बुधवार, 27 जुलाई 2011

देशभक्ति की भावना जगाने की जरूरतः विजयवर्गीय


कारगिल विजय दिवस का आयोजन

भोपाल 26 जुलाई। देशवासियों में राष्ट्र की सेवा के जज्बे की कमी नहीं है लेकिन मौजूदा माहौल में नकारात्मकता हावी हो गई है। इसने देशभक्ति की भावना को गौण कर दिया है। मीडिया ही इस माहौल को एक सकारत्मक दिशा दे सकता है। यह बात मप्र के उद्योग मंत्री कैलाश विजयवर्गीय ने माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में आयोजित कारगिल विजय दिवस समारोह में कही। वे कार्यक्रम के मुख्य अतिथि की आसंदी से बोल रहे थे। इस अवसर पर श्री विजयवर्गीय ने देश भक्ति गीत के माध्यम से विद्यार्थियों से देश की रक्षा की अपील की

कार्यक्रम के मुख्य वक्ता वरिष्ठ पत्रकार एवं सांसद तरूण विजय ने कहा कि दिल्ली में बैठी सरकार को कारगिल विजय दिवस मानने की फुर्सत ही नहीं है। वह सिर्फ पैसे के पीछे भागती है। कांग्रेस शासन की आलोचना करते हुए उन्होंने कहा कि देश ने आजादी के बाद जो जमीन खोई है, उसके लिए तत्कालीन केंद्र सरकारें जिम्मेदार है। सैनिकों की उपेक्षा से व्यथित तरूण विजय ने कहा कि देश का युवा आऊटसोर्सिंग द्वारा लाया जा रहे दूसरे देशों का काम करना पसंद कर रहा है, पर वह सेना में नहीं जाना चाहता। लोग सैनिकों के काम को पुण्य मानते हैं किंतु सैनिकों का सम्मान न तो सरकार कर रही है और न ही समाज। उन्होंने कहा कि कारगिल दिवस को गौरव-गाथा के रूप में याद किया जाना चाहिए न कि सैनिक सुविधा की माँग करते हुए उनके अभिभावकों की बेचारगी के रूप में। उन्होंने विद्यार्थियों को सेना और सैनिकों के बारे में ज्यादा से ज्यादा जानने के लिए प्रेरित किया।

कार्यक्रम के विशिष्ट अतिथि कर्नल आजाद कृष्ण चतुर्वेदी ने अपने सेना के अनुभव के माध्यम से कारगिल युद्ध की संवेदनशीलता को महसूस कराने की कोशिश की। उन्होंने बताया कि मई के करीब कारगिल युद्ध को होना संयोग नहीं था, बल्कि यह पाकिस्तान की एक सोची-समझी रणनीति थी। लेकिन कारगिल युद्ध की हार के बाद पाकिस्तान यह समझ गया कि वह किसी भी हालात में भारत से नहीं जीत सकता है। कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. बृजकिशोर कुठियाला ने कहा कि ऐसा महसूस हो रहा है कि देशवासियों की राष्ट्रप्रेम की भावना में कमी आई है। उन्होंने कहा कि देश के नागरिकों को देश की रक्षा को बोध स्वयं में होना चाहिए, रक्षा करने का काम केवल सैनिकों का ही नहीं समझना चाहिए, यह हर नागरिक का कर्तव्य है।

कार्यक्रम का आरम्भ दीप प्रज्जवलन के साथ हुआ । अतिथियों को पुष्प गुच्छ,प्रतीक चिन्ह एवं पुस्तकें देकर स्वागत किया गया। संचालन जनसंचार विभाग के अध्यक्ष संजय द्विवेदी एवं आभार प्रबंधन विभाग के अध्यक्ष अमिताभ भटनागर ने व्यक्त किया। कार्यक्रम में वरिष्ठ पत्रकार रमेश शर्मा, विजयमनोहर तिवारी, रामभुवन सिंह कुशवाह, सुरेश शर्मा, अंजनी कुमार झा, पीएन साकल्ले, दीपक शर्मा, विकास बोंद्रिया, जीके छिब्बर, डा. श्रीकांत सिंह, डा. पवित्र श्रीवास्तव, पुष्पेंद्रपाल सिंह, पी.शशिकला, रजिस्ट्रार चंदर सोनाने , डा. अविनाश वाजपेयी, ,सौरभ मालवीय, डा. मोनिका वर्मा, लालबहादुर ओझा, डा. संजीव गुप्ता, डा. राखी तिवारी, अभिजीत वाजपेयी, मनीष माहेश्वरी सहित बड़ी संख्या में विद्यार्थी मौजूद रहे।

इस अवसर पर उद्योग मंत्री कैलाश विजयवर्गीय ने विद्यार्थियों की मांग पर कर चले हम फिदा जानोतन साथियों...अब तुम्हारे हवाले वतन साथियों। गीत गाकर माहौल को भावुक बना दिया। उनकी सुर-लहरियों पर उनके सुर में सुर मिलाकर विद्यार्थी भी गीत के बोलों पर झूम उठे। इससे पूरा माहौल सरस हो गया।

विचार को समर्पित एक जीवनः लखीराम अग्रवाल

छत्तीसगढ़ जैसे इलाके में भाजपा की जड़ें जमाने वाले नायक की याद

-संजय द्विवेदी

भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेता लखीराम अग्रवाल को याद करना सही मायने में राजनीति की उस परंपरा का स्मरण है जो आज के समय में दुर्लभ हो गयी है। वे सही मायने में हमारे समय के एक ऐसे नायक हैं जिसने अपने मन, वाणी और कर्म से जिस विचारधारा का साथ किया , उसे ताजिंदगी निभाया। यह प्रतिबद्धता भी आज के युग में साधारण नहीं है।

