शुक्रवार, 19 अगस्त 2011

अन्ना ने इस देश की आत्मा को छू लिया है


भ्रष्टाचार विरोधी जनांदोलन ने देश को एक सूत्र में बांधा

-संजय द्विवेदी

अन्ना हजारे ने सही मायने में इस देश की आत्मा को छू लिया है। सच मानिए उनकी गांधी टोपी, बालसुलभ उत्साह, उनकी भारतीय वेशभूषा और बातों की सहजता कुल मिलाकर एक भरोसा जगाती हैं। अन्ना आज जहां हैं उसके पीछे कहीं न कहीं वह छवि जिम्मेदार है जो उन्हें महात्मा गांधी से जोड़ती है। इसलिए जब कांग्रेस के अहंकारी प्रवक्ता उनके बारे में कुछ कहते हैं, तो दर्द देश को होता है। अन्ना हजारे सही मायने में एक भारतीय आत्मा के रूप में उभरे हैं। उन्होंने देश की नब्ज पर हाथ रख दिया है।

कांग्रेस के दिशाहीन और जनता से कटे नेतृत्व की छोड़िए उन्होंने विपक्ष के भी नाकारेपन का लाभ उठाते हुए यह साबित कर दिया है कि लोकशाही की असल ताकत क्या है। जनता के मन में इस कदर उनका बस जाना और नौजवानों का उनके पक्ष में सड़कों पर उतरना, इसे साधारण मत समझिए। यह वास्तव में एक साधारण आदमी के असाधारण हो जाने की परिघटना है। हमारी खुफिया एजेंसियां कह रही थीं- अन्ना को रामदेव समझने की भूल न कीजिए। किंतु सरकारें कहां सुनती हैं। पूरी फौज उतर पड़ी अन्ना को निपटाने के लिए। क्या कांग्रेस के प्रवक्ता, क्या मंत्री सब उनकी ईमानदारी और निजी जीवन पर ही कीचड़ उछालने लगे। लेकिन क्या हुआ कि तीन दिनों के भीतर देश के गृहमंत्री को लोकसभा में उन्हें सच्चा गाँधीवादी बताते हुए सेल्यूट करना पड़ा। समय बदलता है, तो यूं ही बदलता है।

राजनीतिक दलों के लिए चुनौतीः

अन्ना आज राजनीतिक दलों के लिए एक चुनौती और देश के सबसे बड़े यूथ आईकान हैं। वे लोकप्रियता के उस शिखर पर हैं जहां पहुंचने के लिए राजनेता, अभिनेता और लोकप्रिय कलाकार तरसते हैं। महाराष्ट्र के एक गांव राणेगण सिद्धि के इस आम इंसान के इस नए रूपांतरण के लिए आप क्या कहेंगें? क्या यह यूं हो गया ? सच है समय अपने नायक और खलनायक दोनों तलाश लेता है। याद कीजिए यूपीए-1 की ताजपोशी का समय जब मनमोहन सिंह, एक ऐसे ईमानदार आईकान के तौर पर प्रधानमंत्री पद की शपथ लेते हैं जो भारत का भविष्य बदल सकता है, क्योंकि वह एक अर्थशास्त्री के तौर पर दुनिया भर में सम्मानित हैं। आज देखिए उनकी ईमानदारी और अर्थशास्त्र दोनों औंधे मुंह पड़े हैं। अमरीका से हुए परमाणु करार को पास कराने के लिए अपनी जान लड़ा देने वाले अमरीका प्रिय प्रधानमंत्री के सहायकों की बेबसी देखिए वे यह कहने को मजबूर हैं कि अन्ना के आंदोलन के पीछे अमरीका का हाथ है। अमरीका की चाकरी में लगी केंद्र सरकार के सहयोगियों के इस बयान पर क्या आप हंसे बिना रह सकते हैं? लेकिन उलटबासियां जारी हैं। सबसे ईमानदार प्रधानमंत्री के राज में भ्रष्टाचार के रिकार्ड टूट रहे हैं, और विद्वान अर्थशास्त्री को प्रधानमंत्री बनाने की सजा यह कि महंगाई से जनता त्राहि-त्राहि कर रही है।

