मंगलवार, 29 नवंबर 2011

ममता को सराहौं या सराहौं रमन सिंह को


नक्सलवाद के पीछे खतरनाक इरादों को कब समझेगा देश

-संजय द्विवेदी

नक्सलवाद के सवाल पर इस समय दो मुख्यमंत्री ज्यादा मुखर होकर अपनी बात कह रहे हैं एक हैं छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह और दूसरी प.बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी। अंतर सिर्फ यह है कि रमन सिंह का स्टैंड नक्सलवाद को लेकर पहले दिन से साफ था, ममता बनर्जी अचानक नक्सलियों के प्रति अनुदार हो गयी हैं। सवाल यह है कि क्या हमारे सत्ता में रहने और विपक्ष में रहने के समय आचरण अलग-अलग होने चाहिए। आप याद करें ममता बनर्जी ने नक्सलियों के पक्ष में विपक्ष में रहते हुए जैसे सुर अलापे थे क्या वे जायज थे?

मुक्तिदाता कैसे बने खलनायकः आज जब इस इलाके में आतंक का पर्याय रहा किशन जी उर्फ कोटेश्वर राव मारा जा चुका है तो ममता मुस्करा सकती हैं। झाड़ग्राम में ज्ञानेश्वरी एक्सप्रेस में सैकड़ों की जान लेने वाला यह खतरनाक नक्सली अगर मारा गया है तो एक भारतीय होने के नाते हमें अफसोस नहीं करना चाहिए।सवाल सिर्फ यह है कि कल तक ममता की नजर में मुक्तिदूत रहे ये लोग अचानक खलनायक कैसे बन गए। दरअसल यही हमारी राजनीति का असली चेहरा है। हम राजनीतिक लाभ के लिए खून बहा रहे गिरोहों के प्रति भी सहानुभूति जताते हैं और साथ हो लेते हैं। केंद्र के गृहमंत्री पी. चिदंबरम के खिलाफ ममता की टिप्पणियों को याद कीजिए। पर अफसोस इस देश की याददाश्त खतरनाक हद तक कमजोर है। यह स्मृतिदोष ही हमारी राजनीति की प्राणवायु है। हमारी जनता का औदार्य, भूल जाओ और माफ करो का भाव हमारे सभी संकटों का कारण है। कल तक तो नक्सली मुक्तिदूत थे, वही आज ममता के सबसे बड़े शत्रु हैं । कारण यह है कि उनकी जगह बदल चुकी है। वे प्रतिपक्ष की नेत्री नहीं, एक राज्य की मुख्यमंत्री जिन पर राज्य की कानून- व्यवस्था बनाए रखने की शपथ है। वे एक सीमा से बाहर जाकर नक्सलियों को छूट नहीं दे सकतीं। दरअसल यही राज्य और नक्सलवाद का द्वंद है। ये दोस्ती कभी वैचारिक नहीं थी, इसलिए दरक गयी।

राजनीतिक सफलता के लिए हिंसा का सहाराः नक्सली राज्य को अस्थिर करना चाहते थे इसलिए उनकी वामपंथियों से ठनी और अब ममता से उनकी ठनी है। कल तक किशनजी के बयानों का बचाव करने वाली ममता बनर्जी पर आरोप लगता रहा है कि वे राज्य में माओवादियों की मदद कर रही हैं और अपने लिए वामपंथ विरोधी राजनीतिक जमीन तैयार कर रही हैं लेकिन आज जब कोटेश्वर राव को सुरक्षाबलों ने मुठभेड़ में मार गिराया है तो सबसे बड़ा सवाल ममता बनर्जी पर ही उठता है। आखिर क्या कारण है कि जिस किशनजी का सुरक्षा बल पूरे दशक पता नहीं कर पाये वही सुरक्षाबल चुपचाप आपरेशन करके किशनजी की कहानी उसी बंगाल में खत्म कर देते हैं, जहां ममता बनर्जी मुख्यमंत्री बनी बैठी हैं? कल तक इन्हीं माओवादियों को प्रदेश में लाल आतंक से निपटने का लड़ाका बतानेवाली ममता बनर्जी आज कोटेश्वर राव के मारे जाने पर बयान देने से भी बच रही हैं। यह कथा बताती थी सारा कुछ इतना सपाट नहीं है। कोटेश्लर राव ने जो किया उसका फल उन्हें मिल चुका है, किंतु ममता का चेहरा इसमें साफ नजर आता है- किस तरह हिंसक समूहों का इस्तेमाल करते हुए उन्होंने राजनीतिक सफलताएं प्राप्त कीं और अब नक्सलियों के खिलाफ वे अपनी राज्यसत्ता का इस्तेमाल कर रही हैं। निश्चय ही अगर आज की ममता सही हैं, तो कल वे जरूर गलत रही होंगीं। ममता बनर्जी का बदलता रवैया निश्चय ही राज्य में नक्सलवाद के लिए एक बड़ी चुनौती है, किंतु यह उन नेताओं के लिए एक सबक भी है जो नक्सलवाद को पालने पोसने के लिए काम करते हैं और नक्सलियों के प्रति हमदर्दी रखते हैं।

छत्तीसगढ़ की ओर देखिएः यह स्वीकार करने में कोई हर्ज नहीं कि देश के मुख्यमंत्रियों में छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह पहले ऐसे मुख्यमंत्री हैं जिन्होंने इस समस्या को इसके सही संदर्भ में पहचाना और केंद्रीय सत्ता को भी इसके खतरों के प्रति आगाह किया। नक्सल प्रभावित राज्यों के बीच समन्वित अभियान की बात भी उन्होंने शुरू की। इस दिशा परिणाम को दिखाने वाली सफलताएं बहुत कम हैं और यह दिखता है कि नक्सलियों ने निरंतर अपना क्षेत्र विस्तार ही किया है। किंतु इतना तो मानना पड़ेगा कि नक्सलियों के दुष्प्रचार के खिलाफ एक मजबूत रखने की स्थिति आज बनी है। नक्सलवाद की समस्या को सामाजिक-आर्थिक समस्या कहकर इसके खतरों को कम आंकने की बात आज कम हुयी है। डा. रमन सिंह का दुर्भाग्य है कि पुलिसिंग के मोर्चे पर जिस तरह के अधिकारी होने चाहिए थे, उस संदर्भ में उनके प्रयास पानी में ही गए। छत्तीसगढ़ में लंबे समय तक पुलिस महानिदेशक रहे एक आला अफसर, गृहमंत्री से ही लड़ते रहे और राज्य में नक्सली अपना कार्य़ विस्तार करते रहे। कई बार ये स्थितियां देखकर शक होता था कि क्या वास्तव में राज्य नक्सलियों से लड़ना चाहता है ? क्या वास्तव में राज्य के आला अफसर समस्या के प्रति गंभीर हैं? किंतु हालात बदले नहीं और बिगड़ते चले गए। ममता बनर्जी की इस बात के लिए तारीफ करनी पड़ेगी कि उन्होंने सत्ता में आते ही अपना रंग बदला और नए तरीके से सत्ता संचालन कर रही हैं। वे इस बात को बहुत जल्दी समझ गयीं कि नक्सलियों का जो इस्तेमाल होना था हो चुका और अब उनसे कड़ाई से ही बात करनी पड़ेगी। सही मायने में देश का नक्सल आंदोलन जिस तरह के भ्रमों का शिकार है और उसने जिस तरह लेवी वसूली के माध्यम से अपनी एक समानांतर अर्थव्यवस्था बना ली है, देश के सामने एक बड़ी चुनौती है। संकट यह है कि हमारी राज्य सरकारें और केंद्र सरकार कोई रास्ता तलाशने के बजाए विभ्रमों का शिकार है। नक्सल इलाकों का तेजी से विकास करते हुए वहां शांति की संभावनाएं तलाशनी ही होंगीं। नक्सलियों से जुड़े बुद्धिजीवी लगातार भ्रम का सृजन कर रहे हैं। वे खून बहाते लोगों में मुक्तिदाता और जनता के सवालों पर जूझने वाले सेनानी की छवि देख सकते हैं किंतु हमारी सरकार में आखिर किस तरह के भ्रम हैं? हम चाहते क्या हैं? क्या इस सवाल से जूझने की इच्छाशक्ति हमारे पास है?

