शुक्रवार, 18 दिसंबर 2015

बिहार चुनाव बाद बढ़ीं भाजपा की चुनौतियां


मोदी-शाह की रणनीतिक विफलता ने विपक्ष को किया एकजुट
-संजय द्विवेदी
   बिहार चुनाव के परिणामों से सारे देश की राजनीति में एक उबाल आ गया है। इस परिणाम ने जहां पस्तहाल विपक्ष को संजीवनी दी है वहीं भाजपा को आत्मचिंतन और आत्मावलोकन का एक अवसर बहुत जल्दी उपलब्ध करा दिया है। दिल्ली में भाजपा के अश्वमेघ को जहां अरविंद केजरीवाल ने रोक लिया था तब उस चुनाव के परिणाम को एक स्थानीय कारण मानकर छोड़ दिया गया था। किंतु कुछ तो है कि बिहार के परिणाम को देश का फैसला माना जा रहा है। इसका एक कारण तो यह है कि दिल्ली में किरण बेदी को चेहरा बनाकर भाजपा के आत्मघात को एक बड़ा कारण माना गया था। जबकि बिहार चुनाव में चेहरा ही नरेंद्र मोदी और अमित शाह थे। किसी भी राज्य के चुनाव में शायद यह अजूबा ही था कि पोस्टरों पर प्रमुख रूप से मोदी और शाह छाए रहे हों।
   बिहार का चुनाव परिणाम एक साथ ढेर सारी सूचनाएं और चेतावनियां देने वाला भी है। एक तो यह कि सुशासन बाबू के निर्विध्न राज पर अब लालू प्रसाद यादव और उनके बेटों की सहभागिता रहेगी। दूसरा सबसे बड़ा दल होने के नाते राजद का इकबाल भी बुलंद है। विकास और सुशासन की नारेबाजियां करने वाले जनता दल (यू) और भाजपा दोनों को लालू की पार्टी राष्ट्रीय जनता दल से कम सीटें मिली हैं। जाहिर तौर पर यह परिणाम एक साथ कई बातें बताते हैं।
ये जाति है बड़ीः बिहार में वैसे भी जातीय राजनीति की एक गहरी परंपरा और सैद्धांतिक आधार भी है। यहां सबसे बड़ा संगठन और विचार जाति ही है। जातीय गोलबंदी करके चुनाव जीतना कोई नई बात नहीं है और लालू यादव इसमें सफल रहे हैं। शायद इसीलिए चुनाव में जंगलराज पार्ट टू कहे जाने पर अपनी आलोचना पर उन्होंने यह कहा था कि जंगलराज पार्ट टू नहीं यह मंडलराज पार्ट टू है। यह बताता है कि किस तरह उन्होंने अपने वोटबैंक को साधने की कोशिश की थी। ऐसे में यह भ्रम होना स्वाभाविक है कि इस जीत को विकास की जीत माना जाए या जातीय गोलबंदी की। नीतीश कुमार के विकासवादी चेहरे के बावजूद लालू प्रसाद यादव के दल को मिली सफलता, वंशवाद और जातीय राजनीति ज्यादा महत्व पाती हुई दिखती है। सामाजिक समीकरणों को साधकर बिहार का मैदान जिस तरह जीता गया वह बताता है कि अभी भी भारतीय राजनीति में जाति एक बड़ी ताकत है।
भाजपा के लिए आत्मचिंतन का समयः बिहार में भाजपा की पराजय बिखरे परिवार को एक न कर पाने का उदाहरण है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के चेहरे पर चुनाव लड़ती हुई भाजपा यहां पहले दिन से बिखरी-बिखरी दिखी। भाजपा स्थानीय नेतृत्व कहीं दिखा नहीं, तो शत्रुध्न सिन्हा, आर के सिंह जैसे सांसद अपनी नाराजगी को सार्वजनिक करते नजर आए। गठबंधन दलों को हैसियत से ज्यादा सीटें देना भी भारी पड़ा। रामविलास पासवान, जीतनराम मांझी, उपेंद्र कुशवाहा आदि के दलों को गहरा झटका लगा। इस सदमे से उबरने और संभलने में भाजपा को वक्त लगेगा। सही मायने में इस चुनाव ने भाजपा को यह अवसर दिया है कि वह अपने अतिआत्मविश्वास और शक्ति का विश्लेषण करे। बार-बार हर मैदान में एक ही हथियार कारगर नहीं होता यह भी साबित हो चुका है। ऐसे में यह देखना रोचक है कि भाजपा इस हार से क्या सबक लेती है और भविष्य के लिए क्या कदम उठाती है। किंतु इतना तो तय है कि भाजपा ने बिहार की पराजय से उत्तर प्रदेश का मार्ग अपने लिए कठिन बना लिया है। राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह की कुशल रणनीतिकार की छवि भी दिल्ली और बिहार की पराजय से सवालों के घेरे में है। भाजपा के तूफानी अभियान ने इन दोनों राज्यों में कोई असर नहीं छोड़ा और सीटें उम्मीद से कम आयीं। यह बात बताती है कि किस तरह भाजपा को अपनी कार्यशैली पर काम करने की जरूरत है। बिहार के सांसदों शत्रुध्न सिन्हा, आरके सिंह, भोला सिंह, हुकुमदेव नारायण यादव, अश्विनी चौबे आदि के बयानों का विश्लेषण करें तो असंतोष की गहराई का पता चलता है। सांसदों में गुस्से का यह स्तर है तो सामान्य जनों की बात समझी जा सकती है। सांसदों का यह असंतोष केवल बिहार के स्तर पर नहीं है। ज्यादातर को समस्या संवादहीनता की है और संवाद के तल पर भाजपा की विफलता हर जगह रेखांकित की जा रही है। यह संकट अचानक पैदा हुआ है या यह बात फैलाई जा रही कहना कठिन है किंतु भाजपा को इस संकट का समाधान खोजना होगा इसमें दो राय नहीं है। भाजपा अगर ऐसा नहीं कर पायी तो आने वाला समय उसके लिए संकट का कारण होगा।
लालू की वापसी के मायनेः बिहार में लालू प्रसाद यादव की वापसी एक चमत्कार जैसी ही है। इस चुनाव के वास्तविक हीरो और विजेता दरअसल लालू प्रसाद यादव ही हैं जिन्होंने न सिर्फ खुद को फिर से मैदान में खड़ा कर लिया बल्कि देश की राजनीति में हस्तक्षेप की क्षमता से लैस हैं। अपने दोनों पुत्रों को राजनीति में स्थापित कर और सर्वाधिक विधानसभा सीटें जीतकर जो चमत्कार उन्होंने किया है उससे नीतिश कुमार की आभा भी मंद पड़ गयी है। यह देखना भी रोचक होगा कि आने वाले समय में सरकार की दशा और दिशा क्या होती है। लालू यादव के बेटे-बेटियों का आश्वासन तो यही है कि वे विकास और सुशासन की परंपरा को आगे बढ़ाकर नीतिश कुमार के मार्गदर्शन में आगे बढ़ेंगें। राजग के कैडर और संगठन के आधार का परिणाम ही है कि वे हर चुनाव में अपना वोट बैंक बनाए और बचाए रख पाने में सफल रहे हैं। अब लालू का दावा है कि वे देश में घूमकर भाजपा की राजनीति के खिलाफ अलख जगाएंगें। किंतु बिहार की सरकार को उनके हस्तक्षेप से मुक्त कर पाना कठिन होगा।
देश की राजनीति पर असर डालेंगें ये चुनावः बिहार चुनाव ने जहां विपक्ष को ताकत दी है, वहीं नरेंद्र मोदी का आभामंडल भी दरका है। विपक्ष की एकजुटता को भाजपा की हरकतों ने ही हवा दी है। इसके चलते संसद के अंदर-बाहर विपक्ष अब भाजपा की सरकार पर हावी दिखते हैं। आने वाले समय में भी भाजपा के लिए बहुत अच्छी खबरों की संभावना नहीं है। प.बंगाल वैसे भी भाजपा के लिए बहुत अनूकूल राज्य नहीं है। ममता बनर्जी और वाममोर्चा के बीच वहां का मैदान बंटा हुआ है। ऐसे में भाजपा वहां कुछ कर पाएगी इसकी संभावना नहीं दिखती। राज्य में अपनी उपस्थिति बनाने के लिए उसे लंबा इंतजार करना होगा। असम में भाजपा जरूर काफी आशान्वित है। कांग्रेस के तमाम नेता दलबदल कर भाजपा में आ रहे हैं। असम एक ऐसा राज्य है जहां भाजपा आजतक सत्ता में नहीं आ सकी है। इस बार चमत्कार की उम्मीद भाजपा कर रही है। इसके साथ ही तमिलनाडु और केरल तो भाजपा के मिजाज से मेल नहीं खाते। यहां भाजपा को अभी प्रमुख विपक्ष बनने के लिए भी एक लंबी यात्रा करनी है, सत्ता तो दूर की कौड़ी है। इसी तरह आने वाले समय में उप्र की एक बड़ी लड़ाई भी भाजपा को लड़नी है। लोकसभा चुनाव में राजग ने 73 सीटें जीतकर जो कमाल किया था, उसे दोहराना एक कठिन चुनौती है। उप्र का राजनीतिक मैदान अभी भी सपा और बसपा के बीच में बंटा हुआ है। कांग्रेस और अन्य भाजपा विरोधी दलों में गठबंधन होने पर भाजपा की राह और कठिन हो सकती है। बिहार ने जो झटका दिया है उसके साइड इफेक्ट उप्र में दिखने तय हैं। पंजाब में अकाली दल और भाजपा के रिश्ते सहज नहीं हैं। सत्ता के खिलाफ असंतोष है तो कैप्टन अमरिंदर सिंह को पंजाब कांग्रेस का अध्यक्ष बनाए जाने के बाद कांग्रेस जोश में है। भाजपा के दिग्गज अरूण जेटली को हराकर अमरिंदर सिंह वैसे भी लाइम लाइट में हैं। भाजपा और अकाली दल के लिए कांग्रेस के साथ-साथ आम आदमी पार्टी भी एक बड़ी चुनौती की तरह उभर रही है। इस त्रिकोणीय संघर्ष का फायदा किसे मिलेगा कहा नहीं जा सकता। उत्तरांचल और हिमाचल में जरूर भाजपा सीधी लड़ाई में है और उसे वहां कुछ लाभ मिल सकता है। किंतु तबतक क्या हवा बनेगी कहा नहीं जा सकता। इतना तो तय है कि केंद्र में सत्ता में होने का असर भाजपा को हर राज्य के चुनाव में उठाना पड़ेगा। आर्थिक नीतियों से प्रभावित होते लोगों और बढ़ती महंगाई के आरोपों से भाजपा बच नहीं सकती। जिन हथियारों से उसने कांग्रेस को चोटिल किया था वे सारे हथियार अब कांग्रेस और विपक्ष के पास हैं। अकेले प्रधानमंत्री की सक्रियता के बजाए वित्त मंत्री की उदारता का भी देश की जनता को इंतजार है। इसके साथ ही एक सामूहिक नेतृत्व, संवाद और अहंकारहीनता तो चाहिए ही। बिहार ने भाजपा को क्या सिखाया है इसके लिए थोड़ा इंतजार करना चाहिए।

