शनिवार, 19 मई 2012

घर में ही बेगानी उर्दू और उसकी पत्रकारिता


-संजय द्विवेदी

   हिंदुस्तान में रहते हुए हम किसी भी इलाके में जाएं उर्दू हमारा साथ नहीं छोड़ती। वह हिंदी की ही तरह राष्ट्रभाषा है, जिसकी जमीन बहुत व्यापक और जड़ें बहुत गहरी हैं। पाकिस्तान के निर्माण ने उर्दू की इस रफ्तार को रोक दिया। उर्दू एक खास तबके की भाषा बनकर रह गयी। वह हिंदुस्तानी जबान से एक कौम की जबान बन गयी या बना दी गयी। ऐसे समय में उर्दू सहाफत (पत्रकारिता) पर बात करना सच में अतीत के उन सुनहरे पन्नों को टटोलने की कोशिश है, जब जंगे आजादी की लड़ाई में उर्दू अखबारों ने सबसे कड़े शब्दों में अंग्रेजी सत्ता का प्रतिकार किया था।
   उर्दू भी अन्य भारतीय भाषाओं की तरह अपनी पत्रकारिता, साहित्य और अभिव्यक्ति के विभिन्न माध्यमों से हिंदुस्तान की आजादी की मांग कर रही थी। आजादी मिलने और पाकिस्तान बनने के सिलसिले ने इस भाषा को जिस तरह से तंगनजरी का शिकार बनाया उसका उदाहरण ढूंढने से भी नहीं मिलेगा। भाषा दिलों को जोड़ती है, वह संवाद का माध्यम है। उसमें हमारी भावनाएं, संवेदनाएं, सुख-दुख, प्यार, इबादत, रूसवाई सब कुछ शामिल होते हैं। सारी संवेदनाओं को अभिव्यक्ति देने में सक्षम भाषाएं ही विस्तार पाती हैं और लोगों का प्यार पाती हैं। उर्दू के पास भी सारा कुछ था। विपुल साहित्य, शेरो-शायरी की दुनिया और संवेदनाओं को बहुत बेहतर तरीके से व्यक्त करने का साहस और सलीका। लेकिन क्या हुआ कि उर्दू अपने घर में ही बेगानी हो गयी? वह हमारी जबान नहीं रही। वह किसी गैर मुल्क की जबान बन गयी। जबकि सच यह है कि पूरा पाकिस्तान भी उर्दू को नहीं स्वीकारता, बांग्लादेश के अलग होने की कहानी में भाषा भी एक बड़ा सवाल था। बंटवारे ने उर्दू को जो जख्म दिए उसमें वह पाकिस्तान की भाषा तो बन नहीं पाई और हिंदुस्तान के बड़े हिस्से में भी उसे रूसवाईयां झेलनी पड़ीं। राजनीतिक कारणों से उसे कुछ राज्यों ने दूसरी राजभाषा का दर्जा जरूर दे दिया है किंतु उसकी उपेक्षा साफ दिखती है।
    उर्दू पत्रकारिता के पास भी आज पाठक नहीं है। इसका सबसे बडा कारण यह है कि उर्दू की कोई एक जमीन नहीं है, एक प्रदेश नहीं है, एक इलाका नहीं है। उसके पाठक बिखरे हुए हैं और किसी भी राज्य में पहली लोकप्रिय भाषा के तौर पर प्रचलित नहीं है। जैसे बांगला के पास पश्चिम बंगाल, मराठी के पास महाराष्ट्र, मलयालम के पास केरल जैसे उदाहरणों से हमें समझना होगा कि किसी राज्य की प्रथम भाषा न होने के कारण उर्दू की कोई खालिश जमीन नहीं है। पूरा वतन ही उसकी जमीन है।वह समूचे देश में पढ़ी और समझी जाती है पर उसके पाठक बिखरे हुए हैं। जबकि आज के मीडिया को बाजार चाहिए, पाठक चाहिए और खरीददार चाहिए। बिखरी हुयी जमीन के कारण कोई दैनिक अखबार उर्दू के पास ऐसा नहीं है जो हिंदुस्तान के दस या बीस बड़े अखबारों में अपनी जगह बना सके। उर्दू अखबार नई तकनीकों के इस्तेमाल, बेहतर छाप-छपाई के बावजूद नहीं पढ़े जा रहे हैं क्योंकि उसके पास पाठक या तो नहीं हैं या बिखरे हुए हैं। इसके चलते उर्दू अखबारों की माली हालत भी खराब रहती है। उन्हें सरकार के उपर ही निर्भर रहना पड़ता है। फिर उर्दू अखबारों ने अपने पाठक के हिसाब से ही अपना कटेंट निश्चित किया है और वे इस्लामी दुनिया में ज्यादा दिलचस्पी दिखाते हैं। ऐसे में एक बड़ा पाठक वर्ग उनसे जुड़ नहीं पाता।
   भारत के तमाम बड़े शहरों मुंबई, हैदराबाद, लखनऊ, भोपाल, दिल्ली, चंड़ीगढ़ या पंजाब के तमाम शहर उर्दू अखबारों के कद्रदान हैं किंतु उर्दू का अपना भूगोल न होना या बहुत विस्तारित होना एक बड़ी समस्या है। सरकारी निर्भरता से अलग उर्दू के अखबार अपना आर्थिक माडल खड़ा नहीं कर पा रहे हैं। यह प्रसन्नता की बात है राष्ट्रीय सहारा के उर्दू रोजनामा और दैनिक जागरण समूह के इंकलाब के आने के बाद एक नई तरह की पत्रकारिता का विकास उर्दू में भी देखने को मिल रहा है। इसी तरह उर्दू के चैनल भी आज अच्छा काम कर रहे हैं। उर्दू के धार्मिक, समाचार और मनोरंजन चैनलों की जगह भी बन रही है। उनके कार्यक्रम पसंद किए जा रहे हैं। इससे जाहिर तौर पर उर्दू भी अब अपना बाजार तलाश रही है। फिल्मी गीतों में उसकी जगह महत्वपूर्ण है ही। अनुवाद के माध्यम से अनेक बडे शायर और लेखक बाकी भाषाओं में पढ़े और सराहे जा रहे हैं। ऐसे में एक भाषा के तौर पर उर्दू के विस्तार और लोकप्रियता की संभावनाएं मरी नहीं हैं। उर्दू की पत्रकारिता पर विमर्श के अवसर भी हैं और आत्मपरीक्षण के भी। उर्दू सबको लेकर चल सकती है और अपनी नैसर्गिक मिठास से वह हिंदुस्तान की सरजमीं पर फिर से चहक सकती है। इसमें समाज और मीडिया दोनों को अपनी जिम्मेदारियां निभानी होंगीं। एक भाषा के तौर पर उर्दू को बचाना ही होगा क्योंकि उर्दू इस देश की जमीन की भाषा है, उसमें हिंस्दुस्तान का इतिहास, उसकी सांसें और संघर्ष धड़कते हैं। वह जाने कितने शायरों, दानिशमंदों की जुबां से निकलकर लोगों की रूहों को छू लेने की क्षमता रखने वाली भाषा है। हिंदुस्तानी कौम का इतिहास उर्दू के बिना पूरा नहीं होगा। उसकी आत्मीयता, उसकी प्रांजलता, सरलता और प्रवाह उसके साहित्य और पत्रकारिता दोनों में दिखता है।
