिक और मीडिया के मुद्दों पर निरंतर लेखन। अब तक 26 पुस्तकों का लेखन और संपादन। अनेक संगठनों द्वारा मीडिया क्षेत्र में योगदान के लिए सम्मानित।

गुरुवार, 5 दिसंबर 2019

भारतीय सामाजिकता का नया समय


-प्रो. संजय द्विवेदी

   हमारे सामाजिक विमर्श में इन दिनों भारतीयता और उसकी पहचान को लेकर बहुत बातचीत हो रही है। वर्तमान समय भारतीय अस्मिता के जागरण का समय है। यह भारतीयता के पुर्नजागरण का भी समय है। हिंदु कहते ही उसे दूसरे पंथों के समकक्ष रख दिए जाने के खतरे के नाते, मैं हिंदु के स्थान पर भारतीय शब्दपद का उपयोग कर रहा हूं। इसका सच तब खुलकर सामने आ जाता है, जब हिंदुत्व विरोधी ताकतें ही कई अर्थों में भारतीयता विरोधी एजेंडा भी चलाते हुए दिखती हैं। वे हिंदुत्व को अलग-अलग नामों से लांछित करती हैं। कई बार साफ्ट हिंदुत्व तो कई बार हार्ड हिंदुत्व की बात की जाती है। किंतु डा. राधाकृष्णन की किताब द हिंदु व्यू आफ लाइफ कई अंधेरों को चीरकर हमें सच के करीब ले जाती है। इस दिशा में स्वातंत्र्य वीर सावरकर की हिंदुत्व भी महत्त्वपूर्ण बातें बताती है। 
  हिंदुत्व शब्द को लेकर समाज के कुछ बुद्धिजीवियों में जिस तरह के नकारात्मक भाव हैं कि उसके पार जाना कठिन है। हिंदुत्व की तरह ही हमारे बौद्धिक विमर्श में एक दूसरा सबसे लांछित शब्द है- राष्ट्रवाद। इसलिए राष्ट्रवाद के बजाए राष्ट्र, राष्ट्रीयता, भारतीयता और राष्ट्रत्व जैसे शब्दों का उपयोग किया जाना चाहिए। क्योंकि राष्ट्रवाद की पश्चिमी पहचान और उसके व्याख्यायित करने के पश्चिमी पैमानों ने इस शब्द को कहीं का नहीं छोड़ा है। इसलिए नेशनलिज्म या राष्ट्रवाद शब्द छोड़कर ही हम भारतीयता के वैचारिक अधिष्ठान की सही व्याख्या कर सकते हैं।
वर्णव्यवस्था और जाति के बाद-
भारतीय समाज को लांछित करने के लिए उस पर सबसे बड़ा आरोप वर्ण व्यवस्था का है। जबकि वर्ण व्यवस्था एक वृत्ति थी, टेंपरामेंट थी। आपके स्वभाव, मन और इच्छा के अनुसार आप उसमें स्थापित होते थे। व्यावसायिक वृत्ति का व्यक्ति वहां क्षत्रिय बना रहने को मजबूर नहीं था, न ही किसी को अंतिम वर्ण में रहने की मजबूरी थी। अब ये चीजें काल बाह्य हैं। वर्ण व्यवस्था समाप्त है। जाति भी आज रूढ़ि बन गयी किंतु एक समय तक यह हमारे व्यवसाय से संबंधित थी। हमारे परिवार से हमें जातिगत संस्कार मिलते थे-जिनसे हम विशेषज्ञता प्राप्त कर जाब गारंटी भी पाते थे। इसमें सामाजिक सुरक्षा थी और इसका सपोर्ट सिस्टम भी था।  बढ़ई, लुहार, सोनार, केवट, माली ये जातियां भर नहीं है। इनमें एक व्यावसायिक हुनर और दक्षता जुड़ी थी। गांवों की अर्थव्यवस्था इनके आधार पर चली और मजबूत रही। आज यह सारा कुछ उजड़ चुका है। हुनरमंद जातियां आज रोजगार कार्यालय में रोजगार के लिए पंजीयन करा रही हैं। जाति व्यवस्था और वर्ण व्यवस्था दोनों ही अब अपने मूल स्वरूप में काल बाह्य हो चुके हैं। अप्रासंगिक हो चुके हैं। ऐसे में जाति के गुण के बजाए, जाति की पहचान खास हो गयी है। इसमें भी कुछ गलत नहीं है। हर जाति का अपना इतिहास है, गौरव है और महापुरुष हैं। ऐसे में जाति भी ठीक है, जाति की पहचान भी ठीक है, पर जातिभेद ठीक नहीं है। जाति के आधार भेदभाव यह हमारी संस्कृति नहीं। यह मानवीय भी नहीं और सभ्य समाज के लिए जातिभेद कलंक ही है।
