बुधवार, 24 अगस्त 2011

वे जीत नहीं सकते इसलिए थकाना चाहते हैं


-संजय द्विवेदी

देश के लिए 74 साल का एक बुजुर्ग दिल्ली में भूखा बैठा है और सरकारें इफ्तार पार्टियां उड़ा रही हैं। वे अन्ना हजारे से जीत नहीं सकतीं, इसलिए उन्हें थकाने में लगी हैं। सरकार की संवेदनहीनता इस बात से पता चलती है कि उसने कहा कि अनशन अन्ना की समस्या है, हमारी नहीं। इतनी क्रूर और संवेदनहीन सरकार को क्या जनता माफ कर पाएगी ? इसके साथ ही मुख्य विपक्षी दल की नीयत और दिशाहीनता पर सवाल अब उनके सांसद ही सवाल उठाने लगे हैं। भाजपा के सांसद यशवंत सिन्हा, शत्रुध्न सिन्हा, उदय सिंह और वरूण गांधी का तरीका बताता है कि पार्टी के भीतर सब कुछ सामान्य नहीं है।

संसद के नाम पर चल रहा छलः

जनता का रहबर होने का दम भरने वाली राजनीतिक पार्टियां संसद की सर्वोच्चता के नाम पर अपने पापों पर पर्दा डालना चाहती है। सरकार ने अन्ना के सवाल पर आजतक सारे फैसले गलत लिए हैं और हर कार्रवाई के बाद पीछे हाथ खींचे हैं। आगे भी वह अपने फैसलों पर पछताएगी ही। फिलहाल तो सरकार की रणनीति पिछले दस दिनों से मामले को लंबा खींचने और आंदोलन को थकाने की है। किंतु इस बार भी उसका आकलन गलत ही साबित होगा। अन्ना को थकाने वाले खुद थक रहे हैं और रोज जनता की नजरों से गिर रहे हैं। जिस लोकपाल बिल को लगभग हर पक्ष से जुड़े लोग बेकार बता चुके हैं उससे केंद्र की सरकार को इतना मोह क्यों है, यह समझना लगभग मुश्किल है। लेकिन बुधवार की सर्वदलीय बैठक ने सरकार को एक ताकत जरूर दी है। जब राजनीतिक फैसले करने चाहिए सरकार और विपक्ष मिलकर संसद का रोना रो रहे हैं, किंतु उन्हें नहीं पता कि बातें अब आगे निकल चुकी हैं। अन्ना का आंदोलन अब जन-जन का आंदोलन बन गया है।

अन्ना की चिंता नहीं, सवालों से मुंह चुरा रहेः

सरकार के लोग निरंतर यह विलाप कर रहे हैं कि उन्हें अन्ना की सेहत की चिंता है। किंतु अगर उन्हें उनकी चिंता होती तो क्या दस दिनों तक कोई मार्ग नहीं निकलता? सरकार पहले उन पर अपने दरबारियों से हमले करवाती है, इसके बाद उन्हें गिरफ्तार करती है, फिर छोड़ देती है। फिर दो दिनों तक रामलीला मैदान साफ करवाने के बाद उन्हें अनशन के लिए जगह देती है। चार दिनों तक कोई गंभीर संवाद नहीं करती और जब प्रयास शुरू भी करती है तो उसमें गंभीरता नहीं दिखती। प्रधानमंत्री जिस तरह तदर्थ आधार पर सरकार चला रहे हैं वह बात पूरे देश को निराश करती है।

इसने बड़े आंदोलन और सवालो को नजरंदाज करके सरकार आखिर चाहती क्या है यह समझ से परे है। दरअसल सरकार पुरानी राजनीतिक शैलियों से आंदोलन को तोड़ना चाहती है। जिसमें पहला प्रयास अन्ना की छवि बिगाड़ने, उन्हें डराने और धमकाने के हुए, इसके बाद अब सरकार इसे लंबा खींचने में लगी है। सरकार को यह अंदाजा है कि अंततः आंदोलन कमजोर पड़ेगा, बिखरेगा और चाहे-अनचाहे हिंसा की ओर बढ़ेगा,ऐसे में इसे दबाना और कुचलना आसान हो जाएगा। निश्चय ही इतने लंबे आंदोलन में अब तक शांति बने रहना साधारण नहीं है। यह सारा कुछ इसलिए हो पाया क्योंकि अन्ना का नैतिक बल इसके पीछे है। किंतु कोई संगठनात्मक आधार न होने के कारण सरकार इस आंदोलन के बिखराव के लिए आश्वस्त है। सरकार को यह भी लगता है कि इस बार वह बच निकली तो जनता की स्मृति बहुत क्षीण होती है और वह मनचाहा लोकपाल पारित करा लेगी।

विपक्ष की भूमिका भी सरकार के सहयोगी सरीखीः

विपक्ष की भूमिका भी इस मामले में सरकार के लिए राहत देने वाली रही है। इस मामले में सरकार पोषित बुद्धिजीवी वातावरण को बिगाड़ने का काम कर रहे हैं। वे अन्ना को तमाम मुद्दों पर घेरना चाहते हैं। जैसे धर्मनिरपेक्षता या आरक्षण के सवाल। वे यह भूल जाते हैं इस देश में धर्मनिरपेक्षता अपने तरीके ओढ़ी-बिछाई और इस्तेमाल की जाती रही है। धर्मनिरपेक्षता के मसीहा वीपी सिंह की सरकार को भाजपा और वामदलों दोनों का समर्थन हासिल था। उप्र में मुलायम सिहं यादव, बिहार में लालूप्रसाद यादव दोनों भाजपा के समर्थन से सरकारें चला चुके हैं। एनडीए की सरकार में शरद यादव, उमर फारूख, ममता बनर्जी और रामविलास पासवान सभी मंत्री रहे हैं। इसी दौर में गुजरात के दंगे भी हुए आप बताएं कि इनमें कौन मंत्री पद छोड़कर अपनी धर्मनिरपेक्षता पर कायम रहा? संसद की सर्वोच्चता की बार-बार बात करने वाले सांसद और राजनीतिक दल शायद यही कहना चाहते हैं कि जनता नहीं, वे ही मालिक हैं। वे जनता के नहीं, जनता उनकी सेवक है। यह उसी तरह है जैसे एक माफिया, हजारों लोगों के बीच भय का ही व्यापार करता है। लोग उससे डरना छोड़ देंगें, तो वो क्या करेगा ? सांसद भी डरे हुए हैं। उन्हें लगता है लोग अगर मुक्तकंठ से बात करने लगे, उनका भय समाप्त हो गया तो क्या होगा? उनके जनप्रतिनिधि के भीतर छिपा सामंती भाव उन्हें सच कहने और करने से रोक रहा है। कल तक अन्ना को भ्रष्ट और अहंकारी बताने वाले, उन्हें अकारण गिरफ्तार करने वाले, राजनेता आज अन्ना के लिए धड़ियाली आंसू बहा रहे हैं। उनके स्वास्थ्य की चिंता में दुबले हुए जा रहे हैं। आखिर इस नौटंकी को क्या जनता नहीं समझती ? सही मायने में सरकार को अन्ना के स्वास्थ्य की चिंता करने के बजाए अपने स्वास्थ्य की चिंता करनी चाहिए। अन्ना के अनशन का एक-एक दिन सरकार पर भारी पड़ रहा है और जनरोष स्थायी भाव में बदल रहा है।