   आज की उर्दू पत्रकारिता के मुद्दे देश की भाषाई पत्रकारिता के मुद्दों से अलग नहीं हैं. समूची भारतीय भाषाओं के सामने आज अंग्रेजी और उसके साम्राज्यवाद का खतरा मंडरा रहा है। कई भाषाओं में संवाद करता हिंदुस्तान दुनिया और बाजार की ताकतों को चुभ रहा है। उसकी संस्कृति को नष्ट करने के लिए पूरे हिंदुस्तान को एक भाषा (अंग्रेजी) में बोलने के लिए विवश करने के प्रयास चल रहे हैं। अपनी मातृभाषाओं को भूल कर अंग्रेजी में गपियाने वाली जमातें तैयार की जा रही हैं,जिनकी भाषा, सोच और सपने सब विदेशी हैं। अमरीकी और पश्चिमी देशों की तरफ उड़ान भरने को तैयार ये पीढ़ी अपनी जड़ों को भूल रही है। उसे गालिब, रहीम, रसखान, सूर, कबीर, तुलसी, मीरा, मलिक मोहम्मद जायसी के बजाए पश्चिमी धुनों पर थिरकाया जा रहा है।
   जड़ों से विस्मृत होती इस पीढ़ी को मीडिया की ताकत से बचाया जा सकता है। अपनी भाषाओं, जमीन और संस्कृति से प्यार पैदा करके ही देशप्रेम और राष्ट्रवाद से भरी पीढ़ी तैयार की जा सकती है। उर्दू पत्रकारिता की बुनियाद भी इन्हीं संस्कारों से जुड़ी है। वह भी भारतीयता का एक अद्भुत पाठ है। उर्दू पत्रकारिता पर केंद्रित इस किताब के बहाने हमें एक बार फिर उस देश की सोचने की जरूरत है, जिसे हम काफी पीछे छोड़ आएं हैं। यह किताब देवनागरी में प्रकाशित की जा रही है ताकि हिंदी भाषी पाठक भी उर्दू पत्रकारिता के स्वर्णिम अतीत और वर्तमान में उसके संधर्ष का आकलन कर सकें। उर्दू और उसकी पत्रकारिता को बचाना दरअसल एक भाषा भर को बचाने का मामला नहीं है, वह प्रतिरोध है बाजारवाद के खिलाफ, प्रतिरोध है उस अधिनायकवादी मानसिकता के खिलाफ जो विविधताओं को, बहुलताओं को, स्वीकार करने को स्वीकारने और आदर देने के लिए तैयार नहीं है। यह प्रतिरोध है हिंदुस्तान की सभी मातृभाषाओं का, जो मरने के लिए तैयार नहीं हैं। वे अंग्रेजी के साम्राज्यवाद के खिलाफ डटकर खड़ी हैं और खड़ी रहेंगीं।

बाजार और मीडिया के बीच भारतीय भाषाएं


-         संजय द्विवेदी
     हिंदी और भारतीय भाषाओं को लेकर समाज में एक अजीब सा सन्नाटा है। संचार व मीडिया की भाषा पर कोई बात नहीं करना चाहता। उसके जायज-नाजायज इस्तेमाल और भाषा में दूसरी भाषाओं खासकर अंग्रेजी की मिलावट को लेकर भी कोई प्रतिरोध नजर नहीं आ रहा है। ठेठ हिंदी का ठाठ जैसे अंग्रेजी के आतंक के सामने सहमा पड़ा है और हिंदी और भारतीय भाषाओं के समर्थक एक अजीब निराशा से भर उठे हैं। ऐसे में मीडिया की दुनिया में इन दिनों भाषा का सवाल काफी गहरा हो जाता है। मीडिया में जैसी भाषा का इस्तेमाल हो रहा है उसे लेकर शुध्दता के आग्रही लोगों में काफी हाहाकार व्याप्त है। चिंता हिंदी की है और उस हिंदी की जिसका हमारा समाज उपयोग करता है। बार-बार ये बात कही जा रही है कि हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं में अंग्रेजी की मिलावट से हमारी भाषाएं अपना रूप-रंग-रस और गंध खो रही है।

बाजार की सबसे प्रिय भाषाः
 हिंदी हमारी भाषा के नाते ही नहीं,अपनी उपयोगिता के नाते भी आज बाजार की सबसे प्रिय भाषा है। आप लाख अंग्रेजी के आतंक का विलाप करें। काम तो आपको हिंदी में ही करना है, ये मरजी आपकी कि आप अपनी स्क्रिप्ट देवनागरी में लिखें या रोमन में। यह हिंदी की ही ताकत है कि वह सोनिया गांधी से लेकर कैटरीना कैफ सबसे हिंदी बुलवा ही लेती है। उड़िया न जानने के आरोप झेलनेवाले नेता नवीन पटनायक भी हिंदी में बोलकर ही अपनी अंग्रेजी न जानने वाली जनता को संबोधित करते हैं। इतना ही नहीं प्रणव मुखर्जी की सुन लीजिए वे कहते हैं कि वे प्रधानमंत्री नहीं बन सकते क्योंकि उन्हें ठीक से हिंदी बोलनी नहीं आती। कुल मिलाकर हिंदी आज मीडिया, राजनीति,मनोरंजन और विज्ञापन की प्रमुख भाषा है।  