रविवार, 31 अगस्त 2014

उच्चशिक्षा का व्यापारीकरण रोकने की जरूरत


-संजय द्विवेदी
  भारतीय समाज में शिक्षा समाज द्वारा पोषित और गुरूजनों द्वारा संचालित रही है। सरकार या राज्य का हस्तक्षेप शिक्षा में कभी नहीं रहा। बदले समय के अनुसार सरकार और राज्य इसे चलाने और पोषित करने लगे। किंतु भावना यही रही कि इसकी स्वायत्ता बनी रहे। शिक्षा का यह बदलता दौर एक नई तरह की समस्याएं लेकर आया है, आज की शिक्षा सरकार से आगे बाजार तक जा पहुंची है। यह शिक्षा समाज के सामाजिक नियंत्रण से मुक्त है और सरकारें भी यहां अपने आपको बेबस पा रही हैं।
   निजी स्कूलों से शुरू ये क्रम अब निजी विश्वविद्यालयों तक फैल गया है। निजी क्षेत्र में शिक्षा का होना बुरा नहीं है किंतु अगर वह समाज में दूरियां बढ़ाने लगे, पैसे का महत्व स्थापित करने लगे और कदाचार को बढ़ाए तो वह बुरी ही है। आजादी के पूर्व और बहुत बाद तक निजी क्षेत्र के तमाम सम्मानित नागरिक, राजनेता और व्यापारी शिक्षा के क्षेत्र के लिए अपना योगदान देते थे। बड़ी-बड़ी संस्थाएं खड़ी करते थे, किंतु सोच में व्यापार नहीं सेवा का भाव होता था। आज जो भी लोग शिक्षा के क्षेत्र में आ रहे हैं वे व्यापार की नियति से आ रहे हैं। उन्हें लगता है कि शिक्षा का क्षेत्र एक बडा लाभ देने वाला क्षेत्र है। व्यापारिक मानसिकता के लोगों की घुसपैठ ने इस पूरे क्षेत्र को गंदा कर दिया है। आज भारत में एक दो नहीं कितने स्तर की शिक्षा है कहा नहीं जा सकता। सरकारी क्षेत्र को व्यापार की और बाजार की ताकतें ध्वस्त करने पर आमादा हैं। राजनीति और प्रशासन इस काम में उनका सहयोगी बना है। नीतियों निजी क्षेत्रों के अनूकूल बनायी जा रही हैं और सरकारी शिक्षा केंद्रों को स्लम में बदल देने की रणनीति अपनायी जा रही है। यह दुखद है कि हमारी सरकारी प्राथमिक शिक्षा पूरी तरह नष्ट हो चुकी है। माध्यमिक शिक्षा और तकनीकी शिक्षा में भी बाजार के बाजीगर हावी हो चुके हैं और अब नजर उच्च शिक्षा पर है। उच्चशिक्षा में हमारे सरकारी विश्वविद्यालय, आईआईटी, आईआईएम आज भी एक स्तर रखते हैं। उनके बौद्धिक क्षेत्र में योगदान को नकारा नहीं जा सकता। कई विश्वविद्यालय आज भी वैश्विक मानकों पर खरे हैं और बेहतर काम कर रहे हैं। देश की बौद्धिक चेतना और शोधकार्यों को बढ़ाने में उनका एक खास योगदान है। किंतु जाने क्या हुआ है कि सरकारों का अचानक उच्चशिक्षा के क्षेत्र में कार्यरत अपने इस विश्वविद्यालयों से मन भर गया। आज वे निजी क्षेत्र को बहुत आशा से निहार रहे हैं। निजी क्षेत्र किस मानसिकता से उच्चशिक्षा के क्षेत्र में आ रहा है, उसके इरादे बहुत साफ हैं। सरकारी विश्वविद्यालयों में अरसे से शिक्षकों की नियुक्ति नहीं हो रही है। सरकारी कालेज संसाधनों के अभाव में पस्तहाल हैं। दूसरी तरफ नीतियां अपने सरकारी विश्वविद्यालों और कालेजों को ताकतवर बनाने के बजाए निजी क्षेत्र को ताकतवर बनाने की हैं। क्या हम सरकारी उच्चशिक्षा के क्षेत्र को भी सरकारी प्राथमिक विद्यालयों की तरह जल्दी ही स्लम में नहीं बदल देगें,यह एक बड़ा सवाल है। राजनीतिक घुसपैठ, सब तरह आर्थिक कदाचार, नैतिक पतन के संकट से हमारे विश्वविद्यालय जूझ रहे हैं। उन्हें ताकतवर बनाने के बजाए और बीमार करने वाला इलाज चल रहा है।
