मंगलवार, 29 मार्च 2011

कालेजों को स्वायत्तता पर जरा संभलकर

उदार नीतियां हमारे शिक्षा परिसरों को बदहाल कर रही हैं

-संजय द्विवेदी

केंद्रीय मानवसंसाधन मंत्रालय एक ऐसी लीलाभूमि है जो नित नए प्रयोगों के लिए जानी जाती है। वहां बैठने वाला हर मंत्री अपने एजेंडे पर इस तरह आमादा हो जाता है कि देश और जनता के व्यापक हित किनारे रह जाते हैं। अब कपिल सिब्बल के पास इस मंत्रालय की कमान है। उन्हें निजीकरण का कुछ ज्यादा ही शौक है। वे अब लगे हैं कि किस तरह नए प्रयोगों से शिक्षा क्षेत्र में क्रांतिकारी परिर्वतन कर दिए जाएं। किंतु इस तेज बदलाव के पीछे एक सुचिंतित अवधारणा नहीं है।

बाजार को अच्छे लगने वाले परिवर्तन करके हम अपने उच्चशिक्षा क्षेत्र का कबाड़ा ही करेंगें। किंतु लगता है मानव संसाधन विकास मंत्रालय इन दिनों काफी उदार हो गया है। खासकर निजी क्षेत्रों को मजबूत करने के लिए उसके प्रयासों को इस नजर से देखा जा सकता है। चिंता यही है कि उसके हर कदम से कहीं बाजार की शक्तियां मजबूत न हों और उच्चशिक्षा का वैसा ही बाजारीकरण न हो जाए जैसा हमने प्राथमिक शिक्षा का कर डाला है। किंतु लगता है कि सरकार ने वही राह पकड़ ली है। ताजा सूचना यह है कि प्रतिष्ठित संस्थानों को अधिक स्वायत्तता देने के कदमों के तहत प्रेसिडेंसी, सेंट जेवियर और सेंट स्टीफेंस जैसे कालेजों को यह छूट दी जाएगी वे अपनी डिग्री खुद दे सकें। मानवसंसाधन विकास मंत्रालय को लगता है कि इस कदम से विश्वविद्यालयों के भार में कमी आएगी। अब इसे कानून के जरिए लागू करने की तैयारी है। कालेज अभी डिग्रियों के लिए विश्वविद्यालयों पर निर्भर रहते हैं। एनआर माधव मेनन समिति की सिफारिशों में विशेष शिक्षण स्वायत्तता पर जोर दिया गया है। जाहिर तौर पर यह कदम एक क्रांतिकारी कदम तो है लेकिन इसके हानि लाभों का आकलन कर लिया जाना चाहिए।

कुछ बेहतर कालेजों को लाभ देने के लिए शुरू की जाने वाली यह योजना खराब कालेजों या सामान्य संस्थानों तक नहीं पहुंचेगी इसकी गारंटी क्या है? इसके खतरे बहुत बड़े हैं। कालेजों की क्षमता का आकलन कौन करेगा यह भी एक बड़ा सवाल है। किस आधार पर सेंट स्टीफेंस बेहतर है और दूसरा बदतर कैसे है इसका आकलन कैसे होगा ?ऐसे तमाम सवाल हमारे सामने हैं। दूसरी बड़ी बात यह है कि हमारे शासकीय विश्वविद्यालयों का इससे मान खत्म होगा। वे धीरे-धीरे एक स्लम में बदल जाएंगें। सरकारी क्षेत्र के विश्वविद्यालय बदहाली के शिकार हैं, किंतु हमारे मानवसंसाधन मंत्री को विदेशी और निजी विश्वविद्यालयों को ज्यादा से ज्यादा खुलवाने की जल्दी है। आखिर यह तेजी क्यों? इतनी हड़बड़ी क्यों ? क्यों हम अपने पारंपरिक विश्वविद्यालयों की अकादमिक दशा को सुधारने के लिए प्रयास नहीं करते। आखिर इन्हीं संस्थाओं ने हमें प्रतिभाएं दी हैं। जो आज देश और दुनिया में अपना नाम कर रहे हैं। बारेन बफेट के अजीत जैन जैसे लोग सरकार के आईटीआई से ही पढ़कर निकले हैं, तो क्या इन संस्थाओं की प्रासंगिकता अब खत्म हो चुकी है जो हम इन्हें स्लम बनाने पर आमादा हैं। शिक्षा का काम सरकार और समाज करे तो समझ में आता है किंतु पैसे के लालची व्यापारी और कंपनियां अगर सिर्फ पैसे कमाने के मकसद से आ रही हैं तो क्या हमें सर्तक नहीं हो जाना चाहिए। रोज खुल रहे नए विश्वविद्यालय अपनी चमक- दमक से सरकारी क्षेत्र के विश्वविद्यालयों को निरंतर चुनौती दे रहे हैं।

यह एक ऐसा समय है जिसमें निजी क्षेत्र को अपनी ताकत दिखाने का निरंतर अवसर है। कालेजों की स्वायत्तता एक ऐसा कदम होगा जिससे हमारे विश्वविद्यालय कमजोर ही होंगें और कालेजों पर नियंत्रण रखने का उपाय हमारे पास आज भी नहीं है। कम से कम विश्वविद्यालय से संबद्धता के नाम पर कुछ नियंत्रण बना और बचा रहता है वह खत्म होने के कगार पर है। इसे बचाने की जरूरत है, या इसके समानांतर कोई व्यवस्था बनाई जाए तो इन कालेजो का नियमन कर सके। किंतु वह व्यवस्था भी भ्रष्टाचार से मुक्त होगी, इसमें संदेह है। आप कुछ भी कहें हमारी ज्यादातर नियामक संस्थाएं आज भ्रष्टाचार का एक केंद्र बन गयी हैं। निजीकरण की तेज हवा ने इस भ्रष्टाचार को एक आँधी में बदल दिया है। विभिन्न कोर्स की मान्यता के लिए ये नियामक संस्थाएं कैसे और कितने तरह का भ्रष्टाचार करती हैं इसे निजी क्षेत्र के शिक्षा कारोबारियों से पूछिए। लेकिन इसका अंततः फल भुगतता बेचारा अभिभावक और छात्र ही है। क्योंकि यह सारा धन तो अंततः तो उससे ही वसूला जाना है। अपनी जिम्मेदारियों से भागती लोककल्याणकारी सरकारें भले ही उच्च शिक्षा के क्षेत्र में निजी निवेश और विदेश निवेश के लिए लाल कालीन बिछाने पर आमादा हों, इससे उच्चशिक्षा एक खास तबके की चीज बनकर रह जाएगी। यह गंभीर चिंता का विषय है कि केंद्र से लेकर राज्य सरकारें निरंतर निजी विश्वविद्यालयों को प्रोत्साहन देने वाली नीतियां बनाने में लगी हैं और अपने विश्वविद्यालयों और कालेजों की चिंता उन्हें नहीं है। सरकारी विश्वविद्यालयों और कालेजों में शिक्षकों के पद खाली पड़े हैं, उसकी चिंता राज्यों की सरकारों को नहीं है। हर काम से अपना हाथ खींचकर सरकारें सारा कुछ बाजार को सौंपने पर क्यों आमादा हैं समझना मुश्किल है। आज शिक्षा, स्वास्थ्य जैसे क्षेत्र पूरी तरह बाजार के हवाले हो चुके हैं। क्या यह एक लोककल्याणकारी राज्य की अवधारणा का मजाक नहीं है। यह समझ में न आने वाली चीज है कि व्यापारी अपनी चीज का विस्तार करता है और उसका संरक्षण करता है किंतु हमारी सरकारें अपने स्कूलों, कालेजों, विश्वविद्यालयों और अस्पतालों में उजाड़ने में लगी हैं। ऐसे में आम आदमी के सामने विकल्प क्या हैं। महंगी शिक्षा और महंगा इलाज क्या एक लोककल्याणकारी राज्य की अवधारणा से मेल खाते हैं ? शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्रों में निजी क्षेत्र को मजबूत करते हुए हम क्या संदेश देना चाहते हैं? क्या वास्तव में हमने अपने जनतंत्र को एक मजाक बनाने की ठान रखी है ?