विपक्ष भी करता रहा निराशः

इस समय में तो विपक्ष भी आशा से अधिक निराश कर रहा है। प्रामणिकता के सवाल पर विपक्ष की भी विश्वसनीयता भी दांव पर है। यह साधारण नहीं है कि जिन राज्यों में विपक्षी दलों की सरकारें हैं वहां भी भ्रष्टाचार अपने चरम पर है। केरल में वामपंथियों को ले डूबने वाले विजयन हों, कर्नाटक के भाजपाई मुख्यमंत्री रहे वीएस येदिरेप्पा या उप्र की मुख्यमंत्री मायावती। सब का ट्रैक बहुत बेहतर नहीं है। शिबू सोरेन, लालूप्रसाद यादव और मुलायम सिंह यादव की याद तो मत ही दिलाइए। राज्यों की विपक्षी सरकारें लूट-पाट का उदाहरण बनने से खुद को रोक नहीं पायीं। ऐसे में राजनीतिक विश्वसनीयता के मोर्चे पर वे कांग्रेस से बहुत बेहतर स्थिति में नहीं हैं। कम से कम भ्रष्टाचार के मामले पर मुख्यधारा के राजनीतिक दलों का राष्ट्रीय चरित्र एक सरीखा है। सो इस राजनीतिक शून्यता और विपक्ष के नाकारेपन के बीच अन्ना आशा की एक किरण बनकर उभरते हैं। विपक्ष वास्तव में सक्रिय और विश्वसनीय होता तो अन्ना कहां होते? इसलिए देखिए कि सारे दल अपनी घबराहटों के बावजूद लोकपाल को लेकर किंतु-परंतु से आगे नहीं बढ़ रहे हैं। अन्ना हजारे के नैतिक बल और व्यापक जनसमर्थन ने उन्हें सहमा जरूर दिया है किंतु वे आज भी आगे आकर सक्षम लोकपाल बनाने के उत्सुक नहीं दिखते। राजनीतिक दलों का यही द्वंद देश की सबसे बड़ी पीड़ा है। जनता इसे देख रही है और समझ भी रही है।

टूटा राज्य का दंभः

सवाल यह भी नहीं है कि अन्ना सफल होते हैं या विफल किंतु अन्ना ने जनशक्ति का भान, मदांध राजनीति को करा दिया है। राज्य( स्टेट) को यह जतला दिया है उसका दंभ, जनशक्ति चाहे तो चूर-चूर हो सकता है। बड़बोले, फाइवस्टारी और गगनविहारी नेताओं को अन्ना ने अपनी साधारणता से ही लाजवाब कर दिया है। अगर उन्हें दूसरा गांधी कहा जा रहा है तो यह अतिरंजना भले हो, किंतु सच लगती है। क्योंकि आज की राजनीति के बौनों की तुलना में वे सच में आदमकद नजर आते हैं। यह सही बात है अन्ना के पास गांधी, जयप्रकाश नारायण और वीपी सिंह जैसा कोई समृद्ध अतीत नहीं है। उनके पास सिर्फ उनका एक गांव है, जहां उन्होंने अपने प्रयोग किए, उनका अपना राज्य है, जहां वे भ्रष्टों से लड़े और उसकी कीमत भी चुकायी। किंतु उनके पास वह आत्मबल, नैतिक बल और सादगी है जो आज की राजनीति में दुर्लभ है। उनके पास निश्चय ही न गांधी सरीखा व्यक्तित्व है, ना ही जयप्रकाश नारायण सरीखा क्रांतिकारी और प्रभावकारी व्यक्तित्व। वीपी सिंह की तरह न वे राजपुत्र हैं न ही उनका कोई राजनीतिक अतीत है। किंतु कुछ बात है कि जो लोगों से उनको जोड़ती है। उनकी निश्छलता, सहजता, कुछ कर गुजरने की इच्छा, उनकी ईमानदारी और अराजनैतिक चरित्र उनकी ताकत बन गए हैं।

