बुधवार, 3 अक्तूबर 2012

भारत के हर ‘संसाधन’ पर हक है मेरा!



अदालती फैसले को सही संदर्भ में समझने की जरूरत
                  -संजय द्विवेदी
    राष्ट्रपति की ओर से भेजे गए संदर्भ पत्र पर उच्चतम न्यायालय की राय को केंद्र में सत्तारूढ़ पार्टी अपनी विजय के रूप में प्रचारित करने में लगी है। जबकि यह मामले को आधा समझना है। ऐसी आधी-अधूरी समझ से ही संकट खड़े होते हैं। सुप्रीम कोर्ट ने जो फैसला दिया है उसके मूलभाव को समझे बिना- भारत के खनिज संसाधनों पर भी हक है मेरा का गायन ठीक नहीं कहा जा सकता। देश में मची संसाधनों की लूट को कैग ने सही तरीके से समझा है किंतु सरकार इन गंभीर विषयों पर नीति बनाने के बजाए सारा कुछ बाजार और स्वविवेक पर सौंपने की नीति पर चलने के लिए आतुर है।
   देश के राष्ट्रपति महोदय के संदर्भ पत्र पर पांच जजों की संविधान पीठ का फैसला दरअसल सरकार के कामकाज में दखल न देने की भावना ज्यादा है। वैसे भी सरकार का काम नीति बनाना है और नीति बनाते समय यह सावधानी रखना भी है कि इसे लूटतंत्र में न बदला जा सके। केंद्र सरकार को तय करना है कि आखिर देश के प्राकृतिक संसाधनों के मामले में क्या नीति बनाई जाए। किंतु उसे अपनी मनमानियों को जायज ठहराने के लिए इस्तेमाल करना उचित नहीं कहा जा सकता। फैसला बहुत व्यापक संदर्भ की बात करता है और उसने सिर्फ संवैधानिक स्थिति स्पष्ट की है। अदालत ने साफ कहा है कि प्राकृतिक संसाधनों का आवंटन नीतिगत मामला है और यह सरकार का अधिकार है कि वह इसका तरीका तय करे। इसके साथ ही अदालत ने यह भी माना है कि नीलामी बेहतर विकल्प है। अदालत का कहना है कि आबंटन हर हाल में पारदर्शी होना चाहिए। अगर आबंटन का तरीका मनमाना है तो अदालत उसकी समीक्षा करेगी।
   इस फैसले की आड़ लेकर कांग्रेस के कुछ प्रवक्ता और मंत्री जिस तरह कैग को नसीहतें देने में और की गयी लूटपाट को वैधानिक बताने में जुटे हैं, वह ठीक नहीं है। उससे ऐसा प्रतीत होता है जैसे नेतागण संसाधनों की इस लूट को जारी रखने के पक्ष में हैं और किसी नीति-नियम के खिलाफ है। कैग के खिलाफ उनकी उलटबासियां बताती हैं कि वे नहीं चाहते कि उनके कामों की किसी प्रकार से समीक्षा हो। कोई एजेंसी उनके कामों का आंकलन करे इसके लिए भी वे तैयार नहीं हैं। जबकि यह समझना होगा कि सरकार पर आपका हक होने से संसाधनों पर भी आपका हक नहीं  हो जाता बल्कि ये संसाधन देश के हैं। इनका उचित प्रकार दोहन करके प्राप्त राशि को विकास के काम में लगाया जाना चाहिए। यह साधारण नहीं है कि जिन इलाकों से ये खनिज संसाधन निकाले जा रहे हैं वहां रहने वाली आबादी सबसे गरीब है। ये वही इलाके हैं जहां गरीबी, मुफलिसी और बेचारगी फैली हुयी है। ऐसे में यह सवाल उठना लाजिमी है कि ये संसाधन जिन लोगों के इलाकों से निकाले जा रहे हैं क्या उनका इन पर कोई हक नहीं हैं। अगर है तो क्यों न इन इलाकों से होने वाली आय का एक बड़ा हिस्सा सरकारें इन पर खर्च करें। खनिज संसाधनों से युक्त अमीर घरती पर अगर देश के सबसे गरीब लोग बसते हैं तो यह हमारे लोकतंत्र की बिडंबना ही कही जाएगी। ऐसे में इस विरोधाभास को हटाने और खत्म करने की भी जरूरत महसूस की जा रही है।
   खुद मंत्रिमंडलीय समूह ने कोयला खदानों के आबंटन में हुई अनियमितताओं को उचित पाया है और तमाम आबंटन रद कर दिए हैं। अगर नीलामी के जरिए ये आबंटन हुए होते तो निश्चय ही सरकार को ज्यादा फायदा हुआ होता। कम से कम नकली कंपनियां और फर्जी पतों का इस्तेमाल कर अनुभवहीन कंपनियां तो मैदान में नहीं कूदतीं,वही कंपनियां सामने आती जिनकी व्यवसाय में रूचि है। निश्चित रूप से नीलामी के बजाए कथित विवेकाधिकार भ्रष्टाचार को ही जन्म देगा और घोटालों को एक संस्थागत रूप मिल जाएगा। जिस चावला समिति का गठन सरकार ने किया था, उसने भी प्रतिस्पर्धी बोली के पक्ष में सिफारिश की थी। हालांकि केंद्र ने सुप्रीम कोर्ट में कहा कि उसने चावला समिति की सिफारिशें स्वीकारी नहीं हैं। ऐसे में इस फैसले की आड़ लेकर सरकार अगर पुरानी नीति को जारी रहने देती है तो निश्चय ही देश के राजस्व को चूना ही लगेगा। हमारे खनिज संसाधनों की लूट यूं ही होती रहेगी और हम इस घाटे के नाते पैदा हालतों में एफडीआई जैसे टोटकों से अपनी अर्थव्यवस्था को संभालने का जतन करते रहेंगें।
   यह दुखद ही है कि आला अदालत ने जाने क्यों सरकारों की मनमानियों को देखते हुए भी उन पर भरोसा किया है जबकि क्या ही बेहतर होता कि वह सरकार को एक मुकम्मल नीति बनाने का सुझाव देती और उसे विधायिका से स्वीकृत लेकर लागू करने की बात कहती। हमारी आला अदालत ने भले ही सरकार के सम्मान को बहाल रखते हुए एक सकारात्मक फैसला सुनाया है, किंतु टूजी स्पेक्ट्रम से लेकर कोलगेट तक जो राह हमारी राजनीति ने चुनी है, उसे देखने के बाद देश भरोसे से खाली है। आज वह सिर्फ सुप्रीम कोर्ट पर ही भरोसा करने के लिए विवश है। ऐसे में अदालत का भी सरकार को बेलगाम छोड़ देना, बड़े संकट रच सकता है। बावजूद इसके यह उम्मीद रखनी चाहिए कि हमारे प्रधानमंत्री इस संबंध में नीतियां बनाने में वही उत्साह दिखाएंगें जैसा वे आर्थिक सुधारों के लिए दिखा रहे हैं। भरोसे से खाली देश में नीतियां ही हमारी मार्गदर्शक बन सकती हैं। हर अधिकार के साथ कर्तव्य भी जुड़े हैं और इतनी तो उम्मीद की ही जानी चाहिए कि देश के संसाधनों की तरफ ललचाई नजरों से देखती हुयी राजनीति कम से यह तो न कहे कि भारत के हर प्राकृतिक संसाधन पर हक है मेरा।