कुल मिलाकर यह कवायद कुछ निजी कालेजों को ताकत देने का ही विचार लगती है। इसमें व्यापक हित की अनदेखी संभव है। सरकार जिस तरह निजी क्षेत्र पर मेहरबान है उसमें कुछ भी संभव है किंतु इतना तय है कि आम आदमी के लिए उच्चशिक्षा का क्षेत्र एक सपना हो जाएगा। जिससे समाज में तनाव और विवाद की स्थितियां ही बनेंगीं। केंद्र सरकार कालेजों को स्वायत्तता के सवाल पर थोड़ी संजीदगी दिखाए क्योंकि इसके खतरे कई हैं। पूरे मसले पर व्यापक विमर्श के बाद ही कोई कदम उठाना उचित होगा क्योंकि यह सवाल लोगों के भविष्य से भी जुड़ा है।

(लेखक माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय, भोपाल में जनसंचार विभाग के अध्यक्ष हैं)

शनिवार, 26 मार्च 2011

क्या बेमानी हैं राजनीति में नैतिकता के प्रश्न ?

-संजय द्विवेदी

यह विडंबना ही है कि देश में एक महान अर्थशास्त्री, प्रधानमंत्री पद पर बैठे हैं और महंगाई अपने चरण पर है। संभवतः वे ईमानदार भी हैं और इसलिए भ्रष्टाचार भी अपने सारे पुराने रिकार्ड तोड़ चुका है। किंतु क्या इन संर्दभों के बावजूद भी देश के मन में कोई हलचल है। कोई राजनीतिक प्रतिरोध दिख रहा है। शायद नहीं, क्योंकि जनता के सवालों के प्रति कोई राजनीतिक दल आश्वस्त नहीं करता। भ्रष्टाचार के सवाल पर तो बिल्कुल नहीं।

आप देखें तो राष्ट्रीय राजनीतिक दलों की विश्वसनीयता तो संदिग्ध हो ही चुकी है, क्षेत्रीय आकांक्षाओं और जनभावनाओं के आधार पर सक्रिय क्षेत्रीय राजनीतिक दलों का रिकार्ड भी बहुत बेहतर नहीं हैं। लालूप्रसाद यादव, मायावती, मुलायम सिंह यादव, जयललिता और करूणानिधि जैसे उदाहरण हमारे सामने हैं जिनके पास कोई जनधर्मी अतीत या वर्तमान नहीं हैं। ऐसे में जनता आखिर प्रतिरोध की शक्ति कहां से अर्जित करे। कौन से विकल्पों की ओर बढ़े। क्योंकि अंततः सत्ता में जाते ही सारे नारे भोथरे हो जाते हैं। सत्ता की चाल किसी भी रंग के झंडे और विचारों के बावजूद एक ही रहती है। सत्ता जनता से जाने वाले नेता को अपने हिसाब से अनूकूलित कर लेती है। अगर ऐसा न होता तो मजदूरों और मेहनतकशों की सरकार होते हुए प.बंगाल में सिंगूर और नंदीग्राम न घटते। उप्र में दलितों की प्रतिनिधि सरकार आने के बाद दलितों और उनकी स्त्रियों पर अत्याचार रूक जाते। पर ऐसा कहां हुआ। यह अनूकूलन सब दिशाओं में दिखता है। ऐसे में विकल्प क्या हैं ? भ्रष्टाचार के खिलाफ सारी जंग आज हमारी राजनीति के बजाए अदालत ही लड़ रही है। अदालत केंद्रित यह संघर्ष क्या जनता के बीच फैल रही बेचैनियों का जवाब है। यह एक गंभीर प्रश्न है।

हमारे राजनीति के शीर्ष पर बैठे नेता जिस तरह देश के मानस को तोड़ रहे हैं उससे लोकतंत्र के प्रति गहरी निराशा पैदा हो रही है। यह खतरनाक है और इसे रोकना जरूरी है। वोट के बदले नोट को लेकर संसद में हुयी बहसों को देखें तो उसका निकष क्या है. यही है कि अगर आपको जनता ने सत्ता दे दी है तो आप कुछ भी करेंगें। जनता के विश्वास के साथ इससे बड़ा छल क्या हो सकता है। पर ये हो रहा है और हम भारत के लोग इसे देखने के लिए मजबूर हैं। पूरी दुनिया के अंदर भारत को एक नई नजर से देखा जा रहा है और उससे बहुत उम्मीदें लगाई जा रही हैं। किंतु हमारी राजनीति हमें बहुत निराश कर रही है। भ्रष्टाचार के खिलाफ आज हमारे पास विकल्प नदारद हैं। कोई भी दल इस विषय में आश्वस्त नहीं करता कि वह भ्रष्टाचार पर प्रभावी नियंत्रण लगाएगा। राजनीति की यह दिशाहीनता देश को भारी पड़ रही है। देश की जनता अपने संघर्षों से इस महान राष्ट्र को निरंतर विकास करते देखना चाहती है, उसके लिए अपेक्षित श्रम भी कर रही है। किंतु सारा कुछ भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाता है। हमारी प्रगति को राजनीतिकों के ग्रहण लगे हुए हैं। सारी राजनीति का चेहरा अत्यंत कुरूप होता जा रहा है। आशा की किरणें नदारद हैं। आकंठ भ्रष्टाचार में डूबी सरकारें भी जनता से मिले विश्वास के आधार पर ऐसा आत्मविश्वास दिखा रही हैं जैसे जनादेश यही करने के लिए मिला हो। सही मायने में राजनीति में नैतिकता के प्रश्न बेमानी हो चुके हैं। पूरे समाज में एक गहरी बेचैनी है और लोग बदलाव की आंच को तेज करना चाहते हैं। सामाजिक और सांगठनिक स्तर पर अनेक संगठन भ्रष्टाचार के खिलाफ मुहिम भी चला रहे हैं। इसे तेज करने की जरूरत है। बाबा रामदेव, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, अन्ना हजारे, किरण बेदी आदि अनेक जन इस मुहिम में लगे हैं। हमें देखना होगा कि इस संघर्ष के कुछ शुभ फलित पाए जा सकें। महात्मा गांधी कहते थे साधन और साध्य दोनों पवित्र होने चाहिए। हमें इसका ध्यान देते हुए इस संघर्ष को आगे बढ़ाना होगा।

