शुक्रवार, 28 फ़रवरी 2014

अंगड़ाई लेता तीसरा मोर्चा

-संजय द्विवेदी


    तीसरा मोर्चा भारतीय राजनीति का एक अजूबा है किंतु वह है और हर चुनाव के पहले अपनी अहमियत जताने के लिए प्रकट हो ही जाता है। तीसरे मोर्चे के अलग-अलग शिल्पकार हर बार उसे खड़ा कर ही देते हैं और मंच पर उसके दिग्गजों की एकता बताती है कि सारा कुछ बदलने ही वाला है। इस बार इस एकता के सूत्रधार हैं माकपा नेता प्रकाश कारात। अब तक इस मोर्चे में लगभग 11 पार्टियां शामिल हो चुकी हैं जिनमें वाममोर्चा( सीपीआई, सीपीएम, आरएसपी, फारवर्ड ब्लाक), जेडी(एस), जेडी(यू), सपा, बीजेडी, झारखंड विकास मोर्चा और अन्नाद्रमुक शामिल हैं।
   जाहिर तौर पर ऐन चुनाव के वक्त इस कवायद के मायने बहुत स्पष्ट हैं। कांग्रेस की पलती हालत और भाजपा को सत्ता से रोकने की चाह में एकत्र ये दल एक सपने के तहत एकजुट हैं। किंतु संकट यह है कि इस मोर्चॆ में प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार भी कई हैं। वहीं एक व्यापक मोर्चा बनने में भी इसमें खासी बाधाएं हैं। जैसे की मुलायम सिंह यादव के नाते मायावती इस मोर्चे के साथ नहीं आ सकतीं तो वहीं वाममोर्चा के नाते ममता बनर्जी भी इससे दूर हैं। ऐसे में तीसरे मोर्चे के दलों में व्यापक आम सहमति के आसार नजर नहीं आते हैं। हां उनकी उम्मीदें इस बात पर जरूर हैं कि अगर कांग्रेस सत्ता की दौड़ से बाहर होती है और 100 से 150 सीटों पर  सिमटती है ,तो तीसरे मोर्चे को समर्थन देकर वह भाजपा और मोदी का रथ रोक सकती है। यह एक ऐसी कल्पना है जिसके आधार पर ही यह एकजुटता व्यापक होती हुयी दिखती है। यह एकता दलअसल मुद्दों के आधार पर नहीं एक संभावित अवसर के नाम पर हैं।
  तीसरे मोर्चे में शामिल पार्टियों में सबसे बड़ी उम्मीद तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जयललिता हैं। उन्हें नरेंद्र मोदी के खेमे में माना जा रहा था। यह लगभग तय था कि वे राजग की सरकार बनने पर मोदी का समर्थन करेंगीं। किंतु प्रकाश करात की यह बड़ी सफलता है कि वे जयललिता को राजग की ओर जाने से खींच लाए। अब हालात यह हैं कि जयललिता की आंखों में प्रधानमंत्री का सपना तैरने लगा है। अपने खासे जनाधार और द्रमुक नेता करूणानिधि के परिवार में पड़ी फूट ने उनको एक अवसर दिया है कि वे इस तरह के सपने देख सकें। तमिलनाडु की 65 वर्षीय इस मुख्यमंत्री की पार्टी ने पिछले लोकसभा चुनाव में 9 सीटें जीती थीं। अब माहौल के मद्देनजर वे राज्य की चालीस लोकसभा सीटों में ज्यादातर पर जीत के सपने देख रही हैं। तीसरे मोर्चे में शामिल सभी दलों में सबसे बड़े दल के रूप में उभरने पर जयललिता अपने सपनों को हकीकत में बदलता देख सकती हैं। आज हालात यह हैं कि पूरे तमिलनाडु में जयललिता की पार्टी उनको प्रधानमंत्री बनाने का अभियान चला रही है। पार्टी का एक ही नारा है तमिलनाडु और पांडिचेरी का सारी सीटें जीतकर लोकसभा में अपनी नेता को स्थापित करना।
