शुक्रवार, 3 जुलाई 2015

सवालों में सरकार

-संजय द्विवेदी
  नरेंद्र मोदी की सरकार के लिए सुषमा स्वराज, वसुंधरा राजे सिंधिया, स्मृति ईरानी और पंकजा मुंडे के मामलों ने नया संकट खड़ा कर दिया है। विपक्ष को बैठे बिठाए एक मुद्दा हाथ लग गया है, तो लंदन में बैठे ललित मोदी रोज एक नया ट्विट करके मीडिया और विरोधियों को मसाला उपलब्ध करा ही देते हैं। विपक्ष ऐसी स्थितियों में अवसर को छोड़ना नहीं चाहता और उसकी मांग है कि नरेंद्र मोदी इस विषय पर कुछ तो बोलें। राजनीति में मौन कई बार रणनीति होता है और नरसिंह राव, मनमोहन सिंह से लेकर नरेंद्र मोदी सभी इसे साधते रहे हैं। ऐसे में मीडिया के लिए ये खबरें रोजाना का खाद्य बन गयी हैं। एक भगोड़े का ट्विट और उस पर प्रतिक्रियाएं जुटाकर मीडिया ने भी अपने नित्य के हल्लाबोल को निरंतर कर लिया है।
   राजनीति में ऐसे प्रसंग चौंकाने वाले होते हैं और छवि को दागदार भी करते हैं। किंतु जैसी राजनीति बन गयी है उसमें यह उम्मीद कर पाना कठिन है कि पूंजीपतियों और राजनेताओं का रिश्ता न बने। राजे और सुषमा की कहानी दरअसल रिश्तों की भी कहानी है। संपर्क हुआ, रिश्ते बने और आत्मीय व व्यावासायिक रिश्ते भी बन गए। प्रथम दृष्ट्या तो ये कहानियां बहुत सहज हैं और इसे सीधे तौर पर भ्रष्टाचार कहना भी कठिन है। किंतु ललित मोदी ने अपनी जैसा छवि बनायी है, उसके बाद उनसे रिश्ते किसी को भी संकट में ही डालेगें। राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी और समाजवादी पार्टी जैसी पार्टियां कम हैं जो रिश्तों को छिपाती नहीं बल्कि अपने साथियों का खुलकर साथ देती हैं। आप देखें तो शरद पवार और उनके दल की सहानुभूति ललित मोदी से साफ दिखती है। अपने पुराने समाजवादी साथी स्वराज कौशल के पक्ष में समाजवादी पार्टी के नेता रामगोपाल यादव ने खबर आते ही सुषमा स्वराज को क्लीन चिट दे दी। किंतु भाजपा, कांग्रेस जैसे दलों का संकट यह है कि वे रिश्ते रखते हुए भी कूबूल करने की जहमत नहीं उठा सकते। क्या ही अच्छा होता कि प्रधानमंत्री को भाजपा के ये नेता इस्तीफे के लिए आफर करते और प्रधानमंत्री उसे अस्वीकार कर देते। किंतु भाजपा का नेतृत्व किंकर्तव्यविमूढ़ता का शिकार है। दिखावटी नैतिकता की बंदिशें उन्हें वास्तविकता के साथ खड़े होने से रोकती हैं।
   सुषमा स्वराज के प्रकरण में ऐसा कुछ नहीं था कि जिसके कारण भाजपा को किंतु- परंतु करने की जरूरत थी। बावजूद उसके प्रवक्ता लड़खड़ाते नजर आए। नीतियों को लेकर अस्पष्टता ऐसे ही दृश्य रचती है। नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार का मीडिया प्रबंधन पहले दिन से लड़खड़ाया हुआ है। बिना किसी बड़े आरोप के साल भर में सरकार की छवि मीडिया द्वारा कैसी प्रक्षेपित की जा रही है, उसे देखना रोचक है। मंत्रिमंडल के सहयोगियों की मेहनत और उनके काम पर कुछ अनावश्यक आरोप भारी पड़ते हैं। पहले मीडिया से संवाद नियंत्रित करना और साल के अंत में सबको संवाद को लिए लगा देना, एक नासमझी भरी रणनीति है। नियंत्रित संवाद वहीं सफल हो सकता है जो दल बहुजन समाज पार्टी जैसे एकल नेता के दल हों। सुषमा स्वराज प्रकरण पर बिहार के दो सांसदों (कीर्ति आजाद और आर के सिंह) की बयानबाजी की जरूरत क्या थी? एक तरफ मंत्रियों पर नियंत्रण और दूसरी ओर सांसदों की ओर से किया जा रहा ज्ञान दान भाजपा की बदहवासी को ही प्रकट करता है।
        संकट को समझना और उस पर उपयुक्त प्रतिक्रिया देना अभी भाजपा को सीखना है। भाजपा के प्रवक्ताओं को  टीवी पर हकलाते देखना भी रोचक है। ये ऐसे लोग हैं जो बिना पाप किए अपराधबोध से ग्रस्त हैं। सक्रिय प्रधानमंत्री, सक्रिय सरकार और व्यापक जनसमर्थन भी मीडिया और प्रतिपक्ष के साझा दुष्प्रचार पर भारी पड़ रहा है। मेरे जैसे व्यक्ति की यह मान्यता है कि नरेंद्र मोदी को दिल्ली में बैठे परंपरागत राजनेता, राजनीतिक परिवार, नौकरशाह, भारतद्वेषी बुद्धिजीवी और पत्रकार आज भी स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं। उन्हें देश की जनता ने प्रधानमंत्री बना दिया है पर ये भारतद्वेषी बुद्धिजीवी नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हैं। इसलिए उनकी सरकार का छिद्रान्वेषण पहले दिन से ही जारी है। जब पूरी दुनिया योग कर रही होगी, तो वे योग के खिलाफ भारतीय टीवी चैनलों पर ज्ञान देते हैं। मोदी विदेश यात्रा पर होते हैं तो वे उनकी यात्राओं की आलोचना करने में व्यस्त होते हैं। यानि नरेंद्र मोदी का हर काम उनकी स्वाभाविक आलोचना के केंद्र में होता है। शायद यह पहली बार है कि कोई सरकार और उसका नेता जनसमर्थन से तो संयुक्त है किंतु दिल्लीपतियों के निशाने पर है। इस पूरे समूह के लिए नरेंद्र मोदी का दिल्ली प्रवेश एक ऐसी घटना है जिसे वे स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं। इसलिए भाजपा और उसके नेताओं पर लगने वाले आरोपों को अपराध बनाकर प्रस्तुत किया जा रहा है। एक सक्षम विदेश मंत्री के नाते सुषमा स्वराज के कामों, उनके द्वारा एक साल में 37 देशों की यात्राओं का जिक्र नहीं होता। विदेशों में भारतवंशियों जब भी कोई संकट आया,वे और उनका विभाग सक्रिय दिखे। किंतु ललित मोदी से उनके पति के रिश्ते चर्चा के केंद्र में हैं।