भारतीय लोकतंत्र के एक महान नेता डा. राममनोहर लोहिया कहा करते थे लोकराज लोकलाज से चलता है। पर क्या हममें लोकलाज बची है, यह एक बड़ा सवाल है। देश में अनेक स्तरों पर प्रतिरोध खड़े हो रहे हैं। कई स्थानों पर ये प्रतिरोध हिंसक आदोंलन के रूप में भी दिखते हैं। किंतु जनता का राजनीति से निराश होना चिंताजनक है। क्योंकि यह निराशा अंततः लोकतंत्र के खिलाफ जाती है। लोकतंत्र बहुत संघर्षों से अर्जित व्यवस्था है। जिसे हमने काफी कुर्बानियों के बाद पाया है। हमें यह देखना होगा कि हम इस व्यवस्था को आगे कैसे ले जा सकते हैं। इसके दोषों का परिष्कार करते हुए, लोकमत का जागरण करते हुए अपने लोकतंत्र को प्राणवान और सार्थक बनाने की जरूरत है। क्योंकि इसमें जनता के सवालों का हल है। जनता आज भी इस देश को समर्थ बनाने के प्रयासों में लगी है किंतु समाज से आर्दश गायब हो गए लगते हैं। समय है कि हम अपने आदर्शों की पुर्स्थापना करें और एक नई दिशा की ओर आगे बढ़ें। राजनीति से निराश होने की नहीं उसे संशोधित करने और योग्य नेतृत्व को आगे लाने की जरूरत है। लोकतंत्र अपने प्रश्नों का हल निकाल लेगा और हमें एक रास्ता दिखाएगा ऐसी उम्मीद तो की ही जानी चाहिए। घने अंधकार से कोई रोशनी जरूर निकलेगी जो सारे तिमिर को चीर कर एक नए संसार की रचना करेगी। शायद वह दिन भारत के परमवैभव का दिन होगा। जिसका इंतजार हम भारत के लोग लंबे समय से कर रहे हैं।

मंगलवार, 22 मार्च 2011

उर्दू पत्रकारिता के भविष्य पर केंद्रित होगा मीडिया विमर्श का अगला अंक

भोपाल, 22 मार्च। देश में उर्दू पत्रकारिता का एक महत्वपूर्ण स्थान रहा है। आजादी के आंदोलन से लेकर भारत के नवनिर्माण में उर्दू के पत्रकारों एवं उर्दू पत्रकारिता ने अपना योगदान देकर एक बड़ा मुकाम बनाया है। आज जबकि देश की तमाम भारतीय भाषाओं की पत्रकारिता प्रगति कर रही है और अपने पाठक वर्ग का निरंतर विस्तार कर रही है किंतु उर्दू पत्रकारिता इस दौड़ में पिछड़ती दिख रही है।

नए जमाने की चुनौतियों और अपनी उपयोगिता के हिसाब से ही भाषाएं अपनी जगह बनाती हैं। ऐसे में उर्दू पत्रकारिता के सामने क्या चुनौतियां हैं, वह किस तरह स्वयं को संभालकर आज के समय को संबोधित करते हुए जनाकांक्षाओं की पूर्ति कर सकती है- इन प्रश्नों पर बातचीत बहुत प्रासंगिक है।

पिछले पांच सालों से सतत प्रकाशित देश की चर्चित मीडिया पत्रिका मीडिया विमर्श अपना अगला अंक उर्दू पत्रकारिता का भविष्य पर केंद्रित कर रही है। इस अंक के अतिथि संपादक प्रख्यात उर्दू पत्रकार एवं लेखक श्री तहसीन मुनव्वर होगें। उम्मीद है इस बहाने हम उर्दू पत्रकारिता के भविष्य और वर्तमान को सही तरीके से रेखांकित किया जा सकेगा। इस अंक के लिए लेखक अपनी रचनाएं 15 अप्रैल,2011 तक भेज सकते हैं। अंक से संबंधित किसी जानकारी के लिए पत्रिका के कार्यकारी संपादक संजय द्विवेदी के फोन नंबर-09893598888 अथवा उनके ई-मेल 123dwivedi@gmail.com पर बातचीत की जा सकती है। संजय द्विवेदी का पता है- संजय द्विवेदी, अध्यक्ष, जनसंचार विभाग, माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, प्रेस काम्पलेक्स, एमपी नगर, भोपाल-462011

शनिवार, 19 मार्च 2011

होली के रंगारंग त्यौहार की हार्दिक शुभकामनाएं- संजय द्विवेदी

गुरुवार, 17 मार्च 2011

सोशल नेटवर्किंग को संस्कारों का माध्यम बनाएं

पत्रकारिता विश्वविद्यालय में नए मीडिया की उपयोगिता पर हुआ विमर्श

भोपाल,17 मार्च। माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में सोशल नेटवर्किगं पर आयोजित संवाद में सहभागियों ने फैसला किया है कि वे विश्वविद्यालय के मंच से नए मीडिया के लिए शब्दावली का विकास तो करेंगे ही साथ ही अंग्रेजी शब्दावली में भी सही अर्थ देने वाली शब्दावली का प्रस्ताव करेंगें। संवाद का यह भी फैसला है कि सोशल नेटवर्किंग को सूचनाओं के साथ संवाद, संस्कार और संबंध का माध्यम बनाने का प्रयास किया जाएगा। साथ ही इस माध्यम को अनुभवी लोगों के द्वारा एक अनौपचारिक कक्षा के रूप में भी स्थापित किया जाना चाहिए। कुछ प्रतिभागियों का कहना था कि विश्वविद्यालय को मीडिया के आनलाइन पाठ्यक्रमों की भी शुरूआत करनी चाहिए।

विश्वविद्यालय परिसर में आयोजित इस एक दिवसीय सेमीनार में देश के अनेक हिस्सों से आए लोगों ने दिन भर इस ज्वलंत विषय पर चर्चा करते हुए सोशल नेटवर्किंग के प्रभावों का जिक्र किया। कार्यक्रम का उदधाटन करते हुए विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. बृजकिशोर कुठियाला ने कहा कि आज टेक्नालाजी के माध्यम से जितने परिवर्तन पिछले एक दशक में हुए उतने शायद ही मानव जीवन में हुए हों। एक दशक के परिवर्तन पूरे मानव जीवन पर भारी है। उन्होंने जोर देते हुए कहा कि इंटरनेट की टेक्नालाजी ने मनुष्य के जीवन में बल्कि सृष्टि के अंतरसंबध में परिवर्तन कर दिया है जिसके नकारात्मक प्रभाव सामने आ रहे हैं। उन्होंने अपने विचार व्यक्त करते हुए आगे कहा कि इस नई टेक्नालाजी का प्रयोग मानवता के हित में होना चाहिए। भविष्य में इसका उपयोग क्या होगा, इसकी दशा व दिशा को तय करना होगा। आज दुनिया के एक छोटे से वर्ग ने प्रकृति द्वारा दिए गए संवाद पर एकाधिकार को कर लिया है जो उसकी व्यापकता को संकुचित कर लिया है।

सामाजिक कार्यकर्ता मनमोहन वैद्य ने कहा कि मनुष्य अपनों से दूर होता जा रहा है और उसे जोड़ने की जरूरत है। सोशल नेटवर्किंग का रचनात्मक इस्तेमाल किया जाए तो इसके लाभ पाए जा सकते हैं। प्रो. देवेश किशोर (दिल्ली) ने अपने संवाद व्यक्त करते हुए कहा कि आज हमें टेक्नालाजी का इतना अभ्यस्त नहीं हो जाना चाहिए कि समाज में संकुचित होकर जीवन यापन करें। जयपुर से आए संजय कुमार ने कहा कि नेटवर्किंग ने जहां लोगों को पास लाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। वहीं इसने व्यक्ति के सामाजिक पहलू को जबरदस्त तरीके से प्रभावित किया है। वहीं रायपुर से आए डा. शाहिद अली ने कहा कि आज सूचना प्रौद्योगिकी में जो परिवर्तन हो रहे है उसमें व्यावासायिक लाभ निहित है। जो नए दौर की जो लहर चल रही है, वह हमारे सामाजिक दायित्वों को पीछे धकेल रही है।