शिक्षक लें जिम्मेदारीः
ऐसे कठिन समय में शिक्षकों को आगे आना होगा। अपने कतर्व्य की श्रेष्ठ भूमिका से उन्हें अपने विश्वविद्यालयों और कालेजों को बचाना होगा। अपने प्रयासों से शिक्षा की गुणवत्ता बढ़ानी होगी ताकि अप्रासंगिक हो रही क्लास रूम टीचिंग के मायने बचे रहें। उच्चशिक्षा के क्षेत्र में कार्यरत शिक्षकों की यह बड़ी जिम्मेदारी है कि वे अपने परिसरों को जीवंत बनाएं और छात्र-अध्यापकों की पुर्नव्याख्या करें। सिर्फ वेतन गिनने और काम के घंटों का हिसाब करने के बजाए वे अपने आपको नई पीढ़ी के निर्माण में झोंक दें। यही एक रास्ता है जो हमें निजी क्षेत्र के चमकीले आकर्षण से बचा सकता है। आज भी व्यक्तिगत योग्यताओं के सवाल पर हमारे विश्वविद्यालय श्रेष्ठतम मानवसंसाधन के केंद्र हैं। किंतु अपने कर्तव्यबोध को जागृत करने और अपना श्रेष्ठ देने की मानसिकता में कमी जरूर आ रही है। ऐसे में हमें देखना होगा कि हम किस अपने लोगों को न्याय दे सकते हैं। संकट यह है कि आज का शिक्षक कक्षा में बैठे छात्र तक भी नहीं पहुंच पा रहा है। उसके उसकी बढ़ती दूरी कई तरह के संकट पैदा कर रही है।
विद्यार्थियों की जीवंत पीढ़ी खड़ी करें शिक्षकः
विश्वविद्यालय परिसरों में राजनीतिक ताकतों का बढ़ता हस्तक्षेप नए तरह के संकट लाता है। शिक्षा की गुणवत्ता इससे प्रभावित हो रही है। इसे बचाना शिक्षकों की ही जिम्मेदारी है। वही अपने छात्रों को न्याय दे सकता है, जीवन के मार्ग दिखा सकता है। आज के समय में युवा और छात्र समुदाय एक गहरे संघर्ष में है। उसके जीवन की चुनौतियों काफी कठिन है। बढ़ती स्पर्धा, निजी क्षेत्रों की कार्यस्थितियां, सामाजिक तनाव और कठिन होती पढ़ाई युवाओं के लिए एक नहीं कई चुनौतियां है। कई तरह की प्राथमिक शिक्षा से गुजर कर आया युवा उच्चशिक्षा में भी भेदभाव का शिकार होता है। भाषा के चलते दूरियां और उपेक्षा है तो स्थानों का भेद भी है। अंग्रेजी के चलते हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं के छात्रों की हीनभावना तो चुनौती है ही। आज के युवा के पास तमाम चमकती हुयी चीजें भी हैं, जो जाहिर है सबकी सब सोना नहीं हैं। उसके संकट हमारे-आपसे बड़े और गहरे हैं। उसके पास ठहरकर सोचने का अवकाश और एकांत भी अनुपस्थित है। मोबाइल और मीडिया के हाहाकारी समय ने उसके स्वतंत्र चिंतन की दुनिया भी छीन ली है। वह सूचनाओं से आक्रांत तो है पर काम की सूचनाएं उससे कोसों दूर हैं। ऐसे कठिन समय में वह एक बेरहम समय से मुकाबला कर रहा है। बताइए उसे इन सवालों के हल कौन बताएगा? जाहिर तौर पर शिक्षा के क्षेत्र को बचाने की जिम्मेदारी आज शिक्षक समुदाय पर है। शिक्षक ही राष्ट्रनिर्माता हैं और इसलिए आज की चुनौतियों से लड़ने तथा अपने विद्यार्थियों को तैयार करने की जिम्मेदारी हमारी ही है। शिक्षक दिवस पर यह संकल्प अध्यापकों व विद्यार्थियों को ही लेना होगा तभी शिक्षा का क्षेत्र नाहक तनावों से बच सकेगा। उम्मीद की जानी कि शिक्षा के व्यापारीकरण के खिलाफ समाज और सरकार भी सर्तक दृष्टि रखेंगी।

(लेखक माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय, भोपाल में जनसंचार विभाग के अध्यक्ष हैं)

रविवार, 24 अगस्त 2014

इस देश में कौन है हिंदू!



