शुक्रवार, 16 मार्च 2012

मेरी नई किताब 'कुछ भी उल्खेनीय नहीं' की भूमिका


भूमिका

कुछ कहना था इसलिए....

अपने समय, परिवेश, देश और भोगे जा रहे समय पर कोई तटस्थ कैसे रह सकता है ? बहुत से दुख जो खुद नहीं भोगे गए, उन्हें किसी और ने भोगा होगा, संकट जो मुझ पर नहीं आए किसी और पर आए होंगें। मौतें, विभीषिकाएं, गरीबी, बेरोजगारी जैसे दुखों से मेरा नहीं पर तमाम लोगों का सामना होता है। अब सवाल यह उठता है कि दूसरों के दर्द अपने कब लगने लगते हैं ? दूसरों के लिए आवाज देने में सुख क्यों आने लगता है ? मेरे लिखे हुए में, पूरी विनम्रता के साथ यही परदुखकातरता मौजूद है।

मेरे पास अपने निजी दुख नहीं हैं, संघर्ष की कथाएं भी नहीं हैं, थका देने वाली मेहनत के बाद मिलने वाली रोटी जैसी जिंदगी भी नहीं है। इसका मतलब यह नहीं कि मैं बहुत चैन से हूं। मैं भी दुखी हूं कि क्योंकि मेरे आसपास बहुत से लोग दुखी हैं। मेरे लेखन की मनोभूमि यही है। मुझे यह बात चौंकाती है कि उपभोग की सीमा तय क्यों नहीं है? हमारे समय के एक बड़े राजनेता स्व. विश्वनाथ प्रताप सिंह ने कभी कहा था कि गरीबी के साथ अमीरी की भी रेखा तय होनी चाहिए। वे यह कहते हुए कितने गंभीर थे, मुझे नहीं पता, किंतु मुझे लगता है कि हमारे समय के सबसे बड़े संकट पर जाने-अनजाने वे एक बड़ी बात कह गए थे।

इस देश के पास दुखों का एक पहाड़ सा है। इन दुख के टापुओं के बीच सारी चमकीली प्रगति पासंग सी दिखने लगती है। मोबाइल, माल, मीडिया और मनी ने हमें कितना बनाया है, इसका आंकलन लोग करेंगें किंतु जीवन की सहजता का इन सबने मिलकर अपहरण कर लिया है, इसमें दो राय नहीं है। एक नई तरह की सामाजिक संरचना के बीच अलग-अलग बनते हुए हिंदुस्तान, अलग-अलग सांस लेते हिंदुस्तान, अलग- अलग शिक्षा पाते हिंदुस्तान और अलग-अलग तरह से बरते जाते हिंदुस्तान, एक क्षोभ जगाते हैं। राजनीति को कोसने के लिए मेरे पास शब्द नहीं हैं, क्योंकि समाज की परिवर्तनकामी ताकतें और बुद्धिजीवी खुद मौकापरस्ती के इतिहास रच रहे हैं। आंदोलन, समर्पण कर रहे हैं और अराजनैतिक ताकतों का राजनीति में हस्तक्षेप बढ़ रहा है। राजनीति जनता के लिए जवाबदेह नहीं, कारपोरेट- ठेकेदारों और हर तरह कानून तोड़ने वालों की बंधक बन रही है। कई बार लगता है कि हर समय, इतना ही कठिन रहा होगा। यह हिंदुस्तान की जिजीविषा है कि वह शासक वर्गों की इतनी उपेक्षाओं के बावजूद, गुलामियों के लंबे दौर-दौरे के बावजूद धड़कता रहा। इसी हिंदुस्तान की रूकती हुई सांसों, उसकी गुलाम होती भाषा, उसकी बदलती रूचियां और अपने परिवेश को हिकारत से देखने की दृष्टि, मुझे चिंता में डालती है।

आज का समय बीती हुई तमाम सदियों के सबसे कठिन समयों में से एक है। जहाँ मनुष्य की सनातन परंपराएँ, उसके मूल्य और उसका अपना जीवन ऐसे संघर्षों के बीच घिरा है, जहाँ से निकल पाने की कोई राह आसान नहीं दिखती। भारत जैसे बेहद परंपरावादी, सांस्कृतिक वैभव से भरे-पूरे और जीवंत समाज के सामने भी आज का यह समय बहुत कठिन चुनौतियों के साथ खड़ा है। आज के समय में शत्रु और मित्र पकड़ में नहीं आते। बहुत चमकती हुई चीज़ें सिर्फ धोखा साबित होती हैं। बाजार और उसके उपादानों ने मनुष्य के शाश्वत विवेक का अपहरण कर लिया है। जीवन कभी जो बहुत सहज हुआ करता था, आज के समय में अगर बहुत जटिल नज़र आ रहा है, तो इसके पीछे आज के युग का बदला हुआ दर्शन है।