वहीं संवाद में हिस्सा ले रहे पत्रकारिता विभाग के व्याख्याता लाल बहादुर ओझा ने कहा कि वर्तमान समय में लोग सोशल नेटवर्किंग साइट का प्रयोग टाइमपास करते हुए रोजमर्रा की बातें आपस में बॉट रहे है। वहीं उन्होंन सोशल नेटवर्क की सार्थकता पर बल देते हुए कहा कि इस नई टेक्नालाजी ने परम्परागत माध्यम के लिए नई जगह खोजी है जिसका बहुलता से इस्तेमाल किया जाना चाहिए। वहीं पत्रकार ओम प्रकाश गौड़ ने रोजमर्रा हो रहे इसके नकारात्मक प्रयोग का जिक्र करते हुए कहा कि सोशल नेटवर्किंग को नैतिकता से नहीं जोड़ा गया तो यह विनाशकारी भी हो सकती है। उन्होंने कहा कि आज वर्तमान समय में संवाद भी बाजार से अछूता ना रह सका यह बेहद दुख का विषय है।

इस अवसर पर डा. मानसिंह परमार (इंदौर), प्रशांत पोल (जबलपुर) रेक्टर प्रो. सीपी अग्रवाल, प्रो. आशीष जोशी, सुरेंद्र पाल, रविमोहन शर्मा, डा.मोनिका वर्मा, उर्वशी परमार, नरेंद्र जैन, डा. श्रीकांत सिंह, पुष्पेंद्रपाल सिंह, सुनीता द्विवेदी, डा. पवित्र श्रीवास्तव ने भी अपने विचार रखे। मंच का संचालन कार्यक्रम की संयोजक डा. पी. शशिकला ने किया।

शुक्रवार, 11 मार्च 2011

मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह को मीडिया विमर्श की प्रति भेंट करते हुए संजय द्विवेदी

रायपुर। छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री रमन सिंह को मीडिया विमर्श की प्रति भेंट करते हुए पत्रिका के कार्यकारी संपादक संजय द्विवेदी। इस अंक की आवरण कथा है घोटालों का गणतंत्र। इस अंक में सर्वश्री विजयबहादुर सिंह, वर्तिका नंदा, श्रीकांत सिंह, गिरीश पंकज, प्रफुल्ल विदवई, संजय कुमार, कीर्ति सिंह, अरूंधती राय, सुशील त्रिवेदी, वीरेंद्र कुमार व्यास, आशुतोष मंडावी, प्रभु जोशी, कैलाश नाथ पाण्डेय, शाहिद अली, केसी मौली, रघुराज सिंह आदि के लेख प्रकाशित किए गए हैं।

छत्तीसगढ़ में प्रतिरोध की आखिरी आवाज थे बलिराम कश्यप


माओवादी आतंक से मुक्ति और सार्थक विकास से उन्हें मिलेगी सच्ची श्रद्धांजलि

-संजय द्विवेदी

जिन्होंने बलिराम कश्यप को देखा था, उनकी आवाज की खनक सुनी है और उनकी बेबाकी से दो-चार हुए हैं-वे उन्हें भूल नहीं सकते। भारतीय जनता पार्टी की वह पीढ़ी जिसने जनसंघ से अपनी शुरूआत की और विचार जिनके जीवन में आज भी सबसे बड़ी जगह रखता है, बलिराम जी उन्हीं लोगों में थे। बस्तर के इस सांसद और दिग्गज आदिवासी नेता का जाना, सही मायने में इस क्षेत्र की सबसे प्रखर आवाज का खामोश हो जाना है। अपने जीवन और कर्म से उन्होंने हमेशा बस्तर के लोगों के हित व विकास की चिंता की। भारतीय जनता पार्टी की राजनीति में उनका एक खास स्थान था। सही मायने में वे बस्तर के नेता थे किंतु छत्तीसगढ़ में वे प्रतिरोध की आखिरी आवाज थे। बस्तर में वहां के राजा प्रवीर भंजदेव की हत्या के बाद इस इलाके में नेतृत्व के नाम वे अकेले ऐसे इंसान थे जिसे पूरे बस्तर में खास पहचान हासिल थी। आज जहां बस्तर में जनप्रतिनिधि हेलीकाप्टर से उतरते हैं और मुख्यमंत्री से लेकर राज्य के डीजीपी यहां के जनप्रतिनिधियों को सलाह देते हैं कि वे जनता के बीच कम जाएं, बलिराम कश्यप ही ऐसे थे जो बस्तर में कहीं भी निर्भय होकर घूम सकते थे। दरअसल यह ताकत उन्हें लोगों ने दी थी, उन आम आदिवासियों ने, जिनके वे नेता थे।

उनके व्यक्तित्व की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि वे सच को कहने से चूकते नहीं थे। उनके लिए अपनी बात कहना सबसे बड़ी प्राथमिकता थी, भले ही इसका उन्हें कोई भी परिणाम क्यों न झेलना पड़े। वे सही मायने में बस्तर की राजनीति के एक ऐसे नायक हैं, जिन्होंने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। पांच बार विधायक और चार बार सांसद रहे श्री कश्यप ने बस्तर इलाके में जनसंघ और भारतीय जनता पार्टी की राजनीति को आधार प्रदान किया। 1990 में वे अविभाजित मध्यप्रदेश की भाजपा सरकार में मंत्री भी रहे। छत्तीसगढ़ राज्य में भाजपा की सरकार बनाने में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही। वीरेंद्र पाण्डेय के साथ मिलकर उन्होंने विधायक खरीद-फरोख्त कांड का खुलासा किया। यह एक ऐसा अध्याय है जो उनकी ईमानदारी और पार्टी के प्रति निष्ठा का ही प्रतीक था। इस अकेले काम ने तो उनको उंचाई दी ही और यह भी साबित किया कि पद का लोभ उनमें न था। वरना जिस तरह की दुरभिसंधि बनाई गयी थी उसमें राज्य के मुख्यमंत्री तो बन ही जाते, भले ही वह सरकार अल्पजीवी होती। पर कुर्सी को सामने पाकर संयम बनाए रखना और षडयंत्र को उजागर करना उनके ही जीवट की बात थी। बस्तर इलाके में आज भाजपा का एक खास जनाधार है तो इसके पीछे श्री कश्यप की मेहनत और उनकी छवि भी एक बड़ा कारण है।

बेबाकी और साफगोई उनकी राजनीति का आधार है। वे सच कहने से नहीं चूकते थे चाहे इसकी जो भी कीमत चुकानी पड़े। यह उनका एक ऐसा पक्ष है जिसे लोग भूल नहीं पाएंगें। बस्तर में माओवादी आतंकवाद की काली छाया के बावजूद वे शायद ऐसे अकेले जनप्रतिनिधि थे, जो दूरदराज अंचलों में जाते और लोगों से संपर्क रखते थे। आदिवासी समाज में आज उन-सा प्रभाव रखने वाला दूसरा नायक बस्तर क्षेत्र में नहीं है। वे अकेले आदिवासी समाज ही नहीं, वरन पूरे प्रदेश में बहुत सम्मान की नजर से देखे जाते थे। उनकी राजनीति में आम आदमी के लिए एक खास जगह है और वे जो कहते हैं उसे करने वाले व्यक्ति थे। माओवादियों से निरंतर विरोध के चलते उनके पुत्र की भी पिछले दिनों हत्या हो गयी थी। ऐसे दुखों को सहते हुए भी वे निरंतर बस्तर में शांति और सदभाव की अलख जगाते रहे। श्री कश्यप के लिए सच्ची श्रद्धांजलि यही होगी कि बस्तर का त्वरित विकास हो, वहां का आदिवासी समाज अपने सपनों में रंग भर सके और समाज जीवन में शांति स्थापित हो सके। बस्तर को माओवादी आतंक से मुक्ति दिलाकर ही हम उन्हें सच्ची श्रद्धांजलि दे सकते हैं।