इस असहिष्णु समय में!


आभासी सांप्रदायिकता को स्थापित करने में लगी शक्तियों के इरादों को समझें
-संजय द्विवेदी
     सड़क से लेकर संसद तक असहिष्णुता की चर्चा है। बढ़ती सांप्रदायिकता की चर्चा है। कलाकार, साहित्यकार सबका इस फिजां में दम घुट रहा है और वे दौड़-दौड़कर पुरस्कार लौटा रहे हैं। राष्ट्रपति से लेकर आमिर खान तक सब इस चिंता में शामिल हो चुके हैं। भारत की सूरत और शीरत क्या सच में ऐसी है, जैसी बतायी जा रही है या यह आभासी सांप्रदायिकता को स्थापित करने के लिए गढ़ा जा रहा एक विचार है। आज के भारतीय संदर्भ में पाश्चात्य विचारक मिशेस फूको की यह बात मौजूं हो सकती है जो कहते हैं कि विमर्श एक हिंसा है जिसके द्वारा लोग अपनी बात सही सिद्ध करना चाहते हैं।
  भारत जिसे हमारे ऋषियों, मुनियों, राजाओं, महान सुधारकों, नेताओं और इस देश की महान जनता ने बनाया हैसहिष्णुता और उदात्तता यहां की थाती है। अनेक संकटों में इस देश ने कभी अपने इस नैसर्गिक स्वभाव को नहीं छोड़ा। तमाम विदेशी हमलों, आक्रमणों, 1947 के रक्तरंजित विभाजन के बावजूद भी नहीं। यही हिंदु स्वभाव है, यही भारतीय होना है। यहां सत्ता में नहींसमाज में वास्तविक शक्ति बसती है। सत्ता कोई भी हो, कैसी हो भी। समाज का मन निर्मल है। वह सबको साथ लेकर चल सकने की क्षमता से लैस है। यही राम राज्य की कल्पना है। जिसे महात्मा गांधी से लेकर राजीव गांधी तक एक नारे या सपने की तरह इस्तेमाल करते हैं। राम राज्य जुमला नहीं है,एक ऐसी कल्पना है जिसमें लोकतंत्र की औदार्यता के दर्शन होते हैं। रामराज्य दरअसल भारतीय राज्य का सबसे बड़ा प्रतीक है। जहां तुलसीदास कृत रामचरित मानस में उसकी व्याख्या मिलती है-
सब नर चलहिं परस्पर प्रीती
चलहिं स्वधर्म निरत श्रुति नीती।
   हमारी परंपरा सिर्फ गौरवगान के लिए नहीं है बल्कि वास्तव में इन्हीं भावों से अनुप्राणित है। वह सबमें प्रेम और सद्भावना तो चाहती है और आपको आपके स्वधर्म पर चलने के लिए प्रेरित भी करती है। किंतु लगता है कि एक झूठ को सौ बार बोलकर उसे सच बना देने वाली ताकतों का भरोसा अभी भी टूटा नहीं है। वे निरंतर इस महादेश को जिसके समानांतर पूरी कम्युनिस्ट दुनिया और पूरी इस्लामी दुनिया के पास कोई देश नहीं है, को लांछित करना चाहती हैं। राज्य के खिलाफ संघर्ष को वे देश के खिलाफ संघर्ष में बदल रही हैं। एक नेता से उनकी नफरत उन्हें अपने देश के खिलाफ षडयंत्र करने की प्रेरणा बन गयी है। आखिर इस देश में मर्ई,2014 के बाद ऐसा क्या घटा, जिसे लेकर ये इतने संवेदनशील और बैचैन हैं।
   इस देश की बन रही वैश्चिवक छवि को मटियामेट करने के ये यत्न संदेह जगाते हैं। पुरस्कार वापसी के सिलसिले स्वाभाविक नहीं लगते, क्योंकि इनकी टाइमिंग पर सवाल पहले दिन से उठ रहे हैं। देश का प्रधानमंत्री इस देश के लोगों से शक्ति पाकर सत्ता तक पहुंचता है। मोदी भारतीय लोकतंत्र का परिणाम हैं। क्या आप जनता के द्वारा दिए गए जनमत को भी नहीं मानते। नरेंद्र मोदी को मिले जनादेश को न स्वीकारना और उन्हें काम करने के अवसर न देना एक तरह का अलोकतांत्रिक प्रयत्न है। एक गरीब परिवार से आकर, अपनी देश की भाषा में बोलते हुए नरेंद्र मोदी ने जो कुछ अर्जित किया है, वही इस देश के लोकतंत्र का सौंदर्य है। नरेंद्र मोदी को लांछित करने वाले यह भूल जाते हैं कि हर तरह के विरोधों और षडयंत्रों ने मोदी को शक्तिमान ही बनाया है। देश की जनता को ये उठाए जा रहे भ्रम प्रभावित करते हैं। लोग पूछने लगे हैं कि आखिर असहिष्णुता कहां है भाई?दुनिया के पैमाने पर हो रही तमाम घटनाएं हमारे सामने हैं। इस रक्तरंजित दुनिया को शांति की राह दिखाने वाले देश भारत को लांछित करने का कोई कारण नहीं है। भारत और उसका मन विश्व को अपना परिवार मानने की वसुधैव कुटुम्बकम् की भावना से ओतप्रोत है। यह भारत ही है जिसने विविधता और बहुलता को आचरण में लाकर विश्व मानस को प्रभावित किया है। हमारे तमाम देवी- देवता और प्रकृति के साथ हमारा संवाद, चार वेद, दो महाकाव्य-रामायण और महाभारत, अठारहों पुराण और एक सौ आठ उपनिषद इसी विविधता के परिचायक हैं। इस विविधता को स्वीकारना और दूसरी आस्थाओं का मान करना हमें हमारी जड़ों से मिला है। इसीलिए हम कहते हैं-
अष्टादश पुराणेषु व्यासस्य वचनद्वयं,
परोपकाराय पुण्याय पापाय परपीड़नं।
 यानि अठारहों पुराणों में व्यास जी दो ही बातें कहते हैं, परोपकार पुण्य है और पाप है दूसरों को कष्ट देना। यानि भारत का मन पाप और पुण्य को लेकर भ्रम में नहीं है। उसे पता है कि दूसरों को जगह देना, उन्हें और उनकी आस्था को मान देना कितना जरूरी है। वह जानता है कि विविधता और बहुलता को आदर देकर ही वह अपने मानबिंदुओं का आदर कर पाएगा। किंतु यह उदार संस्कृति अगर साथ ही, यह भी चाहती है कि हम तो आपकी आस्था का मान करते हैं आप भी करेगें तो अच्छा रहेगा, तो इसमें गलत क्या है? परस्पर सम्मान की इस मांग से ही आप सांप्रदायिक धोषित कर दिए जाते हैं। यह कहां की जिद है कि आप तो हमारे विचारों का, आस्था का मान करें किंतु हम आपके मानविंदुओं और आस्था का विचार नहीं करेगें। अगर ऐसा होता तो क्या अयोध्या में राममंदिर के लिए मुकदमा अदालत में होता। कभी बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी के नेता सैय्यद शहाबुद्दीन ने कहा था कि यह प्रमाणित हो जाए कि कि बाबरी ढांचे के नीचे कोई हिंदू मंदिर था तो वे इस पर दावा छोड़ देगें। आज अदालत प्रमाणित कर चुकी है कि यह राम जन्मभूमि है। किंतु विरोधी पक्ष सुप्रीम कोर्ट जा पहुंचा है। गाय को लेकर भी जैसी गलीज बहसें चलाई गयीं, वह यही बताती हैं। सहिष्णुता का पाठ पढाने वालों को इतना ही देखना लेना चाहिए कि इस हिंदु बहुल देश में भी कश्मीरी हिंदुओं को विस्थापन झेलना पड़ा। इस पाप के लिए माफी कौन मांगेगा?
      जाहिर तौर पर एक शांतिप्रिय समाज को, एक समरसतावादी समाज को जब आप बार-बार लांछित करते हैं, तो जरूरी नहीं कि उसे यह अच्छा ही लगे। हिंदु मन प्रतिक्रियावादी मन नहीं है। उसे दूसरों के साथ अच्छा व्यवहार रखना ही है, भले ही अन्य उसके साथ कैसा भी आचरण करें। इस मन को खराब मत कीजिए। पेड़, पौधों, नदियों, मंदिरों, मजारों, गुरूद्वारों सब जगह मत्था टेकता यह भारतीय मन है, इसे आहत मत कीजिए। यह तो गायों, कौवों, कुत्तों का भी विचार करता है, खाने के लिए उनके लिए हिस्सा निकालता है। उसे असहिष्णु मत कहिए। उसने गोस्वामी तुलसीदास की वाणी-
परहित सरिस धरम नहीं भाई,
परपीड़ा सम नहीं अधमाई।
को आत्मसात किया है। उसे पता है कि दूसरों को पीड़ा देने से बड़ा कोई अधर्म नहीं है। इसलिए उसके हाथ गलत करते हुए कांपते हैं। उसके पैर भी यह विचार करते हैं कि कोई चींटी भी उसके पैरों तले ना आ जाए। इसलिए उसकी इस सदाशयी वृत्ति, परोपकार चेतना, दान शीलता, सद्भावना, दूसरों की आस्थाओं को सम्मान देने की भावना का मजाक मत बनाइए। इस देश को नेताओं और राजनीतिक दलों ने नहीं बनाया है। यह राष्ट्र ऋषियों और मुनियों ने बनाया है। पीर-फकीरों ने बनाया है, उनकी नेकनीयती और दिनायतदारी ने बनाया है। राजसत्ता यहां बंटी रही, राजाओं के राज बंटे रहे किंतु भारत एक सांस्कृतिक प्रवाह से अपनी महान जनता के आत्मविश्वास में कायम रहा है। इसीलिए हम कह पाए-
हिमालयं समारभ्य यावदिन्दु सरोवरम् ।
तं देवनिर्मितं देशं हिन्दुस्थानं प्रचक्षयते ।।
उत्तरं यत् समुद्रस्य हिमाद्रिश्चैव दक्षिणम् ।
वर्ष तद् भारतं नाम भारती यत्र सन्तति: ।।
   इसलिए उनसे इस तर्क का कोई मतलब नहीं है जो यह मानते,लिखते और कहते हैं कि यह राष्ट्र तो टुकड़ों में बंटा था और 1947 में अंग्रेज हमें इसे एक करके दे गए। ये वे लोग हैं जो न देश को समझते हैं, न इसके इतिहास को। जिन्हें इस राष्ट्र की अस्मिता को लांछित करने, इसके इतिहास की विकृत व्याख्याओं में ही आनंद आता है। उन्हें सारे गुण और गुणवान इस देश की घरती के बाहर ही नजर आते हैं। ऐसे जानबूझकर अज्ञानी बनी जमातों को हम हिंदुस्तान समझा रहे हैं। उसकी रवायतों और विरासतों को समझा रहे हैं, तो यह होने वाला नहीं हैं। आज राजनीतिक रूप से ठुकराई जा चुकी ताकतों द्वारा सम्मानितरायबहादुरों की इस पुरस्कार वापसी पर बहुत चिंता करने की जरूरत नहीं हैं। क्योंकि इन्हीं के लिए ईसा ने कहा था- हे प्रभु इन्हें माफ करना क्योंकि ये नहीं जानते कि ये क्या कर रहे हैं।