भारतीय परंपराएं आज के समय में बेहद सकुचाई हुई सी नज़र आती हैं। हमारी उज्ज्वल परंपरा, जीवन मूल्य, विविध विषयों पर लिखा गया बेहद श्रेष्ठ साहित्य, आदर्श, सब कुछ होने के बावजूद हम अपने आपको कहीं न कहीं कमजोर पाते हैं। यह समय हमारी आत्मविश्वासहीनता का भी समय है। इस समय ने हमें प्रगति के अनेक अवसर दिए हैं, अनेक ग्रहों को नापतीं मनुष्य की आकांक्षाएं, चाँद पर घर बसाने की उम्मीदें, विशाल होते भवन, कारों के नए माडल -ये सारी चीज़ें मिलकर भी हमें कोई ताकत नहीं दे पातीं।

विकास के पथ पर दौड़ती नई पीढ़ी मानो जड़ों से उखड़ती जा रही है। इक्कीसवीं सदी में घुस आई यह पीढ़ी जल्दी और ज़्यादा पाना चाहती है और इसके लिए उसे किसी भी मूल्य को शीर्षासन कराना पड़े, तो कोई हिचक नहीं । यह समय इसीलिए मूल्यहीनता के सबसे बेहतर समय के लिए जाना जाएगा। यह समय सपनों के टूटने और बिखरने का भी समय है। यह समय उन सपनों के गढऩे का समय है, जो सपने पूरे तो होते हैं, लेकिन उसके पीछे तमाम लोगों के सपने दफ़्न हो जाते हैं। ये समय सेज का समय है, निवेश का समय है, लोगों को उनके गाँवों, जंगलों, घरों और पहाड़ों से भगाने का समय है। ये भागे हुए लोग शहर आकर नौकर बन जाते हैं। इनकी अपनी दुनिया जहाँ ये मालिक की तरह रहते थे, आज के समय को रास नहीं आती। ये समय उजड़ते लोगों का समय है। गाँव के गाँव लुप्त हो जाने का समय है। ये समय ऐसा समय है, जिसने बांधों के बनते समय हजारों गाँवों को डूब में जाते हुए देखा है। यह समय हरसूद को रचने का समय है । खाली होते गाँव,ठूँठ होते पेड़, उदास होती चिड़िया, पालीथिन के ग्रास खाती गाय, फार्म हाउस में बदलते खेत, बिकती हुई नदी, धुँआ उगलती चिमनियाँ, काला होता धान ये कुछ ऐसे प्रतीक हैं, जो हमें इसी समय ने दिए हैं। यह समय इसीलिए बहुत बर्बर है। बहुत निर्मम और कई अर्थों में बहुत असभ्य भी।

यह समय आँसुओं के सूख जाने का समय है । यह समय पड़ोसी से रूठ जाने का समय है। यह समय परमाणु बम बनाने का समय है। यह समय हिरोशिमा और नागासाकी रचने का समय है। यह समय गांधी को भूल जाने का समय है। यह समय राम को भूल जाने का समय है। यह समय रामसेतु को तोड़ने का समय है। उन प्रतीकों से मुँह मोड़ लेने का समय है, जो हमें हमारी जड़ों से जोड़ते हैं। यह जड़ों से उखड़े लोगों का समय है और हमारे सरोकारों को भोथरा बना देने का समय है। यह समय प्रेमपत्र लिखने का नहीं, चैटिंग करने का समय है। इस समय ने हमें प्रेम के पाठ नहीं, वेलेंटाइन के मंत्र दिए हैं। यह समय मेगा मॉल्स में अपनी गाढ़ी कमाई को फूँक देने का समय है। यह समय पी-कर परमहंस होने का समय है।

इस समय ने हमें ऐसे युवा के दर्शन कराए हैं, जो बदहवास है। वह एक ऐसी दौड़ में है, जिसकी कोई मंज़िल नहीं है। उसकी प्रेरणा और आदर्श बदल गए हैं। नए ज़माने के धनपतियों और धनकुबेरों ने यह जगह ले ली है। शिकागो के विवेकानंद, दक्षिण अफ्रीका के महात्मा गांधी अब उनकी प्रेरणा नहीं रहे। उनकी जगह बिल गेट्स, लक्ष्मीनिवास मित्तल और अनिल अंबानी ने ले ली है। समय ने अपने नायकों को कभी इतना बेबस नहीं देखा। नायक प्रेरणा भरते थे और ज़माना उनके पीछे चलता था। आज का समय नायकविहीनता का समय है। डिस्को थेक, पब, साइबर कैफ़े में मौजूद नौजवानी के लक्ष्य पकड़ में नहीं आते । उनकी दिशा भी पहचानी नहीं जाती । यह रास्ता आज के समय से और बदतर समय की तरफ जाता है। बेहतर करने की आकांक्षाएं इस चमकीली दुनिया में दम तोड़ देती हैं। हर चमकती चीज़ सोना नहीं होती लेकिन दौड़ इस चमकीली चीज़ तक पहुँचने की है।

