शुक्रवार, 31 दिसंबर 2010

नववर्ष २०११ की बहुत-बहुत शुभकामनाएं

नया साल आप सभी दोस्तों के लिए शुभ एवं मंगलकारी हो। - संजय द्विवेदी

स्वागत-2011- यही है हमारे महाशक्ति बनने का दशक


सपनों को सच करने के लिए सिर्फ संकल्पशक्ति की जरूरत

-संजय द्विवेदी

पूर्व राष्ट्रपति डा. एपीजे अब्दुल कलाम ने जब देश को 2020 में महाशक्ति बन जाने का सपना दिखाया था, तो वे एक ऐसी हकीकत बयान कर रहे थे, जो जल्दी ही साकार होने वाली है। आजादी के 6 दशक से अधिक पूरे करने के बाद भारतीय लोकतंत्र एक ऐसे मुकाम पर है, जहाँ से उसे सिर्फ आगे ही जाना है। अपनी एकता, अखंडता और सांस्कृतिक व नैतिक मूल्यों के साथ पूरी हुई इन 6 दशकों की यात्रा ने पूरी दुनिया के मन में भारत के लिए एक आदर पैदा किया है। यही कारण है कि हमारे भारतवंशी आज दुनिया के हर देश में एक नई निगाह से देखे जा रहे हैं। उनकी प्रतिभा का आदर और मूल्य भी उन्हें मिल रहा है। अब जबकि हम फिर नए साल-2011 को अपनी बांहों में लेने को तैयार हैं तो हमें सोचना होगा कि आखिर हम उस सपने को कैसा पूरा कर सकते हैं जिसे पूरे करने के लिए सिर्फ नौ साल बचे हैं। यानि 2020 में भारत को महाशक्ति बनाने का सपना।

एक साल का वक्त बहुत कम होता है। किंतु वह उन सपनों की आगे बढ़ने का एक लंबा वक्त है क्योंकि 365 दिनों में आप इतने कदम तो चल ही सकते हैं। आजादी के लड़ाई के मूल्य आज भले थोड़ा धुंधले दिखते हों या राष्ट्रीय पर्व औपचारिकताओं में लिपटे हुए, लेकिन यह सच है कि देश की युवाशक्ति आज भी अपने राष्ट्र को उसी ज़ज्बे से प्यार करती है, जो सपना हमारे सेनानियों ने देखा था। आजादी की जंग में जिन नौजवानों ने अपना सर्वस्व निछावर किया, वही ललक और प्रेरणा आज भी भारत के उत्थान के लिए नई पीढ़ी में दिखती है। हमारे प्रशासनिक और राजनीतिक तंत्र में भले ही संवेदना घट चली हो, लेकिन आम आदमी आज भी बेहद ईमानदार और नैतिक है। वह सीधे रास्ते चलकर प्रगति की सीढ़ियाँ चढ़ना चाहता है। यदि ऐसा न होता तो विदेशों में जाकर भारत के युवा सफलताओं के इतिहास न लिख रहे होते। जो विदेशों में गए हैं, उनके सामने यदि अपने देश में ही विकास के समान अवसर उपलब्ध होते तो वे शायद अपनी मातृभूमि को छोड़ने के लिए प्रेरित न होते। बावजूद इसके विदेशों में जाकर भी उन्होंने अपनी प्रतिभा, मेहनत और ईमानदारी से भारत के लिए एक ब्रांड एंबेसेडर का काम किया है। यही कारण है कि साँप, सपेरों और साधुओं के रूप में पहचाने जाने वाले भारत की छवि आज एक ऐसे तेजी से प्रगति करते राष्ट्र के रूप में बनी है, जो तेजी से अपने को एक महाशक्ति में बदल रहा है। आर्थिक सुधारों की तीव्र गति ने भारत को दुनिया के सामने एक ऐसे चमकीले क्षेत्र के रूप में स्थापित कर दिया है, जहाँ व्यवसायिक विकास की भारी संभावनाएं देखी जा रही हैं। यह अकारण नहीं है कि तेजी के साथ भारत की तरफ विदेशी राष्ट्र आकर्षित हुए हैं। बाजारवाद के हो-हल्ले के बावजूद आम भारतीय की शैक्षिक, आर्थिक और सामाजिक स्थितियों में व्यापक परिवर्तन देखे जा रहे हैं। ये परिवर्तन आज भले ही मध्यवर्ग तक सीमित दिखते हों, इनका लाभ आने वाले समय में नीचे तक पहुँचेगा।

सपनों को सच करने की जिम्मेदारीः

भारी संख्या में युवा शक्तियों से सुसज्जित देश अपनी आंकाक्षाओं की पूर्ति के लिए अब किसी भी सीमा को तोड़ने को आतुर है। युवाशक्ति तेजी के साथ नए-नए विषयों पर काम कर रही है, जिसने हर क्षेत्र में एक ऐसी प्रयोगधर्मी और प्रगतिशील पीढ़ी खड़ी की है, जिस पर दुनिया विस्मित है। सूचना प्रौद्योगिकी, फिल्में, कृषि और अनुसंधान से जुड़े क्षेत्रों या विविध प्रदर्शन कलाएँ हर जगह भारतीय प्रतिभाएँ वैश्विक संदर्भ में अपनी जगह बना रही हैं। शायद यही कारण है कि भारत की तरफ देखने का दुनिया का नजरिया पिछले एक दशक में बहुत बदला है। ये चीजें अनायास और अचानक घट गईं हैं, ऐसा भी नहीं है। देश के नेतृत्व के साथ-साथ आम आदमी के अंदर पैदा हुए आत्मविश्वास ने विकास की गति बहुत बढ़ा दी है। भ्रष्टाचार और संवेदनहीनता की तमाम कहानियों के बीच भी विश्वास के बीज धीरे-धीरे एक वृक्ष का रूप ले रहे हैं।

कई स्तरों पर बंटे समाज में भाषा, जाति, धर्म और प्रांतवाद की तमाम दीवारें हैं। कई दीवारें ऐसी भी कि जिन्हें हमने खुद खड़ा किया है और हमारा बुरा सोचने वाली ताकतें उन्हें संबल दे रही हैं। राष्ट्रीय सुरक्षा के प्रश्न पर भी जब देश बँटा हुआ नज़र आता है, तो कई बार आम भारतीय का दुख बढ़ जाता है। घुसपैठ की समस्या भी एक ऐसी समस्या है जिससे लगातार नज़रअंदाज़ किया जा रहा है। किसी तरह भी वोट बैंक बनाने और सत्ता हासिल करने की होड ने तमाम मूल्यों को शीर्षासन करा दिया है। ऐसे में जनता के विश्वास की रक्षा कैसे की जा सकती है? आजादी के 60 साल के बाद लगभग वही सवाल आज भी खड़े हैं, जिनके चलते देश का बँटवारा हुआ और महात्मा गांधी जैसी विभूतियां भी इस बँटवारे को रोक नहीं पाईं। देश के अनेक हिस्सों में चल रहे अतिवादी आंदोलन, चाहे वे किसी नाम से भी चलाए जा रहे हों या किसी भी विचारधारा से प्रेरित हों। सबका उद्देश्य भारत की प्रगति के मार्ग में रोड़े अटकाना ही है। अनेक विकास परियोजनाओं के खिलाफ इनका हस्तक्षेप यह बताता है कि सारा कुछ बेहतर नहीं है। अपनी स्वभाविक प्रतिभा से नैसर्गिक विकास कर रहा यह देश आज भी एक भगीरथ की प्रतीक्षा में है, जो उसके सपनों में रंग भर सके। उन शिकायतों को हल कर सके, जो आम आदमी को परेशान और हलाकान करती रहती हैं। आजादी को सार्थक करने के लिए हमें साधन संपन्नों और हाशिये पर खड़े लोगों को एक तल पर देखना होगा। क्योंकि आजादी तभी सार्थक है, जब वह हिंदुस्तान के हर आदमी को समान विकास के अवसर उपलब्ध कराए। कानून की नजर में हर आदमी समान है, यह बात नारे में नहीं, व्यवहार में भी दिखनी चाहिए।

प्रजातंत्र को वास्तविक जनतंत्र में बदलने की जरूरतः

प्रजातंत्र के बारे में कहा जाता है कि वह सौ सालों में साकार होता है। भारत ने इस यात्रा की भी आधे से अधिक यात्रा पूरी कर ली है। बावजूद इसके हमें डा. राममनोहर लोहिया की यह बात ध्यान रखनी होगी कि लोकराज लोकलाज से चलता है।इसी के साथ याद आते हैं पं. दीनदयाल उपाध्याय जैसे लोग, जिन्होंने एकात्म मानववाद का दर्शन देकर भारतीय राजनीति को एक ऐसी दृष्टि दी है, जिसमें आम आदमी के लिए जगह है। यह दर्शन हमें दरिद्रनारायण की सेवा की मार्ग पर प्रशस्त करता है। महात्मा गांधी भी अंतिम व्यक्ति का विचार करते हुए उसके लिए इस तंत्र में जगह बनाने की बात करते हैं। हमें सोचना होगा कि आजादी के इन वर्षों में उस आखिरी आदमी के लिए हम कितनी जगह और कितनी संवेदना बना पाए हैं। प्रगति और विकास के सूचकांक तभी सार्थक हैं, जब वे आम आदमी के चेहरे पर मुस्कान लाने में समर्थ हों। क्या ऐसा कुछ बताने और कहने के लिए हमारे पास है? यदि नहीं...तो अभी भी समय है भारत को महाशक्ति बनाना है, तो वह हर भारतीय की भागीदारी से ही सच होने वाला सपना है। देश के तमाम वंचित लोगों को छोड़कर हम अपने सपनों को सच नहीं कर सकते। क्या हम इस जिम्मेदारी को उठाने के लिए तैयार हैं।

