मंगलवार, 1 फ़रवरी 2011

जब कोई किसान आत्महत्या करता है

अन्नदाता से को इस जाल से निकालने की जिम्मेदारी सत्ता और समाज दोनों की

- संजय द्विवेदी

यह सप्ताह दुखी कर देने वाली खबरों से भरा पड़ा है। मध्यप्रदेश में किसानों की आत्महत्याओं का सिलसिला चल रहा है। हर दिन एक न किसान की आत्महत्या की खबरों ने मन को कसैला कर दिया है। कर्ज के बोझ तले दबे किसानों की आत्महत्याओं की खबरें बताती हैं कि हालात किस तरह बिगड़े हुए हैं। ऐसे कठिन समय में किसानों को संबल देना समाज और सरकार दोनों की जिम्मेदारी है। क्योंकि यह चलन एक-दूसरे को देखकर जोर पकड़ सकता है। जिंदगी में मुसीबतें आती हैं किंतु उससे लड़ने का हौसला खत्म हो जाए तो क्या बचता है। जाहिर हैं हमें यहीं चोट करनी चाहिए कि लोगों का हौसला न टूटे वरना एक समय विदर्भ में जो हालात बने थे वह चलन यहां शुरू हो सकता है। ऐसे में सरकारी तंत्र को ज्यादा संवेदना दिखाने की जरूरत है, उसे यह प्रदर्शित करना होगा कि वह किसानों के दर्द में शामिल है। कर्ज लेने और न चुका पाने का जो भंवर हमने शुरू किया है, उसकी परिणति तो यही होनी थी।

भारतीय खेती का चेहरा, चाल और चरित्र सब बदल रहा है। खेती अपने परंपरागत तरीकों से हट रही है और नए रूप ले रही है। बैलों की जगह टैक्टर, साइकिल की जगह मोटरसाइकिलों का आना, दरवाजे पर चार चक्के की गाड़ियों की बनती जगह यूं ही नहीं थी। इसके फलित भी सामने आने थे। निजी हाथों की जगह जब मशीनें ले रही थीं। बैलों की जगह जब दरवाजे पर टैक्टर बांधे जा रहे थे तो यह खतरा आसन्न था ही। गांव भी आज सामूहिक सामाजिक शक्ति का केंद्र न रहकर शहरी लोगों, बैंकों और सरकारों की तरफ देखने वाले रह गए। इस खत्म होते स्वालंबन ने सारे हालात बिगाड़े हैं। आज सरकारी तंत्र के यह गंभीर चिंता है कि इतनी सारी किसान समर्थक योजनाओं के बावजूद क्यों किसान आत्महत्या के लिए मजबूर हैं। जाहिर तौर पर इसके पीछे सरकार, उसके तंत्र और बाजार की शक्तियों पर किसानों की निर्भरता जिम्मेदार है। किसान इस जाल में लगातार फंस रहे हैं और कर्ज का बोझ लगातार बढ़ रहा है। बाजार की नीतियों के चलते उन्हें सही बीज, खाद कीटनाशक सब गलत तरीके से और घटिया मिलते हैं। जाहिर तौर पर इसने भी फसलों के उत्पादन पर विपरीत प्रभाव डाला है। इसके चलते आज खेती हानि का व्यवसाय बन गयी है। अन्नदाता खुद एक कर्ज के चक्र में फंस जाता है। मौसम की मार अलग है। सिंचाई सुविधाओं के सवाल तो जुड़े ही हैं। किसान के लिए खेती आज लाभ का धंधा नहीं रही। वह एक ऐसा कुचक्र बन रही है जिसमें फंसकर वह कहीं का नहीं रह जा रहा है। उसके सामने परिवार को पालने से लेकर आज के समय की तमाम चुनौतियों से जूझने और संसाधन जुटाने का साहस नहीं है। वह अपने परिवार की जरूरतों को पूरा नहीं कर पा रहा है। यह अलग व्याख्या का विषय है कि जरूरत किस तरह नए संदर्भ में बहुत बढ़ और बदल गयी हैं।