आज की शिक्षा ने नई पीढ़ी को सरोका, संस्कार और समय, किसी की समझ नहीं दी है। यह शिक्षा मूल्यहीनता को बढ़ाने वाली साबित हुई है। अपनी चीज़ों को कमतर कर देखना और बाहर सुखों की तलाश करना इस समय को और विकृत करता है। परिवार और उसके दायित्व से टूटता सरोकार भी आज के ही समय का मूल्य है। सामूहिक परिवारों की ध्वस्त होती अवधारणा, फ्लैट्स में सिकुड़ते परिवार, प्यार को तरसते बच्चे, अनाथ माता-पिता, नौकरों, बाइयों और ड्राइवरों के सहारे जवान होती नई पीढ़ी । यह समय बिखरते परिवारों का भी समय है। इस समय ने अपनी नई पीढ़ी को अकेला होते और बुजुर्गों को अकेला करते भी देखा। यह ऐसा जादूगर समय है, जो सबको अकेला करता है। यह समय साइबर फ्रेंड बनाने का समय है। यह समय व्यक्ति को समाज से तोड़ने, सरोकारों से अलग करने और विश्व मानव बनाने का समय है।

यह समय भाषाओं और बोलियों की मृत्यु का समय है। दुनिया को एक रंग में रंग देने का समय है। यह समय अपनी भाषा को अँग्रेज़ी में बोलने का समय है। यह समय पिताओं से मुक्ति का समय है। यह समय माताओं से मुक्ति का समय है। इस समय ने हजारों हजार शब्द, हजारों हजार बोलियाँ निगल जाने की ठानी है। यह समय भाषाओं को एक भाषा में मिला देने का समय है। यह समय चमकीले विज्ञापनों का समय है। इस समय ने हमारे साहित्य को, हमारी कविताओं को, हमारे धार्मिक ग्रंथों को पुस्तकालयों में अकेला छोड़ दिया है, जहाँ ये किताबें अपने पाठकों के इंतजार में समय को कोस रही हैं। इस समय ने साहित्य की चर्चा को, रंगमंच के नाद को, संगीत की सरसता को, धर्म की सहिष्णुता को निगल लेने की ठानी है।

यह समय शायद इसलिए भी अब तक देखे गए सभी समयों में सबसे कठिन है, क्योंकि शब्द किसी भी दौर में इतने बेचारे नहीं हुए नहीं थे। शब्द की हत्या इस समय का एक सबसे बड़ा सच है। यह समय शब्द को सत्ता की हिंसा से बचाने का भी समय है। यदि शब्द नहीं बचेंगे, तो मनुष्य की मुक्ति कैसे होगी ? उसका आर्तनाद, उसकी संवेदनाएं, उसका विलाप, उसका संघर्ष उसका दैन्य, उसके जीवन की विद्रूपदाएं, उसकी खुशियाँ, उसकी हँसी, उसका गान, उसका सौंदर्यबोध कौन व्यक्त करेगा। शायद इसीलिए हमें इस समय की चुनौती को स्वीकारना होगा। यह समय हमारी मनुष्यता को पराजित करने के लिए आया है।

हर दौर में हर समय से मनुष्यता जीतती आई है। हर समय ने अपने नायक तलाशे हैं और उन नायकों ने हमारी मानवता को मुक्ति दिलाई है। यह समय भी अपने नायक से पराजित होगा। यह समय भी मनुष्य की मुक्ति में अवरोधक नहीं बन सकता। हमारे आसपास खड़े बौने, आदमकद की तलाश को रोक नहीं सकते। वह आदमकद कौन होगा वह विचार भी हो सकता है और विचारों का अनुगामी कोई व्यक्ति भी। कोई भी समाज अपने समय के सवालों से मुठभेड़ करता हुआ ही आगे बढ़ता है। सवालों से मुँह चुराने वाला समाज कभी भी मुक्तिकामी नहीं हो सकता। यह समय हमें चुनौती दे रहा है कि हम अपनी जड़ों पर खड़े होकर एक बार फिर भारत को विश्वगुरू बनाने का स्वप्न देखें। हमारे युवा एक बार फिर विवेकानंद के संकल्पों को साध लेने की हिम्मत जुटाएं। भारतीयता के पास आज भी आज के समय के सभी सवालों का जवाब हम इस कठिन सदी के, कठिन समय की हर पीड़ा का समाधान पा सकते हैं, बशर्तें आत्मविश्वास से भरकर हमें उन बीते हुए समयों की तरफ देखना होगा जब भारतीयता ने पूरे विश्व को अपने दर्शन से एक नई चेतना दी थी। वह चेतना भारतीय जीवन मूल्यों के आधार पर एक नया समाज गढ़ने की चेतना है । वह भारतीय मनीषा के महान चिंतकों, संतों और साधकों के जीवन का निकष है। वह चेतना हर समय में मनुष्य को जीवंत रखने, हौसला न हारने, नए-नए अवसरों को प्राप्त करने, आधुनिकता के साथ परंपरा के तालमेल की एक ऐसी विधा है, जिसके आधार पर हम अपने देश का भविष्य गढ़ सकते हैं।

