शुक्रवार, 28 अगस्त 2015

बिहार चुनावः अग्निपरीक्षा किसकी?

-संजय द्विवेदी
    बिहार का चुनाव वैसे तो एक प्रदेश का चुनाव है, किंतु इसके परिणाम पूरे देश को प्रभावित करेंगें और विपक्षी एकता के महाप्रयोग को स्थापित या विस्थापित भी कर देगें। बिहार चुनाव की तिथियां आने के पहले ही जैसे हालात बिहार में बने हैं, उससे वह चर्चा के केंद्र में आ चुका है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी वहां तीन रैलियां कर चुके हैं। एक खास पैकेज भी बिहार को दे चुके हैं। वहीं दूसरी ओर यह चुनाव नीतिश कुमार और लालू प्रसाद यादव के लिए भी जीवन-मरण का प्रश्न है। मोदी तो केंद्र में हैं और प्रधानमंत्री रहेंगें किंतु अगर लालू-नीतिश की सेना हारती है तो उनके लिए केंद्र में तो जगह है नहीं, राजनीतिक जमीन भी जाएगी।
कसौटी पर है टीम मोदी का राजनीतिक कौशलः
   बदले राजनीतिक परिदृश्य में कभी नीतिश कुमार की सहयोगी रही भारतीय जनता पार्टी अब दुश्मन नंबर वन है। मोदी के भाजपा की राष्ट्रीय राजनीति के केंद्र में आते ही नीतीश कुमार और जनता दल यू के साथ रिश्ते बिगड़ गए थे। इन अर्थों में मोदी और नीतिश कुमार पुराने राजनीतिक प्रतिद्वंदी हैं, जो लोकसभा चुनाव के बाद फिर विधानसभा चुनाव में भी एक-दूसरे के सामने है। राज्य में किसी को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार धोषित न करके भाजपा ने मोदी के नेतृत्व और चेहरे को ही आजमाने का फैसला किया है। यह फैसला भी कम साहसिक नहीं है। भाजपा के अध्यक्ष अमित शाह वैसे भी अपने राजनीतिक दुस्साहस के लिए ख्यात हैं। दिल्ली राज्य के प्रयोग में असफलता के बावजूद उनका आत्मविश्वास चरम पर है। बिहार चुनाव दरअसल मोदी के साथ शाह के संगठन कौशल की भी परीक्षा है। संभावित चुनाव के चलते ही मोदी ने अपने मंत्रिमंडल में भाजपा के पांच और सहयोगी दलों के 2 मंत्रियों को जगह दी थी। यह संयोग मात्र नहीं है कि भाजपा के रविशंकर प्रसाद, राजीव प्रताप रूढ़ी, राधामोहन सिंह, गिरिराज सिंह, रामकृपाल यादव और सहयोगी दलों के रामविलास पासवान और उपेंद्र कुशवाहा केंद्र में मंत्री हैं। बावजूद इसके अनंत कुमार और धर्मेंद्र प्रधान जैसे दो अन्य मंत्री भी बिहार के मैदान में उतारे गए हैं। इसके साथ ही राष्ट्रीय महासचिव भूपेंद्र यादव और गुजरात के सांसद सीआर पाटिल भी बिहार में सक्रिय हैं। शाहनवाज हुसैन को भागलपुर रैली का प्रभारी बनाया गया तो जदयू में रहे साबिर अली को ऐन चुनाव के पहले पार्टी ने प्रवेश दिया। जबकि पहले उठे विवाद में उन्हें पार्टी में शामिल कर तुरंत हटा दिया गया था। वहीं पूर्व मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी को राजग में लाकर भाजपा अध्यक्ष ने एक बड़ा दांव चला है। इसके साथ ही सवाल यह भी है कि क्या भाजपा अपने संगठनात्मक आधार पर ही यह चुनाव लड़ेगी या संघ परिवार के स्वयंसेवक भी उसके साथ मैदान में उतरेगें। दिल्ली में हुयी कड़वाहटों के बाद अगर समन्वय बन सका तो संघ एक बड़ी ताकत भाजपा को दे सकता है। लोकसभा चुनाव में जिस प्रतिबद्धता से संघ के स्वयंसेवक मैदान में उतरे, क्या वह तेजी संघ दिखाएगा यह आज भी एक बड़ा सवाल है।
शाह चूके तो उठ खड़े कई होंगें शांता कुमारः
  नरेंद्र मोदी और अमित शाह की कार्यशैली से परंपरागत नेतृत्व तो आहत है ही तमाम लोग गुस्से से भरे हैं। दिल्ली चुनाव के बाद अगर बिहार चुनाव में भी पराजय मिलती है तो शाह के लिए कदम-कदम पर शांता कुमार जैसे लोग दिखेंगें। बिहार में शत्रुध्न सिन्हा और कीर्ति आजाद तो अपनी असहमतियां जताते ही रहते हैं। बिहार चुनाव के नकारात्मक परिणाम अमित शाह के लिए भारी पड़ सकते हैं। जबकि अगर भाजपा बिहार जीत जाती है तो अमित शाह का डंका एक बार फिर बज सकता है और उनके विरोधी हाशिए लग सकते हैं। भाजपा ने रामविलास पासवान, उपेंद्र कुशवाहा और जीतनराम मांझी की पार्टियों से तालमेल कर दलितों-पिछड़ों की गोलबंदी बनाने की कोशिश भी की है, जिसमें वह अपने वोट आधार को मिलाकर एक बड़ी ताकत बनना चाहती है। बिहार के लोकसभा चुनावों के परिणामों से वह आत्मविश्वास से भरी भी है, किंतु यह मानने में संकोच नहीं करना चाहिए कि यह राज्य का चुनाव है और इसके मुद्दे बहुत अलग हैं। इस मायने में बिहार का चुनाव देश की राजनीतिक दिशा तय करने वाला चुनाव भी है।
दांव पर है सामाजिक न्याय की शक्तियों का भविष्यः

