शुक्रवार, 24 दिसंबर 2010

विनायक सेन, अरूंधती राय और माओवाद का सच!


दिल से पूछिए कि क्या माओवादियों की लड़ाई हमारे जनतंत्र के खिलाफ नहीं है

-संजय द्विवेदी

नहीं, कोई ऐसा नहीं कर सकता कि वह डा. विनायक सेन और उनके साथियों को रायपुर की एक अदालत द्वारा आजीवन कारावास दिए जाने पर खुशी मनाए। वैचारिक विरोधों की भी अपनी सीमाएं हैं। इसके अलावा देश में अभी और भी अदालतें हैं, मेरा भरोसा है कि डा. सेन अगर निरपराध होंगें तो उन्हें ऊपरी अदालतें दोषमुक्त कर देंगीं। किंतु मैं स्वामी अग्निवेश की तरह अदालत के फैसले को अपमानित करने वाली प्रतिक्रिया नहीं कर सकता। देश का एक जिम्मेदार नागरिक होने के नाते हमें अदालत और उसकी प्रक्रिया में भरोसा करना चाहिए, क्योंकि हमारा जनतंत्र हमें एक ऐसा वातावरण देता हैं, जहां आप व्यवस्था से लड़ सकते हैं। स्वामी अग्निवेश कहते हैं इस फैसले ने न्यायपालिका को एक मजाक बना दिया है। आप याद करें जब सुप्रीम कोर्ट ने डा. विनायक सेन को जमानत पर छोड़ा था तो इसे एक विजय के रूप में निरूपित किया गया था। अगर वह राज्य की हार थी तो यह भी डा. सेन की जीत नहीं है। हमें अपनी अदालतों और अपने तंत्र पर भरोसा तो करना ही होगा। आखिर क्या अदालतें हवा में फैसले करती हैं ? क्या इतने ताकतवर लोगों के खिलाफ सबूत गढ़े जा सकते हैं ? ये सारे सुविधा के सिद्धांत हैं कि फैसला आपके हक में हो तो गुडी-गुडी और न हो तो अदालतें भरोसे के काबिल नहीं हैं। भारतीय संविधान, जनतंत्र और अदालतों को न मानने वाले विचार भी यहां राहत की उम्मीद करते हैं, दरअसल यही लोकतंत्र का सौंदर्य है। यह लोकतंत्र का ही सौन्दर्य है कि रात-दिन देश तोड़ने के प्रयासों में लगी ताकतें भी हिंदुस्तान के तमाम हिस्सों में अपनी बात कहते हुए धूम रही हैं और देश का मीडिया का भी उनके विचारों को प्रकाशित कर रहा है।

जनतंत्र के खिलाफ है यह जंगः

माओवाद को जानने वाले जानते हैं कि यह आखिर लड़ाई किस लिए है। इस बात को माओवादी भी नहीं छिपाते कि आखिर वे किसके लिए और किसके खिलाफ लड़ रहे हैं। बहुत साफ है कि उनकी लड़ाई हमारे लोकतंत्र के खिलाफ है और 2050 तक भारतीय राजसत्ता पर कब्जा करना उनका घोषित लक्ष्य है। यह बात सारा देश समझता है किंतु हमारे मासूम बुद्धिवादी नहीं समझते। उन्हें शब्दजाल बिछाने आते है। वे माओवादी आतंक को जनमुक्ति और जनयुद्घ जैसे खूबसूरत नाम देते हैं और चाहते हैं कि माओवादियों के पाप इस शब्दावरण में छिप जाएं। झूठ, फरेब और ऐसी बातें फैलाना जिससे नक्सलवाद के प्रति मन में सम्मान का भाव का आए यही माओवादी समर्थक विचारकों का लक्ष्य है। उसके लिए उन्होंने तमाम जनसंगठन बना रख हैं, वे कुछ भी अच्छा नहीं करते ऐसा कहना कठिन है। किंतु वे माओवादियों के प्रति सहानुभूति रखते हैं और उन्हें महिमामंडित करने का कोई अवसर नहीं चूकते इसमें दो राय नहीं हैं।

