शनिवार, 3 दिसंबर 2011

भारतीय सेना का मनोबल तोड़ने की राजनीति


देश के लिए कुछ भी कर गुजरने के जज्बे का प्रतीक हैं हमारे फौजी

-संजय द्विवेदी

भारतीय सेना इन दिनों हमारी राजनीति के निशाने पर है। कश्मीर में अपने पांच हजार फौजियों की शहादत के बाद हमने जो शांति पाई है, वह वहां की राजनीति को चुभ रही है- इसलिए वहां के मुख्यमंत्री अब सेना को बैरकों को भेजने की बात कह रहे हैं। सवाल यह उठता है कि क्या हमें शांति से परहेज है या फिर कश्मीर को उन्हीं खूंरेंजी दिनों में वापस ले जाना चाहते हैं।

सेनाध्यक्षों के विरोध के बावजूद आर्म्ड फोर्सेस स्पेशल पावर्स एक्ट में बदलाव की गंदी राजनीति से हमारे सुरक्षाबलों के हाथ बंध जाएंगें। हमारी सरकार इस माध्यम से जो करने जा रही है वह देश की एकता-अखंडता को छिन्न-भिन्न करने की एक गहरी साजिश है। जिस देश की राजनीति के अफजल गुरू की फांसी की फाइलों को छूते हाथ कांपते हों वह न जाने किस दबाव में देश की सुरक्षा से समझौता करने जा रही है? यह बदलाव होगा हमारे जवानों की लाशों पर। इस बदलाव के तहत सीमा पर अथवा अन्य अशांत क्षेत्रों में डटी फौजें किसी को गिरफ्तार नहीं कर सकेंगीं। दंगों के हालात में उन पर गोली नहीं चला सकेंगीं। जी हां, फौजियों को जनता मारेगी, जैसा कि सोपोर में हम सबने देखा। घाटी में पाकिस्तानी मुद्रा चलाने की कोशिशें भी इसी देशतोड़क राजनीति का हिस्सा है। यह गंदा खेल,अपमान और आतंकवाद को इतना खुला संरक्षण देख कर कोई अगर चुप रह सकता है तो वह भारत की महान सरकार ही हो सकती है। आप कश्मीरी हिंदुओं को लौटाने की बात न करें, हां सेना को वापस बुला लें। आप बताएं अगर आज सेना भी घाटी से वापस लौटती है तो उस पूरे इलाके में भारत मां की जय बोलने वाला कौन है? क्या इस इलाके को लश्कर के अतिवादियों को सौंप दिया जाए या उस अब्दुल्ला खानदान को जो भारत के साथ खड़े रहने की सालों से कीमत वसूल रहा है। या उस मुफ्ती परिवार को जो आतंकवदियों की रिहाई के लिए भारत सरकार के गृहमंत्री रहते हुए अपनी बेटी के अपहरण का भी नाटक रच सकते हैं। आखिर हम भारत के लोग इस तरह की कायर जमातों पर भरोसा कैसे कर सकते हैं ? जो सेना शत्रु को न पकड़ सकती है, न उस पर गोली चला सकती है। उसे किस चिदंबरम और मनमोहन सिंह के भरोसे आतंकवादियों के बीच शहादत के लिए छोड़ दिया जाए,यह आज का यक्ष प्रश्न है।

पिटो गोलियां खाओ पर चुप रहोः आर्म्ड फोर्सेस स्पेशल पावर्स एक्ट, संकटग्रस्त इलाकों में सेना को खास शक्तियों के इस्तेमाल के लिए बनाया गया था। अब सरकार कह रही है पिटो, सीने पर गोलियां खाओ पर चुप रहो क्योंकि तुम्हारी चुप्पी आतंकी संगठन, पाकिस्तान, मानवाधिकार संगठनों, अब्दुल्ला और मुफ्ती परिवार, कुछ राजनीतिक दलों के वोटबैंक के काम आती है। कश्मीर की आज की राज्य सरकार का दबाव सबसे ज्यादा है कि इस एक्ट को हटाया जाए। थल सेनाअध्यक्ष वीके सिंह ने इस प्रस्ताव का स्पष्ट रूप से विरोध किया है क्योंकि यह छिछली राजनीति से प्रभावित है।

