सोमवार, 16 जून 2014

लंबे समय के बाद एक सरकार!


-संजय द्विवेदी
       हिंदुस्तानी मन की आकांक्षाएं बहुत अलग हैं। वह बहुत कम प्रतिक्रिया करके भी ज्यादा कहता है। 2014 के चुनाव इस बात की गवाही देते हैं कि जनता के मन में चल रही हलचलों का भान हमें कहां हो पाया। हम सब सेकुलरिज्म की ढोल बजाते रहे और ऐसे लोग सरकार में आ गए जिनके सेकुलर होने पर लगभग सभी राजनीतिक दलों को सामूहिक शक है। तो क्या देश की जनता अब सेकुलर नहीं रही? या उसकी पंथनिरपेक्षता को एक संकल्प नहीं, बल्कि राजनातिक नारे के रूप में इस्तेमाल करने वालों को उसने पहचान लिया है। उसने जता दिया कि काम कीजिए तभी भरोसा बनेगा और तभी आपकी राजनीति चलेगी। सिर्फ नारे पर अब वोट बरसने वाले नहीं हैं। ये भरोसा तब और गहरा होता है जब नवीन पटनायक (उड़ीसा), जयललिता (तमिलनाडु) और ममता बनर्जी (बंगाल) जैसे नेताओं की जमीन बनी रहती है, किंतु तमाम भूमिपुत्रों के पैर जमीन से उखड़ जाते हैं।
   एक सक्षम विकल्प बनी भाजपा के लिए भी संदेश साफ हैं कि सारा कुछ नारों से हासिल नहीं हो सकता। विकास-सुशासन और नकली पंथनिरपेक्षता नारों की स्पर्धा के बीच लोगों ने विकास-सुशासन को जगह दी है। लोग उम्मीद से खाली नहीं हैं। एक राजनेता के तौर नरेंद्र मोदी ने फिर एक हारे हुए देश की उम्मीदों को जगा दिया है।  आप अन्ना हजारे के आंदोलन में रामलीला मैदान में जमे लोगों को याद कीजिए। उनकी भाषा को सुनिए- मध्यवर्ग के वे चेहरे किस तरह राजनीति और राजनेताओं से खिसियाए हुए थे। किस तरह वे हमारी राजनीति और संसद के खिलाफ एकजुट थे। संसद और सरकार मिमिया रही थी। वक्त की उस तारीख ने आज काफी कुछ बदल दिया है। राजनेताओं के प्रति घृणा का स्तर, एक अकेले नेता ने कम कर दिया है। आज लोगों का जनतंत्र पर भरोसा बढ़ा है तो राजनीतिक नेतृत्व पर भी। राजनीति और राजनीतिज्ञों के प्रति लोकधृणा का वह स्तर आज नहीं है। इसके लिए निश्चय ही देश के राजनेताओं को रामलीला मैदान के दृश्यों को ध्यान में रखते हुए नरेंद्र मोदी को बधाई देनी चाहिए। यह बात बताती है कि कम काम और कम सफलताओं के बावजूद अगर आपके जीवन और मन में सच्चाई है। आप ईमानदार प्रयत्न करते हुए भी दिखते हैं तो लोग आपको सिर-माथे बिठाते हैं। किंतु जब आप अहंकार भरी देहभाषा से जनतंत्र में जनता को प्रजा समझने की भूल करते हैं, तो वह भारी पड़ती है।
संवाद से सार्थक होता जनतंत्रः
सत्ताधीशों की सबसे बड़ी समस्या यह है कि वे संवाद से भागते हैं। जनता के सवालों पर बातचीत करने के बजाए असुविधाजनक प्रश्नों से वे बचना चाहते हैं। पिछली सरकार ने इसी संवादहीनता के फल अर्जित किए हैं। वहां खामोशी एक रणनीति की तरह इस्तेमाल की जा रही थी। सरकार के मुखिया खामोश थे तो शेष पार्टी नेतृत्व दूसरों की लिखी स्क्रिप्ट पढ़ने में व्यस्त था। असुविधाजनक सवालों पर गहरी और लंबी चुप्पी उनकी रणनीति बन गयी थी। यूपीए के दुबारा चुनाव जीतने के बाद यह चुप्पी, अहंकार में बदल गयी। पांच साल तक जनता द्वारा दी गयी सत्ता को जागीर मानने की भ्रम भी पैदा हुआ। रामलीला मैदान के सभी प्रतिरोधों में सरकार का जवाब यही होता था कि हमें पांच साल का जनादेश मिला है। जनादेश को जागीर और उपनिवेश में बदलने की शैली भारी पड़ी। कांग्रेस की त्यागमूर्ति अध्यक्षा ने प्रधानमंत्री का पद तो चाहे-अनचाहे छोड़ दिया किंतु सत्ता के मोह से वे बच नहीं पाईं। भरोसा न हो तो संजय बारू की किताब जरूर देखिए। सत्ता पर नाजायज नियंत्रण और जनता से संवादहीनता दोनों ही खबरें हवा में रहीं और समय ने इसे सच साबित किया। नरेंद्र मोदी यहीं बाजी मार ले गए। वे जनता के बीच रहे और संवाद में कोई कमी नहीं की। लगातार बातचीत करते हुए मोदी ने जनता के दिलों में उतरकर वो उम्मीदें जगा दीं, जिनके इंतजार में लोग लंबे अरसे से प्रतिक्षारत थे। संवाद की शैली, संचार माध्यमों के सही इस्तेमाल ने उन्हें नायक से महानायक बना दिया।
सपनों के सौदागरः
इस पूरे दौर में नरेंद्र मोदी सपनों के सौदागर की तरह प्रकट हुए हैं। हताश-निराश देश और उम्मीद तोड़ती राजनीतिक धाराओं के बीच वे एक नई और ताजा विचारधारा तथा एक ठंडी हवा के झोंके की तरह हैं। भारत जैसे महादेश को संभालने और उससे संवाद करने के लिए उनके पीछे एक चमकदार अतीत है। संघर्ष है और त्याग से उपजी सफलताएं हैं। जनमानस के बीच वे एक ऐसे धीरोदात्त नायक की तरह स्थापित हैं, जो बदलाव ला सकता है। परिवारवादी, जातिवादी, क्षेत्रवादी राजनीति के पैरोकारों के लिए वे सचमुच एक चुनौती की तरह हैं। उनकी वाणी और कृति में बहुत कुछ साम्य दिखता है। वे जैसे हैं, वैसे ही प्रस्तुत हुए हैं। उन्होंने गुजरात दंगों के लिए माफी न मांगकर और टोपी पहनने के सवाल पर जो स्टैंड लिया है वह बताता है कि वे इस नकली राजनीति में एक असली आदमी हैं। सवा करोड़ हिंदुस्तानियों की बात करने वाले मोदी, अगर जाति-धर्म के बंटवारे से अलग सबको एक मानने की बात कर रहे हैं तो उनके साहस की दाद देनी पड़ेगी। यह पारंपरिक राजनीति से अलग है और अच्छा भी। कश्मीर जैसे संवेदनशील सवालों पर कश्मीर पंडितों को उनकी जमीन पर वापस ले जाने की पहल एक नई तरह की शुरूआत है। अपने शपथ ग्रहण से लेकर भूटान यात्रा तक जो भी संदेश उन्होंने दिए हैं वह एक बेहतर शुरूआत तो है ही। इसके अलावा सांसदों-मंत्रियों को निजी स्टाफ में रिश्तेदारों को न रखने की हिदायत, है तो छोटी पर इसके मायने बहुत बड़े हैं। राजनीतिक क्षेत्र में आज मोदी का कद अपने समतुल्य नेताओं में सबसे बड़ा है तो इसके पीछे उनके सुनियोजित प्रयास,निजी ईमानदारी,कर्मठता और निरंतर कुछ करते रहने की भावना ही है। वे सही मायने में एक ऐसे राजनेता हैं जो परिवारवाद की राजनीति को घता बताकर मैदान में उतरा है।
सुशासन नारा नहीं एक संकल्पः

