सोमवार, 27 अक्तूबर 2014

क्या आप इस नरेंद्र मोदी को जानते थे !

-संजय द्विवेदी

  एक हफ्ते में मीडिया और एनडीए सांसदों से संवाद करके प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उस प्रचार की भी हवा निकालने की कोशिश की है कि वे संवाद नहीं करते या बातचीत से भागना चाहते हैं। एक अधिनायकवादी फ्रेम में उन्हें जकड़ने की कोशिशें उनके विरोधी करते रहे हैं और नरेंद्र मोदी हर बार उन्हें गलत साबित करते रहे हैं। लक्ष्य को लेकर उनका समर्पण, काम को लेकर दीवानगी उन्हें एक वर्कोहलिक मनुष्य के नाते स्थापित करती है। काम करने वाला ही उनके आसपास ठहर सकता है। एक वातावरण जो ठहराव का था, आराम से काम करने की सरकारी शैली का था, उसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने तोड़ने की कोशिश की है। सरकार भी आराम की नहीं, काम की चीज हो सकती है, यह वे स्थापित करना चाहते हैं।
  वे जानते हैं कि नए समय की चुनौतियों विकराल हैं। ऐसे में लिजलिजेपन,अकर्मण्यता या सिर्फ नारों और हुंकारों से काम नहीं चल सकता। वे भारत की जनाकांक्षाओं को समझने की निरंतर कोशिश कर रहे हैं और यही आग अपने मंत्रियों और सांसदों में फूंकना चाहते हैं। इसलिए बड़े लक्ष्यों के साथ, छोटे लक्ष्य भी रख रहे हैं। जैसे सांसदों से उन्होंने एक गांव गोद लेने का आग्रह किया है। समाज के हर वर्ग से सफाई अभियान में जुटने का वादा मांगा है। ये बातें बताती हैं कि वे सरकार के भरोसे बैठने के बजाए लोकतंत्र को जनभागीदारी से सार्थक करना चाहते हैं। नरेंद्र मोदी को पता है कि जनता ने उन्हें यूं ही बहुमत देकर राजसत्ता नहीं दी है। यह सत्ता का स्थानांतरण मात्र नहीं है। यह राजनीतिक शैली, व्यवस्था और परंपरा का भी स्थानांतरण है। एक खास शैली की राजनीति से उबी हुयी जनता की यह प्रतिक्रिया थी, जिसने मोदी को कांटों का ताज पहनाया है। इसलिए वे न आराम कर रहे हैं, न करने दे रहे हैं। उन्हें पता है कि आराम के मायने क्या होते हैं। आखिर दस साल की नेतृत्वहीनता के बाद वे अगर सक्रियता, सौजन्यता और सहभाग की बातें कर पा रहे  हैं तो यह जनादेश उनके साथ संयुक्त है। उन्हें जनादेश शासन करने भर के लिए नहीं, बदलाव लाने के लिए भी मिला है। इसलिए वे ठहरे हुए पानी को मथ रहे हैं। इसे आप समुद्र मंथन भी कह सकते हैं। इसमें अमृत और विष दोनों निकल रहे हैं। इस अमृत पर अधिकार कर्मठ लोगों, सजग देशवासियों को मिले यह उनकी चिंता के केंद्र में है। एक साधारण परिवेश से असाधारण परिस्थितियों को पार करते हुए उनका सात-रेसकोर्स रोड तक पहुंच जाना बहुत आसान बात नहीं है। नियति और भाग्य को मानने वाले भी मानेंगें कि उन्हें किसी खास कारण ने वहां तक पहुंचाया है। यानि उनका दिल्ली आना एक असाधारण घटना है। मनमोहन सिंह की दूसरी पारी की सरकार का हर मोर्चे पर विफल होना, देश में निराशा का एक घना अंधकार भर जाना, ऐसे में भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलनों से पूरे देश में एक आलोड़न और बदलाव की आग का फैल जाना, तब मोदी का अवतरण और जनता का उनके साथ आना यह घटनाएं बताती हैं कि कैसे चीजें बदलती और आकार लेती हैं। राजनीति की साधारण समझ रखने वाले भी इन घटनाओं और प्रसंगों को जोड़कर एक कोलाज बना सकते हैं। यानि वे उम्मीदों का चेहरा हैं, आशाओं का चेहरा हैं और समस्याओं का समाधान करने वाले नायक सरीखे दिखते हैं। नरेंद्र मोदी में इतिहास के इस मोड़ पर महानायक बन जाने की संभावना भी छिपी हुयी है। आप देखें चुनावों के बाद वे किस तरह एक देश के नेता के नाते व्यवहार कर रहे हैं। चुनावों तक वे गुजरात और उसकी कहानियों में उलझे थे। अब वे एक नई लकीर खींच रहे हैं। गुजरात तक की उनकी यात्रा में सरदार पटेल की छवि साथ थी, अब वे महात्मा गांधी, पंडित नेहरू और इंदिराजी की याद ही नहीं कर रहे हैं। उनकी सरकार तो गजल गायिका बेगम अख्तर की जन्मशताब्दी मनाने भी जा रही है।  एक देश के नेता की देहभाषा, उसका संस्कार, वाणी,  सारा कुछ मोदी ने अंगीकार किया है।

   अपनी छवि के विपरीत अब वे लोगों को साधारण बातों का श्रेय दे रहे हैं। जैसे देश के विकास के लिए वे सभी पूर्व प्रधानमंत्रियों को श्रेय देते हैं, स्वच्छता अभियान के उनके प्रयासों में शामिल मीडिया के लोगों, लेखकों से लेकर कांग्रेस सांसद शशि थरूर को श्रेय देना वे नहीं भूलते। वे अपने सांसदों और अपनी सरकार को अपने सपनों से जोड़ना चाहते हैं। आखिर इसमें गलत क्या है? सरकार कैसे चल रही है, इसे जानने का हक देश की जनता और सांसदों दोनों को है। दीवाली मिलन के बहाने इसलिए प्रमुख मंत्री, राजग के सांसदों को सामने प्रस्तुति देते हैं। यह घटनाएं नई भले हों पर संकेतक हैं कि प्रधानमंत्री चाहते क्या हैं। दीपावली मिलन पर मीडिया से संवाद से वे भाजपा के केंद्रीय कार्यालय में करते हैं, इसका भी एक संदेश है। वे चाहते तो मीडिया को सात रेसकोर्स भी बुला सकते थे। किंतु वे बताना चाहते हैं कि संगठन क्या है और उसकी जरूरतें अभी और कभी भी उन्हें पड़ेगी। अमित शाह के रूप में दल को एक ऐसा अध्यक्ष मिला है जो न सिर्फ सपने देखना जानता है बल्कि उन्हें उसमें रंग भरना भी आता है। उत्तर प्रदेश से लेकर महाराष्ट्र और हरियाणा की कहानियां बताती हैं कि वे कैसे रणनीति को जमीन पर उतारना जानते हैं। नरेंद्र मोदी और अमित शाह  का लंबा साथ रहा है। सत्ता और संगठन की यह जुगलबंदी सफलता की अनेक कथाएं रचने को उत्सुक हैं। भाजपा का पीढ़ीगत परिवर्तन का कार्यक्रम न सिर्फ सफल रहा बल्कि समय पर परिणाम देता हुआ भी दिख रहा है। देखना है कि सत्ता के मोर्चे पर प्रारंभ में उम्मीदों का नया क्षितिज बना रहे मोदी आने वाले समय में देश को परिणामों के रूप में क्या दे पाते हैं? देश की जनता उन्हें जहां उम्मीदों से देख रही है, वहीं उनके विरोधी चौकस तरीके से उनके प्रत्येक कदम पर