हाथ में तिरंगा और वंदेमातरम् का नादः

आजादी के साढ़े छः दशक के बाद जब वंदेमातरम, इंकलाब जिंदाबाद, भारत माता की जय की नारे लगाते नौजवान तिरंगे के साथ दिल्ली ही नहीं देश के हर शहर में दिखने लगे हैं तो आप तय मानिए कि इस देश का जज्बा अभी मरा नहीं है। इन्हें फेसबुकिया, ट्विटरिया गिरोह मत कहिए- यह चीजों का सरलीकरण है। संवाद के माध्यम बदल सकते हैं पर विश्वसनीय नेतृत्व के बिना लोगों को सड़कों पर उतारना आसान नहीं होता। गौहाटी से लेकर कोलकाता और लखनऊ से लेकर हैदराबाद तक बड़े और छोटे समूहों में अगर लोग निकले हैं तो इसका मजाक न बनाइए। कुछ करते हुए देश का स्वागत कीजिए। युवा अगर देश जाति, धर्म,राज्य और पंथ की सीमाएं तोड़कर भारत मां की जय बोल रहा है तो कान बंद मत कीजिए। सबको पता है कि अन्ना गांधी नहीं हैं, किंतु वे गांधी के रास्ते पर चल रहे हैं। वे विवेकानंद भी नहीं हैं पर विवेकानंद के अध्ययन ने उनके जीवन को बदला है। इतना तय मानिए कि वे हिंदुस्तान के आम और खास हर आदमी की आवाज बन गए हैं। अन्ना को नहीं उस भारतीय मनीषा को सलाम कीजिए जो अपने गांव की माटी और इस देश के आम आदमी में परमात्मा के दर्शन करता है। अन्ना के इस आध्यात्मिक बल को सलाम कीजिए। इस देश पर पड़ी गांधी की लंबी छाया को सलाम कीजिए कि जिनकी आभा में पूरा देश अन्ना बनने को आतुर है। अन्ना अगर गांधी को नहीं समझते, विवेकानंद को नहीं समझते तो तय मानिए वे देश को भी अपनी बात नहीं समझा पाते। उनका नैतिक बल इन्हीं विभूतियों से बल पाता है। उनको मीडिया, ट्यूटर और फेसबुक की जरूरत नहीं है, वे उनके मददगार हो सकते हैं किंतु वे अन्ना को बनाने वाले नहीं हैं। अन्ना के आंदोलन को बनाने वाले नहीं हैं। अन्ना का आंदोलनकारी व्यक्तित्व भारत की माटी में गहरे बसे लोकतांत्रिक चैतन्य का परिणाम है। जहां एक आम आदमी भी अपनी आध्यात्मिक चेतना और नैतिक बल से महामानव हो सकता है। गांधी ने यही किया और अब अन्ना यह कर रहे हैं। सफलताएं और असफलताएं मायने नहीं रखतीं। गांधी भी देश का बंटवारा रोक नहीं पाए, अन्ना भी शायद भ्रष्टाचार को खत्म होता न देख पाएं, किंतु उन्होंने देश को मुस्कराने का एक मौका दिया है। उन्होंने नई पीढ़ी को राष्ट्रवाद की एक नई परिभाषा दी है। खाए-अधाए मध्यवर्ग को भी फिर से राजनीतिक चेतना से लैस कर दिया है। एक लोकतंत्र के वास्तविक अर्थ लोगों को समझाने की कोशिशें शुरू की हैं। एक पूरी युवा पीढ़ी जिसने गांधी, भगत सिहं, डा.लोहिया, दीनदयाल उपाध्याय या जयप्रकाश नारायण को देखा नहीं है। उसे उस परंपरा से जोड़ने की कोशिश की है। अन्ना ने जनांदोलन और उसके मायने समझाए हैं।