नए साल में तलाशिए सवालों के जवाबः

नया साल इन तमाम सवालों के जवाब खोजने की एक बड़ी जिम्मेदारी भी लेकर आया है। बीते साल में आतंकवाद, नक्सलवाद, क्षेत्रीयता की तमाम गंभीर चुनौतियों के सामने हमारा तंत्र बहुत बेबस दिखा। बावजूद इसके लोकतंत्र में जनता की आस्था बची और बनी हुयी है। हमारी एकता को तोड़ने और मन को तोड़ने के तमाम प्रयासों के बावजूद आम हिंदुस्तानी अपनी समूची निष्ठा से इस देश को एक देखना चाहता है। हमें नए साल-2011 में यह संकल्प लेना होगा कि हम लोकतंत्र में लोगों के भरोसे को जगा पाएं। उनकी उम्मीदों पर अवसाद की परतें न चढ़ने दें। नया साल सपनों में रंग भरने की हिम्मत, ताकत और जोश से भरा हो- आम हिंदुस्तानी तो इसी सपने को सच होते हुए देखना चाहता है। यह संयोग ही है कि नया साल और गणतंत्र दिवस हम एक ही महीने जनवरी में मनाते हैं। जाहिर तौर पर हर नए साल का मतलब कलैंडर का बदलना भर नहीं है वह उत्सव है संकल्प का, अपने गणतंत्र में तेज भरने का। आम आदमी में जो भरोसा टूटता दिखता है उसे जोड़ने का। गणतंत्र को तोड़ने या कमजोर करने में लगी ताकतों के मंसूबों पर पानी फेरने का। जनवरी का महीना इसीलिए बहुत खास है क्योंकि यह महीना देश की अस्मिता को पहली बार झकझोर कर जगाने वाले सन्यासी विवेकानंद की जन्मतिथि( 12 जनवरी) का महीना है। जिन्होंने पहली बार भारत के दर्शन को विश्वमंच पर मान्यता ही नहीं दिलायी हमारे दबे-कुचले आत्मविश्वास को जागृत किया। यह महीना है नेताजी सुभाष चंद्र बोस के जन्मदिन ( 23 जनवरी) का जिन्होंने विदेशी सत्ता के दांत खट्टे कर दिए और विदेशी भूमि पर भारतीयों के सम्मान की रक्षा के लिए अपनी सेना खड़ी की। जाहिर तौर पर यह महीना सही संकल्पों और महानायकों की याद का महीना है। इससे हमें प्रेरणा लेने और आगे बढ़ने की जरूरत है। नए साल का सूरज हमें एक नयी रोशनी दे रहा है उसका उजास हमें नई दृष्टि दे रहा है। क्या हम इस रोशनी से सबक लेकर, अपने महानायकों की याद को बचाने और देश को महाशक्ति बनाने के सपने के साथ खड़ा होने का हौसला दिखाएंगें? गणतंत्र जो घोटालों का गणतंत्र बन चुका है, अकेले स्पेक्ट्रम घोटाले ने हमारी सभी नैतिकताओं और जनतंत्र के सभी स्तंभों को हिलाकर रख दिया है। बीते साल की बुरी यादों से अलग अगर हम नए साल पर ऐसा कोई संकल्प ले पाते हैं जिससे हमारा जनतंत्र जीवंत हो तो यह बात भारत मां के माथे पर सौभाग्य का टीका साबित होगा।


बुधवार, 29 दिसंबर 2010

बात तो साफ हुई कि मीडिया देवता नहीं है !


-संजय द्विवेदी

यह अच्छा ही हुआ कि यह बात साफ हो गयी कि मीडिया देवता नहीं है। वह तमाम अन्य व्यवसायों की तरह ही उतना ही पवित्र व अपवित्र होने और हो सकने की संभावना से भरा है। 2010 का साल इसलिए हमें कई भ्रमों से निजात दिलाता है और यह आश्वासन भी देकर जा रहा है कि कम से कम अब मीडिया के बारे में आगे की बात होगी। यह बहस मिशन और प्रोफेशन से निकलकर बहुत आगे आ चुकी है।

इस मायने में 2010 एक मानक वर्ष है जहां मीडिया बहुत सारी बनी-बनाई मान्यताओं से आगे आकर खुद को एक अलग तरह से पारिभाषित कर रहा है। वह पत्रकारिता के मूल्यों, मानकों और परंपराओं का भंजन करके एक नई छवि गढ़ रहा है, जहां उससे बहुत नैतिक अपेक्षाएं नहीं पाली जा सकती हैं। कुछ अर्थों में अगर वह कोई सामाजिक काम गाहे-बगाहे कर भी गया तो वह कारपोरेट्स के सीएसआर (कारपोरेट सोशल रिस्पांस्बिलिटी) के शौक जैसा ही माना जाना चाहिए। मीडिया एक अलग चमकीली दुनिया है। जो इसी दशक का अविष्कार और अवतार है। उसकी जड़ें स्वतंत्रता आंदोलन के गर्भनाल में मत खोजिए, यह दरअसल बाजारवाद के नए अवतार का प्रवक्ता है। यह उत्तरबाजारवाद है। इसे मूल्यों, नैतिकताओं, परंपराओं की बेड़ियों में मत बांधिए। यह अश्वमेघ का धोड़ा है,जो दुनिया को जीतने के लिए निकला है। देश में इसकी जड़ें नहीं हैं। वह अब संचालित हो रहा है नई दुनिया के,नए मानकों से। इसलिए उसे पेडन्यूज के आरोपो से कोई उलझन, कोई हलचल नहीं है, वह सहज है। क्योंकि देने और लेने वालों दोनों के लक्ष्य इससे सध रहे हैं। लोकतंत्र की शुचिता की बात मत ही कीजिए। यह नया समय है,इसे समझिए। मीडिया अब अपने कथित ग्लैमर के पीछे भागना नहीं चाहता। वह लाभ देने वाला व्यवसाय बनना चाहता है। उसे प्रशस्तियां नहीं चाहिए, वह लोकतंत्र के तमाम खंभों की तरह सार्वजनिक या कारपोरेट लूट में बराबर का हिस्सेदार और पार्टनर बनने की योग्यता से युक्त है।

मीडिया का नया कुरूक्षेत्रः

मीडिया ने अपने कुरूक्षेत्र चुन लिए हैं। अब वह लोकतंत्र से, संवैधानिक संस्थाओं से, सरकार से टकराता है। उस पर सवाल उठाता है। उसे कारपोरेट से सवाल नहीं पूछने, उसे उन लोगों से सवाल नहीं पूछने जो मीडिया में बैठकर उसकी ताकत के व्यापारी बने हैं। वह सवाल खड़े कर रहा है बेचारे नेताओं पर,संसद पर जो हर पांच साल पर परीक्षा के लिए मजबूर हैं। वह मदद में खड़ा है उन लोगों के जो सार्वजनिक धन को निजी धन में बदलने की स्पर्धा में जुटे हैं। बस उसे अपना हिस्सा चाहिए। मीडिया अब इस बंदरबांट पर वाच डाग नहीं वह उसका पार्टनर है। उसने बिचौलिए की भूमिका से आगे बढ़कर नेतृत्व संभाल लिया है। उसे ड्राइविंग सीट चाहिए। अपने वैभव, पद और प्रभाव को बचाना है तो हमें भी साथ ले लो। यह चौथे खंभे की ताकत का विस्तार है। मीडिया ने तय किया है कि वह सिर्फ सरकारों का मानीटर है, उसकी संस्थाओं का वाच डाग है। आप इसे इस तरह से समझिए कि वह अपनी खबरों में भी अब कारपोरेट का संरक्षक है। उसके पास खबरें हैं पर किनकी सरकारी अस्पतालों की बदहाली की, वहां दम तोड़ते मरीजों की,क्योंकि निजी अस्पतालों में कुछ भी गड़ब़ड़ या अशुभ नहीं होता। याद करें कि बीएसएनएल और एमटीएनएल के खिलाफ खबरों को और यह भी बताएं कि क्या कभी आपने किसी निजी मोबाइल कंपनी के खिलाफ खबरें पढ़ी हैं। छपी भी तो इस अंदाज में कि एक निजी मोबाइल कंपनी ने ऐसा किया। शिक्षा के क्षेत्र में भी यही हाल है। सारे हुल्लड़-हंगामे सरकारी विश्वविद्यालयों, सरकारी कालेजों और सरकारी स्कूली में होते हैं- निजी स्कूल दूध के धुले हैं। निजी विश्वविद्यालयों में सारा कुछ बहुत न्यायसंगत है। यानि पूरा का पूरा तंत्र,मीडिया के साथ मिलकर अब हमारे जनतंत्र की नियामतों स्वास्थ्य, शिक्षा और सरकारी तंत्र को ध्वस्त करने पर आमादा है। साथ ही निजी तंत्र को मजबूत करने की सुनियोजित कोशिशें चल रही हैं। मीडिया इस तरह लोकतंत्र के प्रति, लोकतंत्र की संस्थाओं के प्रति अनास्था बढ़ाने में सहयोगी बन रहा है, क्योंकि उसके व्यावसायिक हित इसमें छिपे हैं। व्यवसाय के प्रति लालसा ने सारे मूल्यों को शीर्षासन करवा दिया है। मीडिया संस्थान,विचार के नकली आरोपण की कोशिशों में लगे हैं ।यह मामला सिर्फ चीजों को बेचने तक सीमित नहीं है वरन पूरे समाज के सोच को भी बदलने की सचेतन कोशिशें की जा रही हैं। शायद इसीलिए मीडिया की तरफ देखने का समाज का नजरिया इस साल में बदलता सा दिख रहा है।