कर्ज में डूबा किसान आज मौसम की मार, खराब खाद और बीज जैसी चुनौतियों के कारण अगर हताश और निराश है तो उसे इस हताशा से निकालने की जिम्मेदारी किसकी है। सरकार, उसका तंत्र, समाज और मीडिया सबको एक वातावरण बनाना होगा कि समाज में किसानों के प्रति आदर और संवेदना है। वे मौत को गले न लगाएं लोग उनके साथ हैं। शायद इससे निराशा का भाव कम किया जा सके। मध्यप्रदेश मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने हालांकि तुरंत इस विषय में धोषणा करते हुए कहा कि किसानों को फसल का पूरा मुआवजा मिलेगा और किसानों को आठ घंटे बिजली भी मिलने लगेगी। निश्चय ही मुख्यमंत्री की यह धोषणा कि किसानों को उनके हुए नुकसान के बराबर मुआवजा मिलेगा एक संवेदशील धोषणा है। सरकार को भी इन घटनाओं के अन्य कारण तलाशने में समय गंवाने के बजाए किसानों को आश्वस्त करना चाहिए। अपने अमले को भी यह ताकीद करनी चाहिए कि वे किसानों के साथ संवेदना से पेश आएं। मूल चिंता यह है कि किसानों की स्थिति को देखते हुए जिस तरह बैंक कर्ज बांट रहे हैं और किसानों को लुभा रहे हैं वह कहीं न कहीं किसानों के लिए घातक साबित हो रहा है। कर्ज लेने से किसान उसे समय पर चुका न पाने कारण अनेक प्रकार से प्रताड़ित हो रहा है और उसके चलते उस पर दबाव बन रहा है। सरकार में भी इस बात को लेकर चिंता है कि कैसे हालात संभाले जाएं। सरकार के तंत्र को सिर्फ संवेदनशीलता के बल पर इस विषय से जूझना चाहिए। मुख्यमंत्री की छवि एक किसान समर्थक नेता की है। वे गांव से आने के नाते किसानों की समस्याओं को गंभीरता से समझते हैं इसलिए उनसे उम्मीदें भी बहुत बढ़ जाती हैं। एक बड़ा प्रदेश होने के नाते किसानों की समस्याओं भी बिखरी हुयी हैं। उम्मीद की जानी चाहिए अन्नदाताओं के मनोबल बनाने के लिए सरकार कुछ ऐसे कदम उठाएगी जिससे वे आत्महत्या जैसी कार्रवाई करने के लिए विवश न हों।

भारतीय खेती पर बाजार का यह हमला असाधारण नहीं है। बैंक से लेकर साहूकार ही नहीं, गांवों में बिचौलियों की आमद-रफ्त ने उसे कहीं का नहीं छोड़ा है। ये सब मिलकर गांव में एक ऐसा लूट तंत्र बनाते हैं, जिससे बदहाली बढ़ रही है। उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में गन्ना किसानों को सालोंसाल भुगतान नहीं होता। व्यावसायिक लाबियों के दबाव में हमारे केंद्रीय कृषि मंत्री किस तरह की बयानबाजी कर रहे हैं, यह सारे देश ने देखा है। एक तरफ बर्बाद फसल, दूसरी ओर बढ़ती महंगाई आखिर आम आदमी के लिए इस गणतंत्र में क्या जगह है ? जो हालात हैं वह एक संवेदनशील समाज को झकझोरकर जगाने के लिए पर्याप्त हैं किंतु फिर भी हमारे सत्ताधीशों की कुंभकर्णी निद्रा जारी है। ऐसे में क्या हम दिल पर हाथ रखकर यह दावा कर सकते हैं कि हम एक लोककल्याणकारी राज्य की शर्तों को पूरा कर रहे हैं।

मध्यप्रदेश की नौकरशाही किसानों की आत्महत्याओं को एक अलग रंग देने में लगी है। कर्ज के बोझ से दबे किसानों की आत्महत्याओं के नए कारण रच या गढ़ कर हमारी नौकरशाही क्या इस पाप से मुक्त हो जाएगी,यह एक बड़ा सवाल है। हां, सत्ता में बैठे नेताओं को गुमराह जरूर कर सकती है। किसानों की आह लेकर कोई भी राजसत्ता लंबे समय तक सिंहासन पर नहीं रह सकती है। अगर किसानों की आत्मह्त्याओं को रोकने के लिए सरकार, प्रशासन और समाज तीनों मिलकर आगे नहीं आते, उन्हें संबल नहीं देते तो इस पाप में हम सब भागीदार माने जाएंगें। करोंड़ों का घोटाला करके, करोड़ों की सार्वजनिक संपत्ति को पी-पचा कर बैठे राजनेताओं व नौकरशाहों, बैकों का करोंड़ों का कर्ज दबाकर बैठे व्यापारियों से ये किसान अच्छे हैं जिनकी आंखों में पानी बाकी है कि कुछ लाख के कर्ज की शरम से बचने के लिए वे आत्महत्या जैसे कदम उठा लेते हैं। ऐसे नैतिक समाज (किसानों) को हमें बचाना चाहिए ताकि वे हमारे समाज को जीवंत और प्राणवान रख सकें। मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने समय रहते सक्रियता दिखाकर इस हालात को संभालने की दिशा में प्रयास शुरू किए हैं। उन्होंने पीड़ित किसानों और प्रधानमंत्री से मुलाकात कर देश का ध्यान इस ओर खींचा है। केंद्र सरकार को भी इस संकट को ध्यान में रखते हुए राज्य को अपेक्षित मदद देनी चाहिए। समाज जीवन के अन्य अंगों को भी इस विपदा से उबारने के लिए अन्नदाता का संबल बनना चाहिए, क्योंकि यही एक संवेदनशील समाज की पहचान है।

2 टिप्‍पणियां:

  1. हमारे अन्‍नदाताओं को आत्‍महत्‍या करनी पड़े इससे अधिक इस देश का दुर्भाग्‍य और क्‍या हो सकता है?

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  2. इसके लिए यह संघ की कठपुतली सरकार ही ज़िम्मेदार है सर जिसका आम लोगों के पीड़ा से कोई सरोकार नहीं है.ये लोग मात्र तानाशाही जानते हैं और पाकिस्तान की तरह वादाखिलाफी. ये जिस थाली में खाते हैं उसी में छेद करते हैं

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