मंगलवार, 24 दिसंबर 2013

जन्मदिन(25दिसंबर)परविशेषः करिश्माई नेता हैं वाजपेयी

-संजय द्विवेदी
       

अटलबिहारी वाजपेयी यानि एक ऐसा नाम जिसने भारतीय राजनीति को अपने व्यक्तित्व और कृतित्व से इस तरह प्रभावित किया जिसकी मिसाल नहीं मिलती। एक साधारण परिवार में जन्मे इस राजनेता ने अपनी भाषण कला, भुवनमोहिनी मुस्कान, लेखन और विचारधारा के प्रति सातत्य का जो परिचय दिया वह आज की राजनीति में दुर्लभ है। सही मायने में वे पं.जवाहरलाल नेहरू के बाद भारत के सबसे करिश्माई नेता और प्रधानमंत्री साबित हुए।
   एक बड़े परिवार का उत्तराधिकार पाकर कुर्सियां हासिल करना बहुत सरल है किंतु वाजपेयी की पृष्ठभूमि और उनका संघर्ष देखकर लगता है कि संकल्प और विचारधारा कैसे एक सामान्य परिवार से आए बालक में परिवर्तन का बीजारोपण करती है। शायद इसीलिए राजनैतिक विरासत न होने के बावजूद उनके पीछे एक ऐसा परिवार था जिसका नाम संघ परिवार है। जहां अटलजी राष्ट्रवाद की ऊर्जा से भरे एक ऐसे महापरिवार के नायक बने, जिसने उनमें इस देश का नायक बनने की क्षमताएं न सिर्फ महसूस की वरन अपने उस सपने को सच किया जिसमें देश का नेतृत्व करने की भावना थी। अटलजी के रूप में इस परिवार ने देश को एक ऐसा नायक दिया जो वास्तव में हिंदू संस्कृति का प्रणेता और पोषक बना। याद कीजिए अटल जी की कविता तन-मन हिंदू मेरा परिचय। वे अपनी कविताओं, लेखों ,भाषणों और जीवन से जो कुछ प्रकट करते रहे उसमें इस मातृ-भू की अर्चना के सिवा क्या है। वे सही मायने में भारतीयता के ऐसे अग्रदूत बने जिसने न सिर्फ सुशासन के मानकों को भारतीय राजनीति के संदर्भ में स्थापित किया वरन अपनी विचारधारा को आमजन के बीच स्थापित कर दिया।
समन्वयवादी राजनीति की शुरूआतः
सही मायने में अटलबिहारी वाजपेयी एक ऐसी सरकार के नायक बने जिसने भारतीय राजनीति में समन्वय की राजनीति की शुरूआत की। वह एक अर्थ में एक ऐसी राष्ट्रीय सरकार थी जिसमें विविध विचारों, क्षेत्रीय हितों का प्रतिनिधित्व करने वाले तमाम लोग शामिल थे। दो दर्जन दलों के विचारों को एक मंत्र से साधना आसान नहीं था। किंतु अटल जी की राष्ट्रीय दृष्टि, उनकी साधना और बेदाग व्यक्तित्व ने सारा कुछ संभव कर दिया। वे सही मायने में भारतीयता और उसके औदार्य के उदाहरण बन गए। उनकी सरकार ने अस्थिरता के भंवर में फंसे देश को एक नई राजनीति को राह दिखाई। यह रास्ता मिली-जुली सरकारों की सफलता की मिसाल बन गया। भारत जैसे देशों में जहां मिलीजुली सरकारों की सफलता एक चुनौती थी, अटलजी ने साबित किया कि स्पष्ट विचारधारा,राजनीतिक चिंतन और साफ नजरिए से भी परिवर्तन लाए जा सकते हैं। विपक्ष भी उनकी कार्यकुशलता और व्यक्तित्व पर मुग्ध था। यह शायद उनके विशाल व्यक्तित्व के चलते संभव हो पाया, जिसमें सबको साथ लेकर चलने की भावना थी। देशप्रेम था, देश का विकास करने की इच्छाशक्ति थी। उनकी नीयत पर किसी कोई शक नहीं था। शायद इसीलिए उनकी राजनीतिक छवि एक ऐसे निर्मल राजनेता की बनी जिसके मन में विरोधियों के प्रति भी कोई दुराग्रह नहीं था।
आम जन का रखा ख्यालः
 उनकी सरकार सुशासन के उदाहरण रचने वाली साबित हुई। जनसमर्थक नीतियों के साथ महंगाई पर नियंत्रण रखकर सरकार ने यह साबित किया कि देश यूं भी चलाया जा सकता है। सन् 1999 के राजग के चुनाव घोषणापत्र का आकलन करें तो पता चलता है कि उसने सुशासन प्रदान करने की हमारी प्रतिबद्धता जैसे विषय को उठाने के साथ कहा-लोगों के सामने हमारी प्रथम प्रतिबद्धता एक ऐसी स्थायी, ईमानदार, पारदर्शी और कुशल सरकार देने की है, जो चहुंमुखी विकास करने में सक्षम हो। इसके लिए सरकार आवश्यक प्रशासनिक सुधारों के समयबद्ध कार्यक्रम शुरू करेगी, इन सुधारों में पुलिस और अन्य सिविल सेवाओं में किए जाने वाले सुधार शामिल हैं राजग ने देश के सामने ऐसे सुशासन का आदर्श रखा जिसमें राष्ट्रीय सुरक्षा, राष्ट्रीय पुनर्निर्माण, संघीय समरसता, आर्थिक आधुनिकीकरण, सामाजिक न्याय, शुचिता जैसे सवाल शामिल थे। आम जनता से जुड़ी सुविधाओं का व्यापक संवर्धन, आईटी क्रांति, सूचना क्रांति इससे जुड़ी उपलब्धियां हैं।
एक भारतीय प्रधानमंत्रीः
   अटलबिहारी बाजपेयी सही मायने में एक ऐसे प्रधानमंत्री थे जो भारत को समझते थे।भारतीयता को समझते थे। राजनीति में उनकी खींची लकीर इतनी लंबी है जिसे पारकर पाना संभव नहीं दिखता। अटलजी सही मायने में एक ऐसी विरासत के उत्तराधिकारी हैं जिसने राष्ट्रवाद को सर्वोपरि माना। देश को सबसे बड़ा माना। देश के बारे में सोचा और अपना सर्वस्व देश के लिए अर्पित किया। उनकी समूची राजनीति राष्ट्रवाद के संकल्पों को समर्पित रही। वे भारत के प्रधानमंत्री बनने से पहले विदेश मंत्री भी रहे। उनकी यात्रा सही मायने में एक ऐसे नायक की यात्रा है जिसने विश्वमंच पर भारत और उसकी संस्कृति को स्थापित करने का प्रयास किया। मूलतः पत्रकार और संवेदनशील कवि रहे अटल जी के मन में पूरी विश्वमानवता के लिए एक संवेदना है। यही भारतीय तत्व है। इसके चलते ही उनके विदेश मंत्री रहते पड़ोसी देशों से रिश्तों को सुधारने के प्रयास हुए तो प्रधानमंत्री रहते भी उन्होंने इसके लिए प्रयास जारी रखे। भले ही कारगिल का धोखा मिला, पर उनका मन इन सबके विपरीत एक प्रांजलता से भरा रहा। बदले की भावना न तो उनके जीवन में है न राजनीति में। इसी के चलते वे अजातशत्रु कहे जाते हैं।
  आज जबकि राष्ट्रजीवन में पश्चिमी और अमरीकी प्रभावों का साफ प्रभाव दिखने लगा है। रिटेल में एफडीआई के सवाल पर जिस तरह के हालात बने वे चिंता में डालते हैं। भारत के प्रधानमंत्री से लेकर बड़े पदों पर बैठे राजनेता जिस तरह अमरीकी और विदेशी कंपनियों के पक्ष में खड़े दिखे वह बात चिंता में डालती है। यह देखना रोचक होता कि अगर सदन में अटलजी होते तो इस सवाल पर क्या स्टैंड लेते। शायद उनकी बात को अनसुना करने का साहस समाज और राजनीति में दोनों में न होता। सही मायने में राजनीति में उनकी अनुपस्थिति इसलिए भी बेतरह याद की जाती है, क्योंकि उनके बाद मूल्यपरक राजनीति का अंत होता दिखता है। क्षरण तेज हो रहा है, आदर्श क्षरित हो रहे हैं। उसे बचाने की कोशिशें असफल होती दिख रही हैं। आज भी वे एक जीवंत इतिहास की तरह हमें प्रेरणा दे रहे हैं। वे एक ऐसे नायक हैं जिसने हमारे इसी कठिन समय में हमें प्रेरणा दी और हममें ऊर्जा भरी और स्वाभिमान के साथ साफ-सुथरी राजनीति का पाठ पढ़ाया। हमें देखना होगा कि यह परंपरा उनके उत्तराधिकार कैसे आगे बढाते हैं। उनकी दिखायी राह पर भाजपा और उसका संगठन कैसे आगे बढ़ता है।
   अपने समूचे जीवन से अटलजी जो पाठ पढ़ाते हैं उसमें राजनीति कम और राष्ट्रीय चेतना ज्यादा है। सारा जीवन एक तपस्वी की तरह जीते हुए भी वे राजधर्म को निभाते हैं। सत्ता में रहकर भी वीतराग उनका सौंदर्य है। वे एक लंबी लकीर खींच गए हैं, इसे उनके चाहनेवालों को न सिर्फ बड़ा करना है बल्कि उसे दिल में भी उतारना होगा। उनके सपनों का भारत तभी बनेगा और सामान्य जनों की जिंदगी में उजाला फैलेगा। स्वतंत्र भारत के इस आखिरी  करिश्माई नेता का व्यक्तित्व और कृतित्व सदियों तक याद किया जाएगा, वे धन्य हैं जिन्होंने अटल जी को देखा, सुना और उनके साथ काम किया है। ये यादें और उनके काम ही प्रेरणा बनें तो भारत को परमवैभव तक पहुंचने से रोका नहीं जा सकता। शायद इसीलिए उनको चाहनेवाले उनकी लंबी आयु की दुआ  करते हैं और गाते हुए आगे बढ़ते हैं चल रहे हैं चरण अगणित, ध्येय के पथ पर निरंतर