देशतोड़कों की एकताः सवाल यह है कि नक्सलवाद के देशतोड़क अभियान को जिस तरह का वैचारिक, आर्थिक और हथियारों का समर्थन मिल रहा है, क्या उससे हम सीधी लडाई जीत पाएंगें। इस रक्त बहाने के पीछे जब एक सुनियोजित विचार और आईएसआई जैसे संगठनों की भी संलिप्पता देखी जा रही है, तब हमें यह मान लेना चाहिए कि खतरा बहुत बड़ा है। देश और उसका लोकतंत्र इन रक्तपिपासुओं के निशाने पर है। इसलिए इस लाल रंग में क्रांति का रंग मत खोजिए। इनमें भारतीय समाज के सबसे खूबसूरत लोगों (आदिवासियों) के विनाश का घातक लक्ष्य है। दोनों तरफ की बंदूकें इसी सबसे सुंदर आदमी के खिलाफ तनी हुयी हैं। यह खेल साधारण नहीं है। सत्ता,राजनीति, प्रशासन,ठेकेदार और व्यापारी तो लेवी देकर जंगल में मंगल कर रहे हैं किंतु जिन लोगों की जिंदगी हमने नरक बना रखी है, उनकी भी सुध हमें लेनी होगी। आदिवासी समाज की नैसर्गिक चेतना को समझते हुए हमें उनके लिए, उनकी मुक्ति के लिए नक्सलवाद का समन करना होगा। जंगल से बारूद की गंध, मांस के लोथड़ों को हटाकर एक बार फिर मांदर की थाप पर नाचते-गाते आदिवासी, अपना जीवन पा सकें, इसका प्रयास करना होगा। आदिवासियों का सैन्यीकरण करने का पाप कर रहे नक्सली दरअसल एक बेहद प्रकृतिजीवी और सुंदर समाज के जीवन में जहर घोल रहे हैं। जंगलों के राजा को वर्दी पहनाकर और बंदूके पकड़ाकर आखिर वे कौन सा समाज बनना चाहते हैं, यह समझ से परे है। भारत जैसे देश में इस कथित जनक्रांति के सपने पूरे नहीं हो सकते, यह उन्हें समझ लेना चाहिए। ममता बनर्जी ने इसे देर से ही सही समझ लिया है किंतु हमारी मुख्यधारा की राजनीति और देश के कुछ बुद्धिजीवी इस सत्य को कब समझेंगें, यह एक बड़ा सवाल है।

(लेखक राजनीतिक विश्लेषक हैं)

शुक्रवार, 25 नवंबर 2011

आखिर देश कहां जा रहा है ?


देश के खुदरा बाजार को विदेशी कंपनियों को सौंपना एक जनविरोधी कदम

- संजय द्विवेदी

या तो हमारी राजनीति बहुत ज्यादा समझदार हो गयी है या बहुत नासमझ हो गयी है। जिस दौर में अमरीकी पूंजीवाद औंधे मुंह गिरा हुआ है और वालमार्ट के खिलाफ दुनिया में आंदोलन की लहर है,यह हमारी सरकार ही हो सकती है ,जो रिटेल में एफडीआई के लिए मंजूरी देने के लिए इतनी आतुर नजर आए। राजनेताओं पर थप्पड़ और जूते बरस रहे हैं पर वे सब कुछ सहकर भी नासमझ बने हुए हैं। पैसे की प्रकट पिपासा क्या इतना अंधा और बहरा बना देती है कि जनता के बीच चल रही हलचलों का भी हमें भान न रह जाए। जनता के बीच पल रहे गुस्से और दुनिया में हो रहे आंदोलनों के कारणों को जानकर भी कैसे हमारी राजनीति उससे मुंह चुराते हुए अपनी मनमानी पर आमादा हैं, यह देखकर आश्चर्य होता है.

महात्मा गांधी का रास्ता सालों पहले छोड़कर पूंजीवाद के अंधानुकरण में लगी सरकारें थप्पड़ खाते ही गांधी की याद करने लगती हैं। क्या इन्हें अब भी गांधी का नाम लेने का हक है? हमारे एक दिग्गज मंत्री दुख से कहते हैं पता नहीं आखिर देश कहां जा रहा है ?” आप देश को लूटकर खाते रहें और देश की जनता में किसी तरह की प्रतिक्रिया न हो, फिर एक लोकतंत्र में होने के मायने क्या हैं ? अहिंसक प्रतिरोधों से भी सरकारें ओबामा के लोकतंत्र की तरह ही निबट रही हैं। बाबा रामदेव का आंदोलन जिस तरह कुचला गया, वह इसकी वीभत्स मिसाल है। लोकतंत्र में असहमतियों को अगर इस तरह दबाया जा रहा है तो इसकी प्रतिक्रिया के लिए भी लोगों को तैयार रहना चाहिए।