-संजय द्विवेदी
  राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत पर इस समय देश की राजनीतिक पार्टियां खासी नाराज हैं। विवाद एक शब्द को लेकर है कि उन्होंने हिंदुस्तान में रहने वालों को हिंदू क्यों कहा। जाहिर तौर पर प्रथम दृष्ट्या यह विवाद सिर्फ शब्दों का मामला नहीं है, यह मामला राजनीति का है और इसकी राजनीतिक व्याख्या का भी है। किंतु हमें यह देखना होगा कि आखिर सरसंघचालक ने क्या कोई नई बात कही है। यह तो वही बात है जो संघ के नेता अपनी स्थापना के साल 1925 से ही कहते आ रहे हैं।
   संघ के लिए हिंदू एक धर्मवाचक प्रयोग नहीं है, वह इसके वृहत्तर सांस्कृतिक अर्थ का ही उपयोग लंबे समय से करता आ रहा है। द्वंद इसलिए खड़ा हुआ क्योंकि आज संघ का एक पूर्व प्रचारक प्रधानमंत्री के पद पर आसीन है। इसलिए संघ की सामान्य व्यवहार की शब्दावली को भी विवादों में घसीटा जा रहा है। हर देश की एक सांस्कृतिक पहचान और उसके जीवन मूल्य होते हैं। पूजा पद्धति के बदलने से सांस्कृतिक पहचान, जीवन मूल्य और पूर्वज नहीं बदलते। जड़ता नहीं, निरंतर प्रवाह यह भारतीय संस्कृति का उत्स और मूल है। इस भूमि पर रहने वाला,यहां की हवा-पानी में सांस लेने वाला प्रत्येक नागरिक यहां का भूमिपुत्र है। इसे बहुत भावुक होकर ही भारतमाता कहा गया। संभव है कुछ लोगों को भारतमाता का विचार भी पसंद न आए। किंतु घरती और उसके पुत्र, यह एक सांस्कृतिक विचार है। जन्म देने वाली माता के साथ घरती माता और गौ माता यह विचार किसी को अस्वीकार्य हो सकता है,पर यह भारतीय विचार है। इसी तरह संघ की अपनी वैचारिक मान्यताएं हैं। सब इससे सहमत हों या जरूरी नहीं, हिंदू शब्द का इस्तेमाल एक सांस्कृतिक परंपरा, इतिहास के उत्तराधिकारियों के रूप में संघ करता है। इस अर्थ में यह धार्मिक नहीं, एक सांस्कृतिक पद है। तमाम लोगों को इससे आपत्ति भी नहीं रही है। किंतु कुछ को शब्दों के पीछे पड़ने और राजनीति सूंघने का आदत है, वे इसके शिकार भी हैं। मोहन भागवत जो बात कह रहे हैं वह उनके जैसे संघ के करोड़ों समर्थक वर्षों से कह रहे हैं। इस वक्त क्योंकि भाजपा सत्ता में है और नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री हैं तो यह विचार एक धार्मिक आक्रमण सरीखा दिख रहा है। समस्या यह है कि एक राजनीतिक पार्टी भारतीय जनता पार्टी और एक सांस्कृतिक संगठन की सीमाओं को एक कर देखा जा रहा है। दोनों दो कामों के लिए बने और कार्यरत हैं। यहां यह भी समझना होगा भारत का हिंदू राष्ट्र कोई धर्मराज्य नहीं है। यहां सब पंथों को समान रूप से काम करने, अपनी पूजा-उपासना करने की आजादी है। इसलिए मिथ्या भय से वैचारिक आतंक पैदा करने की कोशिशें उचित नहीं कही जा सकती हैं।
  हमें देखना होगा कि क्या भारत जैसा उदार लोकतंत्र पूरी इस्लामिक पट्टी में कहीं मौजूद है। जो दूसरे पंथों से सद्भभाव के साथ रहता हुआ दिखता हो। ईराक के उदाहरण हमारे सामने हैं जहां एक पंथ के पोषित आतंकवाद से पूरा देश तबाह हो चुका है। हिंसा, आतंक के  आधार पर विस्तार करने वाले पंथ या विचार अलग ही होते हैं। उनका काम करने का तरीका दिखता है और आज वे पूरी मानवता के लिए चुनौती हैं। हिंदुत्व का विचार मैं ही के दर्शन को नहीं मानता उसकी सोच है मैं ही नहीं, तू भी । यह एक समन्वयवादी विचार है। जो सबको साथ लेकर चलने और समूची मानवता के कल्याण की बात करता है। सर्वे भवंतु सुखिनः जिसका घोषमंत्र है और वसुधैव कुटुम्बकम् जिसकी प्रेरणा है। जिसके धार्मिक कवि भी