यह नहीं हमारा मीडियाः

इस साल की सबसे बड़ी बात यह रही कि सूचनाओं ने, विचारों ने अपने नए मुकाम तलाश लिए हैं। अब आम जन और प्रतिरोध की ताकतें भी मानने लगी हैं मुख्यधारा का मीडिया उनकी उम्मीदों का मीडिया नहीं है। ब्लाग, इंटरनेट, ट्विटर और फेसबुक जैसी साइट्स के बहाने जनाकांक्षाओं का उबाल दिखता है। एक अनजानी सी वेबसाइट विकिलीक्स ने अमरीका जैसी राजसत्ता के समूचे इतिहास को एक नई नजर से देखने के लिए विवश कर दिया। जाहिर तौर पर सूचनाएं अब नए रास्तों की तलाश में हैं. इनके मूल में कहीं न कहीं परंपरागत संचार साधनों से उपजी निराशा भी है। शायद इसीलिए मुख्यधारा के अखबारों, चैनलों को भी सिटीजन जर्नलिज्म नाम की अवधारणा को स्वीकृति देनी पड़ी। यह समय एक ऐसा इतिहास रच रहा है जहां अब परंपरागत मूल्य, परंपरागत माध्यम, उनके तौर-तरीके हाशिए पर हैं। असांजे, नीरा राडिया, डाली बिंद्रा,, राखी सावंत, शशि थरूर, बाबा रामदेव, राजू श्रीवास्तव जैसे तमाम नायक हमें मीडिया के इसी नए पाठ ने दिए हैं। मीडिया के नए मंचों ने हमें तमाम तरह की परंपराओं से निजात दिलाई है। मिथकों को ध्वस्त कर दिया है। एक नई भाषा रची है। जिसे स्वीकृति भी मिल रही है। बिग बास, इमोशनल अत्याचार, और राखी का इंसाफ को याद कीजिए। जाहिर तौर पर यह समय मीडिया के पीछे मुड़कर देखने का समय नहीं है। यह समय विकृति को लोकस्वीकृति दिलाने का समय है। इसलिए मीडिया से बहुत अपेक्षाएं न पालिए। वह बाजार की बाधाएं हटाने में लगा है। तो आइए एक बार फिर से हम हमारे मीडिया के साथ नए साल के जश्न में शामिल हो जाएं।

शनिवार, 25 दिसंबर 2010

विनायक सेन, माओवाद और बेचारा जनतंत्र !


-संजय द्विवेदी

डा. विनायक सेन- एक मानवाधिकार कार्यकर्ता हैं, पढ़ाई से डाक्टर हैं, प्रख्यात श्रमिक नेता स्व.शंकरगुहा नियोगी के साथ मिलकर मजदूरों के बीच काम किया, गरीबों के डाक्टर हैं और चाहते हैं कि आम आदमी की जिंदगी से अंधेरा खत्म हो। ऐसे आदमी का माओवादियों से क्या रिश्ता हो सकता है ? लेकिन रायपुर की अदालत ने उन्हें राजद्रोह का आरोपी पाया है। आजीवन कारावास की सजा दी है। प्रथम दृष्ट्या यह एक ऐसा सच है जो हजम नहीं होता। रायपुर में रहते हुए मैंने उन्हें देखा है। उनके जीवन और जिंदगी को सादगी से जीने के तरीके पर मुग्ध रहा हूं। किंतु ऐसा व्यक्ति किस तरह समाज और व्यवस्था को बदलने के आंदोलन से जुड़कर कुछ ऐसे काम भी कर डालता है कि उसके काम देशद्रोह की परिधि में आ जाएं, मुझे चिंतित करते हैं। क्या हमारे लोकतंत्र की नाकामियां ही हमारे लोगों को माओवाद या विभिन्न देशतोड़क विचारों की ओर धकेल रही हैं? इस प्रश्न पर मैं उसी समय से सोच रहा हूं जब डा. विनायक सेन पर ऐसे आरोप लगे थे।

अदालत के फैसले पर हाय-तौबा क्यों-

अदालत, अदालत होती है और वह सबूतों की के आधार पर फैसले देती हैं। अदालत का फैसला जो है उससे साबित है कि डा. सेन के खिलाफ आरोप जो थे, वे आरोप सच पाए गए और सबूत उनके खिलाफ हैं। अभी कुछ समय पहले की बात है कि सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें इसी मामले पर जमानत दी थी। उस जमानत को एक बड़ी विजय के रूप में निरूपित किया गया था और तब हमारे कथित बुद्धिजीवियों ने अदालत की बलिहारी गायी थी। अब जब रायपुर की अदालत का फैसला सामने है तो स्वामी अग्निवेश से लेकर तमाम समाज सेवकों की भाषा सुनिए कि अदालतें भरोसे के काबिल नहीं रहीं और अदालतों से भरोसा उठ गया है और जाने क्या-क्या। ये बातें बताती हैं कि हम किस तरह के समाज में जी रहे हैं। जहां हम अपनी संवैधानिक संस्थाओं को सम्मान देना तो दूर उनके प्रति अविश्वास पैदा कर न्याय की बात करते हैं। निशाना यहां तक कि जनतंत्र भी हमें बेमानी लगने लगता है और हम अपने न्यायपूर्ण राज्य का स्वर्ग माओवाद में देखने लगते हैं। देश में तमाम ऐसी ताकतें, जिनका इस देश के गणतंत्र में भरोसा नहीं है अपने निजी स्वर्ग रचना चाहती हैं। उनकी जंग जनतंत्र को असली जनतंत्र में बदलने, उसे सार्थक बनाने की नहीं हैं। उनकी जंग तो इस देश के भूगोल को तितर-बितर कर देने के लिए है। वे भारत को सांस्कृतिक इकाई के रूप में स्वीकार नहीं करते हैं। शायद इसी वैचारिक एकता के नाते अलग काश्मीर का ख्वाब देखने वाले अलीशाह गिलानी, माओ का राज लाने में लगे कवि बरवर राव और देश को टुकड़ों का बांटने की स्वप्नदृष्टा अरूंघती राय, खालिस्तान के समर्थक नेता एक मंच पर आने में संकोच नहीं करते। यह आश्चर्यजनक है इन सबके ख्वाब और मंजिलें अलग-अलग हैं पर मंच एक हैं और मिशन एक है- भारत को कमजोर करना। यह अकारण नहीं है मीडिया की खबरें हमें बताती हैं कि जब छत्तीसगढ़ में माओवादियों की एक महत्वपूर्ण बैठक हुयी तो उसमें लश्करे तैयबा के दो प्रतिनिधि भी वहां पहुंचे।

उनकी लड़ाई तो देश के गणतंत्र के खिलाफ है-

आप इस सचों पर पर्दा डाल सकते हैं। देश के भावी प्रधानमंत्री की तरह सोच सकते हैं कि असली खतरा लश्करे तैयबा से नहीं राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से है। चीजों को अतिसरलीकृत करके देखने का अभियान जो हमारी राजनीति ने शुरू किया है ,उसका अंत नहीं है। माओवादियों के प्रति सहानूभूति रखने वाली लेखिका अगर उन्हें हथियारबंद गांधीवादी कह रही हैं तो हम आप इसे सुनने के लिए मजबूर हैं। क्योंकि यह भारतीय लोकतंत्र ही है, जो आपको लोकतंत्र के खिलाफ भी आवाज उठाने की आजादी देता है। यह लोकतंत्र का सौन्दर्य भी है। हमारी व्यवस्था जैसी भी है किंतु उसे लांछित कर आप जो व्यवस्थाएं लाना चाहते हैं क्या वे न्यायपूर्ण हैं? इस पर भी विचार करना चाहिए। जिस तरह से विचारों की तानाशाही चलाने का एक विचार माओवाद या माक्सर्वाद है क्या वह किसी घटिया से लोकतंत्र का भी विकल्प हो सकता है? पूरी इस्लामिक पट्टी में भारत के समानांतर कोई लोकतंत्र खोजकर बताइए ? क्या कारण है अलग- अलग विचारों के लोग भारत के गणतंत्र या भारतीय राज्य के खिलाफ एक हो जाते हैं। उनकी लड़ाई दरअसल इस देश की एकता और अखंडता से है।

मोहरे और नारों के लिए गरीबों की बात करना एक अलग बात है किंतु जब काश्मीर के आतंकवादियों- पत्थर बाजों, मणिपुर के मुइया और माओवादी आतंकवादियों के सर्मथक एक साथ खड़े नजर आते हैं तो बातें बहुत साफ हो जाती हैं। इसे तर्क से खारिज नहीं किया जा सकता कि घोटालेबाज धूम रहे हैं और विनायक सेन को सजा हो जाती है। धोटालेबाजों को भी सजा होनी चाहिए, वे भी जेल में होने चाहिए। किसी से तुलना करके किसी का अपराध कम नहीं हो जाता। अरूंधती की गलतबयानी और देशद्रोही विचारों के खिलाफ तो केंद्र सरकार मामला दर्ज करने के पीछे हट गयी तो क्या उससे अरूंधती का पाप कम हो गया। संसद पर हमले के आरोपी को सजा देने में भारतीय राज्य के हाथ कांप रहे हैं तो क्या उससे उसका पाप कम हो गया। यह हमारे तंत्र की कमजोरियां हैं कि यहां निरपराध लोग मारे जाते हैं, और अपराधी संसद तक पहुंच जाते हैं। किंतु इन कमजोरियों से सच और झूठ का अंतर खत्म नहीं हो जाता। जनसंगठन बना कर नक्सलियों के प्रति सहानुभूति के शब्दजाल रचना, कूटरचना करना, भारतीय राज्य के खिलाफ वातावरण बनाना, विदेशी पैसों के बल पर देश को तोड़ने का षडयंत्र करना ऐसे बहुत से काम हैं जो हो रहे हैं। हमें पता है वे कौन से लोग हैं किंतु हमारे जनतंत्र की खूबियां हैं कि वह तमाम सवालों पर अन्यान्न कारणों से खामोशी ओढ़ लेता है। वोटबैंक की राजनीति ने हमारे जनतंत्र को सही मायने में कायर और निकम्मा बना दिया है। फैसले लेने में हमारे हाथ कांपते हैं। देशद्रोही यहां शान से देशतोड़क बयान देते हुए घूम सकते हैं। माओ के राज के स्वप्नदृष्टा जरा माओ के राज में ऐसा करके दिखाएं। माओ, स्टालिन को भूल जाइए ध्येन आन-मन चौक को याद कीजिए।