लखीराम अग्रवाल ने छत्तीसगढ़ के एक छोटे से नगर खरसिया से जो यात्रा शुरू की वह उन्हें मप्र भाजपा के अध्यक्ष जैसे महत्वपूर्ण पद तक ले गयी। वे राज्यसभा के दो बार सदस्य भी रहे। लेकिन ये बातें बहुत मायने नहीं रखतीं। मायने रखते हैं वे संदर्भ और उनकी जीवन शैली जो उन्होंने पार्टी का काम करते समय लोगों को सिखायी। मप्र और छत्तीसगढ़ की भारतीय जनता पार्टी के लिए उनका योगदान किसी से छिपा नहीं है। वे अंततः एक कार्यकर्ता थे और उनका दिल संगठन के लिए ही धड़कता था। भाजपा दिग्गज कुशाभाऊ ठाकरे से उनकी मुलाकात ने सही मायने में लखीराम अग्रवाल को पूरी तरह रूपांतरित कर दिया। वे संगठन को जीने लगे। खरसिया नगर पालिका के अध्यक्ष के रूप में प्रारंभ हुयी उनकी राजनीतिक यात्रा में अनेक ऐसे पड़ाव हैं जो प्रेरित करते हैं और प्रोत्साहित करते हैं। वे यह भी बताते हैं कि कैसे एक साधारण परिवार का व्यक्ति भी एक असाधारण शख्सियत बन सकता है। लखीराम अग्रवाल के हिस्से बड़ी राजनीतिक सफलताएं नहीं हैं, खरसिया से वे विधानसभा का चुनाव नहीं जीत सके। उनका इलाका कांग्रेस का एक ऐसा गढ़ है जहां आजतक भाजपा का कमल नहीं खिल सका। किंतु अपनी इस कमजोरी को उन्होंने अपनी शक्ति बना लिया। वे छत्तीसगढ़ में कमल खिलाने के प्रयासों में लग गए। आज पूरे राज्य में कार्यकर्ताओं का पूरा तंत्र उनकी प्रेरणा से ही काम कर रहा है। वे कार्यकर्ता निर्माण की प्रक्रिया को समझते थे। उनके निर्माण और उनके व्यवस्थापन की चिंता करते थे। संगठन की यह समझ ही उन्हें अपने समकालीनों के बीच उंचाई देती है।

असाधारण बनने का कथाः आप देखें तो लखीराम अग्रवाल के पास ऐसा कुछ नहीं था जिसके आधार पर वे महत्वपूर्ण बनने की यात्रा शुरू कर सकें। खरसिया एक ऐसा इलाका था, जहां भाजपा का कोई आधार नहीं है। एक छोटा नगर जहां की राजनीतिक अहमियत भी बहुत नहीं है। इसके साथ ही लखीराम जी किसी विषय के गंभीर जानकार या अध्येता भी नहीं थे। किंतु उनमें संगठन शास्त्र की गहरी समझ थी। अपने निरंतर प्रवास और श्रम से उन्होंने सारी बाधाओं को पार किया। जशपुर के कुमार साहब दिलीप सिंह जूदेव, कवर्धा के एक डाक्टर रमन सिंह से लेकर तपकरा के एक नौजवान आदिवासी नेता नंदकुमार साय से लेकर आज की पीढ़ी के राजेश मूणत जैसे लोगों को साथ लेने और खड़ा करने का माद्दा उनमें था। छत्तीसगढ़ के हर शहर और क्षेत्र में उन्होंने ऐसे लोगों को खड़ा किया जो आज पार्टी की कमान संभाले हुए हैं। उनके इस चयन में शायद कुछ लोगों के साथ अन्याय भी हुआ हो। किंतु संगठन की समझ रखने वाले जानते हैं कि जब आप पद पर होते हैं तो कुछ फैसले लेते हैं और वह फैसला किसी के पक्ष में और कुछ के खिलाफ भी होता है। वे पूरी जिंदगी शायद इसलिए कार्यकर्ताओं से घिरे रहे और सर्वाधिक आलोचनाओं के शिकार भी हुए। आप मानिए कि उन्होंने कभी इसकी परवाह नहीं की। आलोचनाओं से अविचल रहकर उन्होंने सिर्फ बेहतर परिणाम दिए। खरसिया के उस उपचुनाव को याद कीजिए जिसमें कुमार दिलीप सिंह जूदेव को मप्र के कद्दावर मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह के खिलाफ मैदान में उतारा गया था। वह उपचुनाव हारकर भी भाजपा ने छत्तीसगढ़ क्षेत्र में जो आत्मविश्वास अर्जित किया, वह एक इतिहास है। इसके बाद भाजपा ने छत्तीसगढ़ में पीछे मुड़कर नहीं देखा।