 बिहार अरसे से सामाजिक न्याय की शक्तियों की लीलाभूमि रहा है लालूप्रसाद यादव और नीतिश कुमार इसके प्रमुख चेहरे बने। किंतु टूट-फूट और बिखराव ने इस सामाजिक शक्ति को कई खेमों में बांट दिया है। भाजपा ने भी अपने सामाजिक आधार का विस्तार करते हुए, हर समाज में नेता खड़े कर दिए हैं। आज भाजपा के पास राज्य में भी सुशील कुमार मोदी और नंदकिशोर यादव जैसे पिछड़े वर्ग से आने वाले चेहरे हैं, तो गठबंधनों के माध्यम से उसने अपना सामाजिक आधार मजबूत ही किया है। इस अर्थ में लालू और नीतिश कुमार के लिए यह चुनाव अस्तित्व की परीक्षा भी हैं। शायद इस गंभीर खतरे को भांपकर ही दोनों साथ आए हैं। अब वे केजरीवाल को साथ लाकर अपने सामाजिक आधार को व्यापक करने की कवायद में हैं। यह देखना भी गजब है कि लालू यादव के साथ नीतिश कुमार व केजरीवाल वोट मांगने निकले हैं। राजनीति इसीलिए संभावनाओं का नाम है और यहां ऐसे प्रयोगों की सफलता काफी मायने रखती है। बिहार का चुनाव इस अर्थ में खास है कि अगर यह प्रयोग सफल हुआ तो भाजपा के खिलाफ अन्य राज्यों में विपक्षी पार्टियां इसी तरह गोलबंद होंगीं। दिल्ली वाया बिहार नरेंद्र मोदी के खिलाफ विपक्षी दलों की यह एकजुटता एक अलग लहर पैदा कर सकती है, जिसके परिणाम उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में एक अलग दृश्य खड़ा कर सकते हैं। कुल मिलाकर बिहार में जो भी होगा वह मोदी-शाह और नीतिश-लालू के लिए एक बड़ा सबक होगा। बिहार की जमीन से निकला संदेश भारतीय राजनीति के वर्तमान चित्र को एक नई दिशा देने वाला साबित हो सकता है। हां गजब यह कि कांग्रेस इस राज्य में अरसे अप्रासंगिक है, आने वाले चुनाव में उसका कोई बड़ा रोल नहीं है। नीतिश को भी सोनिया-राहुल के बजाए अरविंद केजरीवाल ज्यादा उपयोगी दिख रहे हैं। एक राष्ट्रीय दल की इस बेबसी पर दया आती है। किंतु इतना तय है कि बिहार में यदि नीतिश कुमार जीतते हैं तो कांग्रेस उसे अपनी जीत मानकर खुश हो  लेगी। खासकर उप्र और बिहार जैसे राज्यों में कांग्रेस के पराभव की यह कहानी जारी रहनी है किंतु मोदी का अश्वमेघ यदि बिहार ने रोक लिया तो भाजपा में भी भारी उथल-पुथल की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता।

