सोमवार, 7 अप्रैल 2014

नरेंद्र मोदी से कौन डरता है?


-संजय द्विवेदी
   लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी खुद एक मुद्दा बने हुए हैं। अपनी पार्टी के भीतर जंग तो उन्होंने जीत ली किंतु विरोधी अभी हार मानने के लिए तैयार नहीं हैं। 2002 के गुजरात दंगों की लंबी छाया उनके पीछे ऐसी पड़ी है, जैसे उसके पहले या बाद देश में दंगे हुए ही न हों। जिन राज्यों में दंगे हर माह हो रहे हैं वे भी मोदी के दंगों से दुखी हैं। ऐसा लगता है कि नरेंद्र मोदी दिल्ली तक आ गए तो क्या गजब हो जाएगा। जिन नीतीश कुमार ने अपने नेता जार्ज फर्नांडिस की दुर्गति और अपमान करने में कोई कसर नहीं छोड़ी, वे भाजपा के बुर्जुग नेताओं के अपमान से बहुत दुखी हैं। किंतु याद कीजिए नीतीश ने जार्ज का टिकट काट दिया था, जबकि मोदी न सिर्फ आडवानी को गुजरात से लड़ने के लिए राजी कर लेते हैं, वरन उनके परचा भरने पर उनके साथ भी दिखते हैं। जबकि मप्र में भोपाल की सीट पर आडवानी जी का इंतजार हो रहा था। जाहिर तौर पर भाजपा के दुख से दुखी अन्य दलों के नेता जब मुद्दों पर चयनित दृष्टिकोण अपनाते हैं तो पता चलता है कि इनके द्वंद किस तरह जनता के सामने प्रकट हो रहे हैं। इस चुनाव में मोदी का दंगा मुद्दा है किंतु उप्र और महाराष्ट्र में हुए दंगें मुद्दा नहीं हैं। मोदी करें तो पाप और मुलायम करें तो लीला। उप्र के दंगों की पृष्ठभूमि शुद्ध प्रशासनिक नाकामी और राजनीतिक नेतृत्व की कायरता कही जाएगी, जबकि गुजरात के दंगे गोधरा के भीषण नरमेघ की प्रतिक्रिया में हुए थे। दोनों की परिस्थितियों और दंगों को नियंत्रित करने की शैली में अंतर साफ नजर आता है। कोई भी सरकार गोधरा जैसी हिंसा के बाद हालात संभालने में कुछ वक्त लेती ही । एक लड़की से हुयी छेड़खानी के मामले को संभाल न पाने वाली उप्र की सरकार गोधरा के काण्ड के बाद की हकीकतों को जाने बिना अपनी सेकुलर छवि पर मुग्ध है। उसके मंत्री दंगाईयों को छोड़ने के लिए फोन कर रहे हैं, यह भी एक चैनल के स्टिंग आपरेशन में उजागर हो चुका है।