बुधवार, 13 नवंबर 2013

क्यों सिकुड़ रहा है राष्ट्रीय दलों का जनाधार?

क्षेत्रीय पार्टियों की बढ़ती ताकत से अखिलभारतीयता को मिलती चुनौती
                                                       -संजय द्विवेदी


  अरसा हुआ देश ने केंद्र में पूर्ण बहुमत की सरकार नहीं देखी। स्वप्न सरीखा लगता है जब राजीव गांधी ने 1984 के चुनाव में 415 लोकसभा सीटें जीतकर दिल्ली में सरकार बनायी थी। इतिहास ऐसे अवसर किसी किसी को ही देता है। राजीव गांधी को यह अवसर मिला, यह अलग बात है अपनी राजनीतिक अनुभवहीनता, अनाड़ी दोस्तों की सोहबत और कई गलत फैसलों से उनकी सरकार जल्दी विवादित हो गयी और बोफोर्स के धुंए में सब तार-तार हो गया। तबसे लेकर आजतक दिल्ली को एक ऐसी सरकार का इंतजार है जो फैसलों को लेकर सहयोगियों के दबावों से मुक्त होकर काम कर सके। जो अपनी नीतियों और कार्यक्रमों को दृढ़ता के साथ लागू कर सके। भारतीय संविधान ने अनेक संवैधानिक व्यवस्थाएं करके केंद्रीय शासन को समर्थ बनाया है किंतु इन सालों में हमने प्रधानमंत्री को ही सबसे कमजोर पाया है। सत्ता के अन्य केंद्र, दबाव समूह, सत्ता के साझेदार कई बार ज्यादा ताकतवर नजर आते हैं। वीपी सिंह, देवगौड़ा, इंद्रकुमार गुजराल से लेकर अटलबिहारी वाजपेयी और मनमोहन सिंह सरकार सबकी एक कहानी है।
   इसका सबसे कारण है हमारे राष्ट्रीय राजनीतिक दलों की विफलता और उफान मारती क्षेत्रीय आकांक्षाएं। आखिर क्या हुआ कि हमारे राष्ट्रीय राजनीतिक दल सिमटने लगे और क्षेत्रीय दलों का अभूतपूर्व विस्तार हुआ। राष्ट्रीय दल होने के नाते कांग्रेस का पराभव हुआ, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी और मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी की ताकत घटी और भारतीय जनता पार्टी भी कांग्रेस की छोड़ी हुयी जगहों को तेजी से भर नहीं पायी। जाहिर तौर पर अखिलभारतीयता के विचार और भाव भी हाशिए लग रहे थे। राष्ट्रीय राजनीतिक दल वैसे भी भारत में बहुत ज्यादा नहीं थे। सही मायने में तो कांग्रेस,जनसंघ, सोशलिस्ट पार्टी और कम्युनिस्ट पार्टियां ही अखिलभारतीयता के चरित्र का सही मायने में प्रतिनिधित्व करती थीं किंतु हालात यहां तक आ पहुंचे कि राजीव गांधी को जिस सदन ने 415 का बहुमत दिया, उसी सदन में दूसरी सबसे बड़ी पार्टी तेलगू देशम थी- यानि कि एक क्षेत्रीय दल भारत का प्रमुख विपक्षी दल बन गया। यह समय ही भारत में राष्ट्रीय दलों के क्षरण का प्रारंभकाल है। तबसे आज तक क्षेत्रीय दलों की शक्ति और क्षमता को हम लगातार बढ़ता हुआ देख रहे हैं। समाजवादी आंदोलन के बिखराव ने सोशलिस्ट पार्टी को खत्म कर दिया या वे कई क्षेत्रीय दलों में बंटकर क्षेत्रीय आकांक्षाओं की प्रतिनिधि पार्टिंयां बन गयीं और बचे हुए समाजवादी कांग्रेस- भाजपा-बसपा जहां भी मौका मिला उस दल की गोद में जा बैठे। यह आश्चर्यजनक नहीं है नारायण दत्त तिवारी, अर्जुन सिंह से लेकर भाजपा के आरिफ बेग तक एक समय तक समाजवादी ही थे। किंतु समय बदलता गया और राष्ट्रीय दलों का प्रभामंडल कम होता गया। आज हालात यह हैं कि बिना गठबंधन दिल्ली में कोई दल सरकार बनाने का स्वप्न भी नहीं देखता। जबकि राजनेता तो सपनों के सौदागर ही होते हैं। किंतु वास्तविकता यह है आने वाले आम चुनावों में जनता किस गठबंधन के साथ जाएगी, उसके लिए अपना कुनबा बढ़ाने पर जोर है। नरेंद्र मोदी जैसे समर्थ नेतृत्व की उपस्थिति के बावजूद भाजपा परिवार में चिंता है तो इसी बात की चुनाव के बाद हमें किन-किन दलों का समर्थन मिल सकता है। यह भी सही है कि इस दौर ने विचारधारा के आग्रहों को भी शिथिल किया है। वरना क्या यह साधारण बात थी कि एनडीए की अटलबिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली सरकार में उमर अब्दुला, नीतिश कुमार, रामविलास पासवान, ममता बनर्जी, अरूणाचल के पूर्व मुख्यमंत्री गेगांग अपांग के बेटे तक मंत्री पद पर देखे गए। वहीं जयललिता से लेकर चंद्रबाबू नायडू वाजपेयी सरकार को समर्थन देते रहे। आज कांग्रेस के साथ भी बहुत से दल शामिल हैं। वे भी हैं जो कल तक एनडीए के साथ थे। ऐसे में यह कहना बहुत कठिन है कि राजनीति में अखिलभारतीयता के चरित्र को कैसे स्थापित किया जा सकता है। अखिलभारतीयता एक सोच है,संवेदना है और फैसले लेने में प्रकट होने वाली राष्ट्रीय भावना है। क्षेत्रीय दल उस संवेदना से युक्त नहीं हो सकते, जैसा राष्ट्रीय राजनीतिक दल होते हैं। क्योंकि क्षेत्रीय दलों को अपने स्थानीय सरोकार कई बार राष्ट्रीय हितों से ज्यादा महत्वपूर्ण दिखते हैं। उमर अब्दुला या महबूबा मुफ्ती को क्या फर्क पड़ता है यदि शेष देश को उनके किसी कदम से दर्द होता हो। इसी तरह नवीन पटनायक या जयललिता के लिए उनका अपना राज्य और वोट आधार जिस बात से पुष्ट होता है, वे वैसा ही आचरण करेंगें। लिट्टे के मामले में तमिलनाडु के क्षेत्रीय दलों के रवैये का अध्ययन इसे समझने में मदद कर सकता है। क्षेत्रीय राजनीति किस तरह अपना आधार बनाती है उसे देखना हो तो राज ठाकरे परिघटना भी हमारी सहायक हो सकती है। कैसे अपने ही देशवासियों के खिलाफ बोलकर एक दल क्षेत्रीय अस्मिता की राजनीति करते हुए राज्य में एक शक्ति बन जाता है। निश्चित ही ऐसी राजनीति का विस्तार न सिर्फ घातक है बल्कि देश को कमजोर करने वाला है। इस तरह के विस्तार से सिर्फ केंद्र की सरकार ही कमजोर नहीं होती बल्कि देश भी कमजोर होता है। इसके लिए हमें इन कारणों की तह में जाना होगा कि आखिर ऐसा क्या हुआ कि देश आज क्षेत्रीय दलों की आवाज ज्यादा सुनता है। देश के तमाम राज्यों जैसे जम्मू-कश्मीर, पंजाब, तमिलनाडु, उप्र, बिहार, उड़ीसा, प.बंगाल, झारखंड में जहां क्षेत्रीय दल सत्ता में काबिज हैं तो वहीं अनेक राज्यों में वे सत्ता के प्रबल दावेदार या मुख्य विपक्षी दल हैं। ऐसे में यह कहना बहुत कठिन है कि राजनीति में राष्ट्रीय राजनीतिक दलों के दिल जल्दी बहुरने वाले हैं। क्षेत्रीय दलों के फैसले भावनात्मक और क्षेत्रीय आधार पर ही होते हैं। देश की सामूहिक आकांक्षाएं उनके लिए बहुत मतलब नहीं रखतीं। अपने स्थानीय दृष्टिकोण से बंधे होने के कारण उनकी प्रतिक्रियाएं क्या रूप ले सकती हैं, इसे हम और आप तेलंगाना की आग में जलते हुए आंध्र प्रदेश को देखकर समझ सकते हैं।
    दरअसल अखिलभारतीयता एक चरित्र है। भाजपा जब उसका विस्तार बहुत सीमित था तब भी वह एक अखिलभारतीय चरित्र की पार्टी थी। आज तो वह एक राष्ट्रीय दल है ही। इसी तरह कम्युनिस्ट पार्टियां भले आज बहुत सिकुड़ गयी हैं, उनकी धार कुंद हो गयी हो किंतु वे अपने चरित्र में ही अखिलभारतीय सोच का प्रतिनिधित्व करती हैं। इसी तरह डा. राममनोहर लोहिया के जीवन तक समाजवादी पार्टी भी अखिलभारतीय चरित्र की प्रतिनिधि बनी रही। चौधरी चरण सिंह ने भले ही उप्र, राजस्थान और हरियाणा की पिछड़ा वर्ग, जाट पट्टी में अपना खासा आधार खड़ा किया किंतु उनकी लोकदल एक अखिलभारतीय चरित्र की पार्टी बनी रही। इसका कारण सिर्फ यह था कि ये दल कोई भी फैसला लेते समय देश के मिजाज और शेष भारत पर उसके संभावित असर का विचार करते हैं। पूरे देश में अपने दल की संगठनात्मक उपस्थिति के नाते वे अपने काडर-कार्यकर्ताओं-नेताओं पर पड़ने वाले प्रभावों और फीडबैक से जुड़े होते हैं।
   बावजूद इसके अखिलभारतीयता में आ रही कमी और राष्ट्रीय दलों के सिकुड़ते आधार के लिए इन दलों की कमियों को भी समझना होगा। क्योंकि आजादी के समय कांग्रेस ही सबसे बड़ा दल था जिससे देश की जनता की भावनाएं जुड़ी हुयी थीं। ऐसा क्या हुआ कि राष्ट्रीय दलों से लोग दूर होते गए और क्षेत्रीय दल शक्ति पाते गए। निश्चय ही इसके पीछे सबसे बड़ा कारण यह है कि हमारे राष्ट्रीय राजनीतिक दल क्षेत्रीय आकांक्षाओं, भावनाओं, उनके सपनों को संबोधित नहीं कर पाए। बड़े राजनीतिक दल यह समझ पाने में असफल रहे कि कोई भी राष्ट्रीयता, स्थानीयता के संयोग से ही बनती है। स्थानीयता सह राष्ट्रीयता के मूलमंत्र को भूलकर तमाम क्षेत्रों,वर्गों की तरफ उपेक्षित निगाहें रखी गयीं, उसी का परिणाम है कि आज क्षेत्रीय और जातीय अस्मिताएं दलों के रूप में एक ताकत बनकर सामने आई हैं। वे अपनी संगठित शक्ति से अब न सिर्फ प्रांतीय-स्थानीय सत्ता में प्रभावी हुयी हैं वरन् वे केंद्रीय सत्ता में भी अपनी भागीदारी सुनिश्चित कर रही हैं। ऐसे में राजनीति की अखिलभारतीयता की भावना को खरोंचें लगें तो लगें इससे प्रांतीय, क्षेत्रीय और जातीय अस्मिता की राजनीति करने वालों को बहुत वास्ता नहीं है। वे केंद्रीय सत्ता को सहयोग देकर बहुत कुछ हासिल ही नहीं कर रही हैं, वरन कई बार-बार दिल्ली की सत्ता पर कब्जे का स्वप्न भी देखती हैं। देवगौड़ा को याद कीजिए, मायावती-मुलायम-नीतिश कुमार के सपनों पर गौर कीजिए। मिली-जुली सरकारों के दौर में हर असंभव को संभव होते हुए देखने का यह समय है। यह तो भला हो कि इन क्षेत्रीय क्षत्रपों की आपसी स्पर्धा और महत्वाकांक्षांओं का कि वे एक मंच पर साथ आने को तैयार नहीं हैं और छोटे स्वार्थों में बिखर जाते हैं, वरना क्षेत्रीय दलों के अधिपति ही दिल्ली पति लंबे समय से बने रहते। इसके चलते ही कांग्रेस या भाजपा के पाले में खड़े होना उनकी मजबूरी दिखती है। बावजूद इसके यह सच है कि क्षेत्रीय अस्मिता की राजनीति से इस राष्ट्र का मंगल संभव नहीं है। राष्ट्रीय दलों को अपनी भूमिका को बढ़ाते हुए अपने आत्मविश्वास का प्रदर्शन करना होगा और अपने दम पर केंद्रीय सत्ता में आने के स्वप्न पालने होगें। क्योंकि मजबूत केंद्र के बिना हम अपनी तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था, देश की आकांक्षाओं, सपनों और ज्वलंत प्रश्नों को हल नहीं कर सकते। एक समन्वित रणनीति बनाकर अखिलभारतीय दलों को देश के ज्वलंत प्रश्नों पर एक राय बनानी होगी। कुछ सवालों को राजनीति से अलग रखते हुए देश में एक राष्ट्रीयता की चेतना जगानी होगी। कम्युनिस्ट पार्टियां तो देश की राजनीति में अप्रासंगिक हो गई हैं। समाजवादी आंदोलन भी बिखराव का शिकार है और अंततःजातीय-क्षेत्रीय अस्मिता की नारेबाजियों में फंसकर रह गया है। कांग्रेस, भाजपा की इस दिशा में एक बड़ी जिम्मेदारी है कि वे अपने अखिलभारतीय चरित्र से देश को जोड़ने का काम करें। देश की राजनीति की अखिलभारतीयता का वाहक होने के नाते वे इस चुनौती से भाग भी नहीं सकते।