राजनीतिक नहीं, सांस्कृतिक अवधारणा से बना राष्ट्र-
 हमारा राष्ट्र राजनीतिक नहीं, सांस्कृतिक अवधारणा से बना है। सत्य,अहिंसा, परोपकार, क्षमा जैसे गुणों के साथ यह राष्ट्र ज्ञान में रत रहा है, इसलिए यह भा-रत है। डा. रामविलास शर्मा इस भारत की पहचान कराते हैं। इसके साथ ही इस भारत को पहचानने में महात्मा गांधी, धर्मपाल,अविनाश चंद्र दास, डा.राममनोहर लोहिया,वासुदेव शरण अग्रवाल, डा. विद्यानिवास मिश्र,निर्मल वर्मा हमारी मदद कर सकते हैं। डा. रामविलास  शर्मा की पुस्तक भारतीय संस्कृति और हिंदी प्रदेश हमारा दृष्टिदोष दूर कर सकती है। आर्य शब्द के मायने ही हैं श्रेष्ठ और राष्ट्र मतलब है समाज और लोग। शायद इसीलिए इस दौर में तारिक फतेह कह पाते हैं, मैं हिंदु हूं, मेरा जन्म पाकिस्तान में हुआ है।यानी भारतीयता या भारत राष्ट्र का पर्याय हिंदुत्व और हिंदु राष्ट्र भी है। क्योंकि यह भौगोलिक संज्ञा है, कोई पांथिक संज्ञा नहीं है। इन अर्थों में हिंदु और भारतीय तथा हिंदुत्व और भारतीयता पर्याय ही हैं। हालांकि इस दौर में इसे स्वीकारना कठिन ही नहीं, असंभव भी है।
विविधता ही विशेषता-
भारतीयता भाववाचक शब्द है। यह हर उस आदमी की जमीन है जो इसे अपनी मातृभूमि और पुण्यभूमि मानता है, जो इसके इतिहास से अपना रिश्ता जोड़ता है, जो इसके सुख-दुख और आशा-निराशा को अपने साथ जोड़ता है, जो इसकी जय में खुश और पराजय में दुखी होता है। समान संवेदना और समान अनुभूति से जुड़ने वाला हर भारतवासी अपने को भारतीय कहने का हक स्वतः पा जाता है। भारत किसी के विरुद्ध नहीं है। विविधता में एकता इस देश की प्रकृति है, यही प्रकृति इसकी विशेषता भी है। भारत एक साथ नया और पुराना दोनों है। विविध सभ्यताओं के साथ संवाद, अवगाहन ,समभाव और सर्वभाव इसकी मूलवृत्ति है। समय के साथ हर समाज में कुछ विकृतियां आती हैं। भारतीय समाज भी उन विकृतियों से मुक्त नहीं है। लेकिन प्रायः ये संकट उसकी लंबी गुलामी से उपजे हैं। स्त्रियों, दलितों के साथ हमारा व्यवहार भारतीय स्वभाव और उसके दर्शन के अनुकूल नहीं है। किंतु गुलामी के कालखंड में समाज में आई विकृतियों को त्यागकर आगे बढ़ना हमारी जिम्मेदारी है और हम बढ़े भी हैं।
सुख का मूल है धर्म-
भारतीय दर्शन संपूर्ण जीव सृष्टि का विचार करने वाला दर्शन है। संपूर्ण समष्टि का ऐसा शाश्वत् चिंतन किसी भूमि में नहीं है। यहां आनंद ही हमारा मूल है। परिवार की उत्पादकीय संपत्ति ही पूंजी थी। चाणक्य खुद कहते हैं, मनुष्यानां वृत्ति अर्थं इसलिए भारतीय दर्शन योगक्षेम की बात करता है। योग का मतलब है- अप्राप्ति की प्राप्ति और क्षेम का मतलब है-प्राप्त की सुरक्षा। इसलिए चाणक्य कह पाए, ‘सुखस्य मूलं धर्मः/धर्मस्य मूलं अर्थः/अर्थस्य मूलं राज्यं।
