बुधवार, 17 सितंबर 2014

राजनाथ को सराहौं या सराहौं आदित्यनाथ को!






-संजय द्विवेदी
  भारतीय जनता पार्टी में लंबे समय से एक चीज मुझे बहुत चुभती रही है कि आखिर एक ही दल के लोगों को अलग-अलग सुर में बोलने की जरूरत क्या है? क्यों वे एक सा व्यवहार और एक सी वाणी नहीं बोल सकते? माना कि कुछ मुद्दों पर बोल नहीं सकते तो क्या चुप भी नहीं रह सकते? एक जिम्मेदार पार्टी की तरह आचरण क्या बहुत जरूरी नहीं है?
     ऐसे समय में जब देश में एक राजनीतिक शून्य है। कांग्रेस, माकपा, भाकपा और बसपा जैसे राष्ट्रीय दल अपने सबसे बुरे अंजाम तक पहुंच चुके हैं, क्योंकि संसदीय राजनीति में संख्याबल का विशेष महत्व है। भाजपा जैसे दल जिसे देश की जनता ने अभूतपूर्व बहुमत देकर दिल्ली की सत्ता दी है, उसके नायकों का आचरण आज संदेह से परे नहीं है। आचरण व्यक्तिगत शुचिता और पैसे न लेने से ही साबित नहीं होता। वाणी भी उसमें एक बड़ा कारक है। पिछले दिनों में घटी दो घटनाओं ने यह संकेत किए हैं कि अभी भी भाजपा और उसके समविचारी संगठनों को ज्यादा जिम्मेदारी दिखाने की जरूरत है। पहली घटना लव जेहाद पर बनाए गए वातावरण की है, दूसरी छोटी किंतु उल्लेखनीय घटना उज्जैन के विक्रम विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. जवाहर लाल कौल के खिलाफ प्रदर्शन से जुड़ी है, जिसके बाद उन्हें आईसीयू में भर्ती कराना पड़ा।
    पहले लव जेहाद का प्रसंग। अपने सौ दिनों के कामकाज को प्रेस से बताते हुए केंद्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने कहा कि वे नहीं जानते कि लव जेहाद क्या है। माना जा सकता है कि उन्हें नहीं पता कि लव जेहाद क्या है। किंतु उन्हें अपने सांसदों आदित्यनाथ और साक्षी महाराज जैसे लोगों को नियंत्रित करना चाहिए कि पहले वे गृहमंत्री और पार्टी के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष होने के नाते पता कर लें लव जेहाद क्या है। तब ये संत-सांसद अपने विचार जनता के सामने रखें। आखिर आपने जनता को क्या समझ रखा है? एक तरफ आपके सांसद और कार्यकर्ता लव जेहाद को लेकर जनता के बीच जा रहे हैं तो दूसरी ओर पार्टी और सत्ता के शिखर पर बैठे लोगों की यह मासूम अदा कि वे इसे जानते ही नहीं चिंता में डालने वाली है। यह बात बताती है कि संगठन में या तो गहरी संवादहीनता है या आजादी जरूरत से ज्यादा है। भाजपा के कुछ समर्थकों को अगर लगता है कि लव जेहाद देश के सामने बहुत बड़ा खतरा है तो पूरी पार्टी और सरकार को तथ्यों के साथ सामने आना चाहिए और ऐसी वृत्ति पर रोक लगाने के लिए कड़े कदम उठाने चाहिए। क्योंकि धोखा और फरेब देकर स्त्रियों के खिलाफ अगर जधन्य अपराध हो रहे हैं जिस पर दल के सांसद और कार्यकर्ता चिंतित हैं तो यह बात उसी दल के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष और अब गृहमंत्री की चिंताओं में क्यों नहीं होनी चाहिए? आपको तय करना पड़ेगा कि आखिर इस मामले का आप समाधान चाहते हैं, स्त्री की सुरक्षा चाहते हैं या यह मामला सिर्फ राजनीतिक लाभ और धुव्रीकरण की राजनीति का एक हिस्सा है। केंद्रीय सत्ता में होने के नाते अब, आरोप लगाकर भाग जाने वाला आपका रवैया नहीं चलेगा। दूसरे सामाजिक संगठन लव जेहाद के विषय पर सामने आ रहे हैं यह उनकी आजादी भी है कि वे आएं और प्रश्न करें। किंतु देश का एक जिम्मेदार राजनीतिक दल, केद्रीय गृहमंत्री और उनके सांसदों को किसी विषय पर अलग-अलग बातें करने की आजादी नहीं दी जा सकती। झारखंड के तारा शाहदेव के मामले के बाद अखबारों और टीवी मीडिया में तमाम मामले सामने आए हैं, तमाम पीड़ित महिलाएं सामने आयी हैं। जिससे इस विषय की गंभीरता का पता चलता है। यह साधारण मामला इसलिए भी नहीं है क्योंकि स्वयं सरसंघचालक मोहन भागवत ने भी इस विषय पर अपनी बात कही। संघ के मुखपत्र पांचजन्य और आर्गनाइजर ने इसी विषय पर अपनी आवरण कथा छापी है। ऐसे में गृहमंत्री का वक्तव्य आश्चर्य में डालता है। ऐसे में सरकार को, भाजपा संगठन को अपना रूख साफ करना चाहिए कि वह इस विषय पर अपनी क्या राय रखते हैं।