भारतीय सेना का स्मरण करते ही हमारे सामने जो चित्र उभरता है वह शौर्य, साहस और देश के लिए कुछ भी कर गुजरने के जज्बे का ही है। भारत की आजादी के इन सालों में हमारी सेना ने सीमा पर तो अपने समर्पण का इतिहास दर्ज किया ही है, देश के भीतर भी प्राकृतिक आपदाओं और तमाम संकटों से हमें उबारा है। देश की सेना के इस ऋण से हम मुक्त नहीं हो सकते। देश के आंतरिक-बाह्य हर तरह के संकटों का सामना करते हुए देश की सेना ने हमें जिस तरह से सुरक्षित किया है, उसकी मिसाल ढूंढे न मिलेगी।

आतंरिक सुरक्षा सबसे बड़ी चुनौतीः हमारा देश आज षडयंत्रकारी पड़ोसी देशों और अविश्वास के संकट से घिरा है। आंतरिक सुरक्षा के मामले में हमारा तंत्र निरंतर विफल हो रहा है, ऐसे कठिन समय में भारतीय सेना ही हमें भरोसा दिलाती है कि बहुत कुछ बिगड़ा नहीं है। भारतीय सेना और उसके फौजियों को देखते ही जन-मन में एक आस्था व विश्वास का संचार होता है। हमें लगता है कि हमारी फौज के रहते हमारा कोई बाल-बांका नहीं कर सकता। दुनिया के अनेक मिशनों पर भारतीय फौज ने जिस तरह काम किया और इतिहास में अपना नाम दर्ज कराया उसके उदाहरण बहुत हैं। चीन, पाकिस्तान से हुए युध्दों में सेना ने अप्रतिम साहस का परिचय दिया। चीन का युद्ध हारने के बाद भारतीय सेना ने लगातार सारे युद्ध जीते हैं और अपने को प्रखर व धारदार बनाया है। दुनिया में आज भारतीय सेना को एक सम्मानित निगाह से देखा जाता है। उसका अनुशासन, समर्पण और देश के लिए कुछ भी कर गुजरने का जज्बा आम नागरिक की भी प्रेरणा है।

उनके बल पर चैन की नींद सो रहे हैं हमः अनेक असुविधाओं और हमारे प्रशासनिक तंत्र की जड़ताओं के बावजूद हमारी फौज के लोग दुर्गम स्थलों पर हमारी रक्षा के लिए डटे हैं और शायद इसीलिए हम चैन की नींद सो पाते हैं। भारतीय सेना ने जब भी उसे अवसर मिला देश के लिए अपना बेहतर प्रदर्शन किया। जम्मू-कश्मीर के आतंकवाद से लड़ते हुए भारतीय सेना ने आज भी देश के मुकुट कहे जाने वाले इस इलाके को भारत मां के आंचल से जोड़कर रखा है। इसी तरह पूर्वोत्तर के राज्यों में निरंतर हिंसक अभियानों से निपटकर वहां शांति व्यवस्था स्थापित करने में सेना का योगदान भुलाया नहीं जा सकता। अनेक आलोचनाओं और काम करने के तरीकों पर व्यापक टिप्पणियों के बावजूद यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि भारतीय सेना अंततः इस देश के प्रति समर्पित भाव से काम करती है। जिस तरह की स्थितियों में हमारे सैनिक काम करते हैं, उनकी कल्पना भी कठिन है। बातें करना बहुत आसान है, आलोचना उससे भी सरल। किंतु जिस तरह जान हथेली पर रखकर फौजियों को काम करना होता है, उन स्थितियों का आकलन करें तो सेना की कुछ भूलें हमें बहुत ही कम लगेंगीं। हर पल एक सैनिक मौत की छाया के बीच जीता है। क्योंकि आतंकवादियों और हमलावरों के निशाने पर हमारे सैनिक ही होते हैं, क्योंकि उनके नापाक मंसूबों को पूरा न होने देने में सबसे बड़े बाधक फौजी ही होते हैं।