बौद्धिक कुलीनों का बेसुरा रागः

बहुत अफसोस है देश के बुद्धिजीवी जिन्हें माओवादियों, कश्मीर के अली शाह गिलानी जैसे अतिवादियों का समर्थन करने और आईएसआई के एजेंट फई के कथित कश्मीर मुक्ति से जुड़े सेमिनारों में पत्तलें चाटने से एतराज नहीं हैं वे भी अन्ना की नीयत पर शक कर रहे हैं। यह देखकर भी कि प्रशांत भूषण, मेधा पाटकर और स्वामी अग्निवेश जैसे लोग भी अन्ना के साथ खड़े हैं, उन्हें यह अज्ञात भय खाए जा रहा है कि अन्ना के आंदोलन को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लोग हड़प लेंगें। इन बिकाऊ और उधार की बुद्धि के आधार पर अपना काम चलाने वाले बुद्धिजीवी भी देश का एक बड़ा संकट हैं। अन्ना के खिलाफ कुछ बुद्धिजीवी जिस तरह के आरोप लगा रहे हैं कि उसमें भारत की समझ न होना और पूर्वाग्रह ही दिखता है। खासकर अंग्रेजी चैनलों में गपियाते और अंग्रेजियत की मानसिकता से भरे ये लोग शायद अन्ना की पृष्ठभूमि और अपरिष्कृत शैली के कारण उनसे दूरी बनाए हुए हैं, हालांकि भारत जैसे देश में ऐसे बौद्धिक कुलीनों का कोई महत्व नहीं हैं किंतु अगर ये साथ होते तो अन्ना को आंदोलन को ज्यादा व्यापकता मिल पाती। क्योंकि शासन सत्ता में इन्हीं बौद्धिक कुलीनों की बात सुनी जाती है, सो अन्ना की भावनाएं सत्ता के कानों तक पहुंच पातीं।

यह अकारण नहीं है कि अरूंधती राय ने लिखा कि वे अन्ना नहीं बनना चाहेंगीं। जबकि सच यह है कि वे अन्ना बन भी नहीं सकतीं। अन्ना बनने के जिस धैर्य, रचनाशीलता, सातत्य और संयम की आवश्यक्ता है क्या वह अरूधंती के पास है ? अन्ना के पास राणेगढ़ सिद्धि जैसा एक प्रयोग है जबकि अरूंधती के पास देशतोड़क विचारों को समर्थन करने का ही अतीत है। किंतु अरूंधती इस समय भारतीय राज्य के साथ खड़ी हैं। क्योंकि वह राज्य और पुलिस दिल्ली में अरूंधती को भारत को भूखे नंगों का देश कहने के बाद भी उन पर मुकदमा दर्ज नहीं करता और अन्ना जैसे संत को अकारण तिहाड़ में डाल देता है। क्या भारतीय लोकतंत्र को निरंतर कोसने वाली अरूंधती दिल्ली पुलिस और गृहमंत्रालय के इसी अहसान का बदला चुकाने के लिए अन्ना के आंदोलन की तुलना माओवादियों के कामों से कर रही हैं और इस आंदोलन को लोकतंत्र को कमजोर करने वाला बता रही हैं।

विश्वसनीयता खोती सरकारः

तमाम सवाल हमारे पास हैं किंतु सबसे बड़ी बात यह है कि अन्ना के प्रति सरकार जिस संवेदनहीनता का परिचय दे रही है, उसकी मिसाल न मिलेगी। बस, अन्ना के लिए दुआएं कि वे अपनी हर लड़ाई जीतें क्योंकि यह लड़ाई भारत के आम आदमी में स्वाभिमान भर रही है। हर क्षण यह बता रही है कि जनता ही लोकतंत्र में मालिक है, जबकि जनप्रतिनिधि उसके सेवक हैं। दिल्ली के दर्प दमन का अन्ना का अभियान अपनी मंजिल तक जरूर पहुंचेगा और वह दिन भारत के सौभाग्य का क्षण होगा। अन्ना जेल में हों या जेल के बाहर उनकी आवाज सुनी जाएगी क्योंकि वे अब देश के आखिरी आदमी की आवाज बन चुके हैं और निश्चित ही सरकार अब अपना नैतिक व विश्वसनीयता दोनों ही खो चुकी है। ऐसे में देश की आम जनता ही अपने विवेक से सच और गलत का फैसला करेगी। इसके परिणाम आने वाले दिनों में जरूर दिखेंगें।

इतना तो तय है कि सरकार और उसके सलाहकारों को देश के मानस की समझ नहीं है। वह भारतीय जनता के व्यापक स्मृतिदोष के सहारे अपनी चालें चल रही है किंतु इतिहास बताता है कि चालाकियां कई बार खुद पर भारी पड़ती हैं। दंभ, दमन, छल और षडयंत्र निश्चय ही लंबी राजनीति के लिए मुफीद नहीं होते किंतु लगता है कि राजनीतिक दलों ने इन्हें ही अपना मंत्र बना लिया है। छल और बल से यह लड़ाई जीतकर सांसद अपना रूतबा बना भी लें किंतु वे जनता का भरोसा, प्रामणिकता और विश्वसनीयता खो देंगें, जब यही नहीं रहेगा तो इस संसद व सरकार के मायने क्या हैं? क्योंकि कोई भी राजनीति अगर जनविश्वास खो देती है तो उसका किसी जनतंत्र में मतलब क्या रह जाता है ? डा. राममनोहर लोहिया कहा करते थे –“लोकराज लोकलाज से चलता है। क्या हमें उनकी बात अनसुनी कर देना चाहिए ?