हिंदुस्तान जैसे देश को एक भाषा से सहारे संबोधित करना हो तो वह सिर्फ हिंदी ही है। यह हिंदी का अहंकार नहीं उसकी सहजता और ताकत है। मीडिया में जिस तरह की हिंदी का उपयोग हो रहा है उसे लेकर चिंताएं बहुत जायज हैं किंतु विस्तार के दौर में ऐसी लापरवाहियां हर जगह देखी जाती हैं। कुछ अखबार प्रयास पूर्वक अपनी श्रेष्टता दिखाने अथवा युवा पाठकों का ख्याल रखने के नाम पर हिंग्लिश परोस रहे हैं जिसकी कई स्तरों पर आलोचना भी हो रही है। हिंग्लिश का उपयोग चलन में आने से एक नई किस्म की भाषा का विस्तार हो रहा है। किंतु आप देखें तो वह विषयगत ही ज्यादा है। लाइफ स्टाइल, फिल्म के पन्नों, सिटी कवरेज में भी लाइट खबरों पर ही इस तरह की भाषा का प्रभाव दिखता है। चिंता हिंदी समाज के स्वभाव पर भी होनी चाहिए कि वह अपनी भाषा के प्रति बहुत सम्मान भाव नहीं रखता, उसके साथ हो रहे खिलवाड़ पर उसे बहुत आपत्ति नहीं है। हिंदी को लेकर किसी तरह का भावनात्मक आधार भी नहीं बनता, न वह अपना कोई ऐसा वृत्त बनाती है जिससे उसकी अपील बने।
समर्थ बोलियों का संसारः
हिंदी की बोलियां इस मामले में ज्यादा समर्थ हैं क्योंकि उन्हें क्षेत्रीय अस्मिता एक आधार प्रदान करती है। हिंदी की सही मायने में अपनी कोई जमीन नहीं है। जिस तरह भोजपुरी, अवधी, छत्तीसगढ़ी, बुंदेली, बधेली, गढ़वाली, मैथिली,बृजभाषा जैसी तमाम बोलियों ने बनाई है। हिंदी अपने व्यापक विस्तार के बावजूद किसी तरह का भावनात्मक आधार नहीं बनाती। सो इसके साथ किसी भी तरह की छेड़छाड़ किसी का दिल भी नहीं दुखाती। मीडिया और मनोरंजन की पूरी दुनिया हिंदी के इसी विस्तारवाद का फायदा उठा रही है किंतु जब हिंदी को देने की बारी आती है तो ये भी उससे दोयम दर्जे का ही व्यवहार करते हैं। यह समझना बहुत मुश्किल है कि विज्ञापन, मनोरंजन या मीडिया की दुनिया में हिंदी की कमाई खाने वाले अपनी स्क्रिप्ट इंग्लिश में क्यों लिखते हैं। देवनागरी में किसी स्क्रिप्ट को लिखने से क्या प्रस्तोता के प्रभाव में कमी आ जाएगी, फिल्म फ्लाप हो जाएगी या मीडिया समूहों द्वारा अपने दैनिक कामों में हिंदी के उपयोग से उनके दर्शक या पाठक भाग जाएंगें। यह क्यों जरूरी है कि हिंदी के अखबारों में अंग्रेजी के स्वनामधन्य लेखक, पत्रकार एवं स्तंभकारों के तो लेख अनुवाद कर छापे जाएं उन्हें मोटा पारिश्रमिक भी दिया जाए किंतु हिंदी में मूल काम करने वाले पत्रकारों को मौका ही न दिया जाए। हिंदी के अखबार क्या वैचारिक रूप से इतने दरिद्र हैं कि उनके अखबारों में गंभीरता तभी आएगी जब कुछ स्वनामधन्य अंग्रेजी पत्रकार उसमें अपना योगदान दें। यह उदारता क्यों। क्या अंग्रेजी के अखबार भी इतनी ही सदाशयता से हिंदी के पत्रकारों के लेख छापते हैं।
रोमन में हो रहा है कामः
 पूरा विज्ञापन बाजार हिंदी क्षेत्र को ही दृष्टि में रखकर विज्ञापन अभियानों को प्रारंभ करता है किंतु उसकी पूरी कार्यवाही देवनागरी के बजाए रोमन में होती है। जबकि अंत में फायनल प्रोडक्ट देवनागरी में ही तैयार होना है। गुलामी के ये भूत हमारे मीडिया को लंबे समय से सता रहे हैं। इसके चलते एक चिंता चौतरफा व्याप्त है। यह खतरा एक संकेत है कि क्या कहीं देवनागरी के बजाए रोमन में ही तो हिंदी न लिखने लगी जाए। कई बड़े अखबार भाषा की इस भ्रष्टता को अपना आर्दश बना रहे हैं। जिसके चलते हिंदी सरमायी और सकुचाई हुई सी दिखती है। शीर्षकों में कई बार पूरा का शब्द अंग्रेजी और रोमन में ही लिख दिया जा रहा है। जैसे- मल्लिका का BOLD STAP या इसी तरह कौन बनेगा PM जैसे शीर्षक लगाकर आप क्या करना चाहते हैं। कई अखबार अपने हिंदी अखबार में कुछ पन्ने अंग्रेजी के भी चिपका दे रहे हैं। आप ये तो तय कर लें यह अखबार हिंदी का है या अंग्रेजी का। रजिस्ट्रार आफ न्यूजपेपर्स में जब आप अपने अखबार का पंजीयन कराते हैं तो नाम के साथ घोषणापत्र में यह भी बताते हैं कि यह अखबार किस भाषा में निकलेगा क्या ये अंग्रेजी के पन्ने जोड़ने वाले अखबारों ने द्विभाषी होने का पंजीयन कराया है। आप देखें तो पंजीयन हिंदी के अखबार का है और उसमें दो या चार पेज अंग्रेजी के लगे हैं। हिंदी के साथ ही आप ऐसा कर सकते हैं। संभव हो तो आप हिंग्लिश में भी एक अखबार निकालने का प्रयोग कर लें। संभव है वह प्रयोग सफल भी हो जाए किंतु इससे भाषायी अराजकता तो नहीं मचेगी।
हिंदी के खिलाफ मनमानीः