आदिवासियों के शोषण के खिलाफ हमेशा लड़ने वाले कश्यप की याद इसलिए भी बहुत स्वाभाविक और मार्मिक हो उठती है क्योंकि आदिवासियों के पास अब उन सरीखी कोई प्रखर आवाज शेष नहीं है। अपनी जिद और सपनों के लिए जीने वाले कश्यप ने एक विकसित और खुशहाल बस्तर का सपना देखा था। उनके दल भारतीय जनता पार्टी और उनके राजनीतिक उत्तराधिकारियों को इस सपने को पूरा करना होगा। बस्तर में विकास और शांति दोनों का इंतजार है, उम्मीद है राज्य की सरकार इन दोनों के लिए प्रयासों में तेजी लाएगी। मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह ने अपनी श्रद्धांजलि में श्री कश्यप को लौहपुरूष कहा है, जो वास्तव में उनके लिए एक सही संज्ञा है। भाजपा के अध्यक्ष रहे स्व. कुशाभाऊ ठाकरे उन्हें काला हीरा कहा करते थे। ये बातें बताती हैं कि वे किस तरह से आर्दशवादी और विचारों की राजनीति करने वाले नायक थे। बस्तर ही नहीं समूचे देश में आदिवासी समाज को ऐसे नेतृत्व की जरूरत है, जो अपने समाज ही नहीं, संपूर्ण समाज को न्याय दिलाने की लड़ाई को प्रखरता से चला सके। आज राजनीति में सारे मूल्य बदल चुके हैं। मूल्यों की जगह गणेशपरिक्रमा, समर्पण की जगह पैसे ने ली है और परिश्रम को बाहुबल से भरा जा रहा है। बलिराम कश्यप जैसे लोग इसलिए भी बेतरह याद आते हैं। यह सोचना होगा कि क्या अब इस दौर में बलिराम कश्यप जैसा हो पाना संभव है। इस माटी के लोग अब कैसे बनेगें ? क्या अच्छे आदमकद लोग बनना बंद हो गए हैं या बौनों की बन आई है ? अब जबकि राज्य में न श्यामाचरण शुक्ल हैं, न बलिराम कश्यप हैं, न पंडरीराव कृदत्त, न लखीराम अग्रवाल हैं - हमें उन मूल्यों और विचारों की याद कौन दिलाएगा जिनके चलते हम संभलकर चलते थे। हमें पता था कोई कहे न कहे, ये लोग हमारे कान जोर से पकड़ेंगें और याद दिलाएंगें कि तुम्हारा रास्ता क्या है। नई राजनीति ने, नए नायक दिए हैं, पर इन सरीखे लोग कहां जो हमें अपने जीवन और कर्म से रोज सिखाते थे। डांटते थे, फटकारते थे। उनके लिए राजनीति व्यवसाय नहीं था, उसके केंद्र में विचार ही था। विचार ही उनकी प्रेरणाभूमि था। वे राजनीति में यूं ही नहीं थे, सोच समझकर राजनीति में आए थे। अपनी नौजवानी में जिस विचार का साथ पकड़ा ताजिंदगी उसके साथ रहे और उसके लिए जिए। यह पीढ़ी जा चुकी है, छ्त्तीसगढ़ के राजनीतिक क्षेत्र को एक कठिन उत्तराधिकार देकर। क्या हम इसके योग्य हैं कि इस कठिन उत्तराधिकार को ग्रहण कर सकें, यह सवाल आज हम सबसे है कि हम इसके उत्तर तलाशें और छत्तीसगढ़ की महान राजनीति के स्वाभाविक उत्तराधिकारी बनने का प्रयास करें। बलिराम जी के न रहने के बाद जो शून्य है वह बहुत बड़ा है। इस अकेली आवाज की खामोशी को, बहुत सी आवाजें समवेत होकर भी भर पाएंगीं, इसमें संदेह है। आज जबकि बस्तर अपने समूचे इतिहास का सबसे कठिन युद्ध लड़ रहा है, जहां आदिवासियों के न्याय दिलाने के नाम पर आया एक विदेशी विचार(माओवाद) ही आदिवासियों का शत्रु बन गया है, हमें बलिराम कश्यप का नाम लेते हुए इस जंग को धारदार बनाना होगा। क्योंकि बस्तर की शांति और विकास ही बलिराम जी का सपना था और इस सपने में हर छत्तीसगढ़िया और भारतवासी को साथ होना ही चाहिए। शायद तभी हम उन सपनों से न्याय कर पाएंगें जो बलिराम कश्यप ने अपनी नौजवानी में और हम सबने छ्त्तीसगढ़ राज्य का निर्माण करते हुए देखा था।

कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता एवं संचार विवि, रायपुर द्वारा आयोजित गोष्ठी में संजय द्विवेदी


रायपुर 6मार्च,2011। कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, रायपुर एवं बख्शी सृजनपीठ द्वारा भारतीय पत्रकारिता मुद्दे और अपेक्षाएं विषय पर आयोजित संगोष्ठी में अपने विचार व्यक्त करते हुए संजय द्विवेदी।

कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता एवं संचार विवि, रायपुर द्वारा आयोजित गोष्ठी में संजय द्विवेदी


रायपुर 6मार्च,2011। कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, रायपुर एवं बख्शी सृजनपीठ द्वारा भारतीय पत्रकारिता मुद्दे और अपेक्षाएं विषय पर आयोजित संगोष्ठी में अपने विचार व्यक्त करते हुए संजय द्विवेदी। इस आयोजन में पत्रकार राधेश्याम शर्मा, ललित सुरजन, तेजिंदर, बबनप्रसाद मिश्र, तुषारकांति बोस, रवींद्र शाह, वर्तिका नंदा, उमेश उपाध्याय ने भी अपने विचार व्यक्त किए।

बुधवार, 9 मार्च 2011

‘छत्तीसगढ़ के विकास में मीडिया की भूमिका’ विषय पर संगोष्ठी


मीडिया विमर्श के आयोजन में बोले दिग्गज पत्रकार और राजनेता

राज्य गठन के बाद अपनी भूमिका से चूकी पत्रकारिताः तिवारी

रायपुर। वरिष्ठ पत्रकार बसंतकुमार तिवारी का कहना है कि छत्तीसगढ़ जैसे पिछड़े इलाके में जागरूकता और विकास के काम दरअसल पत्रकारिता के सक्रिय हस्तक्षेप से ही संभव हो पाए। यहां तक कि राज्य निर्माण के लिए कोई प्रभावी आंदोलन न होने के बावजूद भी यह राज्य बना तो इसका श्रेय भी यहां के स्थानीय पत्रकारों और अखबारों को है। वे मीडिया विमर्श (जनसंचार के सरोकारों पर केंद्रित त्रैमासिक पत्रिका) द्वारा आयोजित संगोष्ठी छत्तीसगढ़ के विकास में मीडिया की भूमिका विषय पर अपने विचार व्यक्त कर रहे थे। कार्यक्रम का आयोजन रायपुर प्रेस क्लब के सभागार में किया गया था।