कहते हैं- परहित सरिस घरम नहीं भाई, परपीड़ा सम नहीं अधमाई। ऐसे विचार को अतिवादी कहना और बताना अपराध है। मोहन भागवत इसी भारतीय औदार्य के प्रतिनिधि हैं। वे यह कहना चाह रहे हैं कि उनके लिए भारत की भूमि पर रहने वाला हर नागरिक भारत मां का पुत्र है, उसके अधिकार और कर्तव्य इस घरती के लिए समान हैं। उनकी इस भावना को हिंदू शब्द के आधार पर गलत तरीके से व्याख्यायित करना ठीक नहीं है। आलोचना का,विचार का,विमर्श का स्तर भी क्या है। आप उन्हें हिटलर कह रहे हैं। अपने प्रधानमंत्री को हिटलर कह रहे हैं। इस देश की जनता के अपमान का इससे बड़ा उदाहरण क्या हो सकता है। मुस्लिम तुष्टीकरण का मंत्र फेल होने के बावजूद चीजें लौटकर वहीं आ जाती हैं। भागवत के आलोचकों से पूछना चाहिए कि वे उनकी आलोचना क्यों कर रहे हैं। अगर उनका वक्तव्य किसी प्रकार की ताकत नहीं रखता तो उसे नजरंदाज क्यों नहीं करते। किंतु उन्हें पता है भागवत और आरएसएस का भूत दिखाकर शायद वे दो-चार मुस्लिम वोट पा जाएं। आश्चर्य है कि अभी भी आंखों से परदा नहीं हटा है। देश एक नई यात्रा पर निकल पड़ा है और हमारी राजनीति अभी भी उन्हीं मानकों पर खडी राजनीति की रोटियां सेंकना चाहती है।
  क्या हम तटस्थ होकर विषयों का विश्लेषण नहीं कर सकते हैं? क्या हमें देश को जोड़ने के लिए प्रयत्न तेज नहीं करने चाहिए? आखिर हमारी राजनीति और मीडिया का जोर समाज को तोड़ने पर क्यों है? क्यों हम चीजों को संदर्भों से काटकर वातावरण बिगाड़ना चाहते हैं? हमें पता है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ एक हिंदू संगठन है। हमें यह भी पता है कि उसने मुस्लिम समाज से संवाद बनाने के लिए राष्ट्रीय मुस्लिम मंच नामक एक संगठन की स्थापना की है। रिश्तों में जमी बर्फ अब पिधल रही है। मुस्लिम समाज भी अब अलग ढंग से सोच रहा है और बदलते भारत की आकांक्षाओं से साथ खुद को स्थापित कर रहा है। उसकी इन कोशिशों को बढ़ाने और उसका मनोबल बढ़ाने के बजाए राजनीति विभाजनों को गहरा करने के कोई अवसर नहीं छोड़ना चाहती है। हिंदुस्तान की घरती पर रहने वाले लोगों ने एक साथ अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई लडी, लोकनायक जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में आपातकाल के खिलाफ लड़ाई लड़ी। आरएसएस और जमाते इस्लामी के लोगों ने साथ में मिलकर देश को आपातकाल के काले दिनों से मुक्ति दिलाई। आज उसी आम हिंदुस्तानी ने दस साल के भ्रष्ट शासन से भी मुक्ति दिलाई है। इस बदलाव को गहरे महसूस करने और आम हिंदुस्तानी के सपनों को समझने की जरूरत है। वह एक समर्थ भारत देखना चाहता है। एक वैभवशाली राष्ट्र को देखना चाहता है। काश्मीर से कन्याकुमारी तक सारा हिंदुस्तान इस भूमि के प्रति एक सरीखा भाव रखता है। यह भूमि सबकी साझा है। सबकी मां है। इस विचार से नफरत करने वालों को भी यह भारत मां अपने आंचल में जगह देती है। क्योंकि बेटा बिगड़ जाए तो भी मां की भावनाएं तो बेटे के लिए संवेदना भरी ही होंगीं। मोहन भागवत के बोले एक शब्द पर मत जाईए, उनके भाषण के पूरे संदर्भ को सांस्कृतिक संदर्भ में पढिए तो समस्या दूर हो जाएगी। राजनीतिक और धार्मिक संदर्भ में पढ़िएगा तो समस्या बढ़ जाएगी। किंतु कुछ लोगों को संवाद, सार्थक संवाद और सुसंवाद में नहीं, समस्याओं को बढ़ाने और विवाद को वितंडावाद बनाने में मजा आता है। उन्हें भी इस लोकतंत्र में यह करने की आजादी है। कीजिए ,खूब कीजिए... पर यह मत समझिए कि लोग बहुत नादान हैं।