छात्र-युवा ही बनाएगें समर्थ भारत


-संजय द्विवेदी
  भारत इस अर्थ में गौरवशाली है कि वह एक युवा देश है। युवाओं की संख्या के हिसाब से भी, अपने सार्मथ्य और चैतन्य के आधार पर भी। भारत एक ऐसा देश है, जिसके सारे नायक युवा हैं। श्रीराम, श्रीकृष्ण, जगदगुरू शंकराचार्य और आधुनिक युग के नायक विवेकानंद तक। युवा एक चेतना है, जिसमें उर्जा बसती है, भरोसा बसता है, विश्वास बसता है, सपने पलते हैं और आकाक्षाएं धड़कती हैं। इसलिए युवा होना भारत को रास आता है। भारत के सारे भगवान युवा हैं। वे बुजुर्ग नहीं होते। यही चेतना भारत की जीवंतता का आधार है।
  आज जबकि दुनिया के तमाम देशों में युवा शक्ति का अभाव दिखता है। भारत का चेहरा उनमें अलग है। छात्र होना सीखना है, तो युवा होना कर्म को पूजा मानकर जुट जाना है। एक सीख है, दूसरा कर्म है। सीखी गयी चीज को युवा परिणाम देते हैं। ऐसे में भारत की छात्र शक्ति को सीखने के बेहतर अवसर देना, उनकी प्रतिभा को उन्नयन के लिए नए आकाश देना, हमारे समाज और सरकारों की जिम्मेदारी है। छात्र को ठीक से गढ़ा न जाएगा तो वह एक आर्दश नागरिक कैसे बनेगा। देश के प्रति जिम्मेदारियों का निर्वहन वह कैसे करेगा। भारत के शिक्षा परिसर ही नए भारत के निर्माण की आधारशिला हैं अतः उनका जीवंत होना जरूरी है।
अराजनैतिक छात्र शक्ति का निर्माणः
 देश में पूरी तरह से ऐसा वातावरण बनाया जा रहा है जिसमें छात्र सिर्फ अपने बारे में सोचे, कैरियर के बारे में सोचे। उसमें सामाजिक-सांस्कृतिक मूल्यों, राष्ट्र के प्रति सदभाव पैदा हो, इस ओर प्रयास जरूरी हैं। जरूरी है कि वे देश के बारे में जानें, उसकी विविधताओं और बहुलताओं का सम्मान करें ऐसे नागरिक बनें जो विश्वमंच पर भारत की प्रतिष्ठा बना सकें। तमाम सामाजिक संगठनों से जुड़कर छात्र युवा शक्ति तमाम सामाजिक प्रकल्पों को चलाती भी है। किंतु हमारी शिक्षा में ऐसी व्यवस्था नदारद है। आज ऐसा लगता है कि शिक्षा से तो वे जो कुछ प्राप्त करते हैं उससे वे मनुष्य कम मशीन ज्यादा बनते हैं। वे काम के लोग बनते हैं किंतु नागरिक और राष्ट्रीय चेतना से लैस मनुष्य नहीं बन पाते है। छात्रों-युवाओं में राष्ट्रीय चेतना सामान्य व्यक्ति से ज्यादा होती है। इसलिए देश की शिक्षा व्यवस्था में अगर राष्ट्रीय भाव होते तो आज हालात अलग होते। हालात यह हैं कि जो छात्र युवा सामाजिक-सांस्कृतिक संगठनों से न जुड़े हों तो उनकी राष्ट्रीय विषयों पर कोई सोच नहीं होती है, क्योंकि उन्हें इस दिशा में सोचने और काम करने का अवसर ही नहीं मिलता। इस प्रकार हमने छात्र–युवाओं को पूरी तरह अराजनैतिक और व्यक्तिगत सोच वाला बना दिया है। आज मुख्यधारा का छात्र-युवा, आनंद और उत्सवों में मस्त है। वह पार्टियों और मस्त माहौल को ही अपना सर्वस्व समझ रहा है। ऐसी स्थितियों में यह जरूरी है कि छात्रों का राजनीतिकरण हो, उन्हें वैचारिक आधार से लैस किया जाए, और देश के प्रश्नों पर वे संवाद करें। आज देश के तमाम परिसरों में छात्रसंघ चुनाव भी नहीं कराए जाते। आखिर एक लोकतांत्रिक देश में छात्रों के राजनीतिकरण से किसे डर लगता है। सच तो यह है कि सत्ताएं चाहती हैं कि युवा मस्त-मस्त जीवन जीते रहें, और समाज में खड़े प्रश्नों से न टकराएं। वे पार्टियों में झूमते रहें और मनोरंजन ही उनका आधार बने। मनोरंजन और कैरियर से आगे सोचने वाली युवा शक्ति का अभाव सबसे बड़ी चुनौती है।
शिक्षा परिसरों को जीवंत बनाने की जरूरतः
आवश्यक्ता इस बात की है कि शिक्षा परिसरों को ज्यादा जीवंत और ज्यादा प्रासंगिक बनाया जाए। परिसरों को सांस्कृतिक, राजनीतिक और सामाजिक प्रश्नों पर प्रशिक्षण का केंद्र बनाया जाए। अगर परिसर जीवंत होंगे तो नया समाज भी जीवंत बनेगा। भारतीय परंपरा में संवाद और विवाद की अनंत धाराएं रही हैं। यह समाज संवादित समाज है। जिन दिनों संचार के साधन उतने नहीं थे तो भी समाज उतना ही संवादित था। कुंभ से लेकर अनेक मेलों में समाज संवाद करता था। नए समय ने समाज के संवाद के अनेक मार्ग बंद कर दिए हैं। सामयिक प्रश्नों पर संवाद कम होने के कारण नई पीढ़ी को देश की सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक चुनौतियों से रू-ब-रू होने का अवसर ही नहीं मिलता। इसलिए देश के युवा आज अपने समय की चुनौतियों को नहीं पहचान पा रहे हैं। मुख्यधारा के युवाओं को एक ऐसा युवा बनाया जा रहा है जो कैरियर और मनोरंजन से आगे न सोच सके। इस प्रकार सामाजिक सोच का विकास बाधित हो रहा है।
छात्र संगठन निभाएं जिम्मेदारीः
 छात्र संगठनों की यह जिम्मेदारी है कि राजनीतिक दलों के पिछलग्गू बनने के बजाए अपने दायरे से बाहर आएं। शिक्षा और शिक्षक जहां साथ छोड़ रहे हैं, छात्र संगठनों को वहीं छात्रों का साथ पकड़ना होगा। छात्र संघों को छात्रों की सर्वांगीण प्रतिभा के उन्नयन का मार्ग प्रशस्त करना होगा। छात्र संघ अपनी भूमिका का विस्तार करते हुए सिर्फ छात्र समस्याओं और राजनीतिक कामों के बजाए देश के सवालों पर सोचने का उन पर विमर्श का कार्य भी हो सकता है। छात्र शक्ति की सक्रिय भागीदारी से देश में आमूल चूल परिवर्तन आ सकता है। एक मिशन और ध्येय पैदा होते ही छात्र एक ऐसी युवा शक्ति में परिवर्तित हो जाता है, जिससे देश का सर्वांगीण विकास सुनिश्चित होता है। देश के सब क्षेत्रों में आंदोलन कमजोर हुए हैं। आंदोलनों के कमजोर होने कारण विविध क्षेत्रों की वास्तविक आवाजें सुनाई देनी बंद हो गयी है। इसके चलते सत्ता का अतिरेक और आत्मविश्वास बढ़ रहा है। जनसंगठन और छात्र संगठन एक सामाजिक दंड शक्ति के रूप में काम करें, इसके लिए उन्हें सचेतन प्रयास करने होंगे। इससे सत्ता और प्रशासन को भी सामाजिक शक्ति का विचार करना पड़ता है। एक लोकतंत्र में नागरिकों की सक्रिय भागीदारी ही उसे सफल और सार्थक बनाती है। अगर नागरिक जागरूक नहीं होते तो उनको उसके परिणाम भोगने पड़ते हैं। एक सोया हुआ समाज कभी भी न्याय प्राप्ति की उम्मीद नहीं कर सकता। एक जागृत समाज ही अपने हितों की रक्षा करता हुआ अपने राष्ट्र की प्रगति में योगदान देता है। अगर छात्रों में छात्र जीवन से ही ये मूल्य स्थापित कर दिए जाएं तो वे आगे चलकर एक सक्रिय नागरिक बनेंगे, इसमें दो राय नहीं है। उन्हें अपनी जड़ों से प्रेम होगा, अपनी संस्कृति से प्रेम होगा, अपने समाज और उसके लोगों से प्यार होगा। वह नफरत नहीं कर पाएगा कभी किसी से। क्योंकि उसके मन में राष्ट्रीय भावना का प्रवेश हो चुका होगा। वह राष्ट्र को सर्वोपरि मानेगा, राष्ट्र के नागरिकों को अपना भाई-बंधु मानेगा। वह जानेगा कि उसके कार्य का क्या परिणाम है। उसे पता होगा कि देश के समक्ष उपस्थित चुनौतियों का सामना उसे कैसै करना है। देश के छात्र संगठन अपनी-अपनी विचारधाराओं और राजनीतिक धाराओं को मजबूत करते हुए भी राष्ट्र प्रथम यह भाव अपने संपर्क में आने वाले युवाओं में भर सकते हैं। सही मायने में यही युवा आगे चलकर समर्थ भारत बनाएंगे।