हिन्दी विकास के लिए व्यवस्थित योजना जरूरीः प्रो. कुठियाला






भोपाल, 2अक्टूबर। माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. बृजकिशोर कुठियाला का कहना है कि हिन्दी के विकास के लिए एक व्यवस्थित योजना और लक्ष्य तय करने होंगे। इस लक्ष्य को पेशेवर विपणन रणनीति के जरिए ही हासिल किया जा सकता है। दक्षिण अफ्रीका के जोहान्सबर्ग में आयोजित नवें अन्तरराष्ट्रीय हिन्दी सम्मेलन में भाग लेकर भोपाल लौटे प्रो. कुठियाला विश्वविद्यालय परिवार के साथ अपनी यात्रा के अनुभवों को साझा कर रहे थे। गांधी, हिन्दी और अफ्रीकाविषय पर आयोजित इस व्याख्यान का आयोजन इलेक्ट्रानिक मीडिया विभाग ने किया था।
    प्रो. कुठियाला ने कहा कि हिन्दी के विकास में बाधा उसकी कट्टरता है। अगर हम हिन्दी ही की जगह हिन्दी भी का रवैया अपना लें और उसका अन्य भारतीय भाषाओं के साथ बड़ी बहन की जगह बहनापा बने तो वह अपने विकास में खुद सक्षम है और उसको किसी की मदद की जरुरत नहीं है। उन्होंने सम्मेलन के नौ सत्रों में हुई चर्चा का सार संक्षेप और पारित किये गये प्रस्तावों तथा बहस के प्रमुख बिन्दुओं के बारे में भी चर्चा की। हिंदी सम्मेलन में लोकतंत्र और मीडिया की भाषा के रुप में हिन्दीके सत्र में वक्ता के रुप में श्री कुठियाला ने सम्मेलन में लोकतंत्र, मीडिया और हिन्दी पर बुनियादी सवाल उठाए। उन्होंने आश्चर्य व्यक्त किया कि आखिर आज कम्प्यूटर पर हिन्दी में वर्तनी जांचनेऔर सर्च इंजन बनाने का काम क्यों नहीं हो सका।
    अपने वक्तव्य में उन्होंने दक्षिण अफ्रीका के समाज, मीडिया और कानून व्यवस्था पर भी रोशनी डाली। कई देशों की यात्रा कर चुके प्रो. कुठियाला ने कहा कि दक्षिण अफीका के आदमी में एक संतोष दिखता है जो अन्य देशों में दुर्लभ है।उन्होंने भारतीय परिवेश के साथ ही वहां के अनुभवों की रोचक तुलना की। कार्यक्रम का संचालन इलेक्ट्रानिक मीडिया विभाग के विभागाध्यक्ष प्रो. आशीष जोशी ने किया। इस अवसर पर विश्वविद्यालय के कुलाधिसचिव प्रो. रामदेव भारद्वाज, विभागाध्यक्षगण सर्वश्री संजय द्विवेदी, पुष्पेंद्रपाल सिंह,ड़ा. पवित्र श्रीवास्तव, डा. पी शशिकला सहित अनेक शिक्षक, अधिकारी और विद्यार्थी मौजूद थे। अंत में आभार प्रदर्शन प्रदीप डहेरिया ने किया।