सोमवार, 24 अगस्त 2015

आओ, हिंदी की भी सोच लें भाई

भारतीय भाषाओं की एकजुटता से ही देश की भाषा में बोलेगा भारत
-संजय द्विवेदी


   सितंबर का महीना आ रहा है। हिंदी की धूम मचेगी। सब अचानक हिंदी की सोचने लगेंगें। सरकारी विभागों में हिंदी पखवाड़े और हिंदी सप्ताह की चर्चा रहेगी। सब हिंदीमय और हिंदीपन से भरा हुआ। इतना हिंदी प्रेम देखकर आंखें भर आएंगी। वाह हिंदी और हम हिंदी वाले। लेकिन सितंबर बीतेगा और फिर वही चाल जहां हिंदी के बैनर हटेंगें और अंग्रेजी का फिर बोलबाला होगा। इस बीच भोपाल में विश्व हिंदी सम्मेलन भी होना है। यहां भी दुनिया भर से हिंदी प्रेमी जुटेगें और हिंदी के उत्थान-विकास की बातें होगीं। ऐसे में यह जरूरी है कि हम हिंदी की विकास बाधा पर भी बात करें। सोचें कि आखिर हिंदी की विकास बाधाएं क्या हैं?
  एक तो यह बात मान लेनी चाहिए कि हिंदी अपने स्वाभाविक तरीके से, सहजता के नाते जितनी बढ़नी थी, बढ़ चुकी है। अब उसे जो कुछ चाहिए वह इस तरह के कर्मकांडों से नहीं होगा। अब उसे जो कुछ दे सकती है सत्ता दे सकती है, राजनीतिक इच्छाशक्ति और संकल्प दे सकते हैं। पर क्या हमारी राजनीतिक,प्रशासनिक और न्यायिक संस्थाएं हिंदी को उसका हक देने के लिए तैयार हैं? यही सवाल भारत की सभी भाषाओं के सामने है। अगर सत्ता हक देना चाहती है, तो उसे किसने रोक रखा है? क्या वे अनंतकाल तक किसी शुभ मूहूर्त की प्रतीक्षा में ही रहेंगी या वे आगे बढ़कर हिंदी को, भारतीय भाषाओं को सम्मान दिलाने का फैसला करेंगीं। हिंदी और भारतीय भाषाओं में भारतीय नागरिकों को न्याय सुलभ होना चाहिए, आखिर इस फैसले पर किसे आपत्ति हो सकती है। पर है और बहुत गहरी आपत्ति है। न्याय भी हमें एक विदेशी भाषा में मिलता है,पर हम विवश हैं। इस विवशता में जो कुछ छिपा हुआ है उसे समझने की जरूरत है।   इसी तरह हमारी उच्चशिक्षा का माध्यम भी कमोबेश एक विदेशी भाषा है। ज्यादातर भारत को इस तरह अज्ञानी रखने का षडयंत्र समझ से परे है। सत्ता आती है, जाती है किंतु हिंदी का सवाल वहीं का वहीं है। देश हिंदी में बोलता है, सोचता है, सांसें लेता है, सपने देखता है, अपने आंदोलन-संघर्ष करता है। किंतु अध्ययन-अध्यापन-रोजगार में सफलता की गारंटी तभी है जब आप अंग्रेजीदां भी हों। यहां किसी भाषा का विरोध या समर्थन का भाव नहीं है बल्कि अपनी भाषा के लिए आदर का भाव है। अगर भारतीय भाषाएं रोजी-रोजगार और शिक्षा की भाषा नहीं बन सकीं तो इसका जिम्मेदार कौन है? राष्ट्रपिता महात्मा गांधी से लेकर आजादी के आंदोलन के सभी सिपाहियों ने अगर हिंदी को आजादी के आंदोलन की भाषा माना और कहा कि यही भाषा देश को एक सूत्र में बांध सकती है तो आजादी के बाद ऐसा क्या हुआ कि हिंदी उपेक्षिता हो गयी? सही मायने में अतिलोकतंत्र और सुनियोजित साजिशों ने हिंदी को उसके स्थान से गिराया और जनभावनाओं की उपेक्षा की।
    जो देश अपनी भाषा में शिक्षा न हासिल कर सके, राज न चला सके, न्याय न कर सके, न न्याय पा सके उसके बारे में क्या कहा जा सकता है? हिंदी की वैश्विक लोकप्रियता के बावजूद, उसके व्यापक आधार के बाद भी हिंदी आज भी देश की राष्ट्रभाषा नहीं बन सकी तो इसके कारणों पर विचार करना होगा। देश की आजादी के बाद आखिर क्या हमारी सोच, एकता और सद्भावना के सूत्र बदल गए हैं? क्या आज हम ज्यादा विभाजित हैं और अपनी क्षेत्रीय अस्मिताओं को प्रति ज्यादा आस्थावान हो गए हैं? राष्ट्रीयता का भाव और उसकी भावना कम हो रही है? अगर ऐसा हुआ है तो क्या इन आजादी के सालों में हमने अपनी जड़ों से दूर जाने का काम किया है। जड़ों से दूर होता समाज क्या अपने राष्ट्रीय कर्तव्यों को पूर्ण कर पाएगा? भाषा के सवाल पर आज जिस तरह हम बंटे हैं और निरंतर बांटे जा रहे हैं उससे लगता है कि अंग्रेजी लंबे समय तक राजरानी बनी बैठी रहेगी। हालात यह हैं कि आज अंग्रेजी समर्थकों की जमात आजादी की प्रप्ति के वर्ष से ज्यादा ताकतवर है। यह कितना बड़ा अन्याय है कि देश की सबसे लोकप्रिय भाषा (हिंदी) के स्थान पर अंग्रेजी का राज प्रकारांतर से कायम है। राज्यों में भारतीय भाषा और देश में हिंदी भाषा का प्रभाव होना था किंतु आज देश से लेकर प्रदेश की राजधानियों तक कामकाज की भाषा अंग्रेजी बनी हुयी है। एक विदेशी भाषा को अपनाते हुए हमें संकोच नहीं है, किंतु हम हिंदी के खिलाफ एक खास मानसिकता से ग्रस्त हैं। हिंदी की एक लंबी विरासत, उसकी बड़ी भौगोलिक उपस्थिति के बाद भी हमें हिंदी के प्रति दुर्भाव को रोकना के सचेतन प्रयास करने होंगें।
   राष्ट्रभाषा के रूप में हिंदी को खुद को साबित करने के लिए किसी प्रमाणपत्र की जरूरत नहीं है। किंतु उसकी उपेक्षा के चलते वह इस रूप में खड़ी दिखती है। राजनीति के क्षेत्र में सभी राजनीतिक दल हिंदी में वोट मांगते हैं किंतु हिंदी के सवाल पर एकजुटता नहीं दिखाते। राज्यों में प्रांतीय भाषाएं और देश में हिंदी इस नारे के साथ हमें आगे आना होगा। सच कहें तो कोई भी राजनीतिक दल भाषा के सवाल पर ईमानदार नहीं है और बाबुओं की तो कहिए मत- इसी अकेली अंग्रेजी के दम पर उनका राज चल रहा है इसलिए वे भला क्यों चाहेंगे कि अंग्रेजी इस देश से विदा हो।
   हिंदी के सम्मान की बहाली का काम अब राजनीति और संसद का ज्यादा है, जनता इसमें बहुत कुछ नहीं कर सकती। बड़ा खतरा यह है कि जिस तरह समाज अंग्रेजी शिक्षा के साथ अनूकूलित हो रहा है और सहजता से नई पीढ़ी अंग्रेजी माध्यम स्कूलों की ओर जा रही है, के चलते देर-सबरे हिंदी और भारतीय भाषाओं के सामने एक बड़ा बौद्धिक संकट खड़ा होगा। यह सवाल भी सामने खड़ा है कि क्या हिंदी और भारतीय भाषाएं सिर्फ वोट मांगने, मनोरंजन और विज्ञापन की भाषा बनकर रह जाएंगीं? हिंदी और भारतीय भाषाओं के सामने यह चुनौती भी है कि वे खुद को उच्चशिक्षा, शोध और अनुसंधान की भाषा के रूप में खुद को स्थापित करें। राजनीतिक नेतृत्व पर दबाव बनाने के लिए जनसंगठन और सामाजिक संगठन आगे आएं, हमारी भाषाएं इस बाजार की आंधी में तभी बचेंगी। यह भी आवश्यक है कि सभी भारतीय भाषाएं, अंग्रेजी और अंग्रजियत के इस मायाजाल के खिलाफ एकजुट हों।
(लेखक माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में जनसंचार विभाग के अध्यक्ष हैं)