रविवार, 21 अगस्त 2011

अन्ना ने किया दिल्ली का दर्प दमन

- संजय द्विवेदी

देश के तमाम बुद्धिजीवियों ने अन्ना हजारे के आंदोलन की अपने-अपने तरीके से आलोचना प्रारंभ कर दी है। वे जो सवाल उठा रहे हैं वे भटकाव भरे तो हैं ही, साथ ही उससे चीजें सुलझने के बजाए उलझती हैं। किंतु हमें एक निहत्थे देहाती आदमी की इस बात के लिए तारीफ करनी चाहिए कि उसने दिल्ली में आकर केंद्रीय सत्ता के आतंक, चमकीले प्रलोभनों और कुटिल वकीलों व हावर्ड से पढ़कर लौटे मंत्रियों को जनशक्ति के आगे घुटने टेकने पर मजबूर कर दिया। आंदोलन में एक बेहद भावात्मक अपील होने के बावजूद देश में घटी इस घटना को एक ऐतिहासिक समय कहा जा सकता है।

सत्ता और राज्य (स्टेट) की ओर से उछाले गए प्रश्नों के जो उत्तर अन्ना हजारे ने दिए हैं, वे भी जनता का प्रबोधन करने वाले हैं और लोकतंत्र को ताकत देते हैं। इस आंदोलन की सबसे बड़ी उपलब्धि यह है कि यह भारतीय जनता को मुस्कराने का एक अवसर दे रहा है। उसकी खत्म हो चुकी उम्मीदों में पंख लगा रहा है। कुछ नहीं हो सकता के अवसाद को खत्म कर रहा है। इसके साथ ही अन्ना ने इंडिया और भारत को एकजुट कर दिया है। जाति,भाषा, धर्म, क्षेत्र से अलग इस आंदोलन में एक राष्ट्रीय भाव को उभरते हुए हम सब देख रहे हैं। दुनिया भर में चल रहे पारदर्शिता के आंदोलनों की कड़ी में यह अपने ढंग का एक अनोखा आंदोलन है। अफसोस की इस आंदोलन की ताकत का भान हमारे उन नेताओं को भी नहीं था, जो जनता की नब्ज पर हाथ रखने का दावा करते हैं। किंतु हमें अन्ना ने बताया कि नब्ज कहां और उन्होंने जनता की नब्ज पर हाथ रख दिया है।

वैकल्पिक राजनीति की दिशाः

अन्ना भले राजनीति में न हों और अराजनैतिक होने के दावों से उनके नंबर बढ़ते हों, किंतु यह एक ऐसी राजनीति है जिसकी देश को जरूरत है। दलों के ऊपर उठकर देश का विचार करना। अन्ना की राजनीति ही सही मायने में वैकल्पिक राजनीति तो है ही और यही राष्ट्रीय राजनीति भी है। लोकतंत्र में जब परिवर्तन की, विकल्पों की राजनीति, सच्चे विचारों की बहुलता, जल-जंगल-जमीन और कमजोर वर्गों के सवाल के कमजोर पड़ते हैं तो वह भोथरा हो जाता है। वह नैराश्य भरता है और समाज को कमजोर बनाता है। उदारीकरण और भूमंडलीकरण के बाद पैदा हुए संकटों के खिलाफ देश के अनेक स्थानों पर छोटे-छोटे समूह काम कर रहे हैं। वे प्रतिरोध की चेतना को जागृत भी कर रहे हैं। किंतु इस सबके बीच एक समाज का एक सामूहिक दर्द भी है- महंगाई और भ्रष्टाचार। अन्ना ने इन्हीं दो सवालों को संबोधित किया है। शायद इसीलिए के चलते इंडिया और भारत मिलकर कह रहे हैं- मैं भी अन्ना।हमारी मुख्यधारा की राजनीति के पास आम आदमी, वंचित वर्गों के सवालों पर सोचने और बात करने का अवकाश कहां हैं। लेकिन बाबा आमटे, अन्ना हजारे, सुंदरलाल बहुगुणा, नाना जी देशमुख, ब्रम्हदेव शर्मा, मेधा पाटकर, शंकरगुहा नियोगी जैसी अनेक छवियां याद आती हैं जिनके मन में इस देश को एक वैकल्पिक राजनीति देने का हौसला दिखता है। मुख्यधारा की राजनीति द्वारा छोड़े गए सवालों से ये टकराते हैं। गांवों और आदिवासियों के प्रश्नों पर संवाद करते हुए दिखते हैं। सत्ताकामी राजनीति से विलग ये ऐसे काम थे जिनका मूल्यांकन होना चाहिए और उनके लिए भी समाज में एक जगह होनी चाहिए। अन्ना हजारे इस मामले में भाग्यशाली हैं कि उन्होंने समय द्वारा निर्मित परिस्थितियों में एक नायक का दर्जा मिल गया।

सवालों पर गंभीर नहीं है संसदः

यह देखना दिलचस्प है कि हमारी संसद को इन प्रश्नों पर कभी बहुत गंभीर नहीं देखा गया। शायद इसीलिए वैकल्पिक राजनीति और उसके सवाल सड़क पर तो जगह बनाते हैं पर संसद में उन्हें आवाज नहीं मिलती। जब जनता के सवालों से संसद मुंह मोड़ लेती है तब ये सवाल सड़कों पर नारों की शक्ल ले लेते हैं। दिल्ली में ही नहीं देश में ऐसे ही दृश्य उपस्थित हैं, क्योंकि संसद ने लंबे अरसे से महंगाई और भ्रष्टाचार के सवालों पर जैसी रस्मी बातें और बहसें कीं, वह जनता के गले नहीं उतरीं। वैकल्पिक राजनीति को ऐसे घटाटोप में स्पेस मिल ही जाता है। संसद और जनप्रतिनिधि यहां पीछे छूट जाते हैं। अब वह जनता सड़क पर है, जो स्वयंभू है। जन से बड़ी संसद नहीं है, जन ही स्वयंभू है- यह एक सच है। सत्ता या राज्य जिसे आसानी से नहीं स्वीकारते। इसलिए वे प्रतिरोधों को कुचलने के लिए हर स्तर पर उतर आते हैं।

यह मानने में हिचक नहीं होनी चाहिए संविधान साफ कहता है कि हम भारत के लोग किंतु राजनीति इस तथ्य को स्वीकारने को तैयार नहीं है वह कहना चाह रही है कि –“हम संसद के लोग। ऐसे में अन्ना और उन जैसे तमाम लोगों की वैकल्पिक राजनीति ही संविधान की असली आत्मा की रक्षा करते हुए दिखती है। अन्ना हजारे का उदय इसी वैकल्पिक राजनीति का उत्कर्ष है। इस आंदोलन ने जनता के इस कष्ट और अविश्वास को प्रकट कर दिया है, अब वह अपनी सरकार और संसद की प्रतीकात्मक कार्रवाईयों से आगे कुछ होते हुए देखना चाहती है।