जब संसद भी बेमानी हो जाए


-संजय द्विवेदी
  प्रदर्शन सड़क पर होने चाहिए और बहस संसद में। लेकिन हो उल्टा रहा है प्रदर्शन संसद में हो रहे हैं, बहस सड़क और टीवी न्यूज चैनलों पर। ऐसे में हमारी संसदीय परम्पराएं और उच्च लोकतांत्रिक आदर्श हाशिए पर हैं। राजनीति के मैदान में जुबानी कड़वाहटें अपने चरम पर हैं और मीडिया इसे हवा दे रहा है। सही मायने में भारतीय संसदीय इतिहास के लिए ये काफी बुरे दिन हैं। संसद और विधानसभाएं अगर महत्व खो रही हैं तो हमारे राजनेता भी अपना प्रभाव खो बैठेंगें। बहस के लिए बनी संस्थाओं में नाहक मुद्दों के आधार पर जिस तरह बाधा डाली जा रही है, उससे लगता है किसंसदीय परम्पराओं और मूल्यों की हमारे राजनीतिक दलों को बहुत परवाह नहीं है।
  बढ़ती कड़वाहटों ने संवाद का स्तर तो गिराया ही है, आपसी संबंधों पर भी तुषारापात किया है। सत्ता परिवर्तन को सहजता से स्वीकार न करके सत्ता में बने रहने के अभ्यासी दल बेतुकी प्रतिक्रियाएं कर रहे हैं। संसद के अंदर जैसे दृश्य रोज बन रहे हैं और उसके चलते हमारी राजनीति का जो चेहरा बन रहा है, उससे उसके प्रति जनता वितृष्णा और बढ़ेगी। क्या जनता के हित और देशहित अलग-अलग हैंअगर दोनों एक ही हैं तो जनता को राहत देने वाले कानूनों को तुरंत पास करने के लिए हमारे राजनीतिक दल एक क्यों नहीं है? क्या यह श्रेय की लड़ाई है या फिर जनता की परवाह किसी को नहीं है।
महत्व खोती संसदः इस पूरे विमर्श की सबसे बड़ी चिंता यह है कि संसद और विधानसभाएं महत्व खो रही हैं। उनका चलना मुश्किल है, और उन्हें चलाने की कोशिशें भी नदारद दिखती हैं। सत्ता पक्ष की अपनी अकड़ है तो विपक्ष के दुराग्रह भी साफ दिखते हैं। समाधान निकालने की कोशिशें नहीं दिखती और जनता का हितों को हाशिए लगते देख भी किसी को दर्द नहीं हो रहा है। लोकसभा अध्यक्ष के तमाम प्रयासों के बाद भी संवाद सहज होता नहीं दिख रहा है। अगर संसद में कानून नहीं बनेंगे, संसद में विमर्श न होंगें तो क्या होगा?  यह संकट पूरी संसदीय प्रक्रिया और राजनीति के सामने है। राजनीति का क्षेत्र बहुत जिम्मेदारी का है और जिस तरह की राजनीति हो रही है, उसमें इस जिम्मेदारी के भाव का अभाव दिखता है। पंडित जवाहर लाल नेहरू ने संसदीय प्रक्रिया के इस मर्म को समझा और संसद को उदार लोकतांत्रिक मूल्यों का मंच बनाने के लिए उन्होंने काफी जतन किए। अपने विपक्षी सदस्यों की भावनाओं और उनके तर्कों को उन्होंने अपने खिलाफ होने के बावजूद सराहा। आज उनकी ही पार्टी नाहक सवालों का संसद का समय नष्ट करती हुयी दिखती है। लोकतंत्र की रक्षा और उसके संसदीय परम्पराओं को बचाए, बनाए रखना और निरंतर समृद्ध करना सभी राजनीतिक दलों की जिम्मेदारी है। किंतु राष्ट्रीय दलों को यह जिम्मेदारी ज्यादा है क्योंकि  उनके आचरण और व्यवहार की छोटे दल नकल करते हैं। संसद से जो लहर चलती है वह राज्यों तक जाती है। अगर संसद नहीं चलेगी तो उसके परिणाम यह होंगे कि विधानसभाएं भी अखाड़ा बन जाएगीं। संसद दरअसल हमारे एक संपूर्ण भारतीय जनशक्ति की सामूहिक अभिव्यक्ति है। अगर वह बंटी-बंटी दिखेगी तो यह ठीक नहीं। कम से कम जनता के सवालों पर, राष्ट्रीय प्रश्नों पर संसद एक दिखेगी तो इसके दूरगामी शुभ परिणाम दिखेंगे।
सत्ता पक्ष अपनाए लचीला रवैयाः संसद को चलाना दरअसल सत्ता पक्ष की जिम्मेदारी होती है। सत्ता पक्ष थोड़ा लचीला रवैया अपना कर सबको साथ ले सकता है। लोकतंत्र में हमारे संविधान ने ही सबकी हदें और सरहदें तय कर रखी हैं। मीडिया के उठाए प्रश्नों में उलझने के बजाए हमारे राजनेता संवाद को निरंतर रखने की विधियों पर जोर दें। संसद भारत की संवाद परम्परा का एक अद्भुत मंच है। जहां पूरा देश एक होता हुआ दिखता है। देश के सभी क्षेत्रों के प्रतिनिधि यहां आकर देश की भावना की अभिव्यक्ति करते हैं। इसे ज्यादा जीवंत और सार्थक बनाने की जरूरत है। संसद और संवाद कभी बाधित न हो यह परम्परा ही हमारी संसदीय परम्परा को सम्मानित बनाएगी। संसद को कभी राजनीतिक दलों के निजी हितों का अखाड़ा नहीं बनने देना चाहिए। नारे बाजी और शोरगुल से न तो समस्याओं का समाधान होता, ना ही ध्यान जाता है। हमारी परंपरा में बहसों का अनंत आकाश रहा है, शास्त्रार्थ हमारी परंपरा में है। इससे निकले निकष ही समाज को अमृतपान करवाते रहे हैं। मंथन चाहे अमृत के लिए हो या विचारों के लिए हमें उसे स्वीकारना ही चाहिए। संसद का कोई भी सत्र बेमानी न हो। जो भी लंबित बिल हों पास हों। जनता के सवालों पर संवाद हो। उनके दुख दूर करने के जतन हों। संसद को रोकना दरअसल इस देश के साथ भी घात है। हमें अपने लोकतंत्र को जीवंत बनाना है तो प्रश्नों से भागने के बजाए उससे टकराना होगा, और समाधान निकालना होगा। आने वाले दिनों में ये कड़वाहटें कैसे धुलें इस पर ध्यान होगा। प्रबल बहुमत पाकर सत्ता में आई भाजपा अगर आज मुट्ठी भर कांग्रेस सदस्यों के चलते खुद को विवश पा रही है तो यही तो लोकतंत्र की शक्ति है। 47-48 सांसदों ने लोकसभा को बेजार कर रखा है। इसकी विधि भी सत्ता पक्ष को निकालनी होगी कि किस तरह लोकसभा को काम की सभा बनाया जाए। क्या कुछ लोगों की मर्जी के आधार पर कानून बनेंगे। अदालतों में चल रहे मुद्दों पर लोकसभा को रोकना जायज नहीं कहा जा सकता। पर ऐसा हो रहा है  और समूचा देश इसे देख रहा है।  ऐसे कठिन समय में सत्ता पक्ष को आगे आकर बातचीत की कई धाराएं और कई स्तर खोलने चाहिए ताकि अड़ियल रवैया अपनाने वाले लोग बेनकाब भी हों तथा जनता के सामने सच आ सके।
सांसद भी समझें अपना कर्तव्यः सांसदों के ऊपर देश की बड़ी जिम्मेदारियां हैं। वे संसद में इस देश की जनता के प्रतिनिधि के रूप में हैं। इसलिए राजनीतिक कारणों से जनहित प्रभावित नहीं होना चाहिए। ऐसा कानून जिससे जनता को राहत की जरा भी उम्मीद है तुरंत पास करवाने के लिए सांसदों को दबाव बनाना चाहिए। देश यूं ही नहीं बनता उसे बनाने के लिए हमारे नेताओं ने लगातार संघर्ष किया है। राष्ट्रीय मुद्दों पर पक्ष-विपक्ष की सीमाएं टूट जानी चाहिए। क्योंकि देश हित एक है उस पर हमें एक दिखना भी चाहिए। जिस तरह विदेश नीति के सवालों पर, पाकिस्तान के मुद्दे पर भी हमारे मतभेद प्रकट दिख रहे है, वह हमारी राजनीति के भटकाव को प्रकट करते हैं। हमें इससे बचकर एक राष्ट्र और एक जन की भावना का प्रकटीकरण राजनीति में भी करना होगा। यह देश हम सबका है। इसके संकट और सफलताएं दोनों हमारी है। इसीलिए हमने इसे पुण्यभूमि कहा है। इसके लोगों के आंसू पोंछना, उनके दर्द में साथ खड़े होना हम सबकी सामूहिक जिम्मेदारी है। ये जिम्मेदारियां हमें निभानी होगीं। ऐसा हम कर पाए तो यह बात भारतीय लोकतंत्र के माथे पर सौभाग्य का टीका साबित होगी।