रिटेल में एफडीआई की मंजूरी देकर केंद्र ने यह साबित कर दिया है कि वह पूरी तरह एक मनुष्यविरोधी तंत्र को स्थापित करने पर आमादा है। देश के 30 लाख करोड़ रूपए के रिटेल कारोबार पर विदेशी कंपनियों की नजर है। कुल मिलाकर यह भारतीय खुदरा बाजार और छोटे व्यापारियों को उजाड़ने और बर्बाद करने की साजिश से ज्यादा कुछ नहीं हैं। मंदी की शिकार अर्थव्यवस्थाएं अब भारत के बाजार में लूट के लिए निगाहें गड़ाए हुए हैं। अफसोस यह कि देश की इतनी बड़ी आबादी के लिए रोजगार सृजन के लिए यह एक बहुत बड़ा क्षेत्र है। नौकरियों के लिए सिकुड़ते दरवाजों के बीच सरकार अब निजी उद्यमिता से जी रहे समाज के मुंह से भी निवाला छीन लेना चाहती है। कारपोरेट पर मेहरबान सरकार अगर सामान्य जनों के हाथ से भी काम छीनने पर आमादा है, तो भविष्य में इसके क्या परिणाम होंगें, इसे सोचा जा सकता है।

खुदरा व्यापार से जी रहे लाखों लोग क्या इस सरकार और लोकतंत्र के लिए दुआ करेंगें ? लोगों की रोजी-रोटी छीनने के लिए एक लोकतंत्र इतना आतुर कैसे हो सकता है ? देश की सरकार क्या सच में अंधी-बहरी हो गयी है? सरकार परचून की दुकान पर भी पूंजीवाद को स्थापित करना चाहती है, तो इसके मायने बहुत साफ हैं कि यह जनता के वोटों से चुनी गयी सरकार भले है, किंतु विदेशी हितों के लिए काम करती है। क्या दिल्ली जाते ही हमारा दिल और दिमाग बदल जाता है, क्या दिल्ली हमें अमरीका का चाकर बना देती है कि हम जनता के एजेंडे को भुला बैठते हैं। कांग्रेस की छोड़िए दिल्ली में जब भाजपा की सरकार आयी तो उसने प्रिंट मीडिया में विदेशी निवेश के लिए दरवाजे खोल दिए। क्या हमारी राजनीति में अब सिर्फ झंडों का फर्क रह गया है। हम चाहकर अपने लोकतंत्र की इस त्रासदी पर विवश खड़े हैं। हमारे समय के महत्वपूर्ण कवि सर्वेश्वर दयाल सक्सेना शायद इसीलिए लिखते है-

दिल्ली हमका चाकर कीन्ह,

दिल-दिमाग भूसा भर दीन्ह।

याद कीजिए वे दिन जब हिंदुस्तान के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह अमरीका से परमाणु करार के लिए अपनी सरकार गिराने की हद तक आमादा थे। किंतु उनका वह पुरूषार्थ, जनता के महंगाई और भ्रष्टाचार जैसे सवालों पर हवा हो जाता है। सही मायने में उसी समय मनमोहन सिंह पहली और अंतिम बार एक वीरोचित भाव में दिखे थे क्योंकि उनके लिए अमरीकी सरकार के हित, हमारी जनता के हित से बड़े हैं। यह गजब का लोकतंत्र है कि हमारे वोटों से बनी सरकारें विदेशी ताकतों के इशारों पर काम करती हैं।

राहुल गांधी की गरीब समर्थक छवियां क्या उनकी सरकार की ऐसी हरकतों से मेल खाती हैं। देश के खुदरा व्यापार को उजाड़ कर वे किस कलावती का दर्द कम करना चाहते हैं, यह समझ से परे है। देश के विपक्षी दल भी इन मामलों में वाचिक हमलों से आगे नहीं बढ़ते। सरकार जनविरोधी कामों के पहाड़ खड़े कर रही है और संसद चलाने के लिए हम मरे जा रहे हैं। जिस संसद में जनता के विरूद्ध ही साजिशें रची जा रही हों, लोगों के मुंह का निवाला छीनने की कुटिल चालें चली जा रही हों, वह चले या न चले इसके मायने क्या हैं ? संसद में बैठे लोगों को सोचना चाहिए कि क्या वे जनाकांक्षाओं का प्रकटीकरण कर रहे हैं ? क्या उनके द्वारा देश की आम जनता के भले की नीतियां बनाई जा रही हैं? गांधी को याद करती राजनीति को क्या गांधी का दिया वह मंत्र भी याद है कि जब आप कोई भी कदम उठाओ तो यह सोचो कि इसका देश के आखिरी आदमी पर क्या प्रभाव पड़ेगा ? सही मायने में देश की राजनीति गांधी का रास्ता भूल गई है, किंतु जब जनप्रतिरोध हिंसक हो उठते हैं तो वह गांधी और अहिंसा का मंत्र जाप करने लगती है। देश की राजनीति के लिए यह सोचने का समय है कि कि देश की विशाल जनसंख्या की समस्याओं के लिए उनके पास समाधान क्या है? क्या वे देश को सिर्फ पांच साल का सवाल मानते हैं, या देश उनके लिए उससे भी बड़ा है? अपनी झोली भरने के लिए सरकार अगर लोगों के मुंह से निवाला छीनने वाली नीतियां बनाती है तो हमें डा. लोहिया की याद आती है, वे कहते थे- जिंदा कौमें पांच तक इंतजार नहीं करती। सरकार की नीतियां हमें किस ओर ले जा रही हैं, यह हमें सोचना होगा। अगर हम इस सवाल का उत्तर तलाश पाएं तो शायद प्रणव बाबू को यह न कहने पड़े कि पता नहीं आखिर देश कहां जा रहा है ?”