आज का विश्वग्राम, भारतीय परंपरा के वसुधैव कुटुंबकम् का विकल्प नहीं है। आज का विश्वग्राम पूरे विश्व को एक बाजार में बदलने की पूँजीवादी कवायद है, तो वसुधैव कुटुंबकम का मंत्र पूरे विश्व को एक परिवार मानने की भारतीय मनीषा की उपज है। दोनों के लक्ष्य और संधान अलग-अलग हैं। भारतीय मनीषा हमारे समय को सहज बनाकर हमारी जीवनशैली को सहज बनाते हुए मुक्ति के लिए प्रेरित करती है, जबकि पाश्चात्य की चेतना मनुष्य को देने की बजाय उलझाती ज़्यादा है। देह और भोग के सिद्धांतों पर चलकर मुक्ति की तलाश भी बेमानी है। भारतीय चेतना में मनुष्य अपने समय से संवाद करता हुआ आने वाले समय को बेहतर बनाने की चेष्टा करता है। वह पीढ़ियों का चिंतन करता है, आने वाले समय को बेहतर बनाने के लिए सचेतन प्रयास करता है। जबकि बाजार का चिंतन सिर्फ आज का विचार करता है। इसके चलते आने वाला समय बेहद कठिन और दुरूह नज़र आने लगता है। कोई भी समाज अपने समय के सरोकारों के साथ ही जीवंत होता है। भारतीय मनीषा इसी चेतना का नाम है, जो हमें अपने समाज से सरोकारी बनाते हुए हमारे समय को सहज बनाती है। क्या आप और हम इसके लिए तैयार हैं ? यह एक बड़ा सवाल है।

अपने तमाम लेखों को एक किताब की शक्ल पाते हुए देखना हर लेखक को सुख देता है। इन कच्चे-पक्के लेखों को आपको इस तरह सौंपते हुए मुझे संकोच तो है किंतु यह खुशी भी कि ये अधपके विचार अब मेरे बंधक नहीं रहे, इनमें आपकी हिस्सेदारी इसे परिपक्व बना देगी। मुझे उम्मीद है कि किताब आपका प्यार पाएगी।

- संजय द्विवेदी

बुधवार, 7 मार्च 2012

विकल्पहीनता से उपजा भरोसा


उप्र के परिपक्व फैसले से जगी बदलाव की उम्मीद

-संजय द्विवेदी

उत्तर प्रदेश के लोग कुछ भले न कर पा रहे हों, पिछले दो विधानसभा चुनावों में वे एक स्थिर सरकार जरूर दे रहे हैं। एक राज्य की जनता अपनी नाकारा और अविश्सनीय राजनीति के लिए इससे ज्यादा क्या कर सकती है?अरसे से तो त्रिशंकु और मिली-जुली सरकारों का दंश भोग रहे प्रदेश में पिछले दो चुनावों से जनता ने पूर्ण बहुमत की सरकारें देकर यह बता दिया है कि राजनीति व मीडिया कितने भी भ्रम में हों, जनता के पास ठोस फैसले हैं और उम्मीदें भी।

उत्तर प्रदेश के लोग राजनीतिक दलों और राजनीतिक तंत्र से खासे निराश हैं। ये फैसले उनके लिए कोई उजास जगाने वाले फैसले नहीं हैं बल्कि निराशा में ही लिए गए फैसले हैं। बावजूद इसके वे ठुकराए गए लोगों को फिर-फिर मौका देते हैं कि आओ और कुछ कर सको तो करो, पर यह मत कहना कि आपने त्रिशंकु विधानसभा दे दी क्या करें। सही मायने में 2007 और 2012 दोनों बहुत परिपक्व फैसले हैं जिसमें पहले बसपा और अब सपा को पूर्ण बहुमत की सरकारें देकर राज्य की जनता ने उन पर बड़ी जिम्मेदारियां डाली हैं। ये विकल्पहीनता के भी सबक हैं क्योंकि देश का उद्धार करने का नारा देने वाली भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस दोनों कोई उत्तर प्रदेश में कोई वैकल्पिक राजनीतिक चेतना या दर्शन प्रस्तुत नहीं करतीं। उपर से यह आशंका अलग कि चुनाव के बाद त्रिशंकु विधानसभा आने पर सपा के साथ कांग्रेस और बसपा के साथ भाजपा चली जाएगी। जनता ने इस तरह की मिक्स पालिटिक्स को नकारा और अकेले दम पर सरकार चलाने की ताकत पार्टियों को दी।