शनिवार, 8 अगस्त 2015

खो रही है चमकः कुछ करिए सरकार

-संजय द्विवेदी

  नरेंद्र मोदी के चाहने वाले भी अगर उनकी सरकार से निराशा जताने लगे हों तो यह उनके संभलने और विचार करने का समय है। कोई भी सरकार अपनी छवि और इकबाल से ही चलती है। चाहे जिस भी कारण से अगर आपके चाहने वालों में भी निराशा आ रही है तो आपको सावधान हो जाना चाहिए।
   नरेंद्र मोदी की सरकार पहले दिन से ही अपने विरोधियों के निशाने पर है। दिल्ली में बसनेवाला एक बड़ा वर्ग उन्हें आज भी स्वीकार नहीं करता। उनका प्रधानमंत्री बनना उनकी उम्मीदों और आशाओं पर तुषारापात जैसा ही था। नरेंद्र मोदी अपनी छवि और वकृत्वकला के चलते ही भले ही लोगों के लिए आकर्षण का केंद्र बने हुए हैं किंतु एक बड़ी बौद्धिक दुनिया के लिए वे नफरत के ही पात्र हैं। इसलिए उनके हर फैसले और वक्तव्य की नुक्ताचीनी होती है। यूपीए-3 के इंतजार में बैठे बौद्धिकों-मीडिया के एक खास तबके लिए नरेंद्र मोदी की सरकार का पूर्ण बहुमत में आना एक ऐसा झटका था, जिससे वे आज तक उबरे नहीं हैं। इसलिए विरोधियों की जमात से आलोचना के स्वरों का बहुत मतलब नहीं है किंतु अगर राहुल बजाज जैसे उनके प्रशंसक भी निराश दिखते हैं तो सवाल उठता है कि आखिर गड़बड़ कहां हो रही है? जब मोदी आए तो उनके साथ सपनों की एक लंबी फेहरिस्त थी। उन्होंने उम्मीदें जगायीं और लोगों ने उनको स्वीकार किया। यह उम्मीदें और सपने ही अब उनका पीछा कर रहे हैं। यह पीछा ऐसा कि नरेंद्र मोदी उनसे पीछा नहीं छुड़ा सकते।
    उद्योग जगत में तमाम चिंताएं व्याप्त हैं, तो लोगों को भी लगने लगा है कि बदलाव की गति बहुत धीमी है। सरकार के काम करने का तरीका और उसका तंत्र अपेक्षित संवेदनाओं से युक्त नहीं है। उनकी वही चाल है और लोगों को परेशान करने वाली शैली बदस्तूर है। भारतीय नौकरशाही का चरित्र अपने आप में बहुत अजूबा है और वह राजनीतिक तंत्र को अपने हिसाब से अनूकूलित कर लेने की कला में बहुत प्रवीण है। यही तंत्र अंततः जनविरोधी तंत्र में बदल जाता है। सामान्य तरीके संघर्ष कर संसद और फिर मंत्रालयों में पहुंचे जनप्रतिनिधि अचानक खास वर्ग के प्रतिनिधि बन जाते हैं। सत्ता और प्रशासन का तंत्र उन्हें आम आदमी से काट देता है। नौकरशाही उनकी माई-बाप बन जाती है। नरेंद्र मोदी भी बहुलतः नौकरशाही के आधारतंत्र पर भरोसा करने वाले और राजनीतिक तंत्र को दूसरे दर्जे पर रखने वाले राजनेता हैं। इससे राजनीतिक तंत्र की शक्ति तो कम होती ही है और नौकरशाही भी बेलगाम हो जाती है। मंत्रियों और नौकरशाही के बीच के तनावपूर्ण संबंध विकसित होते हैं और काम पीछे छूटता है। आज हालात यह हैं कि एनडीए सांसदों के बीच भी अपनी ही सरकार के प्रति गहरा असंतोष है। यह असंतोष संवादहीनता, काम की शिथिल गति, समस्याओं के समाधान के लिए उदासीन रवैये से पनपा है। शायद इसीलिए उद्योगपति राहुल बजाज की चेतावनी को अनसुना करने का समय नहीं हैं। केंद्र सरकार को यह मान लेना चाहिए कि राहुल बजाज, कोई शत्रुध्न सिन्हा नहीं हैं। वे एक जाने-माने उद्योगपति और सही बातें कहने वाले व्यक्ति हैं। ऐसे व्यक्ति की चेतावनी को अनसुना कर केंद्र सरकार और भाजपा अपना ही नुकसान करेगी।
   सरकार को इस बात पर गंभीरता से सोचने की जरूरत है कि 2014 में जो महानायक हमें मिला था आज उसकी चमक फीकी क्यों पड़ रही है? ऐतिहासिक विजय का शिल्पकार क्यों बड़े सवालों पर बात नहीं करता? भारत जैसे देश में जहां एक बड़ी युवा आपकी तरफ उम्मीदों से देख रही है, उसके सपनों को संबोधित करना नेतृत्व की जिम्मेदारी है। इसके साथ ही राष्ट्रीय सुरक्षा और आतंकवाद की बढ़ती गतिविधियों पर केंद्र की अपेक्षित सक्रियता का इंतजार है। विपक्ष के आरोपों से पूरी सरकार हिलती हुयी नजर आ रही है और बिना कुछ गलत किए खुद को कटघरे में पा रही है। नरेंद्र मोदी जैसे नेता के लिए इंतजार भारी पड़ सकता है, क्योंकि वे एक ऐसे प्रधानमंत्री हैं जो उम्मीदों के पहाड़ पर ही खड़ा है। नरेंद्र मोदी की सरकार की विफलता को मनमोहन की विफलता से मत जोड़िए, क्योंकि मनमोहन सिंह की सरकार एक मजबूर सरकार थी, जिससे लोगों को बहुत उम्मीदें नहीं थीं। आज मोदी की सरकार लोगों के सपनों, उम्मीदों और आकांक्षाओं की सरकार है। किंतु वह उन्हीं कठघरों में उलझ रही है जिनके चलते मनमोहन सरकार विफल हुयी।
   नौकरशाही पर ज्यादा भरोसा, राजनीतिक तंत्र की उपेक्षा, मंत्रियों का अंहकार और सांसदों की निराशा इस सरकार का सबसे बड़ा संकट है। सरकार को संभालने और संवाद के माध्यम से चीजों को दुरूस्त कर सकने वाले मार्गदर्शक भी कोप भवन में हैं। लालकृष्ण आडवानी, डा. मुरली मनोहर जोशी और यशवंत सिन्हा जैसे नेताओं का उपयोग क्राइसिस मैनेजमेंट के लिए हो सकता था। वे सरकार और कार्यकर्ताओं के बीच संवादसेतु भी बन सकते थे। किंतु एक पूरी पीढ़ी को घर बिठाकर, सरकार उनके विकल्प में समर्थ संवादकर्ता तंत्र विकसित नहीं कर पाई। एक अकेले प्रधानमंत्री और उनके सेनापति अमित शाह को अपनी क्षमताओं पर जरूरत से ज्यादा भरोसा नहीं करना चाहिए। अंततः एक विशाल परिवार की पार्टी होने के नाते भाजपा को संवाद के कई तल खोलने ही होगें। जहां लोगों के काम भले न हों पर बातें तो सुन ली जाएं। इस मामले में भाजपा की सांगठनिक विफलता और सरकारी दिशाहीनता दोनों ही उसे नुकसान पहुंचाएगी।