बुधवार, 23 नवंबर 2011

सीबीआई की तरह ‘अच्छा बच्चा’ नहीं है कैग

-संजय द्विवेदी
राजसत्ता का एक खास चरित्र होता है कि वह असहमतियों को बर्दाश्त नहीं कर सकती। हमने इस पैंसठ सालों में जैसा लोकतंत्र विकसित किया है, उसमें जनतंत्र के मूल्य ही तिरोहित हुए हैं। सरकार में आने वाला हर दल और उसके नेता हमारी लोकतांत्रिक संस्थाओं को भोथरा बनाने के सारे यत्न करते हैं। आज कैग और विनोद राय अगर सत्तारूढ़ दल निशाने पर हैं तो इसीलिए क्योंकि वे सीबीआई की तरह ‘अच्छे बच्चे’ नहीं हैं।
न्यायपालिका भी सत्ता की आंखों में चुभ रही है और चोर दरवाजे से सरकार मीडिया के भी काम उमेठना चाहती है। कैग, सरकार और कांग्रेस के निशाने पर इसलिए है क्योंकि उसकी रिपोर्ट्स के चलते सरकार के ‘पाप’ सामने आ रहे हैं। सरकार को बराबर संकटों का सामना करना पड़ रहा है। यही कारण है कि सरकार और उससे जुड़े दिग्विजय सिंह,मनीष तिवारी जैसे नेता कैग की नीयत पर ही शक कर रहे हैं। उसकी रिपोटर्स को अविश्सनीय बता रहे हैं। किंतु सरकार से जुड़ी संवैधानिक संस्थाएं अगर सत्ता से जुड़े तंत्र की मिजाजपुर्सी में लग जाएंगी हैं तो आखिर जनतंत्र कैसे बचेगा। सीबीआई ने जिस तरह की भूमिका अख्तियार कर रखी है, उससे उसकी छवि पर ग्रहण लग चुके हैं। आज उसे उपहास के नाते कांग्रेस ब्यूरो आफ इन्वेस्टीगेशन कहा जाने लगा है। क्या कैग को भी सीबीआई की तरह की सरकार की मनचाही करनी चाहिए, यह एक बड़ा सवाल है। हमारे लोकतंत्र में जिस तरह के चेक और बैलेंस रखे गए वह हमारे शासन को ज्यादा पारदर्शी और जनहितकारी बनाने की दिशा में काम आते हैं। इसलिए किसी भी तंत्र को खुला नहीं छोड़ा जा सकता।
न्यायपालिका, कार्यपालिका और विधायिका में शक्तियों के बंटवारे के साथ-साथ, संसद के भीतर भी लोकलेखा समिति और तमाम समितियों में विपक्ष को आदर इसी भावना से दिया गया है। विरोधी विचारों का आदर और उनके विचारों का शासन संचालन में उपयोग यह संविधान निर्माताओं की भावना रही है। सब मिलकर देश को आगे ले जाने का काम करें यही एक भाव रहा है। तमाम संवैधानिक संस्थाएं और आयोग इसी भावना से काम करते हैं। वे सरकार के समानांतर, प्रतिद्वंदी या विरोधी नहीं हैं किंतु वे लोकतंत्र को मजबूत करने वाले और सरकार को सचेत करने वाले संगठन हैं। कैग भी एक ऐसा ही संगठन है। जिसका काम सरकारी क्षेत्र में हो रहे कदाचार को रोकने के लिए काम करना है। सीबीआई से भी ऐसी ही भूमिका की अपेक्षा की जाती है, किंतु वह इस परीक्षा में फेल रही है-इसीलिए आज यह मांग उठने लगी है कि सीबीआई को लोकपाल के तहत लाया जाए। निश्चय ही हम अपनी संवैधानिक संस्थाओं, आयोगों और विविध एजेंसियों को उनके चरित्र के अनुरूप काम नहीं करने देंगें तो लोकतंत्र कमजोर ही होगा। लोकतंत्र की बेहतरी इसी में है कि हम अपने संगठनों पर संदेह करने के बजाए उन्हें ज्यादा स्वायत्त और ताकतवर बनाएं। सरकार में होने का दंभ, पांच सालों का है किंतु विपक्ष की पार्टियां भी जब सत्ता में आती हैं तो वे भी मनमाना दुरूपयोग करती हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि देश के सबसे बड़े दल और लंबे समय तक राज करने वाली पार्टी ने ऐसी परंपराएं बना दी हैं, जिसमें संवैधानिक संस्थाओं का दुरूपयोग तो दिखता ही है। संवैधानिक पदों पर बैठे लोगों ने भी अपने पद की मर्यादा भुलाकर आचरण किया है। खासकर कांग्रेस के राज्यपालों के तमाम उदाहरण हमें ऐसे मिलेगें, जहां वे पद की गरिमा को गंवाते नजर आए। कैग ने अपनी थोड़ी-बहुत विश्वसनीयता बनाई है, चुनाव आयोग ने एक भरोसा जगाया है, कुछ राज्यों में सूचना आयोग भी बेहतर काम कर रहे हैं, हमें इन्हें संबल देना चाहिए। भ्रष्टाचार के खिलाफ न्यायपालिका की सक्रियता का स्वागत करना चाहिए। मीडिया की पहल को भी सराहना चाहिए न कि हमें इन संस्थाओं को शत्रु समझकर इनकी छवि खराब करने या इन्हें लांछित-नियंत्रित करने का प्रयास करने चाहिए।
सत्ता में बैठे लोगों को बराबर यह लगता है कि उन्हें जनादेश मिल चुका है और अब पांच सालों तक देश के भाग्यविधाता वे ही हैं। उनके राज करने के तरीके में सवाल उठाने का हक न हमारी संवैधानिक संस्थाओं को है, न मीडिया को, न ही अन्ना हजारे या रामदेव जैसे जनता के प्रतीकों को। जाहिर तौर पर जनतंत्र की यह विडंबना हम भुगत रहे हैं और इसके अतिरेक में ही हम देश में एक आपातकाल भी झेल चुके हैं। सत्ता को भोगने की यह सनक ही हमारे दिमागों पर इस तरह कायम है कि हमें उचित-अनुचित का विचार भी नहीं रहता।
आज की राजनीति सवालों के वाजिब समाधान नहीं खोजती वह विषय को और उलझाकर विषय का विस्तार कर देती है। जैसे आप देखें तो अन्ना हजारे और रामदेव की मंडली के द्वारा उठाए गए सवालों के हल तलाशने के बजाए सरकार और उनकी एजेंसियां इनसे जुड़े लोगों के ही चरित्र चित्रण में लग गयीं। अब टूजी स्पेट्रक्ट्रम का सवाल गहराया तो सरकार अपने लोगों को दागदार होता देखकर राजग के कार्यकाल के समय के स्पेक्ट्रम आबंटन पर एफआईआर करवा रही है। इससे पता चलता है सवालों के समाधान खोजने के बजाए इस पर जोर है कि आप भी दूध के धुले नहीं हो। कुल मिलाकर आडवाणी की भ्रष्टाचार विरोधी रैली और संसद के सत्र में विपक्ष के हमलों को भोथरा करने की यह सोची समझी चाल है। कैग जैसे संगठन अगर इसका शिकार बन रहे हैं तो यह राजनीति का ऐसा चरित्र है जिसकी आलोचना होनी चाहिए।

बिरथ आडवाणी की बेबसी !