श्री तिवारी ने कहा कि मैने अपने जीवन में पत्रकारिता के साठ साल पूरे कर लिए हैं और उस अनुभव के आधार पर यह कह सकता हूं कि जब मैने पत्रकारिता शुरू की तब रायपुर में अकेला दैनिक महाकौशल निकलता था। वे काफी संघर्ष के दिन थे, किंतु इससे होकर ही छत्तीसगढ़ की पत्रकारिता ने एक मुकाम हासिल किया है। पत्रकारिता और छत्तीसगढ़ क्षेत्र दोनों का विकास एक दूसरे से जुड़ा हुआ है।

उन्होंने कहा छत्तीसगढ़ की आरंभिक पत्रकारिता ने मुद्दों को पहचानने, जानने और जनाकांक्षाओं को स्वर देने का काम किया था। उन्होंने साफ कहा कि छत्तीसगढ़ राज्य किसी आंदोलन से नहीं बना, जैसा कि झारखंड या उत्तराखंड में हुआ। इस राज्य के गठन का श्रेय सबसे ज्यादा किसी को है तो यहां की पत्रकारिता को, जिसने इस भूगोल के सवालों को यहां की अस्मिता और विकास से जोड़ दिया। किंतु राज्य के गठन के बाद पत्रकारिता को जैसी भूमिका इस राज्य के निर्माण में अदा करनी चाहिए, उसे वह नहीं निभा पा रही है।

कृषि और उद्योग का संतुलन जरूरीः

देशबंधु के संपादक रहे वयोवृद्ध पत्रकार श्री तिवारी ने कहा कि छत्तीसगढ़ आदर्श राज्य तभी बनेगा जब कृषि और उद्योग का संतुलन बनेगा। खनिजों और वनसंपदा का नियंत्रित दोहन होगा और भूमि विकास के लिए तेज काम होगा। उनका सुझाव था कि अब राज्य में निजी उद्योगों को आने से रोका जाना चाहिए और केवल सार्वजनिक उद्योगों को ही राज्य में आने की अनुमति दी जानी चाहिए। मीडिया को संतुलित विकास के लिए शासन और उद्योगों पर दबाव बनाना होगा। वरना आने वाली पीढ़ियां हमें माफ नहीं करेंगीं।

संसाधनों का हो सही इस्तेमालः

कार्यक्रम के मुख्यवक्ता बख्शी सृजनपीठ के अध्यक्ष बबनप्रसाद मिश्र ने कहा कि भ्रष्टाचार से ही हर योजना असफल होती है। विकास, नेतृत्व की मानसिकता और कर्तव्यनिष्ठा से जुड़ा सवाल है। संसाधनों का सही इस्तेमाल और नियोजन समय की आवश्यक्ता है। इन दस सालों में बहुत कुछ होना था जो नहीं हो पाया। आज भी छत्तीसगढ़ में दो-तीन फसलें लेने की परंपरा नहीं बन पा रही है। लोग बीमारियों से मर रहे हैं। उनका सुझाव था देश का 42 प्रतिशत वन क्षेत्र हमारे पास है, इसे देखते हुए वनोपजों पर आधारित लघु उद्योगों का विकास होना चाहिए। जिससे स्थानीय जनों को काम मिल सके। कोसा से लेकर आदिवासी शिल्प, बस्तर आर्ट और कलाओं का एक वैश्विक बाजार है जिसे इस तरह से विकसित किया जाए कि सीधा लाभ आम आदमी को मिले। नवभारत के प्रबंध संपादक रहे श्री मिश्र ने साफ कहा कि पत्रकारिता पुलिस का रोजनामचा नहीं है। जनता के दुख-दर्द की अभिव्यक्ति बनने में ही उसकी मुक्ति है। कलम की शक्ति का रचनात्मक उपयोग जरूरी है। उन्होंने कहा कि छत्तीसगढ़ पावर हब तो बन गया है, परंतु जलसंरक्षण के लिए हमारा कर्तव्य शेष है। श्री मिश्र ने कहा कि तेजी से खुलती शराब दुकानें नौजवानों को नष्ट कर रही हैं। जो क्षेत्र वनौषधियों का क्षेत्र होने के कारण आयुर्वेदिक दवाओं के निर्माण का केंद्र बन सकता है वह नकली दवाओं के लिए मशहूर हो रहा है।

आज भी मीडिया पर भरोसा कायमः

कार्यक्रम के विशिष्ट अतिथि छत्तीसगढ़ बालअधिकार आयोग के अध्यक्ष यशवंत जैन का कहना था कि राज्य को बनाने और इस क्षेत्र को विकसित बनाने की आकाक्षाएं निश्चित ही मीडिया ने जगाई हैं। अब जरूरत इस बात की है मीडिया राज्य के विकास और नवनिर्माण में एक सजग प्रहरी की तरह काम करे। समय का सच लोगों के सामने आना चाहिए। युवा इस राज्य की ताकत हैं पर वे नशाखोरी से खराब हो रहे हैं। मीडिया के सामाजिक सरोकार ही इस राज्य को एक आदर्श राज्य बना सकते हैं। क्योंकि राज्य में आज भी लोग मीडिया पर भरोसा करते हैं।

विकास में मीडिया की भूमिका स्वयंसिद्धः

संगोष्ठी की अध्यक्षता कर रहे छत्तीसगढ़ बीज एवं कृषि विकास निगम के अध्यक्ष श्याम बैस ने कहा कि किसी भी क्षेत्र के विकास में मीडिया की भूमिका स्वयंसिद्ध है। वह जनता और शासन दोनों के बीच सेतु ही नहीं बल्कि मार्गदर्शक की भूमिका में है। सकारात्मक और प्रेरणा देने वाले तमाम काम भी समाज जीवन में हो रहे हैं, मीडिया के द्वारा उन्हें सामने लाया जा सकता है। इससे समाज में एक सही वातावरण बनेगा। सब कुछ खत्म नहीं हुआ है यह भाव भी लोगों में पैदा होगा। समाज की शक्ति के जागरण से ही छत्तीसगढ़ की तकदीर और तस्वीर बदली जा सकती है।

शासन की कमियां बताए मीडियाः

मुख्यअतिथि छत्तीसगढ़ शासन में वनमंत्री और आदिवासी नेता विक्रम उसेंडी ने कहा कि यह जरूरी है मीडिया शासन की कमियों की तरफ इशारा करे। इससे सुधार और विकास की संभावनाएं बढ़ती हैं। नए बने तीनों राज्यों (झारखंड, उत्तराखंड और छत्तीसगढ़) में छत्तीसगढ़ सबसे आगे है। यह आशाएं जगाता है। बावजूद इसके बहुत कुछ करने की जरूरत है। राज्य के तमाम दूरस्थ इलाकों की खबरें मीडिया के माध्यम से ही सामने आती हैं। तमाम इलाकों से जब ये खबरें आती हैं तो शासन भी सक्रिय होता है और समस्या का समाधान भी होता है। उन्होंने कहा कि वामपंथी उग्रवाद एक बड़ी समस्या है उसके समाधान के बाद छत्तीसगढ निश्चय ही सबसे शांत, सुंदर और समृध्द राज्य बन जाएगा।