विचारों की तानाशाही भी खतरनाकः

सांप्रदायिकता और आतंकवाद के नाम पर भयभीत हम लोगों को यह भी ध्यान रखना चाहिए कि इस धरती पर ऐसे हिंसक विचार भी हैं- जिन्होंने अपनी विचारधारा के लिए लाखों लोगों को मौत के घाट उतारा है। ये हिंसक विचारों के पोषक ही भारतीय जनतंत्र की सदाशयता पर सवाल खड़े कर रहे हैं। आप याद करें फैसले पक्ष में हों तो न्यायपालिका की जय हो , फैसले खिलाफ जाएं तो न्यायपालिका की ऐसी की तैसी। इसे आप राममंदिर पर आए न्यायालय के फैसले से देख सकते हैं। पहले वामविचारी बुद्धिवादी कहते रहे न्यायालय का सम्मान कीजिए और अब न्यायालय के फैसले पर भी ये ही उंगली उठा रहे हैं। इनकी नजर में तो राम की कपोल कल्पना हैं। मिथक हैं। जनविश्वास और जनता इनके ठेंगें पर। किंतु आप तय मानिए कि राम अगर कल्पना हैं मिथक हैं तो भी इतिहास से सच्चे हैं , क्योंकि उनकी कथा गरीब जनता का कंठहार है। उनकी स्तुति और उनकी गाथा गाता हुआ भारतीय समाज अपने सारे दर्द भूल जाता है जो इस अन्यायी व्यवस्था ने उसे दिए हैं।

डा. विनायक सेन, माओवादी आतंकी नहीं हैं। वे बंदूक नहीं चलाते। अरूंधती राय भी नक्सलवादी नहीं हैं। अलीशाह गिलानी भी खुद पत्थर नहीं फेंकते। वे तो यहां तक नाजुक हैं कि नहीं चाहते कि उनका बेटा कश्मीर आकर उनकी विरासत संभाले और मुसीबतें झेले। क्योंकि उसके लिए तो गरीब मुसलमानों के तमाम बेटे हैं जो गिलानी की शह पर भारतीय राज्य पर पत्थर बरसाते रहेंगें, उसके लिए अपने बेटे की जान जोखिम में क्यों डाली जाए। इसी तरह बरवर राव भी खून नहीं बहाते, शब्दों की खेती करते हैं। लेकिन क्या ये सब मिलकर एक ऐसा आधार नहीं बनाते जिससे जनतंत्र कमजोर होता है, देश के प्रति गुस्सा भरता है। माओवाद को जानने वाले जानते हैं कि यह आखिर लड़ाई किस लिए है। इस बात को माओवादी भी नहीं छिपाते कि आखिर वे किसके लिए और किसके खिलाफ लड़ रहे हैं। बहुत साफ है कि उनकी लड़ाई हमारे लोकतंत्र के खिलाफ है और 2050 तक भारतीय राजसत्ता पर कब्जा करना उनका घोषित लक्ष्य है। यह बात सारा देश समझता है किंतु हमारे मासूम बुद्धिवादी नहीं समझते। उन्हें शब्दजाल बिछाने आते है। वे माओवादी आतंक को जनमुक्ति और जनयुद्घ जैसे खूबसूरत नाम देते हैं और चाहते हैं कि माओवादियों के पाप इस शब्दावरण में छिप जाएं। झूठ, फरेब और ऐसी बातें फैलाना जिससे नक्सलवाद के प्रति मन में सम्मान का भाव का आए यही माओवादी समर्थक विचारकों का लक्ष्य है। उसके लिए उन्होंने तमाम जनसंगठन बना रखे हैं, वे कुछ भी अच्छा नहीं करते ऐसा कहना कठिन है। किंतु वे माओवादियों के प्रति सहानुभूति रखते हैं और उन्हें महिमामंडित करने का कोई अवसर नहीं चूकते इसमें दो राय नहीं हैं। ये सारी बातें अंततः हमारे हमारे जनतंत्र के खिलाफ जाती हैं क्या इसमें कोई दो राय है।

देशतोड़कों की एकताः

देश को तोड़ने वालों की एकता ऐसी कि अरूंधती राय, वरवर राय, अली शाह गिलानी को एक मंच पर आने में संकोच नहीं हैं। आखिर कोई भी राज्य किसी को कितनी छूट दे सकता है। किंतु राज्य ने छूट दी और दिल्ली में इनकी देशद्रोही एकजुटता के खिलाफ केंद्र सरकार खामोश रही। यह लोकतंत्र ही है कि ऐसी बेहूदिगियां करते हुए आप इतरा सकते हैं। नक्सलवाद को जायज ठहराते बुद्धिजीवियों ने किस तरह मीडिया और मंचों का इस्तेमाल किया है इसे देखना है तो अरूंधती राय परिधटना को समझने की जरूरत है। यह सही मायने में मीडिया का ऐसा इस्तेमाल है जिसे राजनेता और प्रोपेगेंडा की राजनीति करने वाले अक्सर इस्तेमाल करते हैं। आप जो कहें उसे उसी रूप में छापना और दिखाना मीडिया की जिम्मेदारी है किंतु कुछ दिन बाद जब आप अपने कहे की अनोखी व्याख्याएं करते हैं तो मीडिया क्या कर सकता है। अरूंधती राय एक बड़ी लेखिका हैं उनके पास शब्दजाल हैं। हर कहे गए वाक्य की नितांत उलझी हुयी व्याख्याएं हैं। जैसे 76 सीआरपीएफ जवानों की मौत पर वे दंतेवाड़ा के लोगों को सलामभेजती हैं। आखिर यह सलाम किसके लिए है मारने वालों के लिए या मरनेवालों के लिए। ऐसी बौद्धिक चालाकियां किसी हिंसक अभियान के लिए कैसी मददगार होती हैं। इसे वे बेहतर समझते हैं जो शब्दों से खेलते हैं। आज पूरे देश में इन्हीं तथाकथित बुद्धिजीवियों ने ऐसा भ्रम पैदा किया है कि जैसे नक्सली कोई महान काम कर रहे हों। ये तो वैसे ही है जैसे नक्सली हिंसा हिंसा भवति। कभी हमारे देश में कहा जाता था वैदिकी हिंसा हिंसा भवति। सरकार ने एसपीओ बनाए, उन्हें हथियार दिए इसके खिलाफ गले फाड़े गए, लेख लिखे गए। कहा गया सरकार सीधे-साधे आदिवासियों का सैन्यीकरण कर रही। यही काम नक्सली कर रहे हैं, वे बच्चों के हाथ में हथियार दे रहे तो यही तर कहां चला जाता

लोकतंत्र में ही असहमति का सौंदर्य कायम-

बावजूद इसके कोई ऐसा नहीं कर सकता कि वह डा. विनायक सेन और उनके साथियों को रायपुर की एक अदालत द्वारा आजीवन कारावास दिए जाने पर खुशी मनाए। वैचारिक विरोधों की भी अपनी सीमाएं हैं। इसके अलावा देश में अभी और भी अदालतें हैं, मेरा भरोसा है कि डा. सेन अगर निरपराध होंगें तो उन्हें ऊपरी अदालतें दोषमुक्त कर देंगीं। किंतु मैं स्वामी अग्निवेश की तरह अदालत के फैसले को अपमानित करने वाली प्रतिक्रिया नहीं कर सकता। देश का एक जिम्मेदार नागरिक होने के नाते हमें अदालत और उसकी प्रक्रिया में भरोसा करना चाहिए, क्योंकि हमारा जनतंत्र हमें एक ऐसा वातावरण देता हैं, जहां आप व्यवस्था से लड़ सकते हैं। दिल पर हाथ रखकर सोचिए कि क्या माओवाद की लड़ाई हमारे जनतंत्र के खिलाफ नहीं है। अगर है तो हमारे ये समाजसेवी, बुद्धिजीवी, मानवाधिकार कार्यकर्ता, जनसंगठनों के लोग उनके प्रति सहानुभूति क्यों रख रहे हैं। क्या भारतीय राज्य को गिलानियों, माओवादियों, मणिपुर के मुईया, खालिस्तान समर्थकों के आगे हथियार डाल देने चाहिए और कहना चाहिए आइए आप ही राज कीजिए। इस देश को टुकड़ों में बांटने की साजिशों में लगे लोग ही ऐसा सोच सकते हैं। हम और आप नहीं। जनतंत्र कितना भी घटिया होगा किसी भी धर्म या अधिनायकवादी विचारधारा के राज से तो बेहतर है। महात्मा गांधी जिन्होंने कभी हिंसा का समर्थन नहीं किया, अरूँधती का बेशर्म साहस ही है जो नक्सलियों को बंदूकधारी गांधीवादी कह सकती हैं। ये सारा भी अरूंधती, गिलानी और उनकी मंडली इसलिए कर पा रही है, क्योंकि देश में लोकतंत्र है। अगर मैं लोकतंत्र में असहमति के इस सौंदर्य पर मुग्ध हूं- तो गलत क्या है। बस, इसी एक खूबी के चलते मैं किसी गिलानी के इस्लामिक राज्य, किसी छत्रधर महतो के माओराज का नागरिक बनने की किसी भी संभावना के खिलाफ खड़ा हूं। खड़ा रहूंगा।

शुक्रवार, 24 दिसंबर 2010

विनायक सेन, अरूंधती राय और माओवाद का सच!