एक अनथक यात्री के हौसलों को सलाम कीजिए
-संजय द्विवेदी


जिस आयु में लोग डाक्टरों की सलाहों और अस्पताल की निगरानी में ज्यादा वक्त काटना चाहते हैं, उस दौर में लालकृष्ण आडवानी ही हिंदुस्तान की सड़कों पर सातवीं बार देश को मथने-झकझोरने-ललकारने के लिए निकल सकते हैं। वे इस बार भी निकले और पूरे युवकोचित उत्साह के साथ निकले। परिवार और पार्टी की सलाहों, मीडिया की फुसफुसाहटों को छोड़िए, उस हौसले को सलाम कीजिए, जो इन विमर्शों को काफी पीछे छोड़ आया है।
प्रधानमंत्री पद के दावेदारों के बीच उनका नाम वैसे भी सर्वोच्च है, यह यात्रा एक राजनीतिक प्रसंग है, जिसे ऐसी बातों से हल्का न कीजिए। बस यह देखिए कि अन्ना हजारे, रामदेव और श्रीश्री रविशंकर के अराजनीतिक हस्तक्षेपों के बीच भ्रष्टाचार के खिलाफ के यह अकेली सबसे प्रखर राजनीतिक आवाज है। यह उस पार्टी के लिए भी एक पाठ है जो भावनात्मक सवालों के इर्द-गिर्द ही अपना जनाधार खोजती है। आडवानी की यह सातवीं यात्रा थी, जिसमें वे देश के सबसे ज्वलंत प्रश्न पर बात कर रहे थे। यह इसलिए भी क्योंकि इस सवाल पर उनकी खुद की पार्टी भी बहुत सहज नहीं है। उनकी इस यात्रा को प्रारंभ से झटके लगने शुरू हो गए, क्योंकि एक राजनीतिक वर्ग और मीडिया का एक बड़ा हिस्सा उनके इस प्रयास को 7- रेसकोर्स की तैयारी के रूप में देख रहा था। इससे यात्रा के प्रभाव को कम करने और आडवाणी के कद के नापने की कोशिशें हुयीं। जो निश्चय ही इस यात्रा के आभामंडल को कम करने वाले साबित हुए। आडवाणी जी अब जबकि 40 दिनों में 22 राज्यों की यात्रा कर लौट आए हैं तब सवाल यह उठता है कि आखिर इस यात्रा से इतनी घबराहटें क्यों थीं? क्या यात्रा के लिए जो समय, स्थान और विषय चुने गए वह ठीक नहीं थे? क्या अराजनीतिक क्षेत्र को भ्रष्टाचार के खिलाफ पूरी पहल सौंप देना और मुख्य विपक्षी दल के नाते भाजपा का कोई हस्तक्षेप न करना उचित होता ?
एक राजनीतिक दल के सर्वोच्च नेता होने के नाते आडवाणी ने जो किया, वह वास्तव में साहसिक और सुनियोजित यत्न था। किंतु अनेक तरीके से उनकी यात्रा से उपजे सवालों के बजाए, वही सवाल उठाए गए, जिसमें मीडिया रस ले सकता था, या भाजपा की अंतर्कलह को स्थापित की जा सकती थी। भाजपा में लालकृष्ण आडवानी का जो कद और प्रतिष्ठा है उसके मुकाबले वास्तव में कोई नेता नहीं हैं, क्योंकि आडवानी ही इस नई भाजपा के शिल्पकार हैं। उनके प्रयत्नों ने ही देश की एक सामान्य सी पार्टी को सर्वाधिक जनाधारवाली पार्टी में तब्दील कर दिया। भाजपा का भौगोलिक और वैचारिक विस्तार भी उनके ही प्रयत्नों की देन है। अटलबिहारी वाजपेयी के रूप में जहां भाजपा के पास एक ऐसा नेता मौजूद था, जिसने संसद के अंदर-बाहर पार्टी को व्यापकता और स्वीकृति दिलाई, वहीं आडवाणी ने इस जनाधार में काडर खोजने व खड़ा करने का काम किया। अटल जी की व्यापक लोकस्वीकृति और आडवाणी का संगठन कौशल मिलकर जहां भाजपा को शिखर तक ले जानेवाले साबित हुए वहीं केंद्र में उसकी सरकार बनने से वह सत्ता का दल भी बन सकी। भाजपा का केंद्रीय सत्ता में आना एक ऐसा सपना था जिसका इंतजार उसका काडर सालों से कर रहा था। 1984 के चुनाव में मात्र दो लोकसभा सदस्यों के साथ संसद में प्रवेश करनी वाली भाजपा अगर आज देश का मुख्य विपक्षी दल है तो इसकी कल्पना आप आडवाणी को माइनस करके नहीं कर सकते।
रामरथ यात्रा के माध्यम से पहली बार देश की जनता के बीच गए लालकृष्ण आडवाणी की, देश को झकझोरने की यह कोशिशें तब से जारी हैं। 1990 की राम रथ यात्रा का यह यात्री लगातार देश को मथ रहा है। उसके बाद जनादेश यात्रा, सुराज यात्रा, स्वर्णजयंती यात्रा, भारत उदय यात्रा, भारत सुरक्षा यात्रा, जनचेतना यात्रा की पहल बताती है कि आडवाणी अपने दल के विचार को जनता के बीच ले जाने के लिए किस तरह की वैचारिक छटपटाहट के शिकार हैं। वे जनप्रबोधन का कोई अवसर नहीं छोड़ते। राममंदिर के बहाने छद्मधर्मनिरपेक्षता पर उनके द्वारा किए जाने वाले वाचिक हमलों को याद कीजिए और यह भी सोचिए कि वे किस तरह देश को अपनी बात से सहमत करते हुए सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का पाठ पढ़ाते हैं। वे जनता के साथ सीधे संवाद में अटलबिहारी वाजपेयी की तरह शब्दों के जादूगर भले न हों किंतु उनकी बात नीचे तक पहुंची और स्वीकारी गयी। क्योंकि वाणी और कर्म का साम्य उनमें बेतरह झलकता है। इसलिए जब वे कुछ कहते हैं, तो सामान्य प्रबोधन की शैली के बावजूद उनको ध्यान से सुना जाता है। वे लापरवाही से सुने जा सकने वाले नेता नहीं हैं। वे प्रबोधन के कलाकार हैं। वे विचार का पाठ पढ़ाते हैं और देश को अपने साथ लेना चाहते हैं। उनके पाठ इसलिए मन में उतरते हैं और जगह बनाते हैं।
अपनी वैचारिक दृढ़ता के नाते वे भाजपा के सबसे कद्दावर नेता ही नहीं, आरएसएस के भी लंबे समय तक चहेते बने रहे। क्योंकि वे स्वयं भाजपा का सबसे प्रामाणिक और वैचारिक पाठ थे। वे दल की विचारधारा और संगठन की मूल वृत्ति के प्रतिनिधि थे। अटलबिहारी वाजपेयी जहां अपनी व्यापक लोकछवि के चलते पार्टी का सबसे जनाधार वाला चेहरा बने वहीं, आडवानी विचार के प्रति निष्ठा के नाते दल का संगठनात्मक चेहरा बन गए, विचार पुरूष बन गए। पाकिस्तान में जिन्ना की मजार पर जो कुछ उन्होंने लिखा और कहा, कल्पना कीजिए यह काम अटलबिहारी वाजपेयी ने किया होता तो क्या इसकी इस तरह चर्चा होती। शायद नहीं, क्योंकि उनकी छवि एक ऐसे भावुक-संवेदनशील नेता की थी जिसके लिए अपनी भावनाओं के उद्वेग को रोक पाना संभव नहीं होता था। किंतु आडवानी में संघ परिवार एक सावधान स्वयंसेवक, नपा-तुला बोलने वाला,पार्टी की वैचारिक लाईन को आगे बढ़ाने वाला, उस पर डटकर खड़ा होने वाले व्यक्ति की छवि देखता था। किंतु पाकिस्तान यात्रा ने कई भ्रम खड़े कर दिए। आडवानी का पारंपरिक आभामंडल दरक चुका था। वे आंखों के तारे नहीं रहे। यह क्यों हुआ, यह एक लंबी कहानी है। किंतु समय ने साबित किया कि किस तरह एक विचारपुरूष और संगठन पुरूष स्वयं अपने बनाए मानकों का ही शिकार हो जाता है। विचार के प्रति दृढ़ता और विचारधारा के प्रति आग्रह आडवानी ने ही अपने दल को सिखाया था, पाकिस्तान से लौटे तो यह फार्मूला उन पर ही आजमाया गया, उन्हें पद छोड़ना पड़ा। किंतु आडवानी की जिजीविषा और दल के लिए उनका समर्पण बार-बार उन्हें मुख्यधारा में ले आता है। वे पार्टी की तरफ से 2009 में प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार बनाए गए। पार्टी चुनाव हारी। चुनाव में हार-जीत बड़ी बात नहीं किंतु यह दूसरी हार(2004 और 2009) भाजपा पचा नहीं पायी। इसने पूरे दल के आत्मविश्वास को हिलाकर रख दिया। दिल्ली के स्तर पर परिवर्तन हुए, एक नई युवा भाजपा बनाने की कोशिशें भी हुयीं। किंतु आडवाणी की लंबी छाया से पार्टी का मुक्त होना संभव कहां था। सो उनकी छाया से मुक्त होने के प्रयासों ने विग्रहों को और बल दिया। आडवाणी मुख्यधारा में रहे हैं, नेपथ्य में रहना उन्हें नहीं आता। बस संकट यह है कि अटलबिहारी वाजपेयी के पास लालकृष्ण आडवानी थे किंतु जब आडवानी मैदान में थे तो उनके पास और पीछे कोई नहीं था। यह आडवानी की बेबसी भी है और पार्टी की भी। इसी बेबसी ने भाजपा और उसके रथयात्री को सत्ता के रथ से विरथ किया। किंतु आडवानी इस राजनीतिक बियाबान में भी अपनी कहने और सुनाने के लिए निकल पड़ते हैं,पार्टी पीछे से आती है, परिवार भी पीछे से आता है। किंतु कल्पना कीजिए इस यात्रा में अगर आडवाणी सरीखा उत्साह पूरा दल और संघ परिवार दिखा पाता तो क्या यह अकेली यात्रा पूरी सरकार पर भारी नहीं पड़ती। अन्ना और रामदेव के आंदोलनों को परोक्ष मदद देने के आरोपों से घिरा परिवार अगर आडवाणी की इस यात्रा में प्रत्यक्ष आकर वातावरण बनाता तो जाहिर तौर पर मीडिया को इस यात्रा से उपजे सवालों को नजरंदाज करने का अवकाश नहीं मिलता। किंतु विग्रह की खबरों के बीच इस यात्रा में उठाए जा रहे बड़े सवाल हवा हो गए। आडवाणी रथ पर थे, जनता भी साथ थी किंतु उनके द्वारा उठाए गए मुद्दों के बजाए मोदी-आडवानी की दूरियां सुर्खियां बनीं। एक बेहद महत्वाकांक्षी राजनीतिक अभियान की यह बेबसी वास्तव में त्रासद है, किंतु लालकृष्ण आडवानी की इस बात के लिए तारीफ की जानी चाहिए वे अपनी बात कहने-सुनाने के लिए इस गगनविहारी और फाइवस्टारी राजनीति के दौर में भी सड़क के रास्ते जनता के पास जाने का हौसला रखते हैं। किसी गांव में जाने पर राहुल गांधी पर बलिहारी हो जाने वाले मीडिया को इस अनथक यात्री को हौसलों पर कुछ रौशनी जरूर डालनी चाहिए। यह भी सवाल उठाना चाहिए कि क्या आने वाले समय में हमारे राजनेता ऐसी कठिन यात्राओं के लिए हिम्मत जुटा पाएंगें?
(लेखक राजनीतिक विश्लेषक हैं)