नजर रखे हुए हैं। दरअसल यही लोकतंत्र का सौंदर्य है और उसकी ताकत भी। सच तो यह है कि आज देश में नरेंद्र मोदी के कट्टर आलोचक रहे लोग भी भौचक होकर उनकी तरफ देख रहे हैं। उनकी कार्यशैली और अंदाज की आलोचना के लिए उनको मुद्दे नहीं मिल रहे हैं। लोकसभा चुनावों के पूर्व हो रहे विश्लेषणों, अखबारों में छप रहे लेखों को याद कीजिए। क्या उसमें मोदी का आज का अक्स दिखता था। उनकी आलोचना के सारे तीर आज व्यर्थ साबित हो रहे हैं। उन्हें जो-जो कहा गया वो वैसे कहां दिख रहे हैं। गुजरात के चश्मे से मोदी को देखने वालों को एक नए चश्मे से उन्हें देखना होगा। यह नया मोदी है जो श्रीनगर जाने के लिए दिल्ली से निकलता है तो सियाचिन में सैनिकों के बीच दिखता है। यह वो प्रधानमंत्री है जो दीवाली का त्यौहार दिल्ली या अहमदाबाद में नहीं, श्रीनगर में बाढ़ पीड़ितों के बीच मनाता है। मोदी की इस चौंकाऊ राजनीतिक शैली पर आप क्या कह सकते हैं। वे सही मायने में देश में राष्ट्रवाद को पुर्नपरिभाषित कर रहे हैं। वे ही हैं जो लोगों के दिल में उतर कर उनकी ही बात कर रहे हैं। देश ने पिछले 12 सालों में मीडिया के माध्यम जिस नरेंद्र मोदी को जाना और समझा अब वही देश एक नए नरेंद्र मोदी को देखकर मुग्ध है। दरअसल मोदी वही हैं नजरिया और जगहें बदल गयी हैं। उनकी राजनीतिक सफलताओं ने सारे गणित बदल दिए हैं।  राजनीतिक विरोधियों की इस बेबसी पर आप मुस्करा सकते हैं। भारतीय राजनीति सही मायने में एक नए दौर में प्रवेश कर चुकी है, इसके फलितार्थ क्या होंगें कह पाना कठिन है किंतु देश तेजी से दो ध्रुवीय राजनीति की ओर बढ़ रहा है इसमें दो राय नहीं है। संकट यह है कि कांग्रेस राजनीति का दूसरा ध्रुव बनने की महात्वाकांक्षा से आज भी खाली है।

रविवार, 19 अक्तूबर 2014

मोदीमय भारत या कांग्रेसमुक्त भारत!

-संजय द्विवेदी

 भारतीय राजनीति का यह मोदी समय है। हर तरफ मोदी। चारो तरफ मोदी। भाजपा में मोदी, कांग्रेस में भी मोदी। आप मोदी को नकारें या स्वीकारें उन्हें इग्नोर नहीं कर सकते। नरेंद्र मोदी भारतीय राजनीति की एक ऐसी परिघटना हैं जिसने लंबे समय के बाद व्यक्तित्व के जादू या करिश्मे का अहसास देश को कराया है। कांग्रेस की परंपरा में पंडित जवाहरलाल नेहरू का ऐसा ही करिश्मा और व्यक्तित्व रहा है, इंदिरा जी उससे कम, किंतु करिश्माई नेत्री रहीं। वहीं अपने विचार परिवार और भारतीय विपक्ष की पूरी परंपरा में नरेंद्र मोदी सबसे करिश्माई नेता बनकर उभरे हैं। यहां तक कि चुनावी सफलताओं के मामले में वे अपने दल के सबसे बडे नेता श्री अटल बिहारी वाजपेयी से भी आगे जाते हुए दिख रहे हैं। भारत की जनसंघ और भाजपा की राजनीतिक धारा का यह सही मायने में स्वर्णयुग है। इसने भारतीय राजनीति के सबसे पुराने दल (कांग्रेस) को लगभग अप्रासंगिक कर दिया है। मैदान में लड़ाईयां भाजपा और क्षेत्रीय दलों में हो रही हैं। कांग्रेस यहां लड़ाई से भी बाहर दिखती है।