दिल से पूछिए कि क्या माओवादियों की लड़ाई हमारे जनतंत्र के खिलाफ नहीं है

-संजय द्विवेदी

नहीं, कोई ऐसा नहीं कर सकता कि वह डा. विनायक सेन और उनके साथियों को रायपुर की एक अदालत द्वारा आजीवन कारावास दिए जाने पर खुशी मनाए। वैचारिक विरोधों की भी अपनी सीमाएं हैं। इसके अलावा देश में अभी और भी अदालतें हैं, मेरा भरोसा है कि डा. सेन अगर निरपराध होंगें तो उन्हें ऊपरी अदालतें दोषमुक्त कर देंगीं। किंतु मैं स्वामी अग्निवेश की तरह अदालत के फैसले को अपमानित करने वाली प्रतिक्रिया नहीं कर सकता। देश का एक जिम्मेदार नागरिक होने के नाते हमें अदालत और उसकी प्रक्रिया में भरोसा करना चाहिए, क्योंकि हमारा जनतंत्र हमें एक ऐसा वातावरण देता हैं, जहां आप व्यवस्था से लड़ सकते हैं। स्वामी अग्निवेश कहते हैं इस फैसले ने न्यायपालिका को एक मजाक बना दिया है। आप याद करें जब सुप्रीम कोर्ट ने डा. विनायक सेन को जमानत पर छोड़ा था तो इसे एक विजय के रूप में निरूपित किया गया था। अगर वह राज्य की हार थी तो यह भी डा. सेन की जीत नहीं है। हमें अपनी अदालतों और अपने तंत्र पर भरोसा तो करना ही होगा। आखिर क्या अदालतें हवा में फैसले करती हैं ? क्या इतने ताकतवर लोगों के खिलाफ सबूत गढ़े जा सकते हैं ? ये सारे सुविधा के सिद्धांत हैं कि फैसला आपके हक में हो तो गुडी-गुडी और न हो तो अदालतें भरोसे के काबिल नहीं हैं। भारतीय संविधान, जनतंत्र और अदालतों को न मानने वाले विचार भी यहां राहत की उम्मीद करते हैं, दरअसल यही लोकतंत्र का सौंदर्य है। यह लोकतंत्र का ही सौन्दर्य है कि रात-दिन देश तोड़ने के प्रयासों में लगी ताकतें भी हिंदुस्तान के तमाम हिस्सों में अपनी बात कहते हुए धूम रही हैं और देश का मीडिया का भी उनके विचारों को प्रकाशित कर रहा है।

जनतंत्र के खिलाफ है यह जंगः

माओवाद को जानने वाले जानते हैं कि यह आखिर लड़ाई किस लिए है। इस बात को माओवादी भी नहीं छिपाते कि आखिर वे किसके लिए और किसके खिलाफ लड़ रहे हैं। बहुत साफ है कि उनकी लड़ाई हमारे लोकतंत्र के खिलाफ है और 2050 तक भारतीय राजसत्ता पर कब्जा करना उनका घोषित लक्ष्य है। यह बात सारा देश समझता है किंतु हमारे मासूम बुद्धिवादी नहीं समझते। उन्हें शब्दजाल बिछाने आते है। वे माओवादी आतंक को जनमुक्ति और जनयुद्घ जैसे खूबसूरत नाम देते हैं और चाहते हैं कि माओवादियों के पाप इस शब्दावरण में छिप जाएं। झूठ, फरेब और ऐसी बातें फैलाना जिससे नक्सलवाद के प्रति मन में सम्मान का भाव का आए यही माओवादी समर्थक विचारकों का लक्ष्य है। उसके लिए उन्होंने तमाम जनसंगठन बना रख हैं, वे कुछ भी अच्छा नहीं करते ऐसा कहना कठिन है। किंतु वे माओवादियों के प्रति सहानुभूति रखते हैं और उन्हें महिमामंडित करने का कोई अवसर नहीं चूकते इसमें दो राय नहीं हैं।

देशतोड़कों की एकताः

देश को तोड़ने वालों की एकता ऐसी कि अरूंधती राय, वरवर राय, अली शाह गिलानी को एक मंच पर आने में संकोच नहीं हैं। आखिर कोई भी राज्य किसी को कितनी छूट दे सकता है। किंतु राज्य ने छूट दी और दिल्ली में इनकी देशद्रोही एकजुटता के खिलाफ केंद्र सरकार खामोश रही। यह लोकतंत्र ही है कि ऐसी बेहूदिगियां करते हुए आप इतरा सकते हैं। नक्सलवाद को जायज ठहराते बुद्धिजीवियों ने किस तरह मीडिया और मंचों का इस्तेमाल किया है इसे देखना है तो अरूंधती राय परिधटना को समझने की जरूरत है। यह सही मायने में मीडिया का ऐसा इस्तेमाल है जिसे राजनेता और प्रोपेगेंडा की राजनीति करने वाले अक्सर इस्तेमाल करते हैं। आप जो कहें उसे उसी रूप में छापना और दिखाना मीडिया की जिम्मेदारी है किंतु कुछ दिन बाद जब आप अपने कहे की अनोखी व्याख्याएं करते हैं तो मीडिया क्या कर सकता है। अरूंधती राय एक बड़ी लेखिका हैं उनके पास शब्दजाल हैं। हर कहे गए वाक्य की नितांत उलझी हुयी व्याख्याएं हैं। जैसे 76 सीआरपीएफ जवानों की मौत पर वे दंतेवाड़ा के लोगों को सलामभेजती हैं। आखिर यह सलाम किसके लिए है मारने वालों के लिए या मरनेवालों के लिए। पिछले दिनों अरूधंती ने अपने एक लेख में लिखा हैः मैंने साफ कर दिया था कि सीआरपीएफ के जवानों की मौत को मैं एक त्रासदी के रूप में देखती हूं और मैं मानती हूं कि वे गरीबों के खिलाफ अमीरों की लड़ाई में सिर्फ मोहरा हैं। मैंने मुंबई की बैठक में कहा था कि जैसे-जैसे यह संघर्ष आगे बढ़ रहा है, दोनों ओर से की जाने वाली हिंसा से कोई भी नैतिक संदेश निकालना असंभव सा हो गया है। मैंने साफ कर दिया था कि मैं वहां न तो सरकार और न ही माओवादियों द्वारा निर्दोष लोगों की हत्या का बचाव करने के लिए आई हूं।
ऐसी बौद्धिक चालाकियां किसी हिंसक अभियान के लिए कैसी मददगार होती हैं। इसे वे बेहतर समझते हैं जो शब्दों से खेलते हैं। आज पूरे देश में इन्हीं तथाकथित बुद्धिजीवियों ने ऐसा भ्रम पैदा किया है कि जैसे नक्सली कोई महान काम कर रहे हों।

नक्सली हिंसा, हिंसा न भवतिः

ये तो वैसे ही है जैसे नक्सली हिंसा हिंसा न भवति। कभी हमारे देश में कहा जाता था वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति। सरकार ने एसपीओ बनाए, उन्हें हथियार दिए इसके खिलाफ गले फाड़े गए, लेख लिखे गए। कहा गया सरकार सीधे-साधे आदिवासियों का सैन्यीकरण कर रही। यही काम नक्सली कर रहे हैं, वे बच्चों के हाथ में हथियार दे रहे तो यही तर्क कहां चला जाता है। अरूंधती राय के आउटलुक में छपे लेख को पढ़िए और बताइए कि वे किसके साथ हैं। वे किसे गुमराह कर रही हैं। अरूंधती इसी लेख में लिखती हैं -क्या यह ऑपरेशन ग्रीनहंट का शहरी अवतार है, जिसमें भारत की प्रमुख समाचार एजेंसी उन लोगों के खिलाफ मामले बनाने में सरकार की मदद करती है जिनके खिलाफ कोई सबूत नहीं होते? क्या वह हमारे जैसे कुछ लोगों को वहशी भीड़ के सुपुर्द कर देना चाहती है, ताकि हमें मारने या गिरफ्तार करने का कलंक सरकार के सिर पर न आए।या फिर यह समाज में ध्रुवीकरण पैदा करने की साजिश है कि यदि आप हमारेसाथ नहीं हैं, तो माओवादी हैं। आखिर अरूंधती यह करूणा भरे बयान क्यों जारी कर रही हैं। उन्हें किससे खतरा है। मुक्तिबोध ने भी लिखा है अभिव्यक्ति के खतरे तो उठाने ही होंगें। महान लेखिका अगर सच लिख और कह रही हैं तो उन्हें भयभीत होने की जरूरत नहीं हैं। नक्सलवाद के खिलाफ लिख रहे लोगों को भी यह खतरा हो सकता है। सो खतरे तो दोनों ओर से हैं। नक्सलवाद के खिलाफ लड़ रहे लोग अपनी जान गवां रहे हैं, खतरा उन्हें ज्यादा है। भारतीय सरकार जिनके हाथ अफजल गुरू और कसाब को भी फांसी देते हुए कांप रहे हैं वो अरूंधती राय या उनके समविचारी लोगों का क्या दमन करेंगी। हाल यह है कि नक्सलवाद के दमन के नाम पर आम आदिवासी तो जेल भेज दिया जाता है पर असली नक्सली को दबोचने की हिम्मत हममें कहां है। इसलिए अगर आप दिल से माओवादी हैं तो निश्चिंत रहिए आप पर कोई हाथ डालने की हिम्मत कहां करेगा। हमारी अब तक की अर्जित व्यवस्था में निर्दोष ही शिकार होते रहे हैं।