वर्तमान चुनौतियां और समाधान-
  प्रख्यात विचारक ग्राम्सी कहते हैं, “गुलामी आर्थिक नहीं सांस्कृतिक होती है। भारतीय समाज भी लंबे समय से सांस्कृतिक गुलामी से घिरा हुआ है। जिसके कारण हमारे राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त को कहना पड़ा, हम कौन थे, क्या हो गए हैं, और क्या होंगे अभी, आओ विचारें मिलकर, यह समस्याएं सभी। किंतु दुखद यह है कि आजादी के बाद भी हमारा बौद्धिक, राजनीतिक और प्रभु वर्ग समाज में वह चेतना नहीं जागृत कर सका, जिसके आधार पर भारतीय समाज का खोया हुआ आत्मविश्वास वापस आता। क्योंकि वह अभी अंग्रेजों द्वारा कराए गए हीनताबोध से मुक्त नहीं हुआ है। भारतीय ज्ञान परंपरा को अंग्रेजों ने तुच्छ बताकर खारिज किया ताकि वे भारतीयों की चेतना को मार सकें और उन्हें गुलाम बनाए रख सकें। गुलामी की लंबी छाया इतनी गहरी है कि उसका अंधेरा आज भी हमारे बौद्धिक जगत को पश्चिमी विचारों की गुलामी के लिए मजबूर करता है। भारत को समझने की आंखें और दिल दोनों हमारे पास नहीं थे। स्वामी दयानंद, महर्षि अरविंद, स्वामी विवेकानंद, महात्मा गांधी, बाबा साहब आंबेडकर द्वारा दी गयी दृष्टि से भारत को समझने के बजाए हम विदेशी विचारकों द्वारा आरोपित दृष्टियों से भारत को देख रहे थे। भारत को नवसाम्यवादी विचारकों द्वारा आरोपित किए जा रहे मुद्दों को समझना जरूरी है। माओवाद, खालिस्तान,रोहिंग्या को संरक्षण देने की मांग, जनजातियों और विविध जातियों की कृत्रिम अस्मिता के नित नए संघर्ष खड़े करने में लगे ये लोग भारत को कमजोर करने का कोई मौका नहीं छोड़ना चाहते। इसमें उनका सहयोग अनेक उदार वाममार्गी बौद्धिक और दिशाहीन बौद्धिक भी कर रहे हैं। आर्थिक तौर पर मजबूत ये ताकतें एक भारत-श्रेष्ठ भारत के विचार के सामने चुनौती की तरह हैं। हमारे समाज की कमजोरियों को लक्ष्य कर अपने हित साधने में लगी ये ताकतें भारत में तरह-तरह की बैचेनियों का कारक और कारण भी हैं।
    भारत के सामने अपनी एकता को बचाने का एक ही मंत्र है,सबसे पहले भारत। इसके साथ ही हमें अपने समाज में जोड़ने के सूत्र खोजने होगें। भारत विरोधी ताकतें तोड़ने के सूत्र खोज रही हैं, हमें जोड़ने के सूत्र खोजने होगें। किन कारणों से हमें साथ रहना है, वे क्या ऐतिहासिक और सामाजिक कारण हैं जिनके कारण भारत का होना जरूरी है। इन सवालों पर सोचना जरूरी है। अगर वे हमारे समाज को तोड़ने, विखंडित करने और जाति, पंथ के नाम पर लड़ाने के लिए सचेतन कोशिशें चला सकते हैं, तो हमें भी इस साजिश को समझकर सामने आना होगा। भारत का भला और बुरा भारत के लोग ही करेगें। इसका भला वे लोग ही करेंगें जिनकी मातृभूमि और पुण्यभूमि भारत है। वैचारिक गुलामी से मुक्त होकर, नई आंखों से दुनिया को देखना। अपने संकटों के हल तलाशना और विश्व मानवता को सुख के सूत्र देना हमारी जिम्मेदारी है । स्वामी