मंगलवार, 12 नवंबर 2013

मोदी का साथ और राहुल का हाथ



-संजय द्विवेदी
      देश को लोकसभा चुनावों के लिए अभी गर्मियों का इंतजार करना है किंतु चुनावी पारा अभी से गर्म हो चुका है। नरेंद्र मोदी की सभाओं में उमड़ती भीड़, सोशल नेटवर्क में उनके समर्थन-विरोध की आंधी के बीच एक आम हिंदुस्तानी इस पूरे तमाशे को भौंचक होकर देख रहा है। पिछले दो लोकसभा चुनाव हार चुकी भारतीय जनता पार्टी के कार्यकर्ताओं के लिए मोदी एक ऐसी नाव हैं, जिससे इस चुनाव की वैतरणी पार की जा सकती है तो वहीं देश की सेकुलर राजनीति के चैंपियन बनने में लगे दलों को मोदी से खासा खतरा महसूस हो रहा है। यह खतरा यहां तक है कि उन्हें रामरथ के सारथी और अयोध्या आंदोलन के नायक लालकृष्ण आडवानी भी अब सेकुलर लगने लगे हैं। जाहिर तौर पर इस समय की राजनीति का केंद्र बिंदु चाहे-अनचाहे मोदी बन चुके हैं। अपनी भाषणकला और गर्जन-तर्जन के अंदाजे बयां से उन्होंने जो वातावरण बनाया है वह पब्लिक डिस्कोर्स में खासी जगह पा रहा है।
साइबर युद्ध में तटस्थता के लिए जगह नहीः
      माहौल यह है कि आप या तो मोदी के पक्ष में हैं या उनके खिलाफ। तटस्थ होने की आजादी भी इस साइबर युद्ध में संभव नहीं है। सवाल यह है कि क्या देश की राजनीति का इस तरह व्यक्ति केंद्रित हो जाना- वास्तविक मुद्दों से हमारा ध्यान नहीं हटा रहा है। क्योंकि कोई भी लोकतंत्र सामूहिकता से ही शक्ति पाता है। वैयक्तिकता लोकतंत्र के लिए अवगुण ही है। यह आश्चर्य ही है भाजपा जैसी काडर बेस पार्टी भी इस अवगुण का शिकार होती दिख रही है। उसका सामूहिक नेतृत्व का नारा हाशिए पर है। वैयक्तिकता के अवगुण किसी से छिपे नहीं हैं। एक समय में देश की राजनीति में देवकांत बरूआ जैसे लोगों ने जब इंडिया इज इंदिरा, इंदिरा इज इंडिया” जैसी फूहड़ राजनीति शैली से लोकतंत्र को चोटिल करने का काम किया था, तो इसकी खासी आलोचना हुयी थी। यह अलग बात है पं.जवाहरलाल नेहरू जैसा लोकतांत्रिक व्यवहार बाद के दिनों में उनकी पुत्री के प्रभावी होते ही कांग्रेसी राजनीति में दुर्लभ हो गया। हालात यह बन गए राय देने को आलोचना समझा जाने लगा और आलोचना षडयंत्र की श्रेणी में आ गयी। जो बाद में इंदिरा गांधी के अधिनायकत्व के रूप में आपातकाल में प्रकट भी हुयी। हम देखें तो लोकतंत्र के साढ़े छः दशकों के अनुभव के बाद भी भारत की राजनीति में क्षरण ही दिखता है। खासकर राजनीतिक और प्रजातांत्रिक मूल्यों के स्तर पर भी और संसद-विधानसभाओं के भीतर व्यवहार के तल पर भी।
गिरा बहस का स्तरः
      लोकसभा के आसन्न चुनावों के मद्देनजर जिस तरह की बहसें और अभियान चलाए जा रहे हैं वह उचित नहीं कहे जा सकते। इसमें राहुल गांधी और नरेंद्र मोदी की तुलना करने का अभियान भी शामिल है। दोनों तरफ से जिस तरह की अभद्रताएं व्यक्त की जा रही हैं वह विस्मय में डालती हैं। मोदी को लेकर उनके आलोचक जहां अतिवादी रवैया अपना रहे हैं, वहीं मोदी स्वयं अपने से आयु व अनुभव में बहुत छोटे राहुल गांधी को शाहजादे कहकर चटखारे ले रहे हैं। इस तरह की चटखारेबाजी प्रधानमंत्री पद के एक उम्मीदवार को कुछ टीवी फुटेज तो दिला सकती है पर शोभनीय नहीं कही जा सकती। यह बड़प्पन तो कतई नहीं है। राहुल-मोदी एक ऐसी तुलना है जो न सिर्फ गलत है बल्कि यह वैसी ही जैसी कभी मनमोहन-आडवानी की रही होगी। भारतीय गणतंत्र दरअसल दो व्यक्तित्वों का संघर्ष नहीं है। यह विविध दलों और विविध विचारों के चुनावी संघर्ष से फलीभूत होता है। हमारे गणतंत्र में बहुमत प्राप्त दल का नेता ही देश का नायक होता है, वह अमरीकी राष्ट्रपति की तरह सीधे नहीं चुना जाता। इसलिए हमारे गणतंत्र की शक्ति ही सामूहिकता है, सामूहिक नेतृत्व है। यहां अधिनायकत्व के लिए, नायक पूजा के लिए जगह कहां है। इसलिए लोकसभा चुनाव जैसे अवसर को दो व्यक्तियों की जंग बनाकर हम अपने गणतंत्र को कमजोर ही करेगें।
व्यक्तिपरक न हो राजनीतिः
   हमारी राजनीति और सार्वजनिक संवाद को हमें व्यक्तिपरक नहीं समूहपरक बनाना होगा क्योंकि इसी में इस पिछड़े देश के सवालों के हल छिपे हैं। कोई मोदी या राहुल इस देश के सवालों को, गणतंत्र के प्रश्नों को हल नहीं कर सकता अगर देश के बहुसंख्यक जनों का इस जनतंत्र में सहभाग न हो। क्योंकि जनतंत्र तो लोगों की सहभागिता से ही सार्थक होता है। इसलिए हमारी राजनीतिक कोशिशें ऐसी हों कि लोकतंत्र व्यक्ति के बजाए समूह के आधार पर खड़ा हो। श्रीमती इंदिरा गांधी मार्का राजनीति से जैसा क्षरण हुआ है, उससे बचने की जरूरत है।
  नरेंद्र मोदी और राहुल गांधी दो बेहद अलग-अलग मैदान में खेल रहे हैं। किंतु हमें यह मानना होगा कि मोदी द्वारा उठाए जा रहे राष्ट्रवाद के सवालों से देश की असहमति कहां हैं। किंतु कोई भी राष्ट्रवाद कट्टरता के आधार पर व्यापक नहीं हो सकता। उसे व्यापक बनाने के लिए हमें भारतीय संस्कृति, उसके मूल्यों का आश्रय लेना पड़ेगा। एक समावेशी विकास की परिकल्पना को आधार देना होगा। जिसमें महात्मा गांधी, दीनदयाल उपाध्याय  और डा. राममनोहर लोहिया की समन्वित विचारधारा के बिंदु हमें रास्ता दिखा सकते हैं। विकास समावेशी नहीं होगा तो इस चमकीली प्रगति के मायने क्या हैं जिसके वाहक आज मनमोहन-मोंटेक सिंह और पी.चिदंबरम हैं। कल इसी आर्थिक धारा के नायक नरेंद्र मोदी- यशवंत सिन्हा-जसवंत सिंह और अरूण जेतली हो जाएं तो देश तो ठगा ही जाएगा।
विचारधारा के उलट आचरण करती सरकारें-
  राहुल गांधी जो कुछ कह रहे हैं उनकी सरकार उसके उलट आचरण करती है। वे गरीब-आम आदमी सर्मथक नीतियों की बात करते हैं केंद्र का आचरण उल्टा है। क्या बड़ी बात है कि कल नरेंद्र मोदी सत्ता में हों और यही सारा कुछ दोहराया जाए। क्योंकि ऐसा होते हुए लोगों ने एनडीए की वाजपेयी सरकार में देखा है। जब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के दिग्गज स्व. दत्तोपंत ठेंगड़ी ने एनडीए सरकार के वित्त मंत्री को अनर्थ मंत्री की संज्ञा दी थी। ऐसे में आचरण के द्वंद सामने आते हैं। भारतीय राजनीति का अजूबा यह कि मजदूरों-मजलूमों की नारे बाजी करने वाली वामपंथी सरकारें भी पश्चिम बंगाल में नंदीग्राम रच देती हैं। ऐसे में जनता के सामने विमर्श के तमाम प्रश्न हैं, वह देख रही है कि मंच के भाषण और आपके सत्ता में आने के बाद के आचरण में खासा अंतर है। इसने ही देश के जनमन को छलने और अविश्वास से भरने का काम किया है। इसलिए मोदी को देश के सामने खड़े सुरक्षा के सवालों के साथ आर्थिक सवालों पर भी अपना रवैया स्पष्ट करना होगा क्योंकि उनके स्वागत में जिस तरह कारपोरेट घराने लोटपोट होकर उन पर बलिहारी जा रहे हैं, वह कई तरह की दुश्चिताएं भी जगा रहे हैं।
पूंजीवाद को विकसित कीजिए न कि पूंजीवादियों कोः

   आने वाली सरकार के नायकों राहुल गाँधी और नरेंद्र मोदी को यह साफ करना होगा कि वे न सिर्फ समावेशी विकास की अवधारणा के साथ खड़े होंगें बल्कि आमजन उनकी राजनीति के केंद्र में होंगें। उनको यह भी तय करना होगा कि वे आर्थिक पूंजीवाद और विश्व बाजार की सवारी तो करेंगें किंतु वे पूंजीवाद को विकसित करेंगें न कि पूंजीवादियों को। वे देश को प्रेरित करेंगें ताकि यहां उद्यमिता का विकास हो। लोग उद्यमी बनें और उजली आर्थिक संभावनाओं की ओर बढ़ें। एक ऐसा वातावरण बनाना अपेक्षित है, जिसमें युवा संभावनाओं के लिए आगे बढ़ने के अवसर हों और सरकार उनके सपनों के साथ खड़ी दिखे। राहुल गांधी के लिए भी यह सोचने का अवसर है कि आज कांग्रेस के सामने जो सवाल खड़ें हैं उसके लिए उनका दल स्वयं जिम्मेदार है। कांग्रेस की मौकापरस्ती और तमाम ज्वलंत सवालों पर चयनित दृष्टिकोण अपनाकर पार्टी ने अपनी विश्वसनीयता लगभग समाप्त कर ली है। दूसरी तरफ भारतीय जनता पार्टी की सरकारों और कांग्रेस की सरकारों में चरित्रगत अंतर समाप्त होने के कारण जनता के सामने अब दोनों दल सहोदर की तरह नजर आने लगे हैं न कि एक-दूसरे के विकल्प की तरह। नरेंद्र मोदी और राहुल गांधी के लिए आने वाले लोकसभा चुनाव एक अवसर की तरह हैं देखना है कि दोनों अपने आचरण, संवाद तथा प्रस्तुति से किस तरह देश की जनता और दिल्ली का दिल जीतते हैं।