सदके इन मासूम तर्कों केः

अरूंधती इसी लेख में लिख रही हैं- “26 जून को आपातकाल की 35वीं सालगिरह है। भारत के लोगों को शायद अब यह घोषणा कर ही देनी चाहिए कि देश आपातकाल की स्थिति में है (क्योंकि सरकार तो ऐसा करने से रही)। इस बार सेंसरशिप ही इकलौती दिक्कत नहीं है। खबरों का लिखा जाना उससे कहीं ज्यादा गंभीर समस्या है।क्या भारत मे वास्तव में आपातकाल है, यदि आपातकाल के हालात हैं तो क्या अरूंधती राय आउटलुक जैसी महत्वपूर्ण पत्रिका में अपने इतने महान विचार लिखने के बाद मुंबई में हिंसा का समर्थन और गांधीवाद को खारिज कर पातीं। मीडिया को निशाना बनाना एक आसान शौक है क्योंकि मीडिया भी इस खेल में शामिल है। यह जाने बिना कि किस विचार को प्रकाशित करना, किसे नहीं, मीडिया उसे स्थान दे रहा है। यह लोकतंत्र का ही सौंदर्य है कि आप लोकतंत्र विरोधी अभियान भी इस व्यवस्था में चला सकते हैं। नक्सलियों के प्रति सहानुभूति रखते हुए नक्सली आंदोलन के महान जनयुद्ध पर पन्ने काले कर सकते हैं। मीडिया का विवेकहीनता और प्रचारप्रियता का इस्तेमाल करके ही अरूंधती राय जैसे लोग नायक बने हैं अब वही मीडिया उन्हें बुरा लग रहा है। अपने कहे पर संयम न हो तो मीडिया का इस्तेमाल करना सीखना चाहिए।
अरूंधती कह रही हैं कि मैंने कहा था कि जमीन की कॉरपोरेट लूट के खिलाफ लोगों का संघर्ष कई विचारधाराओं से संचालित आंदोलनों से बना है, जिनमें माओवादी सबसे ज्यादा मिलिटेंट हैं। मैंने कहा था कि सरकार हर किस्म के प्रतिरोध आंदोलन को, हर आंदोलनकारी को माओवादीकरार दे रही है ताकि उनसे दमनकारी तरीकों से निपटने को वैधता मिल सके।

कारपोरेट लूट पर पलता माओवादः

अरूंधती के मुताबिक माओवादी कारपोरेट लूट के खिलाफ काम कर रहे हैं। अरूंधती जी पता कीजिए नक्सली कारपोरेट लाबी की लेवी पर ही गुजर-बसर कर रहे हैं। नक्सल इलाकों में आप अक्सर जाती हैं पर माओवादियों से ही मिलती हैं कभी वहां काम करने वाले तेंदुपत्ता ठेकेदारों, व्यापारियों, सड़क निर्माण से जुड़े ठेकेदारों, नेताओं और अधिकारियों से मिलिए- वे सब नक्सलियों को लेवी देते हुए चाहे जितना भी खाओ स्वाद से पचाओ के मंत्र पर काम कर रहे हैं। आदिवासियों के नाम पर लड़ी जा रही इस जंग में वे केवल मोहरा हैं। आप जैसे महान लेखकों की संवेदनाएं जाने कहां गुम हो जाती हैं जब ज्ञानेश्वरी एक्सप्रेस पर लाल आतंक के चलते सैकड़ों परिवार तबाह हो जाते हैं। राज्य की हिंसा का मंत्रजाप छोड़कर अपने मिलिंटेंट साथियो को समझाइए कि वे कुछ ऐसे काम भी करें जिससे जनता को राहत मिले। स्कूल में टीचर को पढ़ाने के लिए विवश करें न कि उसे दो हजार की लेवी लेकर मौज के लिए छोड़ दें। राशन दुकान की मानिटरिंग करें कि छत्तीसगढ में पहले पचीस पैसे किलो में अब फ्री में मिलने वाला नमक आदिवासियों को मिल रहा है या नहीं। वे इस बात की मानिटरिंग करें कि एक रूपए में मिलने वाला उनका चावल उन्हें मिल रहा है या उसे व्यापारी ब्लैक में बेच खा रहे हैं। किंतु वे ऐसा क्यों करेंगें। आदिवासियों के वास्तविक शोषक, लेवी देकर आज नक्सलियों की गोद में बैठ गए हैं। इसलिए तेंदुपत्ता का व्यापारी, नेता, अफसर, ठेकेदार सब नक्सलियों के वर्गशत्रु कहां रहे। जंगल में मंगल हो गया है। ये इलाके लूट के इलाके हैं। आप इस बात का भी अध्ययन करें नक्सलियों के आने के बाद आदिवासी कितना खुशहाल या बदहाल हुआ है। आप नक्सलियों के शिविरों पर मुग्ध हैं, कभी सलवा जुडूम के शिविरों में भी जाइए। आपकी बात सुनी,बताई और छापी जाएगी। क्योंकि आप एक सेलिब्रिटी हैं। मीडिया आपके पीछे भागता है। पर इन इलाकों में जाते समय किसी खास रंग का चश्मा पहन कर न जाएं। खुले दिल से, मुक्त मन से, उसी आदिवासी की तरह निर्दोष बनकर जाइएगा जो इस जंग में हर तरफ से पिट रहा है।

परमपवित्र नहीं हैं सरकारें:

सरकारें परम पवित्र नहीं होतीं। किंतु लोकतंत्र के खिलाफ अगर कोई जंग चल रही है तो आप उसके साथ कैसे हो सकते हैं। जो हमारे संविधान, लोकतंत्र को खारिज तक 2050 तक माओ का राज लाना चाहते हैं तो हमारे बुद्धिजीवी उनके साथ क्यों खड़े हैं। हमें पता है कि साम्यवादी या माओवादी शासन में पहला शिकार कलम ही होती है। फिर भी ये लोग वहां क्या कर रहें हैं? जाहिर तौर ये बुद्धिजीवी नहीं, सामाजिक कार्यकर्ता नहीं, ये काडर हैं जो जानते हैं कि वे क्या कर रहे हैं, फिर भी किए जा रहे हैं क्योंकि उनके निशाने पर भारतीय जनतंत्र है।

बुधवार, 22 दिसंबर 2010

‘लोक’ मीडिया के लिए डाउन मार्केट चीजः संजय द्विवेदी


लोकसाहित्य और मीडिया विषय पर व्याख्यान

मुलताई (बैतूल-मप्र)। माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय, भोपाल में जनसंचार विभाग के अध्यक्ष एवं मीडिया विश्लेषक संजय द्विवेदी का कहना है कि लोक मीडिया के लिए डाउन मार्केट चीज है। लोक का बिंब जब हमारी आंखों में ही नहीं है तो उसका प्रतिबिंब क्या बनेगा। वे यहां मुलताई के शासकीय महाविद्यालय में लोकसाहित्य के विविध आयामविषय पर आयोजित दो दिवसीय राष्ट्रीय शोध संगोष्ठी के समापन सत्र में लोकसाहित्य और मीडिया विषय पर अपने विचार व्यक्त कर रहे थे। संगोष्ठी के विशिष्ट अतिथि की आसंदी से उन्होंने कहा कि लोक को विद्वान कितना भी जटिल मानें, उत्तरआधुनिकतावादी उसे अश्पृश्य मानें, किंतु उसकी ताकत को नहीं नकारा जा सकता।

उन्होंने कहा कि सारी दुनिया को एक रंग में रंग देने की कोशिश खतरनाक है। जबकि राइट टू डिफरेंट एक मानवीय विचार है और इसे अपनाया जाना चाहिए। उनका कहना था कि कोई भी समाज सिर्फ आधुनिकताबोध के साथ नहीं जीता, उसकी सांसें तो लोक में ही होती हैं। भारतीय जीवन की मूल चेतना तो लोकचेतना ही है। नागर जीवन के समानांतर लोक जीवन का भी विपुल विस्तार है। खासकर हिंदी का मन तो लोकविहीन हो ही नहीं सकता। हिंदी के सारे बड़े कवि तुलसीदास, कबीर, रसखान, मीराबाई, सूरदास लोक से ही आते हैं। नागरबोध आज भी हिंदी जगत की उस तरह से पहचान नहीं बन सका है।

श्री द्विवेदी ने कहा कि लोकचेतना तो वेदों से भी पुरानी है। क्योंकि हमारी परंपरा में ही ज्ञान बसा हुआ है। ज्ञान, नीति-नियम, औषधियां, गीत, कथाएं, पहेलियां सब कुछ इसी लोक का हिस्सा हैं। हिंदी अकेली भाषा है जिसका चिकित्सक भी कविराय कहा जाता था। उनका कहना था कि बाजार आज सारे मूल्य तय कर रहा है और यह लोक को नष्ट करने का षडयंत्र है। यह सही मायने में बिखरी और कमजोर आवाजों को दबाने का षडयंत्र भी है। इसका सबसे बड़ा शिकार हमारी बोलियां बन रही हैं, जिनकी मौत का खतरा मंडरा रहा है। अंडमान की बोनाम की भाषा खत्म होने के साथ इसका सिलसिला शुरू हो गया है। भारतीय भाषाओं और बोलियों के सामने यह सबसे खतरनाक समय है। उन्होंने आज के मुख्यधारा मीडिया के मीडिया के पास इस संदर्भों पर काम करने का अवकाश नहीं है। किंतु समाज के प्रतिबद्ध पत्रकारों, साहित्यकारों को आगे आकर इस चुनौती को स्वीकार करने की जरूरत है क्योंकि लोक की उपेक्षा और बोलियों को नष्ट कर हम अपनी प्रदर्शन कलाओं, गीतों, शिल्पों और विरासतों को गंवा रहे हैं। जबकि इसके संरक्षण की जरूरत है।

समापन समारोह की मुख्यअतिथि प्रख्यात साहित्यकार डा. विद्याविंदु सिंह (लखनऊ) ने कहा कि लोकचेतना को जागृत करके ही संवेदनाएं बचाई जा सकती हैं और संवेदना से ही कोई समाज शक्तिशाली होता है। इससे देश की एकता भी मजबूत होगी। उन्होंने नई पीढ़ी से अपील की वे गांवों में जाएं और लोकसाहित्य के संरक्षण के प्रयासों में लगें। उनका संग्रहण करें और अपनी इस विरासत को बचा लें। कार्यक्रम का संचालन छत्तीसगढ़ महाविद्यालय, रायपुर में प्रोफेसर डा.सुभद्रा राठौर ने किया। आभार प्रदर्शन प्राचार्य डा. वर्षा खुराना ने किया। समापन समारोह में महाविद्यालय की जनभागीदारी समिति के अध्यक्ष ऐनलाल जैन, मीता अग्रवाल(राजनांदगांव-छत्तीसगढ़), डा.गिरिजा अग्रवाल ,डा. छेदीलाल कांस्यकार (औरंगाबाद-बिहार), डा. सुरेश माहेश्वरी (अमलनेर-महाराष्ट्र) ने भी अपने विचार व्यक्त किए।