   हरियाणा में अपने दम पर सरकार बनाती हुई भाजपा कोई साधारण घटना नहीं है। यह राजनीति का एकदम से बदल जाना है। धारा के विरूद्ध एक सफलता है, जबकि उनके सहयोगी रहे दल हरियाणा जनहित कांग्रेस से लेकर अकाली दल तक यहां भाजपा का विरोध करते दिखते हैं। निश्चय ही नरेंद्र मोदी और भाजपा के नए अध्यक्ष अमित शाह के आत्मविश्वास ने भी इन परिणामों को इस रूप में व्यक्त किया है। आत्मविश्वास से भरी भाजपा आज हर मैदान में अकेले दम पर उतर कर भी बेहतर परिणाम ला रही है। महाराष्ट्र में जहां शिवसेना उसे 120 सीटें से अधिक एक भी सीट देने को तैयार नहीं थी, अब वहा भाजपा बड़े भाई की भूमिका में आ गयी है। एक तरह से यह समय क्षेत्रीय दलों के सिमटने का भी समय है। एक अखिलभारतीय पार्टी को मिलती जनस्वीकृति सुखद है किंतु कांग्रेस की बदहाली चिंता में डालती है। हाल के चुनाव परिणामों में क्षेत्रीय दलों की ताकत सिमट रही है, किंतु कांग्रेस की ताकत नहीं बढ़ रही है। जबकि देश में राष्ट्रीय दल के नाते कांग्रेस और भाजपा दोनों का ताकतवर होना जरूरी है। आप देखें तो हरियाणा में इंडियन नेशनल लोकदल प्रमुख विपक्ष बनकर उभरी है तो महाराष्ट्र में शिवसेना और एनसीपी कांग्रेस से ज्यादा ताकतवर दिखते हैं। यह बात बताती है कांग्रेस मुक्त भारत का मोदी का नारा सच होता नजर आ रहा है। इन झटकों के बावजूद कांग्रेस के आलाकमान और उसके तंत्र में कोई हलचल होती नहीं दिखती। वे अभी भी अपनी परंपरागत शैली और आरामतलबी में डूबे हैं। कुछ उत्साही प्रियंका लाओ के नारे भी लगा रहे हैं। किंतु यह संकट को अतिसरलीकृत करके देखना है। आज कांग्रेस संगठन विचारशून्यता का एक ऐसा केंद्र बन गया है जहां गांधी परिवार का कोई भी चेहरा उसे चुनावी वैतरणी पार नहीं करवा सकता। शायद इसे ही समय कहते हैं।
  पिछले दिनों उप्र और कुछ अन्य राज्यों के उपचुनावों में प्रतिपक्ष को मिली हल्की-फुल्की सफलताओं से राजनीतिक विश्लेषकों ने मोदी लहर के खात्मे की भविष्यवाणी कर दी थी किंतु अब दो राज्यों के परिणाम बताते हैं भाजपा और नरेंद्र मोदी का जादू अभी टूटा नहीं हैं। वे आज भी देश की ज्यादातर जनता की आकांक्षाओं और सपनों का चेहरा हैं। वे राजनीतिक पटल पर उभरे एक ऐसे राजनेता हैं, जिनसे लोगों की उम्मीदें कायम हैं। उन्हें इस दिशा में बहुत कुछ करना शेष है, किंतु जनता का भरोसा मोदी में निरंतर है। अपने कठिन परिश्रम और लगातार चुनाव सभाओं से उन्होंने महाराष्ट्र और हरियाणा में ऐसा वातावरण बना दिया जिससे भाजपा लड़ाई के केंद्र में आ गई। आप कल्पना करें कि महाराष्ट्र में बिना गठबंधन के भाजपा-शिवसेना का प्रदर्शन इतना श्रेष्ठ है तो गठबंधन कर लड़े होते तो शायद प्रतिपक्ष को काफी हानि उठानी पड़ती। दोनों का गठबंधन लहर के बजाए सुनामी बन जाता। सुनामीशब्द का उपयोग अमित शाह पिछले लोकसभा चुनाव में करते रहे। गठबंधन को तोड़कर भी