विवेकानंद हमें इस कठिन दायित्वबोध की याद दिलाते हैं। वे हमें बताते हैं कि हमारा दायित्व क्या है। विश्व के लिए, मानवता के लिए, सुख और शांति के लिए भारत और उसके दर्शन की विशेषताएं हमें सामने रखनी होगीं। कोई भी समाज श्रेष्ठतम का ही चयन करता है। विश्व भी श्रेष्ठतम का ही चयन करेगा। हमारे पास एक ऐसी वैश्विक पूंजी है जो समावेशी है,सुख और आनंद का सृजन करने वाली है। अपने को पहचानकर भारत अगर इस ओर आगे आ रहा है तो उसे आने दीजिए। भारत का भारत से परिचय हो जाने दीजिए।
( लेखक मीडिया विमर्श पत्रिका के कार्यकारी संपादक और वरिष्ठ पत्रकार हैं)

गुरुवार, 7 नवंबर 2019

समाचार पत्रों के सामने है पठनीयता का गंभीर संकट


डिजिटल माध्यमों से मिल रही हैं प्रिंट मीडिया को गंभीर चुनौतियां
-प्रो. संजय द्विवेदी

 

    दुनिया के तमाम प्रगतिशील देशों से सूचनाएं मिल रही हैं कि प्रिंट मीडिया पर संकट के बादल हैं। यहां तक कहा जा रहा है कि बहुत जल्द अखबार लुप्त हो जाएंगे। वर्ष 2008 में आई जे. गोमेज की किताब प्रिंट इज डेड इसी अवधारणा पर बल देती है। इस किताब के बारे में लाइब्रेरी रिव्यू में एंटोनी चिथम ने लिखा,यह किताब उन सब लोगों के लिए वेकअप काल की तरह है, जो प्रिंट मीडिया में हैं किंतु उन्हें यह पता ही नहीं कि इंटरनेट के द्वारा डिजिटल दुनिया किस तरह की बन रही है। बावजूद इसके क्या खतरा इतना बड़ा है। क्या भारतीय बाजार में वही घटनाएं दोहराई जाएंगी, जो अमरीका और पश्चिमी देशों में घटित हो चुकी हैं। इन्हीं दिनों में भारत में कई अखबारों के बंद होने की सूचनाएं मिली हैं तो दूसरी ओर कई अखबारों का प्रकाशन भी प्रारंभ हुआ है। ऐसी मिली-जुली तस्वीरों के बीच में आवश्यक है कि इस विषय पर समग्रता से विचार करें।
क्या वास्तविक और स्थाई है प्रिंट का विकासः
       भारत के बाजार आज भी प्रिंट मीडिया की प्रगति की सूचनाओं से आह्लादित हैं। हर साल अखबारों के प्रसार में वृद्धि देखी जा रही है। रोज अखबारों के नए-नए संस्करण निकाले जा रहे हैं। कई बंद हो चुके अखबार फिर उन्हीं शहरों में दस्तक दे रहे हैं, जहां से उन्होंने अपनी यात्रा बंद कर दी थी। भारतीय भाषाओं के अखबारों की तूती बोली रही है, रीडरशिप सर्वेक्षण हों या प्रसार के आंकड़े सब बता रहे हैं कि भारत के बाजार में अभी अखबारों की बढ़त जारी है।
    भारत में अखबारों के विकास की कहानी 1780 से प्रारंभ होती है, जब जेम्स आगस्टस हिक्की ने पहला अखबार बंगाल गजट निकाला। कोलकाता से निकला यह अखबार हिक्की की जिद, जूनुन और सच के साथ खड़े रहने की बुनियाद पर रखा गया। इसके बाद हिंदी में पहला पत्र या अखबार 1826 में निकला, जिसका नाम था उदंत मार्तण्ड,जिसे कानपुर निवासी युगुलकिशोर शुक्ल ने कोलकाता से ही निकाला। इस तरह कोलकाता भारतीय पत्रकारिता का केंद्र बना। अंग्रेजी, बंगला और हिंदी के कई नामी प्रकाशन यहां से निकले और देश भर में पढ़े गए। तबसे लेकर आज तक भारतीय पत्रकारिता ने सिर्फ विकास का दौर ही देखा है। आजादी के बाद वह और विकसित हुई। तकनीक, छाप-छपाई, अखबारी कागज, कंटेट हर तरह की गुणवत्ता का विकास हुआ।