आतंक के बीच सरकार के सपनेः छत्तीसगढ़ राज्य का गठन इस क्षेत्र के निवासियों का एक बड़ा सपना था। इसमें दिल्ली में भाजपा की सरकार बनना एक सुखद संयोग साबित हुआ। यह भी संयोग ही था कि दिल्ली में राज्यसभा के सदस्य के नाते ही नहीं, एक संगठनकर्ता के नाते लखीराम अग्रवाल अपनी एक साख पहचान बना चुके थे। उनके प्रभाव और क्षमताओं का पूरा दल लोहा मानने लगा था। राज्य गठन को लेकर उनकी पहल का भी एक खास असर था कि तत्कालीन गृहमंत्री लालकृष्ण आडवाणी छत्तीसगढ़ राज्य के गठन के लिए सहमत हो गए। इसके साथ ही छत्तीसगढ़ का अपना भूगोल प्राप्त हो गया। राज्य में कांग्रेस विधायकों की संख्या के आधार पर अजीत जोगी राज्य के प्रथम मुख्यमंत्री बने। उनकी कार्यशैली से भाजपा का संगठन हिल गया। भाजपा के 12 विधायकों का दलबदल करवाकर जोगी ने भाजपा की कमर तोड़ दी। ऐसे में संगठन के मुखिया के नाते लखीराम अग्रवाल के संयम, धैर्य और रणनीति ने भाजपा को सत्ता में लाने के लिए आधार तैयार किया। सरकारी आतंक के बीच भाजपा की वापसी साधारण नहीं थी। किंतु लखीराम अग्रवाल, डा. रमन सिंह, दिलीप सिंह जूदेव, नंदकुमार साय, रमेश बैस, बलीराम कश्यप, बृजमोहन अग्रवाल, वीरेंद्र पाण्डेय, बनवारीलाल अग्रवाल,प्रेमप्रकाश पाण्डेय जैसे नेताओं की एकजुटता और सतत श्रम ने भाजपा को अपनी सरकार बनने का मार्ग प्रशस्त कर दिया।यह विजय साधारण विजय नहीं थी। ऐसे कठिन समय में संगठन में प्राण फूंकने और उसे नया आत्मविश्वास देने के लिए लखीराम अग्रवाल और तत्कालीन संगठन मंत्री सौदान सिंह के योगदान के बिसराया नहीं जा सकता। यह वही समय था जब लोग राज्य में भाजपा के समाप्त होने की घोषणाएं कर रहे थे और भाजपा का मर्सिया पढ़ रहे थे। किंतु समय ने करवट ली और भाजपा ने डा. रमन सिंह के नेतृत्व में अपनी सरकार बनायी।

याद करना है जरूरीः लखीराम अग्रवाल सही मायने में राज्य भाजपा के अभिभावक होने के साथ छत्तीसगढ़ में एक नैतिक उपस्थिति भी थे। उनके पास जाकर किसी भी स्तर का कार्यकर्ता अपनी बात कह सकता था। वे परिवार के एक ऐसे मुखिया थे जिनके पास सबकी सुनने का धैर्य और सबको सुनाने का साहस था। वे अपने कद और परिवार की मुखिया की हैसियत से किसी को भी कोई आदेश दे सकने की स्थिति में थे। उनकी बात प्रायः टाली नहीं जाती थी। वे एक ऐसा कंधा थे जिसपर आप अपनी पीड़ाएं उड़ेल सकते थे। असहमतियों के बावजूद वे सबके साथ संवाद करने के लिए दरवाजा खुला रखते थे। रायपुर से दिल्ली तक उन्होंने जो रिश्ते बनाए उनमें कृत्रिमता और बनावट नहीं थी। वे हमेशा अपने जीवन और कर्म से केवल और केवल पार्टी की सोचते रहे। जीवन के अंतिम दिनों में उन पर पुत्रमोह जैसे आरोप चस्पा करने के प्रयास हुए जो बेहद बचकानी सोच ही दिखते हैं। उनके पुत्र अमर अग्रवाल ने अपने गृहनगर खरसिया और रायगढ़ को छोड़कर छत्तीसगढ़ के एक अलग शहर बिलासपुर को अपना कार्यक्षेत्र बनाया,युवा मोर्चा के कार्यकर्ता के नाते काम प्रारंभ किया और वहां कांग्रेस की परंपरागत सीट पर चुनाव जीतकर अपनी जगह बनाई।आज वे छत्तीसगढ़ के सक्षम मंत्रियों में गिने जाते हैं। उनकी क्षमताओं पर किसी को संदेह नहीं है।ऐसे कठिन समय में जब राजनीति में मर्यादाविहीन आचरण के चिन्ह आम हैं। हर तरह का पतन राजनीतिक क्षेत्र में दिख रहा है। लखीराम अग्रवाल जैसे नायक की याद हमें प्रेरित करती है और बताती है कि कैसे व्यापार में रहकर भी शुचिता बनाए रखी जा सकती है। गृहस्थ होकर भी किस तरह से समाज के काम पूरा समय देकर किए जा सकते हैं। लखीराम का अपराध शायद सिर्फ यही था कि वे एक व्यापारी परिवार में पैदा हुए। क्या सिर्फ इस नाते समाज के लिए किए गए उनके योगदान को नजरंदाज कर दिया जाना चाहिए ? क्या आप इसे साहस नहीं मानेंगें कि एक व्यापारी किस तरह मप्र के सबसे कद्दावर मुख्यमंत्री रहे अर्जुन सिंह के खिलाप अपने क्षेत्र में व्यूह रचना तैयार करता है और जिसके परिणामों की चिंता नहीं करता? अजीत जोगी जैसे ताकतवर मुख्यमंत्री के सामने तनकर खड़ा होता है और अपने दल की सरकार की स्थापना के लिए पूरा जोर लगा देता है। आज जब परिवार जैसी पार्टी को, कंपनी की तरह चलाने की कोशिशें हो रही हैं क्या तब भी आपको लखीराम अग्रवाल की याद बहुत स्वाभाविक और मार्मिक नहीं लगती?