हिंदी में जिस तरह की शब्द सार्मथ्य और ज्ञान-विज्ञान के हर अनुशासन पर अपनी बात कहने की ताकत है उसे समझे बिना इस तरह की मनमानी के मायने क्या हैं। मीडिया की बढ़ी ताकत ने उसे एक जिम्मेदारी भी दी है। सही भाषा के इस्तेमाल से नई पीढ़ी को भाषा के संस्कार मिलेंगें। बाजार में हर भाषा के अखबार मौजूद हैं, मुझे अंग्रेजी पढ़नी है तो मैं अंग्रेजी के अखबार ले लूंगा, वह अखबार नहीं लूंगा जिसमें दस हिंदी के और चार पन्ने अंग्रेजी के भी लगे हैं। इसी तरह मैं अखबार के साथ एक रिश्ता बना पाता हूं क्योंकि वह मेरी भाषा का अखबार है। अगर उसमें भाषा के साथ खिलवाड़ हो रहा है तो क्या जरूरी है मैं आपके इस खिलवाड़ का हिस्सा बनूं। यह दर्द हर संवेदनशील हिंदी प्रेमी का है। हिंदी किसी जातीय अस्मिता की भाषा भले न हो यह इस महादेश को संबोधित करनेवाली सबसे समर्थ भाषा है। इस सच्चाई को जानकर ही देश का मीडिया, बाजार और उसके उपादान अपने लक्ष्य पा सकते हैं। क्योंकि हिंदी की ताकत को कमतर आंककर आप ऐसे सच से मुंह चुरा रहे हैं जो सबको पता है। हजारों-हजार गीत, कविताएं, साहित्य, शिल्प और तमाम कलाएं नष्ट होने के कगार पर हैं। किंतु उनके गुणग्राहक कहां हैं। एक विशाल भू-भाग में बोली जाने वाली हजारों बोलियां, उनका साहित्य-जो वाचिक भी है और लिखित भी। उसकी कलाचेतना, प्रदर्शन कलाएं सारा कुछ मिलकर एक ऐसा लोक रचती है जिस तक पहुंचने के लिए अभी काफी समय लगेगा। लोकचेतना तो वेदों से भी पुरानी है। क्योंकि हमारी परंपरा में ही ज्ञान बसा हुआ है। ज्ञान, नीति-नियम, औषधियां, गीत, कथाएं, पहेलियां सब कुछ इसी लोकका हिस्सा हैं। हिंदी अकेली भाषा है जिसका चिकित्सक भी कविरायकहा जाता था। बाजार आज सारे मूल्य तय कर रहा है और यह लोकको नष्ट करने का षडयंत्र है। यह सही मायने में बिखरी और कमजोर आवाजों को दबाने का षडयंत्र भी है। इसका सबसे बड़ा शिकार हमारी बोलियां बन रही हैं, जिनकी मौत का खतरा मंडरा रहा है। अंडमान की बोनाम की भाषा खत्म होने के साथ इसका सिलसिला शुरू हो गया है। भारतीय भाषाओं और बोलियों के सामने यह सबसे खतरनाक समय है। आज के मुख्यधारा के मीडिया के पास इस संदर्भों पर काम करने का अवकाश नहीं है। किंतु समाज के प्रतिबद्ध पत्रकारों, साहित्यकारों को आगे आकर इस चुनौती को स्वीकार करने की जरूरत है क्योंकि लोककी उपेक्षा और बोलियों को नष्ट कर हम अपनी प्रदर्शन कलाओं, गीतों, शिल्पों और विरासतों को गंवा रहे हैं। जबकि इसके संरक्षण की जरूरत है।
बढ़ती ताकत के बावजूद उपेक्षाः
भारतीय भाषाओं के प्रकाशन आज अपनी प्रसार संख्या और लोकप्रियता के मामले में अंग्रेजी पर भारी है, बावजूद इसके उसका सम्मान बहाल नहीं हो रहा है। इंडियन रीडरशिप सर्वे की रिपोर्ट देंखें तो सन् 2011 के आंकडों में देश के दस सर्वाधिक पढ़े जाने वाले अखबारों में अंग्रेजी का एक मात्र अखबार है वह भी छठें स्थान पर। जिसमें पहले तीन स्थान हिंदी अखबारों के लिए सुरक्षित हैं। यानि कुल पहले 10 अखबारों में 9 अखबार भारतीय भाषाओं के हैं। आईआरएस जो एक विश्वसनीय पाठक सर्वेक्षण है के मुताबिक अखबारों की पठनीयता का क्रम इस प्रकार है-
1.दैनिक जागरण (हिंदी)
2. दैनिक भास्कर (हिंदी)
3.हिंदुस्तान (हिंदी)
4. मलयालम मनोरमा( मलयालम)
5.अमर उजाला (हिंदी)
6.द टाइम्स आफ इंडिया (अंग्रेजी)
7.लोकमत (मराठी)
8.डेली थांती (तमिल)
9.राजस्थान पत्रिका (हिंदी)
10. मातृभूमि (मलयालम)
  देश की सर्वाधिक पढ़ी जाने वाली पत्रिकाओं में भी पहले 10 स्थान पर अंग्रेजी के मात्र दो प्रकाशन शामिल हैं। इंडियन रीडरशिप सर्वे के 2011 के आंकड़े देखें तो देश में सर्वाधिक प्रसार संख्या वाली पत्रिका वनिता (मलयालम) है। दूसरा स्थान हिंदी के प्रकाशन प्रतियोगिता दर्पण को प्राप्त है। देश में सर्वाधिक पढ़ी जाने वाली पत्रिकाओं का क्रम इस प्रकार हैः
  1. वनिता (मलयालम)-पाक्षिक
  2. प्रतियोगिता दर्पण (हिंदी)-मासिक
  3. सरस सलिल( हिंदी)-पाक्षिक
  4. सामान्य ज्ञान दर्पण (हिंदी)-मासिक
  5. इंडिया टुडे (अंग्रेजी)-साप्ताहिक
  6. मेरी सहेली (हिंदी)-मासिक
  7. मलयालया मनोरमा (मलयालम)-साप्ताहिक
  8. क्रिकेट सम्राट (हिंदी)-मासिक
  9. जनरल नालेज टुडे (अंग्रेजी)-मासिक
  10. कर्मक्षेत्र (बंगला)-साप्ताहिक       ( स्रोतः आईआरएस-2011 क्यू फोर)
भाषा के अपमान का सिलसिलाः