शुक्रवार, 30 अक्तूबर 2015

किसानों के दर्द में ऐसा जुड़िए जैसा जुड़ते हैं शिवराज

-संजय द्विवेदी

  किसानों की बदहाली, बाढ़ व सूखा जैसी आपदाएं भारत जैसे देश में कोई बड़ी सूचना नहीं हैं। राजनीति में किसानों का दर्द सुनने और उनके समाधान की कोई परंपरा भी देखने को नहीं मिलती। किंतु पिछले कुछ दिनों में मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान जिस शैली में अपनी पूरी सरकारी मशीनरी में किसानों के दर्द के प्रति संवेदना जगाने का प्रयास कर रहे हैं वह अभूतपूर्व है।
    मध्यप्रदेश जिसने लगातार तीन बार राष्ट्रीय स्तर पर कृषि कर्मण अवार्ड लेकर कृषि के क्षेत्र में अपनी शानदार उपलब्धियां साबित कीं, उसके किसान इस समय सूखे के गहरे संकट का सामना कर रहे हैं। मध्यप्रदेश के 19 जिलों के 23 हजार गांवों में कोई 27.93 लाख किसानों की 26 लाख हेक्टेयर जमीन सूखे की चपेट में है। जाहिर तौर पर संकट गहरा है और शिवराज सरकार एक विकट चुनौती से दो-चार है। ऐसे कठिन समय में दिल्ली में एक अनूकूल सरकार होने के बावजूद मध्यप्रदेश को राहत के लिए केंद्र सरकार से कोई ठोस आश्वासन नहीं मिले हैं। प्रधानमंत्री,वित्तमंत्री और गृहमंत्री से मिलकर मदद की गुहार लगा  चुके शिवराज सिंह चौहान किसानों को कोई बड़ी राहत नहीं दिला सके हैं। सिवाय इस आश्वासन के कि केंद्र की टीम इन क्षेत्रों की स्थिति का जायजा लेगी। इस निराशा की घड़ी में कोई भी मुख्यमंत्री स्थितियों से टकराने के बजाए दम साध कर बैठ जाता। क्योंकि केंद्र में बैठी अपने ही दल की सरकार का विरोध तो किया नहीं जा सकता। ना ही केंद्र की इस उपेक्षा के राजनीतिक लाभ लिए जा सकते हैं। हाल-फिलहाल मप्र के लोकसभा,विधानसभा, स्थानीय निकाय से लेकर सारे चुनाव निपट चुके हैं, सो जनता के दर्द से थोडा दूर रहा जा सकता है। विपक्ष का मध्यप्रदेश में जो हाल है, वह किसी से छिपा नहीं है। यानि शिवराज सिंह चौहान आराम से घर बैठकर इस पूरी स्थिति में निरपेक्ष रह सकते थे। किंतु वे यथास्थितिवादी और हार मानकर बैठ जाने वालों में नहीं हैं। शायद केंद्र में कांग्रेस या किसी अन्य दल की सरकार होती तो मप्र भाजपा आसमान सिर पर उठा लेती और केंद्र के खिलाफ इन स्थितियों में खासी मुखर और आंदोलनकारी भूमिका में होती। शिवराज ने इस अवसर को भी एक संपर्क अभियान में बदल दिया। अपने मंत्रियों, जनप्रतिनिधियों और सरकारी अफसरों-नौकरशाहों को मैदान में उतार दिया। वे इस बहाने बड़ी राहत तुरंत भले न दे पाए हों किंतु उन्होंने यह तो साबित कर दिया कि आपके हर दुख में सरकार आपके साथ खड़ी है। देश में माखौल बनते लोकतंत्र में यह कम सुखद सूचना नहीं है। यह साधारण नहीं है मुख्यमंत्री समेत राज्य की प्रथम श्रेणी की नौकरशाही भी सीधे खेतों में उतरी और संकट का आंकलन किया। यह भी साधारण नहीं कि मुख्यमंत्री ने इन दौरों से लौटे अफसरों से वन-टू-वन चर्चा की। इससे संकट के प्रति सरकार और उसके मुखिया की संवेदनशीलता का पता चलता है। अपने इसी कार्यकर्ताभाव और संपर्कशीलता से मुख्यमंत्री ने अपने राजनीतिक विरोधियों को मीलों पीछे छोड़ दिया है, वे चाहे उनके अपने दल में हों या कांग्रेस में। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह की इस लोकप्रियता को चमकते शहरों में ही नहीं गांवों की पगडंडियों में भी महसूस किया जा सकता है।
  यह उनकी समस्या के प्रति गहरी समझ और किसानों के प्रति संवेदनशीलता का ही परिचायक है कि वे अपनी सरकार की सीमाओं में रहकर सारे प्रयास करते हैं तो उन्हें विविध संचार माध्यमों से जनता को परिचित भी कराते हैं। वे यहीं रूकते। केंद्र की अपेक्षित उदारता न देखते हुए वे किसानों की इस आपदा से निपटने के लिए कर्ज लेने की योजना पर भी विचार करते हैं। किसी भी मुख्यमंत्री द्वारा किसानों के दर्द में इस प्रकार के फैसले लेना एक मिसाल ही है। किसी भी राजनेता के लिए यह बहुत आसान होता है कि वह केंद्र से अपेक्षित मदद न मिलने का रोना रोकर चीजों को टाल दे किंतु शिवराज इस क्षेत्र में आगे बढ़ते हुए दिखते हैं। यह बात खासे महत्व की है कि अपने मुख्यमंत्रित्व के दस साल पूरे होने पर भोपाल में एक भव्य समारोह का आयोजन मप्र भाजपा द्वारा किया जाना था। इस आयोजन को ताजा घटनाक्रमों के मद्देनजर रद्द करने की पहल भी स्वयं शिवराज सिंह ने की। उनका मानना है कि राज्य के किसान जब गहरे संकट के सामने हों तो ऐसे विशाल आयोजन की जरूरत नहीं है। ये छोटे-छोटे प्रतीकात्मक कदम भी राज्य के मुखिया की संवेदनशीलता को प्रकट करते हैं। यह बात बताती है किस तरह शिवराज सिंह चौहान ने राजसत्ता को सामाजिक सरोकारों से जोड़ने का काम किया है। चुनाव दर चुनाव की जीत ने उनमें दंभ नहीं भरा बल्कि उनमें वह विनम्रता भरी है जिनसे कोई भी राजनेता, लोकनेता बनने की ओर बढ़ता है।
  वैसे भी शिवराज सिंह चौहान किसानों के प्रति सदैव संवेदना से भरे रहे हैं। वे खुद को भी किसान परिवार का बताते हैं। कोई चार साल पहले मप्र में कृषि कैबिनेट का गठन किया। यह सरकार का एक ऐसा फोरम है जहां किसानों से जुड़े मुद्दों पर समग्र रूप से संवाद कर फैसले लिए जाते हैं। इस सबके बावजूद यह तो नहीं कहा जा सकता कि राज्य में किसानों की माली हालत में बहुत सुधार हुआ है। किंतु इतना तो मानना ही पड़ेगा राज्य में खेती का रकबा बढ़ा है, किसानों को पानी की सुविधा मिली है, पहले की अपेक्षा उन्हें अधिक समय तक बिजली मिल रही है। इस क्षेत्र में अभी भी बहुत कुछ किया जाना शेष है। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह खुद कहते हैं कि खेती को लाभ का धंधा बनाना है, जाहिर है इस दिशा में उन्हें और राज्य को अभी लंबी यात्रा तय करनी है।