औरत खड़ी बाजार में

- संजय द्विवेदी

हिंदुस्तानी औरत इस समय बाजार के निशाने पर है। एक वह बाजार है जो परंपरा से सजा हुआ है और दूसरा वह बाजार है जिसने औरतों के लिए एक नया बाजार पैदा किया है। औरत की देह इस समय मीडिया के चौबीसों घंटे चलने वाले माध्यमों का सबसे लोकप्रिय विमर्श है। लेकिन परंपरा से चला आ रहा देह बाजार भी नए तरीके से अपने रास्ते बना रहा है। देह की बाधाएं हटा रहा है, गोपन को ओपन कर रहा है।

बहस हुई तेजः

समय-समय पर देहव्यापार को कानूनी अधिकार देने की बातें इस देश में भी उठती रहती हैं। हर मामले में दुनिया की नकल करने पर आमादा हमारे लोग वैसे ही बनने पर उतारू हैं। जाहिर तौर पर यह संकट बहुत बड़ा है। ऐसा अधिकार देकर हम देह के बाजार को न सिर्फ कानूनी बना रहे होंगें वरन मानवता के विरूद्ध एक अपराध भी कर रहे होगें। हम देखें तो सुप्रीम कोर्ट की पहल के बाद एक बार फिर वेश्यावृत्ति को कानूनी मान्यता देने की बातचीत तेज हो गयी है। यह बहस हाल में ही सुप्रीम कोर्ट द्वारा इस मामले में वकीलों के पैनल व विशेषज्ञों से राय उस राय के मांगने के बाद छिड़ी है जिसमें कोर्ट ने पूछा है कि क्या ऐसे लोगों को सम्मान से अपना पेशा चलाने का अधिकार दिया जा सकता है? उनके संरक्षण के लिए क्या शर्तें होनी चाहिए ? कुछ समय पहले कांग्रेस की सांसद प्रिया दत्त ने वेश्यावृत्ति को लेकर एक नई बहस छेड़ दी थी, तब उन्होंने कहा था कि मेरा मानना है कि वेश्यावृत्ति को कानूनी मान्यता प्रदान कर देनी चाहिए ताकि यौन कर्मियों की आजीविका प्रभावित न हो।प्रिया के बयान के पहले भी इस तरह की मांगें उठती रही हैं। कई संगठन इसे लेकर बात करते रहे हैं। खासकर पतिता उद्धार सभा ने वेश्याओं को लेकर कई महत्वपूर्ण मांगें उठाई थीं। हमें देखना होगा कि आखिर हम वेश्यावृत्ति को कानूनी जामा पहनाकर क्या हासिल करेंगें? क्या भारतीय समाज इसके लिए तैयार है कि वह इस तरह की प्रवृत्ति को सामाजिक रूप से मान्य कर सके। दूसरा विचार यह भी है कि इससे इस पूरे दबे-छिपे चल रहे व्यवसाय में शोषण कम होने के बजाए बढ़ जाएगा। आज भी यहां स्त्रियां कम प्रताड़ित नहीं हैं।

चौंकानेवाले आंकड़ेः

दुनिया भर की नजर इस समय औरत की देह को अनावृत करने में है। ये आंकड़े हमें चौंकाने वाले ही लगेगें कि 100 बिलियन डालर के आसपास का बाजार आज देह व्यापार उद्योग ने खड़ा कर रखा है। हमारे अपने देश में भी 1 करोड़ से ज्यादा लोग देहव्यापार से जुड़े हैं। जिनमें पांच लाख बच्चे भी शामिल हैं। सेक्स और मीडिया के समन्वय से जो अर्थशास्त्र बनता है उसने सारे मूल्यों को शीर्षासन करवा दिया है । फिल्मों, इंटरनेट, मोबाइल, टीवी चेनलों से आगे अब वह मुद्रित माध्यमों पर पसरा पड़ा है। प्रिंट मीडिया जो पहले अपने दैहिक विमर्शों के लिए प्लेबायया डेबोनियरतक सीमित था, अब दैनिक अखबारों से लेकर हर पत्र-पत्रिका में अपनी जगह बना चुका है। अखबारों में ग्लैमर वर्ल्र्ड के कॉलम ही नहीं, खबरों के पृष्ठों पर भी लगभग निर्वसन विषकन्याओं का कैटवाग खासी जगह घेर रहा है। वह पूरा हल्लाबोल 24 घंटे के चैनलों के कोलाहल और सुबह के अखबारों के माध्यम से दैनिक होकर जिंदगी में एक खास जगह बना चुका है। शायद इसीलिए इंटरनेट के माध्यम से चलने वाला ग्लोबल सेक्स बाजार करीब 60 अरब डॉलर तक जा पहुंचा है। मोबाइल के नए प्रयोगों ने इस कारोबार को शक्ति दी है। एक आंकड़े के मुताबिक मोबाइल पर अश्लीलता का कारोबार भी पांच सालों में 5अरब डॉलर तक जा पहुंचेगा।