(लेखक राजनीतिक विश्लेषक हैं)

बुधवार, 20 अगस्त 2014

जब मोदी कुछ कहते हैं


                      


                       -संजय द्विवेदी
  स्वतंत्रता दिवस के मौके पर नरेंद्र मोदी ने जो कुछ कहा उसने समूचे देश को झकझोरकर रख दिया। लालकिले से अरसे के बाद कोई आवाज सुनाई पड़ी जो देश के जन-मन को अपनी सी लगी। वे मनों को छू रहे थे और उन प्रश्नों पर बात कर रहे थे जिन पर सत्ताधीश कुछ कहने से बचते हैं। प्रधानमंत्री ने अपने भाषण में विकास और सुशासन के अलावा चार बातें खासतौर कहीं जिनमें स्त्री सम्मान व सुरक्षा, किसानों की आत्महत्या और सांप्रदायिक हिंसा के साथ माओवादी आतंकवाद का उल्लेख था।
   जाहिर तौर पर किसी भी प्रधानमंत्री और शासक के लिए ये चुनौती भी है और चुभने वाले सवाल भी हैं। स्त्रियों की सुरक्षा का मामला कभी इतनी बड़ी चुनौती के रूप में नहीं देखा गया किंतु ताजा समय में हो रहे सामूहिक बलात्कारों की घटनाओं ने पूरे समाज की नैतिकता और समझदारी पर सवाल खड़े कर दिए हैं, मोदी ने इसीलिए लोगों से पूछा कि वे अपने लड़कों से भी सवाल करें कि आखिर वे कहां से आ रहे हैं या कहां जा रहे हैं। प्रश्नांकित की जा रही लड़कियों और स्वच्छंद युवकों के प्रश्न उन्होंने पालकों के सामने रखे। जाहिर तौर पर हमारी सामाजिक रचना में ये प्रश्न आज फिर से प्रासंगिक हो उठे हैं। बिगड़ता लिंगानुपात प्रधानमंत्री की चिंताओं में था, वे भूणहत्या पर भी सवाल उठाते नजर आए। यह बात बताती है कि मोदी जमाने की हलचलों और उसकी चिंताओं से वाकिफ हैं। वे जानते हैं जनता के असल दर्द क्या हैं। इसीलिए वे किसानों की आत्महत्या के सवाल को लालकिले इतने पुरजोर तरीके से उठाते हैं। देश की इस विकराल समस्या पर मीडिया भी निगाहें उस तरह नहीं जाती जिस तरह जानी चाहिए। किंतु प्रधानमंत्री ने अपने भाषण को इस विषय को शामिल कर यह बता दिया है कि वे समस्याओं पर परदा डालने के अभ्यासी नहीं हैं वरन् समस्याओं से मुठभेड़ कर उनके हल निकालना चाहते हैं। नरेंद्र मोदी यहीं लोगों को अपना मुरीद बना लेते हैं। वे माओवादियों का भी आह्वान कर रहे हैं कि बंदूकें छोड़ दें और विकास की धारा में साथ आएं। उन्हें गांव की गरीबी और योजना आयोग की सीमाओं का भान है। वे गरीबों के लिए बैंक में खाता खोलने से लेकर उनके बीमा की बात करते हैं। एक शासक की संवेदना का इससे पता चलता है। उनके विरोधी यह कह सकते हैं कि उनके भाषण में कोई नई बात नहीं हैं। किंतु उनके भाषण में एक आत्मविश्वास, आत्मगौरव और देश के नेता होने का भाव है जो अरसे तक प्रधानमंत्री रहे लोगों में नहीं देखा गया।