  इसी तरह मोर्चे में शामिल मुलायम सिंह यादव के समर्थक भी उत्तर प्रदेश में भारी जीत दर्ज कराकर दिल्ली के सपने देख रहे हैं। 74 साल के हो चुके मुलायम सिंह यादव के लिए यह एक तरह से आखिरी पारी भी है। उप्र के मुख्यमंत्री और देश के रक्षामंत्री रह चुके मुलायम सिंह के लिए अब सिर्फ प्रधानमंत्री का पद ही बचा है। पिछले लोकसभा चुनावों में उनके दल को उप्र में 23 लोकसभा सीटें मिली थी। अब नेता जी चाहते हैं कि उप्र से ज्यादा से ज्यादा सीटें जीतें ताकि तीसरे मोर्चे के प्रधानमंत्री के लिए वे सबसे आगे हों। बावजूद इसके उप्र में उनके बेटे अखिलेश यादव की सरकार की असफलताएं और दंगों के दाग शायद बड़ी जीत दिला पाएं। किंतु उनकी हर सभा में नेता जी को प्रधानमंत्री बनाने के गीत गाए जा रहे हैं। 80 लोकसभा सीटों वाले इस प्रदेश में मायावती के बाद अब भाजपा भी जोर बांध रही है। मोदी की लहर वहां एक भाजपा के लिए एक बड़ा अवसर बन सकती है।
 क्षेत्रीय दलों की बढ़ती हसरतें इसलिए भी उफान पर हैं क्योंकि लोगों को लग रहा है कि कांग्रेस और भाजपा के नेतृत्व वाले गठबंधन बड़ी सफलताएं पाते हुए नहीं दिख रहे हैं। कांग्रेस जहां डूबता हुआ जहाज दिख रहा है वहीं भाजपा की बढ़त भी सीमित दिख रही है। फिर भाजपा देश के तमाम इलाकों से अभी भी अनुपस्थित है। ऐसे में तीसरे मोर्चे का उत्साह चरम पर है। वामपंथी नेताओं की सबसे बड़ी चिंता सिर्फ मोदी के रथ को रोकने की है किंतु संकट यह है कि वाममोर्चा तो अपने गढ़ पश्चिम बंगाल में ही बेहाल है। ममता बनर्जी के तेवरों के चलते वाममोर्चा को लोकसभा चुनावों में भी बहुत बड़ी सफलता मिलने की उम्मीद नहीं दिखती। दूसरी ओर क्षेत्रीय दलों इस संभावना से भरे- पूरे हैं कि वे अवसर आने पर राजग की राह पकड़ सकते हैं। शायद इसके चलते प्रकाश कारात अभी से उनको गठबंधनों के साथ बांधना चाहते हैं। इस बंधन से शायद नरेंद्र मोदी को समर्थन देने को लेकर दलों में हिचक पैदा हो। राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के अटलबिहारी वाजपेयी प्रयोग की सफलता से भी राजग को लेकर क्षेत्रीय दलों में एक स्वाभाविक आकर्षण है किंतु तीसरे मोर्चे के आगाज से तमाम दल अब अलग राह पकड़ रहे हैं। तीसरे मोर्चे की शक्ति ही उसकी सीमा है। एक तो यह मोर्चा किसी राजनैतिक प्रतिबद्धता के कारण नहीं कांग्रेस-भाजपा विरोध के बीच एक तीसरी तान छेड़ने का वाहक है। दूसरा इसके नेताओं का आपसी समन्वय भी गायब है।