    ऐसे कठिन समय में जब सेकुलर जमातें मोदी को निशाने पर लेते हुए नहीं थक रही हैं, मान लिया मोदी देश के प्रधानमंत्री बन भी गए तो कौन सा वज्रपात आ जाएगा। यह तो तय मानिए कि वे मनमोहन सिंह की सरकार से बुरी सरकार नहीं चलाएंगे। जिनको तमाम सेकुलर ताकतों के साथ सपा और बसपा ने देश का बेड़ा गर्क करने के लिए समर्थन दे रखा है। 2002 के बाद अगर गुजरात में कोई दंगा नहीं हुआ तो भरोसा कीजिए कि देश में दंगों की फसल नहीं लहलहाएगी। यह आश्वासन उस मुलायम सिंह यादव की उत्तर प्रदेश सरकार से ज्यादा भरोसेमंद है, जिनके सरकार में आते ही दंगों की लाइन लग गयी है और उत्तर प्रदेश के दंगापीड़ितों ने सबसे बड़ा विस्थापन और दर्द अखिलेश के राज में ही महसूस किया। गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी अगर मुद्दा हैं तो यह भारतीय राजनीति की दयनीयता का ही बखान करती है। देश के राजनीतिक दलों के 10 साल से सत्ता में बैठी कांग्रेस सरकार का कुशासन मुद्दा नहीं है, मुद्दा एक राज्य का मुख्यमंत्री है, जिस पर हाल-फिलहाल कोई ऐसा आरोप नहीं है, जिसके आधार पर उसे घेरा जा सके। 2002 को घसीटकर और उस जख्म की पपड़ियां हटाकर आखिर किसे क्या मिल रहा है, कहा नहीं जा सकता। नरेंद्र मोदी को खलनायक बनाकर किसके हित सध रहे हैं, कहने की आवश्यकता नहीं है। किंतु इतना तो साफ है कि सोनिया गांधी ने मौलाना बुखारी से समर्थन मांग कर यह साबित कर दिया है सबकी निगाहें सिर्फ मुस्लिम वोटों पर हैं। यह धुव्रीकरण की राजनीति आखिर देश को कहां ले जाएगी? राजनीति धारणाओं पर ही चलती है। मोदी को मुस्लिम विरोधी के रूप में स्थापित करने वाले दल क्या इस देश की आवाज सुन पा रहे हैं। आज देश के जन-मन की आवाज को ही महसूस करते हुए रामविलास पासवान, चंद्रबाबू नायडू, उपेंद्र कुशवाहा, उदित राज, रामदास आठवले सरीखे नेता राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन का हिस्सा बन चुके हैं। ऐसे में मोदी पर व्यक्तिगत हमले करके हम ही इस चुनाव को व्यक्ति केंद्रित बना रहे हैं। मुसलमानों में भयग्रंथि पैदा करके हम देश के भविष्य के साथ खेल रहे हैं। दरअसल मोदी की राजनीति इन्हीं छद्मों को संबोधित कर रही हैं। ये देखना कितना आश्चर्यजनक है मोदी धर्म के आधार के पर बंटवारे के खिलाफ बोल रहे हैं और सोनिया गांधी बुखारी की मिजाजपुर्सी में लगी हैं। जाहिर तौर पर मोदी विरोधियों ने पूरे चुनाव को मोदी विरोध और समर्थन में बदल दिया है। यूं लग रहा है जैसे कि ये गुजरात के मुख्यमंत्री का चुनाव है। जबकि चुनाव तो दिल्ली की सरकार के लिए हो रहे हैं। दिल्ली की सरकार और उसके कामकाज, जनता के मौलिक सवालों पर मोदी संवाद कर रहे हैं। मोदी विरोधी सिर्फ मोदी को कोस रहे हैं। क्या मोदी को रोकना किसी भी तरह की जनतांत्रिक राजनीति का एजेंडा हो सकता है। मोदी को रोकने के लिए शायद ये दल मनमोहन सिंह या कांग्रेस की सरकार को पांच साल और ढोने के लिए तैयार हो जाएं। ऐसा ही दावानल भाजपा की दिल्ली की सरकार बनने पर मचाया गया था। आखिर अटलबिहारी वाजपेयी की दिल्ली की सरकार किस मायने में कम सेकुलर थी। इस सरकार में फारूख अब्दुला के बेटे उमर भी मंत्री थे। आज की सेकुलर राजनीति के मसीहा नीतीश कुमार, ममता बनर्जी सब वाजपेयी सरकार में मंत्री रह चुके हैं। इतना ही नहीं राष्ट्रपति चुनाव में भी भाजपा ने एक ईसाई आदिवासी संगमा को एनडीए ने अपना समर्थन दिया था। ये हालात बताते हैं राजनीति में कोई सिद्धांत या विचारधारा के आधार पर चलना नहीं चाहता, सब अपनी सत्ता, स्वार्थ या सुविधा के आधार पर फैसले करते हैं। नरेंद्र मोदी इसी तरह की विचारहीनता के खिलाफ एक आवाज हैं। उनका देशीपना, उनके वक्तव्यों से आती माटी की महक, उनका साधारण परिवार और परिवेश से आना, एक कुशल प्रशासक और संगठनकर्ता होने की उनकी पहचान कहीं न कहीं लोगों को आतंकित कर रही है। जिस तरह अपने राजनीतिक विरोधियों को उन्होंने समाप्त किया है, वह भी विरोधियों में दहशत भर रही हैं। लेकिन इतना तो मानना होगा कि नरेंद्र मोदी का भारतीय राजनीति में आविर्भाव कोई साधारण घटना नहीं है। अपने जीवन और कर्म से उन्होंने जो हासिल किया है और जो हासिल करने की ओर बढ़ रहे हैं उसने उनको उनको एक परिघटना में बदल दिया है। वे ही ऐसे हैं जो पहले जनता और पार्टी कार्यकर्ताओं के दिल में उतरे और बाद में दल ने उन्हें अपना प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार धोषित किया। एक मुख्यमंत्री होने के नाते उनकी लोकप्रियता और प्रशासनिक क्षमता ही नहीं हिंदी में कुशल व साधारण संवाद की शैली उन्हें बड़ा बनाती है। भारत जैसे महादेश में उनकी यह लोकछवि आज सब पर भारी है। गुजरात जैसे छोटे राज्य के मुख्यमंत्री होते हुए दिल्ली की ओर यह प्रयाण भी साधारण नहीं है। आप आज उनसे नफरत तो कर सकते हैं पर उन्हें नजरंदाज नहीं कर सकते। मोदी की यही ताकत है और यही उनकी सीमा भी है।

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