शनिवार, 18 दिसंबर 2010

राहुल गांधीः तेरी रहबरी का सवाल है


अपने विवादित बयानों से अलोकप्रिय हो रहे हैं युवराज

-संजय द्विवेदी

अपने बेहद निष्पाप चेहरे और अपने पिता की भुवनमोहिनी छवि के अलावा राहुल गांधी कांग्रेस की एक ऐसी संभावना का नाम है जिसने बहुत कम समय में अपने प्रयासों से देश का ध्यान अपनी ओर खींचा है। अपने बेहद संकोची स्वभाव और सत्ता के प्रति आसक्ति न दिखाकर उन्होंने यह साबित किया कि वे एक अलग माटी के बने हैं। देश को जानने की उनकी ललक, प्रश्नाकुलता, कांग्रेस जैसे जड़ संगठन में युवा कांग्रेस और एनएसयूआई के चुनाव कराने की शुरूआत कर उन्होंने जताया कि उनमें श्रम, रचनाशीलता और इंतजार तीनों है। देश की इसी संभावना के परखच्चे विकिलीक्स उड़ा रहा है। विकिलीक्स की खबरों पर कितना और कैसा भरोसा किया जाए, इस प्रश्न के बावजूद भी राहुल गांधी ने हिंदू आतंकवाद के बारे में जो कुछ कहा है, उससे उनकी बचकानी समझ का पता चलता है। लश्करे तैयबा जैसे संगठनों से हिंदु संगठनों की तुलना एक ऐसा अपराध है, जिसका पता शायद राहुल गांधी को भी न हो। हालांकि वे सिमी और आरएसएस की तुलना भी करते रहे हैं। जाहिर तौर पर राहुल इस तरह के बयानों से अपनी बेहतर संभावनाओं के दरवाजे स्वयं बंद कर रहे हैं।

जिस दौर में विकास की राजनीति और गर्वेंनेस के सवाल सबसे प्रमुख राजनीतिक एजेंडा बन चुके हों, उस समय में एक बार फिर सांप्रदायिक राजनीति की शुरूआत उचित नहीं कही जा सकती। कांग्रेस का सांप्रदायिकता को लेकर ट्रेक बहुत बेहतर नहीं रहा है किंतु राहुल गांधी जैसे नई और ताजी सोच के नेता भी उन्हीं कटघरों में कैद होकर रह जाएं तो यह बात चिंता में डालने वाली है। जिन नरेंद्र मोदी से राहुल गांधी को बहुत परेशानी है वे भी विकास के एजेंडें के सबसे बड़े झंडाबरदार हैं। आतंकवाद एक वैश्विक प्रश्न है और इसके कुप्रभावों को पूरी दुनिया भुगत रही है। जेहादी आतंकवाद का एक वीभत्स चेहरा है जिसे खारिज करने की जरूरत है किंतु क्या राहुल का बयान इसमें हमारी मदद करता है। यह सोचने की जरूरत है। आतंकवाद को आस्था के आधार पर बांटने की कोई भी कोशिश हमें कमजोर ही करेगी, क्योंकि हम आतंकवाद के सबसे बड़े शिकार देश हैं। आतंकवाद की विश्वस्वीकृत परिभाषाओं और उसके पीछे छिपे विचारों को राहुल को पढ़ना चाहिए। आतंकवाद को किस तरह से विचारधाराओं और पंथों का आवरण पहनाकर उसे जस्टीफाई किया जा रहा है उसे भी जानने की जरूरत है। किंतु क्या राहुल के पास इतना इंतजार है कि वे बोलने के पहले संदर्भों को जान भी लें। भारत की राजसत्ता पर राज कर रहे, देश के सबसे बड़े राजनीतिक दल के एक प्रभावी नेता होने के नाते उनके कथनों का अपना महत्व है। जबकि वे भारत के प्रधानमंत्री पद की दौड़ में शामिल हैं तो उन्हें तो अपने वचनों को लेकर और भी गंभीर रूख अख्तियार करना चाहिए। क्योंकि दिग्विजय सिंह और पी. चिदंबरम के बयानों से तो कांग्रेस अपने को अलग कर सकती है किंतु राहुल गांधी के बयानों से वह खुद को अलग कैसे कर सकती है। राहुल को जानना होगा कि आतंकवाद और सांप्रदायिकता क्या एक ही चीजें हैं। क्या आतंकवाद और सांप्रदायिकता को एक मानकर की गयी किसी टिप्पणी का कोई मायने है। हिंदुत्व के विचार को आतंकी ठहराने की होड़ दरअसल कांग्रेस की उसी वोट बैंक की भूखी मानसिकता की उपज है जिसका वो सालों साल से इस्तेमाल करती आयी है। राहुल अगर देश में नई राजनीति के प्रारंभकर्ता बनना चाहते हैं तो उन्हें इससे बचना होगा। अन्यथा वो भी उन्हीं सामान्य नेताओं की तरह सुर्खियां तो बटोर सकते हैं किंतु उनके पास लंबा रास्ता न होगा। देश के भावी शासक होने के नाते राहुल गांधी को देश के इतिहास, संस्कृति और राजनय की गंभीर समझ विकसित करनी होगी। वरना ये स्थितियां उन्हें उपहास का पात्र ही बनाएंगीं। अगर उनकी यही समझ है कि जेहादी आतंकवादियों से ज्यादा खतरनाक हिंदू संगठन हैं तो इस बात पर कोई भी मुस्कराएगा। जाहिर तौर पर उनका यह बयान उनकी बेहद सामान्य समझ को प्रकट करता है। यह बेहतर है कि वे लिखा हुआ वक्तव्य ही दें। वैसे भी देश के अहम सवालों पर राहुल की प्रतिभा अभी प्रकट नहीं हुयी है।हम देखें तो राहुल गांधी की छवि बनाई ज्यादा जा रही है, उसमें स्वाभाविकता कम है। मनमोहन सिंह जहां भारत में विदेशी निवेश और उदारीकरण के सबसे बड़े झंडाबरदार हैं वहीं राहुल गांधी की छवि ऐसी बनाई जा रही है जैसे उदारीकरण की इस आंधी में वे आदिवासियों और किसानों के सबसे बड़े खैरख्वाह हैं। कांग्रेस में ऐसे विचारधारात्मक द्वंद नयी बात नहीं हैं किंतु यह मामला नीतिगत कम, रणनीतिगत ज्यादा है। आखिर क्या कारण है कि जिस मनमोहन सिंह की अमीर-कारपोरेट-बाजार और अमरीका समर्थक नीतियां जगजाहिर हैं वे ही आलाकमान के पसंदीदा प्रधानमंत्री हैं। और इसके उलट उन्हीं नीतियों और कार्यक्रमों के खिलाफ काम कर राहुल गांधी अपनी छवि चमका रहे हैं। क्या कारण है जब परमाणु करार और परमाणु संयंत्र कंपनियों को राहत देने की बात होती है तो मनमोहन सिंह अपनी जनविरोधी छवि बनने के बावजूद ऐसा व्यवहार करते हैं जैसे उन्हें फ्री-हैंड दे दिया गया है। ऐसे विवादित विमर्शों से राहुल जी दूर ही रहते हैं। किंतु जब आदिवासियों और किसानों को राहत देने की बात आती है तो सरकार कोई भी धोषणा तब करती है जब राहुल जी प्रधानमंत्री के पास जाकर अपनी मांग प्रस्तुत करते हैं। क्या कांग्रेस की सरकार में गरीबों और आदिवासियों के लिए सिर्फ राहुल जी सोचते हैं ? क्या पूरी सरकार आदिवासियों और दलितों की विरोधी है कि जब तक उसे राहुल जी याद नहीं दिलाते उसे अपने कर्तव्य की याद भी नहीं आती ? ऐसे में यह कहना बहुत मौजूं है कि राहुल गांधी ने अपनी सुविधा के प्रश्न चुने हैं और वे उसी पर बात करते हैं। असुविधा के सारे सवाल सरकार के हिस्से हैं और उसका अपयश भी सरकार के हिस्से। राहुल स्पेक्ट्रम घोटाले, बढ़ती महंगाई, पेट्रोल-डीजल की कीमतों पर कोई बात नहीं करते, वे भोपाल त्रासदी पर कुछ नहीं कहते, वे काश्मीर के सवाल पर खामोश रहते हैं, वे मणिपुर पर खामोश रहे, वे परमाणु करार पर खामोश रहे,वे अपनी सरकार के मंत्रियों के भ्रष्टाचार और राष्ट्रमंडल खेलों में मचे धमाल पर चुप रहते हैं, वे आतंकवाद और नक्सलवाद के सवालों पर अपनी सरकार के नेताओं के द्वंद पर भी खामोशी रखते हैं, यानि यह उनकी सुविधा है कि देश के किस प्रश्न पर अपनी राय रखें। इस सबके बावजूद वे अगर देश के सामने मौजूद कठिन सवालों से बचकर चल रहे हैं तो भी देर सबेर तो इन मुद्दों से उन्हें मुठभेड़ करनी ही होगी। कांग्रेस की सरकार और उसके प्रधानमंत्री आज कई कारणों से अलोकप्रिय हो रहे हैं। कांग्रेस जैसी पार्टी में राहुल गांधी यह कहकर नहीं बच सकते कि ये तो मनमोहन सिंह के कार्यकाल का मामला है। क्योंकि देश के लोग मनमोहन सिंह के नाम पर नहीं गांधी परिवार के उत्तराधिकारियों के नाम पर वोट डालते हैं। ऐसे में सरकार के कामकाज का असर कांग्रेस पर नहीं पड़ेगा, सोचना बेमानी है। किंतु राहुल गांधी ने इन दिनों जैसा रवैया अख्तियार किया है उससे उनके प्रति सहानुभूति और संवेदना रखने वालों की संख्या में कमी आ रही है। क्योंकि कहीं भी वे देश के सवालों पर जन के साथ नहीं दिखते और सांप्रदायिक सवालों को उठाकर अपनी लाइन बड़ी करना चाहते हैं। ऐसे में उस परंपरागत छवि को चोट पहुंच रही है, जिसमें वे बेहद मर्यादित और संयत दिखते हैं। इस प्रसंग पर राहुल गांधी पर यह शेर मौंजू है-