सवाल पूछने लगे हैं नौजवानः

कांग्रेस के एक जिम्मेदार नेता कहते हैं कि यह फैशन है। अगर यह फैशनपरस्ती भी तो भी वह अमरीका की तरफ मुंह बाए खड़ी, एनआरआई बनने, अपना घर भरने और सिर्फ खुद की चिंता की करने वाली पीढ़ी का एक सही दिशा में प्रस्थान है। यह फैशन भी है तो स्वागत योग्य है क्योंकि अरसे बाद शिक्षा परिसरों में फेयरवेल पार्टियों, डांस पार्टिंयों और फैशन शो से आगे अन्ना के बहाने देश पर बात हो रही है,भ्रष्टाचार पर बात हो रही है, प्रदर्शन हो रहे हैं। नौजवान सवाल खड़े कर रहे हैं और पूछ रहे हैं। अन्ना ने अगर देश के नौजवानों को सवाल करना भर सिखा दिया तो यह भी इस दौर की एक बड़ी उपलब्धि होगी। अन्ना हजारे की जंग से बहुत उम्मीदें रखना बेमानी है किंतु यह एक बड़ी लड़ाई की शुरूआत तो बन ही सकती है। अन्ना की इस जंग को तोड़ने और भोथरा बनाने के खेल अभी और होंगें। सत्ता अपने खलचरित्र का परिचय जरूर देगी। किंतु भारतीय जन अगर अपनी स्मृतियों को थोड़ा स्थाई रख पाए तो राजनीतिक तंत्र को भी इसके सबक जरूर मिलेगें। क्योंकि अब तक हमारा राजनीतिक तंत्र भारतीय जनता के स्मृतिदोष का ही लाभ उठाता आया है। अब उसे लग रहा है कि हम पांच साल के ठेकेदारों से पांच साल से पहले ही सवाल क्यों पूछे जा रहे हैं। इसलिए वे ललकार रहे हैं कि आप चुनकर आइए और फिर सवाल पूछिए। पर यह सवाल भी मौंजू कि एक अरब लोगों के देश में आखिर कितने लोग लोकसभा और राज्यसभा में भेजे जा सकते हैं? यानि सवाल करने का हक क्या संसद में बैठे लोगों का ही होगा, किंतु अन्ना ने बता दिया है कि नहीं हर भारतीय को सवाल करने का हक है। हम भारत के लोग संविधान में लिखी इन पंक्तियों के मायने समझ सकें तो अन्ना का आंदोलन सार्थक होगा और अपने लक्ष्य के कुछ सोपान जरूर तय करेगा।

12 टिप्‍पणियां:

  1. वास्‍तव में अन्‍ना हजारे ने भारत की जनता को उनके अधिकारों के प्रति सचेत करने का काम किया है, अक्‍सर होता रहा है- लोगों को मालूम होने के बाद भी भ्रष्‍ट लोगों के खिलाफ मुंह से आवाज नहीं निकलती थी, अब अन्‍ना के अभियान से उम्‍मीद जगी है कि भ्रष्‍ट लोगों की शामत आएगी और तब सही मायने में “हम भारत के लोग” को समझ सकेंगे।

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  2. आपकी पोस्‍ट का बेसब्री से इंतजार था। बहुत अच्‍छा वि
    श्‍लेषण किया है। जब जेपी आंदोलन हुआ था तब इस देश को अनेक राजनेता मिले थे और आज यदि इस देश को इस आंदोलन के कारण कुछ सामाजिक जनचेतना जागृत करने वाले जननायक मिलते हैं तो इस आंदोलन की सबसे बड़ी सफलता होगी। वर्तमान दौर का युवा अपना आनन्‍द कभी क्रिकेट में तो कभी फिल्‍म और टीवी में खोज रहा है लेकिन इस सामाजिक आंदोलन से वह सक्रिय हुआ है और उसे वास्‍तविक आनन्‍द का अनुभव हुआ है। इसलिए मैं समाज की ओर मुड़ रहे युवाजन का अभिनन्‍दन करती हूँ और इस आन्‍दोलन को इसी दृष्टि से देखती हूँ। देश यदि जागृत हो जाए तब समस्‍याओं का समाधान अवश्‍य होगा। सुप्‍त समाज को तो राजनेता ही हांकते हैं।
    एक बात और कहना चाहती हूँ कि गांधी और विवेकानन्‍द भी हमारे समाज से ही निकले हैं इसलिए दूसरा कोई अन्‍य ऐसा नहीं बन सकता यह बात मेरे गले नहीं उतरती। समाज निर्माण में जिस किसी का भी योगदान है उसे तदुनुरूप सम्‍मान मिलकर ही रहता है। हम कभी भी एक ईश्‍वरवादी नहीं रहे, हमारे यहाँ श्रेष्‍ठ महापुरुष भगवान की श्रेणी में आते रहे हैं तो यदि अन्‍ना भी गांधी और विवेकानन्‍द की श्रेणी में रखे जाते हैं तो इसमें गलत कुछ भी नहीं है।