   वे खुद को प्रधानमंत्री के बजाए जब प्रधानसेवक कहते हैं और सरकारी तंत्र को झकझोरते हुए जाब और सर्विस के अंतर को बताते हैं तो उनका अभिभावकत्व और भी बड़ा हो जाता है। नरेंद्र मोदी सही मायने में भारत के आमजन के आत्मविश्वास, उसकी रचनाशीलता, उसकी उद्यमिता और कर्मठता के प्रतीक हैं। वे अभिजनों के चुनौती हैं जो भारतीय जनमानस को निकम्मा, काहिल, कामचोर और जाहिल मानने की अंग्रेजी मानसिकता से ग्रस्त हैं। वे आम भारतीयों में श्रमदेव और श्रमदेवियों के दर्शन करने वाले प्रधानमंत्री हैं। वे आम भारतीयों में मन से अवसाद की परतें झाड़कर एक आत्मविश्वास भरना चाहते हैं। इसलिए वे भारतीय युवाओं और लघु उद्यमियों को भरोसे से देखते हैं। वे चाहते हैं कि भारत तमाम उन चीजों का स्वयं निर्माण करे जिनका वह आयात करता है। उद्यमिता को बढ़ाने और भारतीय युवाओं की प्रतिभा का सही और सार्थक इस्तेमाल की प्रेरणा भी वे देते हैं। ऐसे में नरेंद्र मोदी एक शासक की तरह नहीं एक मोटीवेटर, प्रेरक वक्ता और बेहतर कम्युनिकेटर की तरह दिखते हैं जो स्वतंत्रता दिवस के मंच का इस्तेमाल एक औपचारिक भाषण के लिए नहीं करता, बल्कि वह एक अलग दृष्टि पेश करता है और रचनाशीलता का आह्वान करता है। सांप्रदायिक हिंसा के खिलाफ उनकी चिंता आज के एक बड़े चिंताजनक सवाल पर हमारी चिंता से साझा करती है। वे भारत को एक होते और अखंड होते देखना चाहते हैं। उन्हें देश की चुनौतियों का पता है। उन्हें पता है उनसे जनता की उम्मीदें विशाल हैं। वे जानते हैं कि उन्हें किसी परिवार से होने के नाते विशेष सुविधा प्राप्त नहीं है। वे जो कुछ हैं तब तक हैं जब तक जनता के प्रिय हैं। नरेंद्र मोदी सही मायने में किसी की कृपा और चयन के नाते दिल्ली में पहुंचे दिल्लीपति नहीं हैं। वे वास्तव में पहले जनता के दिलों में उतरे, फिर पार्टी ने स्वीकारा और फिर दिल्ली पहुंचे हैं।
   वे सही मायने में लोकतंत्र की वास्तविक शक्ति के प्रतीक हैं। जिसने उन्हें न सिर्फ उन्हें इतना ताकतवर बनाया बल्कि देश की सबसे पुरानी पार्टी को सबसे खराब दिनों में ला दिया। नरेंद्र मोदी इस कठिन उत्तराधिकार को स्वीकारते हुए इसीलिए साहस से भरे हैं। यह उनका अतिविश्वास ही है कि वे लालकिले से बुलेटप्रूफ शीशों के भीतर से खड़े होकर बोलने की लंबी परंपरा को भी तोड़ देते हैं। सुबह उठकर आए बच्चों से उनकी भीड़ में मिलने चले जाते हैं। उनका यह आत्मविश्वास एक आम हिंदुस्तानी  का आत्मविश्वास है। यह भरोसा उन्होंने लोगों के बीच लगातार काम करके हासिल किया है। उम्मीद की जानी चाहिए कि उनका यह देसीपना बना रहेगा। जब तक यह कायम रहेगा, उनमें माटी की खूशबू और महक बनी रहेगी। जनता भी उनके साथ खड़ी रहेगी तब तक जब तक वे बोलते रहेंगें डायरेक्ट दिल से। क्योंकि जनता बड़ी नहीं सरल और साधारण बाते सुनना चाहती है उनके मुंह से जो, जो जो कह रहे हों उन पर अमल भी कर रहे हों। नरेंद्र मोदी कृति और जीवन से एक लगते हैं इसलिए उनपर भरोसा करने का मन करता है। उम्मीद कीजिए कि यह भरोसा बना रहे।

( लेखक राजनीतिक विश्वेषक हैं)

मंगलवार, 12 अगस्त 2014

ये उन दिनों की बात है...