भूमंडलीकरण के बाद रंगीन हुए अखबारः
   हिंदी और अंग्रेजी ही नहीं अन्य भारतीय भाषाओं के अखबारों ने कमाल की प्रगति की। देश का आकार और आबादी इसमें सहायक बनी। जैसे-जैसे साक्षरता बढ़ी और समाज की आर्थिक प्रगति हुई अखबारों के प्रसार में भी बढ़त होती गयी। केरल जैसे राज्य में मलयाला मनोरमा और मातृभूमि जैसे अखबारों की विस्मयकारी प्रसार उपलब्धियों को इसी संदर्भ में देखा जाना चाहिए। इसे ठीक से जानने के लिए राबिन जैफ्री के अध्ययन को देखा जाना चाहिए। इसी दौर में सभी भारतीय भाषाओं के  अखबारों ने अभूतपूर्व विस्तार और विकास किया। उनके जिलों स्तरों से संस्करण प्रारंभ हुए और 1980 के बाद लगभग हर बड़े अखबार ने बहुसंस्करणीय होने पर जोर दिया। 1991 के बाद भूमंडलीकरण, मुक्त बाजार की नीतियों को स्वीकारने के बाद यह विकास दर और तेज हुई। पूंजी, तकनीक, तीव्रता, पहुंच ने सारा कुछ बदल दिया। तीन दशक सही मायने में मीडिया क्रांति का समय रहे। इसमें माध्यम प्रतिस्पर्धी होकर एक-दूसरे को को शक्ति दे रहे थे। टीवी चैनलों की बाढ़ आ गई। वेब-माध्यमों का तेजी से विकास हुआ। अखबारों के मुद्रण के लिए विदेशी मशीनें भारतीय जमीन पर उतर रही थीं। विदेशी कागजों पर अखबार छापे जाने लगे थे।
    यह वही दौर था जब काले-सफेद अखबार अचानक से रंगीन हो उठे। नवें दशक में ही भारतीय अखबारों के उद्योगपति विदेश कंपनियों से करार कर रहे थे। विदेशी पूंजी के आगमन से अखबार अचानक खुश-खुश से दिखने लगे। उदारीकरण, साक्षरता, आर्थिक प्रगति ने मिलकर भारतीय अखबारों को शक्ति दी। भारत में छपे हुए शब्दों का मान बहुत है। अखबार हमारे यहां स्टेट्स सिंबल की तरह हैं। टूटती सामाजिकता, मांगकर पढ़ने में आती हिचक और एकल परिवारों से अखबारों का प्रसार भी बढ़ा। इस दौर में तमाम उपभोक्ता वस्तुएं भारतीय बाजार में उतर चुकी थीं जिन्हें मीडिया के कंधे पर लदकर ही हर घर में पहुंचना था, देश के अखबार इसके लिए सबसे उपयुक्त मीडिया थे। क्योंकि उनपर लोगों का भरोसा था और है।
डिजिटल मीडिया की चुनौतीः
   डिजिटल मीडिया के आगमन और सोशल मीडिया के प्रभाव ने प्रिंट माध्यमों को चुनौती दी है, वह महसूस की जाने लगी है। उसके उदाहरण अब देश में भी दिखने लगे हैं। अखबारों के बंद होने के दौर में जी समूह के अंग्रेजी अखबार अंग्रेजी अखबार डेली न्‍यूज एंड एनॉलिसि‍स’ (डीएनए) ने अपना मुद्रित संस्करण बंद कर दिया है। आगरा से छपने वाले अखबार डीएलए अखबार ने अपना प्रकाशन बंद कर दिया तो वहीं मुंबई से छपने वाला शाम का टेबलाइड अखबार द आफ्टरनून डिस्पैच भी बंद  हो गया, 29 दिसंबर,2018 को अखबार का आखिरी अंक निकला। जी समूह का अखबार डीएन का अब सिर्फ आनलाइन संस्करण ही रह जाएगा। नोटिस के अनुसार,अगले आदेश तक मुंबई और अहमदाबाद में इस अखबार का प्रिंट एडिशन 10 अक्टूबर,2019 से बंद कर दिया गया। वर्ष 2005 में शुरु हुए डीएनए अखबार ने इस साल के आरंभ में अपना दिल्ली संस्करण बंद कर दिया था, जबकि पुणे और बेंगलुरु संस्करण वर्ष 2014 में बंद कर दिए गए थे।