   जिस नौकरशाही ने आजतक किसी भी सरकार को चलने नहीं दिया और उसे उसके सपनों के साथ ही दफन कर दिया। जो नौकरशाही खुद को असली शासक मानने के अहंकार से भरी हुई हैं, वह इस देश में लोकतंत्र को वास्तविक लोकतंत्र में बदलने में सबसे बड़ी बाधक है। नरेंद्र मोदी और उनके सहयोगी इस बात को जितनी जल्दी समझ लेगें, चमक खोती सरकार की छवि को बचाने में वे उतने ही कामयाब हो पाएंगें। सरकार पांच साल रहेगी और पांच साल बाद हिसाब पूछिए ऐसा दंभ कभी भी किसी को मुक्ति नहीं देता। हर दिन का हिसाब और हर पल लोगों के लिए और इस देश के जनतंत्र के लिए, यह भावना ही भाजपा की सरकार को सार्थकता देगी। भाजपा को पूर्ण बहुमत लोगों ने जुमलों के लिए नहीं, काम करके दिखाने के लिए दिया  है। बदलाव के लिए दिया था। यह बदलाव का वादा सिर्फ चेहरे का बदलाव नहीं, बल्कि राजनीतिक संस्कृति में बदलाव का भी था। अगर लोग बहुत कम समय में यह कहने लगे हैं कि क्या बदला, सब पहले जैसा है तो सरकार के छवि प्रबंधकों के लिए सचेत होने का समय है। क्योंकि मोदी सरकार की विफलता इस देश की आकांक्षाओं और उसके सपनों की हार होगी।