मंगलवार, 5 नवंबर 2013

बसंत कुमार तिवारीः स्वाभिमानी जीवन की पाठशाला

-संजय द्विवेदी 






छत्तीसगढ़ के जाने-माने पत्रकार और देशबंधु के पूर्व संपादक बसंत कुमार तिवारी का न होना जो शून्य रच है उसे लंबे समय तक भरना कठिन है। वे एक ऐसे साधक पत्रकार रहे हैं, जिन्होंने निरंतर चलते हुए, लिखते हुए, धैर्य न खोते हुए,परिस्थितियों के आगे घुटने न टेकते हुए न सिर्फ विपुल लेखन किया ,वरन एक स्वाभिमानी जीवन भी जिया । उनके जीवन में भी एक नैतिक अनुशासन दिखता रहा है। छत्तीसगढ़ की मूल्य आधारित पत्रकारिता के सबसे महत्वपूर्ण हस्ताक्षर बसंत कुमार तिवारी राज्य के एक ऐसे विचारक, लेखक और वरिष्ठ पत्रकार के रूप में सामने आते हैं, जिसने अपनी पूरी जिंदगी कलम की साधना में गुजारी।
आकर्षक व्यक्तित्व के धनीः
  बसंत जी जब रिटायर हो चुके थे तो हमारे जैसे युवा पत्रकारिता में स्थापित होने के हाथ-पांव मार रहे थे। हमने उन्हें हमेशा एक हीरो की तरह देखा। आकर्षक व्यक्तित्व, कार ड्राइव करते हुए जब वे मुझसे मिलने हरिभूमि के धमतरी रोड स्थित दफ्तर आते मैं उनसे कहता सर मैं अवंति विहार से आते समय आपसे मिलता आता, आपका घर मेरे रास्ते में है। अपना लेख लेकर आप खुद न आया करें। वे कहते अरे भाई अभी से घर न बिठाओ। मुझे अजीब सा लगता पर उनकी सक्रियता प्रेरणा भी देती। खास बात यह कि खुद को लेकर, अपने व्यवसाय को लेकर उनमें कहीं कोई कटुता नहीं। कोई शिकायत नहीं। चिड़चिड़ाहट नहीं। वे अकेले ऐसे थे जिन्होंने हमेशा पत्रकारिता के जोखिमों, सावधानियों को लेकर तो हमें सावधान किया पर कभी भी निराश करने वाली बातें नहीं की। उनका घर मेरा-अपना घर था। हम जब चाहे चले जाते और वे अपनी स्वाभाविक मुस्कान से हमारा स्वागत करते। हमने उन्हें कभी संपादक के रूप में नहीं देखा पर सुना कि वे काफी कड़क संपादक थे। हमें कभी ऐसा कभी लगा नहीं। एक बात उनमें खास थी कि उनमें नकलीपन नहीं था। अपने रूचियों, रिश्तों को कभी उन्होंने छिपाया नहीं। वे जैसे थे, वैसे ही लेखन में और मुंह पर भी वैसे। मीडिया विमर्श पत्रिका का प्रकाशन रायपुर से प्रारंभ हुआ तो उन्होंने पहले अंक में ही मेरा समय स्तंभ की शुरूआत की, जिसमें वरिष्ठ पत्रकार अपने अनुभव लिखते थे। बाद में यह स्तंभ लोकप्रिय काफी लोकप्रिय हुआ जिसमें स्व. स्वराज प्रसाद त्रिवेदी, मनहर चौहान, बबन प्रसाद मिश्र, रमेश नैयर जैसे अनेक पत्रकारों ने इसमें अपनी पत्रकारीय यात्रा लिखी। मीडिया विमर्श के वे एक प्रमुख लेखक थे। उसके हर आयोजन में वे अपनी उपस्थिति देते थे। मेरी पत्नी भूमिका को भी उनका बहुत स्नेह मिला। वे जब भी मिलते हम दोनों से बातें करते और परिवार के अभिभावक की तरह चिंता करते। रायपुर में गुजारे बहुत खूबसूरत सालों में वे सही मायने में हमारे अभिभावक ही थे, पिता सरीखे भी और मार्गदर्शक भी। उन्हें देखना, सुनना और साथ बैठना तीनों सुख देता था। अभी हाल में ही पत्रकार और पूर्व मंत्री बी.आर.यादव पर केंद्रित मेरे द्वारा संपादित पुस्तक कर्मपथ में भी उन्होंने बीमारी के बावजूद अपना लेख लिखा। किताब छपी तो उन्हें देने घर पर गया। बहुत खुश हुए बोले कि तुमने इस तरह का डाक्युमेंटन करने का जो काम शुरू किया है वह बहुत महत्व का है।
सांसें थमने तक चलती रही कलमः
   छत्तीसगढ़ के प्रथम दैनिक 'महाकौशल' से प्रारंभ हुई उनकी पत्रकारिता की यात्रा 81 साल की आयु में उनकी सांसें थमने तक अबाध रूप से जारी रही। सक्रिय पत्रकारिता से मुक्त होने के बाद भी उनके लेखन में निरंतरता बनी रही और ताजापन भी। सही अर्थों में वे हिंदी और दैनिक पत्रकारिता के लिए छत्तीसगढ़ में बुनियादी काम करने वाले लोगों में एक रहे। उनका पूरा जीवन मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ की पत्रकारिता को समर्पित रहा । प्रांतीय, राष्ट्रीय और विकासपरक विषयों पर निरंतर उनकी लेखनी ने कई ज्वलंत प्रश्न उठाए हैं। राष्ट्रीय स्तर के कई समाचार पत्रों में उन्होंने निरंतर लेखन और रिपोर्टिंग की करते हुए एक खास पहचान बनाई थी।अपने पत्रकारिता जीवन के लेखन पर आधारित प्रदर्शनी के साथ-साथ पत्रकारिता के इतिहास से जुड़ी 'समाचारों का सफर' नामक प्रदर्शनी उन्होंने लगाई। इसका रायपुर,भोपाल, भिलाई और इंदौर में प्रदर्शन किया गया। उनके पूरे लेखन में डाक्युमेंट्रेशन और विश्वसनीयता पर जोर रहा है, लेकिन इन अर्थों में वे बेहद प्रमाणिक और तथ्यों पर आधारित पत्रकारिता में भरोसा रखते थे। संपादकीय पृष्ठ पर छपने वाली सामग्री को आज भी बहुत महत्वपूर्ण माना जाता है।बसंत कुमार तिवारी के पूरे लेखन का अस्सी प्रतिशत संपादकीय पृष्ठों पर ही छपा है। बोलचाल की भाषा में रिपोर्टिंग, फीचर लेखन और कई पुस्तकों के प्रकाशन के माध्यम से श्री तिवारी ने अपनी पत्रकारिता को विविध आयाम दिए हैं।
   मध्यप्रदेश की राजनीति पर उनकी तीन पुस्तकों में एक प्रामाणिक इतिहास दिखता है। प्रादेशिक राजनीति पर लिखी गई ये पुस्तकें हमारे समय का बयान भी हैं जिसका पुर्नपाठ सुख भी देता है और तमाम स्मृतियों से जोड़ता भी है। वे मध्यप्रदेश में महात्मा गांधी की १२५ वीं जयंती समिति के द्वारा भी सम्मानित किए गए और छत्तीसगढ़ में उन्हें 'वसुंधरा सम्मान' भी मिला। राजनीति, समाज, पत्रकारिता, संस्कृति और अनेक विषयों पर उनका लेखन एक नई रोशनी देता है। उनकी रचनाएं पढ़ते हुए समय के तमाम रूप देखने को मिलते रहे हैं।
असहमति का साहसः
   अपने लेखन की भांति अपने जीवन में भी वे बहुत साफगो और स्पष्टवादी थे। अपनी असहमति को बेझिझक प्रगट करना और परिणाम की परवाह न करना बसंत कुमार तिवारी को बहुत सुहाता था। वे किसी को खुश करने के लिए लिखना और बोलना नहीं जानते थे। इस तरह अपने निजी जीवन में अनेक संघर्षों से घिरे रहकर भी उन्होंने सुविधाओं के लिए कभी भी आत्मसमर्पण नहीं किया। पं. श्यामाचरण शुक्ल और अर्जुन सिंह जैसे दिग्गज नेताओं से बेहद पारिवारिक और व्यक्तिगत रिश्तों के बावजूद वे इन रिश्तों को कभी भी भुनाते हुए नजर नहीं देखे गए। मौलिकता और चिंतनशीलता उनके लेखन की ऐसी विशेषता है जो उनकी सैद्धांतिकता के साथ समरस हो गई थी। उन्हें न तो गरिमा गान आता था, न ही वे किसी की प्रशस्ति में लोटपोट हो सकते थे। इसके साथ ही वे लेखन में द्वेष और आक्रोश से भी बचते रहे हैं। नैतिकता, शुद्ध आचरण और प्रामाणिकता इन तीन कसौटियों पर उनका लेखन खरा उतरता है। उनके पास बेमिसाल शब्द संपदा है। मध्यप्रदेश से लेकर छत्तीसगढ़ की छ: दशकों की पत्रकारिता का इतिहास उनके बिना पूरा नहीं होगा। वे इस दौर के नायकों में एक हैं।  