जोश के साथ होश में है आंदोलनः

अन्ना के आंदोलन के आरंभिक दिन लगभग अहिंसक ही हैं। पूरा आंदोलन जोश के साथ होश को संभाले हुए हैं। जिसे आध्यात्मिक गुरू श्री श्री रविशंकर ने रेखांकित भी किया। इसके मायने यहीं हैं कि देश की जनता में महात्मा गांधी द्वारा रोपे गए अहिंसा के भाव अभी सूखे नहीं हैं। गांधी की लंबी छाया में यह देश आज भी जीता है। देश के तमाम हिस्सों से ऐसे ही प्रदर्शनों की मनोहारी छवियां दिख रही हैं। आधुनिक मीडिया और उसकी प्रस्तुति ने प्रदर्शनों में विविधता व प्रयोगों को भी रेखांकित किया है। सत्ता के लिए जूझने वाले दल यहां अप्रासंगिक हो गए लगते हैं। युवाओं, बच्चों और महिलाओं के समूह एक बदलाव की प्रेरणा से घरों से निकलते हुए दिखते हैं। अफसोस यह कि इस बदलाव की आंधी और जनाकांक्षा को समझ पाने में सरकार और प्रतिपक्ष के दल भी सफल नहीं रहे। आज भी उनका दंभ उनके बयानों और देहभाषा से झलकता है। एक अहिंसक अभियान से निपटने की कोशिशें चाहे वह बाबा रामदेव के साथ हुयी हों या अन्ना हजारे के साथ, उसने जनता के आक्रोश को बढ़ाने का ही काम किया। अपनी जनविरोधी क्रूरता के प्रकटीकरण के बाद सरकार अंततः जनशक्ति के आगे घुटने टेकने को मजबूर हो गयी। राणेगढ़ सिद्धी से आए एक ग्रामीण ने, जिसने नवीं तक शिक्षा पायी है, ने दिल्ली के दर्प का दमन कर दिया। अन्ना हजारे की इस पूरी लड़ाई में केंद्र सरकार ने पहले गलत कदम उठाए, फिर एक-एक कर कदम पीछे लिए हैं, उससे सत्ता की जगहंसाई ही हो रही है। राज्य की मूर्खताओं और दमनकारी चरित्र को चुनौती देते हुए हजारे इसीलिए जनता की आवाज बन गए हैं, क्योंकि उनका रास्ता उनके गांव से शुरू होकर वापस उनके गांव ही जाता है। यह आवाज इतनी प्रखर और सत्ता के कान फाड़ देने वाली इसलिए लग रही है क्योंकि उसे राजसत्ता का वरण नहीं करना है।

बंदी बनी सरकारः

अन्ना को बंदी बनाकर, खुद बंदी बनी सरकार के पास इस क्षण के इस्तेमाल का समय अभी भी गया नहीं हैं, किंतु उसने अन्ना और जनशक्ति को कम आंकने की भूल की, इसमें दो राय नहीं है। केंद्र सरकार ने जनता के प्रश्नों पर जैसी आपराधिक लापरवाहियां बरतीं उसने जनता के गुस्से को सामूहिक असंतोष में बदल दिया। देश के नाकारा विपक्ष की दिशाहीनता के बावजूद भी, जब अन्ना हजारे जैसा पारदर्शी, प्रामाणिक नेतृत्व जनता के सामने दिखा तो आम आदमी की उम्मीदें लहलहा उठीं। सत्ता के कुटिल प्रवक्ताओं और चतुर मंत्रियों की चालें भी दिल्ली में आए इस ऋषि की तपस्या को भंग न कर सकीं। उम्मीद की जानी कि दिल्ली की सरकार देश की जनता के साथ छल न करते हुए एक सबक ले और अन्ना द्वारा उठाए गए सवालों के सार्थक समाधान की दिशा में प्रयास करे।


शुक्रवार, 19 अगस्त 2011

अन्ना ने इस देश की आत्मा को छू लिया है


भ्रष्टाचार विरोधी जनांदोलन ने देश को एक सूत्र में बांधा

-संजय द्विवेदी

अन्ना हजारे ने सही मायने में इस देश की आत्मा को छू लिया है। सच मानिए उनकी गांधी टोपी, बालसुलभ उत्साह, उनकी भारतीय वेशभूषा और बातों की सहजता कुल मिलाकर एक भरोसा जगाती हैं। अन्ना आज जहां हैं उसके पीछे कहीं न कहीं वह छवि जिम्मेदार है जो उन्हें महात्मा गांधी से जोड़ती है। इसलिए जब कांग्रेस के अहंकारी प्रवक्ता उनके बारे में कुछ कहते हैं, तो दर्द देश को होता है। अन्ना हजारे सही मायने में एक भारतीय आत्मा के रूप में उभरे हैं। उन्होंने देश की नब्ज पर हाथ रख दिया है।

कांग्रेस के दिशाहीन और जनता से कटे नेतृत्व की छोड़िए उन्होंने विपक्ष के भी नाकारेपन का लाभ उठाते हुए यह साबित कर दिया है कि लोकशाही की असल ताकत क्या है। जनता के मन में इस कदर उनका बस जाना और नौजवानों का उनके पक्ष में सड़कों पर उतरना, इसे साधारण मत समझिए। यह वास्तव में एक साधारण आदमी के असाधारण हो जाने की परिघटना है। हमारी खुफिया एजेंसियां कह रही थीं- अन्ना को रामदेव समझने की भूल न कीजिए। किंतु सरकारें कहां सुनती हैं। पूरी फौज उतर पड़ी अन्ना को निपटाने के लिए। क्या कांग्रेस के प्रवक्ता, क्या मंत्री सब उनकी ईमानदारी और निजी जीवन पर ही कीचड़ उछालने लगे। लेकिन क्या हुआ कि तीन दिनों के भीतर देश के गृहमंत्री को लोकसभा में उन्हें सच्चा गाँधीवादी बताते हुए सेल्यूट करना पड़ा। समय बदलता है, तो यूं ही बदलता है।