शिवसेना- भाजपा एक स्वाभाविक सहयोगी हैं। वे विचारधारा के स्तर पर ही नहीं संगठनात्मक स्तर पर भी काफी करीब हैं। यह साधारण नहीं है कि गठबंधन की टूट के राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने ठीक नहीं ठहराया था। किंतु एक बार की दोस्ताना जंग ने बहुत कुछ साफ कर दिया है और हालात ऐसे बना दिए हैं दोनों दलों का साथ आना तय हो गया है। यह वैसे भी तय था क्योंकि शिवसेना ने रिश्तों के बिगड़ने के बावजूद केंद्र से अपने मंत्री का इस्तीफा नहीं लिया था। अब बनने वाली सरकार दरअसल उम्मीदों के पहाड़ पर खड़ी सरकार होगी। प्रधानमंत्री मोदी की वाणी पर भरोसा कर दोनों राज्यों की जनता ने भाजपा को सर्वाधिक समर्थन देकर अपना अभिप्राय प्रकट कर दिया है। हरियाणा और महाराष्ट्र में लंबे समय से कांग्रेस सत्ता में रही है अब जबकि 1995 के बाद एक अरसे बाद महाराष्ट्र में भाजपा-शिवसेना की सरकार बनने जा रही है तो वह एक बेहतर शासन देने के वादे पर ही स्वीकार्य हुयी है। जनादेश स्पष्ट तौर पर भाजपा-शिवसेना के पक्ष में है। इसलिए इस जनादेश की भावना समझना और उस अनुरूप आचरण करना दोनों दलों की जिम्मेदारी है।
   भाजपा-शिवसेना के लिए यह अवसर एक चुनौती भी है कि वे महाराष्ट्र की पटरी से उतरती गाड़ी को पुनः ट्रेक पर लाएं। इसी तरह विकसित राज्य होने के बावजूद हरियाणा ने पिछले दस सालों में अलग तरह की चुनौतियों का सामना किया है। हुडडा की सरकार से लोगों का काफी शिकायतें रही हैं। बेरोजगारी के अलावा तमाम सामाजिक संकट हरियाणा के सामने खड़े हैं। इसमें जमीनों और कृषि से जुड़ी समस्याएं भी हैं। इन सबसे जूझते हुए सुशासन और अनुशासन दोनों प्रदान करना नई सरकार की जिम्मेदारी है।

     दो राज्यों के चुनाव परिणामों ने एक दल के रूप में भाजपा की जिम्मेदारियां बहुत बढ़ा दी हैं। अब सुशासन और विकास के सपनों में रंग भरने की जिम्मेदारी उसकी ही है। एक रणनीतिकार के तौर पर अमित शाह का भाजपा की केंद्रीय राजनीति में आगमन उसके लिए शुभ साबित हुआ है। वे फैसले लेने वाले और उस पर अमल करवा ले जाने वाले नेता के तौर पर पहचान बना रहे हैं। भाजपा के संगठन को अरसे से एक ऐसे नायक की तलाश थी। लालकृष्ण आडवानी के बाद वे शायद वे पहले ऐसे अध्यक्ष हैं जिसका इकबाल इस तरह कायम हुआ है। वे सही मायने में संगठन की समझ और उसके निर्णयों को लेकर काफी सचेत दिखते हैं। दल के सार्वजनिक चेहरे के रूप में नरेंद्र मोदी इसमें एक निधि की तरह हैं। बहुत दिनों के बाद भाजपा में अटल-आडवानी के विकल्प की तरह एक जोड़ी मोदी-शाह के रूप में ख्यात हो सकती है। देखना है अटल-आडवानी के युग के समापन के बाद आई यह जोड़ी पार्टी और सरकार को कैसे और कितनी दूर तक ले जाती है। फिलहाल तो इस जीत पर मुग्ध भाजपाईयों को दीवाली की शुभकामनाएं ही दी जा सकती हैं। दीवाली और जीत का खुमार उतरे तो उन्हें भी डटकर काम में लगना होगा, आखिर देश की जनता भी तो यही चाहती है और उनके नेता नरेंद्र मोदी भी।