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  3. बढिया विश्‍वेषण।
    सच में अन्‍ना ने एक माहौल पैदा कर दिया है... बस अब देश में परिवर्तन की बयार चलनी चाहिए...........
    अजीत जी की बातों से सहमत।

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  4. अन्ना हजारे ने अवश्य ही भारत के युवा वर्ग में एक नयी उम्मीद व एक न्य जोश भरा है....परन्तु इस अभियान की सफलता तभी रहेगी जब यही जोश युवा पीढ़ी निरंतर बनाये रखे व आने वाले सालो में भारत की प्रतिष्ठा बनाये रखे....और भारत से भ्रस्टाचार का सफाया करने में मदद करे

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  5. sateek.sanjay ji sach kahun to shabd hi nahi hai mere pass tareef ke liye.sach me anna ne desh me nayi kranti ki shuruat kar di hai.ab sarkar usse bachne ke sau bahne dhundh rahi hai magar anna ne is desh ko khokhla kar rahe bhrashhtachar ke khilaf har dil me chhipi chingari ko hunkar-hunkar kar jwalamukhi me badal diya hai.ab aakrosh ka jwalamukhi dhadhak raha hai aur uspar anna asantosh ki aandhi ko bhi foonk mar mar kar satta k mazboot kile ki or modne me safal ho gaye hai.aam aadmi ka sadak par utar aana,bachhe bachhe ki zuban par anna ka naam chadh jana,madhyam varg ka rozmarra ki kich=kich ko alag dhar kar is andolan me age aana,aitihasik ghatna hai.anna ke jadoo ko todne ke liye khud media ke rajdulare yuvraj rahul ne khud todne ki koshish ki.achanaq pune chale gaye wahan mare gaye kisano ke aanso poochneke bahane anna ko unhi ke ilaake me taulne magar afsos unhe bhi muh ki khani padi aur media me khud ka jadoo tootata dekh khamosh hi rahe.ab sarkar vigyapano ke zariye sujhav mang kar janta ko gumrah karne ki koshish me lag gayi hai,magar wah re anna,dikha diya anshn ki kya taqat hoti hai,shayad isiliye anshan ke is khiladi ko ab chunav ki chunauti de rahe hai,we log jo khud kabhi chunav lade hi nahi,rajyasabha ki shan,bhrashhtachar ki aan aur beimaani ki dukan khol kar baithe log chahte hai ki anna bhi usi bazar me gum jaye.magar wah re anna achnak aaya aur jamkar chha gaya,bus itna hi kaha ja sakta hai,ki anna me hai dum,baki sab hai kam.badhai ho sanjay.

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  6. sir yahan baat bilkul sahi hai... aanna ko jish tarah se jansamrtan mil raha hai... usse dekhte hue yahi kahan ja sakta hai ki 'bande main hai dum...', sir ek bat or hai k sarkar dwara anna ko halke main liya jane ki bhi keemat chukani padegi..., congress sarkar ko iske liye badhayi deni hogi ki woh jp aandolan ke baad desh main ek or jankranti ka karan bani.... mujhe lagta hai sir ki jp aandolan k baad yahan desh ka dushra non politacally aandolan hoga... or aandolan jis tarah se jankranti ka rup leta ja raha hai.. usse dekhkar to aisa lagta hai ki desh ko sakratamak parivartan dekne ko milega... jiska deshvashiyon ko beshabri se intejar hai...., apka yahaan lekh un bahut se pakhso ko uthata hai.. jo ki is jankranti ki vajah bani... or is aandolan main yuva jis tarah se samne aaye hai.. usse is aandolan ko nayi urja mili.. shayad ramdev or anna ke aandolan main yahi fark raha... jai hind.. jai bharat.....