-संजय द्विवेदी

   
   
         मुंबई में होना सच में एक सपने की तरह था। मुंबई में बिताए तीन साल सचमुच सपनों की तरह रहे और आज भी आंखों में तैरते हैं। उप्र के बस्ती शहर से निकला एक युवक मुंबई जैसे विशालकाय महानगर में अपने होने को लेकर ही अचंभित था। हमें याद हैं वे दिन जब 1997 में मुंबई से एक नए हिंदी अखबार का प्रकाशन प्रारंभ होना था। उन दिनों मैं रायपुर के एक अखबार में काम करता था, जहां समय पर वेतन के भी लाले थे। छत्तीसगढ़ के एक बड़े पत्रकार श्री बबन प्रसाद मिश्र की कृपा और आशीर्वाद से मुझे उस नए अखबार के मुंबई संस्करण में काम करने का अवसर मिला।
इन मुंबईः
जब मैं मुंबई पहुंचा तो यहां भी मेरे कई दोस्त और सहयोगी पहले से ही मौजूद थे। इन दिनों एबीपी न्यूज, दिल्ली में कार्यरत रघुवीर रिछारिया उस समय मुंबई में ही थे। वे स्टेशन पर मुझे लेने आए और संयोग ऐसा बना कि मुंबई के तीन साल हमने साथ-साथ ही गुजारे। यहां जिंदगी में गति तो बढ़ी पर उसने बहुत सारी उन चीजों को देखने और समझने का अवसर दिया, जिसे हम एक छोटे से शहर में रहते हुए महसूस नहीं कर पाते। मुंबई देश का सबसे बड़ा शहर ही नहीं है, वह देश की आर्थिक धड़कनों का भी गवाह है। यहां लहराता हुआ समुद्र, अपने अनंत होने की और आपके अनंत हो सकने की संभावना का प्रतीक है। यह चुनौती देता हुआ दिखता है। समुद्र के किनारे घूमते हुए बिंदास युवा एक नई तरह की दुनिया से रूबरू कराते हैं। तेज भागती जिंदगी, लोकल ट्रेनों के समय के साथ तालमेल बिठाती हुई जिंदगी, फुटपाथ किनारे ग्राहक का इंतजार करती हुई महिलाएं, गेटवे पर अपने वैभव के साथ खड़ा होटल ताज और धारावी की लंबी झुग्गियां मुंबई के ऐसे न जाने कितने चित्र हैं, जो आंखों में आज भी कौंध जाते हैं। सपनों का शहर कहीं जाने वाली इस मुंबई में कितनों के सपने पूरे होते हैं यह तो नहीं पता, पर न जाने कितनों के सपने रोज दफन हो जाते हैं। यह किस्से हमें सुनने को मिलते रहते हैं। लोकल ट्रेन पर सवार भीड़ भरे डिब्बों से गिरकर रोजाना कितने लोग अपनी जिंदगी की सांस खो बैठते हैं इसका रिकार्ड शायद हमारे पास न हो, किंतु शेयर का उठना-गिरना जरूर दलाल स्ट्रीट पर खड़ी एक इमारत में दर्ज होता रहता है। यहां देश के वरिष्ठतम पत्रकार और उन दिनों नवभारत टाइम्स के संपादक विश्वनाथ सचदेव से मुलाकात अब एक ऐसे रिश्ते में बदल गई है, जो उन्हें बार-बार छत्तीसगढ़ और मप्र आने के लिए विवश करती रहती है। विश्वनाथ जी ने पत्रकारिता के अपने लंबे अनुभव और अपने जीवन की सहजता से मुझे बहुत कुछ सिखाया। उनके पास बैठकर मुझे यह हमेशा लगता रहा कि एक बड़ा व्यक्ति किस तरह अपने अनुभवों को अपनी अगली पीढ़ी को स्थानांतरित करता है।
प्यार..दोस्ती और मस्तीः