शुक्रवार, 23 अक्तूबर 2015

प्रधानमंत्री की खामोशी के अर्थ-अनर्थ

-संजय द्विवेदी
 तय मानिए यह देश नरेंद्र मोदी को, मनमोहन सिंह की तरह व्यवहार करता हुआ सह नहीं सकता। पूर्व प्रधानमंत्री मजबूरी का मनोनयन थे, जबकि नरेंद्र मोदी देश की जनता का सीधा चुनाव हैं। कई मायनों में वे जनता के सीधे प्रतिनिधि हैं। जाहिर है उन पर देश की जनता अपना हक समझती है और हक इतना कि प्रधानमंत्री होने के बावजूद वे अपनी व्यस्तताओं के बीच भी हर छोटे-बड़े प्रसंग पर संवाद करें, बातचीत करें।
    यह संवाद और उसकी निरंतरता खुद नरेंद्र मोदी ने पैदा की है। वे अगर सोशल नेटवर्क पर अपनी अखंड और सक्रिय उपस्थिति से लोगों के दिलों तक पहुंचे हैं तो लोग भी उनसे ढेरों उम्मीदों से जुडे हैं। वे सही मायने में भारत में अद्भुत संवाद कौशल के धनी राजनेता हैं, इसलिए देश की छोटी-बड़ी घटनाओं पर उनकी खामोशी के अर्थ अगर पढे जा रहे हैं, तो इसमें नाजायज क्या है। उनके समर्थकों को भले लगता हो प्रधानमंत्री हर बात पर संवाद नहीं कर सकते। उनका हर चीज पर टिप्पणी करना क्यों जरूरी है? लेकिन अगर सरकार की छवि को बट्टा लगाने के सुनियोजित यत्न चल रहे हों। उप्र की घटनाओं को लेकर मोदी को जिम्मेदार माना जा रहा हो, कर्नाटक की हत्याओं का पाप वहां के मुख्यमंत्री के बजाए मोदी के सिर देने की कोशिशों हो रही हों और धारावाहिक रूप से साहित्यकार देश में बढ़ती असहिष्णुता से अचानक पीड़ित हो गए हों तो जी हां, प्रधानमंत्री को सामने आना चाहिए और कहना चाहिए कि वे इन घटनाओं से क्या समझते हैं।
     अपने खिलाफ हो रहे इस षडयंत्र को मोदी नहीं समझते ऐसा नहीं है। वे समझकर चुप हैं सवाल इसी पर है। जिस तरह की बातें चलाई और फैलाई जा रही हैं, उससे उनकी असहमति रही है, है और आगे भी रहेगी। पर ये चीजें एक सरकार और उसके मुखिया के माथे चिपकाई जा रही हैं। ऐसे में उनके बीके सिंह जैसे साथी भी अपने बयानों से नई आग लगाने का काम रहे हैं। जाहिर तौर पर शिवसैनिकों पर प्रधानमंत्री का नियंत्रण नहीं है, किंतु मंत्रिमंडल के सहयोगियों को संयमित बयान देने की सलाह वे दे सकते हैं। सलाह ऐसी हो जो आम जन को सुनाई दे। ऐसे समय में जबकि देश के राष्ट्रपति बहुत कम समय के अंतराल पर दो बार बढ़ती असहिष्णुता पर अपनी बात कह चुके हैं, हमारे सावधान होने का समय है। ऐसे में साधारण घटनाओं को मीडिया में मिल रही जगह और नकारात्मक चर्चाओं के नाते एक सक्षम सरकार और उसके प्रभावशाली नेतृत्व को भी चुनौती मिल रही है।
   जनता के मन में मोदी की छवि जो भी हो किंतु मीडिया और बुद्धिजीवियों के एक वर्ग द्वारा यह फैलाया जा रहा है कि सरकार अपने लोगों की रक्षा में विफल है। उप्र, कर्नाटक की घटनाओं पर जिस तरह का वातावरण बनाया गया और अंतराष्ट्रीय मीडिया में इसकी चर्चा हुयी, वह हैरत में डालने वाली बात है। भारत जैसे विशाल देश में कुछ घटनाओं के आधार पर इसके चरित्र की व्याख्या नहीं की जा सकती। किंतु इस प्रकार की घटनाएं न हों, इसके लिए सचेतन प्रयास किए जाने चाहिए। मीडिया की अतिसक्रियता के समय में जब हर बात राष्ट्रीय स्तर पर विमर्श का हिस्सा बन रही है, तब केंद्र सरकार और उनके सहयोगियों को विशेष संयम रखने की जरूरत है। प्रधानमंत्री स्वयं भी यह कह चुके हैं कि राष्ट्रपति ने जो कहा है वही उनकी सरकार का रास्ता है। यह आश्वासन भी साधारण नहीं है। लेकिन नरेंद्र मोदी को हर समय सावधान रहना है। उनके विरोधी इतने चपल, वाचाल और मीडिया के सक्रिय उपभोगकर्ता हैं कि उनके खिलाफ हर घटना का इस्तेमाल किया जाएगा। राज्यों में कानून व्यवस्था का सवाल राज्य सरकार के हाथ में होने के बावजूद वहां हो रही घटनाएं नरेंद्र मोदी के माथे मढ़ी जाएंगीं और मढ़ी जा रही हैं। निश्चित ही नरेंद्र मोदी और सरकार के मीडिया प्रबंधकों को ज्यादा सावधानी बरतने की जरूरत है। राजनीतिक मैदान में हारी हुयी ताकतें सांप्रदायिकता, लेखकीय स्वतंत्रता का सवाल उठाकर उन्हें घेरने की कोशिशें कर रही हैं।
   आप ध्यान दें, ये वही ताकतें हैं जो अखिलेश यादव से सवाल नहीं पूछतीं किंतु उन्हें नरेंद्र मोदी उनके निशाने पर हैं। ऐसे में चयनित दृष्टिकोण के आधार पर नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार पर हमले अभी और बढ़ेंगें। उनकी आलोचना का स्वर, षडयंत्र और तेज होगें। दिल्ली की गद्दी पर नरेंद्र मोदी के आने पर देश छोड़ने की धमकी वाली विचारधारा यह कैसे सह सकती है कि मोदी का राज निष्कंटक चले। उन पर हमले अभी और प्रखर होगें। तमाम ताकतें देश की सहिष्णुता, सांप्रदायिक सद्भाव को बिगाड़ने में लगी हैं। तमाम शक्तियां चाहती हैं कि देश में हिंसा, आतंक और रक्तपात का वातावरण बने। ये ताकतें आज सक्रिय भूमिका में हैं। ये दरअसल भारतद्वेषी शक्तियों की एक चाल है, जिसमें राजनीतिक दल भी शामिल हो जाते हैं।
    इस कठिन समय में देश का एजेंडा सद्भाव, एकता और भाईचारा होना चाहिए। हमें समझना होगा कि जब भारत उभरती हुयी विश्वशक्ति के नाते खड़ा हो रहा है। उसकी अर्थव्यवस्था में नए पंख लग रहे हैं, वैश्विक स्तर पर वह अपने खोए गौरव की वापसी के संघर्षरत है, ऐसे समय में देश को एक असुरक्षित जगह बताने से किसके हित सघ रहे हैं। कौन लोग हैं, जो इस देश को जो सदियों से सद्भाव के साथ रहता आया उसे हिंसक संघर्षों की जगह के रूप में चित्रित करना चाहते हैं। हरियाणा में दलितों के साथ अत्याचार हो या किसी व्यक्ति की हत्या वह इस देश का चरित्र नहीं है। हमें साथ रहकर ही आगे बढ़ना है। ऐसी घटनाओं के सबक यही हैं कि सरकार इसके बाद इतने कड़े कदम उठाएं कि सांप्रदायिक और जातिवादी शक्तियों की दुबारा ऐसे कामों को करने की हिम्मत न हो। यह देश सबका साझा है। कठिन समय में संयम और सबका साथ ही हमारी विरासत है।
    एक प्रभावशाली वक्ता और जननेता होने के नाते लोग मोदी की ओर उम्मीदों से देखते हैं। वे उनसे उम्मीद करते हैं कि वे सच को कहने का साहस दिखाएंगें। ऐसी शक्तियों को हाशिए लगाएंगें जो चयनित आधार पर लोगों को बांटने का काम रही हैं। यह गजब समय है कि लोग सर्वाधिक उम्मीद अपने राज्य के शासकों, स्थानीय पुलिस से करने के बजाए प्रधानमंत्री से कर रहे हैं। शायद यह प्रधानमंत्री मोदी के द्वारा अपने संभाषणों, सोशल नेटवर्क की सक्रियता से साधा गया संवाद ही है कि लोग हर छोटी-मोटी समस्या पर उनसे बातचीत की उम्मीद करते हैं। सही मायने में वे उम्मीदों के पहाड़ पर खड़े प्रधानमंत्री हैं, जिनसे हर जन की अपेक्षाएं जुड़ी हैं। यह अपेक्षाएं मोदी ने खुद पैदा की हैं, इसलिए किसी को यह कहने का हक नहीं है कि केंद्र सरकार हर चीज का जबाव नहीं दे सकती। मोदी का यह कनेक्ट ही आज उन पर भारी पड़ रहा है। जनता का अपार भरोसा रखने वाले राजनेता का व्यवहार क्या होना चाहिए, यह ट्रेंड भी खुद मोदी को ही तय करना है। उम्मीद है कि वे इस जिम्मेदारी और इससे जुड़ी भावना को समझकर मन की बात करेंगें।