राजनीतिक दलों के लिए चुनौतीः

अन्ना आज राजनीतिक दलों के लिए एक चुनौती और देश के सबसे बड़े यूथ आईकान हैं। वे लोकप्रियता के उस शिखर पर हैं जहां पहुंचने के लिए राजनेता, अभिनेता और लोकप्रिय कलाकार तरसते हैं। महाराष्ट्र के एक गांव राणेगण सिद्धि के इस आम इंसान के इस नए रूपांतरण के लिए आप क्या कहेंगें? क्या यह यूं हो गया ? सच है समय अपने नायक और खलनायक दोनों तलाश लेता है। याद कीजिए यूपीए-1 की ताजपोशी का समय जब मनमोहन सिंह, एक ऐसे ईमानदार आईकान के तौर पर प्रधानमंत्री पद की शपथ लेते हैं जो भारत का भविष्य बदल सकता है, क्योंकि वह एक अर्थशास्त्री के तौर पर दुनिया भर में सम्मानित हैं। आज देखिए उनकी ईमानदारी और अर्थशास्त्र दोनों औंधे मुंह पड़े हैं। अमरीका से हुए परमाणु करार को पास कराने के लिए अपनी जान लड़ा देने वाले अमरीका प्रिय प्रधानमंत्री के सहायकों की बेबसी देखिए वे यह कहने को मजबूर हैं कि अन्ना के आंदोलन के पीछे अमरीका का हाथ है। अमरीका की चाकरी में लगी केंद्र सरकार के सहयोगियों के इस बयान पर क्या आप हंसे बिना रह सकते हैं? लेकिन उलटबासियां जारी हैं। सबसे ईमानदार प्रधानमंत्री के राज में भ्रष्टाचार के रिकार्ड टूट रहे हैं, और विद्वान अर्थशास्त्री को प्रधानमंत्री बनाने की सजा यह कि महंगाई से जनता त्राहि-त्राहि कर रही है।

विपक्ष भी करता रहा निराशः

इस समय में तो विपक्ष भी आशा से अधिक निराश कर रहा है। प्रामणिकता के सवाल पर विपक्ष की भी विश्वसनीयता भी दांव पर है। यह साधारण नहीं है कि जिन राज्यों में विपक्षी दलों की सरकारें हैं वहां भी भ्रष्टाचार अपने चरम पर है। केरल में वामपंथियों को ले डूबने वाले विजयन हों, कर्नाटक के भाजपाई मुख्यमंत्री रहे वीएस येदिरेप्पा या उप्र की मुख्यमंत्री मायावती। सब का ट्रैक बहुत बेहतर नहीं है। शिबू सोरेन, लालूप्रसाद यादव और मुलायम सिंह यादव की याद तो मत ही दिलाइए। राज्यों की विपक्षी सरकारें लूट-पाट का उदाहरण बनने से खुद को रोक नहीं पायीं। ऐसे में राजनीतिक विश्वसनीयता के मोर्चे पर वे कांग्रेस से बहुत बेहतर स्थिति में नहीं हैं। कम से कम भ्रष्टाचार के मामले पर मुख्यधारा के राजनीतिक दलों का राष्ट्रीय चरित्र एक सरीखा है। सो इस राजनीतिक शून्यता और विपक्ष के नाकारेपन के बीच अन्ना आशा की एक किरण बनकर उभरते हैं। विपक्ष वास्तव में सक्रिय और विश्वसनीय होता तो अन्ना कहां होते? इसलिए देखिए कि सारे दल अपनी घबराहटों के बावजूद लोकपाल को लेकर किंतु-परंतु से आगे नहीं बढ़ रहे हैं। अन्ना हजारे के नैतिक बल और व्यापक जनसमर्थन ने उन्हें सहमा जरूर दिया है किंतु वे आज भी आगे आकर सक्षम लोकपाल बनाने के उत्सुक नहीं दिखते। राजनीतिक दलों का यही द्वंद देश की सबसे बड़ी पीड़ा है। जनता इसे देख रही है और समझ भी रही है।

टूटा राज्य का दंभः

सवाल यह भी नहीं है कि अन्ना सफल होते हैं या विफल किंतु अन्ना ने जनशक्ति का भान, मदांध राजनीति को करा दिया है। राज्य( स्टेट) को यह जतला दिया है उसका दंभ, जनशक्ति चाहे तो चूर-चूर हो सकता है। बड़बोले, फाइवस्टारी और गगनविहारी नेताओं को अन्ना ने अपनी साधारणता से ही लाजवाब कर दिया है। अगर उन्हें दूसरा गांधी कहा जा रहा है तो यह अतिरंजना भले हो, किंतु सच लगती है। क्योंकि आज की राजनीति के बौनों की तुलना में वे सच में आदमकद नजर आते हैं। यह सही बात है अन्ना के पास गांधी, जयप्रकाश नारायण और वीपी सिंह जैसा कोई समृद्ध अतीत नहीं है। उनके पास सिर्फ उनका एक गांव है, जहां उन्होंने अपने प्रयोग किए, उनका अपना राज्य है, जहां वे भ्रष्टों से लड़े और उसकी कीमत भी चुकायी। किंतु उनके पास वह आत्मबल, नैतिक बल और सादगी है जो आज की राजनीति में दुर्लभ है। उनके पास निश्चय ही न गांधी सरीखा व्यक्तित्व है, ना ही जयप्रकाश नारायण सरीखा क्रांतिकारी और प्रभावकारी व्यक्तित्व। वीपी सिंह की तरह न वे राजपुत्र हैं न ही उनका कोई राजनीतिक अतीत है। किंतु कुछ बात है कि जो लोगों से उनको जोड़ती है। उनकी निश्छलता, सहजता, कुछ कर गुजरने की इच्छा, उनकी ईमानदारी और अराजनैतिक चरित्र उनकी ताकत बन गए हैं।