      आगरा के अखबार डीएलए का प्रकाशन एक अक्टूबर, 2019 से स्थगित कर दिया गया है। उल्लेखनीय है कि एक वक्त आगरा समेत उत्तर प्रदेश के कई शहरों से प्रकाशित होने वाले इस दैनिक अखबार का यूं बंद होना वाकई प्रिंट मीडिया इंडस्ट्री के लिए चौंकाने वाली घटना है। मूल तौर पर अमर उजाला अखबार के मालिकानों में शामिल रहे अजय अग्रवाल ने डीएलए की स्थापना अमर उजाला के संस्थापक स्व.डोरी लाल अग्रवाल के नाम पर की थी। अखबार ने शुरुआती दौर में अच्छा प्रदर्शन भी किया। पर उत्तर प्रदेश के कई शहरों में अखबार के विस्तार के बाद ये गति थम गई। धीरे-धीरे अखबार एक बार फिर आगरा में ही सिमट कर रह गया। अखबार ने मिड डे टैब्लॉइड से शुरु किया अपना प्रकाशन एक समय बाद ब्रॉडशीट में बदल दिया था। साथ ही मीडिया समूह ने अंग्रेजी अखबार भी लॉन्च किया था। सब कवायदें अंतत: निष्फल ही साबित हो रही थी। ऐसे में लगातार आर्थिक तौर पर हो रहे नुकसान के बीच प्रबंधन ने फिलहाल इसे बंद करने का निर्णय किया है।
     इसी तरह तमिल मीडिया ग्रुप विहडन अपनी चार पत्रिकाओं की प्रिंटिंग बंद कर दिया है। अब इन्हें सिर्फ ऑनलाइन पढ़ा जा सकेगा। जिन पत्रिकाओं की प्रिंटिंग बंद होने जा रही है उनमें छुट्टी विहडन, डाक्टर विहडन’, ‘विहडन थडमऔर अवल मणमगल शामिल हैं। गौरतलब है कि 1926 में स्थापित यह मीडिया ग्रुप तमिलनाडु का जाना-माना पत्रिका समूह है। इस ग्रुप के तहत 15 पत्रिकाएं निकाली जाती हैं। इस ग्रुप ने 1997 में अपने प्रिंट संस्करणों को ऑनलाइन रुप से पाठकों को उपलब्ध कराना शुरु कर दिया था। वर्ष 2005 में इसने ऑनलाइन सबस्क्रिप्शन मॉडल को फॉलो करना शुरु कर दिया।
कारणों पर बात करना जरूरीः
     किन कारणों से ये अखबार बंद रहे हैं। इसके लिए हमें जी समूह के अखबार डीएन के बंद करते समय जारी नोटिस में प्रयुक्त शब्दों और तर्कों पर ध्यान देना चाहिए। इसमें कहा गया है कि-हम नए और चैलेजिंग फेस में प्रवेश कर रहे हैं। डीएनए अब डिजिटल हो रहा है। पिछले कुछ महीनों के दौरान डिजिटल स्पेस में डीएनए काफी आगे बढ़ गया है। वर्तमान ट्रेंड को देखें तो पता चलता है कि हमारे रीडर्स खासकर युवा वर्ग हमें प्रिंट की बजाय डिजिटल पर पढ़ना ज्यादा पसंद करता है। न्यूज पोर्टल के अलावा जल्द ही डीएनए मोबाइल ऐप भी लॉन्च किया जाएगा, जिसमें वीडियो बेस्ट ऑरिजिनल कंटेंट पर ज्यादा फोकस रहेगा।कृपया ध्यान दें, सिर्फ मीडियम बदल रहा है, हम नहीं, अब अखबार के रूप में आपके घर नहीं आएंगे, बल्कि मोबाइल के रूप में हर जगह आपके साथ रहेंगे। यह अकेला वक्तव्य पूरे परिदृश्य को समझने में मदद करता है। दूसरी ओर डीएलए –आगरा के मालिक जिन्हें अमर उजाला जैसे अखबार को एक बड़े अखबार में बदलने में मदद की आज अपने अखबार को बंद करते हुए जो कह रहे हैं, उसे भी सुना जाना चाहिए। अपने अखबार के आखिरी दिन उन्होंने लिखा, परिर्वतन प्रकृति का नियम है और विकासक्रम की यात्रा का भी।...