बाजार के केंद्र में भारतीय स्त्रीः

बाजार के केंद्र में भारतीय स्त्री है और उद्देश्य उसकी शुचिता का उपहरण । सेक्स सांस्कृतिक विनिमय की पहली सीढ़ी है। शायद इसीलिए जब कोई भी हमलावर किसी भी जातीय अस्मिता पर हमला बोलता है तो निशाने पर सबसे पहले उसकी औरतें होती हैं । यह बाजारवाद अब भारतीय अस्मिता के अपहरण में लगा है-निशाना भारतीय औरतें हैं। ऐसे बाजार में वेश्यावृत्ति को कानूनी जामा पहनाने से जो खतरे सामने हैं, उससे यह एक उद्योग बन जाएगा। आज कोठेवालियां पैसे बना रही हैं तो कल बड़े उद्योगपति इस क्षेत्र में उतरेगें। युवा पीढ़ी पैसे की ललक में आज भी गलत कामों की ओर बढ़ रही है, कानूनी जामा होने से ये हवा एक आँधी में बदल जाएगी। इससे हर शहर में ऐसे खतरे आ पहुंचेंगें। जिन शहरों में ये काम चोरी-छिपे हो रहा है, वह सार्वजनिक रूप से होने लगेगा। ऐसी कालोनियां बस जाएंगी और ऐसे इलाके बन जाएंगें। संभव है कि इसमें विदेशी निवेश और माफिया का पैसा भी लगे। हम इतने खतरों को उठाने के लिए तैयार नहीं हैं। जाहिर तौर पर स्थितियां हतप्रभ कर देने वाली हैं। इनमें मजबूरियों से उपजी कहानियां हैं तो मौज- मजे के लिए इस दुनिया में उतरे किस्से भी हैं। भारत जैसे देश में लड़कियों को किस तरह इस व्यापार में उतारा जा रहा है ये किस्से आम हैं। आदिवासी इलाकों से निरंतर गायब हो रही लड़कियां और उनके शोषण के अंतहीन किस्से इस व्यथा को बयान करते हैं। खतरा यह है कि शोषण रोकने के नाम पर देहव्यापार को कानूनी मान्यता देने के बाद सेक्स रैकेट को एक कारोबार का दर्जा मिल जाएगा। इससे दबे छुपे चलने वाला काम एक बड़े बाजार में बदल जाएगा। इसमें फिर कंपनियां भी उतरेंगी जो लड़कियों का शोषण ही करेगीं। लड़कियों के उत्पीड़न, अपहरण की घटनाएं बढ़ जाएंगी। समाज का पूरी तरह से नैतिक पतन हो जाएगा।

पैदा होंगें कई सामाजिक संकटः

सबसे बड़ा खतरा हमारी सामाजिक व्यवस्था को पैदा होगा जहां देहव्यापार भी एक प्रोफेशन के रूप में मान्य हो जाएगा। आज चल रहे गुपचुप सेक्स रैकेट कानूनी दर्जा पाकर अंधेरगर्दी पर उतर आएंगें। परिवार नाम की संस्था को भी इससे गहरी चोट पहुंचेगी। हमें देखना कि क्या हमारा समाज इस तरह के बदलावों को स्वीकार करने की स्थिति में है। यह भी बड़ा सवाल है कि क्या औरत की देह को उसकी इच्छा के विरूद्ध बाजार में उतारना और उसकी बोली लगाना उचित है? क्या औरतें एक मनुष्य न होकर एक वस्तु में बदल जाएगीं? जिनकी बोली लगेगी और वे नीलाम की जाएंगीं। स्त्री की देह का मामला सिर्फ श्रम को बेचने का मामला नहीं है। देह और मन से मिलकर होने वाली क्रिया को हम क्यों बाजार के हवाले कर देने पर आमादा हैं, यह एक बड़ा मुद्दा है। औरत की देह पर सिर्फ और सिर्फ उसका हक है। उसे यह तय करने का हक है कि वह उसका कैसा इस्तेमाल करना चाहती है। इस तरह के कानून औरत की निजता को एक सामूहिक प्रोडक्ट में बदलने का वातावरण बनाते हैं। अपने मन और इच्छा के विरूद्ध औरत के जीने की स्थितियां बनाते हैं। यह अपराध कम से कम भारत की जमीन पर नहीं होना चाहिए। जहां नारी को एक उंचा स्थान प्राप्त है। वह परिवार को चलाने वाली धुरी है।

स्त्री के सामर्थ्य का आदर कीजिएः

स्त्री आज के समय में वह घर और बाहर दोनों स्थानों अपेक्षित आदर प्राप्त कर रही है। वह समाज को नए नजरिये से देख रही है। उसका आकलन कर रही है और अपने लिए निरंतर नए क्षितिज खोल रही है।ऐसी सार्मथ्यशाली स्त्री को शिखर छूने के अवसर देने के बजाए हम उसे बाजार के जाल में फंसा रहे हैं। वह अपनी निजता और सौंदर्यबोध के साथ जीने की स्थितियां और आदर समाज जीवन में प्राप्त कर सके हमें इसका प्रयास करना चाहिए। हमारे समाज में स्त्रियों के प्रति धारणा निरंतर बदल रही है। वह नए-नए सोपानों का स्पर्श कर रही है। माता-पिता की सोच भी बदल रही है वे अपनी बच्चियों के बेहतर विकास के लिए तमाम जतन कर रहे हैं। स्त्री सही मायने में इस दौर में ज्यादा शक्तिशाली होकर उभरी है। किंतु बाजार हर जगह शिकार तलाश ही लेता है। वह औरत की शक्ति का बाजारीकरण करना चाहता है। हमें देखना होगा कि भारतीय स्त्री पर मुग्ध बाजार उसकी शक्ति तो बने किंतु उसका शोषण न कर सके। आज में मीडियामय और विज्ञापनी बाजार में औरत के लिए हर कदम पर खतरे हैं। पल-पल पर उसके लिए बाजार सजे हैं। देह के भी, रूप के भी, प्रतिभा के भी, कलंक के भी। हद तो यह कि कलंक भी पब्लिसिटी के काम आ रहे हैं। क्योंकि यह समय कह रहा है कि दाग अच्छे हैं। बाजार इसी तरह से हमें रिझा रहा है और बोली लगा रहा है। हमें इस समय से बचते हुए इसके बेहतर प्रभावों को ग्रहण करना है। सुप्रीम कोर्ट को चाहिए कि वह ऐसे लोगों की मंशा को समझे जो औरत को बाजार की वस्तु बना देना चाहते है।