(लेखक मीडिया विमर्श पत्रिका के कार्यकारी संपादक और राजनातिक विश्लेषक हैं) 

सोमवार, 19 अक्तूबर 2015

हिन्दी मीडिया के चर्चित चेहरों से मुलाकात कराती एक किताब

समीक्षकः लोकेंद्र सिंह

      
     हम जिन्हें प्रतिदिन न्यूज चैनल पर बहस करते-कराते देखते हैं। खबरें प्रस्तुत करते हुए देखते हैं। अखबारों और पत्रिकाओं में जिनके नाम से प्रकाशित खबरों और आलेखों को पढ़कर हमारा मानस बनता है। मीडिया गुरु और लेखक संजय द्विवेदी द्वारा संपादित किताब 'हिन्दी मीडिया के हीरो' पत्रकारिता के उन चेहरों और नामों को जानने-समझने का मौका उपलब्ध कराती है।
    किताब में देश के 101 मीडिया दिग्गजों की सफलता की कहानी है। किन परिस्थितियों में उन्होंने अपनी पत्रकारिता शुरू की? कैसे-कैसे सफलता की सीढिय़ां चढ़ते गए? उनका व्यक्तिगत जीवन कैसा है? टेलीविजन पर तेजतर्रार नजर आने वाले पत्रकार असल जिन्दगी में कैसे हैं? उनके बारे में दूसरे दिग्गज क्या सोचते हैं? ये ऐसे सवाल हैं, जिनका जवाब यह किताब देती है। किताब को पढ़ते वक्त आपको महसूस होगा कि आप अपने चहेते मीडिया हीरो को नजदीक से जान पा रहे हैं। यह किताब पत्रकारिता के छात्रों सहित उन तमाम युवाओं के लिए भी महत्वपूर्ण है जो आगे बढऩा चाहते हैं। पुस्तक में जमीन से आसमान तक पहुंचने की कई कहानियां हैं। पत्रकारों का संघर्ष प्रेरित करता है। पत्रकारिता के क्षेत्र में आ रहे युवाओं को यह भी समझने का अवसर किताब उपलब्ध कराती है कि मीडिया में डटे रहने के लिए कितनी तैयारी लगती है। इस तरह के शीर्षक से कोई सामग्री किताब में नहीं है, यह सब तो अनजाने और अनायस ही पत्रकारों के जीवन को पढ़ते हुए आपको जानने को मिलेगा।
       यह पुस्तक ऐसे समय में प्रकाशित होकर आई है जबकि मीडिया की चर्चा सब ओर है, नकारात्मक भी और सकारात्मक भी। मीडिया के संबंध में धारणा है कि वह लोकतंत्र में प्रतिपक्ष की भूमिका निभाता है। उसने पिछले कुछ समय से अपनी इस भूमिका के साथ काफी हद तक न्याय किया है। तमाम घोटालों को उजागर करने के लिए मीडिया की तारीफ हुई है। समाज से जुड़े मुद्दों पर बेबाकी से लिखा गया है। इस सबके बावजूद भी पत्रकारों पर रुपये लेकर खबर छापने-दिखाने के आरोप लग रहे हैं। खबरों को लेकर पक्षपाती होने के आरोप भी मीडिया के माथे आ रहे हैं। 'पैसा फेंको तमाशा देखो' यानी अर्थ के प्रभाव से मीडिया को मैनेज किया जा सकता है, यह भी आम धारणा बना दी गई है। सोशल मीडिया पर परम्परागत मीडिया का 'पोस्टमार्टम' किया जा रहा है। वातावरण ऐसा बना दिया गया है कि पत्रकारों को संदिग्ध नजर से भी देखा जाने लगा है। एक समय में बेहद आदर से देखे जाने वाले पत्रकारों से आज निष्ठुरता से पूछा जा रहा है कि 'ऊपर की कमाई' कितनी हो जाती है? मिशन के जमाने में पत्रकार संदिग्ध नहीं था। उसकी जेब भले ही खाली रहती थी लेकिन समाज का हौसला उसकी कलम को धार देता रहता था। पत्रकारिता आदर्श थी। यह आदर्श आज भी बाकी है। आज भी कई पत्रकार सिद्धांतों की लकीर से इधर-उधर नहीं होते हैं। पत्रकारों की प्रतिष्ठा कुछ कम हो रही है तब पत्रकारों को हीरो की तरह स्थापित करने का काम यह किताब करती है। पत्रकारों के जीवन पर इससे पहले भी कई किताबें आई हैं। उनमें से अधिकतर किताबें एक-एक पत्रकार पर समग्रता से सामग्री प्रस्तुत करती हैं। लेकिन, 'हिन्दी मीडिया के हीरो' की विशेषता है कि यह एक बार में अनेक लोगों के बारे में जानकारी देती है। हम इसे 'बंच ऑफ जर्नलिस्ट प्रोफाइल' यानी पत्रकारों के जीवन का गुलदस्ता भी कह सकते हैं। आलोचना की दृष्टि से देखें तो इसमें दूरदराज के कई अच्छे पत्रकारों के नाम शामिल किये जा सकते थे, जो चमक-धमक से दूर खांटी पत्रकारिता कर रहे हैं।
   इस बात पर भी बहस की गुंजाइश है कि 101 में शामिल कितने पत्रकार आदर्श हैं? यह सूची 101 पत्रकारों की ही क्यों है? कम या ज्यादा क्यों नहीं? हालांकि, इन सबके जवाब संपादक संजय द्विवेदी ने अपनी भूमिका में दिए हैं। फिर भी असहमतियां तो बनी ही रहती हैं। संपादक का कहना है कि किताब में जितने भी पत्रकारों के प्रोफाइल को शामिल किया गया है, मौजूदा वक्त में वे देश भर में हिन्दी मीडिया के चेहरे हैं। देश उनके बारे में जानना चाहता है। हीरो शब्द पर विवाद की संभावना अधिक है। इसलिए उन्होंने 'हीरो' शब्द के उपयोग को भी स्पष्ट किया है। वे कहते हैं कि आदर्श अलग चीज है और हीरो अलग। वे मानते हैं कि किताब में आए कई नाम हिन्दी पत्रकारिता के आदर्श नहीं हैं। इसलिए उन्होंने पुस्तक को 'हिंदी मीडिया के हीरो' नाम दिया है, 'हिन्दी पत्रकारिता के आदर्श' नहीं। श्री द्विवेदी लिखते हैं कि हीरो वे हैं जो हिन्दी पत्रकारिता के नाम पर जाने-पहचाने जाते हैं। हीरो का मतलब विलेन भी होता है। जैसे डर फिल्म में शाहरुख खान हीरो होते हुए भी विलेन का काम करता है। बहरहाल, इन 101 नामों को चयन करने वाले निर्णायक मंडल में मीडिया के ऐसे दिग्गज शामिल हैं, जिन्होंने बेदाग रहते हुए पत्रकारिता में काफी लम्बा सफर तय किया है।  

पुस्तक      : हिन्दी मीडिया के हीरो
संपादक     : संजय द्विवेदी
मूल्य         : 695 रुपये (साजिल्द)
पृष्ठ संख्या            : 227
प्रकाशक    : यश पब्लिकेशंस
                   1/11848 पंचशील गार्डन, नवीन शाहदरा,

                   दिल्ली-110032

शुक्रवार, 16 अक्तूबर 2015

लिखिए जोर से लिखिए, किसने रोका है भाई!