बुधवार, 5 अगस्त 2015

दीनदयाल जी की याद दिलाती एक किताब




- लोकेन्द्र सिंह
    भारतीय जनता पार्टी के प्रति समाज में जो कुछ भी आदर का भाव है और अन्य राजनीतिक दलों से भाजपा जिस तरह अलग दिखती है, उसके पीछे महामानव पंडित दीनदयाल उपाध्याय की तपस्या है। दीनदयालजी के व्यक्तित्व, चिंतन, त्याग और तप का ही प्रतिफल है कि आज भारतीय जनता पार्टी देश की सबसे बड़ी पार्टी बनकर राजनीति के शीर्ष पर स्थापित हो सकी है। राज्यों की सरकारों से होते हुए केन्द्र की सत्ता में भी मजबूती के साथ भाजपा पहुंच गई है। राजनीतिक पंडित हमेशा संभावना व्यक्त करते हैं कि यदि दीनदयालजी की हत्या नहीं की गई होती तो आज भारतीय राजनीति का चरित्र कुछ और होता। दीनदयालजी श्रेष्ठ लेखक, पत्रकार, विचारक, प्रभावी वक्ता और प्रखर राष्ट्र भक्त थे। सादा जीवन और उच्च विचार के वे सच्चे प्रतीक थे। उन्होंने शुचिता की राजनीति के कई प्रतिमान स्थापित किए थे। उनकी प्रतिभा देखकर ही श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने कहा था कि यदि मेरे पास एक और दीनदयाल उपाध्याय होता तो मैं भारतीय राजनीति का चरित्र ही बदल देता।
                ऐसे राष्ट्रनायक पंडित दीनदयाल उपाध्याय की इस वर्ष जन्मशती प्रारम्भ हो रही है। उन्होंने मानव समाज की पश्चिम की सभी परिकल्पनाओं को नकारते हुए 'एकात्म मानववाद' जैसा अद्भुत और पूर्ण दर्शन दिया। यह वर्ष 'एकात्म मानवदर्शन' का स्वर्ण जयंती वर्ष भी है। पंडितजी की 100वीं जयंती 25 सितम्बर, 2015 से अगले वर्ष तक उन्हें याद किया जाने वाला है। उनकी अपनी पार्टी भाजपा तो सालभर कार्यक्रम करेगी ही अन्य सामाजिक संगठन और लेखक-विचारक भी उनके विचारदर्शन पर मनन-चिंतन-व्याख्यान करने वाले हैं।
   ऐसे महत्वपूर्ण समय में दीनदयाल उपाध्याय के समग्र जीवन को ध्यान में रखकर राजनीतिक विचारक संजय द्विवेदी द्वारा संपादित पुस्तक 'भारतीयता का संचारक, पं. दीनदयाल उपाध्याय' का आना सुखद है। पुस्तक की चर्चा भी प्रासंगिक है। दरअसल, लम्बे समय तक सत्ता रूपी गुलाब जामुन के इर्द-गिर्द पसरी चासनी चाटकर पलते-बढ़ते वामपंथियों ने प्रोपेगंडा फैलाकर भारतीय जनता पार्टी और उसकी विचारधारा को 'राजनीतिक अछूत' की श्रेणी में रखा। अकादमिक संस्थाओं और संचार के संगठनों में बैठकर उन्होंने इस तरह के षड्यंत्र को अंजाम दिया। इस षड्यंत्र को ध्वस्त करने का काम दीनदयालजी ने किया। हालांकि यह भी सच है कि संचार माध्यमों पर वामपंथियों के एकाधिकार के कारण ही दीनदयालजी और उनके विचार को जितना विस्तार मिलना चाहिए था, नहीं मिल सका। अब समय आया है कि दीनदयालजी का असल मूल्यांकन हो। श्यामा प्रसाद मुखर्जी के आग्रह पर दीनदयाल उपाध्याय राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक जीवन से राजनीति में भेजे गए थे। उन्होंने भारतीय राजनीति को एक दर्शन दिया, एक नया विचार दिया और एक नया विकल्प दिया। राष्ट्रवादी विचारधारा के मजबूत स्तम्भ दीनदयालजी ने मानव जीवन के संबंध में दुनिया में प्रचलित परिकल्पनाओं की अपेक्षा कहीं अधिक संपूर्ण दर्शन दिया। वामपंथियों के ढकोसलावादी सिद्धांतों की अपेक्षा दीनदयालजी का एकात्म मानवदर्शन व्यावहारिक था। यही कारण है कि विरोधी विचारधाराओं द्वारा तमाम अवरोध खड़े करने के बाद भी एकात्म मानवदर्शन लोक स्वीकृति पा गया। इसमें सम्पूर्ण जीवन की एक रचनात्मक दृष्टि है। इसमें भारत का अपना जीवन दर्शन है, जो व्यक्ति, समाज और राष्ट्र को टुकड़ों में नहीं, समग्रता में देखता है। दीनदयालजी अपने दर्शन में बताते हैं कि मन, बुद्धि, आत्मा और शरीर इन चारों का मनुष्य में रहना आवश्यक है। इन चारों को अलग-अलग करके विचार नहीं किया जा सकता।
                बहरहाल, जब दीनदयाल उपाध्याय के विलक्षण व्यक्तित्व एवं उनके विचारदर्शन की व्यापक चर्चा का अवसर आया है तो राजनीति, मीडिया और जनसंचार के अध्येताओं को उनके संबंध में अधिक से अधिक संदर्भ सामग्री की आवश्यकता होगी। संजय द्विवेदी द्वारा संपादित पुस्तक 'भारतीयता का संचारक' राजनीतिज्ञों, संचारवृत्तिज्ञों और लेखकों की बौद्धिक भूख को कुछ हद तक शांत करने में सफल होगी। पुस्तक को चार खण्डों में बांटकर दीनदयाल जी के समग्र व्यक्तित्व का आंकलन किया गया है। पहले खण्ड में उनके विचार दर्शन पर चर्चा है। दूसरे खण्ड में उनके संचारक, लेखकीय और पत्रकारीय व्यक्तित्व पर विमर्श है। तीसरे खण्ड 'दस्तावेज' में डॉ. सम्पूर्णानंद, श्रीगुरुजी और नानाजी देशमुख द्वारा उन पर लिखी-बोली गई सामग्री संकलित की गई है। इसी हिस्से में दीनदयाल जी के दो महत्वपूर्ण लेख भी सम्मिलित किए गए हैं, जिनमें से एक भाषा पर है तो दूसरा पत्रकारिता पर है। चौथे अध्याय में एकात्म मानववाद को प्रवर्तित करते हुए दीनदयाल जी के व्याख्यान संकलित किए गए हैं। पंडित दीनदयाल उपाध्याय की ख्याति विश्व को एकात्म मानवदर्शन का चिंतन देने और भारतीय जनता पार्टी के विचार-पुरुष के रूप में हैं। भारतीय राजनीति में उनके अवदान से फिर भी दुनिया भली-भांति परिचित है। लेकिन, पत्रकारिता एवं जनसंचार के क्षेत्र में उनके योगदान को बहुत कम विद्वान जानते हैं। श्री द्विवेदी की पुस्तक के दूसरे अध्याय से गुजरते हुए दीनदयाल जी उपाध्याय की छवि 'भारतीयता के संचारक' के नाते सदैव के लिए अंकित हो जाती है। इस हिस्से में बताया गया है कि कैसे और किन परिस्थितियों में पंडितजी ने भारतीय विचार के प्रचार-प्रसार के लिए पत्रकारिता को माध्यम बनाया। संचार के माध्यमों पर वामपंथियों के कब्जे के बीच उन्होंने राष्ट्रवादी विचार को लोगों तक पहुंचाने के लिए स्वदेश, राष्ट्रधर्म और पाञ्चजन्य की शुरूआत की। पंडितजी ने कंपोजीटर से लेकर संवाददाता तक की भूमिका निभाई थी। इस अध्याय में देखने को मिलता है कि कैसे उन्होंने पत्रकारिता के सिद्धांतों की स्थापना की थी। पुस्तक दूसरे क्षेत्रों में भी उनके चिंतन के दर्शन कराती है। निश्चित ही दीनदयाल जी के आर्थिक चिंतन के बारे में बहुत कम लोग जानते होंगे। कृषि, उद्योग, स्वास्थ्य और शिक्षा के क्षेत्र में भी उनके गहरे चिंतन की जानकारी हमें इस पुस्तक से मिलेगी। दीनदयाल जी संभवत: पहले राजनेता हैं जिनके चिंतन का केन्द्र अंतिम आदमी है। आदमी की बुनियादी जरूरतों के बारे में उन्होंने जिस गहराई से विचार किया, वहां तक भी पहले कोई नहीं पहुंचा था। पंडितजी अधिक व्यावहारिक धरातल पर उतरते हुए कहते हैं कि प्रत्येक अर्थव्यवस्था में न्यूनतम आवश्यकताओं की पूर्ति की गारंटी एवं व्यवस्था अवश्य रहनी चाहिए। न्यूनतम आवश्यकताओं में वे रोटी, कपड़ा और मकान तक ही सीमित नहीं रहते बल्कि उससे आगे जाकर शिक्षा, स्वास्थ्य और सुरक्षा को भी सम्मिलित करते हैं। बहरहाल, अंत्योदय का विचार देने वाले राष्ट्रऋषि दीनदयाल उपाध्याय पर उनके जन्मशती वर्ष में एक सम्पूर्ण पुस्तक का आना वास्तव में शोधार्थियों, राजनीतिज्ञों, पत्रकारों और लेखकों के लिए महत्वपूर्ण है। दीनदयाल जी के समग्र व्यक्तित्व के दर्शन कराने में पुस्तक सफल है। उम्मीद की जानी चाहिए कि इस पुस्तक के बहाने पंडित दीनदयाल उपाध्याय का बिना किसी अवरोध-विरोध के ईमानदारी से विश्लेषण किया जा सकेगा।
                                                               