सोमवार, 4 जुलाई 2011

मीडिया विमर्श का उर्दू पत्रकारिता पर केंद्रित अंक प्रकाशित

भोपाल,2 जुलाई, 2011। जनसंचार के सरोकारों पर केंद्रित त्रैमासिक पत्रिका मीडिया विमर्श का ताजा अंक (जून,2011) उर्दू पत्रकारिता के भविष्य पर केंद्रित है। इस अंक में देश के प्रख्यात उर्दू पत्रकारों एवं बुद्धिजीवियों के आलेख हैं। अंक के अतिथि संपादक जाने-माने उर्दू पत्रकार श्री तहसीन मुनव्वर हैं।

इस अंक में उर्दू के पांच बड़े पत्रकारों दैनिक एतमाद के सलाहकार संपादक नसीम आरफी, सियासत के संपादक जाहिद अली खान, रहनुमा-ए-दक्कन के संपादक सैय्यद विकारूद्दीन, वरिष्ठ पत्रकार अशफाक मिशहदी नदवी, यूएनआई उर्दू सर्विस के पूर्व संपादक शेख मंजूर अहमद और डेली नदीम के संपादक कमर अशफाक से विशेष साक्षात्कार प्रकाशित किए गए हैं। इसके अलावा ऐतिहासिक प्रसंगों पर डा. अख्तर आलम, डा. ए.अजीज अंकुर, इशरत सगीर और डा. जीए कादरी के लेख हैं, जिनमें उर्दू पत्रकारिता के स्वर्णिम इतिहास पर रोशनी डाली गयी है।

उर्दू पत्रकारिता के भविष्य पर विमर्श खंड में सर्वश्री फिरोज अशरफ, असद रजा, शाहिद सिद्दीकी, मासूम मुरादाबादी, संजय द्विवेदी, फिरदौस खान, उर्वशी परमार के लेख हैं। इसके अलावा नजरिया खंड में उर्दू पत्रकारिता के वर्तमान परिदृश्य पर बेहद महत्वपूर्ण सामग्री का संयोजन किया गया है जिसमें आरिफ अजीज, राजेश रैना, शारिक नूर, डा. माजिद हुसैन, आरिफ खान मंसूरी के लेख हैं।

विचारार्थ खंड में समाजवादी विचारक रघु ठाकुर, उर्दू यूनिवर्सिटी, हैदराबाद में प्राध्यापक एहतेशाम अहमद खान, पत्रकार ए. एन.शिबली, एजाजुर रहमान के लेख प्रस्तुत किए गए हैं। डा. निजामुद्दीन फारूखी ने उर्दू और रेडियो के रिश्ते पर एक बेबाकी से लिखा है। बिहार की उर्दू पत्रकारिता पर संजय कुमार और इलाहाबाद की उर्दू पत्रकारिता पर धनंजय चोपड़ा का लेख बहुत सारी जानकारियां समेटे हुए है। उर्दू पत्रकारिता में महिलाओं के योगदान पर डा. मरजिया आऱिफ ने बेहद शोधपरक लेख प्रस्तुत किया है। मीडिया विमर्श का यह अंक 25 रूपए में उपलब्ध है तथा पत्रिका की वार्षिक सदस्यता सौ रूपए है। पाठकगण निम्न पते पर अपना शुल्क भेजकर अपनी प्रति प्राप्त कर सकते हैं- संपादकः मीडिया विमर्श, 428- रोहित नगर, फेज-1, भोपाल-462039 (मप्र)

शनिवार, 2 जुलाई 2011

अब माओवादी भी लड़ेंगें भ्रष्टाचार से!

भटकाव भरे आंदोलन ऐसे भ्रम फैलाकर जनता की सहानुभूति चाहते हैं

-संजय द्विवेदी

यह कहना कितना आसान है कि माओवादी भी अब भ्रष्टाचार के दानव से लड़ना चाहते हैं। लेकिन यह एक सच है और अपने ताजा बयान में माओवादियों ने सरकार से कहा है कि वह शांति वार्ता (नक्सलियों के साथ) का प्रस्ताव देने से पहले भ्रष्टाचार में लिप्त लोगों के खिलाफ सरेआम कार्रवाई करे। साथ ही विदेशी मुल्कों के बैंकों में जमा सारा काला धन स्वेदश वापस लाए। कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) की केंद्रीय समिति के प्रवक्ता अभय ने मीडिया को जारी विज्ञप्ति में कहा है कि सरकार ने प्राकृतिक संसाधनों के दोहन के लिए औद्योगिक व व्यवसायिक घरानों के साथ लाखों-करोड़ों के समझौते किए हैं। इन्हें रद किया जाए। भूमि अधिग्रहण प्रक्रिया को तत्काल रोका जाए। साथ ही सरकार भ्रष्टाचारियों को सरेआम सजा देने की व्यवस्था करे।