यह फैसला साधारण नहीं है कि जिस मुलायम सिंह को 2007 में जनता ने नकारा, उनके ही दल को 2012 में फिर ताज दे दिया। कांग्रेस और भाजपा की उप्र में हुयी दुर्गति बताती है, उप्र के लोग उनके वादों पर भरोसा नहीं करते। वे नहीं मानते कि दोनों राष्ट्रीय राजनीतिक दल अपने दम पर कोई विकल्प राज्य में प्रस्तुत कर रहे हैं। शायद इसीलिए दोनों को राज्य की जनता ने कोई महत्व नहीं दिया। त्रिशंकु विधानसभा की स्थिति में अपना बाजार भाव बढ़ाने के उत्सुक पीस पार्टी जैसे दल भी अब पूर्ण बहुमत की स्थिति में कोई भाव नहीं खा सकते। ऐसे में एक स्वस्थ राजनीतिक परिवेश सरकार गठन के पूर्व ही उपलब्ध है जो उत्तराखंड के नसीब में नहीं आ सका। ऐसे में यह महती जिम्मेदारी अब समाजवादी पार्टी की है कि वह अपने पुराने चेहरे, चाल, चरित्र तीनों में बदलाव लाए। मुलायम के बजाए अखिलेख सिंह यादव एक नया उम्मीदों भरा चेहरा हैं और अमर सिहं से लेकर डीपी यादव से बनी दूरियां सपा के लिए एक शुभ संकेत साबित हुयी हैं। इसे साधारण न मानिए कि सपा का डीपी यादव को इनकार और भाजपा का बाबू सिंह कुशवाहा का स्वीकार एक साधारण घटना है, इस घटना के प्रतीकात्मक महत्व ने ही यह बता दिया कि सपा बदलना चाहती है किंतु भाजपा अभी भी राजनीतिक के परंपरागत विकृत मानकों पर ही खड़ी है। वहीं कांग्रेस में राहुल गांधी भले उप्र के विकास की चिंता में बांहें चढ़ा रहा थे उनके सिपहसालार मुस्लिम वोटों के लिए बाटला हाउस और आरक्षण पर ही चहकते नजर आ रहे थे। यह सारी बातें बताती हैं कि राजनीति अब परंपरागत तरीकों से नहीं हो सकती। उसके लिए विश्वसनीय विकल्प सबसे बड़ी जरूरत है। अखिलेश सिंह यादव का निष्पाप चेहरा इसलिए उप्र जैसे दिग्गजों के अखाड़े में चल जाता है, जबकि भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष, युवा मोर्चा के अध्यक्ष, पूर्व प्रदेश अध्यक्ष केशरीनाथ त्रिपाठी सभी खेत रह जाते हैं। नेता पुत्रों और माफियाओं की हार भी इस चुनाव का एक बड़ा सबक है। हमारी राजनीति को इससे सीखना होगा।

यह चुनाव भारी निराशा और विकल्पहीनता में भी उप्र के हिस्से एक नया संदेश लेकर आया है। यह एक नई राजनीति की शुरूआत भी हो सकती है। समाजवादी पार्टी के जिसके हिस्से इस बार सत्ता आयी है वह न तो डा. लोहिया- जयप्रकाश के आदर्शों वाली सपा है न ही वह मुलायम सिंह- अमर सिंह वाली समाजवादी पार्टी है। वह एक बदलती हुयी समाजवादी पार्टी है जिसके तार अब अभिषेक यादव के फैसलों से जुड़े हैं।

आप ध्यान दें, अखिलेश यादव के लिए यह चुनाव अगर इतना कुछ देकर जा रहा है तो इसके मूल में उनकी एक पराजय कथा भी है। अगर अखिलेश यादव की पत्नी डिंपल यादव, फिरोजाबाद में हुए लोकसभा उपचुनाव में जीत जातीं तो शायद अखिलेश को भी जमीनी हकीकतों का अहसास नहीं होता। किंतु उस चुनाव में राजबब्बर की जीत ने जहां कांग्रेस के अभिमान में वृद्धि की, वहीं अखिलेश को बता दिया कि मुलायम का बेटा होना ही उनका परिचय है, और इसके बाद पिता के नाम के साथ अब उन्हें भी कुछ करना होगा। यही वह क्षण है जिसने अखिलेश को बदला और उप्र का नया नायक बना दिया। सफलता के पीछे सभी भागते हैं किंतु अखिलेश की जमीनी तैयारियों और टिकट वितरण में उनके द्वारा उतारे गए नए चेहरों को नजरंदाज नहीं किया जा सकता। लखनऊ के अभिषेक मिश्र से लेकर अयोध्या की सीट जीतने वाले तेजनारायण उर्फ पवन पाण्डेय ऐसे ही नौजवान थे जो पहली बार मैदान में उतरे और बड़ी सफलताएं पायीं। यहां तक की राहुल गांधी के गढ़ अमेठी में वहां के राजा संजय सिंह की पत्नी अमिता सिंह भी सपा के प्रत्याशी से चुनाव हार गयीं। ये सफलताएं साधारण नहीं हैं।

उप्र में अपनी 300 सभाओं के माध्यम से अखिलेश ने एक वातावरण बनाने का काम किया। यह एक बदलती हुयी सपा थी, जिसके खराब अतीत के बावजूद के पास जनता पास यही चारा था कि वह अखिलेश के वादों पर भरोसा करे। क्योंकि देश के बड़े राजनीतिक दल कांग्रेस और भाजपा उधार के कप्तानों राहुल गांधी और उमा भारती के भरोसे मैदान में थे। फिर मुद्दों पर उलझन और नेताओं की फौज ने दोनों दलों का कबाड़ा कर दिया। भाजपा के वरूण गांधी से लेकर आदित्यनाथ की भूमिका जहां संदेह से परे नहीं है वहीं कांग्रेस के राज्य से जीते सांसदों और केंद्रीय मंत्रियों की कोई खास भूमिका नजर नहीं आई। हां अपने उलजलूल बयानों से वे हर दिन सुर्खियां जरूर बटोरते रहे किंतु यह कवायद कांग्रेस के पक्ष में नहीं गयी। ऐसे में यह चुनाव घने अंधेरे में लड़ा गया चुनाव ही था, जिसमें जनता के पास सही मायने में कोई विश्लसनीय विकल्प नहीं था। लड़ाइयां भी साधारण नहीं थी, चार कोण, पांच कोण के मुकाबले फैसलों को कठिन बना रहे थे। यह सारी उलझने चुनाव पूर्व सर्वेक्षणों और एक्जिट पोल में भी साफ दिखती रहीं। किंतु उत्तर प्रदेश के मतदाता ने विकल्पहीनता के बीच भी एक सशक्त विकल्प दिया है। अब समाजवादी पार्टी और उसके नए नेता अखिलेश यादव की यह जिम्मेदारी है कि वे इस दायित्व को स्वीकार करें और जनता से किए गए वायदों पर खरा उतरकर दिखाएं। उनकी विनयशीलता और शैली ने जनता में एक विश्वास पैदा किया है कि वह सपा की पुरानी सरकारों से अलग एक नई राजनीति को उत्तर प्रदेश में प्रारंभ करेंगे। पटरी से उतरे राज्य को एक नई दिशा देंगें।