मंगलवार, 1 नवंबर 2011

अब सिर्फ गेंदा फूल भर नहीं है रायपुर


राज्योत्सव के प्रसंग पर विशेष

-संजय द्विवेदी

अभिषेक बच्चन की पिछले दिनों आई फिल्म दिल्ली-6 के गाने-सास गारी देवे, देवर जी समझा लेवे, ससुराल गेंदा फूल.... में रायपुर का भी जिक्र आता है। इस गाने के बोल छत्तीसगढ़ी भाषा में हैं, जिसे पहली बार रायपुर की ही प्रसिद्ध जोशी बहनों ने गाया है। हालांकि अब जोशी बहनों को दुख है कि इस गीत के लिए फिल्मकार ने छत्तीसगढ़ को क्रेडिट नहीं दिया है। वे दर्द से कहती हैं हमें रूपया नहीं चाहिए बस इतना तो हो कि हमारे शहर या राज्य छत्तीसगढ़ का उल्लेख हो जाए। जोशी बहनें ठीक ही कह रहीं हैं, लेकिन रायपुर अब किसी सिनेमा के गाने में नाम आने से कहीं अधिक बड़ा है। यह भारतीय गणराज्य के तीन सबसे नए राज्यों में एक की राजधानी भी बन चुका है। जाहिर है, उसकी अपनी साख कायम हो चुकी है। राजधानी ने उसे मंत्रालय का शक्ति केंद्र दिया है, जहां छत्तीसगढ़ के दो करोड़, दस लाख लोगों के भाग्य का फैसला करने वाली सरकार बैठती है। अब इस शहर को नई राजधानी का भी इंतजार है, जिससे यह शहर अचानक बढ़ आयी भीड़ का इलाज पा सके। कोई शहर जब राजधानी बनता है तो वह किस तरह खुद को रूपांतरित करता है यह देखना बहुत रोचक है।