  इस संकट के बरक्स हम भाषा के अपमान का सिलसिला अपनी शिक्षा में भी देख सकते हैं। हालात यह हैं कि मातृभाषाओं में शिक्षा देने के सारे जतन आज विफल हो चुके हैं। जो पीढ़ी आ रही है उसके पास हिंग्लिस ही है। वह किसी भाषा के साथ अच्छा व्यवहार करना नहीं जानती है। शिक्षा खासकर प्राथमिक शिक्षा में भाषाओं की उपेक्षा ने सारा कुछ गड़बड़ किया है। इसके चलते हम एक ऐसी पीढ़ी तैयार कर चुके हैं जिनमें भारतीय भाषाओं और हिंदी के लिए आदर नहीं है। इसलिए पापुलर का पाठ गाता मीडिया भी ऐसी मिश्रित भाषा के पीछे भागता है। साहित्य के साथ पत्रकारिता की बढ़ी दूरी और भाषा के साथ अलगाव ने मीडिया को एक नई तरह की भाषा और पदावली दी है। जिसमें वह संवाद तो कर रहा है किंतु उसे आत्मीय संवाद में नहीं बदल पा रहा है। जिस भाषा के मीडिया का साहित्य से एक खास रिश्ता रहा हो, उसकी पत्रकारिता ने ही हिंदी को तमाम शब्द दिए हों और भाषा के विकास में एक खास भूमिका निभायी हो, उसकी बेबसी चिंता में डालती है। भाषा, साहित्य और मीडिया के इस खास रिश्ते की बहाली जरूरी है। क्योंकि मीडिया का असर उसकी व्यापकता को देखते हुए साहित्य की तुलना में बहुत बड़ा है। किंतु साहित्य और भाषा के आधार अपने मीडिया की रचना खड़ी करना जरूरी है,क्योंकि इनके बीच में अंतरसंवाद से मीडिया का ही लाभ है। वह समाज को वे तमाम अनुभव भी दे पाएगा जो मीडिया की तुरंतवादी शैली में संभव नहीं हो पाते। पापुलर को साधते हुए मीडिया को उसे भी साधना होगा जो जरूरी है। मीडिया का एक बड़ा काम रूचियों का परिष्कार भी है। वह तभी संभव है जब वह साहित्य और भाषा से प्रेरणाएं ग्रहण करता रहे। भाषा की सहजता से आगे उसे भाषा के लोकव्यापीकरण और उसके प्रति सम्मान का भाव भी जगाना है तभी वह सही मायने में भारत का मीडियाबन पाएगा।

शुक्रवार, 18 मई 2012

मोहब्बत की हदें और सरहदें


बाजार, राजनीति और सत्ता के निशाने पर है भारतीय स्त्री की शुचिता
                    -संजय द्विवेदी

      फ्रांस के राष्ट्रपति भवन में अपनी प्रेमिका के साथ नए राष्ट्रपति फ्रांरवा ओलांद के रहने  की खबर वहां के समाज में बहुत अप्रत्याशित नहीं है। फ्रांस के लोगों को इस बात की बहुत परवाह नहीं है कि नैतिकता को वे इस तरह से देखें। उनके लिए शायद वफादारी बहुत बड़ा सवाल न हो। वहां के पूर्व राष्ट्रपति सरकोजी भी इस मामले में ज्यादा ईमानदार दिखते हैं कि वे अपने प्रेम को स्वीकार करते हैं अपनी प्रेमिका कार्ला ब्रूनी के साथ शादी कर लेते हैं। जबकि बहुत से समाज या उनकी राजनीति इतनी उदार नहीं है कि इन घटनाओं को आसानी से पचा जाए।
समाज में जारी पाखंड पर्वः
अमरीका जैसे समाज में भी नैतिकता के उच्च मापदंडों की नेताओं से अपेक्षा की जाती है। नेताओं की बीबियां किसी भी राजनैतिक अभियान का एक प्रमुख चेहरा होती हैं। शायद इससे यह संदेश जाता हो कि एक हंसते-खेलते परिवार का मुखिया शायद देश ठीक से चला सके। दुनिया के अनेक समाज इस तरह के पाखंड के साथ ही जीते हैं। समाज जैसा भी जीवन जी रहा हो, वह अपने नायकों से उच्च नैतिक मापदंडों की अपेक्षा करता है। सार्वजनिक जीवन में भ्रष्टाचार और व्यभिचार ऐसे ही पाखंडों से पैदा होते हैं। नारायणदत्त तिवारी के साथ पितृत्व के सवाल पर लड़ रहे रोहित शेखर या भोपाल की शेहला मसूद- जाहिदा और ध्रुवनारायण कथा हो या फिर अभिषेक मनु सिंघवी की कहानी। सब हमारे सार्वजनिक जीवन के द्वंद को उजागर करते हैं। नेता भी तो समाज का ही हिस्सा है। जब पूरा समाज पाखंड पर्व में डूबा हो तो सच्चा प्यार इस बाजार में दुर्लभ ही है। हालांकि हिंदुस्तानी समाज, राज कर रहे नेतृत्व को अपने से अलग मानकर चलता है। उसने कभी अपनी नैतिकताएं राज करने वालों लोंगों पर नहीं थोपीं और मानकर चला कि उन्हें भोग करने, ज्यादा सुख से जीने और थोड़ा अलग करने का हक है। राजाओं की भोग-विलास की कथाएं, नवाबों के हरम, रईसों के शौक पर पलते कोठों से लेकर रखैलों का सारा खेल इस समाज ने देखा है और खामोश रहा है।
नेताओं की रूमानियतः
  आज जबकि समाज जीवन में बहुत खुलापन आ गया है तो इस तरह की चर्चाएं बहुत जल्दी आम हो जाती हैं किंतु पूर्व में भी ऐसे किस्से लगातार कहे और सुने गए। प्रेम की कथाएं हिंदुस्तानियों के बहुविवाहों के चलते दबी पड़ी रहीं और अब वे लगातार दूसरी तरह से कही जा रही हैं। हमारे नेतृत्व में बैठे नेताओं की रूमानियत चर्चा में रही है। किंतु रूमानियत, मोहब्बत और प्रेम की ये कथाएं अलग-अलग तरीके से विश्लेषित किए जाने की मांग करती हैं। एक कहानी में प्यार सच्चा हो सकता है। किंतु ज्यादातर कहानियों में पुरूष एक शिकारी सरीखा नजर आता है, उसके लिए महिलाएं एक ट्राफी सरीखी हैं। सत्ता, अधिकार और पैसा , ज्यादा औरतों का उपयोग करने की मानसिकता को बढ़ाता हैं। अभिषेक मनु सिंधवी और बिल क्लिंटन जैसी कथाओं से इसे समझा जा सकता है, इसमें स्त्री का प्यार सहज नहीं है। वह उपयोग हो