देशतोड़कों की एकताः

देश को तोड़ने वालों की एकता ऐसी कि अरूंधती राय, वरवर राय, अली शाह गिलानी को एक मंच पर आने में संकोच नहीं हैं। आखिर कोई भी राज्य किसी को कितनी छूट दे सकता है। किंतु राज्य ने छूट दी और दिल्ली में इनकी देशद्रोही एकजुटता के खिलाफ केंद्र सरकार खामोश रही। यह लोकतंत्र ही है कि ऐसी बेहूदिगियां करते हुए आप इतरा सकते हैं। नक्सलवाद को जायज ठहराते बुद्धिजीवियों ने किस तरह मीडिया और मंचों का इस्तेमाल किया है इसे देखना है तो अरूंधती राय परिधटना को समझने की जरूरत है। यह सही मायने में मीडिया का ऐसा इस्तेमाल है जिसे राजनेता और प्रोपेगेंडा की राजनीति करने वाले अक्सर इस्तेमाल करते हैं। आप जो कहें उसे उसी रूप में छापना और दिखाना मीडिया की जिम्मेदारी है किंतु कुछ दिन बाद जब आप अपने कहे की अनोखी व्याख्याएं करते हैं तो मीडिया क्या कर सकता है। अरूंधती राय एक बड़ी लेखिका हैं उनके पास शब्दजाल हैं। हर कहे गए वाक्य की नितांत उलझी हुयी व्याख्याएं हैं। जैसे 76 सीआरपीएफ जवानों की मौत पर वे दंतेवाड़ा के लोगों को सलामभेजती हैं। आखिर यह सलाम किसके लिए है मारने वालों के लिए या मरनेवालों के लिए। पिछले दिनों अरूधंती ने अपने एक लेख में लिखा हैः मैंने साफ कर दिया था कि सीआरपीएफ के जवानों की मौत को मैं एक त्रासदी के रूप में देखती हूं और मैं मानती हूं कि वे गरीबों के खिलाफ अमीरों की लड़ाई में सिर्फ मोहरा हैं। मैंने मुंबई की बैठक में कहा था कि जैसे-जैसे यह संघर्ष आगे बढ़ रहा है, दोनों ओर से की जाने वाली हिंसा से कोई भी नैतिक संदेश निकालना असंभव सा हो गया है। मैंने साफ कर दिया था कि मैं वहां न तो सरकार और न ही माओवादियों द्वारा निर्दोष लोगों की हत्या का बचाव करने के लिए आई हूं।
ऐसी बौद्धिक चालाकियां किसी हिंसक अभियान के लिए कैसी मददगार होती हैं। इसे वे बेहतर समझते हैं जो शब्दों से खेलते हैं। आज पूरे देश में इन्हीं तथाकथित बुद्धिजीवियों ने ऐसा भ्रम पैदा किया है कि जैसे नक्सली कोई महान काम कर रहे हों।