पत्रकारों का सम्मानः

इस अवसर पर छत्तीसगढ़ के तीन वरिष्ठ पत्रकारों सर्वश्री बसंतकुमार तिवारी, बबनप्रसाद मिश्र और उदंती पत्रिका की संपादक डा. रत्ना वर्मा का शाल, श्रीफल और प्रतीक चिन्ह देकर वनमंत्री विक्रम उसेंडी ने सम्मान किया। साथ ही मीडिया विमर्श के ताजा अंक (घोटालों का गणतंत्र) का विमोचन भी किया गया।

अर्जुन सिंह को श्रद्धांजलिः

संगोष्ठी प्रारंभ करने से पूर्व मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री एवं दिग्गज कांग्रेस नेता अर्जुन सिंह, शिवकुमार शास्त्री, बिलासपुर के पत्रकार सुशील पाठक और महासमुंद के पत्रकार उमेश राजपूत को दो मिनट मौन रहकर भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित की गयी।

आरंभ में स्वागत भाषण पत्रिका के प्रबंध संपादक प्रभात मिश्र ने किया एवं आभार प्रदर्शन हेमंत पाणिग्राही ने किया। संचालन छत्तीसगगढ़ कालेज में हिंदी की प्रोफेसर डा. सुभद्रा राठौर ने किया। कार्यक्रम के अंत में अतिथियों को स्मृति चिन्ह प्रख्यात लेखिका जया जादवानी ने भेंट किए।

कार्यक्रम में रायपुर के अनेक प्रबुद्ध नागरिक, साहित्यकार एवं पत्रकार उपस्थित थे जिनमें प्रमुख रूप से छत्तीसगढ़ के पुलिस महानिदेशक-कवि विश्वरंजन, मीडिया विमर्श के कार्यकारी संपादक संजय द्विवेदी, छत्तीसगढ़ हज कमेटी के अध्यक्ष डा. सलीम राज, छत्तीसगढ़ हिंदी ग्रंथ अकादमी के निदेशक रमेश नैयर, दीपकमल के संपादक पंकज झा, सृजनगाथा डाटकाम के संपादक जयप्रकाश मानस, फिल्मकार तपेश जैन, महानदी वार्ता के संपादक अनुराग जैन, कार्टून वाच के संपादक त्र्यंबक शर्मा, भाजपा नेता और पार्षद सुभाष तिवारी, वरिष्ठ पत्रकार जागेश्वर साहू, डा. राजेश दुबे, नागेंद्र दुबे, शास्वत शुक्ला, अनिल तिवारी, सुनील पाल, बबलू तिवारी, प्रदीप साहू, किशन लोखंडे के नाम उल्लेखनीय हैं।