रही है, सेक्स में साथ है किंतु उसमें प्यार नहीं है। इसमें कुछ पाने की आकांक्षा छिपी हुयी है। पुरूष दाता की भूमिका में है, वह स्त्री को सड़क से उठाकर शिखर पर बिठा सकता है। यह स्त्री का एक अलग तरह का संधर्ष है, जिसके माध्यम से वह जल्दी व ज्यादा पाना चाहती है। उप्र के मंत्री रहे अमरमणि त्रिपाठी- कवियत्री मधुमिता शुक्ला की कहानी, पत्रकार शिवानी भटनागर जैसी तमाम कहानियां हमें बताती हैं स्त्री किस तरह शिकार हो रही है, या शिकार की जा रही है। स्त्री और पुरूष के बीच बन रहे ये रिश्ते भले सहमति से बन रहे हैं किंतु दोनों पक्षों में गैरबराबरी बहुत प्रकट है। इन कहानियां में प्यार नहीं है, पर रिश्तों की हदें तोड़कर जान लेती कहानियां जरूर हैं। स्त्री यहां भी एक शिकार है। शिकारी पुरूष हो या उसकी पत्नी या प्रेमिका, किंतु जान तो औरत की जा रही है। सत्ता और अधिकार से जुड़े पुरूषों के ये हरम निरंतर विस्तार पा रहे हैं। सत्ता का नशा और औरतें जमाने से साथ-साथ चली हैं। जर-जोरू और जमीन जैसे मुहावरे हमें यही बताते हैं। निश्चित ही अपने घरों में पोर्न देखते लोगों पर आप आपत्ति नहीं कर सकते पर जब यही सत्ता के मदांध लोग विधानसभा में पोर्न फिल्में देख रहे हों तो इसे स्वीकार नहीं किया जा सकता। जनता की जेब से जाने वाले धन से चल रही विधायिका में आप ऐसा कैसे कर सकते हैं, जो समय आपने संसद या विधानसभा में जनता के सवालों पर संवाद पर के लिए दिया है, वहां ऐसी हरकतें हमारी राजनीति के प्रति दया जगाती हैं।
निजी जीवन में झांकते कैमरेः
   निश्चत ही निजी जीवन में झांकना और फेसबुकिया चरित्रहनन संवाद से सहमति नहीं जताई जा सकती। निजता के सम्मान के सवाल अपनी जगह महत्वपूर्ण हैं किंतु हमें यह तो स्वीकारना ही होगा कि बाजार, राजनीति और सत्ता मदमस्त होकर स्त्री की शुचिता का अपहरण करने में लगी है। दुखद है कि सत्ता और राजनीति की इस आकांक्षा को औरतों ने भी पहचान लिया है और वे इसका इस्तेमाल करने में, जल्दी और ज्यादा पाने की कोशिश में कई बार सफल हो जाती हैं तो कई बार अपनी जान तक गवां बैठती हैं। सत्ता पूरब की हो पश्चिम की वह अपने चरित्र में ही भ्रष्ट और व्यभिचारी होती है। आशिकमिजाज ताकतवर नेता और अधिकारी कथित प्रेम में पगलाई स्त्रियों के साथ जो कर रहे हैं वह बात चिंता में डालती है।
बाजार के केंद्र में स्त्रीः
 भारतीय संदर्भ में हम देखें तो पूरी व्यवस्था और बाजार के केंद्र में भारतीय स्त्री है और उद्देश्य उसकी शुचिता का उपहरण । सेक्स सांस्कृतिक विनिमय की पहली सीढ़ी है। शायद इसीलिए जब कोई भी हमलावर किसी भी जातीय अस्मिता पर हमला बोलता है तो निशाने पर सबसे पहले उसकी औरतें होती हैं । यह बाजारवाद अब भारतीय अस्मिता के अपहरण में लगा है-निशाना भारतीय औरतें हैं। स्त्री आज के समय में वह घर और बाहर दोनों स्थानों अपेक्षित आदर प्राप्त कर रही है। वह समाज को नए नजरिये से देख रही है। उसका आकलन कर रही है और अपने लिए निरंतर नए क्षितिज खोल रही है। ऐसी सार्मथ्यशाली स्त्री को शिखर छूने के अवसर देने के बजाए हम उसे बाजार के जाल में फंसा रहे हैं। वह अपनी निजता और सौंदर्यबोध के साथ जीने की स्थितियां और आदर समाज जीवन में प्राप्त कर सके हमें इसका प्रयास करना चाहिए। हमारे समाज में स्त्रियों के प्रति धारणा निरंतर बदल रही है। वह नए-नए सोपानों का स्पर्श कर रही है। माता-पिता की सोच भी बदल रही है वे अपनी बच्चियों के बेहतर विकास के लिए तमाम जतन कर रहे हैं। स्त्री सही मायने में इस दौर में ज्यादा शक्तिशाली होकर उभरी है। किंतु बाजार हर जगह शिकार तलाश ही लेता है। वह औरत की शक्ति का बाजारीकरण करना चाहता है। हमें देखना होगा कि भारतीय स्त्री पर मुग्ध बाजार उसकी शक्ति तो बने किंतु उसका शोषण न कर सके। आज में मीडियामय और विज्ञापनी बाजार में औरत के लिए हर कदम पर खतरे हैं। पल-पल पर उसके लिए बाजार सजे हैं। देह के भी, रूप के भी, प्रतिभा के भी, कलंक के भी। हद तो यह कि कलंक भी पब्लिसिटी के काम आ रहे हैं। क्योंकि यह समय कह रहा है कि दाग अच्छे हैं। बाजार इसी तरह से हमें रिझा रहा है और बोली लगा रहा है। ऐसे कठिन समय में हमें स्त्रियों को बाजार, राजनीति, सत्ता के प्रलोभनों को समझना होगा। सत्ता और बाजार के हरम सजे पड़े हैं, उससे बचना और अपनी इयत्ता को बचाए रखना ही भारतीय स्त्री को मुक्त करेगा और सम्मानित भी।

सोमवार, 7 मई 2012

नक्सलवाद के खिलाफ हमारी मिमियाहटें


 
कोई भ्रष्ट तंत्र माओवाद से कैसे जीतेगा जंग ?