इस शहर में हमने दोस्तियां की, आवारागर्दी की और मस्ती की। लहराते समुद्र के किनारे हाथ में हाथ डाले कितनी शामें गुजारीं तो वीकली आफ पर कई फिल्में एक साथ देखीं। फिल्में चुनकर नहीं देखीं, जो लगीं थीं, वही देख लीं। ये अजीब सा पागलपन था। पानी में भीगते हुए न जाने कितनी सुबहें और शामें गुजारीं। पहले कोपरखैरणे से, बाद में नालासोपारा से ट्रेन पकड़ कर सीएसटी आना और चर्चगेट होते हुए मरीन ड्राईव की सैर करना। कई बार समय बिताने के लिए जहांगीर आर्ट गैलरी के अबूझ चित्रों को देखना भी इसमें शामिल था। ये दिन आराम के दिन न थे। थकान के दिन न थे। एक खास आयु में किए जाने वाले हर शौक को हम फरमा रहे थे। कल का पता न था, बस मस्ती से जिए जा रहे थे... बिंदास और बेधड़क। हमें हमेशा लगता रहा कि चीजें हमारे अनूकूल हो रही हैं और इस जमाने में हमारा भी नाम होगा। लड़कियां आफिस हो सड़क, हमेशा अच्छी लगती रहीं और हमेशा ये लगता रहा कि ये न होतीं तो दुनिया कितनी बदरंग और बेमतलब  होती। मुंबई में गुजरे तीन साल ऐसी ही धूप-छांव के साल थे। जहां प्यार..दोस्ती और मस्ती का मेल था। शायद इसीलिए मुंबई की सोचता हूं तो एक पंक्ति याद आती है- ये उन दिनों की बात है..जब पागल-पागल फिरते थे।
अखबारी नौकरी और दोस्तों की फौजः
   यहां मेरे संपादक के नाते कार्यरत स्व. श्री भूपेंद्र चतुर्वेदी का स्नेह भी मुझे निरंतर मिला। अब वे इस दुनिया में नहीं हैं, लेकिन उनकी कर्मठता, काम के प्रति उनका निरंतर उत्साह मुझे प्रेरित करता है। उसी दौरान पत्रकारिता से जुड़े सर्वश्री राघवेंद्र नाथ द्विवेदी, मनोज दुबे, कमल भुवनेश, अरविंद सिंह, केसर सिंह बिष्ट, अजय भट्टाचार्य, विमल मिश्र, सुधीर जोशी, विनीत चतुर्वेदी जैसे न जाने कितने दोस्त बने, जो आज भी जुड़े हुए हैं। मुंबई में काम करने के अनेक अवसर मिले। उससे काम में विविधता और आत्मविश्वास की ही वृध्दि हुई। यह अनुभव आपस में इतने घुले-मिले हैं कि जिसने एक पूर्ण पत्रकार बनाने में मदद ही की। मुंबई में रहने के दौरान ही वेब पत्रकारिता का दौर शुरू हुआ, जिसमें अनेक हिंदी वेबसाइट का भी काम प्रारंभ हुआ। वेबदुनिया, रेडिफ डाटकाम, इन्फोइंडिया डाटकाम जैसे अनेक वेबसाइट हिंदी में भी कार्य करती दिखने लगीं। हिंदी जगत के लिए यह एक नया अनुभव था। हमारे अनेक साथी इस नई बयार के साथ होते दिखे, किंतु मैं साहस न जुटा पाया। कमल भुवनेश के बहुत जोर देने पर मैंने इन्फोइंडिया डाटकाम में चार घंटे की पार्टटाइम नौकरी के लिए हामी भरी। जिसके लिए मुझे कंटेन्ट असिस्टेंट का पद दिया गया। वेब पत्रकारिता का अनुभव मेरे लिए एक अच्छा अवसर रहा, जहां मैंने वेब पत्रकारिता को विकास करते हुए देखा। आज वेब पत्रकारिता किस तरह मुख्यधारा की पत्रकारिता से होड़ कर रही है उसके पदचाप हमने सन 2000 में सुन लिए थे।
   मुंबई के वे दिन आज भी याद आते हैं और यह बताते हैं कि एक शहर कैसे अपने साथ इतने सपनों को लिए जी सकता है। मुंबई में होने का अहसास आज भी यादों को हरा-भरा कर देता है। दोस्तों के साथ गुजरा समय बार-बार याद आता है। ये स्मृतियां अनुभवों में बहुत सघन हैं और गुजरे वक्त के साथ बातचीत करती रहती हैं। बहुत से शहरों में रहने, जीने और होने के बाद भी मुंबई में होना एक सुखद अहसास की तरह जिंदा है। दोस्त आज भी उसी जिंदादिली से मिलते हैं, मुंबई में रहने वाले तो युवा बने ही रहते हैं। जिंदगी की जद्दोजहद उन्हें शहर के लायक बना ही लेती है। मुंबई यूं चलती रहे.. बिना ठहरे..बिना रूके। जिंदगी और उसकी धड़कनों की तरह।