लोकप्रियतावादी राजनीति के फलितार्थः

जाहिर तौर पर यह एक ऐसा बयान है जिसे बहुत गंभीरता से लेने की जरूरत नहीं हैं। किंतु यह बताता है कि संचार माध्यम देश में कितने प्रभावी हो उठे हैं कि वे जंगलों में रक्तक्रांति के माध्यम से देश की राजसत्ता पर कब्जे का स्वप्न देख रहे माओवादियों को भी देश में चल रही भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम पर प्रतिक्रिया करने के लिए मजबूर कर देते हैं। सही मायने में इस बयान को एक लोकप्रियतावादी राजनीति का ही विस्तार माना जाना चाहिए। माओवादियों का पूरा अभियान आज एक भटकाव भरे रास्ते पर है ऐसे में उनसे किसी गंभीर संवाद की अपेक्षा नहीं की जानी चाहिए। उनके कदम पूरी तरह लोकप्रियतावादी राजनीति से मेल खाते हैं और उनका अर्थतंत्र भी भ्रष्टाचार के चलते ही फलफूल रहा है। भ्रष्टाचार को जड़ से मिटाने की बात करने वाले माओवादियों से यह पूछा जाना चाहिए कि नक्सल प्रभावित राज्यों में चल रहे विकास कार्यों को रोककर और करोडों की लेवी वसूलकर वे किस मुंह से भ्रष्टाचार के विरूद्ध बात कह रहे हैं। सही मायने में इस तरह के बयान सिर्फ सुर्खियां बटोरने का ही उपक्रम हैं। माओवादियों के इन भ्रामक बयानों पर गंभीर होने के बजाए यह सोचना जरूरी है कि क्या माओवादी हमारे संविधान और गणतंत्र में कोई अपने लिए कोई स्पेस देखते हैं ? क्या वे मानते हैं कि वर्तमान व्यवस्था उनके विचारों के अनुसार न्यायपूर्ण है? सही मायने में माओवाद एक गणतंत्र विरोधी विचार है। उनकी सांसें जनतंत्र में घुट रही हैं। वे माओ का राज, यानी एक बर्बर अधिनायक तंत्र के अभिलाषी हैं। देश में लोकतंत्र के रहते वे अपने विचारों और सपनों का राज नहीं ला सकते। शायद इसीलिए मतदान करते हुए लोगों को वे धमकाते हैं कि यदि उनकी उंगलियों पर मतदान की स्याही पाई गयी तो वे उंगलियां काट लेगें। यानि एक आम आदमी को गणतंत्र में मिले सबसे बड़े अधिकार- मताधिकार पर भी उनकी आस्था नहीं हैं। एक गणतंत्र में वे भ्रष्टाचारियों के लिए सरेआम फांसी लटकाने की सजा चाहते हैं। यह एक बर्बर अधिनायक तंत्र में ही संभव है। हमारे यहां कानून के काम करने का तरीका है। अपराध को साबित करने की एक कानूनी प्रक्रिया है जिसके चलते आरोपी को स्वयं को दोषमुक्त साबित करने के अवसर हैं।

शोषकों के सहायक हैं माओवादीः

माओवादियों ने जनता को मुक्ति और न्याय दिलाने के नाम पर इन क्षेत्रों में प्रवेश किया किंतु आज हालात यह हैं कि ये माओवादी ही शोषकों के सबसे बड़े मददगार हैं। इन इलाकों के वनोपज ठेकेदारों, सार्वजनिक कार्यों को करने वाले ठेकेदारों, राजनेताओं और उद्योगों से लेवी में करोड़ों रूपए वसूलकर ये एक समानांतर सत्ता स्थापित कर चुके हैं। भ्रष्ट राज्य तंत्र को ऐसा माओवाद बहुत भाता है। क्योंकि इससे दोनों के लक्ष्य सध रहे हैं। दोनों भ्रष्टाचार की गंगा में गोते लगा रहे हैं और हमारे निरीह आदिवासी और पुलिसकर्मी मारे जा रहे हैं। राज्यों की पुलिस के आला अफसररान अपने वातानुकूलित केबिनों में बंद हैं और उन्होंने सामान्य पुलिसकर्मियों और सीआरपीएफ जवानों को मरने के लिए मैदान में छोड़ रखा है। आखिर जब राज्य की कोई नीति ही नहीं है तो हम क्यों अपने जवानों को यूं मरने के लिए मैदानों में भेज रहे हैं। आज समय आ गया है कि केंद्र और राज्य सरकारों के यह तय करना होगा कि वे माओवाद का समूल नाश चाहते हैं या उसे सामाजिक-आर्थिक समस्या बताकर इन इलाकों में खर्च होने वाले विकास और सुरक्षा के बड़े बजट को लूट-लूटकर खाना चाहते हैं। एक बात पर और सोचने की जरूरत है कि देश के तमाम इलाके शोषण और भुखमरी के शिकार हैं किंतु माओवादी उन्हीं इलाकों में सक्रिय हैं, जहां वनोपज और खनिज है तथा शासकीय व कारपोरेट कंपनियां काम कर रही हैं। ऐसे में क्या लेवी का करोड़ों का खेल ही इनकी मूल प्रेरणा नहीं है।