-संजय द्विवेदी
   
उड़ीसा और छत्तीसगढ़ की सरकारें दो कलेक्टरों और एक विधायक के अपहरण से सदमे से फिर उबर आई हैं। लेकिन यह सवाल मौजूं है कि आखिर कब तक?  उड़ीसा के मलकानगिरी के कलेक्टर से लेकर छत्तीसगढ़ के सुकमा कलेक्टर के अपहरण तक हमने देखा कि सरकारें इन सवालों पर कितनी बदहवास और किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाती हैं। यह दर्द शुक्रवार को दिल्ली में छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह के बयान में भी दिखा जिसमें उन्होंने कहा कि अपहरण पर राष्ट्रीय नीति बने और सीएम का  भी अपहरण हो तो भी आरोपी छोड़े न जाएं।
हम तय करें अपना पक्षः
    अब सवाल यह उठता है कि भारतीय राज्य का नक्सलवाद जैसी समस्या के प्रति रवैया क्या है? क्या राज्य इसे एक सामाजिक-आर्थिक समस्या मानता है या माओवाद को एक ऐसी संगठित आतंकी चुनौती के रूप में देखता है, जिसका लक्ष्य 2050 तक भारत की राजसत्ता पर बंदूकों के बल पर कब्जा करना है। नक्सली अपने इरादों में बहुत साफ हैं। वे कुछ भी छिपाते नहीं और हमारे तंत्र की खामियों का फायदा उठाकर अपना क्षेत्र विस्तार कर रहे हैं, हजारों करोड़ की लेवी वसूल रहे हैं और अपने तरीके से एक कथित जनक्रांति को अंजाम दे रहे हैं। हर साल हमारी सरकारें नक्सल आपरेशन के नाम पर हजारों करोड़ खर्च कर रही हैं, किंतु अंजाम सिफर है। हमारे हिस्से बेगुनाह आदिवासियों और सुरक्षाकर्मियों की लाशें ही आ रही हैं। सवाल यह भी उठता है कि क्या भारतीय राज्य नक्सलवाद से लड़ना चाहता है? क्या वह इस समस्या के मूल में बैठे आदिवासी समाज की समस्याओं के प्रति गंभीर है? क्या स्वयं आदिवासी समाज के बडे पदों पर बैठे नेता, अधिकारी और जनप्रतिनिधि इस समस्या का समाधान चाहते हैं? क्या इस पूरे विमर्श में आदिवासी या आदिवासी नेतृत्व कहीं शामिल है? इन सवालों से टकराएं और इनके ठोस व वाजिब हलों की तलाश करें तो पता चलता है कि सरकार से लेकर प्रभुवर्गों में इन मुद्दों को लेकर न तो कोई समझ है ना ही अपेक्षित गंभीरता।
बस्तर में गिरती लाशें-
   सरकारें चुनाव जीत रही हैं और माओवाद प्रभावित इलाकों से भी प्रतिनिधि जीतकर आ रहे है। सरकार चल रही है और बजट खर्च हो रहा है। उप्र, बिहार और ऐसे तमाम इलाकों के गरीब परिवारों के बच्चे जो जंगल की बारीकियां नहीं जानते, सीआरपीएफ के सिपाही बनकर यहां अपनी मौत खुद मांग रहे हैं। जबकि राज्य को पता ही नहीं कि उसे लड़ना है या नहीं लड़ना है। अगर नहीं लड़ना है तो ये लाशें क्यों बस्तर में लगातार गिर रही हैं?  आदिवासी समाज के सवालों और उनकी मांगों के लिए काम करने वाले जनसंगठन इस दृश्य से बाहर क्यों हैं? क्या वे वहां व्याप्त समस्याओं का समाधान चाहते हैं?  ये चीजें भी चिंता में डालती हैं कि नक्सल इलाकों में सारा कुछ बहुत बेहतर चल रहा है। नेता, ठेकेदार, अफसर, व्यापारी सब वहां सुखी हैं। उनका नक्सलियों से कोई प्रतिरोध नहीं है। लेवी के खेल ने सारा कुछ बहुत सरल बना दिया है। ये इलाके लूट के इलाकों में बदल गए हैं, जहां दृश्य जंगल में मंगल जैसा है। एक भारत के बीच, एक अलग भारत, हम मानें या न मानें बन गया है। दो राज कायम हो चुके हैं। एक राज हमारे असफल गणतंत्र का है, दूसरा नरभक्षी नक्सलवाद का। उनके हाथ जिले के सबसे कद्दावर अफसर कलेक्टर तक पहुंच चुके हैं। पैसे दिए बिना आप वहां न नौकरी कर सकते हैं न ही ठेकेदारी और न ही व्यापार। यह जनयुद्ध की कड़वी सच्चाईयां है, जिसे सरकारें भी जानती हैं।
पशुपति से तिरूपति तक लाल गलियाराः
पशुपति से तिरूपति तक लाल गलियारा बनाने की साजिशें और भारत की राजसत्ता पर कब्जे का नक्सली स्वप्न बहुत प्रकट है। उनकी हिंसा में जनक्रांति और लोकतंत्र में संशोधन की बातें सिर्फ गुमराह करने वाली हैं, जो उनके पालतू बुद्धिजीवी करते रहते हैं। हमें यह भी समझना होगा कि लोकतंत्र की विफलता ने ही नक्सलवाद की विकृति को बढ़ावा दिया है। असमानताओं की बढ़ती खांईं, भ्रष्ट प्रशासनिक और पुलिस तंत्र ने इन हालात को और बदतर किया है। यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि लोकतंत्र को कुछ लोगों और तबकों ने अपना बंधक बना लिया है और सामान्य लोगों को उनके हक देने में हमारा परंपरागत संकोच कायम है। हमें इस बात पर सोचना होगा कि आखिर आजादी के इन छः दशकों में हमारा जनतंत्र आम आदमी के लिए स्पेस क्यों नहीं बना पाया। हमें यह भी पता है कि कोई भी भ्रष्ट तंत्र नक्सलवाद जैसी बीमारियों का मुकाबला नहीं कर सकता क्योंकि वह नक्सल प्रभावित इलाकों में आ रहे विकास के पैसे से लेकर, सुरक्षा के पैसे को भी सिर्फ हजम कर सकता है। देखा यह भी  जाना चाहिए कि आदिवासी इलाकों में जा रहा पैसा आखिर किसके पेट में जा रहा है?