राजधानी बनता एक शहरः रायपुर शहर का छत्तीसगढ़ प्रदेश की राजधानी बन जाना एक ऐसी घटना है जिसने एक बड़े गांव को महानगर बनने का रास्ता दे दिया है। तेलीबांधा से आगे महासमुंद रोड की ओर बढ़िए तो आपको माल नज़र आएगा जहां से रायपुर पहली बार मॉल संस्कृति से परिचित होता दिखता है। आईनाक्स में सिनेमा देखने का एक सुख है जो रायपुर के सिनेमाघरों से अलग है। अब इसी रोड पर एक और मॉल बन गया है तो पंडरी में भी एक और मॉल की धूम है। एडलैब्स का सिनेमाघर भी समता कालोनी में आ गया है। लालगंगा शापिंग मॉल से लेकर बिग बाजार, सालासर ही नहीं हर तरह के ब्रांड के शोरूम यहां की फिजां में रंग भर रहे हैं। लगभग हर बैंक ने अपनी शाखाएं राजधानी बनने के बाद यहां खोली हैं जिनमें तमाम ऐसे भी बैंक हैं जो सामान्य शहरों में नजर नहीं आते। रायपुर वैसे भी एक व्यापारिक शहर रहा है। पड़ोसी राज्यों मप्र, उड़ीसा, महाराष्ट्र से लगे जिले, इसके व्यापारिक वृत को विस्तार देते नज़र आते हैं। भिलाई के पास होने के नाते रायपुर ने औद्योगिक क्षेत्र में नई उड़ान ली है। बिलासपुर से आते समय आप देख सकते हैं किस तरह सड़क के दोनों किनारों पर धुंआ उगलती चिमनियां दिखती हैं। ये तमाम स्पंज आयरन और अन्यान्य उद्योगों के चलते आसमान तो काला हो ही रही है, किसानों की भी शिकायत है कि यह प्रदूषण अब उनकी धान की फसल को काला कर रहा है। रायपुर शहर वैसे भी धूल की समस्या से ग्रस्त है और तीन साल पहले उसे सर्वाधिक प्रदूषित शहर का दर्जा भी मिल चुका है।


राजपथ पर चलने के सुखः जीई रोड का मुख्यमार्ग अब राजपथ में बदल गया है जिसे सरकार ने गौरव पथ का नाम दिया है। चौड़ी होती सड़कें, सड़कों के किनारे आदिवासी शिल्प और संस्कृति से जुड़ते दिखने की सरकारी कोशिशें साफ नजर आती हैं। कलेक्ट्रेट से रेलवे स्टेशन जाने वाली सड़क भी अब काफी चौड़ी सी लगती है। इसी सड़क पर वह बहुचर्चित जेल भी है जहां मानवाधिकार कार्यकर्ता डा विनायक सेन लंबे समय तक कैद रहे । उन पर कथित तौर पर नक्सलियों से रिश्ते रखने का आरोप है। यहां कलेक्टर रहे आरपी मंडल ने जब शहर का कायाकल्प करना शुरू किया तो पहले कलेक्ट्रेट की बुढ़िया बिल्डिंग को चमकाया और उससे लगे पार्क को भी। यह ऐसा कि बाहर से तो कलेक्ट्रेट का परिसर और प्रांगण मंत्रालय से बेहतर नजर आता है। तोड़फोड़ और विस्तार का क्रम लगातार जारी है। मोतीबाग जहां प्रेस क्लब है के आसपास की दुकानें अब नजर नहीं आतीं। सब कुछ तोड़ू दस्ते की भेंट चढ़ चुका है। शहर के मुख्य चौराहे अब भी भीड़ की भांय-भांय से आक्रांत हैं। ट्रैफिक की व्यवस्था आम हिदुस्तानी शहरों की तरह ही बेहाल है। ऐसे में एक शहर में कई शहरों के सांस लेने जैसा ही प्रतीत होता है।

जिन गलियों में धड़कता है रायपुरः रायपुर दरअसल रिक्शों का भी शहर है, यहां उड़ीसा से काम की तलाश आए ज्यादतर लोग इसी पर अपनी जिंदगी बसर करते हैं। अब रिक्शा तो नहीं लेकिन अन्य छोटे-मोटे कामकाज की तलाश में बिहार, उत्तरप्रदेश के लोग भी रायपुर में पांव पसारने लगे हैं, जिन्हें गली मोहल्लों में सब्जी-भाजी बेचते पहचाना जा सकता है। कहने को तो यहां दो साल से लम्बी काया वाली सिटी बस भी चलने लगी है किंतु उसे चलते हुए कहना ठीक नहीं, अपितु रेंगती है। रायपुर की सड़कों पर प्रायः काम के सुबह-शाम स्पीड आठ किलोमीटर प्रति घंटा भी हो जाती है। रामसागरपारा, सदर बाजार, पुरानी बस्ती, ब्राम्हणपारा, मौदहापारा जैसी बस्तियां दरअसल पुराने रायपुर की घड़कनों की असल गवाह हैं। इनकी गलियों में ही असल रायपुर धड़कता है। रायपुर को महसूस करने के लिए दरअसल आपको इन्हीं तंग गलियों से गुजरना होगा। राज्य के पारंपरिक व्यंजन, तीज-त्योहार भी इन्हीं गलियों में दिखते हैं। अब राजभाषा का दर्जा पा चुकी छत्तीसगढ़ी की महक और खनक भी रायपुर के पुराने मुहल्लों में सुनाई देती है। छ्त्तीसगढ़ी भाषा का पहला अखबार निकालने वाले जागेश्वर प्रसाद राहत महसूस कर सकते हैं। उनका अखबार बंद भले हो गया पर भाषा पर सरकारी मोहर लग चुकी है। जागेश्वर की अपनी एक पार्टी भी जिसका नाम है छत्तीसगढ विकास पार्टी है।

इतिहास को समेटे एक शहरः रायपुर के बूढ़ापारा में मप्र के प्रथम मुख्यमंत्री पंडित रविशंकर शुक्ल का आवास आज भी एक इतिहास को समेटे हुए दिखता है। इस परिवार से निकले पंडित शुक्ल के बेटों पंडित श्यामाचरण शुक्ल और विद्याचरण शुक्ल के उल्लेख के बिना रायपुर ही नहीं संयुक्त मध्यप्रदेश का इतिहास भी अधूरा रह जाएगा। अब इस परिवार की तीसरी पीढ़ी के प्रतिनिधि के रूप में अमितेश शुक्ल राजिम से विधायक के रूप में दुबारा चुने गए हैं। वे छत्तीसगढ़ की पहली सरकार में मंत्री भी रह चुके हैं। रायपुर की राजनीतिक चेतना को यहां के दिग्गज नेताओं ने लगातार प्रखर बनाया है। शुक्ल परिवार के अलावा संत पवन दीवान का एक चेहरा ऐसा है जिसने लगातार छत्तीसगढ़ और उसकी अस्मिता से जुड़े सवालों को उठाया है। हालांकि बार- बार पार्टियां बदलकर दीवान अपनी राजनैतिक आभा तो खो चुके हैं किंतु एक संत के नाते उनके सादगीपूर्ण जीवन से लोगों में आज भी उनके प्रति आस्था शेष है।