   पत्रकारिता में आने के बाद और बड़ी जिम्मेदारियां आने के बाद पत्रकारों का लेखन और अध्ययन प्राय: कम या सीमित हो जाता है किंतु श्री तिवारी हमेशा दुनिया-जहान की जानकारियों से लैस दिखते हैं। 80 वर्ष की आयु में भी उनकी कर्मठता देखते ही बनती थी। राज्य में नियमित लिखने वाले कुछ पत्रकारों में वे भी शामिल थे। उनका निरंतर लिखना और निरंतर छपना बहुत सुख देता था। वे स्वयं कहते थे-'मुझे लिखना अच्छा लगता है, न लिखूं तो शायद बीमार पड़ जाऊं।'  उनके बारे में डा. हरिशंकर शुक्ल का कहना है कि वे प्रथमत: और अंतत: पूर्ण पत्रकार ही हैं। यह एक ऐसी सच्चाई है, जो उनके खरेपन का बयान है। उनकी सबसे बड़ी विशेषता यह है कि उम्र का असर उन पर दिखता नहीं था। वे हर आयु, वर्ग के व्यक्ति से न सिर्फ संवाद कर सकते हैं, बल्कि उनके व्यक्तित्व से सामने वाला बहुत कुछ सीखने का प्रयास भी करता है। उनमें विश्लेषण की परिपक्वता और भाषा की सहजता का संयोग साफ दिखता है। वे बहुत दुर्लभ हो जा रही पत्रकारिता के ऐसे उदाहरण थे, जो छत्तीसगढ़ के लिए गौरव का विषय है। उनका धैर्य, परिस्थितियों से जूङाने की उनकी क्षमता वास्तव में उन्हें विशिष्ट बनाती है। अब जबकि वे इस दुनिया में नहीं हैं तो उम्मीद की जानी चाहिए कि आने वाली पीढ़ी के लिए बसंत जी एक ऐसे नायक की तरह याद किए जाएंगें जो हम सबकी प्रेरणा और संबल दोनों है।

