गुरुवार, 27 अक्तूबर 2016

यादवी युद्ध में उत्तर प्रदेश

कुनबे की कलह में वास्तविक नेता बनकर उभरे हैं अखिलेश यादव
-संजय द्विवेदी

  उत्तर प्रदेश के यादवी युद्ध में आखिर सबसे ज्यादा फायदे में कौन है? मुख्यमंत्री अखिलेश यादव, नेताजी, अमर सिंह, रामगोपाल या शिवपाल यादव? निश्चित ही इस प्रश्न का तुरंत उत्तर देना संभव नहीं है। किंतु जैसी गोटियां बिछाई गयी हैं, उसमें अखिलेश एक नायक की तरह उभरे हैं। उनकी सरकार की चार साल की नाकामियां अचानक परिदृश्य से गायब हैं और चारों तरफ चाचा से टकराते अखिलेश की चर्चा है। अखिलेश के पास इस वक्त खोने के लिए कुछ नहीं है। वे बहुत उंचाई पर हैं और राजनीति में हार-जीत तो लगी रहती है। अगर परिवार साथ भी था तो कौन सी गारंटी थी कि समाजवादी पार्टी को पूर्ण बहुमत मिलेगा। अगर परिवार टकरा रहा है तो भी सरकार सपा के नेतृत्व में नहीं बनेगी, इसे भरोसे से कौन कह सकता है।
    मुलायम सिंह यादव उप्र के एकमात्र ऐसे नेता हैं, जिन्हें उत्तर प्रदेश का मन, मिजाज और तेवर पता हैं। वे हर विधानसभा क्षेत्र के चरित्र और उसके स्वभाव को जानते हैं। कल्याण सिंह भी लगभग ऐसी ही जानकारियों से लैस राजनेता हैं, किंतु वे राजस्थान के राजभवन में बिठा दिए गए हैं। ऐसे में मुलायम सिंह इस घटनाचक्र के अगर प्रायोजक न भी हों तो भी उनकी इच्छा के विरूद्ध यह हो रहा है, कहना कठिन है। मुलायम सिंह यादव ने जिस तरह अपने बेचारेकहे जा रहे बेटे को यह कहकर ताकत दी है कि शिवपाल को मंत्री बनाने का मामला अखिलेश पर छोड़ता हूं उसके बहुत बड़े संदेश हैं। मुलायम सिंह यादव यूं ही नेताजी नहीं हैं, उनमें उप्र की राजनीति की गहरी समझ और स्थितियों को अपने पक्ष में कर लेने की अभूतपूर्व क्षमता है। उनका प्रधानमंत्री बनने का सपना भले ही पूरा न हो पाया हो किंतु वे अपने पुत्र को उत्तर प्रदेश की राजनीति का सबसे नामवर चेहरा बनाने में कामयाब रहे हैं। आज समाजवादी पार्टी में मुलायम सिंह यादव और अखिलेश यादव के सिवा क्या बचा है? जो मुलायम के आसपास के नेता हैं, वे सब अपनी चमक खो चुके हैं, या सबकी हालत खराब है। दिल्ली में राज्यसभा के नेता रहे प्रो. रामगोपाल यादव पार्टी से बाहर हैं, बड़बोले अमर सिंह की बोलती बंद है, शिवपाल यादव मंत्रिमंडल से बाहर हैं, आजम खान की चमक भी कम हुयी है, ले-देकर सारा उत्तर प्रदेश अखिलेश यादव की चर्चाओं में व्यस्त है।
   इस पूरे एपीसोड ने अखिलेश यादव की सारी कमजोरियों, नाकामियों और अकुशल प्रबंधन को भुला दिया है। जनता आज अखिलेश को सहानुभूति से देख रही है और मानती है कि अखिलेश को फ्री हैंड दिया जाए तो वह बहुत कुछ कर सकते हैं। यहीं सवाल उठता है कि अखिलेश आखिर इतने दिनों तक आखिर सब कुछ क्यों सहते रहे? क्यों वे पिता द्वारा बार-बार अपमान किए जाने के बाद भी चुप रहे? क्यों वे चाचाओं की चाही-अनचाही इच्छाओं के आगे झुकते रहे? इस तरह अचानक उनके बागी तेवर स्वाभाविक हैं या किसी पूर्व लिखित स्क्रिप्ट के तहत वे ऐसे अंदाज दिखा रहे हैं, जिस पर भरोसा करना कठिन है।
    ठीक चुनाव के पहले वे पिता का घर छोड़कर क्या अपने वयस्क और समझदार होने की सूचना दे रहे हैं? परिवार में कलह किसके नहीं होती, किंतु कलह का अचानक इस तरह चुनाव के ठीक पहले सतह पर आना बहुत कुछ कहता है। बावजूद इसके समाजवादी पार्टी चुनाव जीते या हारे, अखिलेश अपने तेवरों से दल के सबसे बड़े नेता हो गए हैं। मुलायम सिंह से भी बड़े। जनता के बीच उनकी छवि सुधरी है और उन्हें एक किस्म की सहानुभूति भी मिल रही है, जिसके भले ही वे पात्र नहीं हैं। दूसरी सबसे बड़ी बात समाजवादी पार्टी के सभी नेताओं मुलायम, रामगोपाल, शिवपाल, अमर सिंह, आजम खां से अलग अखिलेश के पास अभी लंबी आयु है। लंबी पारी खेलने के लिए समय है। जबकि शेष नेताओं को लंबी आयु के नाते अखिलेश जैसी समय की सुविधा हासिल नहीं है। अखिलेश उत्तर प्रदेश विधानसभा के आसन्न चुनावों में हारें या जीतें, उन्होंने इस युद्ध के बहाने अपना कद बड़ा कर लिया है। अमर सिंह जैसे नेताओं के उपकारों को लेकर मुलायम सिंह यादव भले भावुक होते दिखें, किंतु जनता में अमर सिंह को भला-बुरा कहकर अखिलेश ने अपनी ताकत भी दिखाई है और लोकप्रियता भी बढ़ाई है। यह साधारण नहीं है कि अमर सिंह ने इस पूरे प्रसंग में खामोशी ओढ़ रखी है। वे जानते हैं कि इस वक्त बोलने से उनके लिए चीजें और मुश्किल हो जाएंगीं। यह भी गजब है कि जो लोग पार्टी से निरंतर निकाले जा रहे हैं, वे मुख्यमंत्री के दरबार में भी डटे हैं और मंत्री भी बने हुए हैं। सपा के दो समानांतर सत्ता केंद्र बन चुके हैं। 