     भारतीय राजनीति और मीडिया के लिए यह गहरे संकट का क्षण है, जहां आग्रह, दुराग्रह में बदलता दिखता है। नेताओं के प्रतिमा भंजन की इस राजनीति का मुकाबला भाजपा और उसकी सरकार को करना है। उन्हें यह मान लेना होगा कि यह यूपीए की सरकार नहीं है, जिसकी ओर बहुत से बुद्धिजीवी और पत्रकार इसलिए आंखें मूंद कर बैठे थे कि उसने भाजपा को रोक रखा है। यूपीए-तीन की प्रतीक्षा में जो समूह दिल्ली में बैठा था, नरेंद्र मोदी का आगमन उनके लिए सबसे बड़ी चुनौती है। इसलिए नरेंद्र मोदी और केंद्र सरकार की छवि बिगाड़ना एक सुनियोजित यत्न है और इसे समझना भाजपा की जिम्मेदारी है। भाजपा नेताओं के लिए सत्ता में होने से ज्यादा जरूरी अपनी छवि, आचरण और देहभाषा का संयमित होना है। अपने असफल मीडिया प्रबंधन के नाते भाजपा ने साल भर में बहुत कुछ खोया है। भाजपा को अपनी सरकार के प्रति लोगों का भरोसा बनाए रखने के लिए कुछ टोटके करने होगें। करने के साथ कहने का भी साहस जुटाना होगा। जहां आप गलत नहीं हैं, वहां मौन रणनीति नहीं हो सकता। प्रधानमंत्री को अपनी टीम में वही भरोसा भरना होगा जिससे वे खुद लबरेज हैं। उनका मौन सरकार पर भारी पड़ रहा है। दिग्गजों की छवियां खराब हो रही हैं। ऐसे में भाजपा को ज्यादा भरोसा और ज्यादा आत्मविश्वास के साथ सामने आने की जरूरत है।

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