सूचना विस्फोट के आज के डिजिटल युग में कागज पर मुद्रित(प्रिंटेड)शब्द ही काफी नही। अब समय की जरूरत  है सूचना-समाचार पलक झपकते ही लोगों तक पहुंचे।... इसी उद्देश्य से डीएलए प्रिंट एडीशन का प्रकाशन एक अक्टूबर, 2019 से स्थगित किया जा रहा है।
  इस संदर्भ में वरिष्ठ पत्रकार और कई अखबारों के संपादक रहे श्री आलोक मेहता का आशावाद भी देखा जाना चाहिए। हिंदी अखबार प्रभात खबर की 35वीं वर्षगांठ के उपलक्ष्य में रांची के रेडिशन ब्लू होटल में आयोजित मीडिया कॉन्क्लेव आयोजन  में उन्होंने कहा, बेहतर अखबार के लिए कंटेंट का मजबूत होना जरूरी है। ऐसा नहीं है कि टेक्नोलॉजी बदलने अथवा टीवी और सोशल मीडिया के आने से अखबारों का भविष्य खतरे में है। ऐसा होता, तो जापान में अखबार नहीं छपते, क्योंकि वहां की तकनीक भी हमसे बहुत आगे है और मोबाइल भी वहां बहुत ज्यादा हैं। अखबारों को उस कंटेंट पर काम करना चाहिए, जो वेबसाइट या टीवी चैनल पर उपलब्ध नहीं हैं। प्रिंट मीडिया का भविष्य हमेशा रहा है और आगे भी रहेगा।
     उपरोक्त विश्वेषण से लगता है कि आने वाला समय प्रिंट माध्यमों के लिए और कठिन होता जाएगा। ई-मीडिया, सोशल मीडिया और स्मार्ट मोबाइल पर आ रहे कटेंट की बहुलता के बीच लोगों के पास पढ़ने का अवकाश कम होता जाएगा। खबरें और ज्ञान की भूख समाज समाज में है और बनी रहेगी, किंतु माध्यम का बदलना कोई बड़ी बात नहीं है। संभव है कि मीडिया के इस्तेमाल की बदलती तकनीक के बीच प्रिंट माध्यमों के सामने यह खतरा और बढ़े। यहां यह भी संभव है कि जिस तरह मीडिया कंनवरर्जेंस का इस्तेमाल हो रहा है उससे हमारे समाचार माध्यम प्रिंट में भले ही उतार पर रहें पर अपनी ब्रांड वैल्यू, प्रामाणिकता और विश्वसनीयता के कारण ई-माध्यमों, मोबाइल न्यूज एप, वेब मीडिया और सोशल मीडिया पर सरताज बने रहें। तेजी से बदलते इस समय में कोई सीधी टिप्पणी करना बहुत जल्दबाजी होगी, किंतु खतरे के संकेत मिलने शुरु हो गए हैं, इसमें दो राय नहीं है।

संदर्भः
1.    Gomez J.: Print Is Dead- Books in our Digital Age (2008), Palgrave Macmillan US
2.    Jeffrey Robin; India's Newspaper Revolution: Capitalism, Politics and the Indian-Language Press, 1977-1999 
6.    द्विवेदी संजय, खबर खबरवालों की, आंचलिक पत्रकार(अक्टूबर,2019), भोपाल,पृष्ठ -36
7.    समागम, भोपाल, अक्टूबर,2019, पृष्ठ-97

(लेखक माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल के जनसंचार विभाग में प्रोफेसर हैं।)

संपर्कः प्रो. संजय द्विवेदी,
जनसंचार विभाग, माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय,
बी-38, विकास भवन, प्रेस कांप्लेक्स, महाराणा प्रताप नगर, भोपाल-462011 (मप्र)
मोबाइलः 9893598888, ई-मेलः 123dwivedi@gmail.com