हाथ में तिरंगा और वंदेमातरम् का नादः

आजादी के साढ़े छः दशक के बाद जब वंदेमातरम, इंकलाब जिंदाबाद, भारत माता की जय की नारे लगाते नौजवान तिरंगे के साथ दिल्ली ही नहीं देश के हर शहर में दिखने लगे हैं तो आप तय मानिए कि इस देश का जज्बा अभी मरा नहीं है। इन्हें फेसबुकिया, ट्विटरिया गिरोह मत कहिए- यह चीजों का सरलीकरण है। संवाद के माध्यम बदल सकते हैं पर विश्वसनीय नेतृत्व के बिना लोगों को सड़कों पर उतारना आसान नहीं होता। गौहाटी से लेकर कोलकाता और लखनऊ से लेकर हैदराबाद तक बड़े और छोटे समूहों में अगर लोग निकले हैं तो इसका मजाक न बनाइए। कुछ करते हुए देश का स्वागत कीजिए। युवा अगर देश जाति, धर्म,राज्य और पंथ की सीमाएं तोड़कर भारत मां की जय बोल रहा है तो कान बंद मत कीजिए। सबको पता है कि अन्ना गांधी नहीं हैं, किंतु वे गांधी के रास्ते पर चल रहे हैं। वे विवेकानंद भी नहीं हैं पर विवेकानंद के अध्ययन ने उनके जीवन को बदला है। इतना तय मानिए कि वे हिंदुस्तान के आम और खास हर आदमी की आवाज बन गए हैं। अन्ना को नहीं उस भारतीय मनीषा को सलाम कीजिए जो अपने गांव की माटी और इस देश के आम आदमी में परमात्मा के दर्शन करता है। अन्ना के इस आध्यात्मिक बल को सलाम कीजिए। इस देश पर पड़ी गांधी की लंबी छाया को सलाम कीजिए कि जिनकी आभा में पूरा देश अन्ना बनने को आतुर है। अन्ना अगर गांधी को नहीं समझते, विवेकानंद को नहीं समझते तो तय मानिए वे देश को भी अपनी बात नहीं समझा पाते। उनका नैतिक बल इन्हीं विभूतियों से बल पाता है। उनको मीडिया, ट्यूटर और फेसबुक की जरूरत नहीं है, वे उनके मददगार हो सकते हैं किंतु वे अन्ना को बनाने वाले नहीं हैं। अन्ना के आंदोलन को बनाने वाले नहीं हैं। अन्ना का आंदोलनकारी व्यक्तित्व भारत की माटी में गहरे बसे लोकतांत्रिक चैतन्य का परिणाम है। जहां एक आम आदमी भी अपनी आध्यात्मिक चेतना और नैतिक बल से महामानव हो सकता है। गांधी ने यही किया और अब अन्ना यह कर रहे हैं। सफलताएं और असफलताएं मायने नहीं रखतीं। गांधी भी देश का बंटवारा रोक नहीं पाए, अन्ना भी शायद भ्रष्टाचार को खत्म होता न देख पाएं, किंतु उन्होंने देश को मुस्कराने का एक मौका दिया है। उन्होंने नई पीढ़ी को राष्ट्रवाद की एक नई परिभाषा दी है। खाए-अधाए मध्यवर्ग को भी फिर से राजनीतिक चेतना से लैस कर दिया है। एक लोकतंत्र के वास्तविक अर्थ लोगों को समझाने की कोशिशें शुरू की हैं। एक पूरी युवा पीढ़ी जिसने गांधी, भगत सिहं, डा.लोहिया, दीनदयाल उपाध्याय या जयप्रकाश नारायण को देखा नहीं है। उसे उस परंपरा से जोड़ने की कोशिश की है। अन्ना ने जनांदोलन और उसके मायने समझाए हैं।

सवाल पूछने लगे हैं नौजवानः

कांग्रेस के एक जिम्मेदार नेता कहते हैं कि यह फैशन है। अगर यह फैशनपरस्ती भी तो भी वह अमरीका की तरफ मुंह बाए खड़ी, एनआरआई बनने, अपना घर भरने और सिर्फ खुद की चिंता की करने वाली पीढ़ी का एक सही दिशा में प्रस्थान है। यह फैशन भी है तो स्वागत योग्य है क्योंकि अरसे बाद शिक्षा परिसरों में फेयरवेल पार्टियों, डांस पार्टिंयों और फैशन शो से आगे अन्ना के बहाने देश पर बात हो रही है,भ्रष्टाचार पर बात हो रही है, प्रदर्शन हो रहे हैं। नौजवान सवाल खड़े कर रहे हैं और पूछ रहे हैं। अन्ना ने अगर देश के नौजवानों को सवाल करना भर सिखा दिया तो यह भी इस दौर की एक बड़ी उपलब्धि होगी। अन्ना हजारे की जंग से बहुत उम्मीदें रखना बेमानी है किंतु यह एक बड़ी लड़ाई की शुरूआत तो बन ही सकती है। अन्ना की इस जंग को तोड़ने और भोथरा बनाने के खेल अभी और होंगें। सत्ता अपने खलचरित्र का परिचय जरूर देगी। किंतु भारतीय जन अगर अपनी स्मृतियों को थोड़ा स्थाई रख पाए तो राजनीतिक तंत्र को भी इसके सबक जरूर मिलेगें। क्योंकि अब तक हमारा राजनीतिक तंत्र भारतीय जनता के स्मृतिदोष का ही लाभ उठाता आया है। अब उसे लग रहा है कि हम पांच साल के ठेकेदारों से पांच साल से पहले ही सवाल क्यों पूछे जा रहे हैं। इसलिए वे ललकार रहे हैं कि आप चुनकर आइए और फिर सवाल पूछिए। पर यह सवाल भी मौंजू कि एक अरब लोगों के देश में आखिर कितने लोग लोकसभा और राज्यसभा में भेजे जा सकते हैं? यानि सवाल करने का हक क्या संसद में बैठे लोगों का ही होगा, किंतु अन्ना ने बता दिया है कि नहीं हर भारतीय को सवाल करने का हक है। हम भारत के लोग संविधान में लिखी इन पंक्तियों के मायने समझ सकें तो अन्ना का आंदोलन सार्थक होगा और अपने लक्ष्य के कुछ सोपान जरूर तय करेगा।

मंगलवार, 16 अगस्त 2011

हजारे के साथ कुछ गलत नहीं हुआ !

असहमति को स्वीकारने का साहस हमारे सत्ताधारियों में कहां है

-संजय द्विवेदी

असहमति को स्वीकारने की विधि हमारे सत्ताधारियों को छः दशकों के हमारे लोकतंत्र ने सिखाई कहां है?इसलिए अन्ना हजारे के साथ ऐसा कुछ नहीं हुआ जो अनपेक्षित हो। यह न होता जो आश्चर्य जरूर होता। लोकतंत्र इस देश में सबसे बड़ा झूठ है,जिसकी आड़ में हमारे सारे गलत काम चल रहे हैं। संसद और विधानसभाएं अगर बेमानी दिखने लगी हैं तो इसमें बैठने वाले इस जिम्मेदारी से मुक्त नहीं हो सकते। साढ़े छः दशक का लोकतंत्र भोग लेने के बाद लालकिले से प्रधानमंत्री उसी गरीबी और बेकारी को कोस रहे हैं। यह गरीबी, बेकारी, भुखमरी और तंगहाली अगर साढ़े छः दशक की यात्रा में खत्म नहीं हुयी तो क्या गारंटी है कि आने वाले छः दशकों में भी यह खत्म हो जाएगी। अमीर और गरीब की खाई इन बीस सालों में जितनी बढ़ी है उतनी पहले कभी नहीं थी। अन्ना एक शांतिपूर्ण अहसमहमति का नाम हैं, इसलिए वे जेल में हैं। नक्सलियों, आतंकवादियों और अपराधी जमातों के प्रति कार्रवाई करते हमारे हाथ क्यों कांप रहे हैं?अफजल और गुरू और कसाब से न निपट पाने वाली सरकारें अपने लोगों के प्रति कितनी निर्मम व असहिष्णु हो जाती हैं यह हम सबने देखा है। रामदेव और अन्ना के बहाने दिल्ली अपनी बेदिली की कहानी ही कहती है।