 प्रधानमंत्री पद को लेकर भी राजनेताओं की महत्वाकांक्षाएं आपस में टकरा सकती हैं। एक समय में स्व. हरिकिशन सिंह सुरजीत तीसरे मोर्चे के नायक बने थे और तमाम क्षेत्रीय आकांक्षाओं का साधने का काम उन्होंने किया था। आने वाले समय में प्रकाश करात इस भूमिका में कितने प्रभावशाली साबित होते हैं कह पाना कठिन है। नेताओं के आपसी द्वंद, उनकी क्षेत्रीय अपील, राज्यों के मुद्दे और केंद्रीय राजनीति में एक प्रभावशाली हस्तक्षेप जैसे सवाल इससे जुड़े हैं। तीसरे मोर्चे की सरकारों को देखें तो वे प्रायः किसी राष्ट्रीय नेता के आभामंडल के इर्द-गिर्द बनती नजर आयी हैं। वीपी सिंह, चंद्रशेखर, इंद्रकुमार गुजराल ऐसे ही राजनेता थे। इनमें अकेले देवगौड़ा ऐसे थे जिन्हें क्षेत्रीय नेता कहा जा सकता है। दूसरी ओर इन दलों का संकट यह है कि वे भाजपा के खिलाफ सब एकजुट नहीं होगें। क्योंकि उनमें आपसी मतभेद बहुत गहरे हैं। उप्र में मुलायम और मायावती, प.बंगाल में वाममोर्चा और ममता बनर्जी, बिहार में लालू प्रसाद यादव और नीतिश कुमार के मतभेद बेहद गहरे हैं। ऐसे में वाममोर्चा नेताओं की कोशिशों के बावजूद तीसरा मोर्चा बहुत व्यापक आकार नहीं ले सकता।

   सत्ता कैसे विचारों को बदलती है उसे देखना हो तो वाजपेयी सरकार की याद कीजिए। सेकुलरिज्म और भाजपा विरोध के नारों की असलियत भी उस समय खुल गई जब भाजपा की गठबंधन की सरकार को उमर अब्दुल्ला से लेकर रामविलास पासवान, नीतिश कुमार, जार्ज फर्नांडीस, जलललिता, ममता बनर्जी, चंद्रबाबू नायडू की पार्टियां समर्थन देती नजर आईं। ऐसे में तीसरा मोर्चा एक सपना है जिसके सच चुनाव परिणामों के बाद ही सामने आएंगें। तीसरे मोर्चे की सारी कोशिश मोदी की रफ्तार और गति को थामने की है। राजग की ओर दलों को जाने से रोकने के लिए प्रकाश करात ने यह सारा कुछ रचा है, जिसके परिणाम अभी बहुत जाहिर नहीं हैं। अब जबकि चुनावी महाभारत का शंखनाद हो चुका है। सारे सेनानी मैदान में उतर चुके हैं तो यह देखना रोचक होगा कि कांग्रेस, भाजपा, आप के बीच एक चौथा कोण कौन सी लहरें पैदा करता है। अपने दिग्गज नायकों की मैदानी सफलताओं से भी तीसरे मोर्चे का भविष्य लिखा जाएगा, लेकिन क्या भरोसा कब कौन नेता अपनी फौज के साथ तीसरे मोर्चे को छोड़कर किसी दूसरे मोर्चे में खड़ा दिखा। यही एक बात तीसरे मोर्चे की विश्वसनीयता पर सबसे बड़ा सवाल है। डा. राममनोहर लोहिया कहा करते थे जिंदा कौमें पांच साल तक इंतजार नहीं करती। शायद इसीलिए दिल्ली में बनी तीसरे मोर्चे की कोई सरकार पांच साल नहीं चली। प्रकाश करात की कोशिशों को सलाम कीजिए कि उन्होंने फिर से तीसरे मोर्चे को जिंदा कर दिया है और भारतीय राजनीति फिर एक रोचक मोड़ पर खड़ी हो गयी है।

रविवार, 16 फ़रवरी 2014

केजरीवालः पलायन या नई मंजिल की तलाश ?