शुक्रवार, 25 अक्तूबर 2013

नई प्रौद्योगिकी, साहित्य और मीडिया

                             -संजय द्विवेदी 
     साहित्य और मीडिया की दुनिया में जिस तरह की बेचैनी इन दिनों देखी जा रही है। वैसी पहले कभी नहीं देखी गयी। यह ऐसा समय है जिसमें उसके परंपरागत मूल्य और जनअपेक्षाएं निभाने की जिम्मेदारी दोनों कसौटी पर हैं। बाजार के दबाव और सामाजिक उत्तरदायित्व के बीच उलझी शब्दों की दुनिया अब नए रास्तों की तलाश में है । तकनीक की क्रांति, मीडिया की बढ़ती ताकत, संचार के साधनों की गति ने इस समूची दुनिया को जहां एक स्वप्नलोक में तब्दील कर दिया है वहीं पाठकों एवं दर्शकों से उसकी रिश्तेदारी को व्याख्यायित करने की आवाजें भी उठने लगी है।
       साहित्य की बात करते ही उसकी हमारी चेतना में कई नाम गूंजते हैं जो हिंदी के नायकों में थे, यह खड़ी बोली हिंदी के खड़े होने और संभलने के दिन थे। वे जो नायक थे वे भारतेंदु हरिश्चंद्र हों, प्रेमचंद हों, महावीर प्रसाद द्विवेदी हों ,माखनलाल चतुर्वेदी या माधवराव सप्रे, ये सिर्फ साहित्य के नायक नहीं थे, हिंदी समाज के भी नायक थे। इस दौर की हिंदी सिर्फ पत्रकारिता या साहित्य की हिंदी न होकर आंदोलन की भी हिंदी थी। शायद इसीलिए इस दौर के रचनाकार एक तरफ अपने साहित्य के माध्यम से एक श्रेष्ठ सृजन भी कर रहे थे तो अपनी पत्रकारिता के माध्यम से जनचेतना को जगाने का काम भी कर रहे थे। इसी तरह इस दौर के साहित्यकार समाजसुधार और देशसेवा या भारत मुक्ति के आंदोलन से भी जुड़े हुए थे। तीन मोर्चों पर एक साथ जूझती यह पीढ़ी अगर अपने समय की सब तरह की चुनौतियों से जूझकर भी अपनी एक जगह बना पाई तो इसका कारण मात्र यही था कि हिंदी तब तक सरकारी भाषा नहीं हो सकी थी। वह जन-मन और आंदोलन की भाषा थी इसलिए उसमें रचा गया साहित्य किसी तरह की खास मनःस्थिति में लिखा गया साहित्य नहीं था। वह समय हिंदी के विकास का था और उसमें रचा गया साहित्य लोगों को प्रेरित करने का काम कर रहा था। उस समय के बेहद साधारण अखबार जो जनचेतना जगाने के माध्यम थे और देश की आजादी की लड़ाई में उन्हें एक हथियार की तरह इस्तेमाल किया गया। जबकि आज के अखबार ज्यादा पृष्ठ, ज्यादा सामग्री देकर भी अपने पाठक से जीवंत रिश्ता जोड़ने में स्वयं को क्यों असफल पा रहे हैं, यह पत्रकारिता के सामने भी एक बड़ा सवाल है । क्या बात है कि जहां पहले पाठक को अपने खासअखबार की आदत लग जाती थी । वह उसकी भाषा, प्रस्तुति और संदेश से एक भावनात्मक जुड़ाव महसूस करता था, अब वह आसानी से अपना अखबार बदल लेता है । क्या हिंदी क्षेत्र के अखबार अपनी पहचान खो रहे हैं, क्या उनकी अपनी विशिष्टता का लोप हो रहा है-जाहिर है पाठक को सारे अखबार एक से दिखने लगे हैं। जनसत्ताजैसे प्रयोग भी अपनी आभा खो चुके हैं। मुख्यधारा के मीडिया से साहित्य को लगभग बहिष्कृत सा कर दिया गया है। बाजार ने आंदोलन की जगह ले ली है। मास मीडिया के इस भटकाव का प्रभाव साहित्य पर भी देखा जा रहा है। साहित्य में भी लोकप्रिय लेखन की चर्चा शुरू हो गयी है।
      हिंदी साहित्य पर सबसे बड़ा आरोप यह है कि उसने आजादी के बाद अपनी धार खो दी। समाज के विभिन्न क्षेत्रों में आए अवमूल्यन का असर उस पर भी पड़ा जबकि उसे समाज में चल रहे सार्थक बदलाव के आंदोलनों का साथ देना था। मूल्यों के स्तर पर जो गिरावट आई वह ऐतिहासिक है तो विचार एवं पाठकों के साथ उसके सरोकार में भी कमी आई है।हिंदी का साहित्यिक जगत का क्षेत्र संवेदनाएं खोता गया,जो उसकी मूल पूंजी थे। आजादी के पूर्व हमारी हिन्दी पट्टी का साहित्य सामाजिक एवं राजनीतिक आंदोलन से जुड़कर ऊर्जा प्राप्त करता था।
निर्बल का बल है संचार प्रौद्योगिकीः
      बात अगर नई तकनीक और प्रौद्योगिकी की करें तो उसने हिंदी की ताकत और उर्जा का विस्तार ही किया है। हिंदी साहित्य को वैश्विक परिदृश्य पर स्थापित करने और एक वैश्विक हिंदी समाज को खड़ा करने का काम नयी प्रौद्योगिकी कर रही है। इंटरनेट के अविष्कार ने इसे एक ऐसी शक्ति दी जिसे सिर्फ अनुभव किया जा सकता है। वेबसाइट्स के निर्माण से ई-बुक्स का प्रचलन भी बढ़ा है और नयी पीढ़ी एक बार फिर पठनीयता की ओर लौटी है। हमारे पुस्तकालय खाली पड़े होंगे किंतु साइबर कैफै युवाओं से भरे-पड़े हैं। एक क्लिक से उन्हें दुनिया जहान की तमाम जानकारियां और साहित्य का खजाना मिल जाता है। यह सही है उनमें चैटिंग और पोर्न साइट्स देखनेवालों की भी एक बड़ी संख्या है किंतु यह मैं भरोसे के साथ कह सकता हूं कि नई पीढ़ी आज भी ज्यादातर पाठ्य सामग्री की तलाश में इन साइट्स पर विचरण करती है। साहित्य जगत की असल चुनौती इस पीढ़ी को केंद्र में रखकर कुछ रचने और काम करने की है। तकनीक कभी भी किसी विधा की दुश्मन नहीं होती, वह उसके प्रयोगकर्ता पर निर्भर है कि वह उसका कैसा इस्तेमाल करता है। नई तकनीक ने साहित्य का कवरेज एरिया तो बढ़ा ही दिया ही साथ ही साहित्य के अलावा ज्ञान-विज्ञान के तमाम अनुशासनों के प्रति हमारी पहुंच का विस्तार भी किया है। दुनिया के तमाम भाषाओं में रचे जा रहे साहित्य और साहित्यकारों से अब हमारा रिश्ता और संपर्क भी आसान बना दिया है। भारत जैसे महादेश में आज भी श्रेष्ठ साहित्य सिर्फ महानगरों तक ही रह जाता है। छोटे शहरों तक तो साहित्य की लोकप्रिय पत्रिकाओं की भी पहुंच नहीं है। ऐसे में एक क्लिक पर हमें साहित्य और सूचना की एक वैश्विवक दुनिया की उपलब्धता क्या आश्चर्य नहीं है। हमारे सामने हिंदी को एक वैश्विक भाषा के रूप में स्थापित करने की चुनौती शेष है। यदि एक दौर में बाबू देवकीनंदन खत्री की चंद्रकांता संतति को पढ़ने के लिए लोग हिंदी सीख सकते हैं तो क्या मुश्किल है कि हिंदी में रचे जा रहे श्रेष्ठ साहित्य से अन्य भाषा भाषियों में हिंदी के प्रति अनुराग न पैदा हो। वैश्विक स्तर भी आज हिंदी को सीखने-पढ़ने की बात कही जा रही है वह भले ही बाजार पर कब्जे के लिए हो किंतु इससे हिंदी का विस्तार तो हो रहा है। अमेरिका जैसे देशों में हिंदी के प्रति रूझान यही बताता है.।