पड़ोसी राज्य बिहार में विकास की राजनीति उनके लिए प्रेरक बन सकती है क्योंकि समाजवादी आंदोलन की गर्भनाल से निकली जनता दल यू अगर बिहार को नया चेहरा दे सकती है समाजवादी पार्टी उप्र में विकास की राजनीति की वाहक और अपराधीकरण की विरोधी क्यों नहीं बन सकती। राजनीति के आजमाए जा चुके शस्त्रों से अलग अखिलेश सिंह यादव एक नई राजनीति की आधारशिला रख सकते हैं। जिसमें डा.लोहिया की राजनीति के मंत्र हों और नए जमाने के हिसाब से कुछ नए विचार भी हों। किंतु हमें यह मानना होगा कि उनके पिता के राजनीतिक अनुभव जो भी हों किंतु समय बदल गया है। अब राजनीति पुराने मूल्यों पर तो होगी पर पुराने मानकों पर नहीं होगी। जहां जाति, गुंडागर्दी, धर्म. धन और क्षेत्र के सवाल बड़े हो जाते थे।

आज के उत्तर प्रदेश का नौजवान जिसने ज्यादा वोटिंग करते हुए सपा पर भरोसा जताया है, उसकी आशा को परिणाम में बदलने का समय अब आ गया है। सरकारें पांच-पांच सालों पर आएंगी-जाएंगी किंतु अखिलेश को इतिहास की इस घड़ी में मौका मिला है कि वे उत्तर प्रदेश को एक ऐसी दिशा दें, जहां गर्वनेंस और गर्वमेंट दोनों की वापसी होती हुयी दिखे। उत्तर प्रदेश लगभग दो दशकों से एक भागीरथ के इंतजार में है, अखिलेश अगर वह जगह ले पाते हैं तो यह विकल्पहीनता का फैसला भी एक उजले संकल्प में बदल जाएगा और उत्तर प्रदेश तो अपने सपनों में रंग भरने के लिए तैयार बैठा ही है बस उसे एक नायक का इंतजार है। अखिलेश यह जगह भर जाते हैं या अवसर गवां देते हैं,यह देखना दिलचस्प होगा।

मंगलवार, 6 मार्च 2012

एजेक्ट कैसे हो सकते हैं एक्जिट पोल

राजनीति संभावनाओं का खेल है इसलिए सर्वेक्षणों से बहुत उम्मीदें पालिए
-संजय द्विवेदी

चुनाव पूर्व और पश्चात सर्वेक्षणों का मजाक बनाने का सिलसिला जो हमारे राजनेताओं ने प्रारंभ किया है वे अब उप्र और अन्य राज्यों के परिणामों पर क्या कहेंगें। यहां तक कि मुख्य चुनाव आयुक्त भी इसे मनोरंजन चैलनों पर दिखाने की अपील कर बैठे थे। शोध और अनुसंधान के प्रति हमारी कम जानकारियों का यह परिचायक है। हम देखें तो एक्जिट पोल जो राह दिखा रहे थे, पंजाब छोड़कर लगभग वही दृश्य बना। राजनीति जैसे संभावनाओं के खेल पर भविष्यवाणियां तो वैसे ही फेल होती है किंतु सर्वेक्षण अगर वैज्ञानिक आधार पर किए जाएं तो वे सत्य के करीब पहुंच जाते हैं। हमें देखना होगा कि भारत जैसे देश में जहां विविधताएं बहुत हैं, सच के करीब पहुंचना कठिन होता है। किंतु अगर बड़े सेम्पल लिए जाएं, ज्यादा लोगों को, ज्यादा क्षेत्रों को और समाज की विविधता का ध्यान रखते हुए वैज्ञानिक तरीके से काम किया जाए तो निश्चय ही परिणाम अनूकूल आते हैं।