बदजबानी और दंभ के ऐसे किस्से अन्ना के बहाने हमारे सामने खुलकर आए हैं जो लोकतंत्र को अधिनायकतंत्र में बदलने का प्रमाण देते हैं। कपिल सिब्बल और मनीष तिवारी जैसै दरबारियों की दहाड़ और हिम्मत देखिए कि वे अन्ना और ए. राजा का अंतर भूल जाते हैं। ऐसे कठिन समय में अन्ना हजारे हमें हमारे समय के सच का भान भी कराते हैं। वे न होते तो लोकतंत्र की सच्चाईयां इस तरह सामने न आतीं। एक सत्ता किस तरह मनमोहन सिंह जैसे व्यक्ति को एक रोबोट में रूपांतरित कर देती है, यह इसका भी उदाहरण है। वे लालकिले से क्या बोले, क्यों बोले ऐसे तमाम सवाल हमारे सामने हैं। आखिर क्या खाकर आप अन्ना की नीयत पर शक कर रहे हैं। आरएसएस और न जाने किससे-किससे उनकी नातेदारियां जोड़ी जा रही हैं। पर सच यह है कि पूरे राजनीतिक तंत्र में इतनी घबराहट पहले कभी नहीं देखी गयी। विपक्षी दल भी यहां कौरव दल ही साबित हो रहे हैं। वे मौके पर चौका लगाना चाहते हैं किंतु अन्ना के उठाए जा रहे सवालों पर उनकी भी नीयत साफ नहीं है। वरना क्या कारण था कि सर्वदलीय बैठक में अन्ना की टीम से संवाद करने पर ही सवाल उठाए गए। यह सही मायने में दुखी करने वाले प्रसंग हैं। राजनीति का इतना असहाय और बेचारा हो जाना बताता है कि हमारा लोकतंत्र कितना बेमानी हो चुका है। किस तरह उसकी चूलें हिल रही हैं। किस तरह वह हमारे लिए बोझ बन रहा है। भारत के शहीदों की शहादत को इस तरह व्यर्थ होता देखना क्या हमारी नीयत बन गयी है। सवाल लोकपाल का नहीं उससे भी बड़ा है। सवाल प्रजातांत्रिक मूल्यों का है। सवाल इसका भी है कि असहमति के लिए हमारे लोकतंत्रांत्रिक ढांचें में स्पेस कम क्यों हो रहा है।

सवाल यह भी है कि कश्मीर के गिलानी से लेकर माओवादियों का खुला समर्थन करने वाली अरूंधती राय तक दिल्ली में भारत की सरकार को गालियां देकर, भारत को भूखे-नंगों का देश कह कर चले जाएं किंतु दिल्ली की बहादुर पुलिस खामोश रहती है। उसी दिल्ली की सरकार में अफजल गुरू के मृत्युदंड से संबंधित फाइल 19 रिमांडर के बाद भी धूमती रहती है। किंतु बाबा रामदेव और अन्ना हजारे के लिए कितनी त्वरा और कितनी गति है। यह गति काश आतंकियों, उनके पोषकों, माओवादियों के लिए होती तो देश रोजाना खून से न नहाता। किंतु हमारा गृहमंत्रालय भगवा आतंकवाद, बाबा रामदेव और अन्ना हजारे की कुंडलियां तलाशने में लगा है। मंदिर में सोने वाले एक गांधीवादी के पीछे लगे हाथ खोजे जा रहे हैं। आंदोलन को बदनाम करने के लिए अन्ना हजारे को भी अपनी भ्रष्ट मंडली का सदस्य बताने की कोशिश हो रही है। आखिर इससे हासिल क्या है। क्या अन्ना का आभा इससे कम हुयी है या कांग्रेस के दंभ से भरे नेता बेनकाब हो रहे हैं। सत्ता कुछ भी कर सकती है, इसमें दो राय नहीं किंतु वह कब तक कर सकती है-एक लोकतंत्र में इसकी भी सीमाएं हैं। चाहे अनचाहे कांग्रेस ने खुद को भ्रष्टाचार समर्थक के रूप में स्थापित कर लिया है। अन्य दल दूध के धुले हैं ऐसा नहीं हैं किंतु केंद्र की सत्ता में होने के कारण और इस दौर में अर्जित अपने दंभ के कारण कांग्रेस ने अपनी छवि मलिन ही की है। कांग्रेस का यह दंभ आखिर उसे किस मार्ग पर लेकर जाएगा कहना कठिन हैं किंतु देश के भीतर कांग्रेस के इस व्यवहार से एक तरह का अवसाद और निराशा घर कर गयी है। इसके चलते कांग्रेस के युवराज की एक आम आदमी के पक्ष के कांग्रेस का साफ-सुथरा चेहरा बनाने की कोशिशें भी प्रभावित हुयी हैं। आप लोंगों पर गोलियां चलाते हुए (पूणे), लाठियां भांजते हुए (रामदेव की सभा) और लोगों को जेलों में ठूंसते हुए (अन्ना प्रसंग) कितने भी लोकतंत्रवादी और आम आदमी के समर्थक होने का दम भरें, भरोसा तो टूटता ही है। अफसोस यह है कि आम आदमी की बात करने वाले विपक्षी दलों के नेताओं की भूमिका भी इस मामले में पूरी तरह संदिग्ध है। अवसर का लाभ लेने में लगे विपक्षी दल अगर सही मायने में बदलाव चाहते हैं तो उन्हें अन्ना के साथ लामबंद होना ही होगा। पूरी दुनिया में पारदर्शिता के लिए संघर्ष चल रहे हैं, भारत के लोगों को भी अब एक सार्थक बदलाव के लिए, लंबी लड़ाई के लिए तैयार हो जाना चाहिए।