बुधवार, 1 अक्तूबर 2014

अंधेरों की चीरती शब्दों की रौशनी – हिन्द स्वराज्य

-संजय द्विवेदी



  महात्मा गांधी की मूलतः गुजराती में लिखी पुस्तक हिन्द स्वराज्य  हमारे समय के तमाम सवालों से जूझती है। महात्मा गांधी की यह बहुत छोटी सी पुस्तिका कई सवाल उठाती है और अपने समय के सवालों के वाजिब उत्तरों की तलाश भी करती है। सबसे महत्व की बात है कि पुस्तक की शैली। यह किताब प्रश्नोत्तर की शैली में लिखी गयी है। पाठक और संपादक के सवाल-जवाब के माध्यम से पूरी पुस्तक एक ऐसी लेखन शैली का प्रमाण जिसे कोई भी पाठक बेहद रूचि से पढ़ना चाहेगा। यह पूरा संवाद महात्मा गांधी ने लंदन से दक्षिण अफ्रीका लौटते हुए लिखा था। 1909 में लिखी गयी यह किताब मूलतः यांत्रिक प्रगति और सभ्यता के पश्चिमी पैमानों पर एक तरह हल्लाबोल है। गांधी इस कल्पित संवाद के माध्यम से एक ऐसी सभ्यता और विकास के ऐसे प्रतीकों की तलाश करते हैं जिनसे आज की विकास की कल्पनाएं बेमानी साबित हो जाती हैं।
गांधी इस मामले में बहुत साफ थे कि सिर्फ अंग्रेजों के देश के चले से भारत को सही स्वराज्य नहीं मिल सकता, वे साफ कहते हैं कि हमें पश्चिमी सभ्यता के मोह से बचना होगा। पश्चिम के शिक्षण और विज्ञान से गांधी अपनी संगति नहीं बिठा पाते। वे भारत की धर्मपारायण संस्कृति में भरोसा जताते हैं और भारतीयों से आत्मशक्ति के उपयोग का आह्लान करते हैं। भारतीय परंपरा के प्रति अपने गहरे अनुराग के चलते वे अंग्रेजों की रेल व्यवस्था, चिकित्सा व्यवस्था, न्याय व्यवस्था सब पर सवाल खड़े करते हैं। जो एक व्यापक बहस का विषय हो सकता है। हालांकि उनकी इस पुस्तक की तमाम क्रांतिकारी स्थापनाओं से देश और विदेश के तमाम विद्वान सहमत नहीं हो पाते। स्वयं श्री गोपाल कृष्ण गोखले जैसे महान नेता को भी इस किताब में कच्चा पन नजर आया। गांधी जी के यंत्रवाद के विरोध को दुनिया के तमाम विचारक सही नहीं मानते। मिडलटन मरी कहते हैं- गांधी जी अपने विचारों के जोश में यह भूल जाते हैं कि जो चरखा उन्हें बहुत प्यारा है, वह भी एक यंत्र ही है और कुदरत की नहीं इंसान की बनाई हुयी चीज है। हालांकि जब दिल्ली की एक सभा में उनसे यह पूछा गया कि क्या आप तमाम यंत्रों के खिलाफ हैं तो महात्मा गांधी ने अपने इसी विचार को कुछ अलग तरह से व्यक्त किया। महात्मा गांधी ने कहा कि- वैसा मैं कैसे हो सकता हूं, जब मैं यह जानता हूं कि यह शरीर भी एक बहुत नाजुक यंत्र ही है। खुद चरखा भी एक यंत्र ही है, छोटी सी दांत कुरेदनी भी यंत्र है। मेरा विरोध यंत्रों के लिए नहीं बल्कि यंत्रों के पीछे जो पागलपन चल रहा है उसके लिए है।
वे यह भी कहते हैं मेरा उद्देश्य तमाम यंत्रों का नाश करना नहीं बल्कि उनकी हद बांधने का है। अपनी बात को साफ करते हुए गांधी जी ने कहा कि ऐसे यंत्र नहीं होने चाहिए जो काम न रहने के कारण आदमी के अंगों को जड़ और बेकार बना दें। कुल मिलाकर गांधी, मनुष्य को पराजित होते नहीं देखना चाहते हैं। वे मनुष्य की मुक्ति के पक्षधर हैं। उन्हें मनुष्य की शर्त पर न मशीनें चाहिए न कारखाने।