पुस्तक : भारतीयता का संचारक : पं. दीनदयाल उपाध्याय (संपादकः संजय द्विवेदी)
मूल्य : 500 रुपये (सजिल्द संस्करण), पृष्ठ : 324
प्रकाशक : विज्डम पब्लिकेशन, सी-14, डी.एस.आई.डी.सी. वर्क सेंटर,

झिलमिल कॉलोनी, शाहदरा, दिल्ली-110095

मंगलवार, 4 अगस्त 2015

पंजाब केसरी समूह के अखबारों नवोदय टाइम्स, हिंद समाचार (उर्दू) और जगबानी (पंजाबी) में छपे लेख




शनिवार, 1 अगस्त 2015

देश को क्यों बांट रहा है मीडिया

कलाम हों रोलमाडल या मेमन सोचना होगा
-संजय द्विवेदी
  काफी समय हुआ पटना में एक आयोजन में माओवाद पर बोलने का प्रसंग था। मैंने अपना वक्तव्य पूरा किया तो प्रश्नों का समय आया। राज्य के बहुत वरिष्ठ नेता, उस समय विधान परिषद के सभापति रहे स्व.श्री ताराकांत झा भी उस सभा में थे, उन्होंने मुझे जैसे बहुत कम आयु और अनुभव में छोटे व्यक्ति से पूछा आखिर देश का कौन सा प्रश्न या मुद्दा है जिस पर सभी देशवासी और राजनीतिक दल एक है?” जाहिर तौर पर मेरे पास इस बात का उत्तर नहीं था। आज जब झा साहब इस दुनिया में नहीं हैं, तो याकूब मेमन की फांसी पर देश को बंटा हुआ देखकर मुझे उनकी बेतरह याद आयी।
   आतंकवाद जिसने कितनों के घरों के चिराग बुझा दिए, भी हमारे लिए विवाद का विषय है। जिस मामले में याकूब को फांसी हुयी है, उसमें कुल संख्या को छोड़ दें तो सेंचुरी बाजार की अकेली साजिश में 113 बच्चे, बीमार और महिलाएं मारे गए थे। पूरा परिवार इस घटना में संलग्न था। लेकिन हमारी राजनीति और मीडिया दोनों इस मामले पर बंटे हुए नजर आए। यह मान भी लें कि राजनीति का तो काम ही बांटने का है और वे बांटेंगें नहीं तो उन्हें गद्दियां कैसे मिलेंगीं? इसलिए हैदराबाद के औवेसी से लेकर दिग्विजय सिंह, शशि थरूर सबको माफी दी जा सकती है कि क्योंकि वे अपना काम कर रहे हैं। वही काम जो हमारी राजनीति ने अपने अंग्रेज अग्रजों से सीखा था। यानी फूट डालो और राज करो। इसलिए राजनीति की सीमाएं तो देश समझता है। किंतु हम उस मीडिया को कैसे माफ कर सकते हैं जिसने लोकजागरण और सत्य के अनुसंधान का संकल्प ले रखा है।
    टीवी मीडिया ने जिस तरह हमारे राष्ट्रपुरूष, प्रज्ञापुरूष, संत-वैज्ञानिक डा. एपीजे अबुल कलाम की खबर को गिराकर तीनों दिन याकूब मेमन को फांसी को ज्यादा तरजीह दी, वह माफी के काबिल नहीं है। प्रिंट मीडिया ने थोड़ा संयम दिखाया पर टीवी मीडिया ने सारी हदें पार कर दीं। एक हत्यारे-आतंकवादी के पक्ष पर वह दिन भर औवेसी को लाइव करता रहा। क्या मीडिया के सामाजिक सरोकार यही हैं कि वह दो कौमों को बांटकर सिर्फ सनसनी बांटता रहे। किंतु टीवी मीडिया लगभग तीन दिनों तक यही करता रहा और देश खुद को बंटा हुआ महसूस करता रहा। क्या आतंकवाद के खिलाफ लड़ना सिर्फ सरकारों, सेना और पुलिस की जिम्मेदारी है? आखिर यह कैसी पत्रकारिता है, जिसके संदेशों से यह ध्वनित हो रहा है कि हिंदुस्तान के मुसलमान एक आतंकी की मौत पर दुखी हैं? आतंकवाद के खिलाफ इस तरह की बंटी हुयी लड़ाई में देश तो हारेगा ही दो कौमों के बीच रिश्ते और असहज हो जाएंगें। हिंदुस्तान के मुसलमानों को एक आतंकी के साथ जोड़ना उनके साथ भी अन्याय है। हिंदुस्तान का मुसलमान क्या किसी हिंदू से कम देशभक्त है? किंतु औवेसी जैसे वोट के सौदागरों को उनका प्रतिनिधि मानकर उन्हें सारे हिंदुस्तानी मुसलमानों की राय बनाना या बताना कहां का न्याय है? किंतु ऐसा हुआ और सारे देश ने ऐसा होते हुए देखा। 