सेना की तरफ युवाओं का कम होता रूझानः यह सुनकर दुख होता है कि आज की युवा पीढ़ी का रूझान सेना की ओर निरंतर कम हो रहा है। लोग देश के मर-मिटने का जज्बा रखने वाली सेना में कम जा रहे हैं। बताया जा रहा है कि सेना में उच्च स्तर पर करीब 12 हजार अधिकारियों की कमी है। पहले जहां नौजवान अपनी इच्छा से इस काम को चुनते थे, क्योंकि यह काम एक अपेक्षित गरिमा और सम्मान से युक्त है। आज इस रूझान में कमी आ रही है। यह कितना दुखद है कि सेना को भी अब विज्ञापन के नए तौर-तरीके अपनाकर युवाओं को आकर्षित करने के लिए अभियान चलाना पड़ रहा है। पहली बार सेना ने 1997 में इस तरह का अभियान शुरू किया था, जिसमें युवाओं को आकर्षित करने के लिए संचार माध्यमों का सहारा लिया गया था। निश्चय ही सेना के काम को एक नौकरी की तरह देखना और उसकी सुख-सुविधाओं का प्रसार सोचने के लिए विवश करता है। सेना का काम दरअसल जज्बे और समर्पण का है। यह किसी भी नौकरी से अव्वल है क्योंकि इसमें आपका उद्देश्य बहुत प्रकट है। शेष समाज के किसी भी व्यवसाय से इसकी तुलना नहीं की जा सकती। यह सही मायने में भारत माता की अर्चना का सबसे सीधा और प्रकट उपक्रम है। भारतीय सेना के सामने मौजूद यह संकट बताता है कि हम भोगवाद और ज्यादा उपभोक्तावादी समाज की तरफ बढ़ रहे हैं। जहां देशभक्ति की भावनाएं एक बाजार तो गढ़ती हैं, किंतु प्रत्यक्ष जाकर सेना में काम करने की भावनाएं नहीं बढ़तीं। देश के युवाओं को तिलक कर सीमा भेजने वाले माता-पिता, बहनों-पत्नियों के उदाहरण इस देश में आम हैं। किंतु इस धारा को रूकने नहीं देना है। कोई भी देश समर्पित युवाओं के कामों से ही सम्मानित होता है और विश्वमंच पर अपनी जगह बनाता है।

फौजियों के लिए जगाएं आदरः हमें सेना के लिए लोगों के दिल में आदर पैदा करना होगा। समाज में फौजियों के लिए, उनके माता-पिता, परिवारों के लिए एक सम्मान का भाव पैदा करना होगा। क्योंकि ऐसे परिवार जिनके बेटे-बेटियां फौज में हैं, वे सम्मान के पात्र हैं। क्योंकि समाज का काम है कि वह उनका ऋण न भूले। समाज में आज तरह-तरह के गलत काम करने वाले सम्मानित होते देखे जाते हैं किंतु किसी शहीद के माता-पिता को सरकारी तंत्र की यातनाओं व उपेक्षा का किस तरह शिकार होना पड़ता है, इसके उदाहरण भी तमाम हैं। हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि न सिर्फ शहीदों के परिवारों वरन फौजियों के परिवारों के साथ एक सम्मानित रवैया हमारा शासन वर्ग अख्तियार करे। प्रशासनिक पदों पर बैठे लोग फौजियों के परिजनों और फौजियों के साथ अपेक्षित सम्मान के साथ पेश आएं। उनके कामों को लटकाने या उन्हें परेशान करने की सूचनाएं पूरे समाज के लिए एक गलत उदाहरण बनती हैं। देश की सेवा में प्रत्यक्ष लगे इन लोगों का निरादर दरअसल देशद्रोह की परिधि में आता है। सीमा पर खड़े एक सिपाही का अपमान क्या इस मातृभूमि का निरादर नहीं है ? एक शहीद के माता-पिता या उसकी पत्नी के साथ सही तरीके से पेश न आना देशद्गोह नहीं हैं? एक व्यक्ति जो देश के लिए अपना सर्वस्व निछावर कर देता है क्या उसके परिजनों के प्रति हमारे तंत्र का रवैया संवेदना से भरा है, यह एक बड़ा सवाल है।

सेना की इज्जत करने का भाव आम आदमी में में है। किंतु तंत्र सबके साथ एक सरीखा व्यवहार करता है। इसके लिए सरकारी नियमावलियों और प्रोटोकाल में भी संशोधन की जरूरत है। जिसका लाभ निश्चय ही सैनिकों व उनके परिवारों को मिलेगा। यह बात भी ध्यान रखने की है कि सेना में लोग नौकरी के लिए नहीं जाते, वेतन के लिए नहीं जाते, एक जज्बे एवं देशभक्ति की भावना से साथ जाते हैं। यह धारा कहीं रूके और ठहरे नहीं इसके लिए हम सबको एक वातावरण बनाना होगा, तभी हमसब भारत के लोग और हमारी मातृभूमि सही अर्थों में सम्मानित, सुरक्षित और गौरवांवित महसूस करेगी।

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