महात्मा गांधी की सबसे बड़ी देन यह है कि वे भारतीयता का साथ नहीं छोड़ते, उनकी सोच धर्म पर आधारित समाज रचना को देखने की है। वे भारत की इस असली शक्ति को पहचानने वाले नेता हैं। वे साफ कहते हैं- मुझे धर्म प्यारा है, इसलिए मुझे पहला दुख तो यह है कि हिंदुस्तान धर्मभ्रष्ट होता जा रहा है। धर्म का अर्थ मैं हिंदू, मुस्लिम या जरथोस्ती धर्म नहीं करता। लेकिन इन सब धर्मों के अंदर जो धर्म है वह हिंदुस्तान से जा रहा है, हम ईश्वर से विमुख होते जा रहे हैं।
वे धर्म के प्रतीकों और तीर्थ स्थलों को राष्ट्रीय एकता के एक बड़े कारक के रूप में देखते थे। वे कहते हैं- जिन दूरदर्शी पुरूषों ने सेतुबंध रामेश्वरम्, जगन्नाथपुरी और हरिद्वार की यात्रा निश्चित की उनका आपकी राय में क्या ख्याल रहा होगा। वे मूर्ख नहीं थे। यह तो आप भी कबूल करेंगें। वे जानते थे कि ईश्वर भजन घर बैठे भी होता है।
गांधी राष्ट्र को एक पुरातन राष्ट्र मानते थे। ये उन लोगों को एक करारा जबाब भी है जो यह मानते हैं कि भारत तो कभी एक राष्ट्र था ही नहीं और अंग्रेजों ने उसे एकजुट किया। एक व्यवस्था दी। इतिहास को विकृत करने की इस कोशिश पर गांधी जी का गुस्सा साफ नजर आता है। वे हिंद स्वराज्य में लिखते हैं- आपको अंग्रेजों ने सिखाया कि आप एक राष्ट्र नहीं थे और एक ऱाष्ट्र बनने में आपको सैंकड़ों बरस लगे। जब अंग्रेज हिंदुस्तान में नहीं थे तब हम एक राष्ट्र थे, हमारे विचार एक थे। हमारा रहन-सहन भी एक था। तभी तो अंग्रेजों ने यहां एक राज्य कायम किया।
गांधी इस अंग्रेजों की इस कूटनीति पर नाराजगी जताते हुए कहते हैं- दो अंग्रेज जितने एक नहीं है उतने हम हिंदुस्तानी एक थे और एक हैं। एक राष्ट्र-एक जन की भावना को महात्मा गांधी बहुत गंभीरता से पारिभाषित करते हैं। वे हिंदुस्तान की आत्मा को समझकर उसे जगाने के पक्षधर थे। उनकी राय में हिंदुस्तान का आम आदमी देश की सब समस्याओं का समाधान है। उसकी जिजीविषा से ही यह महादेश हर तरह के संकटों से निकलता आया है। गांधी देश की एकता और यहां के निवासियों के आपसी रिश्तों की बेहतरी की कामना भर नहीं करते वे इस पर भरोसा भी करते हैं। गांधी कहते हैं- हिंदुस्तान में चाहे जिस धर्म के आदमी रह सकते हैं। उससे वह राष्ट्र मिटनेवाला नहीं है। जो नए लोग उसमें दाखिल होते हैं, वे उसकी प्रजा को तोड़ नहीं सकते, वे उसकी प्रजा में घुल-मिल जाते हैं। ऐसा हो तभी कोई मुल्क एक राष्ट्र माना जाएगा। ऐसे मुल्क में दूसरों के गुणों का समावेश करने का गुण होना चाहिए। हिंदुस्तान ऐसा था और आज भी है।