नक्सली हिंसा, हिंसा न भवतिः

ये तो वैसे ही है जैसे नक्सली हिंसा हिंसा न भवति। कभी हमारे देश में कहा जाता था वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति। सरकार ने एसपीओ बनाए, उन्हें हथियार दिए इसके खिलाफ गले फाड़े गए, लेख लिखे गए। कहा गया सरकार सीधे-साधे आदिवासियों का सैन्यीकरण कर रही। यही काम नक्सली कर रहे हैं, वे बच्चों के हाथ में हथियार दे रहे तो यही तर्क कहां चला जाता है। अरूंधती राय के आउटलुक में छपे लेख को पढ़िए और बताइए कि वे किसके साथ हैं। वे किसे गुमराह कर रही हैं। अरूंधती इसी लेख में लिखती हैं -क्या यह ऑपरेशन ग्रीनहंट का शहरी अवतार है, जिसमें भारत की प्रमुख समाचार एजेंसी उन लोगों के खिलाफ मामले बनाने में सरकार की मदद करती है जिनके खिलाफ कोई सबूत नहीं होते? क्या वह हमारे जैसे कुछ लोगों को वहशी भीड़ के सुपुर्द कर देना चाहती है, ताकि हमें मारने या गिरफ्तार करने का कलंक सरकार के सिर पर न आए।या फिर यह समाज में ध्रुवीकरण पैदा करने की साजिश है कि यदि आप हमारेसाथ नहीं हैं, तो माओवादी हैं। आखिर अरूंधती यह करूणा भरे बयान क्यों जारी कर रही हैं। उन्हें किससे खतरा है। मुक्तिबोध ने भी लिखा है अभिव्यक्ति के खतरे तो उठाने ही होंगें। महान लेखिका अगर सच लिख और कह रही हैं तो उन्हें भयभीत होने की जरूरत नहीं हैं। नक्सलवाद के खिलाफ लिख रहे लोगों को भी यह खतरा हो सकता है। सो खतरे तो दोनों ओर से हैं। नक्सलवाद के खिलाफ लड़ रहे लोग अपनी जान गवां रहे हैं, खतरा उन्हें ज्यादा है। भारतीय सरकार जिनके हाथ अफजल गुरू और कसाब को भी फांसी देते हुए कांप रहे हैं वो अरूंधती राय या उनके समविचारी लोगों का क्या दमन करेंगी। हाल यह है कि नक्सलवाद के दमन के नाम पर आम आदिवासी तो जेल भेज दिया जाता है पर असली नक्सली को दबोचने की हिम्मत हममें कहां है। इसलिए अगर आप दिल से माओवादी हैं तो निश्चिंत रहिए आप पर कोई हाथ डालने की हिम्मत कहां करेगा। हमारी अब तक की अर्जित व्यवस्था में निर्दोष ही शिकार होते रहे हैं।

सदके इन मासूम तर्कों केः

अरूंधती इसी लेख में लिख रही हैं- “26 जून को आपातकाल की 35वीं सालगिरह है। भारत के लोगों को शायद अब यह घोषणा कर ही देनी चाहिए कि देश आपातकाल की स्थिति में है (क्योंकि सरकार तो ऐसा करने से रही)। इस बार सेंसरशिप ही इकलौती दिक्कत नहीं है। खबरों का लिखा जाना उससे कहीं ज्यादा गंभीर समस्या है।क्या भारत मे वास्तव में आपातकाल है, यदि आपातकाल के हालात हैं तो क्या अरूंधती राय आउटलुक जैसी महत्वपूर्ण पत्रिका में अपने इतने महान विचार लिखने के बाद मुंबई में हिंसा का समर्थन और गांधीवाद को खारिज कर पातीं। मीडिया को निशाना बनाना एक आसान शौक है क्योंकि मीडिया भी इस खेल में शामिल है। यह जाने बिना कि किस विचार को प्रकाशित करना, किसे नहीं, मीडिया उसे स्थान दे रहा है। यह लोकतंत्र का ही सौंदर्य है कि आप लोकतंत्र विरोधी अभियान भी इस व्यवस्था में चला सकते हैं। नक्सलियों के प्रति सहानुभूति रखते हुए नक्सली आंदोलन के महान जनयुद्ध पर पन्ने काले कर सकते हैं। मीडिया का विवेकहीनता और प्रचारप्रियता का इस्तेमाल करके ही अरूंधती राय जैसे लोग नायक बने हैं अब वही मीडिया उन्हें बुरा लग रहा है। अपने कहे पर संयम न हो तो मीडिया का इस्तेमाल करना सीखना चाहिए।
अरूंधती कह रही हैं कि मैंने कहा था कि जमीन की कॉरपोरेट लूट के खिलाफ लोगों का संघर्ष कई विचारधाराओं से संचालित आंदोलनों से बना है, जिनमें माओवादी सबसे ज्यादा मिलिटेंट हैं। मैंने कहा था कि सरकार हर किस्म के प्रतिरोध आंदोलन को, हर आंदोलनकारी को माओवादीकरार दे रही है ताकि उनसे दमनकारी तरीकों से निपटने को वैधता मिल सके।