-संजय द्विवेदी

   देश में बढ़ती तथाकथित सांप्रदायिकता से संतप्त बुद्धिजीवियों और लेखकों द्वारा साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटाने का सिलसिला वास्तव में प्रभावित करने वाला है। यह कितना सुंदर है कि एक लेखक अपने समाज के प्रति कितना संवेदनशील है, कि वह यहां घट रही घटनाओं से उद्वेलित होकर अपने सम्मान लौटा रहा है। कुछ ने तो चेक भी वापस किए हैं। सामान्य घटनाओं पर यह संवेदनशीलता और उद्वेलन सच में भावविह्वल करने वाला है।
    सही मायने में देश के इतिहास में यह पहली घटना है, जब पुरस्कारों को लौटाने का सिलसिला इतना लंबा चला है। बावजूद इसके लेखकों की यह संवेदनशीलता सवालों के दायरे में है। यह संवेदना सराही जाती अगर इसके इरादे राजनीतिक न होते। कर्नाटक और उत्तर प्रदेश जहां भाजपा की सरकार नहीं है के पाप भी नरेंद्र मोदी के सिर थोपने की हड़बड़ी न होती,तो यह संवेदना सच में सराही जाती। सांप्रदायिकता को लेकर चयनित दृष्टिकोण रखने और प्रकट करने का पाप लेखक कर रहे हैं। उन्हें यह स्वीकार्य नहीं कि जिस नरेंद्र मोदी को कोस-कोसकर, लिख-लिखकर, बोल-बोलकर वे थक गए, उन्हें देश की जनता ने अपना प्रधानमंत्री स्वीकार कर लिया। यह कैसा लोकतांत्रिक स्वभाव है कि जनता भले मोदी को पूर्ण बहुमत से दिल्लीपति बना दे, किंतु आप उन्हें अपना प्रधानमंत्री मानने में संकोच से भरे हुए हैं।
    देश में सांप्रदायिक दंगों और सांप्रदायिक हिंसा का इतिहास बहुत लंबा है किंतु इस पूरे लेखक समूह को गोधरा और उसके बाद के गुजरात दंगों के अलावा कुछ भी याद नहीं आता। विस्मृति का संसार इतना व्यापक है कि इंदिरा जी हत्या के बाद हुए सिखों के खिलाफ सुनियोजित दंगें भी इन्हें याद नहीं हैं। मलियाना और भागलपुर तो भूल ही जाइए। जहां मोदी है, वहीं इन्हें सारी अराजकता और हिंसा दिखती है। कुछ अखबारों के कार्टून कई दिनों तक मोदी को ही समर्पित दिखते हैं। ये अखबारी कार्टून समस्या केंद्रित न होकर व्यक्तिकेंद्रित ही दिखते हैं। उप्र में दादरी के बेहद दुखद प्रसंग पर समाजवादी पार्टी और उसके मुख्यमंत्री को कोसने के बजाए नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार की आलोचना कहां से उचित है? क्या नरेंद्र मोदी को घेरने के लिए हमारे बुद्धिजीवियों के पास मुद्दों का अकाल है? इस नियम से तो गोधरा दंगों के समय इन साहित्यकारों को नरेंद्र मोदी के बजाए प्रधानमंत्री से इस्तीफा मांगना चाहिए था, लेकिन उस समय मोदी उनके निशाने पर थे। किंतु अखिलेश यादव और कर्नाटक के मुख्यमंत्री हिंसा को न रोक पाने के बावजूद लेखकों के निशाने पर नहीं हैं। उन्हें इतनी राहत इसलिए कि वे सौभाग्य से भाजपाई मुख्यमंत्री नहीं हैं और सेकुलर सूरमाओं के साथ उनके रक्त संबंध हैं। ऐसे आचरण, बयानों और कृत्यों से लेखकों की स्वयं की प्रतिष्ठा कम हो रही है।
   हमारे संघीय ढांचे को समझे बिना किसी भी ऐरे-गैरे के बयान को लेकर नरेंद्र मोदी की आलोचना कहां तक उचित है? औवेसी से लेकर साध्वी प्राची के विवादित बोल का जिम्मेदार नरेंद्र मोदी को ठहराया जाता है जबकि इनका मोदी से क्या लेना देना? लेकिन तथाकथित सेकुलर दलों के मंत्री और पार्टी पदाधिकारी भी कोई बकवास करें तो उस पर किसी लेखक को दर्द नहीं होता। क्या ही अच्छा होता कि ये लेखक उस समय भी आगे आए होते जब कश्मीर में कश्मीरी पंडितों पर बर्बर अत्याचार और उनकी हत्याएं हुयीं। उस समय इन महान लेखकों की संवेदना कहां खो गयी थी, जब लाखों कश्मीरी पंडितों को अपने ही वतन में विस्थापित होना पड़ा। नक्सलियों पर पुलिस दमन पर टेसुए बहाने वाली यह संवेदना तब सुप्त क्यों पड़ जाती है, जब हमारा कोई जवान माओवादी आतंक का शिकार होता है। जनजातियों पर बर्बर अत्याचार और उनकी हत्याएं करने वाले माओवादी इन बुद्धिजीवियों की निगाह में बंदूकधारी गांधीवादी हैं। कम्युनिस्ट देशों में दमन, अत्याचार और मानवाधिकारों को जूते तले रौंदनेवाले समाजवादियों का भारतीय लोकतंत्र में दम घुट रहा है, क्योंकि यहां हर छोटी- बड़ी घटना के लिए आप बिना तथ्य के सीधे प्रधानमंत्री को लांछित कर सकते हैं और उनके खिलाफ अभियान चला सकते हैं।
    दरअसल ये वे लोग हैं जिनसे नरेंद्र मोदी का प्रधानमंत्री बनना हजम नहीं हो रहा है। ये भारतीय जनता के विवेक पर सवाल उठाने वाले अलोकतांत्रिक लोग हैं। ये उसी मानसिकता के लोग हैं, जो नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने पर देश छोड़ देने की धमकियां दे रहे थे। सही मायने में ये ऐसे लेखक हैं जिन्हें जनता के मनोविज्ञान, उसके सपनों और आकांक्षाओं की समझ ही नहीं है। वैसे भी ये लेखक भारत में रहना ही कहां चाहते हैं? भारतद्वेष इनकी जीवनशैली, वाणी और व्यवहार में दिखता है। भारत की जमीन और उसकी खूशबू का अहसास उन्हें कहां है? ये तो अपने ही बनाए और रचे स्वर्ग में रहते हैं। जनता के दुख-दर्द से उनका वास्ता क्या है? शायद इसीलिए हमारे दौर में ऐसे लेखकों का घोर अभाव है, जो जनता के बीच पढ़े और सराहे जा रहे हों। क्योंकि जनता से उनका रिश्ता कट चुका है। वे संवाद के तल पर हार चुके हैं। एक खास भाषा और खास वर्ग को समर्पित उनका लेखन दरअसल इस देश की माटी से कट चुका है।
   साहित्य अकादमी दरअसल लेखकों की स्वायत्त संस्था है। एक बेहद लोकतांत्रिक तरीके से उसके पदाधिकारियों का चयन होता है। पुरस्कार भी लेखक मिल कर तय करते हैं। पं. जवाहरलाल नेहरू जैसे लोग इस संस्था के अध्यक्ष रहे। आज डा. विश्वनाथ प्रसाद तिवारी इसके अध्यक्ष हैं। वे पहले हिंदी लेखक हैं, जिन्हें अध्यक्ष बनने का सौभाग्य मिला। ऐसे में इस संस्था के द्वारा दिए गए पुरस्कारों पर सवाल उठाना कहां का न्याय है? लेखकों की,लेखकों के द्वारा, चुनी गयी संस्था का विरोध बेमतलब ही कहा जाएगा। अगर यह न भी हो तो सरकार द्वारा सीधे दिए गए अलंकरणों, सम्मानों, पुरस्कारों और सुविधाओं को लौटाने का क्या औचित्य है? यह सरकार हमारी है और हमारे द्वारा दिए गए टैक्स से ही चलती है। कोई सरकार किसी लेखक को कोई सुविधा या सम्मान अपनी जेब से नहीं देती। यह सब जनता के द्वारा दिए गए धन से संचालित होता है। ऐसे में साहित्यकारों द्वारा पुरस्कार लेकर लौटाना जनता का ही अपमान है। जनता के द्वारा दिए गए जनादेश से चुने गए प्रधानमंत्री की उपस्थिति अगर आपसे बर्दाश्त नहीं हो रही है तो सड़कों पर आईए। अपना विरोध जताइए, किंतु वितंडावाद खड़ा करने से लेखकों की स्थिति हास्यापद ही बनी रहेगी। आज यह भी आवाज उठ रही है कि क्या ये लेखक सरकारों द्वारा दी गयी अन्य सुविधा जैसे मकान या जमीन जैसी सुविधाएं वापस करेंगें। जाहिर है ये सवाल बेमतलब हैं,लंबे समय तक सरकारी सुविधाओं और सुखों को भोगना वाला समाज अचानक क्रांतिकारी नहीं हो सकता।
    सुविधा और अवसर के आधार पर चलने वाले लोग हमेशा हंसी का पात्र ही बनते हैं। अपनी संस्थाओं, अपने प्रधानमंत्री, अपने देश और अपनी जमीन को लांछित कर आप खुद सवालों के घेरे में हैं। जब आप एक बड़ी राजनीतिक लड़ाई हार चुके हैं, तो लेखकों को आगे कर यह जंग नहीं जीती जा सकती। राजनीतिक दलों की हताशा समझी जा सकती है, किंतु लेखकों का यह व्यवहार समझ से परे है। राजनीतिक निष्ठा एक अलग चीज है किंतु एक लेखक और बुद्धिजीवी होने के नाते आपसे असाधारण व्यवहार की उम्मीद की जाती है। आशा की जाती है कि आप हो रहे परिवर्तनों को समझकर आचरण करेंगें। देश की जनता के दुख-दर्द का चयनित आधार पर विश्लेषण नहीं हो सकता। नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार के कामों पर सवाल खड़े करिए। संघर्ष के लिए आगे आइए किंतु लोगों को गुमराह मत कीजिए। यह नकली और झूठी बात है कि इस देश में तानाशाही या आपातकाल के हालात हैं। जिन्होंने आपातकाल देखा है उनसे पूछिए कि आपातकाल क्या होता है? जिस समय में हर छोटा-बड़ा मुंह खोलते ही प्रधानमंत्री को बुरा-भला कह रहा है, क्या वहां तानाशाही है? ऐसे झूठ और भ्रम फैलाकर देश में तनाव मत पैदा कीजिए। आपातकाल में आप सब कहां थे, जब देश के तमाम लेखक-पत्रकार कालकोठरी में डाल दिए गए थे? जो देश इंदिरा गांधी की तानाशाही से नहीं डरा, उसे मत डराइए। हिम्मत से लिखिए और लिखने दीजिए। पुरस्कारों, पदों, सम्मानों और लोभ-लाभ के चक्कर में मत पड़िए। अफसरों और नेताओं के तलवे मत चाटिए। लिखिए जोर से लिखिए, बोलिए जोर से बोलिए, किसने रोका है भाई।
(लेखक मीडिया विमर्श पत्रिका के कार्यकारी संपादक और राजनीतिक विश्लेषक हैं)