      दूसरी महत्वपूर्ण बात तकनीक को लेकर हो हिचक को लेकर है। यह तकनीक सही मायने निर्बल का बल है। इस तकनीक के इस्तेमाल ने एक अनजाने से लेखक को भी ताकत दी है जो अपना ब्लाग मुफ्त में ही बनाकर अपनी रचनाशीलता से दूर बैठे अपने दोस्तों को भी उससे जोड़ सकता है। भारत जैसे देश में जहां साहित्यिक पत्रिकाओं का संचालन बहुत कठिन और श्रमसाध्य काम है वहीं वेब पर पत्रिका का प्रकाशन सिर्फ आपकी तकनीकी दक्षता और कुछ आर्थिक संसाधनों के इंतजाम से जीवित रह सकता है। यहां महत्वपूर्ण यह है कि इस पत्रिका का टिका रहना, विपणन रणनीति पर नहीं, उसकी सामग्री की गुणवत्ता पर निर्भर करता है। वेबसाइट्स पर चलने वाली पत्रिकाएं अपनी गुणवत्ता से जीवित रहती हैं जबकि प्रिंट पर छपने वाली पत्रिकाएं अपनी विपणन रणनीति और अर्थ प्रबंधन की कुशलता से ही दीर्धजीवी हो पाती हैं। सो साहित्य के अनुरागी जनों के लिए ब्लाग जहां एक मुफ्त की जगह उपलब्ध कराता है वहीं इस माध्यम पर नियमित पत्रिका या विचार के फोरम मुफ्त चलाए जा सकते हैं। इसमें गति भी है और गुणवत्ता भी। इस तरह बाजार की संस्कृति का विस्तारक होने की आरोपी होने के बावजूद आप इस माध्यम पर बाजार के खिलाफ, उसकी अपसंस्कृति के खिलाफ मोर्चा खोल सकते हैं। इस मायने में यह बेहद लोकतांत्रिक माध्यम भी है। इसने पत्राचार की संस्कृति को ई-मेल के जरिए लगभग खत्म तो कर दिया है पर गति बढ़ा दी है, इसे सस्ता भी कर दिया है।
ई-संस्कृति विकसित करने की जरूरतः
सही मायने में हिंदी समाज को ई-संस्कृति विकसित करने की जरूरत है जिससे वह इस माध्यम का ज्यादा से ज्यादा बेहतर इस्तेमाल कर सके। यह प्रौद्योगिकी शायद इसीलिए निर्बल का बल भी कही जा सकती है। यह प्रौद्योगिकी उन शब्दों को मंच दे रही है जिन्हें बड़े नामों के मोह में फंसे संपादक ठुकरा रहे हैं। यह आपकी रचनाशीलता को एक आकार और वैश्विक विस्तार भी दे रही है। सही मायने में यह प्रौद्योगिकी साहित्य के लिए चुनौती नहीं बल्कि सहयोगी की भूमिका में है। इसका सही और रचनात्मक इस्तेमाल साहित्य के वैश्विक विस्तार और संबंधों की सघनता के लिए किया जा सकता है। रचनाकार को उसके अनुभव समृद्ध बनाते हैं। हिंदी का यह बन रहा विश्व समाज किसी भी भाषा के लिए सहयोगी साबित हो सकता है। हिंदी की अपनी ताकत पूरी दुनिया में महसूसी जा रही है। हिंदी फिल्मों का वैश्विक बाजार इसका उदाहरण है। एक भाषा के तौर हिंदी का विस्तार संतोषजनक ही कहा जाएगा किंतु चिंता में डालने वाली बात यही है कि वह तेजी से बाजार की भाषा बन रही है। वह वोट मांगने, मनोरंजन और विज्ञापन की भाषा तो बनी है किंतु साहित्य और ज्ञान-विज्ञान के तमाम अनुशासनों में वह पिछड़ रही है। इसे संभालने की जरूरत है। साहित्य के साथ आम हिंदी भाषी समाज का बहुत रिश्ता बचा नहीं है। ऐसे में तकनीक, बाजार या जिंदगी की जद्दोजहद में सिकुड़ आए समय को दोष देना ठीक नहीं होगा। नयी तकनीक ने हिंदी और उस जैसी तमाम भाषाओं को ताकतवर ही बनाया है क्योंकि तकनीक भाषा, भेद और राज्य की सीमाओं से परे है। हमें नए मीडिया के द्वारा खोले गए अवसरों के उपयोग करने वाली पीढ़ी तैयार करना होगा। हिंदी का श्रेष्ठ साहित्य न्यू मीडिया में अपनी जगह बना सके इसके सचेतन प्रयास करने होंगें। हिंदी हर नए माध्यम के साथ चलने वाली भाषा है। आज हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं की यह ताकत ही है कि देश के सर्वाधिक बिकने वाले दस अखबारों में अंग्रेजी का कोई अखबार नहीं है। ज्यादातर टीवी चैनल हिंदी या मिली जुली हिंदी जिसे हिंग्लिश कहा जा रहा है में अपनी बात कहने को कहने को मजबूर हैं। यह हिंदी की ही ताकत है कि वह श्रीमती सोनिया गांधी से लेकर कैटरीना कैफ सबसे हिंदी बुलवा लेती है। हिंदी की यह ताकत उसके उस आम आदमी की ताकत है जो आज भी 20 रूपए रोज पर अपनी जिंदगी जी रहा है। उस समाज को कोई तकनीक तोड़ नहीं सकती,कोई प्रौद्योगिकी तोड़ नहीं सकती। मेहनतकश लोगों की इस भाषा की इसी ताकत को महात्मा गांधी, स्वामी दयानंद ने पहचान लिया था पर कुछ लोग जानकर भी इसे नजरंदाज करते हैं। हिंदी में आज एक बड़ा बाजार उपलब्ध है वह साबुन, शैंपो का है तो साहित्य का भी है। साहित्य की चुनौती यह भी है कि वह अपने को इस बाजार में खड़ा होने लायक बनाए। हिंदी का प्रकाशन जगत लगातार समृद्ध हो रहा है। इस फलते-फूलते प्रकाशन उद्योग का लेखक क्यों गरीब है यह भी एक बड़ा सवाल है। असल चुनौती यहीं है कि हिंदी समाज में किस तरह एक व्यवासायिक नजरिया पैदा किया जाए। क्या कारण है कि चेतन भगत तीन उपन्यास लिखकर अंग्रेजी बाजार में तो स्वीकृति पाते ही हैं ही हिंदी का बाजार भी उन्हें सिर माथे बिठा लेता है। उनकी किताबों के अनुवाद किसी लोकप्रिय हिंदी लेखक से ज्यादा बिक गए। हिंदी समाज को नए दौर के विषयों पर भी काम करना होगा। ऐसी कथावस्तु जिससे हिंदी जगत अनजाना है वह भी हिंदी में आए तो उसका स्वागत होगा। चेतन भगत की सफलता को इसी नजर से देखा जाना चाहिए।
       इन सारी चुनौतियों के बीच भी हिंदी साहित्य को एक नया पाठक वर्ग नसीब हुआ है, जो पढ़ने के लिए आतुर है और प्रतिक्रिया भी कर रहा है। नई प्रौद्योगिकी ने इस तरह के विर्मशों के लिए मंच भी दिया है और स्पेस भी। इसका स्वागत किया जाना चाहिए। इसी प्रौद्योगिकी ने हिंदी में एक तरह का लोकतंत्र भी विकसित किया है। यह हिंदी और उस जैसी तमाम भाषाओं को भी समर्थ करेगा जो अन्यान्य कारणों से उपेक्षा की शिकार रही हैं या होती आयी हैं।
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समाचार संकलन की चुनौतियां