कारपोरेट लूट पर पलता माओवादः

अरूंधती के मुताबिक माओवादी कारपोरेट लूट के खिलाफ काम कर रहे हैं। अरूंधती जी पता कीजिए नक्सली कारपोरेट लाबी की लेवी पर ही गुजर-बसर कर रहे हैं। नक्सल इलाकों में आप अक्सर जाती हैं पर माओवादियों से ही मिलती हैं कभी वहां काम करने वाले तेंदुपत्ता ठेकेदारों, व्यापारियों, सड़क निर्माण से जुड़े ठेकेदारों, नेताओं और अधिकारियों से मिलिए- वे सब नक्सलियों को लेवी देते हुए चाहे जितना भी खाओ स्वाद से पचाओ के मंत्र पर काम कर रहे हैं। आदिवासियों के नाम पर लड़ी जा रही इस जंग में वे केवल मोहरा हैं। आप जैसे महान लेखकों की संवेदनाएं जाने कहां गुम हो जाती हैं जब ज्ञानेश्वरी एक्सप्रेस पर लाल आतंक के चलते सैकड़ों परिवार तबाह हो जाते हैं। राज्य की हिंसा का मंत्रजाप छोड़कर अपने मिलिंटेंट साथियो को समझाइए कि वे कुछ ऐसे काम भी करें जिससे जनता को राहत मिले। स्कूल में टीचर को पढ़ाने के लिए विवश करें न कि उसे दो हजार की लेवी लेकर मौज के लिए छोड़ दें। राशन दुकान की मानिटरिंग करें कि छत्तीसगढ में पहले पचीस पैसे किलो में अब फ्री में मिलने वाला नमक आदिवासियों को मिल रहा है या नहीं। वे इस बात की मानिटरिंग करें कि एक रूपए में मिलने वाला उनका चावल उन्हें मिल रहा है या उसे व्यापारी ब्लैक में बेच खा रहे हैं। किंतु वे ऐसा क्यों करेंगें। आदिवासियों के वास्तविक शोषक, लेवी देकर आज नक्सलियों की गोद में बैठ गए हैं। इसलिए तेंदुपत्ता का व्यापारी, नेता, अफसर, ठेकेदार सब नक्सलियों के वर्गशत्रु कहां रहे। जंगल में मंगल हो गया है। ये इलाके लूट के इलाके हैं। आप इस बात का भी अध्ययन करें नक्सलियों के आने के बाद आदिवासी कितना खुशहाल या बदहाल हुआ है। आप नक्सलियों के शिविरों पर मुग्ध हैं, कभी सलवा जुडूम के शिविरों में भी जाइए। आपकी बात सुनी,बताई और छापी जाएगी। क्योंकि आप एक सेलिब्रिटी हैं। मीडिया आपके पीछे भागता है। पर इन इलाकों में जाते समय किसी खास रंग का चश्मा पहन कर न जाएं। खुले दिल से, मुक्त मन से, उसी आदिवासी की तरह निर्दोष बनकर जाइएगा जो इस जंग में हर तरफ से पिट रहा है।

परमपवित्र नहीं हैं सरकारें:

सरकारें परम पवित्र नहीं होतीं। किंतु लोकतंत्र के खिलाफ अगर कोई जंग चल रही है तो आप उसके साथ कैसे हो सकते हैं। जो हमारे संविधान, लोकतंत्र को खारिज तक 2050 तक माओ का राज लाना चाहते हैं तो हमारे बुद्धिजीवी उनके साथ क्यों खड़े हैं। हमें पता है कि साम्यवादी या माओवादी शासन में पहला शिकार कलम ही होती है। फिर भी ये लोग वहां क्या कर रहें हैं? जाहिर तौर ये बुद्धिजीवी नहीं, सामाजिक कार्यकर्ता नहीं, ये काडर हैं जो जानते हैं कि वे क्या कर रहे हैं, फिर भी किए जा रहे हैं क्योंकि उनके निशाने पर भारतीय जनतंत्र है।