जिसके लिए सुशासन एक नारा नहीं पवित्र संकल्प है। उसने देश की नौकरशाही को शक्ति देने की बात कही ताकि वे तेजी से फैसले ले सकें। राजनीति में पारदर्शिता और संवाद से ही वे आगे बढ़ने की सोचते हैं। ऐसा व्यक्ति कोई भी हो, लोगों का दुलारा बन जाता है। वे सिर्फ नायक हैं नहीं, नायक सरीखा आचरण भी कर रहे हैं। देश की जनता बहुत भावुक है। लंबी गुलामी ने उसके मन में यह बैठा दिया है कि केंद्र कमजोर होगा, शासक कमजोर होगा तो देश टूट जाएगा। इस निराशाजनक समय में मोदी को लाकर जनता ने एक मजबूत केंद्र और मजबूत शासक देकर दरअसल अपने मन में पल रहे अज्ञात भयों से मुक्ति पायी है। उसे अब सेकुलरिज्म के बदले अराजकता, सार्वजनिक धन की लूट, वंशवाद की लहलहाती बेलें नहीं चाहिए- उसे एक ऐसा भारत चाहिए जिसमें सम्मान,सुरक्षा,रोजगार और आर्थिक प्रगति के अवसर हों। नरेंद्र मोदी जब अपनी सरकार को गरीबों को समर्पित करते हैं तो इसके मायने बहुत अलग हैं। वे जानते हैं कि सरकारी स्कूलों और अस्पतालों के हालात क्या हैं। इनके बरबाद होने के मायने क्या हैं। वे यह भी जानते हैं कि गरीब आदमी के हक में कोई खड़ा है तो वह सिर्फ सरकार है। इसलिए सरकारी तंत्र को अपेक्षित संवेदना से युक्त करना जरूरी है। सरकारी तंत्र की संवेदनशीलता ही इस जनतंत्र की जड़ों को मजबूती देगी। संसाधनों की लूट में लगी कंपनियों और रोज और विकराल होती गैरबराबरी के बीच भी उम्मीदों का एक दिया टिमटिमा रहा है कि आखिर कभी तो हम अपने लोकतंत्र को न्यायपूर्ण और संवेदनशील होता देख पाएंगें। एक सक्षम सरकार को लगभग तीन दशक बाद पाकर लोगों में आशाएं जगी हैं। राजनीति से भी कुछ बदल सकता है, यह भरोसा भी जगा है। लोगों की आशाएं पूर्ण हों इसके लिए सरकार के साथ आम लोगों को भी अपनी सार्वजनिक सक्रियता बढ़ानी होगी। समाज एक दंडशक्ति के रूप में, निगहबानी के लिए सरकारी तंत्र पर नजर रखे तभी जनतंत्र अपने को सार्थक होता हुआ देख पाएगा। उम्मीद की जानी चाहिए आमजन भी चुनाव के बाद अपने कठघरों में बंद होने के बजाए सरकार और उसके तंत्र पर चौकस निगाहें रखेंगें। 

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