- संजय द्विवेदी
     समाचार संकलन एक चुनौतीपूर्ण दायित्व है। क्योंकि संवाददाता के लिए यह संकट होता है कि वह समाचार किसे माने, किसे न माने। किसे कवर करे, किसे छोड़ दे। आज के दौर में समाचारों की दुनिया बहुत व्यापक हो गयी है। समाज-जीवन में घटने वाली हर गतिविधि आज कवर की जा रही है। अब सिर्फ राजनीति, अपराध और दुर्धटनाएं ही समाचार नहीं है वरन समाचार की दुनिया बहुत व्यापक हो चुकी है।
     समाचार का यह विस्तृत होता आकाश अवसर भी है और चुनौती भी। क्योंकि पत्रकारिता के प्रारंभ में बड़ी घटनाएं कवर होती थीं, अब हर क्षेत्र को कवरेज का हिस्सा माना जाने लगा है ऐसे में विषय पर केंद्रित विशेषज्ञता की जरूरत भी जरूरत भी है। जैसे अब लाइफ स्टाइल के लिए भी संवाददाता रखे जा रहे हैं, सो उनकी खास योग्यता होना जरूरी है। विषय को समझे बिना उसे कवर करना आसान नहीं होता। सो खेल, व्यापार, कारपोरेट, कृषि, फैशन, संगीत, कला, प्रदर्शन कलाएं, जनजातीय मुद्दे, विकास से जुड़े मुद्दे, फिल्म, टीवी, आटो, सर्राफा, महिलाएं, बच्चे, शिक्षा, सैन्य, विदेशी मामले, संसदीय मामले, सूचना प्रौद्योगिकी,जल प्रबंधन जैसे तमाम क्षेत्र संवाददाता से एक खास उम्मीद रखते हैं। सो संवाददाता काम अब मात्र चीजों का सरसरी तौर पर वर्णन करना नहीं अपने पाठक को उसे समझाना भी है। उसे जानकारी के साथ लैस करना भी है। अगर वह ऐसा नहीं करता तो अपने पाठक और संस्थान के साथ अन्याय कर रहा होगा। देश और दुनिया में हो रहे परिवर्तनों के मद्देनजर उसे तैयार रहना होता है। यदि वह ऐसा नहीं कर पाता तो उपहास का पात्र बनता है।
समाचार जिनसे बनता है ( समाचार तत्व)
समाचार यूं ही नहीं बनता उसके कुछ प्रेरक तत्व होते हैं। ये हैं -
1.नवीनता- यानी एकदम नई सूचना जिसे लोग अभी तक नहीं जानते थे।
2.जानकारी- जिससे लोगों को कोई नयी जानकारी पता चलती हो।
3.निकटता- आपके परिवेश से जुड़ी खबर, जिससे आप अपने जिले, गांव, प्रदेश, देश, भाषा के नाते कोई रिश्ता जोड़ पा रहे हैं।
4.महत्व- वह घटना कितनी महत्वपूर्ण है। उसका प्रभाव कितना व्यापक है।
5.विचित्रता- कोई अनहोनी, या हैरत में डालने वाली बात जो आपको चकित कर दे।
6. परिवर्तन- किसी बदलाव का कारण बनने वाली सूचना।
अगर हम श्री नंदकिशोर त्रिखा की मानें तो वे समाचार के तत्वों में इन मुद्दों का उल्लेख करते हैं-
 1.नवीनता, असामान्यता
2.अनपेक्षित भाव
3.आत्मीयता,आकांक्षा
4.व्यक्तिगत प्रभाव
5.निकटता
6.करूणा और भय
7.धन
8.मानवीय पक्ष
9.रहस्य
10.सहानुभूति
  कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि समाचार मानवीय भावनाओं के इर्द-गिर्द ही रहता है। मनुष्य की चेतना और सूचना की आकाँक्षा ही उसके विषयगत विस्तार का कारण है। जैसे- जैसे ज्ञान, विज्ञान और तकनीक की नई शाखाएं विकसित हो रही हैं वैसै- वैसे ही समाज जीवन में मीडिया और सूचना का प्रवाह तेज होता जा रहा है। आज का युग सूचना विस्फोट का समय कहा जा रहा है, सो यह माना जाने लगा है कि जिसके पास जितनी सूचना होगी वह समाज उतना ही समृद्ध समाज होगा। ऐसे में संवाददाता के काम की चुनौती बहुत बढ़ जाती है।
कैसे संवाददाता- कितने संवाददाता-
संवाददाता का काम खबरें भेजना ही है। खबरों का संकलन और उसका प्रेषण यही उसकी जिम्मेदारी है। अखबार जिस स्थान से निकलता है उस केंद्र पर संवाददाताओं की संख्या ज्यादा रहती है। जिन्हें नगर संवाददाता कहा जाता है। उनके प्रमुख को मुख्य नगर संवाददाता या सिटी चीफ या ब्यूरो चीफ अनेक नाम से संबोधित किया जाता है। जो प्रकाशन केंद्र से बाहर से खबरें भेजते हैं उनमें भी दो प्रकार के संवाददाता हैं एक वे जो पूर्णकालिक संवाददाता होते हैं दूसरे वे जो अंशकालिक संवाददाता (Stringer) के तौर पर काम करते हैं। इन्हें इनकी खबरों के आधार पर भुगतान की व्यवस्था होती है। बड़े केंद्रों पर संवाददाता अपनी बीट या विषय के आधार पर बंटे होते हैं। जैसे कोई क्राइम देखता है तो कोई राजनीतिक दल। किंतु छोटे केंद्रों पर क्योंकि गतिविधियां कम होती हैं सो एक ही व्यक्ति काम देख लेता है।
अन्वेषणात्मक रिपोर्टिंग ( खोजी पत्रकारिता)

   आमतौर यह नियमित रिपोर्टिंग का हिस्सा नहीं है क्योंकि इसमें बेहद श्रम, समय और कई बार धन भी खर्च होता है। यह दरअसल छिपी हुयी सच्चाइयों को उजागर करने की दिशा में की जाने वाली पहल है। किसी सूचना की सतही जानकारी नहीं उसकी गहराईयों में जाने का यत्न ही इसकी मूल भावना है। ऐसी जानकारी जिसे कोई पक्ष छिपाने की कोशिश में हो, या उसके उजागर होने से उसका नुकसान संभावित हो। इसके साथ ही यह एक ऐसी खोज है जो अब तक प्रकाश में नहीं आयी थी और पहली बार आपने ही इसे उदघाटित किया है। कुल मिलाकर यह गोपनीयता के भेदन का काम है। कई बड़े घोटाले, भ्रष्टाचार की कथाएं, आपराधिक घटनाओं के पीछे छिपे रहस्य ऐसी ही पत्रकारिता के माध्यम से सामने आ सके हैं। इस तरह की पत्रकारिता का सबसे बड़ा उदाहरण वाटरगेट कांड है जिसने अमरीकी राजनीति में भूचाल आ गया। 1972 में अमेरिकी राष्ट्रपति के चुनाव के बाद दो युवा संवाददाताओं ने अपने अखबार वाशिंगटन पोस्ट को एक बड़ा गौरव दिया और पुलित्जर अवार्ड से सम्मानित किए गए। इस खबर के माध्यम से यह बताया गया कि राष्ट्रपति निक्सन के पुननिर्वाचन अभियान के दौरान विपक्षी उम्मीदवार डेमोक्रेटिव पार्टी के मैक्गवन के वाटरगेट स्थित मुख्यालय की जासूसी की गयी और सरकारी तंत्र का अवैध इस्तेमाल किया गया। यह भी रहस्य सामने आया कि राष्ट्रपति के अपने कार्यालय में अधिकारियों के फोन टेप किए जा रहे थे। इससे निक्सन की प्रतिष्ठा को काफी आधात पहुंचा और उन्हें माफी मांगनी पड़ी। इस मामले में निक्सन के निकट सहायकों को इस्तीफा देना पड़ा। हालात ऐसे हो गए कि निक्सन के इस्तीफे की मांग उठने लगी। देश में संवैधानिक संकट पैदा हो गया। हजारों संभावनाओं से भरा यह क्षेत्र पत्रकारिता के वास्तविक उद्देश्यों की पूर्ति करने वाला है। भारत में भी अंतुले सीमेंट घोटाला, कमला बिक्री कांड., बोफोर्स कांड में इस पत्रकारिता के तेवर देखने को मिले। तमाम स्टिंग आपरेशन में इसी पत्रकारिता की झलक या विस्तार मिलता है।