-संजय द्विवेदी
    दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने जिस तरह का वातावरण बनाकर अपनी सरकार को शहीद किया, ऐसे दृश्य भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में नहीं देखे गए। सच कहें तो वे एक ऐसे नायक की तरह सामने आए जो अपनी ही सरकार से मुक्ति चाहता था। ऐसा करके अरविंद को क्या हासिल होगा, अभी इसका आकलन होना शेष है किंतु यह तो तय है कि यदि वे चाहते तो सरकार बनी रह सकती थी। कांग्रेस के जिन नेताओं ने इस सरकार को समर्थन दिया था उनको भी कल्पना नहीं रही होगी यह सरकार इतनी जल्दी गिर जाएगी।
   दो महीने से भी कम समय में अरविंद केजरीवाल ने जिस तरह से काम किया उसने कोई उम्मीद नहीं जगाई पर इतना तो साबित कर ही दिया कि उन पर अराजकतावादी होने का आरोप बहुत नाजायज नहीं है। सत्ता में होकर जिस अपेक्षित धैर्य, गंभीरता और सबको साथ लेकर चलने के औदार्य की जरूरत है, वह अरविंद और उनके साथियों में पहले दिन से नदारद है। देश सेवा के अहंकार से भरी देहभाषा और न जाने किस भ्रष्टाचार से जूझने की कसमें खाते अरविंद की विदाई ने सही मायने में देश को निराश किया है। जिस दौर में गठबंधन एक राजनीतिक मजबूरी हो चुके हों उसमें यह जिद कि पूरा बहुमत मिलने पर ही सरकार चलाएंगें एक तरह का बाल हठ ही है और राजनीतिक नासमझी भी है। 1990 के बाद देश की राजनीति और उसका विमर्श पूरी तरह बदल गया है। खासकर विचारधारा के स्तर पर विविध विरोधी विचारधाराओं के दल भी साथ आकर सरकार चला रहे हैं। आप देखें तो पहले  गठबंधन को लेकर कांग्रेस रवैया खासा अलग रहा है। एक अखिलभारतीय पार्टी होने के नाते वह गठबंधन की सरकारों को समर्थन तो देती रही पर खुद गठबंधनों का नेतृत्व करने से केंद्रीय स्तर पर परहेज करती रही। किंतु राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के रूप में अटलबिहारी वाजपेयी सरकार के प्रयोग के बाद कांग्रेस की हिचक दूर हुयी और वह सत्ता में पिछले दस सालों से बनी हुयी है। यानि कि विरोधी विचारों के दलों के साथ मिलकर सरकार चलाने की मजबूरी को दोनों प्रमुख दल भाजपा और कांग्रेस भी समझते हैं। किंतु दिल्ली की सरकार के नायक केजरीवाल इस बात को नहीं समझ सके। अगर पूर्ण बहुमत मिलने पर ही सरकार बनाना था तो उसी समय आप को सत्ता से दूर हो जाना था जब वह जनता के पास जाकर सत्ता में जाने की अनुमति मांग रहे थे। पर यह कितना विरोधाभास है कि जो पार्टी सत्ता को लेकर संकोच से इतनी भरी हो कि वह दिल्ली की जनता के बीच जाकर रायशुमारी करती रही। वही सत्ता छोड़ने के वक्त अपने नेता की सनक पर सत्ता से बाहर हो जाती है और दिल्ली के लोगों की राय उसके लिए बेमानी हो जाती है। यानि यह अरविंद और उनके साथियों की मरजी है कि वे कब किस सवाल पर जनता से राय पूछें और कब न पूछें।
       तमाम अप्रिय प्रसंगों के बीच अरविंद और उनके साथी अब सत्ता मुक्त हैं। यानि अब वे अपनी करने के लिए स्वतंत्र और स्वच्छंद भी हैं। लेकिन दिल्ली के बहुत कम दिनों के सत्ता प्रसंग ने उनके द्वंद्वों को उजागर ही किया है। सत्ता ने उनके विचारों और व्यवहारों को दूरी को तो उजागर किया ही है, अहंकार और अहमन्यता से भरी देहभाषा ने उनकी सनकों का भी लोकव्यापीकरण किया है। खुद को उजली परंपरा का उत्तराधिकारी मानना और दूसरों को कीचड़ में लिपटा हुआ कहने की उनको आजादी है किंतु आंदोलनों की उजास और संषर्घ की आंच को उन सबने धीमा किया है ,इसमें दो राय नहीं है। उनका सत्ता छोड़कर भागना बताता है कि वे सत्ता तो चाहते हैं पर अपनी शर्तों पर चाहते हैं। वे यह मानने को तैयार नही हैं कि दिल्ली विधानसभा