   इस प्रसंग में हिंदुस्तानी टीवी मीडिया के बचकानेपन, हल्केपन और हर चीज को बेच लेने की भावना का ही प्रकटीकरण होता है। आखिर हिंदुस्तानी मुसलमानों को मुख्यधारा से अलग कर मीडिया क्यों देखता है? क्या हिंदुस्तानी मुसलमान आतंकवाद की पीड़ा के शिकार नहीं हैं? क्या जब धमाके होते हैं तो उसका असर उनकी जिंदगी पर नहीं होता? देखा जाए तो हिंदू-मुसलमान दुख-सुख और उनके जिंदगी के सवाल एक हैं। वे भी समान दुखों से  घिरे हैं और समान अवसरों की प्रतीक्षा में हैं। उनके सामने भी बेरोजगारी, गरीबी, मंहगाई के सवाल हैं। वे भी दंगों में मरते और मारे जाते हैं। बम उनके बच्चों को भी अनाथ बनाते हैं। इसलिए यह लड़ाई बंटकर नहीं लड़ी जा सकती। कोई भी याकूब मेमन मुसलमानों का आदर्श नहीं हो सकता। जो एक ऐसा खतरनाक आतंकी है जो अपने परिवार से रेकी करवाता हो, कि बम वहां फटे जिससे अधिक से अधिक खून बहे, हिंदुस्तानी मुसलमानों को उनके साथ जोड़ना एक पाप है। हिंदुस्तानी मुसलमानों के सामने आज यह प्रश्न खड़ा है कि क्या वे अपनी प्रक्षेपित की जा रही छवि के साथ खड़े हैं या वे इसे अपनी कौम का अपमान समझते हैं? ऐसे में उनको ही आगे बढ़कर इन चीजों पर सवाल उठाना होगा। इस बात का जवाब यह नहीं है कि पहले राजीव गांधी के हत्यारों को फांसी दो या बेअंत सिंह के हत्यारों को फांसी दो। अगर 22 साल बाद एक मामले में फांसी की सजा हो रही है तो उसकी निंदा करने का कोई कारण नहीं है। कोई पाप इसलिए कम नहीं हो सकता कि एक अपराधी को सजा नहीं हुई है। हिंदुस्तान की अदालतें जाति या धर्म देखकर फैसले करती हैं यह सोचना और बोलना भी एक तरह का पाप है। फांसी दी जाए या न दी जाए इस बात का एक बृहत्तर परिप्रेक्ष्य है। किंतु जब तक हमारे देश में यह सजा मौजूद है तब तक किसी फांसी को सांप्रदायिक रंग देना कहां का न्याय है?
   कांग्रेस के कार्यकाल में फांसी की सजाएं हुयी हैं तब दिग्विजय सिंह और शशि थरूर कहां थे? इसलिए आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई के सवालों को हल्का बनाना, अपनी सबसे बड़ी अदालत और राष्ट्रपति के विवेक पर संदेह करना एक राजनीतिक अवसरवाद के सिवा क्या है? राजनीति की इसी देशतोड़क भावना के चलते आज हम बंटे हुए दिखते हैं। पूरा देश एक स्वर में कहीं नहीं दिखता, चाहे वह सवाल कितना भी बड़ा हो। हम बंटे हुए लोग इस देश को कैसे एक रख पाएंगें? दिलों को दरार डालने वाली राजनीति,उस पर झूमकर चर्चा करने वाला मीडिया क्या राष्ट्रीय एकता का काम कर रहा है? ऐसी हरकतों से राष्ट्र कैसे एकात्म होगा? राष्ट्ररत्न-राष्ट्रपुत्र कलाम के बजाए याकूब मेमन को अगर आप हिंदुस्तान के मुसलमानों का हीरो बनाकर पेश कर रहे हैं तो ऐसे मीडिया की राष्ट्रनिष्ठा भी संदेह से परे नहीं है? क्या मीडिया को यह अधिकार दिया जा सकता है कि वह किसी भी राष्ट्रीय प्रश्न लोगों को बांटने का काम करे? किंतु मीडिया ने ऐसा किया और पूरा देश इसे अवाक होकर देखता रहा।
   मीडिया का कर्म बेहद जिम्मेदारी का कर्म है। डा. कलाम ने एक बार मीडिया विद्यार्थियों शपथ दिलाते हुए कहा था-मैं मीडिया के माध्यम से अपने देश के बारे में अच्छी खबरों को बढ़ावा दूंगा, चाहे वो कहीं से भी संबंधित हों। शायद मीडिया अपना लक्ष्य पथ भूल गया है। पूरी मीडिया की समझ को लांछित किए बिना यह कहने में संकोच नहीं है कि टीवी मीडिया का ज्यादातर हिस्सा देश का शुभचिंतक नहीं है। वह बंटवारे की राजनीति को स्वर दे रहा है और राष्ट्रीय प्रश्नों पर लोकमत के परिष्कार की जिम्मेदारी से भाग रहा है। सिर्फ दिखने, बिकने और सनसनी फैलाने के अलावा सामान्य नागरिकों की तरह मीडिया का भी कोई राष्ट्रधर्म है पर उसे यह कौन बताएगा। उन्हें कौन यह बताएगा कि भारतीय हिंदुओं और मुसलमानों दोनों के नायक भारतरत्न कलाम हैं न कि कोई आतंकवादी। देश को जोड़ने में मीडिया एक बड़ी भूमिका निभा सकता है, पर क्या वह इसके लिए तैयार है?
(लेखक राजनीतिक विश्लेषक हैं)