भाजपा का रायपुरः आज के रायपुर में भाजपा की एक खास जगह बन चुकी है जिसकी खास वजह रमेश बैस, बृजमोहन अग्रवाल जैसे नई पीढ़ी के नेताओं को माना जा सकता है, जिन्होंने अपने दल के लिए निरंतर काम करते हुए यहां के समाज जीवन में एक खास जगह बना ली है। रायपुर से सांसद रमेश बैस एक ऐसे नेता हैं जिन्होंने विद्याचरण और श्यामाचरण शुक्ल दोनों को चुनाव मैदान में पराजित किया। रायपुर से दो बार सांसद रहे केयूर भूषण भी आज की राजनीति के एक उदाहरण हो सकते हैं जो आज भी अपनी आयु के सात दशक पूरे करने के बावजूद साइकिल से ही चलते हैं। रायपुर जैसे व्यापारिक शहर का दो बार सांसद रहे इस गांधीवादी नायक की सादगी प्रेरणा का विषय है। आज जबकि रायपुर राजधानी बन चुका है सो राजपुत्रों से इसका दैनिक वास्ता है बावजूद इसके कि चंद्रशेखर साहू, सत्यनारायण शर्मा, धनेंद्र साहू राजेश मूणत, राजकमल सिंहानिया जैसे नेता रायपुर ही नहीं पूरे प्रदेश में अपना प्रभाव रखते हैं। मूणत और साहू तो इस समय रमन मंत्रिमंडल के प्रभावी मंत्री भी हैं।

साहित्य में भी खास जगहः साहित्य के क्षेत्र में रायपुर आज भी खास लेखकों की मौजूदगी से गौरवांवित है। नौकर की कमीज जैसे महत्वपूर्ण उपन्यास के लेखक विनोद कुमार शुक्ल इसी शहर के शैलेन्द्र नगर मुहल्ले में रहते हुए आज भी रचनाशील हैं। गजानन माधव मुक्तिबोध की यादों के साथ उनके बेटे इसी शहर में रहते हैं। परितोष चक्रवर्ती, जया जादवानी, गिरीश पंकज, जयप्रकाश मानस, आनंद हर्षुल, कनक तिवारी, पुष्पा तिवारी, डा चित्तरंजन कर जैसे तमाम लेखक आज भी यहां रचनाओं का सृजन कर हैं। जयप्रकाश मानस का अतिरिक्त उल्लेख यहां इसलिए प्रासंगिक है क्योंकि उन्होंने एक नई विधा में सार्थक काम करके अपनी जगह बनाई है। वे सृजनगाथा डाट काम नाम से एक मासिक साहित्यिक वेबसाइट चला रहे हैं और राज्य में वेब पत्रकारिता की शुरुआत भी इसी से मानी जाती है। इसके अलावा उन्होंने राज्य के कई लेखकों की कृतियों को आनलाइन करने का भी महत्वपूर्ण काम किया। सुधीर शर्मा ने वैभव प्रकाशन नाम से राज्य के रचनाकारों की लगभग चार सौ किताबें प्रकाशित करने का काम किया है जिससे स्थानीय रचनाकार सामने आ रहे हैं। यहां ऐसे लेखक भी हैं जो क्षेत्रीय स्तर पर भी सक्रिय हैं और जो कल के साहित्य जगत में एक बड़ा हस्तक्षेप कर सकते हैं। रायपुर राजधानी होने के पहले ही इस समूचे छ्तीसगढ़ क्षेत्र का एक केंद्र रहा है सो यहां साहित्य, संस्कृति, पत्रकारिता और कला के क्षेत्र में सार्थक हस्तक्षेप होते रहे हैं। यह शहर राजनारायण मिश्र, विष्णु सिंन्हा, रमेश नैयर, बसंतकुमार तिवारी, गोविंदलाल वोरा, बबन प्रसाद मिश्र, ललित सुरजन, सुनील कुमार जैसे पत्रकारों की उपस्थिति से भी जनमुद्दों पर संवाद की गुंजाइश तलाश ही लेता है।


हाशिए पर संस्कृतिः बालीबुड की तर्ज पर छालीवुड का सिनेमा भी अपनी जगह बनाने की जुगत में है। हालांकि भोजपुरी फिल्मों जैसा इस सिनेमा का बाजार तो नहीं दिखता किंतु एकमात्र सफल फिल्म मोर छइयां-भुइयां ने एक उम्मीद तो जगाई ही थी। हां, एलबम का कारोबार जरूर चरम पर है, जिससे छत्तीसगढ़ की संस्कृति तो नहीं दिखती पर वे बालीवुड की भोंड़ी नकल जरूर साबित हो रहे हैं। सांस्कृतिक क्षेत्र में मुक्तिबोध नाट्य समारोह ने अपनी पहचान बनाई है। बावजूद इसके, रायपुर आज भी छ्त्तीसगढ़ की साझी सांस्कृतिक या सामाजिक संस्कृति का प्रतिनिधित्व नहीं करता है। इसे इस रूप से देखा जा सकता है कि राज्योत्सव के अलावा कोई बड़ा सांस्कृतिक हस्तक्षेप पूरे साल भर सुनाई नहीं पड़ता, उसमें भी मेले का माहौल ज्यादा रहता है, जबकि रायगढ़ के चक्रधर समारोह ने अपनी एक राष्ट्रीय पहचान कायम कर ली है। रायगढ़ घराने की सांस्कृतिक भावभूमि और राजनांदगांव जिले में पड़ने वाले खैरागढ़ में संगीत विश्वविद्यालय की मौजूदगी के बावजूद राजधानी में उसके प्रभाव नहीं दिखते। राज्य के तमाम कलाकार जिनकी देश-दुनिया में एक बड़ी जगह है, राजपुत्रों के दिलों में जगह नहीं बना पाते। कई पद्मपुस्कार प्राप्त कलाकार आज भी समाज के ध्यानार्षण की प्रतीक्षा में हैं। छत्तीसगढ़ के मायने सिर्फ रायपुर नहीं, उसे बृहत्तर परिपेक्ष्य में देखना होगा, क्योंकि राज्य के तमाम शिल्पकार, कलाकार, संस्कृति कर्मी रायपुर में ही नहीं रहते। इस मामले में छत्तीसगढ़ की सरकार मप्र के अनुभवों से प्रेरणा ले सकती है और छ्त्तीसगढ़ में अपने कलाकारों के मान- सम्मान की नई परंपराएं गढ़ सकती है। रायपुर के ही शेखर सेन ने अपनी विवेकानंद और कबीर की नाटिकाओं के माध्यम से एक खास जगह बना ली है तो भारती बंधु कबीर गायन में एक नामवर हस्ती हैं। ऐसे में राष्ट्रीय फलक पर रायपुर का हस्तक्षेप धीरे-धीरे मुखर, प्रखर और प्रभावी हो रहा है।

( लेखक माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल के जनसंचार विभाग के अध्यक्ष हैं)