गुरुवार, 3 मार्च 2011

अपनी कुर्सी के लिए जज्बात को मत छेड़िए

गोधरा दंगों के फैसलों की नुक्ताचीनी करने के बजाए नए गुजरात को सलाम करें
- संजय द्विवेदी
गुजरात एक नया इतिहास रच रहा है। लेकिन कुछ कड़वी यादें उसे उन्हीं अंधेरी गलियों में ले जाती हैं, जहां से वह बहुत आगे निकल आया है। गुजरात दरअसल आज विकास और प्रगति के नए मानकों की एक ऐसी प्रयोगशाला है जहां सांप्रदायिकता के सवाल काफी छूट गए हैं। उसे विकास और गर्वनेंस के नए माडल के रूप में देखा जा रहा है। ऐसे में गोधरा काण्ड पर आया फैसला एक बार फिर छद्मधर्मनिरपेक्ष ताकतों को एक अवसर की तरह है कि वे हमेशा की तरह इस फैसले की नुक्ताचीनी करें और उसके अर्नथों को विज्ञापित करें। यह कोशिश शुरू हो गयी हैं। किंतु हमें यह सोचने की जरूरत है कि ऐसी व्याख्याओं से हमें क्या हासिल होगा ? क्या गुजरात को देने के लिए हमारे पास कोई नए विचार हैं? अगर नहीं हैं तो जो गुजरात दे रहा है उसे लेने में हममें संकोच क्यों है? क्या सिर्फ इसलिए कि नरेंद्र मोदी नाम का एक आदमी वहां मुख्यमंत्री है जिसने इस देश को एक राज्य के विकास का माडल दिया। जिसने गुजराती समाज को उसकी अस्मिता की याद दिलाई और गुजरात को विकास के एक ब्रांड में बदल दिया है।
ऐसे समय में जब दुनिया के सारे कारपोरेट, देश के बड़े धराने ही नहीं, विकास के काम में लगी एजेंसियां गुजरात को एक आर्दश की तरह देख रही हैं क्या जरूरी है कि हम गोधरा और उसके बाद घटे गुजरात के दंगों की उन खूरेंजी यादों के बहाने जख्मों को कुरेदने का काम करें। आखिरकार साबरमती जेल में गठित विशेष कोर्ट ने 27 फरवरी,2002 को गोधरा रेलवे स्टेशन पर एस-6 डिब्बे में आग लगने की घटना को हादसा नहीं वरन एक साजिश करार देते हुए 31 लोगों को दोषी ठहराया है। इसके साथ ही सबूतों के अभाव में 63 लोगों को बरी कर दिया गया। प्रत्यक्ष सबूत न होने के आधार पर बरी होने का अर्थ किसी का बिल्कुल निर्दोष होना नहीं है। वैसे भी, अभियुक्तों की तरह ही गुजरात पुलिस के सामने भी उच्च एवं उच्चतम न्यायालय में जाने का विकल्प खुला है। अफसोस की बात है कि फैसला आने के बाद भी बहुत से राजनेताओं और संगठनों की प्रतिक्रिया रेल कोच में मारे गए कारसेवकों के प्रति उतनी ही संवेदनहीन है। इसी के चलते हमारे कथित धर्मनिरपेक्षतावादियों पर संदेह होता है और उनके प्रति एक प्रतिक्रिया जन्म लेती है। मारे गए कारसेवकों को प्रति निर्ममता का वक्तव्य देकर आप किसकी मदद कर रहे हैं। मृतकों के प्रति तो शत्रु भी सदाशयता का भाव रखता है। किंतु हमारे राजनेता लाशों की राजनीति से भी बाज नहीं आते।विशेष जांच दल (एसआइटी) के आरोप-पत्र में वर्णित घटनाक्रम को न्यायालय ने लगभग स्वीकार कर लिया है। इसमें अमन गेस्ट हाउस में साजिश रचने की बैठक से लेकर वहीं पेट्रोल रखने तथा उसे पीपे द्वारा डिब्बे के बाहर से अंदर डालने और कपड़ों के गट्ठर में आग लगाकर अंदर फेंकने की बात शामिल थी। जांच दल ने अमन गेस्ट हाउस के मालिक रज्जाक कुरकुर को मुख्य अभियुक्त कहा था। न्यायालय ने भी इस पर मुहर लगा दी है और उसे पांच मुख्य साजिशकर्ताओं में माना है। तीन अभियुक्तों द्वारा पीपे से पेट्रोल का छिड़काव तथा कपड़ों के गट्ठर में आग लगाकर अंदर फेंकने की बात भी न्यायालय ने स्वीकार की। राज्य फोरेंसिक विज्ञान निदेशालय ने कोच को जलाने के लिए पेट्रोल के प्रयोग की बात स्वीकार की थी। न्यायालय ने 253 गवाहों के बयान, 1500 दस्तावेजी सबूतों के अध्ययन, परिस्थितिजन्य साक्ष्यों के गहरे विश्लेषण तथा आठ अभियुक्तों द्वारा अपराध की स्वीकारोक्ति के आधार पर फैसला दिया है। निश्चय ही यह ऐसा फैसला है जो गोधरा काण्ड के बाद फैलाए गए भ्रम को साफ करता है। खासकर नानावटी आयोग और यूसी बनर्जी आयोग ने जिस तरह से अपनी रिपोर्ट दी, उसने पूरे मामले को उलझाकर रख दिया था। नानावटी आयोग ने कहा था कि कि आग जानबूझकर लगाई गयी और बाहरी लोगों ने आग लगाई। आग लगने से जलकर मौत हुयी और स्टेशन पर भारी भीड़ थी। जबकि यूसी बनर्जी आयोग ने तो विचित्र बातें कीं। उसका कहना था कि दुर्धटनावश आग लगी और दम घुटने से मौत हुयी है। इस साजिश में कोई बाहरी नहीं था। स्टेशन पर भीड़ नहीं थी और डिब्बे बाहर से बंद नहीं थे। इसी बनर्जी आयोग की रिपोर्ट के तत्कालीन रेलमंत्री लालू प्रसाद यादव ने खूब प्रचारित किया। जाहिर तौर पर 58 लोगों की मौत पर इस तरह की राजनीति भारत में ही संभव है।
गोधरा की प्रतिक्रिया स्वरूप जो कुछ गुजरात में हुआ, उसे पूरे देश ने देखा और भोगा है। आज भी गुजरात को उन दृश्यों के चलते शर्मिंदा होना पड़ता है। किंतु हमें देखना होगा कि आक्रामकता का फल कभी मीठा नहीं होता। गोधरा ने जो आग लगाई उसमें पूरा गुजरात झुलझ गया। यह सोचना संभव नहीं है कि किसी भी दंगे की प्रतिक्रिया न हो। आज जबकि गुजरात 2002 की घटनाओं से बहुत आगे निकलकर विकास और प्रगति के नए मानक गढ़ रहा है तब राजनीतिक दलों को चाहिए कि वे गुजरात को लेकर राजनीति बंद करें। वे इसे देखने के प्रयास करें कि इतने बिगड़े हालात और कई प्राकृतिक आपदाओं के बावजूद गुजरात के मुख्यमंत्री ने किस तरह एक राज्य के भाग्य को अपने संकल्प से बदल दिया है। आज का गुजरात, गोधरा और उसके बाद हुए दंगों को भूलकर आगे बढ़ चुका है। उसे पता है कि उसकी बेहतरी शांति और सद्भाव में ही है। इसलिए देश के अन्य राजनीतिक दलों को भी इस सच को स्वीकार कर लेना चाहिए। आज गुजरात की प्रगति की तारीफ योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया से लेकर विश्व बैंक तक कर रहे हैं तो यह अकारण नहीं है। भारतीय न्याय प्रक्रिया पर भी विश्वास ऐसे फैसलों से बढ़ता है और उसके नीर-क्षीर विवेक का भी पता चलता है। इस फैसले के बाद देश के छद्मधर्मनिरपेक्ष लोगों को यह मान लेना चाहिए कि गोधरा का काण्ड एक गहरी साजिश का परिणाम था जिसका भुगतान गुजरात के तमाम निर्दोष और बेगुनाह लोगों ने किया। गुजरात के दंगे आज भी हमें दुखी करते हैं। किसी भी सभ्य समाज के दंगें और आपराधिक धटनाएं शुभ नहीं कही जा सकतीं। किंतु इन दुखद घटनाओं के बाद गुजरात ने जो रास्ता पकड़ा है, वही सही मार्ग है।
गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक राज्य को जिस तरह की मिशाल बना दिया है वह काबिले तारीफ है। बस हमें यह ध्यान देना होगा कि जख्मों को बार-बार कुरेदने से वे हरे होते हैं, सूखते नहीं। क्या गुजरात के मामले पर देश के राजनीतिक दल बार-बार जख्मों को कुरेदने से बाज आएंगें और नए गुजरात को अपनी शुभकामनाएं देने का साहस जुटा पाएंगें? लेकिन हमें पता है कि राजनीति बहुत निर्मम होती है। वह कोई मौका नहीं छोड़ती। हमें पता है दंगे हमेशा आम आदमी पर कहर बनकर बरसते हैं। रोजमर्रा की जिंदगी के संघर्ष में लगे लोगों पर वे जुल्म की इंतहा करते हैं। इसलिए इन घटनाओं में आम आदमी ही सबसे ज्यादा तबाह होता है। उनकी रोजी-रोटी पर बन आती है, घरों में फांके पड़ जाते हैं। लेकिन सियासत में सबसे ज्यादा इस्तेमाल उसके उसकी भावनाओं का होता है। देश को बांटने और तोड़ने में लगी ताकतों को अब हिंदुस्तान पर रहम करना चाहिए।

साहित्य और पत्रकारिता में निकट का नाता : प्रो. सारस्वत

भोपाल, 3 मार्च। साहित्य और पत्रकारिता में गहरा संबंध है। देश में पत्रकारिता का आरंभ भी साहित्य के उद्देश्यों को ही नए माध्यम और नए रूप में प्रस्तुत करने के लिए हुआ था। पत्रकारिता का धर्म वास्तव में संस्कृति की रक्षा करना है। उक्त बातें सुविख्यात साहित्यकार प्रो. ओमप्रकाश सारस्वत ( शिमला) ने माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल के जनसंचार विभाग में आयोजित व्याख्यान में कहीं।
उन्होंने कहा कि दुर्भाग्य से आज की पत्रकारिता साहित्य के पवित्र उद्देश्यों को छोड़कर गलत रास्तों पर चल पड़ी है। अर्थ प्रमुख हो गया है और बाकी सारे आदर्श व्यर्थ हो गए हैं। भारतीय संस्कृति की वैश्विक दृष्टि पर बाजार हावी हो गया है। खबर वस्तु बन गई है। इसे बेचा व खरीदा जा रहा है। प्रो. सारस्वत ने कहा कि पत्रकारिता में विदुर नीति चलनी चाहिए थी जबकि शकुनि की नीति चल रही थी। ऐसी पत्रकारिता सनसनीखेज तो हो सकती है पर वह हमारे देश और समाज के लिए घातक है। आज संस्कारवान पत्रकारिता की आवश्यता है जो देश की वास्तविक समस्याओं को उजागर करे उसके आदर्श समाधान बताए। आज बाढ़ के समय सेक्स स्टोरी छापने वाले पत्र- पत्रिकाओं पर नियंत्रण की आवश्यकता है। इसे बाजारवाद की अंधी दौड़ से बाहर निकालने की जरुरत है। उन्होंने यह भी कहा कि पत्रकारिता के पाठ्यक्रमों में सांस्कृतिक मूल्यों को सम्मिलित करने की जरूरत है। सब कुछ बुरा नहीं हो रहा बल्कि कुछ अच्छा हो रहा है उसे प्रेरित करना आवश्यक है। कार्यक्रम का संचालन विभाग के व्याख्याता सुरेंद्र पॉल ने किया। इस अवसर पर दूरदर्शन के समाचार संपादक मनीष गौतम, पीएन द्विवेदी, डा. मोनिका वर्मा, अभिजीत वाजपेयी सहित विभाग के शिक्षक व छात्र-छात्राएं उपस्थित रहे।