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  7. इस लेख को उन्हें ज़रूर पढ़ना चाहिए, जो अब भी अन्ना जी के आंदोलन की मुख़ालफ़त कर रहे हैं।

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  8. आपने बिलकुल सही कहा, अन्ना के साथ युवाओं की फौज खड़ी है जिसने कभी जेपी के आंदोलन को भी नहीं देखा। यही हैरानी हेमामालिनी को भी हो रही है और उनका बयान है कि वे आज के युवाओं को अन्ना के साथ देखकर अचंभित हैं। इसमे कोई दो मत नहीं है कि आज की युवा पीढ़ी पश्चिम से खासी प्रभावित है लेकिन तकनीकी के इस दौर में देश के युवा इतने प्रभावित भी नहीं हैं कि अपना संस्कार छोड़ दें। इस युग के युवाओं को छल पाना आसान नहीं है। यह नेताओं को समझ में आ गया होगा। आने वाले चुनावों के परिणाम यदि अचंभित कर दें तो हैरानी की बात नहीं होगी। रहा सवाल अन्ना के आंदोलन का तो उसके बेहतर परिणाम तब सामने आएंगे जब हम भ्रष्टाचार को मिटाने की शुरुआत अपने घर से करेंगे। अभी तो सिर्फ लोकपाल बिल को लेकर मामला लटका है, आगे और भी लड़ाई लडऩी होगी। यह दौर जिसका इंतजार पिछले कई सालों से किया जा रहा काफी अहम है क्योंकि यह 175 साल के संधिकाल की बेला है जिसमें प्राकृतिक ही नहीं, राजनीतिक उथल-पुथल भी होती है। जिसने इस दौर को समझ लिया वही अध्यात्म के महत्व को जान सकता है। आने वाले समय में कुछ और भी बदलाव इस देश में देखने को मिल सकते हैं। अन्ना के साथ इस देश के युवाओं के साथ-साथ कई राजनीतिक दलों, बच्चों, महिलाओं, सामाजिक संगठनों, स्कूल-कालेज के छात्रों से लेकर किन्नरों तक की फौज खड़ी हो गई है। ऐसे अवसर काफी कम देखने को मिलते हैं और जब दिखते हैं तो इतिहास के पन्नों में अमर हो जाते हैं। ऐसे में यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि अन्ना के साथ दैवीय शक्तियां भी जुड़ गई हैं जिनके सामने राक्षसी प्रवृत्तियों (सत्ता पक्ष) का जीत पाना मुमकिन नहीं है।
    -कमलेश गोगिया

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  10. अन्ना ने इस देश की आत्मा को छू लिया है। बिलकुल। गांधी टोपी देश के युवा प्रोफेशनल्स के बीच क्रेज़ बन गई है। इतना तिरंगा तो पिछले कई दशकों में देश में लहराया नहीं गया। 'वंदे मातरम्', 'इंकलाब ज़िंदाबाद' जैसे आजादी के जमाने के नारें एक बार फिर देश के युवाओं की ज़ुबान पर हैं। एक पूरी पीढ़ी जिसने आखिरी बार जेपी की संपूर्ण क्रांत्ति को नहीं देखा वो अब जान गए है कि देशव्यापी क्रांत्ति क्या होती है।

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  11. सही कहा सर आपने...अन्ना ने देश की आत्मा को छू लिया है.....लंबे अर्से बाद देश को भ्रष्टाचार से मुक्त कराने के लिए कम से कम आवाजें तो उठ रही हैं....

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