अनसुनी की कानू सान्याल की बातः

आदिवासियों के वास्तविक शोषक, लेवी देकर आज माओवादियों की गोद में बैठ गए हैं। इसलिए तेंदुपत्ता का व्यापारी, नेता, अफसर, ठेकेदार सब माओवादियों के वर्गशत्रु कहां रहे। जंगल में मंगल हो गया है। ये इलाके लूट के इलाके हैं। इस बात का भी अध्ययन करना जरूरी है कि माओवादियों के आने के बाद आदिवासी कितना खुशहाल या बदहाल हुआ है। आज माओवादी आंदोलन एक अंधे मोड़ पर है जहां पर वह डकैती, हत्या, फिरौती और आतंक के एक मिलेजुले मार्ग पर खून-खराबे में रोमांटिक आंनद लेने वाले बुध्दिवादियों का लीलालोक बन चुका है, ऐसे में नक्सली नेता स्व. कानू सान्याल की याद बहुत स्वाभाविक और मार्मिक हो उठती है। कानू साफ कहते थे कि किसी व्यक्ति को खत्म करने से व्यवस्था नहीं बदलती। उनकी राय में भारत में जो सशस्त्र आंदोलन चल रहा है, उसमें एक तरह का रुमानीपन है। उनका कहना है कि रुमानीपन के कारण ही नौजवान इसमें आ रहे हैं लेकिन कुछ दिन में वे जंगल से बाहर आ जाते हैं।

गहरे द्वंद का शिकार है आंदोलनः

नक्सल आंदोलन भी इस वक्त एक गहरे द्वंद का शिकार है। 1967 के मई महीने में जब नक्सलवाड़ी जन-उभार खड़ा हुआ तबसे इस आंदोलन ने एक लंबा समय देखा है। टूटने-बिखरने, वार्ताएं करने, फिर जनयुद्ध में कूदने जाने की कवायदें एक लंबा इतिहास हैं। संकट यह है कि इस समस्या ने अब जो रूप धर लिया है वहां विचार की जगह सिर्फ आतंक,लूट और हत्याओं की ही जगह बची है। आतंक का राज फैलाकर आमजनता पर हिंसक कार्रवाई या व्यापारियों, ठेकेदारों, अधिकारियों, नेताओं से पैसों की वसूली यही नक्सलवाद का आज का चेहरा है। कड़े शब्दों में कहें तो यह आंदोलन पूरी तरह एक संगठित अपराधियों के एक गिरोह में बदल गया है। भारत जैसे महादेश में ऐसे हिंसक प्रयोग कैसे अपनी जगह बना पाएंगें यह सोचने का विषय हैं। नक्सलियों को यह मान लेना चाहिए कि भारत जैसे बड़े देश में सशस्त्र क्रांति के मंसूबे पूरे नहीं हो सकते। साथ में वर्तमान व्यवस्था में अचानक आम आदमी को न्याय और प्रशासन का संवेदनशील हो जाना भी संभव नहीं दिखता। जाहिर तौर पर किसी भी हिंसक आंदोलन की एक सीमा होती है। यही वह बिंदु है जहां नेतृत्व को यह सोचना होता है कि राजनैतिक सत्ता के हस्तक्षेप के बिना चीजें नहीं बदल सकतीं क्योंकि इतिहास की रचना एके-47 या दलम से नहीं होती उसकी कुंजी जिंदगी की जद्दोजहद में लगी आम जनता के पास होती है। कानू की बात आज के हो-हल्ले में अनसुनी भले कर दी गयी पर कानू दा कहीं न कहीं नक्सलियों के रास्ते से दुखी थे। वे भटके हुए आंदोलन का आखिरी प्रतीक थे किंतु उनके मन और कर्म में विकल्पों को लेकर लगातार एक कोशिश जारी रही। भाकपा(माले) के माध्यम से वे एक विकल्प देने की कोशिश कर रहे थे। कानू साफ कहते थे चारू मजूमदार से शुरू से उनकी असहमतियां सिर्फ निरर्थक हिंसा को लेकर ही थीं।

भोथरी बयानबाजी और भ्रम फैलाने की कवायदः

माओवादी आज की तारीख में सही मायने में भारतीय राजसत्ता के बातचीत के आमंत्रण को ठुकराना चाहते हैं। उसके लिए वे बहाने गढ़ते हैं। आज वे अपने हिंसाचार के माध्यम से कहीं न कहीं राज्य पर भारी दिख रहे हैं। इसलिए इस वक्त वे संवाद की हर कोशिश को घता बताएंगें। पिछले दिनों रायपुर में राष्ट्रपति ने भी माओवादियों से हथियार रखकर बातचीत करने की अपील की, किंतु माओवादी इस पर रजामंद नहीं हैं। इसलिए ऐसे बयानों के माध्यम से वे भ्रम फैलाने के प्रयास कर रहे हैं। आज अगर राज्य उन पर भारी पड़े तो वे बातचीत के लिए तैयार हो जाएंगें। एक छापामार लड़ाई में उनके यही तरीके हम पर भारी पड़ रहे हैं। आंध्र प्रदेश में यह प्रयोग कई बार देखा गया। जब उन पर पुलिस भारी पड़ी तो वे वार्ता की मेज पर आए या युद्ध विराम कर दिया। इस बीच फिर तैयारियां पुख्ता कीं और फिर हिंसा फैलाने में जुट गए। कुल मिलाकर माओवादियों का ताजा बयान एक भ्रम सृजन और अखबारी सुर्खियां बटोरने से ज्यादा कुछ नहीं है।