रविवार, 7 अगस्त 2011

लोकतांत्रिक चेतना का देश है भारतः विजयबहादुर सिंह


स्थानीय विविधताएं ही करेंगी पश्चिमी संस्कृति के हमलों का मुकाबला

भोपाल, 8 जुलाई 2011। हिंदी साहित्य के प्रख्यात आलोचक एवं विचारक डा.विजयबहादुर सिंह का कहना है कि भारत एक लोकतांत्रिक चेतना का देश है। इसकी स्थानीय विविधताएं ही बहुराष्ट्रीय निगमों और पश्चिमी संस्कृति के साझा हमलों का मुकाबला कर सकती हैं। वे यहां माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल के जनसंचार विभाग द्वारा भारत का सांस्कृतिक का अवचेतन विषय पर आयोजित व्याख्यान को संबोधित कर रहे थे।

उन्होंने कहा कि ज्ञान और संस्कृति अगर अलग-अलग चलेंगें तो यह मनुष्य के खिलाफ होगा। प्रख्यात विचारक धर्मपाल का जिक्र करते हुए उन्होंने कहा कि उनके द्वारा उठाया गया यह सवाल कि हम किसके संसार में रहने लगे हैं, आज बहुत प्रासंगिक हो उठा है। हिंदुस्तान के लोग आज दोहरे दिमाग से काम कर रहे हैं, यह एक बड़ी चिंता है। सभ्यता में हम पश्चिम की नकल कर रहे हैं और धर्म के पालन में हम अपने समाज में लौट आते हैं। डा. सिंह ने कहा कि 1947 के पहले स्वदेशी, सत्याग्रह और अहिंसा हमारे मूल्य थे किंतु आजादी के बाद हमने परदेशीपन, मिथ्याग्रह और हिंसा को अपना लिया है। यह दासता का दिमाग लेकर हम अपनी पंचवर्षीय योजनाएं बनाते रहे, संविधान रचते रहे और नौकरशाही भी उसी दिशा में काम करती रही। ऐसे में सोच वा आदर्श में फासले बहुत बढ़ गए हैं। हमारा पूरा तंत्र आम आदमी के नहीं ,सरकार के पक्ष में खड़ा दिखता है। हमारा सामाजिक जीवन और लोकजीवन दोनों अलग-अलग दिशा में चल रहे हैं। जबकि हिंदुस्तान समाजों का देश नहीं लोक है।

राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की पुस्तक हिंद स्वराज का उल्लेख करते हुए विजय बहादुर सिंह ने कहा कि पश्चिम कभी भी हमारा आदर्श नहीं हो सकता, क्योंकि यह सभ्यता अपने को स्वामी और बाकी को दास समझती है। उनका कहना था कि कोई भी क्रांति तभी सार्थक है, जब उससे होने वाले परिवर्तन मनुष्यता के पक्ष में हों। आजादी के बाद जो भी बदलाव किए जा रहे हैं वे वास्तव में हमारी परंपरा और संस्कृति से मेल नहीं खाते। भारत की सांस्कृतिक चेतना त्याग में विश्वास करती है, क्योंकि वह एक आदमी को इंसान में रूपांतरित करती है। शायद इसीलिए गालिब ने लिखा कि आदमी को मयस्सर नहीं इंशा होना। भारत की संस्कृति इंसान बनाने वाली संस्कृति है पर हम अपना रास्ता भूलकर उस पश्चिम का अंधानुकरण कर रहे हैं, जिसे गांधी ने कभी शैतानी सभ्यता कहकर संबोधित किया था। इस अवसर पर डा. श्रीकांत सिंह, पुष्पेंद्रपाल सिंह, डा. संजीव गुप्ता, पूर्णेंदु शुक्ल, शलभ श्रीवास्तव, प्रशांत पाराशर और जनसंचार विभाग के विद्यार्थी मौजूद रहे। कार्यक्रम का संचालन विभागाध्यक्ष संजय द्विवेदी ने किया।

लोकमंगल हो मीडिया का ध्येयः स्वामी शाश्वतानंद


भोपाल, 6 अगस्त,2011। महामंडलेश्वर डा.स्वामी शाश्वतानंद गिरि का कहना है कि लोकमंगल अगर पत्रकारिता का उद्देश्य नहीं है तो वह व्यर्थ है। हमें हमारे सामाजिक संवाद और पत्रकारिता में लोकमंगल के तत्व को शामिल करना पड़ेगा। वे यहां माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल द्वारा संवाद और पत्रकारिता का अध्यात्म विषय पर आयोजित व्याख्यान को संबोधित कर रहे थे। उन्होंने कहा कि अध्यात्म के बिना प्रेरणा संभव नहीं है। अध्यात्म ही किसी भी क्षेत्र में हमें लोकमंगल की प्रेरणा देता है।

उन्होंने कहा कि अरविंद घोष, लोकमान्य तिलक, महात्मा गांधी भी पत्रकार थे किंतु उनकी पत्रकारिता, उनकी आत्मा का स्पंदन थी, आज जबकि पूंजी का स्पंदन ही पत्रकारिता की प्रेरणा बन रहा है। उन्होंने युवा पत्रकारों से आग्रह किया कि वे अपनी पत्रकारिता में सकारात्मकता को शामिल करें तभी हम भारत के मीडिया का मान बढ़ा सकेंगें। शरीर के तल पर मनुष्य और पशु में कोई अंतर नहीं, मूल्य ही हमें अलग करते हैं। हमारे लिए मनुष्यता बहुत महत्वपूर्ण है।

डा. गिरि ने कहा कि मन से लिखा और मन से बोला गया शब्द ही पढ़ा और सुना जाएगा। बुद्धि से लिखे और बोले हुए का कोई महत्व नहीं है, वह बुद्धि से ही पढ़ा और सुना जाएगा। हमारे लेखन में अगर हमारी आत्मा न होगी तो वह प्राणहीन हो जाएगा। प्रेमचंद और निराला जी का उदाहरण देते हुए उन्होंने कहा कि ये इसलिए दिल से पढ़े गए, क्योंकि उन्होंने दिल से लिखा। कार्यक्रम के अंत में विद्यार्थियों ने डा. गिरि से प्रश्न भी पूछे।

कार्यक्रम के प्रारंभ में कुलपति प्रो. बृजकिशोर कुठियाला, रजिस्ट्रार डा. चंदर सोनाने, प्रो. आशीष जोशी, दीपक शर्मा, पवित्र श्रीवास्तव, पुष्पेंद्र पाल सिंह, डा. श्रीकांत सिंह, डा. पी. शशिकला, डा. आरती सारंग, वरिष्ठ पत्रकार रमेश शर्मा,पूर्व कुलसचिव पी. एन. साकल्ले आदि ने पुष्पहार से महामंडलेश्वर डा. गिरि का स्वागत किया। संचालन जनसंचार विभाग के अध्यक्ष संजय द्विवेदी ने किया।