की 70 में वे सिर्फ 28 सीटें वे जीते हैं और शेष दिल्ली ने जनादेश दूसरे दलों को दिया है। ऐसे में शेष जनादेश प्राप्त दलों को हाशिए पर रखकर, उनकी आवाज न सुनकर वे एक अधिनायकत्व से भरी पारी खेलना चाहते हैं। जाहिर है लोकतंत्र में इस तरह के हठों के लिए जगह कहां है। समन्वय,संवाद और लोकतांत्रिक विमर्श में उनका यकीन ही नहीं दिखता। वे संवाद को सिर्फ सौदा समझते हैं। जबकि संवाद, लोकतंत्र की बुनियाद बनाता है। अगर संवाद न होगा तो लोकतंत्र के मायने क्या रह जाएंगें? आरोप- आरोप और आरोप की राजनीति इस देश को कहीं नहीं ले जाएगी, हमें यह समझने की जरूरत है।
    एक मुख्यमंत्री के नाते वे जनता का बहुत भला कर सकते थे। लोगों की रोजमर्रा की जिंदगी के दर्द को कम कर सकते थे। किंतु वे भाग गए, इस पलायन में भी वे अवसर ढूंढ सकते हैं। किंतु इसे कहा तो पलायन ही जाएगा। एक ऐसी चीज के लिए जिद जो हो नहीं सकती ,वह बताती है कि अरविंद किस कदर सरकार गिराने पर आमादा थे और सरकार की शहादत के नाम पर आगामी लोकसभा चुनाव में अपने दल का विस्तार चाहते थे। उनकी घबराहट और पलायन दोनों के संदेश साफ हैं कि वे सत्ता के साथ सहज नहीं थे। उन पर पड़ने वाले दबावों को वे झेल सकने की स्थिति में नहीं थे। उनका राजनीतिक डीएनए एक विद्गोही का है, सो सत्ता में रहते हुए वे उस तरह के आचरण करने पर आलोचना की जद में आ रहे थे (याद कीजिए उनका दिल्ली के सीएम के रूप में दिया गया घरना)। आप देखें तो पूरी राजनीतिक प्रक्रिया और तंत्र को लांछित करते अरविंद और उनके साथी मीडिया के द्वारा जरा सी आलोचना पर किस कदर बौखला पड़ते हैं। भाषा और उसके संयम का तो खैर जाने ही दीजिए। अरविंद और उनके साथियों ने सही मायने में देश की जनता और दिल्ली के लोगों से छल किया है। उन्होंने उन लोगों की उम्मीदों के साथ छल किया है, जो उनकी तरफ बहुत आशा से देख रहे थे। दिल्ली की सरकार को पूरी तनदेही और जवाबदेही से चलाते हुए वे एक जनपक्षधर राजनेता की तरह उभर सकते थे।

   अब सवाल यह है कि जिनसे एक छोटा सा राज्य दिल्ली और दो दलों का गठबंधन नहीं संभलता वे केंद्रीय राजनीति में आकर क्या करना चाहते हैं? यहां उन्हें कैसे और कब पूर्ण बहुमत मिलेगा और कब वे सत्ता के लिए तैयार होंगें, कहा नहीं जा सकता। अरविंद अपनी अपनी तमाम खूबियों के बावजूद अंततः एक आंदोलनकारी हैं। यही उनकी शक्ति और सीमा दोनों है। जबकि देश को एक मजबूत, कद्दावर प्रशासक का इंतजार है। जो देश को उसकी तमाम राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, व क्षेत्रीय आकांक्षाओं के साथ साध सके। दिल्ली में गठबंधन की ही सही, पर एक मजबूत सरकार दे सके। जो देश के सवालों से टकरा सके न कि उनका सामना होते ही पलायन कर जाए। आम आदमी पार्टी ने देश के लोगों की तमाम सदिच्छाओं के बावजूद जिस तरह निराश किया है, उसमें यही लगता है यह दल भी कुछ विद्रोही युवाओं का संगठन बनकर रह जाएगा। भारत जैसे महादेश के प्रश्नों और उसके मर्म तक पहुंचकर उसके प्रश्नों से जूझने की शक्ति तो फिलहाल आप में नहीं दिखती। उसके साथ जुड़े तमाम बुद्धिजीवी, रचनाकारों और पत्रकारों को चाहिए वे एक लंबी और सुदीर्ध तैयारी के साथ लोगों के बीच प्रकट हों, तभी यह देश आप जैसे प्रयोगों पर भरोसा कर पाएगा। लोगों की भावनाओं से खेलने ,उन्हें उद्वेलित करने और उनका इस्तेमाल करने से इस तरह के तमाम भावी प्रयोग और आंदोलन भी शक के घेरे में आएंगें कृपया ऐसा मत कीजिए। उम्मीद है कि कि आम आदमी पार्टी अपने भावी कदमों में अपेक्षित परिपक्वता का परिचय देगी और देश की जनाकांक्षाओं को सही संदर्भ में समझकर आचरण करेगी।