शोध एक विधा है और उसका मजाक इसलिए नहीं बनाया जाना चाहिए कि कई बार निष्कर्षों में गड़बड़ हो जाती है। यह आश्चर्यजनक है जो राजनीतिक वर्ग ज्योतिषियों, पूजा-पाठ और दैवी शक्तियों पर खूब भरोसा जताता है, वही सर्वेक्षणों का मजाक बनाता है। कई मामले में यह उनकी सुविधा का भी मामला है कि अगर सर्वेक्षण राजनेता की पार्टी के पक्ष में है तो उस पर पूरा भरोसा किंतु वह अलग कुछ कहता है तो उसे नकार दो। उत्तर प्रदेश के चुनावों के संदर्भ में लगभग सभी सर्वेक्षण समाजवादी पार्टी को सबसे बड़ी पार्टी बता रहे थे और परिणाम बताते हैं कि यही हुआ। इसलिए सर्वेक्षणों की वैज्ञानिकता को चुनौती देना उचित नहीं कहा जा सकता। किंतु यह भी अपेक्षा ठीक नहीं है कि वह एजेक्ट हों। वे एक आसार या संभावना का ही इशारा करते हैं। खासकर उप्र जैसै राज्य में जहां बहुकोणीय संघर्ष हो, कई सीटों पर पांच के आसपास उम्मीदवार मुकाबले में हों- निष्कर्षों तक पहुंचना कठिन हो जाता है। फिर भी ये सर्वेक्षण एक संकेत तो कर ही रहे हैं।

शोध एक वैज्ञानिक प्रक्रिया है, यह जनमन को समझने की एक विधि है और हमें इसे रूप में लेना चाहिए। ये अगर इतने ही बकवास हैं तो राजनीतिक पार्टियां भी अपने सर्वेक्षण क्यों करवाती हैं और उनके निष्कर्षों के आधार पर अपनी रणनीति बनाती हैं। जाहिर तौर पर ये सारी कवायद जनता के मानस को अभिव्यक्ति करती है, नीतियों के क्रियान्वयन में सहायक बनती हैं। समस्या तब खड़ी होती है जब सर्वेक्षण प्रायोजित किए जाते हैं। राजनीतिक दल और मीडिया की जुगलबंदियां किसी से छिपी नहीं हैं। दलों के आधार पर सर्वेक्षणों के परिणाम बदलकर प्रस्तुत किए जाते हैं जिससे एक- दो प्रतिशत वोट इधर से उधर किए जा सकें। यह लीला होती रही है और किसी से छिपी नहीं है। इसने सर्वेक्षणों और मीडिया दोनों की विश्वसनीयता पर सवालिया निशान लगा दिए। अब लगातार हो रही आलोचनाओं से सर्वैक्षण करनी वाली एजेंसियां और मीडिया हाउस थोड़े सजग हो रहे हैं क्योंकि इससे अंततः उनकी प्रामणिकता और विश्वसनीयता पर ही सवालिया निशान खड़े होते हैं। इसलिए हमें मानना होगा कि अगर सर्वेक्षण ईमानदारी से, बिना किसी अतिरिक्त प्रभाव से ग्रस्त हुए कराए जाएं तो वे हमें सही संकेत देते हैं। क्योंकि यह विधा एक विज्ञान भी है। उसका इस्तेमाल करने वाले लोग उसका कितना सावधानीपूर्ण उपयोग करते हैं -यह एक बड़ा सवाल है।

राजनीतिक क्षेत्रों में सर्वेक्षणों को मजाक बनाने की प्रतियोगिता खासकर टीवी चैनलों पर चलती रहती है किंतु जब परिणाम किसी दल के पक्ष में होते हैं तो उस दल का नेता उस सुविधा पर सवाल नहीं खड़ा करता। टेलीविजन बहसों में कोई नहीं कहता कि आपने हमें ज्यादा सीटें दे दीं और हमारी पार्टी को इतनी उम्मीद नहीं है। राजनेता आखिरी दम तक अपने दल और अपने विचार को सर्वप्रमुख बताते हुए अपनी पैरवी करते रहते हैं। इसमें कुछ गलत भी नहीं है, यह उनका अधिकार भी है। किंतु सर्वेक्षणों की वैज्ञानिक प्रणाली का मजाक बनाना उचित नहीं कहा जा सकता। हमें यह भी उम्मीद नहीं पालनी चाहिए कि कोई भी राजनीतिक सर्वेक्षण सौ प्रतिशत सही हो सकता है। राजनीति को संभावनाओं का खेल यूं ही नहीं कहते। इसलिए भरोसा तो कीजिए पर शत प्रतिशत नहीं।

गुरुवार, 1 मार्च 2012

केजरीवाल की कड़वाहट

-संजय द्विवेदी

जिस देश में राजनीति छल-छद्म और धोखों पर ही आमादा हो, वहां संवादों का कड़वाहटों में बदल जाना बहुत स्वाभाविक है। स्वस्थ संवाद के हालात ऐसे में कैसे बन सकते हैं। अन्ना टीम के साथ जो हुआ वह सही मायने में धोखे की एक ऐसी पटकथा है, जिसकी बानगी खोजे न मिलेगी। लोकपाल बिल पर जैसा रवैया हमारी समूची राजनीति ने दिखाया क्या वह कहीं से आदर जगाता है ? एक छले गए समूह से आप क्या उम्मीद कर सकते हैं कि वह सरकारी तंत्र और सांसदों पर बलिहारी हो जाए? केजरीवाल जो सवाल उठा रहे हैं उसमें नया और अनोखा क्या है? उनकी तल्खी पर मत जाइए, शब्दों पर मत जाइए। बस जो कहा गया है, उसके भाव को समझिए। इतनी तीखी प्रतिक्रिया कब और कैसे कोई व्यक्त करता है, उस मनोभूमि को समझने पर सारा कुछ साफ हो जाएगा।