6 टिप्‍पणियां:

  1. Agnivesh to bhagwa chole me rakshas se bhi buri bhumika me hai, deshdroh karne jaisa hi apradh hai sabhya samaj ke beech rehkar shatruon ke samarthak taiyar karna

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  2. अरुंधती ने खुद मप्र में आदिवासियों से जमीन खरीदकर उस पर अपना बंगला बना लिया। जबकि नियमत: वह जमीन आदिवासियों से खरीदी ही नहीं जा सकती। दरअसल अरुंधती राय पैसा बनाने और थोथा ग्लैमर हासिल करने के लिए देशद्रोहियों का साथ देती है। उसे न तो आदिवासियों से प्रेम है, न ही नक्सलियों और माओवादियों से। मैं ऐसे बुद्धिजीवियों को बुद्धिजीवी ही नहीं मानता जो बिना देशद्रोहियों का साथ देने के लिए लामबंद हो जाते हैं। अग्निवेश हो, गिलानी हो, अरुंधती हो या और कोई किसी को भी उन निरीह लोगों की चिंता क्यों नहीं सताती जो नक्सलियों और माओवादियों की गोली और बमों का शिकार हो जाते हैं।
    आपने इनके समझ वाजिब सवाल खड़े किए हैं, लेकिन इनके कान पर जूं तक नहीं रेंगने वाली। इनके खिलाफ या तो सरकार को कड़े कदम लेने पड़ेंगे या फिर जनता को इनका बहिष्कार करना पडेगा।

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  3. आप सही कह रहे हैं कि यह सारा खेल भारत के लोकतंत्र को समाप्‍त करने के लिए है और इसे पुन: यूरोप की एक कॉलोनी बनाने का कार्य है।

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  4. नक्‍सलवाद। आखिर में खोना तो आम आदमी को ही है। विनायक सेन के लिए अभी हाईकोर्ट है, सुप्रीम कोर्ट है लेकिन आम आदमी जो जंगलों में रह रहा है, उसके लिए सिर्फ जन अदालत है जो नक्‍सली लगाते हैं और खल्‍लास। छत्‍तीसगढ के कई हिस्‍सों में नक्‍सली हर दिन किसी न किसी बेगुनाह को मौत का फरमान देते हैं पर इस पर कोई चर्चा नहीं, बडा मुददा हो गये विनायक सेन, अरूंधति राय। जिस दिन इस ''आम आदमी'' के बारे में सोचने की फुर्सत सरकार को मिल गई तो नक्‍सलवाद का खात्‍मा अपने आप हो जाएगा, लेकिन लगता है इसके लिए इंतजार लंबा होगा।
    संजय जी, आपकी बातें सच में विचार करने लायक है, आखिर लोकतंत्र का सवाल है।
    अतुल श्रीवास्‍तव
    atulshrivastavaa.blogspot.com

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  5. बहुत विशद विवेचन. जो भी प्रश्न उठाये हैं बहुत विचारणीय हैं और उन्हें हम अनदेखा नहीं कर सकते.

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  6. सटीक विवेचना की है माओवाद की. विदेशी पुरस्कारों और संस्थाओं से मिलने वाली मोटी तनख्वाहों पर पलने वाले यह तथाकथित बुद्दिजीवी वास्तव में भारतीयों की अंतिम उम्मीद यानि लोकतंत्र की भी हत्या कर देना चाहते हैं. मीडिया जो कर रहा है वह अनजाने में नहीं हो रहा है. इन बुद्धिजीवियों के सामान माओवादी कदर वहां भी घुसपैठ कर चूका है. आज अगर आम आदमी आवाज नहीं उठाएगा तो शायद बहुत देर हो जाएगी. यह सच है कि आज न्यायपालिका त्वरित और सटीक न्याय दे पाने में अक्षम साबित हो रही है परन्तु क्या हम उसे हटाकर माओवादियों कि जन अदालत के लिए तैयार हैं ????

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