तू इधर-उधर की न बात कर, ये बता कि कारवां क्यों लुटा

मुझे रहबरों से गिला नहीं, तेरी रहबरी का सवाल है।

शनिवार, 4 दिसंबर 2010

सूचनाएं आ रही हैं हमें आईना दिखाने


- संजय द्विवेदी

सूचनाएं अब मुक्त हैं। वे उड़ रही हैं इंटरनेट के पंखों। कई बार वे असंपादित भी हैं, पाठकों को आजादी है कि वे सूचनाएं लेकर उसका संपादित पाठ स्वयं पढ़ें। सूचना की यह ताकत अब महसूस होने लगी है। विकिलीक्स के संस्थापक जूलियन असांजे अब अकेले नहीं हैं, दुनिया के तमाम देशों में सैकड़ों असांजे काम कर रहे हैं। इस आजादी ने सूचनाओं की दुनिया को बदल दिया है। सूचना एक तीक्ष्ण और असरदायी हथियार बन गयी है। क्योंकि वह उसी रूप में प्रस्तुत है, जिस रूप में उसे पाया गया है। ऐसी असंपादित और तीखी सूचनाएं एक असांजे के इंतजार में हैं। ये दरअसल किसी भी राजसत्ता और निजी शक्ति के मायाजाल को तोड़कर उसका कचूमर निकाल सकती हैं। क्योंकि एक असांजे बनने के लिए आपको अब एक लैपटाप और नेट कनेक्शन की जरूरत है। याद करें विकिलीक्स के संस्थापक असांजे भी एक यायावर जीवन जीते हैं। उनके पास प्रायः एक लैपटाप और दो पिठ्ठू बैग ही रहते हैं।

इस समय, सूचना नहीं सूचना तंत्र की ताकत के आगे हम नतमस्तक खड़े हैं। यह बात हमने आज स्वीकारी है, पर कनाडा के मीडिया विशेषज्ञ मार्शल मैकुलहान को इसका अहसास साठ के दशक में ही हो गया था। तभी शायद उन्होंने कहा था कि मीडियम इज द मैसेजयानी माध्यम ही संदेश है।मार्शल का यह कथन सूचना तंत्र की महत्ता का बयान करता है। आज का दौर इस तंत्र के निरंतर बलशाली होते जाने का समय है। विकिलीक्स नाम की वेबसाइट इसका प्रमाण है जिसने पूरी दुनिया सहित सबसे मजबूत अमरीकी सत्ता को हिलाकर रख दिया है। एक लोकतंत्र होने के नाते अमरीकी कूटनीति के अपने तरीके हैं और वह दुनिया के भीतर अपनी साफ छवि बनाए रखने के लिए काफी जतन करता है। किंतु विकिलीक्स की विस्फोटक सूचनाएं उसके इस प्रयास को तार-तार कर देती हैं। हेलेरी क्लिंटन की बौखलाहट को इसी परिपेक्ष्य में देखा जाना चाहिए।

अमरीका कुछ भी कहे या स्थापित करने का प्रयास करे, किंतु पूरी दुनिया का नजरिया उसकी ओर देखने का अलग ही है। इन खुलासों में उसे बहुत नुकसान होगा यह तो नहीं कहा जा सकता क्योंकि उसके बारे में ऐसी सूचनाएं अब तक दबी जुबान से कही जाती रही हैं, विकिलीक्स ने उस पर मुहर लगा दी है। सही मायने में यह सूचनाओं की विलक्षण आजादी का समय है। इंटरनेट ने सीमाओं को तोड़कर संवाद को जिस तरह सहज बनाया है, उसने संचार को सही मायने में लोकतांत्रिक बना दिया है। इस स्पेस को मजबूत से मजबूत सत्ताएं भेद नहीं सकतीं। विकिलीक्स से लेकर हिंदुस्तान में तहलका जैसे प्रयोग इसके प्रमाण हैं। आज ये सूचनाएं जिस तरह सजकर सामने आ रही हैं कल तक ऐसा करने की हम सोच भी नहीं सकते थे। संचार क्रांति ने इसे संभव बनाया है। नई सदी की चुनौतियां इस परिप्रेक्ष्य में बेहद विलक्षण हैं। इस सदी में यह सूचना तंत्र या सूचना प्रौद्योगिकी ही हर युद्ध की नियामक है, जाहिर है नई सदी में लड़ाई हथियारों से नहीं सूचना की ताकत से होगी। जर्मनी को याद करें तो उसने पहले और दूसरे विश्वयुद्ध के पूर्व जो ऐतिहासिक जीतें दर्जे की वह उसकी चुस्त-दुरुस्त टेलीफोन व्यवस्था का ही कमाल था। सूचना आज एक तीक्ष्ण और असरदायी हथियार बन गई है।

सत्तर के दशक में तो पूंजीवादी एवं साम्यवादी व्यवस्था के बीच चल रही बहस और जंग इसी सूचना तंत्र पर लड़ी गई, एक-दूसरे के खिलाफ इस्तेमाल होता यह सूचना तंत्र आज अपने आप में एक निर्णायक बन गया है। समाज-जीवन के सारे फैसले यह तंत्र करवा रहा है। सच कहें तो इन्होंने अपनी एक अलग समानांतर सत्ता स्थापित कर ली है। रूस का मोर्चा टूट जाने के बाद अमरीका और उसके समर्थक देशों की बढ़ी ताकत ने सूचना तंत्र के एकतरफा प्रवाह को ही बल दिया है। सूचना तंत्र पर प्रभावी नियंत्रण ने अमरीकी राजसत्ता और उसके समर्थकों को एक कुशल व्यापारी के रूप में प्रतिष्ठित किया है। बाजार और सूचना के इस तालमेल में पैदा हुआ नया चित्र हतप्रभ करने वाला है। पूंजीवादी राजसत्ता इस खेल में सिंकदर बनी है। ये सूचना तंत्र एवं पूंजीवादी राजसत्ता का खेल आप खाड़ी युद्ध और उसके बाद हुई संचार क्रांति से समझ सकते हैं। आज तीसरी दुनिया को संचार क्रांति की जरूरतों बहुत महत्वपूर्ण बताई जा रही है। अस्सी के दशक तक जो चीज विकासशील देशों के लिए महत्व की न थी वह एकाएक महत्वपूर्ण क्यों हो गई । खतरे का बिंदू दरअसल यही है। मंदीग्रस्त अर्थव्यवस्था से ग्रस्त पश्चिमी देशों को बाजार की तलाश तथा तीसरी दुनिया को देशों में खड़ा हो रहा, क्रयशक्ति से लबरेज उपभोक्ता वर्ग वह कारण हैं जो इस दृश्य को बहुत साफ-साफ समझने में मदद करते हैं । पश्चिमी देशों की यही व्यावसायिक मजबूरी संचार क्रांति का उत्प्रेरक तत्व बनी है। हम देखें तो अमरीका ने लैटिन देशों को आर्थिक, सांस्कृतिक रूप से कब्जा कर उन्हें अपने ऊपर निर्भर बना लिया। अब पूरी दुनिया पर इसी प्रयोग को दोहराने का प्रयास जारी है। निर्भरता के इस तंत्र में अंतर्राट्रीय संवाद एजेंसियां, विज्ञापन एजेसियां, जनमत संस्थाएं, व्यावसायिक संस्थाए मुद्रित एवं दृश्य-श्रवण सामग्री, अंतर्राष्ट्रीय दूरसंचार कंपनियां, अंतर्राष्ट्रीय सुरक्षा एजेंसियां सहायक बनी रही हैं।

लेकिन ध्यान दें कि सूचनाएं अब पश्चिम के ताकतवर देशों की बंधक नहीं रह सकती। उन्होंने अपना निजी गणतंत्र रच लिया है। वे उड़ रही हैं। ताकतवरों की असली कहानियां कह रही हैं। वे बता रही हैं- अमरीका किस तरह का जनतंत्र है। उसकी कथनी और करनी के अंतर क्या हैं। यह दरअसल सूचनाओं का लोकतंत्र है। इसका स्वागत कीजिए। क्योंकि किसी भी देश में अगर लोकतंत्र है तो उसे सूचनाओं के जनतंत्र का स्वागत करना ही पड़ेगा। अब सूचनाएं अमरीका और पश्चिमी मीडिया कंपनियों की बंधक नहीं रहीं, वे आकाश मार्ग से आ रही हैं हमको, आपको, सबको आईना दिखाने। वह बताने के लिए कि जो हम नहीं जानते। इसलिए विकिलीक्स के खुलासों पर चौंकिए मत, नीरा राडिया के फोन टेपों पर आश्चर्य मत कीजिए, अब यह सिलसिला बहुत आम होने वाला है। फेसबुक ब्लाग और ट्विटर ने जिस तरह सूचनाओं का लोकतंत्रीकरण किया है उससे प्रभुवर्गों के सारे रहस्य लोकों की लीलाएं बहुत जल्दी सरेआम होगीं। काले कारनामों की अंधेरी कोठरी से निकलकर बहुत सारे राज जल्दी ही तेज रौशनी में चौंधियाते नजर आएगें। बस हमें, थोड़े से जूलियन असांजे चाहिए।