  दूसरा विषय कश्मीर से जुड़ा है। देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार ने जिस तत्परता से कश्मीर पर आए संकट में आगे बढ़कर मदद के हाथ बढ़ाए,अपनी संवेदना का प्रदर्शन किया। उसकी सारे देश में और सीमापार से भी सराहना मिली। एक राष्ट्रीय नेता की तरह उनका और उनकी सरकार का आचरण निश्चय ही सराहना योग्य है। स्वयं प्रधानमंत्री और उनके दिग्गज मंत्रियों राजनाथ सिंह, स्वास्थ्य मंत्री हर्षवर्धन, डा. जितेंद्र सिंह ने जिस तरह तुरंत पहुंच कर वहां राहत की व्यवस्थाएं सुनिश्चत कीं, उसकी जितनी प्रशंसा की जाए कम है। यही इस देश की शक्ति है कि वह संकट में एक साथ खड़ा हो जाता है। प्रधानमंत्री और उनकी सरकार द्वारा पैदा की गयी इसी राष्ट्रीय संवेदना का विस्तार हमें उज्जैन में देखने को मिला, जहां विक्रम विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो.जवाहरलाल कौल की कश्मीरी छात्रों की मदद करने की अपील उन पर भारी पड़ गयी और वे अस्पताल पहुंच गए। यह घोर संवेदनहीनता का मामला है जहां एक कुलपति और विद्वान प्रोफेसर को बजरंग दल और विहिप कार्यकर्ताओं के गुस्से का शिकार होना पड़ा। डा. कौल जेएनयू में प्रोफेसर रहे हैं और जाने-माने विद्वान हैं। वे स्वंय काश्मीरी हैं। उनका यह बयान काश्मीरी होने के नाते नहीं, एक मनुष्य होने के नाते बहुत महत्वपूर्ण था। उन्होंने अपने बयान में कहा था कि विश्वविद्यालय में पढ़ने वाले काश्मीरी विद्यार्थियों को उनके मकान मालिक बाढ़ आपदा के चलते कुछ महीनों के लिए किराए में रियायत दें और उन्हें तत्काल किराया देने के लिए बाध्य न करें। क्या ऐसा संवेदनशील बयान किसी तरह की आलोचना का कारण बन सकता है। जबकि देश के अनेक हिस्सों में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े संगठन स्वयं काश्मीर के सैलाब पीड़ितों के निरंतर मदद हेतु अभियान चला रहे हैं। एक तरफ प्रधानमंत्री और संघ परिवार के संगठन राहत के लिए काम कर रहे हैं। भारतीय सेना और सरकारी संसाधन जम्मू-कश्मीर में झोंक रखे हैं। ऐसी मानवीय आपदा के समय ऐसी सूचनाएं आहत करती हैं। उज्जैन की यह घटना समूचे संगठन की समझ पर तो सवाल उठाती ही है, घटना के बाद नेताओं की चुप्पी भी खतरनाक है। क्या एक शिक्षा परिसर में इस प्रकार की गुंडागर्दी की आजादी किसी को दी जानी चाहिए कि वह कुलपति कार्यालय में घुसकर न सिर्फ तोड़ फोड़ करें बल्कि इस अभ्रदता से आहत कुलपति को आईसीयू में भर्ती करना पड़े। सरकार को चाहिए कि ऐसी घटनाओं को अंजाम देने वालों के खिलाफ न सिर्फ कड़ी कार्रवाई हो बल्कि उन्हें संगठन से बाहर का रास्ता भी दिखाना चाहिए। एक व्यापक मानवीय त्रासदी पर, जब मनुष्य मात्र को उसके खिलाफ लड़ने के लिए एकजुट होना चाहिए तब ऐसी सूचनाएं बताती हैं कि हमारे राजनीतिक समाज को अभी सांस्कृतिक साक्षरता लेने की जरूरत है। कर्म और वाणी का अंतर ही ऐसी घटनाओं के मूल में है। नरेंद्र मोदी के सपनों का भारत इस रवैये से नहीं बन सकता, तय मानिए।
(लेखक राजनीतिक टिप्पणीकार हैं, विचार निजी तौर व्यक्त किए गए हैं)

     

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