महात्मा गांधी की राय में धर्म की ताकत का इस्तेमाल करके ही हिंदुस्तान की शक्ति को जगाया जा सकता है। वे हिंदू और मुसलमानों के बीच फूट डालने की अंग्रेजों की चाल को वे बेहतर तरीके से समझते थे। वे इसीलिए याद दिलाते हैं कि हमारे पुरखे एक हैं, परंपराएं एक हैं। वे लिखते हैं- बहुतेरे हिंदुओं और मुसलमानों के बाप-दादे एक ही थे, हमारे अंदर एक ही खून है। क्या धर्म बदला इसलिए हम आपस में दुश्मन बन गए। धर्म तो एक ही जगह पहुंचने के अलग-अलग रास्ते हैं।
गांधी बुनियादी तौर पर देश को एक होते देखना चाहते थे वे चाहते थे कि ऐसे सवाल जो देश का तोड़ने का कारण बन सकते हैं उनपर बुनियादी समझ एक होनी चाहिए। शायद इसीलिए सामाजिक गैरबराबरी के खिलाफ वे लगातार बोलते और लिखते रहे वहीं सांप्रदायिक एकता को मजबूत करने के लिए वे ताजिंदगी प्रयास करते रहे। हिंदु-मुस्लिम की एकता उनमें औदार्य भरने के हर जतन उन्होंने किए। हमारी राजनीति की मुख्यधारा के नेता अगर गांधी की इस भावना को समझ पाते तो देश का बंटवारा शायद न होता। इस बंटवारे के विष बीज आज भी इस महादेश को तबाह किए हुए हैं। यहां गांधी की जरूरत समझ में आती है कि वे आखिर हिंदु-मुस्लिम एकता पर इतना जोर क्यों देते रहे। वे संवेदनशील सवालों पर एक समझ बनाना चाहते थे जैसे की गाय की रक्षा का प्रश्न। वे लिखते हैं कि  मैं खुद गाय को पूजता हूं यानि मान देता हूं। गाय हिंदुस्तान की रक्षा करने वाली है, क्योंकि उसकी संतान पर हिंदुस्तान का, जो खेती-प्रधान देश है, आधार है। गाय कई तरह से उपयोगी जानवर है। वह उपयोगी है यह तो मुसलमान भाई भी कबूल करेंगें।

हिंद स्वराज्य के शताब्दी वर्ष के बहाने हमें एक अवसर है कि हम उन मुद्दों पर विमर्श करें जिन्होंने इस देश को कई तरह के संकटों से घेर रखा है। राजनीति कितनी भी उदासीन हो जाए उसे अंततः इन सवालों से टकराना ही है। भारतीय राजनीति ने गांधी का रास्ता खारिज कर दिया बावजूद इसके उनकी बताई राह अप्रासंगिक नहीं हो सकती। आज जबकि दुनिया वैश्विक मंदी का शिकार है। हमें देखना होगा कि हम अपने आर्थिक एवं सामाजिक ढांचे में आम आदमी की जगह कैसे बचा और बना सकते हैं। जिस तरह से सार्वजनिक पूंजी को निजी पूंजी में बदलने का खेल इस देश में चल रहा है उसे गांधी आज हैरत भरी निगाहों से देखते। सार्वजनिक उद्यमों की सरकार द्वारा खरीद बिक्री से अलग आदमी को मजदूर बनाकर उसके नागरिक सम्मान को कुचलने के जो षडयंत्र चल रहे हैं उसे देखकर वे द्रवित होते। गांधी का हिन्द स्वराज्य मनुष्य की मुक्ति की किताब है। यह सरकारों से अलग एक आदमी के जीवन में भी क्रांति ला सकती है। ये राह दिखाती है। सोचने की ऐसी राह जिस पर आगे बढ़कर हम नए रास्ते तलाश सकते हैं। मुक्ति की ये किताब भारत की आत्मा में उतरे हुए शब्दों से बनी है। जिसमें द्वंद हैं, सभ्यता का संघर्ष है किंतु चेतना की एक ऐसी आग है जो हमें और तमाम जिंदगियों को रौशन करती हुयी चलती है। गाँधी की इस किताब की रौशनी में हमें अंधेरों को चीर कर आगे आने की कोशिश तो करनी ही चाहिए।