   क्या इन इलाकों में केंद्र और राज्य की सरकारों की योजनाओं का ईमानदारी से क्रियान्वयन हो रहा है? नमक के लिए आदिवासियों के शोषण का किस्सा छत्तीसगढ़ में मशहूर रहा है। पिछले कई सालों से छत्तीसगढ़ में नमक पहले पचीस पैसे किलो फिर गरीबों के लिए उसे मुफ्त कर दिया गया। चावल एक रूपए किलो में उपलब्ध है। छत्तीसगढ़ सरकार ने अपने पीडीएस सिस्टम को फुलप्रूफ किया है। उनकी सार्वजनिक वितरण प्रणाली की विरोधी भी तारीफ कर रहे हैं। किंतु आज तक मेरे संज्ञान में यह बात नहीं है कि राशन का वितरण न होने पर नक्सलियों ने किसी राशन दुकानदार को सजा दी हो। तेंदुपत्ता का सही दाम न देने पर किसी तेंदुपत्ता ठेकेदार या व्यापारी से जंग लड़ी हो। लेवी दीजिए और तेंदुपत्ता तोड़िए। कुल मिलाकर अगर जंगल में आप नक्सलियों के साथ हैं तो आपको कोई परवाह नहीं करनी चाहिए। समानांतर सरकार आखिर क्या होती है? नक्सलियों को जो समर्थन मिला है वह कोई जनता का स्वाभाविक समर्थन है यह मानना भी भारी भूल है। राबिनहुड शैली में आप लोगों को फौरी न्याय दिलाकर लोकप्रिय हो सकते हैं। हर हिंसक अभियान और डकैत भी अपने को सही साबित करने के लिए बेहद लोकप्रिय तर्क रखते हैं। किंतु इससे उनका हिंसाचार जायज नहीं हो जाता है। बंदूकों के भय से नक्सली अगर कुछ लोगों को साथ ले पा रहे हैं और उनके शांतिमय जीवन में जहर धोल पा रहे हैं तो यह सुविधा लोकतंत्र की विफलता ने ही उन्हें उपलब्ध कराई है। राज्य की हिंसा की निरंतर और निर्मम आलोचना होनी चाहिए किंतु नक्सलियों ने जिस तरह एक शांतिप्रिय समाज का सैनिकीकरण किया है, उस खामोशी ओढ़ लेना न्याय संगत नहीं है। पश्चिम बंगाल में ज्ञानेश्वरी एक्सप्रेस में 200 यात्रियों को विस्फोट से उड़ा देनी वाली खूनी विचारधारा सत्ता में आकर क्या करेगी बहुत प्रकट है। ऐसी तमाम सामूहिक कत्लेआम और बर्बरता की कहानियां नक्सलियों के नाम दर्ज हैं, किंतु हमें पुलिस की हिंसा पर हाय-हाय का अभ्यास है जैसे यह पुलिस अमरीका की पुलिस हो।
नक्सलवाद को खारिज करने का समयः
  आज समय आ गया है जब नक्सलवादियों में मुक्तिदाताओं की तलाश के बजाए इसे पूरी तरह खारिज किया जाना चाहिए। समस्या है तो नक्सली हैं यह कहना ठीक नहीं। समस्याएं नहीं होगीं तो भी नक्सली होंगें। इनका घोषित लक्ष्य इस देश की बरबादी और लोकतंत्र का खात्मा है। वे अपने सपनों के लिए काम कर रहे हैं। उनका उद्देश्य हमारे लोकतंत्र में जनतांत्रिक संशोधन या संवेदनशीलता का प्रसार नहीं है बल्कि वे कुछ और ही चाहते हैं। इस इरादे को समझने की जरूरत है। हमें यह भी समझना होगा कि आखिर कश्मीर, बस्तर और लिट्टे के अतिवादियों के तार आपस में क्यों जुड़े हैं। कुछ विदेशी ताकतें इनके लिए इतनी उदार क्यों हैं। एक समर्थ और समस्याविहीन भारत किसके लिए समस्या है?  नक्सलवाद या इस तरह के तमाम अतिवादियों से लड़ते हुए हम अपनी कितनी सारी पूंजी हर साल पानी में डाल रहे हैं। किंतु ये समस्याएं हल नहीं हो रही हैं। मानवाधिकार संगठनों से लेकर बुद्धिजीवियों का एक तबका इस हिंसा में जनमुक्ति की संभावनाएं तलाश रहा है। क्या यह सारा कुछ अकारण है?  क्या इनकी कोशिश भारतीय लोकतंत्र के प्रति जनता के विश्वास को समाप्त करने की नहीं है? एक बार जनतंत्र से भरोसा उठ जाए तो देश को तोड़ने का काम बहुत आसान हो जाएगा। अफसोस हमारा राजनीतिक तंत्र भी इन चीजों को नहीं समझ रहा है। वह नक्सलियों, आतंकवादियों और अतिवादियों से लड़ने के बजाए बाबा रामदेव और अन्ना हजारे को निपटाने में लगा है।
कठोर संकल्पों का समयः
 यह एक ऐसा समय है जब हमें कुछ कठोर संकल्प लेने होंगें। परमाणु करार को पास कराने और अब एफडीआई के लिए जान लड़ाने वाले प्रधानमंत्री जाहिर तौर पर यह नहीं कर सकते। किंतु अफसोस यही है कि हम एक गंभीर संकट के सामने हैं और हमारे केंद्र में श्रीमती इंदिरा गांधी जैसी प्रधानमंत्री और राज्य में स्व.बेअंत सिंह जैसे मुख्यमंत्री नहीं है जिनके संकल्पों और शहादत से पंजाब आतंकवाद की काली छाया से मुक्त हो सका। पंजाब की याद करें तो उसके हालात कितने खराब थे, पाकिस्तान की प्रेरणा और मदद से इस इलाके में खून बह रहा था किंतु आज पंजाब में शांति है। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ने भी अपने तरीके से फौरी तौर पर नक्सलवाद पर अंकुश लगाने का काम किया है। किंतु हम अगले किसी उच्चअधिकारी के अपहरण की प्रतीक्षा में बैठे नहीं रह सकते। इसलिए जरूरी है कि नक्सल प्रभावित राज्य और केंद्र दोनों इस समस्या के परिणामकेंद्रित हल के लिए आगे आएं। हल वार्ता से हो या किसी अन्य तरीके से हमें बस्तर और इस जैसी तमाम जमीनों पर शांति के फूल फिर से खिलाने होंगें, बारूदों की गंध कम करनी होगी। लेकिन इसके लिए मिमियाती हुई सरकारों को कुछ कठोर फैसले लेने होंगें, भ्रष्ट तंत्र पर लगाम कसनी होगी, ईमानदार और संकल्प से दमकते अफसरों को इन इलाकों में तैनात करना होगा और उनको काम करने की छूट देनी होगी। समाज को साथ लेते हुए, दमन को न्यूनतम करते हुए उनका विश्वास हासिल करते हुए आगे बढ़ना होगा। शायद इससे भटका हुआ रास्ता,किसी मंजिल पर पहुंच जाए।
(लेखक नक्सल मामलों के जानकार हैं)