  इस पूरी कवायद के बीच यह चर्चा भी आम है कि उत्तर प्रदेश में सपा एक सेकुलर मोर्चा बनाकर मैदान में उतरना चाहती है, जिसमें वह कांग्रेस को भी अपने साथ लेना चाहती है। बिहार के सफल प्रयोग और उत्तर प्रदेश की बदहाली में कांग्रेस और सपा दोनों के लिए यह एक अच्छा अवसर हो सकता है। मुलायम सिंह यादव समय को दूर से पढ़ लेने वाले नेता हैं, इसलिए वे इस समझौते के लिए पहल करते हुए दिखते हैं। कांग्रेस के विधायक जिस तरह लगातार पार्टी छोड़ रहे हैं, उसमें उसके पास विकल्प सीमित हैं। राहुल गांधी भी अखिलेश यादव के प्रति अच्छे भाव रखते हैं, ऐसे में मुलायम एक बार फिर उप्र में सपा की सत्ता के लिए सपने बांध रहे हैं। इस यादवी युद्ध से परिवार को निकाल मुलायम सिंह कैसे अपने पुत्र को राजसत्ता तक पुनः पहुंचाते हैं, इसे देखना रोचक होगा। कुनबे की कलह से समाजवादी पार्टी को कुछ हासिल हो या न हो किंतु नेताजी के बाद एक नेता जरूर हासिल हुआ है जिसका नाम अखिलेश यादव है।

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