अन्ना टीम का इस वक्त हाल- हारे हुए सिपाहियों जैसा है। वे राजनीति के छल-बल और दिल्ली की राजनीति के दबावों को झेल नहीं पाए और सुनियोजित निजी हमलों ने इस टीम की विश्सनीयता पर भी सवाल खड़े कर दिए। अन्ना टीम पर कभी निछावर हो रहा मीडिया भी उसकी लानत-मलामत में लग गया। जिस अन्ना टीम को कभी देश का मीडिया सिर पर उठाए घूम रहा था। मुंबई में कम जुटी भीड़ के बाद आंदोलन के खत्म होने की दुहाईयां दी जाने लगीं। आखिर यह सब कैसे हुआ ? आज वही अन्ना टीम जब मतदाता जागरण के काम में लगी है, तो उसकी बातों पर कोई ध्यान नहीं दे रहा है। उनके द्वारा उठाए जा रहे सवाल मीडिया से गायब हैं। अब देखिए केजरीवाल ने एक कड़वी बात क्या कह दी मीडिया पर उन पर फिदा हो गया। एक वनवास सरीखी उपस्थिति से केजरीवाल फिर चर्चा में आ गए- यह उनके बयान का ही असर है। किंतु आप देखें तो केजरीवाल ने जो कहा- वह आज देश की ज्यादातर जनता की भावना है। आज संसद और विधानसभाएं हमें महत्वहीन दिखने लगे हैं, तो इसके कारणों की तह में हमें जाना होगा। आखिर हमारे सांसद और जनप्रतिनिधि ऐसा क्या कर रहे हैं कि जनता की आस्था उनसे और इस बहाने लोकतंत्र से उठती जा रही है।

अन्ना हजारे और उनके समर्थक हमारे समय के एक महत्वपूर्ण सवाल भ्रष्टाचार के प्रश्न को संबोधित कर रहे थे, उनके उठाए सवालों में कितना वजन है, वह उनको मिले व्यापक समर्थन से ही जाहिर है। लेकिन राजनीति ने इस सवाल से टकराने और उसके वाजिब हल तलाशने के बजाए अपनी चालों-कुचालों और षडयंत्रों से सारे आंदोलन की हवा निकालने की कोशिश की। यह एक ऐसा पाप था जिसे सारे देश ने देखा। अन्ना हजारे से लेकर आंदोलन से जुड़े हर आदमी पर कीचड़ फेंकने की कोशिशें हुयीं। आप देखें तो यह षडयंत्र इतने स्तर पर और इतने धिनौने तरीके से हो रहे थे कि राजनीति की प्रकट अनैतिकता इसमें झलक रही थी। ऐसी राजनीति से प्रभावित हुए अन्ना पक्ष से भाषा के संयम की उम्मीद करना तो बेमानी ही है। क्योंकि शब्दों के संयम का पाठ केजरीवाल से पहले हमारी राजनीति को पढ़ने की जरूरत है। आज की राजनीति में नामवर रहे तमाम नेताओं ने कब और कितनी गलीज भाषा का इस्तेमाल किया है, यह कहने की जरूरत नहीं है। गांधी को शैतान की औलाद, भारत मां को डायन और जाने क्या-क्या असभ्य शब्दावलियां हमारे माननीय सांसदों और नेताओं के मुंह से ही निकली हैं। वे आज केजरीवाल पर बिलबिला रहे हैं , किंतु इस कड़वाहट के पीछे राजनीति का कलुषित अतीत उनको नजर नहीं आता।

हमारे लोकतंत्र को अगर माफिया और धनपशुओं ने अपना बंधक बना लिया है तो उसके खिलाफ कड़े शब्दों में प्रतिवाद दर्ज कराया ही जाएगा। दुनिया के तमाम देशों में बदलाव के लिए संघर्ष चल रहे हैं। भारत आज भ्रष्टाचार की मर्मांतक पीडा झेल रहा है। विकास के नाम पर आम आदमी को उजाडने का एक सचेतन अभियान चल रहा है। ऐसे में जगह- जगह असंतोष हिंसक अभियानों में बदल रहे हैं। लोकतंत्र में प्रतिरोध की चेतना को कुचलकर हम एक तरह की हिंसा को ही आमंत्रित करते हैं। आंदोलनों को कुचलकर सरकारें जन-मन को तोड़ रही है। जनता के भरोसे को तोड़ रही हैं। इसीलिए लोकपाल बिल बनाने की उम्मीद में सरकार के साथ एक मेज पर बैठकर काम करने वाले केजरीवाल की भाषा में इतनी कड़वाहट और विद्रूप पैदा हो जाता है। लेकिन सत्ता से बाहर सड़क पर लड़ाई लड़ने वाले की आवाज में इतनी तल्खी के कारण तो हमारे पास हैं किंतु सत्ता के केंद्र में बैठी मनीष तिवारी, कपिल सिब्बल, दिग्विजय सिंह, बेनी वर्मा, सलमान खुर्शीद जैसी राजनीति में इतना कसैलापन क्यों है। अगर सत्ता के प्रमुख पदों पर बैठे हमारे दिग्गज नेता सुर्खियां बटोरने के लिए हद से नीचे गिर सकते हैं तो केजरीवाल जैसे व्यक्ति को लांछित करने का कारण क्या है?